एकाकी जीवन है
मेरा
पर्वत तेरे जैसा
कभी लगे
झरने तेरे जैसा
कभी लगे
बादल तेरे जैसा
उमड़ घुमड़ कर
दुःख आते हैं
मन को दुःख दे
छल जाते हैं
कभी अंतः
सुख बरसाते हैं
दिल कहता है
दुःख नहीं चाहियें
अंतः कहता
सुख नहीं चाहियें
अंतः
मन दोनों एकाकी है
जीवन
तन दोनों एकाकी है
तब मैं भी तो
एकाकी हूँ
जीवन डोर
प्रभु को सौंपी
मन, अंतः को
दिया भुलाय
बादल तुझसे
झरने तुझसे
अपना जीवन
लिया मिलाय
बहते रहना
बरसते नयना को
अब लिया है
अपनाय...
वाह ... बहुत ही बढिया ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
जवाब देंहटाएंपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
बहुत ही बेहतरीन सुन्दर प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंlatest post कोल्हू के बैल
latest post धर्म क्या है ?
सुन्दर भावों से पूर्ण काविता!
जवाब देंहटाएंएकाकी जीवन ही अनुभवों से गुजरता है .... अनुभव जीने के उपक्रम बन जाते हैं
जवाब देंहटाएंबरसते नयन को अपनाना ही जीवन है। गहरी भावात्मक कविता।
जवाब देंहटाएंअपने ही मन की सोच ....अनेको प्रश्न ..जिनका जवाब मिलना मुश्किल है
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सही और सार्थक सच को व्यक्त
जवाब देंहटाएंकरती रचना
बहुत बहुत बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
jyoti-khare.blogspot.in
bahut khuub!
जवाब देंहटाएंदिल ओर अंत: एक हो जाए तभी जीवन आसान होता है ... सब कुछ एक मन से, शरीर से, अंत: करन से ... बाह्य जगत से ...
जवाब देंहटाएंएकाकी जीवन भी एकाकी कब रह जाता है .....यादों और अनुभव उसके संग चलते हैं ....जीवन की थाती
जवाब देंहटाएंअनुभव...
जवाब देंहटाएंअनुभूति...
बस केवल अपनी....!!