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बुधवार, अक्टूबर 23, 2013

आराधना - एक सोच

बहुत दिनों से सोच रहा था इस कहानी आगाज़ कैसे करूँ, कैसे शब्दों में बयां करूँ, अब जाकर कुछ सोच विचार कर मन बन पाया है | कहानी शुरू होती है हिंदुस्तान के दिल से यानी मेरी अपनी दिल्ली से | जी हाँ!  भारत की राजधानी दिल्ली | कहानी की नायिका है ‘आराधना’ | एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी, सुन्दर और सुशील कन्या | गोरा रंग, छरहरा बदन, तीखे नयन नक्श, स्वाभाव से बेहद चंचल और नटखट लेकिन बहुत ही अड़ियल है | गुस्सा तो जैसे हमेशा नाक पर धरा रहता है | जीवन में सवाल इतने के तौबा | अगर कोई साथ बैठ जाए तो ये मोहतरमा उनके जीवन का समस्त निचोड़, व्यक्तित्त्व का सारा नाप तौल और जीवन परीक्षण अपने सवालों से ही ले डालें और यदि कोई भूख से तड़पता हो तो इनके सवालों से ही उसका पेट भर जाये | इस लड़की के व्यक्तित्त्व में अनेकों खूबियों के साथ ख़ामियों की शिरकत भी बराबर दुरुस्त थी | जहाँ ये किसी से भी हुई बड़ी से बड़ी लड़ाई, तू तू मैं मैं, बहस, झगड़े इत्यादि को पल में बच्चों की तरह ऐसे भूल जाती जैसे कुछ हुआ ही न हो | वहीँ ना जाने क्यों ये कभी भी किसी पर भरोसा नहीं करती थी | यदि करती भी थी तो समय इतना निकाल देती भरोसा जताने में के गाड़ी प्लेटफार्म से निकल जाती | खैर इधर उधर की बात करने की बनिस्बत कहानी पर आते हैं | यह कहानी है उसके दिल और भरोसे के आपसी तालमेल, मतभेद, वार्तालाप और एक दूसरे के साथ हुए अनुबंध की जिसमें देखना यह है के जीत किसकी होती है | दिल की या भरोसे की |

अचानक यूँ ही एक दिन बात करते आराधना को ख्याल आया के उसका दिल और भरोसा दोनों अपनी जगह से नदारत है | तो लगा इन्हें ढूँढा जाये और लगीं इधर उधर अपने आप पास ढूँढने | ढूँढ मचाते यकायक अपने व्यक्तित्त्व की एक सूनी सी गली में जा पहुंची | माज़ी के कुछ अवशेष उस गली में बिखरे पाए और वहीँ गली के नुक्कड़ पर पड़ी एक पुरानी यादों की अलमारी की सबसे आख़िरी दराज़ में से कुछ आवाजें आती सुनाई पड़ीं | धीरे से आगे बढ़कर दराज़ को खोल कर देखा में उसने अपनी दिल और भरोसे को आपस में बात करते पाया | दोनों आपस में ख़ुसुर-फ़ुसुर करने में लगे थे | धीरे से कान लगाकर सुनने पर पता चला के बात दोनों के बीच मूल्यों और अपने महत्त्व को लेकर बातचीत हो रही थी |

भरोसा दिल से पूछता है, “ऐ दिल! क्या तू मुझपर भरोसा करता है ?”

दिल ने जवाब दिया, “यार! वैसे दिल तो नहीं कर रहा मेरा तुझपर ऐतबार करने को पर क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा “

भरोसा बोला, “यार हम दोनों तो हमेशा एक दुसरे के साथ रहते हैं | इतने समय से दोनों साथ हैं | फिर भी तू ऐसी बातें कर रहा है | मेरे भरोसे का खून कर रहा है | मेरा भरोसा तोड़ रहा है | ये कहाँ का इंसाफ़ हुआ मेरे भाई ?

दिल कुछ सोच के बोला, “यार! सच बतलाऊं दिल तो मेरा भी बहुत चाहता है के तेरे भरोसे पर ऐतबार कर लूं पर क्या करूँ मेरा दिल भी कितना पागल है ये कुछ भी करने से डरता है और सामने जब तुम आते हो ये ज़ोरों से धड़कता है | ऐसा कितनी बार हुआ है ज़िन्दगी के गलियारों में, दिल मेरा टूटा है भरोसे पर किये बीते वादों से |

भरोसे ने यह सुना तो उसकी आँखें नम हो कर झुक गईं | वो बोला, ‘सुन यार दिल हम दोनों एक ही ईमारत के आमने सामने वाले फ्लैट में रहते हैं | बिना दिल की मदद के भरोसे की गाड़ी नहीं चलती और ना बिना भरोसे दिल ही धड़कता है | मैं ये बात मान सकता हूँ कि किसी झूठे भरोसे पर तेरा दिल तार तार हुआ होगा पर क्या यह सही होगा कि किसी एक के कुचले भरोसे की सज़ा दुसरे के ईमानदार भरोसे को दी जाये ?”

दिल खामोश था, सोच रहा था क्या जवाब दे | कुछ देर सोचने के बाद दिन ने कहा, “ऐ दोस्त यकीन मुझको तेरी ईमानदारी पर पूरा है | तेरे भरोसे पर ऐतबार मेरा पूरा है पर ये दिल के जो घाव हर पल टीस देते हैं, कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं जो जीवन भर हरे ही रहते हैं |“

भरोसा समझदार था, पीड़ा दिल की समझ गया, धीरे से दिल के पास गया और अपने हाथ को दिल पर रखकर बोला, “दर्द तेरा जो है मैं समझ गया पर बस इतना करना एक आख़िरी दफ़ा मुझसे मिलकर तू मुझे अपनाने की कोशिश करना | बस यह छोटा सा वादा है तुझसे मैं तुझको दुःख न पहुंचाऊँगा | तेरे टूटने से पहले मैं खुद ही फ़नाह हो जाऊँगा | बस इतना एहसान तू मुझपर करना एक ज़रा हाथ अपना बढ़ा देना | थाम के आँचल मेरा तुम जीने की दुआ करना | फिर जीना क्या है वो मैं बतलाऊंगा | खुशियों से दामन तेरा मैं हर पल भरता जाऊंगा |”

दिल ने सुनकर, नज़रें उठा कर देखा, खुशियाँ भर कर आँखों में भरोसे की बातों पर सोचा, धीरे से मुस्कराया और थाम हाथ भरोसे का आँखों आँखों में विश्वास दर्शाया | सोचा एक मौका तो देना बनता है | पकड़ हाथ भरोसे का दिल जीवन की सीढ़ी चढ़ता है |

आराधना अचंभित खड़ी यह सब सुन और देख रही थी और अपने चेतन मस्तिष्क में कुछ नई खुशियाँ बुन रही थी | सोच रही थी क्या दिल और भरोसे की इस भागीदारी से वो जीवन नया बनाएगी | इस अनोखी भागीदारी को वो क्या कह के बुलाएगी | साथ किसका वो देगी अब ? वो दिल को जीत दिलाएगी या भरोसे को अपनाएगी ?

आखिर में फैसला इंसान खुद ही करता है वो जीवन में भरोसे को चुनता है या अपने दिल की सुनता है | क्योंकि दिल और भरोसा एक दुसरे के पूरख है | जीवन दोनों से ही आगे बढ़ता है | किसी एक का हाथ भी छूट जाये तो इन्सान सालों साल दुःख के आताह दलदल में तड़पता है |
आराधना का फैसला क्या होगा ये मैं अपने सभी पढ़ने वाले दोस्तों पर छोड़ता हूँ | आप ही बताएं आप ही सुझाएँ इस कहानी की शुरुवात अब आगे क्या होगी | 

सोमवार, अक्टूबर 14, 2013

जीवन हर पल बदल रहा है















जब मैं छोटा बच्चा था, दुनिया बड़ी सी लगती थी
घर से विद्यालय के रास्ते में, कई दुकाने सजती थीं
लल्लू छोले भठूरे की दूकान, चाट का ठेला, बर्फ का गोला
मूंग दाल के लड्डू का खोमचा, हलवाई के रसीले पकवान
और भी ना जाने क्या क्या था, जीवन के यह रस ज्यादा था
आज वहां पर बड़ी दुकाने हैं, बड़े बड़े पार्लर और शोरूम हैं
भीड़ तो बहुत दिखाई देती है, फिर भी सब कुछ कितना सूना है
लगता है जीवन सिमट रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, शामें लम्बी होती थीं मेरी
हर शाम साथ गुज़रती थीं, मुझसे ही बातें करती सी
छत पर घंटो पतंगे उड़ाता था, गलियों में दौड़ लगाता था
शाम तलक थक कर चूर होकर, मैं घर को वापस आता था
माँ की गोदी में सर रखकर, बस अनजाने ही सो जाता था
अब सब मस्ती वो लुप्त हुई, जीवन में शामें भी सुप्त हुई
अब दिन तो ढल जाता है, पर सीधे रात को पाता है
लगता है वक़्त सिमट रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, तब खेल बहुत हुआ करते थे
पापा के डर से हम, पड़ोसी की छत पर कूदा करते थे
लंगड़ी टांग, इस्टापू, छुपान छुपाई, पोषम पा,
टिप्पी टिप्पी टैप, पकड़म पकड़ाई, उंच नींच का पपड़ा
कितने ही ढेरों खेल थे जब, मिलकर साथ में खेलें थे सब
सब मिलकर केक काटते थे, आपस में प्यार बांटते थे
तब सब साथ में चलते थे, गले प्यार से मिलते थे
अब इन्टरनेट का दौर है जी, मल्टीप्लेक्स का जोर है जी
फुर्सत किसी को मिलती नहीं, आदत किसी की पड़ती नहीं
लगता है ज़िन्दगी भाग रही है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, तब दोस्त बहुत से मेरे थे
तब दोस्ती गहरी होती थी, साथ में सब मिल खेलते थे
मिल बैठ के बाँट के खाते थे, सब मटर यूँही भुनाते थे
जब हँसना रोना साथ में था, कम्बल में सोना साथ में था
इश्क विश्क की बातें साँझा थीं, हीर की और राँझा की
अब भी कई दोस्त हैं मेरे, पर दोस्ती न जाने कहाँ गई
ट्रैफिक सिग्नल पर मिलते हैं, या फसबुक पर खिलते हैं
हाई-हेल्लो बस कर के ये, अपने अपने रास्ते चलते हैं
होली, दिवाली, जन्मदिन, नव वर्ष के मेसेज आ जाते हैं
लगता है रिश्ते बदल रहे हैं, जीवन हर पल बदल रहा है

अब शायद मैं बड़ा हो गया हूँ, जीवन को खूब समझता हूँ
जीवन का शायद सबसे बड़ा सच यही है 'निर्जन'
जो अक्सर शमशान घाट के बाहर लिखा होता है
'मंजिल तो यही थी, बस ज़िन्दगी गुज़र गई यहाँ आते आते"
ज़िन्दगी के लम्हे बहुत छोटे हैं, कल का कुछ पता नहीं
आने वाला कल सिर्फ एक सपना है, जो पल पास है वही अपना है
उम्मीदों से भर कर जीवन को, जीने का प्रयास अब करना है
जीवन को जीवन सा जीना है, नहीं काट काट कर मरना है
लगता है जीवन संभल रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

शुक्रवार, सितंबर 06, 2013

यादें













वो यादें गुज़रे लम्हों की
जिस पल यारों साथ रहे
वो अनजानी दुनिया थी
खुशियों से आबाद रहे
वो उम्र गुज़ारी थी हमने
जब रोते रोते हँसते थे
बस कहते थे न सुनते थे
हम तुम जब मिलते थे
वो अपने चेहरे खिलते थे
पुर्लुफ्त वो आलम होता था
जब रातों को बातें करते थे
मैं सोच के कितना हँसता हूँ
उन बातों पर बचपन की
बस यही पुरानी याद बनी
'निर्जन' बातें उन लम्हों की
लड़ लड़ कर हम साथ रहे
ये यादें है उस अपनेपन की
वो यादें गुज़रे लम्हों की ....

शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

दिल से जुड़े हुए लोग





















आसमां में उड़े हुए लोग
हवा से भरे हुए लोग
संतुलन की बातें करते हैं
सरकार से जुड़े हुए लोग

भीड़ में खड़े हुए लोग
अन्दर तक सड़े हुए लोग
जीवन की बातें करते हैं
मरघट में पड़े हुए लोग

मुद्रा पर बिके हुए लोग
सुविधा पर टिके हुए लोग
बरगद की बातें करते हैं
गमलों में उगे हुए लोग

भोग में लिप्त हुए लोग
चरित्र से बीके हुए लोग
पवित्रता की बातें करते हैं
गटर से उठे हुए लोग

'निर्जन' मिले जो भी लोग
धरती पर झुके हुए लोग
देशभक्ति की बातें करते हैं
दिल से जुड़े हुए लोग 

सोमवार, अगस्त 05, 2013

कब कहलायेगा देश महान ?





















मेरा भारत है महान
हर एक बंदा परेशान
जनता इसकी है हैरान
क्या यही है इसकी शान ?

नेता सारे हैं बेईमान
करते सबका नुक्सान
हरकतों से सब शैतान
फिर भी पाते क्यों ईनाम ?

नारी रूप दुर्गा समान
करुणा ममता की खान
घुटती रहती अबला जान
कब लेगी वो इन्तकाम ?

युवा देश की पहचान
चलता अपना सीना तान
खटता रहता सुबह शाम
मिलता नहीं उसे क्यों मान ?

फौजी देते हैं बलिदान
फिर भी पाते न सम्मान
परिवार उनके गुमनाम
घर उनके है क्यों वीरान ?

चापलूसों की देखो शान
करते अपना जो गुणगान
बनते दिनों दिन धनवान
उन गद्दारों का क्या ईमान ?

आम जनता छोटी जान
पालन करती हर फरमान
इज्ज़त पर देती है जान
क्या यही है इसका काम ?

'निर्जन' सोच सोच हैरान
कैसे बढ़ेगा देश का मान ?
कब टूटेगी लगी ये आन ?
कब कहलायेगा देश महान ?

रविवार, जुलाई 14, 2013

ऐसे हैं हम





















आदत में हम अपनी
स्वराज ले भिड़ते हैं
ऐसे स्वाराजी है हम

खून में हम अपने
गर्मी ले बढ़ते हैं
ऐसे जोशीले हैं हम

बदल सके जो हमको
ज़माना नहीं बना वो
ऐसे हठीले हैं हम

आसमानों में परिंदों
से आजाद उड़ते हैं
फौलादी हवाओं को
ले साथ फिरते हैं
गहराई सागरों की
मापते फिरते हैं
दोस्त हो या दुश्मन
गर्मजोशी से मिलते हैं

आँखों में हम अपनी
सपने ले जीते हैं
ऐसे मतवाले हैं हम

जिगर में हम अपने
आग ले जलते हैं
ऐसे लड़ाकू हैं हम

दिल में 'निर्जन' अपने
उम्मीद ले चलते हैं
ऐसे आशावादी हैं हम

गुरुवार, जून 06, 2013

हास्य दोहावली

लड़े नौजवान, हुए शहीद, खून बहा के मिली आज़ादी
युवा को ठेंगा दिखा बुद्धों ने कर ली कुर्सी से शादी
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घायल बिल्ली दूजी बिल्ली से, बोली यह बात
सुबह-सुबह एक नेता मेरा, रास्ता गया था काट
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दुबला बोला मोटे से, क्यों धक्का दे रहे आप
क्यू में खड़ा मोटा बोला, क्या सांस लेना भी है पाप
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युपीऐ का मतलब मैडम पूछी, पी.एम्. बोले बिलकुल साफ़
'यु' आप और 'पीऐ' मैं हूँ, सर्वत्र है मैडम आप
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पांच तारा की सुविधा, चाहियें सांसदों को आज
प्रश्न पूछने के पैसे मांगे, इनको ना आये लाज
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राजघाट पर कुत्ते दौड़े, हिंसक को मिला सम्मान
सत्य अहिंसा के दूत को, चांटा मार गया शैतान
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पांच तारा में कुत्ते ठहरे, देकर मूंछ पर ताव
मंत्री शंत्री लगे दुम हिलाने, देख गोरी चमड़ी का भाव
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चमन उजाड़ रहे हैं उल्लू, बाढ़ खा रही खेत
खादी ख़ाकी देश को लूटें, बना रक्षक का भेष
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रिश्वत लिए और जेल गए, दिए घूस गए छूट
हर विभाग में घोटाले हैं, लूट सके तो लूट
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चोर कहें सोना कहाँ, जल्दी से बतलाओ
जी घर खाली पड़ा, जहाँ सोना सो जाओ
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धर्म कथावाचक अब, बन गए धन्ना सेठ
चेले चेली संग रास रचे, लें लाखों की भेंट
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हिंदी का नमक खाकर, हिंदी का गिराते मान
हिंदी ही पहचान है, पर अंग्रेजी को करें सलाम
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ऐसी वाणी बोलिए, पत्थर भी थर्राये
सज्जन पुरुष देखकर, कुत्ता भी गुर्राये
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हँसना और हँसाना, है सबसे उम्दा काम
जो कंजूसी करे हंसने में, वो व्यक्ति पशु समान
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हंसने से रक्त बढ़े, रक्तचाप हो दूर
दिल दिमाग मज़बूत बनें, मत हो तू मजबूर
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दुःख की चिंता छोड़ दो, चिंता चिता सामान
चिंता रोगों की माता है, चिंता छोड़ो श्रीमान
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आज कर तो कल कर, कल करे तो परसों
जल्दी काम शैतान का, अभी जीना है बरसों
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मुन्नाभाई डाक्टरों से, भरा पड़ा है देश
न मर्ज़ रहे न रहे मरीज़, चढ़ा तो हत्थे केस
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अपने शिक्षित युवा, बेकार और निष्तेज़
मंत्री बन्ने को कोई भी, न डिग्री और न ऐज
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चुटकी,चुटकुले, चाटुकारी, चल रहा रीमिक्स का दौर
कविता, कवी, दोहे पर, अब देता कोई न गौर
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क़र्ज़ लकर खाइए, जब तक तन में प्राण
देने वाला रोता रहे, खुद मौज करें श्रीमान
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बुधवार, मई 29, 2013

आईपीएल की खुल गई पोल

















हल्ला बोल हल्ला बोल
आईपीएल की खुल गई पोल
अन्दर खाने कित्त्ते हैं झोल
हो रही सबकी सिट्टी गोल

ये मैच नहीं ये फिक्सिंग है
लगता मुझको तो मिक्सिंग है
बीमारी है अड़ियल अमीरों की
ये नसल है घटिया ज़मीरों की

नैतिकता ताख पे रक्खी हैं
ये खिलाड़ी हैं या झक्की हैं
जो चंद करोड़ पर नक्की हैं
लगते गोबर की मक्खी हैं

नारी गरिमा पर धुल पड़ी
आधी नंगी हो फूल खड़ी
चीयर गर्ल बन इतराती है
मैदान में कुल्हे मटकाती है

बस संत इनमें श्रीसंत हैं जी
आईयाश बड़े महंत हैं जी
फिक्सिंग में पकड़े जाते हैं जी
रंगरलियाँ खूब मनाते हैं जी

फ़िल्मी बकरे भी जमकर के
आईपिएल में मटर भुनाते हैं
विन्दु सरीखे पूत यहाँ पर
पिता की लाज गंवाते है

मैच के बाद की पार्टी में
आईयाशियों के दौर चलते हैं
दारु, लड़की, चिकन, कबाब
हर एक के साथ में सजते हैं

जीजा, साले, और सुसर यहाँ
एक दूजे की विकेट उड़ाते हैं
सट्टेबाजी के बाउंसर पर
बेटिंग अपनी दिखलाते हैं

मोहब्बत, जंग और राजनीति में
कहते हैं सबकुछ जायज़ है
आईपीएल की नई दुनिया में
सुना है खेल में सबकुछ जायज़ है

मैं पूछता हूँ अब आपसे यह
क्या जायज़ है ? क्या नाजायज़ है ?
जनता करेगी यह फैसला अब
कौन लायक है ? कौन नालायक है ?

बल्ला बोल बल्ला बोल
हल्ला बोल हल्ला बोल
आईपीएल की खुल गई पोल
आईपीएल की खुल गई पोल 

रविवार, मई 26, 2013

किसकी सज़ा है ?
















ऐ वादियों
मैं तुम से पूछता हूँ
झरनों में भी देखता हूँ
नदियों में ढूँढता हूँ
ये नयन न जाने
किसे खोजते हैं
किसकी सज़ा है
ये किसकी सज़ा है
प्रभाकर जब आएगा
चमक उठेगा मन
डोल उठेगी आत्मा
पर्वतों पर कूदती
झरनों को लूटती
सरिता से फूटती
रौशनी समेटे
तब 'निर्जन'
दूंगा अंधियारे को सज़ा
किसकी सज़ा है
ये किसकी सज़ा है

रविवार, अप्रैल 28, 2013

कली














एक कली खिली चमन में
बन गई थी वो फूल
बड़ा गर्व हुआ अपने में
सबको गई थी वो भूल
कहा चमन ने फिर उससे
यहाँ रहता स्थिर नहीं कोई
मत कर तू गुमान इतना
उसको बहुत समझाया
आज तो यौवन है पर
कल तू ठूंठ भी हो जाएगी
तब कोई तेरे दर्द में
सहानुभूति न दिखलायेगा
हंसकर मिलजुल कर मिल
फिर से सब में खो जा तू
अलग बनाया अस्तित्व जो तूने
अपने से भी तू जायेगी
कोई माली, राहगीर ही
तुझको तोड़ ले जायेगा
मिट जायेगा जीवन तेरा, फिर
अन्तकाल तक तू पछताएगी

मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

कर्म और अकर्मण्यता














हे प्रभु! आपने तो
बचपन से ही
कर्म को प्रधानता दी
फिर यह मध्यकाल
आते-आते अकर्मण्यता
को क्यों बाँध लिया
अपने सर का
सेहरा बना कर,
बनाकर एक
अकमणयता की सेज
तुम्हारी ये निद्रा
तुम्हारे ही लिए नहीं
समस्त जन को
पीड़ा की सेज देगी
बैठा कर स्वजनों को
काँटों की सेज पर
पहना कर काँटों के
ताज को तुम ईशु
नहीं कहलाओगे
कहलाओगे सैय्याद
तुम अपनी निद्रा त्यागो
तुम कर्म की वो राह चुनो
जो पीडित स्वजनों को
रहत दे ऐसी राहत
जिसे सुनकर
मृत भी जी उठे

रविवार, अप्रैल 21, 2013

बकरचंद
















आज बने है सब बकरचंद
पखवाड़े मुंह थे सब के बंद
आज खिला रहे हैं सबको
बतोलबाज़ी के कलाकंद

बने हैं ज्ञानी सब लामबंद
पोस्ट रहे हैं दना-दन छंद
आक्रोश जताने का अब
क्या बस बचा यही है ढंग

बकर-बक करे से क्या हो
मिला है सबको बस रंज
बकरी सा मिमियाने पे
मिलते हैं सबको बस तंज़

ज़रुरत है उग्र-रौद्र हों
गर्जना से सब क्षुब्ध हों
दुराचारी-पापी जो बैठे हैं
अपनी धरा से विलुप्त हों

दिखा दो सब जोश आज
शस्त्र थाम लो अपने हाथ
दरिंदों, बलात्कारियों की
आओ सब मिल लूटें लाज

बहुत हो लिए अनशन
खत्म करो अब टेंशन
हाथों से करो फंक्शन
दिखा दो अब एक्शन

आया नहीं जो रिएक्शन
तो खून में है इन्फेक्शन
'निर्जन' कहे उठो मुर्दों
दिखा दो कुछ फ्रिक्शन

मत बनो तुम बकरचंद
कर दो छंद-वंद सब बंद
इस मंशा के साथ बढ़ो
कलयुग में आगे स्वछंद

रविवार, अप्रैल 14, 2013

कौन गलत था कौन सही

उस दिन क्यों सोचा मैंने
शायद इश्क मैं करता हूँ
आह! पर क्या वह मेरे
जीवन की सबसे बड़ी गलती थी
कुछ उतावले, बचकाने जज़्बातों ने
दिखलाये ना जाने मुझे कितने अवसाद

अरसा गुज़र गया तब से
पर रञ्ज आज भी करता हूँ
उसकी कपटी आँखों को
मैं सोच रातों को जगता हूँ
शर्मिंदा खुद से रहता हूँ
अब खुद को कोसा करता हूँ

मुद्दत हुई बिछड़े हुए, पर
दिल आज भी डरता है
वो नाम सामने आते ही
एक सन्नाटे से भरता है
गलती तो सबसे होती है
पर क्या कोई ऐसा भी करता है

कौन ग़लत था कौन सही
यह सवाल आज तक है बना
जीवन में इसके रहते ही
है रोष सामने रहा तना
मैं जब भी कुछ बतलाऊंगा
वो सोचेगा झूठ कही

जब सही वक़्त अब आएगा
वो स्वयं उसे समझाएगा
तब वो खुद ही पहचानेगा
गलती किसकी थी मानेगा
बस कुछ बरस की देर रही
सब जानेंगे और मानेंगे
कौन गलत था कौन सही

गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

मत सोचा कर

फ़रहत शाहज़ाद साहब द्वारा लिखी उनकी कविता 'तनहा तनहा मत सोचा कर' को अपने अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्षमा प्रार्थी हूँ, मैं उनका या उनकी नज़्म का अपमान करने या दिल को ठेस पहुँचाने की गरज़ से यह हास्य कविता नहीं लिख रहा हूँ। सिर्फ़ मज़ाहिया तौर पर और हास्य व्यंग से लबरेज़ दिल की ख़ातिर ऐसा कर रहा हूँ।

अगड़म बगड़म मत सोचा कर
निपट जाएगा मत सोचा कर

औंगे पौंगे दोस्त बनाकर
काम आयेंगे मत सोचा कर

सपने कोरे देख देख कर
तर जायेगा मत सोचा कर

दिल लगा कर बंदी से तू
सुकूं पायेगा मत सोचा कर

सच्चा साथी किस्मत की बातें
करीना, कतरीना मत सोचा कर

इश्क विश्क में जीना मरना
धोखे खाकर मत सोचा कर

वो भी तुझसे प्यार करे है
इतना ऊंचा मत सोचा कर

ख़्वाब, हकीकत या अफसाना
क्या है दौलत मत सोचा कर

तेरे अपने क्या बहुत बुरे हैं
बेवकूफ़ी ये मत सोचा कर

अपनी टांग फंसा कर तूने
पाया है क्या मत सोचा कर

शाम को लंबा हो जाता है
क्यूँ मेरा साया? मत सोचा कर

मीट किलो भर भी बहुत है
बकरा भैंसा मत सोचा कर

हाय यह दारू चीज़ बुरी है
टल्ली होकर मत सोचा कर

राह कठिन और धूप कड़ी है
मांग ले छाता मत सोचा कर

बारिश में ज़्यादा भीग गया तो
खटिया पकडूँगा मत सोचा कर

मूँद के ऑंखें दौड़ चला चल
नाला गड्ढा मत सोचा कर

जिसकी किस्मत में पिटना हो
वो तो पिटेगा मत सोचा कर

जो लाया है लिखवाकर खटना
वो सदा खटेगा मत सोचा कर

सब ऐहमक फुकरे साथ हैं तेरे
ख़ुद को तनहा मत सोचा कर

उतार चढ़ाव जीवन का हिस्सा
हार जीत की मत सोचा कर

सोना दूभर हो जाएगा जाना
दीवाने इतना मत सोचा कर

खाया कर मेवा तू वर्ना
पछतायेगा मत सोचा कर

सोच सोच कर सोच में जीना
ऐसे मरने का मत सोचा कर

रविवार, अप्रैल 07, 2013

मलिन सोच

सत्य वचन सुनाता है समझे
जग बीती बताता है समझे
दशा भयी कितनो की है यह   
'निर्जन' कथा दिखता है समझे

राह खड़ी फुसलावत है समझे 
कामुकता से रिझावत है समझे 
मकड़जाल में माया के यह 
फंसने पर छटपटावत है समझे 

ताज़ा ताज़ा दिल हारा है समझे  
बकरा कितना प्यारा है समझे 
जो मलिन सोच से बंधता है यह
जीवन में खुद का मारा है समझे

शादी अब कारोबार है समझे
सौदों की भरमार है समझे
दिल के रिश्तों को भी अब यह 
मिला नया बाज़ार है समझे

बातों को खरताल है समझे
सोना चांदी माल है समझे
जीवन में आव़ाज़ाही को यह   
बच्चों का खिलवाड़ है समझे

आते ही रंग दिखलाती है समझे
चप्पल जूते चलवाती है समझे
मासूम सदा बनकर जो है यह
घर में कलह करवाती है समझे

पौ फटते फ़रमाइश है समझे
जेब की भी नुमाइश है समझे
खर्चें हरी पत्तियां जो है यह
मेहनत की कमाई है समझे


व्यापार चौपट करवाती है समझे
दर दर धक्के खिलवाती है समझे 
व्यक्तित्वहीन सोच जो है यह 
मनुष्य को दरिंदा बनवाती है समझे 

नित नए स्वांग रचाती है समझे
जीवन चलचित्र बनाती है समझे
मान अपमान के मोल को यह
तफ़री में उड़ाती है समझे  

आँख निकाल गुर्राती है समझे
शोले रोज़ बरसाती है समझे
जीवन पावन पुस्तक को यह
क्रोधाग्नि में जलाती है समझे

तंतर-मंतर करवाती है समझे
दिल में फाँस गड़वाती है समझे
संबंधो में परस्पर प्रेम को यह  
सूली पर चढ़वाती है समझे

संतान विच्छेद करवाती है समझे
उलटी पट्टी पढ़वाती है समझे
अनुचित शिक्षा में माहिर है यह 
बालक भविष्य डुबाती है समझे 

पिता-पुत्र लड़वाती है समझे 
बहन-भाई भिड़वाती है समझे 
बैठे दूर तमाशबीन बन यह  
रिश्तों में फूट डलवाती है समझे 

मान मर्यादा भूली है समझे
क्रियाचारित्र पर झूली है समझे
अपमानित अभद्र व्यवहार से यह
मुंह काला कर भूली है समझे

माल समेट भागे है समझे
पता कहीं ना पावे है समझे
झूठे तर्क दिखाकर कर यह  
कोर्ट केस कर जावे है समझे

नर्क भ्रमण करवाती है समझे
यमलोक पहुंचती है समझे
सज्जन पुरुषों की तो यह
अर्थी तक बंधवाती है समझे

शुभचिंतक यही सुझाता है समझे
मलिन विचारणा में कभी न उलझे 
जिस क्षण दिल में आ जाती है यह
ऊर्जा नष्ट कर के जाती है समझे

इससे अब सब बचकर रहना 
ज़िंदगी में साथ न इसका देना 
जो यह कहीं मिल जाये तुमको 
रसीद तमाचा रखकर देना

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

चाँद तारे हो गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

तुम हमेशा ही रहे, बेगुनाहों की फेहरिस्त में
तुम्हारे जो भी थे गुनाह, अब नाम हमारे हो गए

आज हम भी जुड़ गए, रोटी को निकली भीड़ में
किस्मत के मारे जो थे हम, सड़कों के मारे हो गए

बंट गया वजूद अपना, कितने ही रिश्तों में अब
तन एक ही रह गया है, दिल के टुकड़े हो गए

तैराए दुआओं के जहाज़, उम्मीदों के समंदर में
हम तो बस डूबे रहे, बाक़ी सब किनारा हो गए

कल किसी ने नाम लेकर, दिल से पुकारा था हमें
अब तक थे जो अजनबी, अब जानेजाना हो गए

कहते थे जब हम ये बातें, पगला बताते थे हमें
आज वे बतलाने वाले, खुद ही पगले हो गए

दिल के ये जज़्बात तुमको, नज़र करने थे हमें
गाफ़िल मोहब्बत में रहे, हम खुद नजराना हो गए

इश्क जो करते हो तुम, आज बतला दो हमें
अब तलक बस हम थे अपने, अब से तुम्हारे हो गए

नींद भी गायब है अपनी, चैन भी टोके हमें
अश्क जो रातों में बहे थे, जुल्फों में अटके रह गए

है अधूरी ये ग़ज़ल, मुकम्मल तुम करदो इसे
वो चंद जो आशार थे, बहर से भटके रह गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

यह  ग़ज़ल शैली नामक कविता श्रद्धोन्मत्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण की गई | 

शुक्रवार, मार्च 22, 2013

कविता दिवस - कविता पर कविता

कविता दिवस पर सोचा
क्यों न प्रयास कर मैं भी
रच डालूं 'निर्जन', कविता
पर एक कंपायक कविता

'क' कृतियाँ सोच
'क' कलात्मक लोच
'क' कोमलता गुन
'क' कर्णप्रीयता सुन

'व' विषय चुन
'व' विचारावेश बुन
'व' वृत्तान्त गढ़
'व' विश्वास दृढ़

'त' तुकबंदी कर
'त' तरकश भर
'त' तंजिया कस
'त' तंत का रस

डाल दिमाग की मिक्सी में
घोट बना कर उद्देश्य
होली पर पेश यह करता हूँ
कविता का कवितामय पेय

रसपान कंकोलक शब्दों का
कँटियाना संभव है मन का
कंटालु भाव मैं बतलाता
कविता दिवस, कविता पर
मैं कविता लिख दिखलाता...

कंपायक - तरंगायक
कंकोलक - चीनी / मीठे
कँटियाना - रोमांचित होना
कंटालु - बबूल

गुरुवार, मार्च 14, 2013

जीवन चक्र

एक को तेरा मरण
तेरह दिन में
मिले नए सम्बन्ध
छूटे रिश्ते वो सब
जो तेरे अपने
जाने और अनजाने थे
क्यों मानव इस
चक्रव्यूह में
घूमता है
ये, अजीब सा सत्य
हे ईश्वर
एक, तीन का मिश्रण
शुन्य सा हुआ
हर मानव
कब तक
आता जाता
रहेगा
पृथ्वी की तरह
चाँद सूरज के पीछे
सुबह शाम
घूमता रहेगा
एक घर
एक परिवेश से
दुसरे परिवेश में
कभी जब
पुराने सम्बन्धी
आयेंगे यादों में
तब तू अपने
जन्म की
अनंत पीड़ा से
अपनी मृत्यु की
वेदना का अनुभव
करते हुए क्या
सुख की सांस भी
ले पायेगा ......

बुधवार, मार्च 13, 2013

समझो तब

जीवन पहेली है
ना समझो तब
जीवन कहानी है
समझो तब

जीवन अन्धकार है
ना समझो तब
जीवन दर्शन है
समझो तब

जीवन काँटा है
ना समझो तब
जीवन गुलदस्ता है
समझो तब

रिश्ते तमाशा हैं
ना समझो तब
रिश्ते ज़िम्मेदारी हैं
समझो तब

साथ दुखमय है
ना समझो तब
साथ सुखमय है
समझो तब

प्रेम मृगतृष्णा है
ना समझो तब
प्रेम अनुभूति है
समझो तब

मन निर्जीव है
ना समझो तब
मन सजीव है
समझो तब

विचार पीड़ा हैं
ना समझो तब
विचार क्रीडा हैं
समझो तब

बातें व्यर्थ हैं
ना समझो तब
बातें अर्थ हैं
समझो तब

मुलाक़ात बेमानी है
ना समझो तब
मुलाक़ात दीवानी है
समझो तब

चरित्र धोखा है
ना समझो तब
चरित्र भरोसा है
समझो तब

कसक सज़ा है
ना समझो तब
कसक मज़ा है
समझो तब

मनुष्य अज्ञानी है
ना समझो तब
मनुष्य ज्ञानी है
समझो तब

जीवन यापन अनुभव है
अलौकिक व पारलौकिक का
समझो तब, समझो तब, समझो तब...

मेरी मृगतृष्णा

मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल की
जन्मो जन्मो से
तरसती है
मैं कौन हूँ
क्या हूँ
सब जानते हुए
हर जन्म में
नई मोह माया के
उधड़े बुने जाल में
फंसती है

मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल से
किसी चाहत को
तड़पती है
कभी श्राप है
कभी आशीर्वाद है
नौका विहार की भांति
लहरों से मुझे
मिलाती है

गहन अन्धकार
दिव्य प्रकाश
हर जन्म में मुझे
धरोहर में मिलता है
मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल से
कुछ ना
पाने को की
मचलती है