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शनिवार, जनवरी 09, 2016

हर लम्हा याद मैं करता हूँ



















बस यूँ ही बैठा-बैठा, अब
माज़ी को याद मैं, करता हूँ
गुज़रे दिनों की, यादों से
मैं आज भी, बातें करता हूँ

पुराने घर का, हर किस्सा
याद, आज फिर आता है
हिस्सा, एक उम्र का गुज़रा
जो अब ना, भूलने पाता है

फाटक का, वो दरवाज़ा
घर की याद, दिलाता है
गुज़रता हूँ, गली से जब
दिल मेरा, भर आता है

गुलिस्तां की, कलियों पर
फ़िदा दिल, हो जाता था
बड़े, दालान की रौनक़ में
दिल ये, खो जाता था

वो बारिश, जब भी होती थी
कोना-कोना, भीग जाता था
सौंधी मिटटी, की खुशबू से
आँगन वो, महक जाता था

सूरज भी, छिप छिप कर
अटखेलियां, करता था
किरणों के, झाँकने पर भी
कमरा आधा ही, भरता था

बड़ा कमरा था, बीचों बीच
याद बहुत वो, आता है
मेरी, शरारतों का नगमा
वो, हर्फ़े-हर्फ़ सुनाता है

कई रिश्तों की, दावतों का
अकेला ही, गवाह था वो
कई अपनों की, कहानी का
ख़ुदाया, ख़ैर-ख़्वाह था वो

बड़े कमरे के, भीतर ही
पाक एक कोठरी, भी थी
मेरे ख़ुदा से मेरी, रोज़ाना
जहाँ, गुफ़्तगू होती थी

उस बड़े घर के, बड़े दिल में
बड़ी सी, माँ की रसोई थी
जहाँ माँ ने मेरी, बड़े दिल से
अरमानो की लड़ी, पिरोई थी

बड़े ही चाव से, अम्मा वहां
लज़ीज़, अरमां पकाती थी
रूह भर जाती थी, अपनी
जब हाथों से, वो खिलाती थी

शाम को, छतों पर सब
मिलकर, पतंगें उड़ाते थे
कुछ पेंचे, लड़ाते थे
तो कुछ, आंखे भिड़ाते थे

अपनी तबियत, देख मलंग
पड़ोसन भी, शर्माती थी
चुपके से, झुकाकर नज़रें 
धीमे-धीमे, मुस्काती थी

छुट्टी के दिन, चौक में
क्रिकेट का मैच, होता था 
खेलना खेल, बहाना था
इश्क़ में, दिल कैच होता था 

खिड़की पर, खड़ी महबूबा
पोशीदा एक, राज़ होती थी
ना उड़ जाये, किल्ली अपनी
के बस वही, लाज होती थी 

हर एक मौसम, को चखना
दिल-ए-दस्तूर, होता था
हर ख़वाहिश, पूरी हो जाए
एक यही, फितूर होता था

हर मौके का, लुत्फ़ 'निर्जन'
मैंने तबियत से, उठाया था
हर एक मंज़र, चहकता था
पुराने घर का, सरमाया था 

उन बातें को, उन किस्सों को
आज भी, जी भर याद करता हूँ
बिछड़े आशियाने को अब भी
हर लम्हा याद मैं करता हूँ...

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