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शुक्रवार, मार्च 27, 2015

मैं हमेशा साथ रहूंगी

वो मेरे करीब सट कर बैठी, मुस्कुरा रही थी। मैं उसकी दहकती गर्म साँसों के उतार चढ़ाव के साथ उनकी आवाज़ भी महसूस कर सकता था।

मैं उसकी गहरी भूरी आँखों में उबलती चमक देख रहा था और उस दीवार की उस महीन दरार से छनती रौशनी की किरण में सोने की तरह जगमगाती उसकी ज़ुल्फों की घुमावदार लटों को धीरे-धीरे झूमता देख निहार रहा था।

"तुमने कुछ सुना क्या?" उसने फुसफुसाते हुए पुछा, मैं उसकी आवाज़ में छिपे भावों को पढ़ रहा था क्योंकि वो बहुत असहज, उत्तेजित और उत्साहित सुनाई पड़ रही थी।

"मैंने सुना? नहीं तो, क्या? कुछ भी तो नहीं है। क्या - कुछ ख़ास है क्या?" शायद मैं ग़लत था।

"उफ़ ओ! चुप करो।" वो खीज कर बोली, "क्या तुम्हे ये सरसराहट सुनाई नहीं दे रही? ध्यान से सुनो।" उसने ज़ोर देते हुए कहा

मैंने ये सोचकर हांमी में सर हिलाया कि वो मेरे इशारे को समझ जाएगी। "इस अँधेरे और सन्नाटे में सरसराहट की आवाज़, अजीब लगती है क्या तुम्हे? मुझे लगता है शायद चूहा है?" उसने पलट कर मुझे इशारा करके टोहका और शांत रहने के लिए कहा।

"मुझे लगता है...." कहते कहते वो रुक गई और सोचने लगी, फिर बोली, "सच कहूँ, मुझे लगता है वो भूत हैं।"

हम कमरे में मेज़ के नीचे, दोहर से ढके, मुंह सिये दुबके हुए हैं। मतलब ये, हम भूतों को नज़र नहीं आ रहे हैं। "ये छिपने के लिए एक दम सही जगह है", उसने धीमे से कहा। क्योंकि जब तक हम उन्हें नहीं देख सकते हैं, वो भी हमें नहीं देख पाएंगे। यह एकदम लॉजिकल बात है।

मैंने हंसी दबाते हुए, विश्वास के साथ, हिम्मत कर पूछने की हिमाक़त की और कहा: "व्हाट - भूत? आर यू सीरियस?" और उसने अपने होठों पर ऊँगली रख मुझे ख़ामोश रहने को कहा।

"शशश! यू डॉग - चुप रहो, बी-कुआईट", वो सांप की तरह फुफकारती हुई बोली, "वरना उन्हें मालूम हो जायेगा हम कहाँ हैं।" बिलकुल, "सॉरी हाँ" और हम दोनों खामोश हो गए।

मैं सोच रहा था और कितनी देर मुझे यहाँ ऐसे ही दुबक कर रहना पड़ेगा पर जब तक ऐसे में वो मेरे साथ थी तब तक सब अच्छा लग रहा था। अभी सोचालय में ही था कि वो धीरे से सरक कर मेरे क़रीब आ गई और पूछने लगी, "तुम्हे क्या लगता है, क्या वो सभी सच में बुरे होते हैं?"

मैं हिचकिचाते हुए बोला, "शायद नहीं, मुझे दरअसल ऐसा नहीं लगता।"

फिर हम दोनों के बीच कुछ देर चुप्पी छा गई पर उसका चेहरा देख कर लगता था वो कुछ पूछना चाह रही है - "क्या है - पूछो, बोल भी अब, ऐसा मुंह मत बनाओ, कहो?"

"ईशशश...तुम्हे पता है...अगर सच में वो, जैसा तुम कह रहे हो, सच में अच्छे वाले हुए, तो क्या में एक रख सकती हूँ अपने पास?"

"चुपकर - जंगली बिल्ली" मैंने ईरीटेट होते हुए जवाब दिया, "क्या अटपटा सवाल है! ओ अच्छा...हाँ बेशक़ हो सकता है - क्यों नहीं - एक क्यों दो, तीन, चार जितनी मर्ज़ी हो उतने रख ले।" इतना कहकर मैं चुप हो गया।

"वैसे नाम क्या देगी उसको अगर कोई अच्छा वाला रखने को मिल गया तो?"

मुझे तुरंत बिना देरी तपाक से जवाब मिला: "शोना!"

"शोना? - हम्म"

एक बार फिर उसके और मेरे बीच ख़ामोशी पसर गई।

"तो फिर, क्या तुम देखना नहीं चाहोगी?", मैंने पुछा

"क्या देखना नहीं चाहूंगी?, बोल?"

"अरे! बाहर जाओ, देखो तो सही, टेक-अ-लुक, देखो कोई अच्छा वाला है भी या नहीं। शायद कोई प्यारा वाला मिल जाए। यहाँ बैठे बैठे थोड़ी ना मिलने वाला है कोई।"

"जी नहीं! कोई ज़रूरत नहीं है। मैं क्यों देखूं।" बिना कुछ सोचे समझे वो ज़ोर के चिल्लाई और पीली पड़ गई। उसकी आवाज़ में डर और घबड़ाहट साफ़ झलक रहे थे।

"ओह हो - पर क्यों नहीं? - देखो तो, बिना देखे मालूम कैसे चलेगा।", मैंने चुटकी लेते हुए पुछा

"अच्छा मैं क्यों - अगर वो बुरे वाला हुआ तो...? मैं इतनी बेवकूफ़ थोड़ी हूँ।" पागल ही थी मैं, जो ये सवाल किया

अब हम एक दुसरे के पास लेटे हुए थे; वो हौले से सिमट कर मेरी बाहों में आ गई। में उसके दिल की सुरीली धड़कनो की तान को बख़ूबी सुन सकता था और उसको सुरक्षित महसूस कराने के लिए कुछ भी कर सकता था। हमारे बीच एक दफ़ा फिर ख़ामोशी का आलम था, अगर कुछ सुनाई देतीं थी तो वो सिर्फ धीमी-धीमी माध्यम आवाज़ में सरसराहटें और ख़ामोशी।

"क्यों वो मुझे पकड़ कर अपने साथ ले जायेगा? - मुझे किडनैप तो नहीं कर लेगा ना?"

दोबारा फिर मैंने अपनी हंसी रोकते हुए मज़ाहिया लहज़े में जवाब दिया, "मुझे तो लगा था 'तुम' एक को पकड़ कर अपने साथ ले जाने वाली हो? - क्या हुआ?"

उसने घूर कर टेड़ी कनखियों से गोली चलाती दुनाली की तरह मेरी ओर देखा, "कभी कभी किसी को कोई बात बिलकुल समझ नहीं आती है, सही कह रही हूँ ना मैं - बोलो - जल्दी जवाब दो?"

"औबवियसली, मैं बुरे वाले भूत की बात कर रही थी।"

"आह...अच्छा, खैर - ठीक है, मुझे नहीं लगता वो तुम्हे अपने साथ ले जायेगा।"

"ओके..." कहकर वो थोडा शांत हो गई फिर, "क्यों नहीं?"

मैंने बड़े प्यार और दुलार से उसके सुनहरे दमकते मखमली बालों में उँगलियाँ फेरते, उसकी नाक को चुटकी से पकड़ हिलाते हुए फ़रमाया, "वो इसलिए, क्योकि मैं तुम पर नज़र रख रहा हूँ। मेरे होते वो तेरे पास आने की हिमाक़त कभी नहीं कर सकेगा, डोंट वरी।"

वो फिर चुप रही, असहज हुई, हिचकिचाई, और, "वो इसलिए क्योंकि तुम मेरे दोस्त हो?"

मैंने सर हिलाकर मंज़ूरी में 'हाँ' का इशारा किया, "सही है, क्योंकि मैं तेरा दोस्त हूँ।"

दीवार की दरार से आते ओज से उसका मुस्कान भरा मासूम सा चेहरा लाल हो रहा था और मैं अपनी आँखों से टकटकी बांधे एक टक उसे प्यार से निहार रहा था। फिर वो एकदम से संजीदा हो बोल पड़ी, "अगर ऐसी बात है तो - इस मामले में तो मैं भी तेरी दोस्त हूँ - यू डॉग, यू आर माय बेस्ट फ्रेंड, टू।"

मैंने अपने होठों पर मुस्कान ले उसकी पेशानी को चूमा, "हाँ हाँ! मेरी जंगली बिल्ली, मुझे दिल से ख़ुशी है की तू यहाँ मेरे साथ है - वरना पता नहीं मेरा क्या होने वाला था।"

वो भी मुस्काई और झप्पी देकर मेरे गले से लिपट गई। मैं दिल ही दिल में सोच रहा था, "काश! ये लम्हा हमेशा के लिए यहीं ठहर जाता तो कितना अच्छा होता।"

कुछ पल बाद वो फिर से बेचैन होते हुए बोली: "पर भूत..."

"हाँ?" मैंने हैरानी से देखा

"मुझे कैसे मालूम होगा कि अच्छा वाला भूत मेरा पीछा करते घर तक तो नहीं आ जायेगा? मेरा मतलब है वो तो दिखाई नहीं देता है ना !"

मैंने फिर मुस्कान के साथ सर हिलाया, "मेरा अंदाज़ा है कि जब तक तुम उसे देख नहीं लेती हो तब तक तुम्हे यकीन नहीं होगा।"

"क्या मैं उसे कभी देख पाऊँगी?"

"क्या पता, मुझे नहीं मालूम। अगर वो तुम्हे पसंद करता होगा तो, शायद? क्या मालूम तुम्हे वो सपने में मिलने आ जाए, क्योंकि शायद वो आज रात तुम्हारा ख़याल रखने वाला है? मुझे यकीं है, पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ की वो भी बेहद शर्मीला है, तुम्हे मालूम है? फ़िलहाल तो तुम मुझे ही देख लो मुझसे बड़ा भूत आज यहाँ कोई नहीं है - सच्ची।

"लगता तो कुछ ऐसा ही है - तेरा लॉजिक भी ठीक सा ही लग है।"

अचानक, फिर से  झनझनाहट, सरसराहट की आवाज़ें तेज़ होने लगती हैं - एक चूहा बड़ी ही तेज़ी से भागता हुआ मेज़ की तरफ़ लपकता है।

वो डर के मारे, घृणापूर्वक बचते हुए, ठिनठिना कर पीछे हटती है।

"अरे! क्या हुआ, स्वीटू?" मैंने पीछे जगह देखकर खिसकते हुए पुछा और कमर के बल आरामतलब होकर लेट गया। उसने मेरे सीने पर अपना सर रख लिया।

"तुम्हे उनसे डर नहीं लगता?" - मैं समझ रहा था वो चूहों की बात कर रही है, भूतों की नहीं।

मैं जवाब देने से पहले, मन ही मन खुश हो रहा था और अपना समय ले रहा था। "हाँ - शायद ज़रा सा, मुझे ऐसा लगता तो है। मैं मानता हूँ।" मेरा प्रसन्नता वो समझ नहीं पाई, मैं खुश हूँ; मुझे ज्ञात है वो सोचती होगी शायद मैं उसका मज़ाक़ बना रहा हूँ।

"तुझे डरने की क्या ज़रूरत है - यारा।" वो बोली

मैंने उत्सुकता पूर्वक अपना सर उठाकर उसकी तरफ देखा और इंतज़ार करने लगा कब वो अपनी कही बात का मतलब समझाएगी।

"ओहो - ऐसे क्या देख रहे हो जनाब, मैं तेरी दोस्त हूँ, याद है ना? तुझे बिलकुल भी डरने की ज़रूरत नहीं है।" वो कहती रही और मैं सुनता रहा।

मैंने मुस्कान के साथ आँखों में उम्मीद की लहर लिए पूछा, "और भला वो क्यों?"

वो उस पल ख़ामोश रही, हमारे चारों तरफ सब कुछ ठहर गया था। वो लम्हा, वो पल बीत नहीं रहा था। वो आँखें झुकाए जवाब सोच रही थी तभी अचानक धीमे से आँखें उठा, मुझसे नज़रें मिला, मेरे हाथों को अपने हाथों में थाम, मेरी रूह में झांकती हुई बोली, "क्योंकि मैं तेरे साथ हूँ और हमेशा रहूंगी - कमीने - यू डॉग।"

और फिर जिस तरह हम दोनों झप्पी देकर अपने में खो गए वैसे ही वो शाम भी हम दोनों के साथ हमारे हंसी-ठहाको में डूबती चली गई।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अक्टूबर 28, 2014

तेरा इश्क़ ही बस साथ है













बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ

कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ

मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ

वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ

नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ

जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ

साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ

शरर -  चिनगारी, स्पार्क

--- तुषार राज रस्तोगी ---