इंतज़ार जिसका था एक ऊम्र से यारों मुझको
नासाज़ तबियत का सुन दौड़ी वो दीवानी आई
रोज़ गुजरतीं थीं शामें मदहोश उसके पहलु में
साथ उसके सुकून और ख़ुशी की कहानी आई
जुम्बिश नहीं थीं जिन काफ़िर नसों में अब तक
देख उसको लहू में फ़िर से पुरज़ोर रवानी आई
लगता था बीत जाएगी ज़िन्दगी अब तनहा यूँ ही
बाद मुद्दतों के फिर एक नई शाम सुहानी आई
किया करता था बातें रोज़ ख़ुदसे उसके बारे में
मिलीं नज़रें तो बात नज़रों से भी न बनानी आई
अरसा बाद दिया मौका उसने ग़ज़ल बनाने का
'निर्जन' ख़ारे अश्कों से आशारों पे जवानी आई
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