कल एक फेसबुक मित्र के साथ एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण मेरा दिल यह रचना लिखने के लिए विवश हो उठा। मैं पहले तो कुछ संजीदा और उपदेशात्मक बनाकर कहने की सोच रहा था क्योंकि मुद्दा बड़ा ही गंभीर था और नारी के मान-मर्यादा से भी जुड़ा था। परन्तु फिर मैंने इस बात को बड़े ही सहज रूप से प्रस्तुत करने का विचार बनाया क्योंकि जैसे मेरे ज़्यादातर मित्र मेरी आदत से वाकिफ़ हैं मुझे बातों को पेचीदा बनाकर पेश करने में ज़रा भी मज़ा नहीं आता और ना ही बड़े-बड़े जटिल अल्फाज़ों और लफ़्ज़ों को पढ़ने का कोई शौक़ रहा है और ना ही दूसरों को पढ़ाने में कोई लुत्फ़ आता है तो सोचा इस बार भी अगर जूता मारना ही है तो क्यों ना हास्य की चाशनी में लपेटकर, हंसी की तश्तरी में सजाकर परोसा जाए। तो हाज़िर है जनाब-ए-आली आप सबके सामने एक आचार संबंधी, विचारशील मुद्दे पर, लिखी मेरी अपरिहासी और विचारवान रचना। आशा है मेरी कोशिश कुछ तो रंग लाएगी। एक नवचेतना का आगाज़ कर कुछ ख़ास खारिश-खुजली वाले वर्ग के लोगों में आत्मज्ञान का एक नया सूर्योदय कर पायेगी। शायद इसे पढ़कर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो जाए, उनकी आत्मा चित्कार कर उन्हें धिक्कारे और वो सही राह पर आ जाएँ। ऐसी उम्मीद के साथ प्रस्तुत है :
देखो मित्रों, बला सरनाम
फेसबुक है, जिसका नाम
कायरों को, मिला वरदान
आते हैं सब वो, सीना तान
अकाउंट बना, मारें वो एंट्री
प्रोफाइल ऑफ़, हाई जेन्ट्री
छोड़-छाड़ के, अपना काम
चिपके हैं सब, सुबहों-शाम
देखी लड़की, दिल लो थाम
रिक्वेस्ट भेजो, करो सलाम
आशिक़ी का, नया आयाम
भेजो मेसेज, हो गया काम
छुरी बगल में, मुंह में राम
शोशेबाज़ी है, इनका काम
ओछापन कर, हैं बदनाम
आवारा छिछोरे, घसीटाराम
बनते हैं, दर्द-ए-दिल का बाम
पढ़ते हैं झूठा, इश्क़ कलाम
इनबॉक्स में, करते हैं मैसेज
मंशा रख, क्लियर हो पैसेज
रेस्पोंस में जब, खाते ये जूती
नर्वसनेस में, बज जाती तूती
देख बिदकते, अपना अंजाम
पीठ दिखा, भग जाते ये आम
पोक की कोक, है इनको भाती
इनकी दुनिया से, भिन्न प्रजाति
बेहया बेशर्म, ये लिप्सा के मारे
सूतो इन्हें, दिखाओ दिन में तारे
'निर्जन' सुनो, हर ख़ास-ओ-आम
आरती उतार, दो नेग सरेआम
ब्लाक करो, औ बेलन लो हाथ
करो धुनाई, दो इनको सौगात
लातों के भूत, बातों से ना माने
तार दो बक्खर, लगो लतियाने
उधेड़ने पर ही, शायद ये माने
मजनू के भाई, लैला के दीवाने
--- तुषार रस्तोगी ---