परदेस लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
परदेस लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, नवंबर 01, 2013

कैसी अधूरी यह दीवाली












जो बसते परदेसों में हैं
घर उनके आज हैं खाली
धनतेरस, दिवाली पर
सबकी रातें बस हैं काली

घर आँगन तुम्हे बुलाता है
दिल मिलने को कर जाता है
माँ जाये अपनों की चिंता में
दिल माँ का रो-रो भर आता है

दिल को कितना समझती है
पर चिंता से मुक्ति ना पाती है
वो अपने आँचल के पंखे से
नयनो के आंसू सुखाती है

तू भी कितना खुदगर्ज़ हुआ
पैसों की खातिर खर्च हुआ
अपनों का दिल दुखाने का
तुझको ये कैसा मर्ज़ हुआ

दिल तो तेरा भी करता है
वापस जाने को मरता है
क्यों व्यर्थ तू चिंता करता है
मजबूरी की आहें भरता है

अब दिवाली के धमाको में
एक सन्नाटा सा परस्ता है
कैसे कहे दिल उसका भी
मिलने को बिलखता है

आँखें नम हैं यह सुबह से
हाथ भी दोनों हैं खाली
घर से दूर इस जीवन की
कैसी अधूरी यह दिवाली

माँ, मेरा आँगन भी सूना है
आँखों में मेरे भी है लाली
बस हाथ तेरा सर पर है तो
हर दिन जीवन में है दिवाली