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गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

जीवन - मृत्यु

जेठ की सुबह जब ‘प्रालेय’ बिस्तर से उठकर बैठा तो दिल में कुछ अलग सा एहसास अंगड़ाईयां ले रहा था | ह्रदय विचलित हो रहा था और नामालूम क्यों एक अनकहा सा डर दिल को ज़ोरों से धड़का रहा था | कुछ सोचते हुए उसने इधर-उधर नज़रें दौड़नी चाहि पर अलसाई अधखुली आँखों ने धुंधले परिदृश्य सामने उकेरने शुरू कर दिए | हथेलियों को ऊपर उठा धीरे से पलकों को मूँद कर अर्ध-निंद्रा से बोझिल होती आँखों को मसलना शुरू किया और जोर के अंगडाई के साथ बड़ी सी जम्भाई ली | 

“जय श्री राम”, का नाम लेते हुए उसने फिर अपनी दोनों हथेलियों में भगवान् की उकेरी हुई लकीरों को धीरे से चूमा और मन ही मन प्रभु को धन्यवाद् करने लगा | 

“हे प्रभु! आपने मुझे जो जीवन प्रदान किया है मैं उसके लिए आपका धन्यवाद् करता हूँ | आप ही हैं जिन्होंने मेरा परिचय जीवन से करवाने हेतु इस धरा पर अवतरित करने के लिए मेरी माता के रूप में मेरे लिए सबसे सुन्दर अप्सरा को भेजा | आप ही हैं जिन्होंने जीवन यापन के लिए मेरे पिता को मेरे रक्षक के रूप में ज़ालिम संसार से लोहा लेने के लिए और मेरे सर पर बरगद सरीखी छाँव बना कर रखने के लिए अपने आशीर्वाद के रूप में भेजा | आप ही हैं जिन्होंने छोटी माँ के रूप में मुस्कुराता चेहरा लिए मुझसे लड़ने, झगड़ने, जिद करने और अपनी मनमानी करने के लिए और एक सच्चे दोस्त की तरह दोस्ती निभाने के लिए मेरी छोटी बहन को इस संसार में मेरा साथ निभाने के लिए भेजा | आपकी इस परम पूजनीय कृपा दृष्टि के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ और आपके इस उपकार और कृपा दृष्टि के लिए मैं सदैव आपका ऋणी और हमेशा आभारी रहूँगा | प्रारब्ध की ऐसी पूँजी प्रदान करने के लिए आपको कोटि-कोटि नमन |”

इतना कुछ अपने ह्रदय में सोच कर उसने नीचे झुक कर धरती माता को उँगलियों से स्पर्श कर माथे से लगाया, उनका शुक्रिया अदा किया और बिस्तर से उठ खड़ा हुआ | 

चप्पल पहन मोबाइल उठा कर सीधा दौड़ कर घर की छत पर पहुँच गया | मुंडेर पर हाथ टिका उदय होते सूर्य देवता की आभा को निहारने लगा | मन ही मन में अरुणोदय को अपने प्रकाश से इस समस्त जग को प्रकाशमान करने के लिए प्रणाम किया और फिर उनके अलौकिक चमत्कार को पूर्ण होते हुए निहारता रहा | 

भोर का समय था | आसमान पर एक भीनी-भीनी लालिमा का अनावरण था | मंद-मंद पुरवाई उसके गालों को छु शरीर में सिहरन बढ़ा रही थी | पक्षी नभ में कल्लोल करते विचरण कर रहे थे | क्षितिज तक फैले व्योम में विचरते परिंदे और उनका चहचहाना ह्रदय को आत्मविभोर कर रहा था | बादलों की कतारें नव-निर्मित गगन में ऐसी प्रतीत हो रहीं थीं जैसे कोई भाप-यंत्र से निकलती धुएं की लकीरें हों | दूर तक फैले दृश्य में यदि आँख उठा कर देखो तो सिर्फ ऊँची-ऊँची इमारतें और सड़क से आती वाहनों की गड़गड़ाहट, पों-पों करती भोंपू का शोर सुनती गाड़ियाँ कानो में हलाहल घोल रही थीं | परन्तु पास के मंदिर में बजती घंटियाँ, पिछवाड़े की मस्जिद से गूंजती अज़ान की ध्वनि और पड़ोस वाली चाय की दुकान में धुलते, पटकते बर्तनों की मिश्रित ध्वनियों ने इस शानदार प्रभात-बेला में चार चाँद लगा दिए थे | 

छत पर बने अपने छोटे से बागीचे को निहारता रहा और उन में नव अंकुरित पुष्पों को सजीव हो झूमते देख कर उसका ह्रदय गद-गद हुआ जा रहा था | जेब से मोबाइल निकाल खिलखिलाते पत्तों, फूलों, और उन पर मंडराते जीव जंतुओं का छाया चित्र निकाल उसने उन पलों को अपने मोबाइल की एल्बम में कैद कर लिया | काफी देर ‘प्रालेय’ खड़ा रहकर कुदरत की इस अद्भुत और विहंगम चित्रकारी का रसपान करता रहा | फिर वापस अपने कमरे में लौट आया और बिस्तर पर लेट गया | अभी भी थोड़ा सा आलास चित्त में अठखेलियाँ कर रहा था | अभी एक और छोटी से झपकी लेने की सोच ही रहा था कि तभी आवाज़ आई, 

“बेटेजी उठ गए क्या ? राजा साहब की सवारी नाश्ते पर कब तशरीफ़ ला रही है ? मुहूर्त निकला या नहीं अभी तक या किसी को पत्रा ले कर भेजूं ?” 

“आता हूँ माँ | आप भी कभी चैन से सोने नहीं देती हो | आपको पता कैसे चल जाता है इस सब का ? मैं जाग रहा हूँ या सो रहा हूँ ?” 

“मैं माँ हूँ तुम्हारी तुम मेरी माँ नहीं हो | समझे ? अब ज़रा आने का कष्ट करो वरना चाय ठंडी हो जाएगी | महानुभव् अपने चरण कमलों को थोड़ी यातना दो और ऊपर आ जाओ | तुरंत |”

वो उठा और बालों को खुजलाते नाश्ते की मेज़ पर जा बैठा | 

“आइये ज़िल्लेसुभानी ! तशरीफ़ का टोकरा उठाये किधर को आये मियां ? आज इतनी सुबह इधर का रास्ता कैसे भूल गए जहाँपनाह ? अभी तो सिर्फ छह ही बजे हैं | आज सूरज देवता ज़रूर पश्चिम नहीं दक्षिण से निकले होंगे...जो आपके दर्शन इस समय हो गए |” छोटी बहन ने सुबह-सवेरे से चुटकी लेना प्रारंभ कर दिया | 

“चुप कर जा, दिमाग ना खा यार | आज पता नहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा | अचानक से सुबह आँख खुल गई और मन में विचित्र विचारों के सैलाब उमड़ रहे हैं | पता नहीं क्या होने वाला है |”

“लो भई...! और सुनो लेखक महोदय आज भोर से ही जाग उठे | चाय पीयो भाई चाय | दिमाग ज्यादा ना चलाओ | दिल ठंडा रख भाई | चिल्ल कर यार |”

अचानक...! मोबाइल की घंटी बज उठी | माँ ने फ़ोन उठाया | 

“हेल्लो...कौन ?”

“अरे! मैं बोल रहा हूँ दीदी...कैसी हो ?” 

“ठीक हूँ...तू बता कैसा है | इतनी सुबह कैसे फ़ोन किया आज ? लगता है रात भर मेरी याद में सोया नहीं तू तभी आवाज़ में आलास भरा है तेरी | घर पर सब कैसे हैं ?”

“दी...कुछ ठीक नहीं है | मम्मी की तबीयत बहुत ख़राब है | अचानक से बिगड़ गई | दो दिन हो गए अस्पताल में एडमिट हैं | डायलिसिस पर हैं | हो सके तो आ जाओ | मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है | दिल बहुत घबरा रहा है |”

इतना सुनते ही माँ कुर्सी पर धक् से बैठ गईं | ‘प्रालेय’ उठा और फ़ोन माँ के हाथ से लेकर बात करने लगा |
“हाँ...क्या हुआ कौन ?”

“अरे यार मैं बोल रहा हूँ | तू आजा यार | मम्मी अस्पताल में है | सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया | एक दम से पता नहीं क्या हो गया | दो दिन हो गए भर्ती हुए | उनके गुर्दों में संक्रमण हुआ है | वो डायलिसिस पर हैं पिछले दो दिन से |”

प्रालय बोला – “दो दिन से क्या कर रहा था ? आज बता रहा है | आ रहा हूँ फ़िक्र ना कर | बस पहुँचने में जो समय लगेगा उतना सब्र कर | बाक़ी बात आकर करूँगा | चल बाय |”

फ़ोन काट सीधा माँ के पास गया, उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर बोला “कुछ नहीं होगा माँ | उनके साथ हम सब हैं | मैं जा रहा हूँ | अभी तुरंत निकलता हूँ | जैसी भी स्तिथि होगी मैं ख़बर करता रहूँगा | आप चिंता ना करो | आपकी सेहत पर असर पड़ेगा | फिर ब्लड प्रेशर बढ़ जायेगा |”

दस मिनट में तयार होकर प्रालय घर से निकल पड़ा | बस पकड़ी और सीधा घर पहुँच गया | भाई इंतज़ार कर रहा था | पहुँचते ही उसने पुछा, “अब कैसी तबीयत है ?”

भाई बोला – “अरे यार ! बस पूछ मत | बस यह समझ ले ऊपर वाले ने सुध रख ली | अब सेहत में सुधार है थोड़ा पर स्तिथि चिंताजनक बनी हुई है | सबके हाथ पैर फूल गए थे इसलिए पहले फ़ोन कर के बता नहीं पाया | चल अस्पताल चलते हैं मैं तो तेरा ही इंतज़ार कर रहा था |”

भाई ओ गले लगा कर उसने उसकी परेशानी बांटते हुए कहा, “यार सब सही होगा | फ़िक्र क्यों करता है | अब तो मैं भी आ गया हूँ | हम दोनों सब संभाल लेंगे |”

मोटरसाइकिल उठा कर दोनों अस्पताल पहुंचे | आज बरसों के बाद फिर कोई अपना ऐसी जगह था जहाँ प्रालय को जाना कभी अच्छा नहीं लगता था | पिछली दफ़ा भाई की तबीयत बिगड़ने पर उसने वो पंद्रह दिन वहां कैसे बिताये थे यह वो ही जानता था | आज एक बार फिर उसी जगह खुद को पाकर उसका मन फिर से विचलित हो उठा था | 

भरी क़दमों से वो भाई के पीछे पीछे कमरे की और चल पड़ा | कमरा नम्बर - २०३ में जैसे ही दाख़िल हुआ एक बार को तो उसकी आँखें भर आईं | अस्पताल का माहौल उसे कभी पसंद नहीं था | डॉक्टरों से तो उसका छत्तीस का आंकड़ा था | कमरे में जाते ही पहला दृश्य देखा कि बिस्तर पर सफ़ेद चादर बिछी हुई है | सिरहाने पर लगी लम्बी रौड और उस पर लटकी ग्लूकोस की बोतल और साथ में इंजेक्शन की शीशी | उससे जुडी सुई और पाइप जिसका दूसरा सिरा उनकी हथेली के ऊपर वाले हिस्से में घुसा हुआ है | हाथ सूज कर कुप्पा हो रखा है | वो बेसुध बिस्तर पर लेटीं हैं | 

बराबर में रखी बैंच पर एक गद्दे पर सफ़ेद चादर लिपटी है और उस पर मौसी बैठी हैं | प्रालेय भी चुप चाप सिरहाने बैठ गया | भरी हुई आँखों से उनके चेहरे पर उभरते पीड़ा के भावों को पढ़ना प्रारंभ कर दिया | तकरीबन पंद्रह मिनट तक वो ख़ामोशी का जमा ओढ़े टकटकी बांधे तकता रहा | भगवान् से उनकी सलामती की दुआ करता रहा | फिर हिम्मत जुटा कर भरी आवाज़ में मौसी से पुछा, 

“अब तबीयत कैसी है ?”

कहने को तो बिस्तर पर जो लेटीं थीं उसकी मामी थीं पर प्यार हमेशा माँ की तरह किया था | हमेशा हंसती और खिलखिला कर बात करने वाली जीवंत महिला आज दर्द से बेचैन गफलत में खामोश बिस्तर पर लेटीं थी | चाहते हुए भी प्रालेय उनसे आज हमेशा की तरह हंसी मज़ाक नहीं कर सकता था | 

मौसी ने उसकी कमर को सहलाया और सर पर हाथ फेरकर बोलीं – “परेशान मत हो | अब तबीयत पहले से बेहतर है | बस खैर हो गई | ये समझ दूसरा जीवन मिला है | अचानक से दोनों किडनियों ने काम करना बंद कर दिया था | पूरे शरीर में इन्फेक्शन फैल गया था | शुगर इन्हें पहले से ही हैं | अभी एक हफ़्ता पहले आँख का ऑपरेशन हुआ था | उसी की कोई दवाई थी जिससे रिएक्शन हो गया और बस यहाँ पहुंचा दिया | पर अब धीरे धीरे सेहत में सुधार हो रहा है | समय पर सही डॉक्टर द्वारा सटीक उपचार मिलने से स्तिथि काबू में आ गई |”

यह सुन प्रालय की जान में जान आई | तुरंत मोबाइल से माँ को घर पर फ़ोन लगाया और सारी स्तिथि से अवगत कराया | उसकी बातों को सुनकर माँ का मन भी शांत हुआ और कुछ निश्चिंतता हुई | माँ ने पुछा – “तू कहाँ है बेटा ?” वो बोला – “मैं हॉस्पिटल में ही हूँ आप फ़िक्र ना करना अब मामी के ठीक होने के बाद अपने साथ लेकर ही वापस आऊंगा | फिर बाद में आप भी आ जाना उनसे मिलने के लिए |”

“ठीक है | जो भी हो मुझे खबर करते रहना |”

“हाँ माँ – बताता रहूँगा रोज़ फ़ोन करूँगा और जो भी ब्यौरा होगा अपडेट करता रहूँगा | अब रखता हूँ आप भी अपनी सेहत का ख्याल रखना | बाए |” 

इतना कह उसने फ़ोन काट दिया | 

आज चार दिन हो गए थे हॉस्पिटल में भर्ती हुए पर मामी की हालत में कुछ ख़ास सुधार नहीं हो पाया था | उनके मुंह में छाले पड़ गए थे | थोड़े थोड़े समय के अंतराल में उन्हें चम्मच से पानी ग्रहण करवाया जा रहा था | सेहत सुधारने के लिए थोडा बहुत लौकी और खीरे का रस भी दिया जा रहा था | 

एक बेहतरीन इंसान और बेहद जिंदादिल शख्सियत की मालकिन जिनका व्यक्तित्त्व हमेशा उनकी हंसी के साथ झलकता था आज आँखे मूंदे मरीज़ बन हॉस्पिटल के बिस्तर पर अपने दर्द से लड़ रहीं थीं | यदा-कदा अपनी आँखें खोल कर आस-पास के लोगों को पहचान पाने की कोशिश करतीं | कभी धीरे से मुस्कुराने की कोशिश भी करतीं पर दर्द हर बार जीत रहा था | दर्द इतना ज्यादा था कि अपने चेहरे के भावों से उसे छिपाने की कोशिश में वो नाकाम हो रहीं थीं | उनकी टीस का आंकलन उनकी आँखों से गिरते आंसुओं से ही हो जाता था | दिन के पंद्रह से ज्यादा इंजेक्शन, दसियों ग्लूकोस की बोतलें और बिस्तर पर पड़े पड़े ना हिल-डुल पाने की स्तिथि में कोई कैसा महसूस करता होगा अब वो समझ रहा था | इसी कवायत के चलते दिन बीत रहा था | शाम हुई और डाक्टर साहब रूटीन राउंड पर चेकअप  के लिए कमरे में आये | डाक्टरी रिपोर्ट और मौजूदा हालातों को देख उन्होंने आश्वासन दिया कि अब पहले से सेहत में सुधार हो रहा है | 

बातचीत होती रही | रिश्तेदारों और भाई बन्धु के साथ वो भी कुछ इधर-उधर की बातें डॉक्टर सब के साथ करने लगा | माहौल को थोड़ा हल्का करना भी बेहद ज़रूरी था | थोड़ी इस बातचीत के पश्चात अपने डॉक्टर भी जान पहचान और रिश्तेदारी में निकल आए | फिर क्या था प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टर वाला रवैया छोड़ कर उन्होंने भी अपनापन दिखाया और रिपोर्ट्स का और गहरा अध्ययन कर सही सही स्तिथि सामने रखी | दवाइयों के साथ साथ लाफ्टर थेरेपी प्रयोग कर माहौल को हल्का किया जा रहा था | उसकी बातों से मामी का मन भी खुश हो रहा था | हंसी मज़ाक वाले माहौल में उनकी हालत में भी सुधार होने की पूरी उम्मीद की जा रही थी | उनके दर्द से कराहते चेहरे पर हंसी और मुसकराहट लाने में अब थोड़ी सी कामयाबी हासिल हुई थी | 

रोज़ की तरह रात को मामी के साथ हॉस्पिटल में रहने का फैसला कर वो ताज़ा होने और कपडे बदलने घर वापस गया | भाई और वो पिछले कुछ दिनों से रात को एक साथ उनके पास रुक रहे थे | अभी घर पहुंचा ही था कि मामा जी से उसका सामना हुआ | वो तभी दूकान से वापस लौटे थे | उन्होंने देखते ही सबसे पहले यह सवाल किया, 

“अब क्या हाल है ? क्या कहा डॉक्टर ने ?” 

लुंगी और बनियान में वो अभी नहाने जाने की तैयारी में कुर्सी का सिरहाना पकड़े खड़े थे | ऊपर से भले ही कितने ही कड़क दीखते हों परन्तु सवाल करते वक़्त प्रालेय उनकी नज़रों में छिपे दर्द और प्यार को भली भांति पढ़ सकता था | 

उसने बताया कि अब हालत में थोडा सुधार है | चिंता की बात नहीं है और मामी जल्दी ही सही हो जाएँगी | उसका जवाब सुनकर कुछ लम्हा खामोश खड़े रहे और फिर धीरे से सर हिलाकर गुसलखाने में नहाने चले गए | 

उनके चेहरे के हाव-भाव और चाल-ढाल से उनकी चिंता स्पष्ट थी | पैंतालीस वर्ष के रिश्ते में भले ही उन्होंने अपने प्यार को बोलकर कभी ज़ाहिर ना किया हो परन्तु उनके दिल में मामी के लिए जो इज्ज़त, सम्मान और प्यार का अपार भण्डार छिपा था वो आज उसने पहली बार मामा की आँखों को पढ़कर महसूस किया था | उसे अच्छे से मालूम हो गया था कि उनके दिल में मामी की एक खास जगह है जिसे वो कभी भी बोल कर किसी के भी सामने बयां नहीं कर सकते | वही लोग जो उन्हें दिल से समझते हैं वे ही उनकी आँखों से झलकती उस चिंता और प्यार को पढ़ सकते हैं |

सारी रात उसने हॉस्पिटल में बैठे बैठे आँखों में गुज़ार दी | कहीं मामी को किसी चीज़ की ज़रुरत ना पड़ जाए | रात भर एक नई और आशा की किरण लिए आने वाली सुबह का इंतज़ार लगा रहता | बस यही सोचता रहता कि कब वो एक बार फिर से अपने भाइयों, मामी और परिवार जन के साथ घर पर फिर से हंसी-मज़ाक के उन पलों को जीवंत देख सकेगा | सब के साथ बैठकर एक दफ़ा फिर से मामी के साथ छेड़खानी और ठीठोली करेगा | कब मामी अपने अंदाज़ में एक बार फिर उसे कहेंगी – 

“हम से मज़ाक करते हो रुक जाओ आने दो तुम्हारे मामा को उनसे शिकायत कर देंगे |” 

यही सब सोच विचार करते भगवान् से प्रार्थना कर रहा था की उसकी मामी जल्द से जल्द स्वस्थ और तंदुरुस्त होकर घर वापस आ जाएँ | ईश्वर उन्हें लम्बी आयु और निरोगी रखे | उनका घर संसार हमेशा हँसता, खिलखिलाता और मुस्कुराता रहे | सभी रोग मुक्त रहें | उनका साया और आशीर्वाद सभी बच्चों पर सदा बना रहे | इन सब ख्यालों में पता ही नहीं चला कब सुबह हो गई | पूरी रात ऐसे ही आँखों-आँखों में कट गई | 

तकरीबन ग्यारह बजे डॉक्टर राउंड पर आया और परीक्षण कर बोला ठीक ही चल रहा है सब | आज एक और डायलिसिस होगा | घर से भाई भी आ गया था | सब कुछ सही चल रहा था | सब यही सोच रहे थे की अब सेहत में सुधार है और दो तीन डायलिसिस के बाद बस घर भेज देंगे | परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था | एक बजे उन्हें डायलिसिस रूम में ले जाया गया | तब तक सब कुछ ठीक था | दिल ना होते हुए भी प्रालेय अपने छोटे भाई की जिद पर उसके साथ घर तयार होने चला गया | मामी के साथ बड़े भैया थे और मौसी का बेटा था | थोडा हंसी मजाक करते मामी के ठीक होने की राह तकते सब इसी इंतज़ार में थे कि अब सब सही होगा | अभी दोनों घर पहुंचे ही थे कि उसके मोबाइल की घंटी बजी और दूसरी तरफ से आवाज़ आई – 

“यार बहुत गड़बड़ हो गई जल्दी आ हॉस्पिटल – तुरंत .... !!!” 

उसने भाई को आवाज़ लगाईं और उलटे पाऊँ दोनों वापस हो लिए | गोली की तेज़ी से मोटरसाइकिल दौड़ाते वापस पहुंचे तो सन्न रह गए | मामी आई.सी.यू में थीं | उन्हें बिजली के झटके दिए जा रहे थे | लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर उनका शरीर निर्जीव अवस्था में प्राणरहित मिटटी हुआ रखा था | डॉक्टर, नर्स और बाकि सभी भाग दौड़ कर रहे थे | कोई ऑक्सीजन लगा रहा था कोई उनके मुंह में बॉल पंप कर रहा था | पंद्रह मिनट के भीतर सारा नज़ारा ही बदल गया था | आख़िरकार सभी कोशिशें व्यर्थ हो गईं | 

डॉक्टर ने बहार आकर सर हिला कर कहा – “नहीं”

इतना सुनते के साथ ही सबकी कहानी वहीँ रुक गई | प्रालेय वहीँ एक कोने में खड़ा सब कुछ देखता रहा | ना रोते बनता था न कुछ कहते | बस एक टक मामी की तरफ देख रहा था | उनके साथ बिताया हर एक लम्हा सिनेमा की तरह उसकी नज़रों के सामने घूम गया | पर इस बार मामी धोखा दे गईं | सबके साथ छुट्टियों में घूमने चलने का वादा था | अब अकेले ही घूमने निकल गईं | विचार कितने ही उसके विचलित दिल में पनपते रहे | विचारों के चलते आंसू तक सूख गए | आँखें वीरान और खुश्क थीं | जीवन और मृत्यु का तमाशा भी उसने बहुत करीब से देख लिया था | जो अभी साथ था वो अगले ही पल रेत की भाँती हाथों से फिसल गया और साथ छोड़ गया | जीवन और मृत्यु का अर्थ अब उसकी समझ आ गया था | जो आया है उसे तो जाना ही है | इसलिए जाने वालों को रोकर विदा करने की जगह हंस कर विदा करो | जिस से वो उस संसार में भी वैसे ही खुश रहें जैसे यहाँ आपके साथ थे | 

कमबक्त ज़िन्दगी बहुत कुत्ती शय है, ये ना जाने क्या-क्या देखने, झेलने और सहने को विवश कर देती है | आज भी जब मामी की याद आती है तो आँखें पत्थर हो जाती है और प्रालेय थोडा सा उदास हो जाता है पर फिर उनकी मुस्कान को याद कर जीने का हौसला जगाता है, आगे कुछ नया देखने के लिए और एक नई शुरुवात के लिए तयार हो जाता है |

किसी ने सच कहा है ना - एक समृद्ध, जिंदादिल और खुशहाल जीवन जीने का रहस्य है - नई शुरुवात ज्यादा और अंत कम से कम :)

मंगलवार, अक्टूबर 29, 2013

अनजाने जाने पहचाने चेहरे

चेहरा बेशक अनजान था पर दिल शायद अनजान नहीं था । टोटल ज़िन्दगी देने वाला और मुर्दे में जान फूँक देने वाले नयन नक़श थे । 

आज मेट्रो में कहीं से आ रहा था । मेट्रो को वातानुकूलक यंत्र यानी एअर कंडीशनर का शीत माप चरम पर था । खिडकियों पर ओस की तरह भाप जमी साफ नज़र आ रही थी । काफी लोग जिन्होंने या तो आधी बाज़ू के कपड़े पहन रखे थे या जो ज़रुरत से ज्यादा फैशन परस्त थे ठण्ड के कारण सिकुड़े जा रहे थे । भीड़ ठीक ठाक थी । आने वाले त्यौहार की गर्मी इस ठन्डे डिब्बे में रौनक बनकर छा रही थी । मैं भी थोड़ी बहुत ठण्ड बर्दाश्त कर रहा था क्योंकि अभी अभी बीमारी से दुआ सलाम कर के दुनिया के मैदान में हाज़िर हुआ था । सोचता था के कहीं दोबारा से रामा-शामा की नौबत न आ जाये।

मैं मस्ती से अपने नए मोबाइल पर कानो में हेडफोन लगाये 'होब्बिट्स' नामक फिल्म के रोमांच का आनंद प्राप्त करने में व्यस्त था कि तभी उस स्टॉप से एक बेहद सादी, मनोरम, सुन्दर सी लड़की डब्बे में चढ़ी और मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गई । उसको एक बार नज़र उठा कर देखा फिर मैं अपनी फिल्म देखने में मशगूल हो गया । पर कुछ ही पल बाद दिल फिल्म की जगह उसे देखने को कर रहा था तो एक बार फिर से निगाह उठा कर उसका दीदार किया । कमाल की थी वो । सच ! इतनी आकर्षक लड़की अक्सर कम ही देखने को मिलती है । ऐसा चेहरा जिससे देख कर दिल गार्डन नहीं साला तुरंत ईडन गार्डन हो गया । एक दम साधारण होकर भी बहुत असाधारण थी । पर हम भी कौन सा कम हैं अपनी आदत से मजबूर, मेरा अंदरूनी अवलोकन यंत्र शुरू हो गया अर्थात मैं उसका चेहरा, हाव भाव, बैठने के तरीके और शारीरिक भाषा को पढ़ने का प्रयास करने लगा । दरअसल मुझे लोगों का बहुत ही बारीकी से निरूपण करना अच्छा लगता है । उन्हें पढ़ना और उनकी हरकतों से खुद को वाकिफ करना बेहद रोचक रहता है ।

वो बेहद सादा पहनावा नीली डेनिम की जीन्स पर, सफ़ेद टी-शर्ट, कानो में बड़ी गोल बालियाँ, माथे पर पसीने की कुछ बूँदें, कलाईयों पर  हल्का रुआं और टाइटन की सुनहरे डायल वाली घडी के साथ पैरों में कानपुरी चप्पल पहने थी । भीनी भीनी महक वाला डीओ भी अच्छा लगा रखा था । हल्का इवनिंग मेकअप, आईलाइनर, और खुले हुए बालों के बीच उसका चमकता साफ़, गोरा, सुन्दर, चंचल चेहरा और उस पर भूरी आँखें ऐसे झाँक रही थी मानो सागर में से कोई छोटी लहरें बहार आने को बेताब हो रही हो । महीन सी छिदी हुई नाक और बारीक लकीर जैसे उसके होंठ | तौबा ऐसी सुन्दरता को देख कौन न फ़िदा हो जाये । मैं तो सच देखता ही रह गया था । एक हाथ में मोबाइल फ़ोन और दुसरे में कुछ फइलें । सबसे कोने वाली सीट पर बैठी उसकी उदासी उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी । ऐसा लगता था मानो ज़िन्दगी की जंग हार के बैठी हो । डबडबाती आँखों में उमड़ते सैलाब को थामने का जतन करती वो अपने अगल बगल नज़रें झुकाए बार बार देखती फिर अपनी मोबाइल की स्क्रीन पर देखती और चुप चाप हथेलियों से नम आँखें पोंछ लेती । हजारों सवाल थे उसकी मासूम आँखों में और शायद कितनी ही शिकायतें रही होंगी उन कपकपाते होटों पर जिन्हें वो धीरे से बार बार दांतों के बीच दबाती और अपने में बुदबुदाकर धीरे से धक् करके रह जाती। उसको देखकर दिल में बस एक ही ख्याल आता था कि - "आँख है भरी भरी और तुम ठीक होने का दिखावा करती हो, होठ हैं बुझे बुझे और तुम मुस्कराहट का तमाशा करती हो" । 

मैं लगातार उसको बड़े ही गौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था । वो बार बार इधर उधर देखती, मेरी तरफ देखती, फिर घुटनों पर घुटने चढ़ा कर बैठती और कुछ मिनट के बाद अपने बैठने का तरीका बदल लेती या फिर टांगें बदल लेती । कभी अपनी फ़ाइल तो कभी मोबाइल को सँभालने में लग जाती । लगता था के जैसे या तो बहुत गहन उधेड़ बुन में है या फिर कहीं पहुँचने की बेहद जल्दी है । लगातार बार बार हर दफा अपने पैरों के अंगूठों को आगे पीछे करना, उसका उँगलियों को सिकोड़ना, हाथों की उँगलियों को बार बार हथेली से दबाना और फिर गर्दन का झटकना साफ़ इशारा करता था के उसके दिल में उथल पुथल चल रही थी । वो कुछ सोच रही थी पर निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी । जो भी था उसके भीतर बहुत ही दर्दनाक और तकलीफ़देह था क्योंकि इतनी भीड़ में भी वो एक दम गुमसुम, अकेली, तनहा और अनजान नज़र आ रही थी । उसकी कालाईयों पर खड़े रोंगटे नए अंकुरित पौधे की भाँती सर उठा कर मानो ऐसे सवाल कर रहे थे कि आगे क्या होगा ? हमारा ख़याल कौन करेगा ? पता नहीं वो डर से था या फिर फ़िक्र से ?

इस सब के बीच उसकी नज़रें कई बार मेरे से मिलीं और हर बार उसने ऐसे देखा जैसे बात करना चाहती हो । वो जानती थी और समझ रही थी मैं उसे बहुत देर से देख रहा हूँ । उसकी एक एक हरकत पर मेरी निगाह है । उसकी नज़रें सवाल कर रही थी ? क्या है ? ऐसे क्यों पढने की कोशिश कर रहे हो मुझे ? क्या पूछना चाहते हो ? रहने दो मत देखो ? मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो ? प्लीज़ । उसने लपक कर मुझे नज़रन्दाज़ करने की बहुत कोशिश की पर शायद वो भी जान गई थी के जो सामने है वो उसको लगातार पढ़ने की कोशिश कर रहा है । उसने अपने भावों को और हरकतों को छिपाने की बहुत कोशिश की पर कामयाबी हासिल ना कर सकी । उसकी उन भूरी और दिल से बात कहने वाली आँखों ने सभी राज़ फ़ाश कर दिए । दिल का विरानापन चेहरे पर दस्तक देता नज़र आता रहा और वो हर लम्हा अपने अकेलेपन से लड़ती रही दूसरों की नज़रों से बचाकर।

कुछ समय बीता और उसका स्टॉप आ गया । वो उठी और गेट की तरफ आगे बढ़ी । मैं भी उसको एक टक देखता जा रहा था । सोच रहा था के काश! इसकी जो भी परेशानी है दूर हो जाये । इसके दिल में जो भी ग़म हैं वो सब फनाह हो जाएँ । इतने सुन्दर चेहरे पर सिर्फ मुस्कान ही अच्छी लग सकती है उदासी, ग़मज़दा तन्हाई और मायूसी नहीं । मैं फिर भी शीशे से परे उसको एकटक देखता रहा । फिर उसने अचानक एक दफा पीछे मुड़कर देखा और मेरी तरफ देखती रही । उसका मुड़कर देखना ऐसा था जैसे वो मेरे से सवाल करना चाहती हो तुम क्या जानना चाहते हो ? मेरे लिए ऐसे परेशान क्यों हो ? आखीर क्या पूछना चाहते हो ? क्या हम बात कर सकते हैं ? फिर अचानक प्लेटफार्म आया, दरवाज़े खुले और वो उतर गई । कुछ देर ऐसे ही खड़े खड़े मेरी ओर देखती रही फिर मेट्रो के दरवाज़े बंद होते ही लिफ्ट की ओर बढ़ गई ।

कभी कभी जीवन में ऐसा भी होता है कि बिना कहे भी किसी अनजान से आप इतनी बातें कर लेते हैं जितनी शायद आप किसी से बोल कर भी और समझ कर भी नहीं कर पाते । ईश्वर ऐसे खूबसूरत चेहरों के दिल को सुकून दे । ऐसे माहताबी, रौनक लगाने वाले चेहरों को रोने और उदास होने का कोई हक नहीं है । मेरी बस इतनी सी इल्तज़ा है लड़की की जो भी मुश्किलें हों वो दूर हो जाएँ । वो सिर्फ़ और सिर्फ़ हंसें, खिलखिलाएं, मुस्कुराएँ, नफासत बरसायें और दूसरो के जीने की प्रेरणा बन जाएँ । उनका काम बस यही होना चाहियें सुन्दरता को कभी रोना नहीं चाहियें । ऐसा मेरा सोचना है औरों से मुझे कुछ लेना देना है वो क्या सोचते हैं । 

खुदा आगे भी मुझे ऐसे ही सुन्दर और अविस्मृत चेहरों के नज़ारे देखने को मिलते रहें ।  आमीन 

बुधवार, अक्टूबर 23, 2013

आराधना - एक सोच

बहुत दिनों से सोच रहा था इस कहानी आगाज़ कैसे करूँ, कैसे शब्दों में बयां करूँ, अब जाकर कुछ सोच विचार कर मन बन पाया है | कहानी शुरू होती है हिंदुस्तान के दिल से यानी मेरी अपनी दिल्ली से | जी हाँ!  भारत की राजधानी दिल्ली | कहानी की नायिका है ‘आराधना’ | एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी, सुन्दर और सुशील कन्या | गोरा रंग, छरहरा बदन, तीखे नयन नक्श, स्वाभाव से बेहद चंचल और नटखट लेकिन बहुत ही अड़ियल है | गुस्सा तो जैसे हमेशा नाक पर धरा रहता है | जीवन में सवाल इतने के तौबा | अगर कोई साथ बैठ जाए तो ये मोहतरमा उनके जीवन का समस्त निचोड़, व्यक्तित्त्व का सारा नाप तौल और जीवन परीक्षण अपने सवालों से ही ले डालें और यदि कोई भूख से तड़पता हो तो इनके सवालों से ही उसका पेट भर जाये | इस लड़की के व्यक्तित्त्व में अनेकों खूबियों के साथ ख़ामियों की शिरकत भी बराबर दुरुस्त थी | जहाँ ये किसी से भी हुई बड़ी से बड़ी लड़ाई, तू तू मैं मैं, बहस, झगड़े इत्यादि को पल में बच्चों की तरह ऐसे भूल जाती जैसे कुछ हुआ ही न हो | वहीँ ना जाने क्यों ये कभी भी किसी पर भरोसा नहीं करती थी | यदि करती भी थी तो समय इतना निकाल देती भरोसा जताने में के गाड़ी प्लेटफार्म से निकल जाती | खैर इधर उधर की बात करने की बनिस्बत कहानी पर आते हैं | यह कहानी है उसके दिल और भरोसे के आपसी तालमेल, मतभेद, वार्तालाप और एक दूसरे के साथ हुए अनुबंध की जिसमें देखना यह है के जीत किसकी होती है | दिल की या भरोसे की |

अचानक यूँ ही एक दिन बात करते आराधना को ख्याल आया के उसका दिल और भरोसा दोनों अपनी जगह से नदारत है | तो लगा इन्हें ढूँढा जाये और लगीं इधर उधर अपने आप पास ढूँढने | ढूँढ मचाते यकायक अपने व्यक्तित्त्व की एक सूनी सी गली में जा पहुंची | माज़ी के कुछ अवशेष उस गली में बिखरे पाए और वहीँ गली के नुक्कड़ पर पड़ी एक पुरानी यादों की अलमारी की सबसे आख़िरी दराज़ में से कुछ आवाजें आती सुनाई पड़ीं | धीरे से आगे बढ़कर दराज़ को खोल कर देखा में उसने अपनी दिल और भरोसे को आपस में बात करते पाया | दोनों आपस में ख़ुसुर-फ़ुसुर करने में लगे थे | धीरे से कान लगाकर सुनने पर पता चला के बात दोनों के बीच मूल्यों और अपने महत्त्व को लेकर बातचीत हो रही थी |

भरोसा दिल से पूछता है, “ऐ दिल! क्या तू मुझपर भरोसा करता है ?”

दिल ने जवाब दिया, “यार! वैसे दिल तो नहीं कर रहा मेरा तुझपर ऐतबार करने को पर क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा “

भरोसा बोला, “यार हम दोनों तो हमेशा एक दुसरे के साथ रहते हैं | इतने समय से दोनों साथ हैं | फिर भी तू ऐसी बातें कर रहा है | मेरे भरोसे का खून कर रहा है | मेरा भरोसा तोड़ रहा है | ये कहाँ का इंसाफ़ हुआ मेरे भाई ?

दिल कुछ सोच के बोला, “यार! सच बतलाऊं दिल तो मेरा भी बहुत चाहता है के तेरे भरोसे पर ऐतबार कर लूं पर क्या करूँ मेरा दिल भी कितना पागल है ये कुछ भी करने से डरता है और सामने जब तुम आते हो ये ज़ोरों से धड़कता है | ऐसा कितनी बार हुआ है ज़िन्दगी के गलियारों में, दिल मेरा टूटा है भरोसे पर किये बीते वादों से |

भरोसे ने यह सुना तो उसकी आँखें नम हो कर झुक गईं | वो बोला, ‘सुन यार दिल हम दोनों एक ही ईमारत के आमने सामने वाले फ्लैट में रहते हैं | बिना दिल की मदद के भरोसे की गाड़ी नहीं चलती और ना बिना भरोसे दिल ही धड़कता है | मैं ये बात मान सकता हूँ कि किसी झूठे भरोसे पर तेरा दिल तार तार हुआ होगा पर क्या यह सही होगा कि किसी एक के कुचले भरोसे की सज़ा दुसरे के ईमानदार भरोसे को दी जाये ?”

दिल खामोश था, सोच रहा था क्या जवाब दे | कुछ देर सोचने के बाद दिन ने कहा, “ऐ दोस्त यकीन मुझको तेरी ईमानदारी पर पूरा है | तेरे भरोसे पर ऐतबार मेरा पूरा है पर ये दिल के जो घाव हर पल टीस देते हैं, कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं जो जीवन भर हरे ही रहते हैं |“

भरोसा समझदार था, पीड़ा दिल की समझ गया, धीरे से दिल के पास गया और अपने हाथ को दिल पर रखकर बोला, “दर्द तेरा जो है मैं समझ गया पर बस इतना करना एक आख़िरी दफ़ा मुझसे मिलकर तू मुझे अपनाने की कोशिश करना | बस यह छोटा सा वादा है तुझसे मैं तुझको दुःख न पहुंचाऊँगा | तेरे टूटने से पहले मैं खुद ही फ़नाह हो जाऊँगा | बस इतना एहसान तू मुझपर करना एक ज़रा हाथ अपना बढ़ा देना | थाम के आँचल मेरा तुम जीने की दुआ करना | फिर जीना क्या है वो मैं बतलाऊंगा | खुशियों से दामन तेरा मैं हर पल भरता जाऊंगा |”

दिल ने सुनकर, नज़रें उठा कर देखा, खुशियाँ भर कर आँखों में भरोसे की बातों पर सोचा, धीरे से मुस्कराया और थाम हाथ भरोसे का आँखों आँखों में विश्वास दर्शाया | सोचा एक मौका तो देना बनता है | पकड़ हाथ भरोसे का दिल जीवन की सीढ़ी चढ़ता है |

आराधना अचंभित खड़ी यह सब सुन और देख रही थी और अपने चेतन मस्तिष्क में कुछ नई खुशियाँ बुन रही थी | सोच रही थी क्या दिल और भरोसे की इस भागीदारी से वो जीवन नया बनाएगी | इस अनोखी भागीदारी को वो क्या कह के बुलाएगी | साथ किसका वो देगी अब ? वो दिल को जीत दिलाएगी या भरोसे को अपनाएगी ?

आखिर में फैसला इंसान खुद ही करता है वो जीवन में भरोसे को चुनता है या अपने दिल की सुनता है | क्योंकि दिल और भरोसा एक दुसरे के पूरख है | जीवन दोनों से ही आगे बढ़ता है | किसी एक का हाथ भी छूट जाये तो इन्सान सालों साल दुःख के आताह दलदल में तड़पता है |
आराधना का फैसला क्या होगा ये मैं अपने सभी पढ़ने वाले दोस्तों पर छोड़ता हूँ | आप ही बताएं आप ही सुझाएँ इस कहानी की शुरुवात अब आगे क्या होगी | 

गुरुवार, अप्रैल 18, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग १०

अब तक के सभी भाग - १०
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प्रभु की अनुकंपा साहू साब के परिवार पर निरंतर सुधाकर से बरसती शीतल और कोमल स्नेह से परिपूर्ण चांदनी की भांति बरस रही थी | समस्त परिवार समृद्धि के पथ पर अग्रसर था | सभी अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे और अपने अपने जीवन का निर्वाह बड़ी ही शालीनता के साथ कर रहे थे | अपनी बेटी के सुखी संसार के साथ वे पुलकित हो उठते थे | जब कभी समय मिलता अनारो देवी के साथ बैठ कर घंटो बतियाते | घर में सबका हाल चाल मालूम करते रहते | बहुएँ भी उनका बहुत आदर सम्मान किया करती थी | देने लेने में भी वे कभी पीछे नहीं रहते | अच्छे से अच्छा अपने नाती, नातिनों, बहुओं और दामादों को दिया करते | अनारो देवी कभी कभार एतराज़ भी जताया करती परन्तु वो दो टूक जवाब देकर उन्हें ख़ामोश कर दिया करते | 

कहते, " देख लल्ली, मेरी तो उम्र हो चली है, ये सासें कभी भी साथ छोड़ सकती हैं और आँखे कभी भी मिच सकती हैं | अब मैं मोह माया से परे हूँ | मेरा जो कुछ भी है सब इन बच्चों का ही तो है | अब तो बस यही आस है के जाने से पहले अपनी आने वाली नई पीढ़ी का मुंह देख जाऊं | ठाकुर जी का बुलावा कभी भी आ सकता है | इससे पहले के उनका बुलावा आये अपने परिवार के साथ थोडा खुश और हो जाऊं | उन्होंने मुझे सब कुछ दिया, तेरे जैसी बेटी दी, गंगा जैसा दामाद और इतने प्यारे नाती और बहुएँ | बस अब छोटे बाल गोपालों से भी वो मुझे मिल्वादें तो आँखें चैन से मूँद लूँगा | वरना बूढ़े की आस साथ ही चली जाएगी |"

उनकी बात सुनकर अनारो देवी का दिल भर आता और कहती, "चाचा काहे ऐसी बातें करते हो आप | आप तो सौ साल भी कहीं न जाने वाले | आपका आशीर्वाद, साथ और आपका हाथ तो मेरे सर पर और मेरे बच्चों के सर पर हमेशा रहेगा | मैं कहीं न जाने दूंगा चाचा तुम्हे | समझ लो सही से |"

उनकी बात सुनकर साहू साब ठट्ठा लगाकर जोर से हंस देते और अनारो देवी भी खिलखिला उठतीं | बस ऐसे ही दिन रात जीवन का कारवां बढ़ता चला जा रहा था | परन्तु यह सुख के दिन सदा के लिए नहीं थे | कोई भी स्तिथि जीवन में निरंतर नहीं रहती | कालचक्र जब घूमता है तब सभी के जीवन में अनकहे सवाल आकर खड़े हो जाया करते हैं जिनके जवाब मनुष्य कभी भी आसानी से नहीं ढूँढ पाता | यही अनारो देवी के परिवार में भी होने वाला था | जिसकी कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की थी वो सामायिक स्तिथियों वाले परिवर्तित दिन उनके समक्ष जल्दी ही शिला के सामान खड़े होने वाली थे | अब देखना यह था के उम्र के इस पड़ाव पर वे जीवन से मिलने वाले इन दृश्यों का सामना कैसे करेंगी | 

समय गुज़रा अनारो देवी की संतानों के परिवार भी नवांकुरित हुए | बहुओं की गोद भरीं | पोते पोतियों के सुन्दर मुख दर्शन हुए | जीवन यापन के साधनों में नई मोहड़ीयां और जुड़ गई परन्तु कारोबार वही सीमित रहा | इसी प्रकार धीरे धीरे परिवार में सदस्यों की गिनती में इज़ाफा होता चला गया | साहू साब के रहते किसी को कोई परेशानी नहीं थी | परन्तु उनकी भी उम्र हो चली थी | वे भी कब तक ज़िम्मेदारी अपने बूढ़े कंधो पर लेते | परन्तु परिवार में यदि कोई बुज़ुर्ग हो तो परिवार हमेशा मुट्ठी की भाँती बंधा रहता है | बिखरता नहीं है | यही कारण था के आज तक इतना बड़ा संयुक्त परिवार होते हुए भी सब साथ रहते थे | 

परन्तु ऐसा कब तक चलता | सबकी संताने भी बड़ी हो रही थी | सुरेन्द्र बाबु की छ: संताने थी जिसमें दो बेटे और चार बेटियां थी | वीरेंद्र बाबु की तीन में एक बेटा और दो बेटियां | सत्येन्द्र बाबु के पांच बेटियां तथा विनोद बाबु के दो बेटियां और एक बेटा था | बेटियों का भी परिवार बहुत संपन्न था | सभी की गोद भर गईं थी | गार्गी देवी के दो बेटे और दो बेटियां, बीना देवी के दो बेटे, एक बेटी और माधरी देवी के एक सुपुत्र और दो सुपुत्रियाँ थी | इतने बड़ी परिवार के पालन पोषण, उपहार, दान, दहेज़, लेन देन सभी की ज़िम्मेदारी और सभी का ध्यान तथा ज़रूरतों का व्यय साहू साब  के सर था | हालाँकि सभी के अपने अपने कारोबार और आमदनी के साधन थे और परिवार को पालने की क्षमता थी परन्तु अक्सर बड़े संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों को ही सर्वोपरी मान सारा भार उनको सौंप दिया जाता है | पर अब बात हाथ से निकलने लगी थी | बच्चे बड़े हो रहे थे | उनकी मांगे भी उन्ही के हिसाब से पूरी करना आवश्यक हो रहा था | पढाई लिखाई, खान पान, कपड़े, गहने,जेबख़र्चा इत्यादि और रोज़ की ज़रूरीयात का सामान चाहियें होता था | कारोबार में भी हिस्सेदारी की बातें होने लगी थी | कहता कोई कुछ नहीं था परन्तु ज़रूरतों और समय के सामने किसकी चली है | दबी ज़बान बहुत कुछ बोल जाती है | हाव भाव शब्दों से ज्यादा चीत्कार करते हैं | मुंह से ज्यादा आँखों का चिल्लाना सुना जा सकता है | इसके चलते अन्दर ही अन्दर दिलों में खिचांव की स्तिथि जन्म लेने लग गई थी और एक दिन यह बात घर के बड़ो के सामने पहुँच गई | 

नौबत यहाँ तक पहुँच गई के बड़ों के लिए कोई न कोई फ़ैसला लेना अनिवार्य हो गया | आखिरकार ह्रदय पर पत्थर रख कर जीवन का सबसे कठोर फैसले का साहू साब, अनारो देवी और गंगा सरन जी को सामना करना पड़ा | उनके सर्वप्रिय वीरेन्द्र बाबु ने स्वीकृति से फैसला दिया के वो 'महिला वस्त्रालय' अपने बड़े भाई के लिए छोड़ कर दिल्ली जाकर कारोबार करेंगे | उनके साथ उनके छोटे भाई सत्येन्द्र भी दिल्ली जाने को राज़ी हो गए | फैसले के कुछ समय पश्चात ही वीरेन्द्र बाबु सबको अलविदा कह दिल्ली आकर बस गए | वहाँ उन्होंने अपने ससुर के साथ कपड़े के करोबार से जीवन की एक नई शुरुवात की और छोटे भाई सत्येन्द्र बाबु ने ठेकेदारी का काम आरम्भ किया | 

समय बीतता जा रहा था | जीवन की उठा पटक से ग्रस्त सभी के जीवन एक निश्चित तय की हुई रेल की भाँती एक ही पटरी पर सुबह शाम दौड़ती जा रही थी | वो पुराने दिन फ़ाक्ता हुए जाते थे | रोज़ एक नई चुनौती का सामना करना पड़ता | किराये के मकान में रहकर स्वयं अपने परिवार के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी निभाना और साथ ही साथ कारोबार भी देखना | यह ज़िंदगी की ओर से बहुत बड़ी ललकार थी | बिना माता पिता और नाना के साथ के नए शहर में, नए चेहरों के बीच, जीवन को नए प्रकार से समायोजित करना कितना असुगम तज़ुर्बा था यह बात सिर्फ वो दो बेटे ही बता सकते थे | 

उधर मुरादाबाद में भी कुछ ऐसा ही हाल था | बच्चों, नाती पोतों से जुदाई और अपने प्रिय सुपुत्र से पृथक होने के कारण कुछ समय बाद साहू साब की सेहत गिरने लगी | अब उनकी सुनने वाला भी कोई नहीं बचा था | इस अलगाव का असर उन पर इतना ज्यादा हुआ के उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और जीवन के दिन गिनना शुरू कर दिया | अनारो देवी और गंगा सरन जी भी बहुत विवश महसूस करते परन्तु शिकायत किस से करते | किस्मत से उपालंभ भी क्या जायज़ होता | इसलिए ख़ामोशी से जीवन का खेला देखते रहते और प्रभु भजन से जीवन-प्रत्याशा बनाये रखते |

अचानक एक दिन कहीं से कोई घर पर एक कुत्ता पालने के लिए ले आया | साहू साब को कुत्ते बिल्लियों से बहुत चिड़ थी | ख़ास तौर पर घर में पालने से | तो उनके डर और डांट डपट से बचने के लिए उसने कुत्ते को छत पर बाँध दिया और रोज़ उसका लालन पालन वहीँ छत पर होने लगा | गर्मियों के दिन थे, कुछ हफ़्तों बाद, अनायास ही एक दिन दोपहरी में जब, सब अपने अपने कमरों में आराम कर रहे थे साहू साब जैसे तैसे करते अपनी छड़ी और हाथों के सहारे टटोल टटोल कर ऊपर छत पर हवाखोरी के लिए पहुँच गए | उन्हे कुत्ते के बंधे होने के बारे में ज़रा भी मालूमात नहीं थी | इस सच से अनजान वे छत पर चहलकदमी करने लगे | कुछ क़दम ही बढ़ाये थे के अकस्मात् ही उनका पैर कुत्ते की पूँछ पर पड़ गया | उन्होंने सोचा शायद कोई रस्सी या कुछ और छत पर पड़ा है | अपनी छड़ी से उन्होंने जैसे ही उसे सरकाना चाहा कुत्ते से तुरंत पलटवार किया और उनका पैर दांतों के बीच लपक लिया और बुरी तरह काट लिया | 

दृष्टि से लाचार नेत्रहीन साहू साब चिल्ला कर गिर पड़े | इधर उधर जैसे तैसे बचाव की लिए छड़ी भी घुमाई परन्तु कोई फ़ायदा नहीं हुआ | जो अनिष्ट होना था वह तो हो गया था | उनके करहाने और चिल्लाने की आवाज़ सुनकर जितनी देर में नीचे से सब ऊपर छत पर आए उतनी देर में कुत्ते ने अपना काम कर दिया था | उसने साहू साब को काट काट कर लहुलुहान कर दिया था | तुरंत ही उन्हें उठा कर नीचे लाया गया और डाक्टर को बुलवाया गया | डाक्टर ने मरहम पट्टी की और दवाई भी दी | पैनी सुइयों की चुभन भी उन्हें अपने शिथिल होते वृद्ध काया में झेलनी पड़ीं | डाक्टर की ताकीद के अनुसार उन्हें अब कम से कम दो महीने बिस्तर पर आराम करना था | अपनी इस अवस्था में भी वे वीरेन्द्र बाबु को ही याद करते रहते | सबसे कहते,"कोई मेरे बिरेन को बुला दो" पर अब सुनने वाला कोई नहीं था | कोई जवाब भी नहीं देता था न ही काम करता था | 

इस हादसे को अब दस दिन बीत चुके थे | साहू साब की तबियत सुधरने की जगह बिगड़ने लगी थी | उधर छत पर कुत्ते की तबियत भी ठीक नहीं थी | कुत्ता भी अजीब तरह से पेश आने लगा था | बार बार सबको काटने को दौड़ता | जो भी खाना देने जाता उस पर भौंकने लगता और ज़ंजीर तोड़ने तक का जोर लगता और लगातार उसके मुंह से झाग निकलते रहते | वही हालत नीचे साहू साब की हो रही थी | वो बात करते करते अचानक कुकुर की भाँती आवाज़ निकलने लगते, मुंह से झाग निकलने लगते और जो भी सहायता के लिए पास आने की कोशिश करता उस पर लपकते और झपटते | डाक्टर को बुलावा भेजा गया और उसके पूछने पर पता चला की कुत्ते को किसी प्रकार का कोई भी टीका नहीं लगा था | वो समझ गया और उसने सबको चेतावनी दे दी के मसला गंभीर है | उसकी बात सुनकर और उनकी ऐसी हालत देखकर सब डर गए और तुरंत वीरेन्द्र बाबु के पास दिल्ली खबर भिजवाई गई | पर किस्मत के सामने किसकी चली है | वीरेन्द्र बाबु दिल्ली से बहार थे | शाम को जब वह लौटे तो उन्हें यह खबर मिली | तुरंत सुरेन्द्र बाबु को साथ ले कर उलटे पाँव मुरादाबाद के लिए रवाना हो गए | 

दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | अपने नाना में उनकी जान बस्ती थी | उनका समस्त संसार उनके नाना के इर्द गिर्द घूमता था | बचपन से जिस बरगद के साये में सांस लेते हुए, खेलते कूदते, ज्ञान लेते और सम्मान लेते बड़े हुए थे आज उनकी तबियत के बिगड़ जाने की खबर से उनका मन व्याकुल हो रहा था | अपनी जीवन की समस्त पूँजी को हाथ से जाने का ग़म जैसे होता है वैसा ही एहसास उनके ह्रदय को बार बार असहनीय पीड़ा से त्रस्त कर रहा था | सुरेन्द्र बाबु ने उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया परन्तु गुस्से में उन्होंने, उन्हें भी नहीं बक्शा और अच्छे से लताड़ दिया | उनके सर से उनका आसमान दूर होता प्रतीत हो रहा था | उनके लिए सफ़र का पल पल काटना भारी पड़ रहा था | 

उधर साहू साब की हालत बिगडती जा रही थी | वे पूरी तरह से कुत्ते की भाँती बर्ताव करने लगे थे | अचानक से छत पर कुत्ता मृत पाया गया | डाक्टर ने बतलाया था कि साहू साब को रेबीज हो गई है और यदि कुत्ता जीवित नहीं बचा तो अब उनका जीवित रहना भी नामुमकिन होगा | ज़हर और कीटाणु समस्त शरीर में असर कर चुके हैं | अब बहुत देरी हो चुकी है | आखिरकार आज वो दिन आ गया था | साहू साब को संभालना मुश्किल होता जा रहा था | वो जैसे ही खाने के लिए ज़मीन पर बैठे तुरंत ही लुड़क कर एक तरफ गिर पड़े और उनके मुंह से झाग निकलने लगे | ज्यादा समय नहीं लगा बिरेन बिरेन करते हुए चन्द मिनट में उनके प्राण पखेरू ब्रह्मलीन हो गए | समय की विडम्बना देखिये या इसे नियति का स्वांग कहिये इधर साहू साब की साँसों ने विराम लिया और उधर वीरेन्द्र बाबु ने घर की ड्योढ़ी पर कदम रखा | क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

महबूब

आभा ! जैसा नाम वैसा ही स्वरुप और बहुत ही आभामय जीवन शैली का यापन करने वाली गुलाब के फूल सी कोमल युवती | हर हाल में, हर रूप में, हर स्वरुप में, सुख में, दुःख में, धुप में, छाँव में, ठंडी में, गर्मी में, पतझड़ में, बारिश में, और हर छोटे बड़े उतार चढ़ाव दर्शाती परिस्थिति में जीवन का ख़ैर मक़दम करने वाली बहुत ही जिंदादिल युवती है "आभा" | उसके नाम के अनुरूप ज़िन्दगी के प्रति उसका दृष्टिकोण भी आभायमान रहता था | जिंदादिल, खुश मिजाज़, ख़ुर्शीद से दमकते रूप, सौंदर्य से परिपूर्ण नफीस कुदरत का करिश्मा जिसे अल्लाह मियाँ ने किसी खास व्यक्ति के लिए चुन कर संसार में भेजा था | जीवन के बीस सावन पार कर अब वो आगे आने वाले सावन के इंतज़ार में थी | उसके चेहरे की तस्कीं, मीलों दूर फैले सहराओं का एहसास देती है | काली घनी नागिन सरीखी लहराती जुल्फें दिन में काली बदली लाने का माद्दा रखती हैं | शम्स की आग सा ताबिंदा पेशानी का नूर देखने वालों की नज़रों को झुकाने का सामर्थ्य रखता है | चाँद जैसे रौशन गुलज़ार रुखसारों के साथ गेज़ाल मदभरी आँखों पर कौन ना दिल हार बैठे और दिलों जान से मर ना मिटे | सुर्ख होटों पर शबनम सी बरसती हंसी किसी के भी दिल में इश्क के तूफ़ान कैसे न पैदा कर दे | ऐसी दिलफ़रेबी गुलफ़ाम से भला कौन बच सकता था | 

अपनी ज़िंदगनी की पहली पारी में आभा अपने प्रेमी सूरज से बहुत ज्यादा वाबसता थी | उसके इश्क का जादू आभा के सर पर चौबीस घंटे चढ़ा रहता | दिन रात सोते जागते बस एक ही नाम ज़हन में समाये जाता, सूरज! सूरज! सूरज! | वो दोनों एक दुसरे के इश्क में गिरफ्तार आलम से बेखबर, एक दुसरे के हाथ में हाथ लिए, आँखों में आँखे डाल महशर की रात के सपने सजाते और आग़ोश में बैठे साथ जीने मरने की कसमें खाते | पर ऐसा हो ना सका कुदरत को कुछ और ही मंज़ूर था | आभा के वालिद बहुत ही संजीदा इंसान थे | मिजाज़ से बहुत ही कड़क, हठी और गुस्सैल | जो उनके जी में आती वही करते | किसी की हिम्मत नहीं थी उनके सामने ज़बान खोल सकता और उफ़ तक कर सकता | अपने सैकड़ों ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल करते पर अंजाम सिर्फ अपनी सोच को ही दिया करते |

ऐसे में उन्हें एक दिन मालूम चलता है के उनकी बेटी आभा किसी के इश्क की गिरफ्त में है | मालूम चलने पर गुस्सा तो बहुत आया पर फिर लाल पीला होने की बजाये उन्होंने चुप रहकर एक राजनैतिक खेल खेला और ऐसे हालात पैदा कर दिए के आभा को शादी करने के लिए रज़ामंदी देनी पड़ी | उसका निकाह उन्होंने अपने पुराने लंगोटिया के साहबज़ादे के साथ पढ़वा दिया | हालाँकि आभा आज भी सूरज के गल्बा-ए-इश्क़ में मशगूल थी पर चूंकि पिताजी की इज्ज़त भी की लाज भी निभानी थी तो जैसे तैसे उसने अपने इस नए जीवन के आगाज़ का ख़ैर मक़दम कर लिया | 

पिता के प्रति अकीदे की बहुत भारी कीमत अदा कर आभा आज बिना किसी टिल्ले-नवीस के अपनी पुरानी ज़िन्दगी को टिल्ला के आगे बढ़ चुकी थी | अकेली हिज़्र की तपिश में स्वाह होती रहती पर अपनों के आय’जाज़ के लिए अपने माज़ी को टिली-लिली देती | अब उसकी यादों में सिर्फ गुज़रे वक़्त के अफसाने ही थे और कुछ अश्क जो उसने सबसे छिपा कर संजो रखे थे | उसके आने वाले जीवन में नया रंग भरने वाला मुसाविर अब उसका पति था और वो अपने इस नए परिवेश में फकत आसिरान बनी आने वाले वक़्त का तमाशा देख रही थी | इसका महासल यह हुआ के खिलखिलाती आभा हमेशा के लिए ख़ामोशी की चादर में लिपटी, लफ़्ज़ों को सिये अपनी ज़िन्दगी की तनहाइयों में गम हो गई | 

वक़्त का वकफ़ा कैसे गुज़ारा कुछ मालूम नहीं दिया | आज जब कि वो बहुत खुश है अपनी शादीशुदा ज़िंदगी मे, हर बात का ख्याल रखने वाले पति और दो प्यारे बच्चो के साथ, बीस वर्ष बाद अचानक सफाई करते समय पूर्व प्रेमी सूरज के ख़त पर नज़र पड़ती है | एक पुरानी किताब सफाई के दौरान नीचे गिर पड़ती हैं और ज़िन्दगी के पुराने सफों को खोल कर सामने ला खड़ा करती है | उस ख़त को पढने के बाद उसके सामने पुराना मंज़र एक बार फिर दौड़ जाता है | उसे अपना पहला प्यार याद आता है जिसकी हसरत-ए-दीदार के लिए कभी वो बेतहाशा तरसा और तड़पा करती थी | कुछ मजबूरियों की वजह से जिससे जुदा होना पड़ा था वो एक बार फिर से यादों की कब्र से उठ कर बहार आ खड़ा होता है | अब वो भावुक हो उठती है और आँखें नाम किये ख़त को सीने से लगाये खड़ी सोचती रहती है | एक बार पुराने प्रेमी को देखना चाहती है | अब उसे क्या करना चाहिए? क्या उस खत को फाड़ कर फेंक देना चाहिए? जला देना चाहियें?  ख़त हाथ में संभाले बीता वक़्त याद कर रोमांचित और रूमानी होते हुए उसके दिल में यही विचार उथल पुथल मचा रहे थे | इन्ही सब विचारों जूझते और खुद से लड़ते उसके कपडे पसीने से तर-ब-तर हुए जा रहे थे और उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे | दिमाग पुराने अफ्सानो की रेलगाड़ी में सवार था और दिल सूरज से मिलने जाने की कवायद को दस्तक दिए जा रहा था | वो अपने आप से सवाल किये जा रही थी और जवाब भी खुद ही तलाशने की कोशिश कर रही थी | क्या मुझे एक बार सूरज से मिलने जाना चाहियें? या अपने पुराने प्रेमी से मिलकर मैं कोई गुनाह तो नहीं करुँगी? क्या वो मुझे याद करता होगा या भूल गया होगा? 

इन्ही अटकलों के साथ ना जाने कब समय बीत गया पता भी नहीं पड़ा | अचानक पीछे से कंधे पर किसी ने दस्तक दी तो हडबडाकर आभा अपने तसव्वुर के फ़लक से नीचे उतर कर ज़मीन से मिलने आई और मुड़कर देखा तो सामने शोहर को पाया | उसका चेहरा देखते ही सारे ख़यालात और सवालात ना जाने कहाँ मुश्त-ए-गुबर में गुम हो गए | जो कुछ समय पहले ख़ाक-ब-सर गरीबां-ए-मुहब्बत बनी ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन ख्वाब बुन रही थी अब वो एक दम शांत थी | उसके सारे सवालों का जवाब उसके सामने मौजूद था | 

उससे बेतहाशा इश्क फरमाने वाला, बे-रिया, वफ़ा-शि'आर उसका शौहर जो गाहे-गाहे आश्कार अपने प्यार का इज़हार भी कर दिया करता है | जिसकी मुनफ़रिद शक्सियत ने इन बीस सालों में उसके पुराने प्यार को भुला देने में मदद की और आज जिसकी दिल-कुशा मुस्कराहट पर आभा मर मिटती है | जिसकी बे-सूद उल्फ़त और रफ़ाकत ने उसकी नई जिंदगानी को परवाज़ दी थी | जिसके सलीक़े की आज वो क़ायल है | जिसकी सादगी और रानाई की इबादत करते आज आभा थकती नहीं थी | जिसने उसकी अफ़सुर्दा और खामोश जिंदगी में मेहताब की नफीस रौनक भर दी थी | जिसके वस्ल की कस़क, जिसके एहतराम के लिए आज आभा मुद्दतों तक इंतज़ार कर सकती है | जिसके प्यार की खातिर आज आभा को क़िस्तों में मौत भी मंज़ूर है | आज वो उसका सच्चा हबीब है जिसके साथ वो दहर तक जीवन जीना चाहती है | 

वो साहिर जो उसके जीवन में खुशियों का क़ासिद बनकर आया था उसके सामने आते ही आभा ने ख़त को हथेली में दबोच लिया और डबडबाती आँखों से दो गाम आगे बढ़कर कर सीने से चिपट उसके गले लग गई और धीरे से कान में फ़ुसफ़ुसाया, 

"महबूब! ओह महबूब! अच्छा हुआ तुम आ गए | मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ, अपनी जान से भी ज्यादा | तुम्हारे बिना जीने की मैं सोच भी नहीं सकती"

और ख़त को मोड़ कर वापस दुसरे हाथ में दबी किताब में रख दिया | 

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ख़ुर्शीद - सूरज / sun
तस्कीं - शान्ति / peace
सहराओं  - रेगिस्तान / desert
शम्स - सूरज / sun
ताबिंदा - प्रकाशित, जगमग / illuminated and brightened
पेशानी - माथा / forehead 
नूर - रौशनी / light
गुलज़ार - लाली / bloom
रुखस़ार - ग़ाल / cheeks
गेज़ाल -  हिरनी जैसी, मृगनयनी / dove eyed damsel
शबनम - ओस / dew
दिलफ़रेबी गुलफ़ाम - दिल को ठगने वाली हसीना /  girlfriend
वाबसता - संलग्न, जुडी हुई / attached
ज़हन - दिमाग / mind
आलम - दुनिया / worldworld
महशर - क़यामत का दिन / judgement day 
आग़ोश - गोद / lap
वालिद - पिताजी / father 
ख़ैरख़्वाहों – शुभचिंतक / well wisher 
मुख़्लिस - दिल का साफ / pure hearted
मशवरों - सलाह /  suggestions
इस्तक़्बाल - इकराम, इज्ज़त / respect, welcome
अंजाम -  परिणाम  / result
रज़ामंदी - सहमति, अनुमति, अनुबंध / agree 
गल्बा-ए-इश्क़ - प्यार का जूनून / passion of love
मशगूल - मसरूफ़, व्यस्त / busy
आगाज़ - शुरुवात / start
ख़ैर मक़दम - स्वागत / welcome
अकीदा = श्रद्धा / devotion
टिल्ले-नवीस - बहाने बाजी / excuses
टिल्ला - धक्का / push
हिज़्र - जुदाई / seperation
आय’जाज़ - मान सम्मान / honour
टिली-लिली - अंगूठा दिखाना / show thumb
अफ़साने - कहानियां, किस्से / stories
अश्क - आंसू / tears
मुसाविर - तस्वीर बनाने वाला / painter
आसिरान - कैदी / captive
महासल - परिणाम स्वरुप / result
हसरत-ए-दीदार - ललक , आरज़ू  / longing, desire to see
कवायद - अभ्यास / drill, exercise
अफसाना - कहानी / tale
तसव्वुर- कलपना / contemplation, imagination, thought
फ़लक - आसमान / sky
मुश्त-ए-गुबर - चुल्लू भर धूल / handful of dust
ख़ाक-ब-सर - दीवाने, सर में मिट्टी डाले हुए / gaga 
गरीबां-ए-मुहब्बत - अनुरागिनी, मुहब्बत के मारे लोग / lover
ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन - चमन को उजाड़ने वाले / destroyer of flower garden
बे-रिया - मुख़्लिस, दिल का साफ / clear hearted
वफ़ा-शि’आर - वफ़ा करने वाला / loyal
आश्कार - सरे आम ,जाहिर / express
गाहे-गाहे - कभी-कभी / sometimes 
मुनफ़रिद – मुख़्तलिफ़, अनुपम / unmatchable
दिल-कुशा - मनोहर / pretty
बे-सूद - बिना किसी स्वार्थ के / without any benefit
उल्फ़त -  प्यार / love
रफ़ाकत - दोस्ती / friendship
सलीक़ा - good manner, etiquettes
रानाई - beauty
ईबादत - worship
अफ़सुर्दा - sad/sorry/dismal/withering
मेहताब - moon
नफीस - जगमगाती / illuminated
वस्ल - मुलाक़ात / meeting
कस़क - ache/longing
एहतराम - respect, courtesy
मुद्दत - a long period of time
क़िस्तों - instalments, pieces
हबीब - दोस्त / friend, beloved, lover
दहर - eternity
साहिर - magician
क़ासिद – messenger
दो गाम - दो कदम / two steps

शनिवार, मार्च 30, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ९

अब तक के सभी भाग - १०
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गार्गी अनारो देवी की बड़ी बेटी थीं | उनका सुसराल बड़ा ही राजसी और ठाठ बाट वाला ख़ानदान था | अपनी बड़ी बेटी के लिए बहुत सोच समझ कर और साहु साब से सलाह मशवरा करने के पश्चात् ही उन्होंने रिश्ता तय किया था | दुल्हा भाई बेहद पढ़े लिखे और वकालत पास थे | बेबाक़ और पश्चमी सभ्यता के परवरिश के सानिध्य में पले बड़े ज़मींदार साहब बहुत ही शालीन, शिष्ट और देखने भालने के सुन्दर होने के साथ ही उनका जमाल काबिले तारीफ था | परन्तु सभी को भली भांति ज्ञात है उस ज़माने में ज़मींदारों के तौर तरीक़े और रहन सहन किस तरह के हुआ करते थे |

रजवाड़ों और ज़मींदारों का ख़ानदान था तो शौक़ भी वैसे ही विलासी थे | पांच हज़ार गज़ में फैली आलीशान हवेली मुरादाबाद जैसे छोटे शहर में बहुत मायने रखती थी | साहू साब की हसियत के मुताबिक महज़ वही एकलौता ख़ानदान था जो हर लिहाज़ से उनकी बराबरी के क़ाबिल था | उनकी हसियत का अंदाज़ा उनकी हवेली को देखकर लगाया जा सकता था | हवेली के बाहरी दरवाज़ों पर हमेशा दो पहरेदार, हाथी और महावत के साथ स्वागत के लिए खड़े रहते | हाथियों का काम सिर्फ इतना था के हर आने जाने वाले को अपनी सूंड उठाकर सलामी पेश करते | मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही मीलों फैला होने का एहसास देता बड़ा सा अहाता जिसके दोनों तरफ लगी रंग बिरंगे अंग्रेजी फूलों की बगिया में भिन्न भिन्न प्रजाति के पुष्प उन्मुख पक्षियों की तरह करलव करते चहचहाते प्रतीत होते | फूलों की महकभौरों की गुंजन,  उन से आती भीनी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क में ऐसी उतरती मानो कोई अत्तार के बैठा इतर की शीशियाँ खोल खोल कर छिड़क रहा हो | आहते के बीचो बीच पुर्तगाली वास्तुशिल्प की बेजोड़ कला का प्रतीक एक नक्काशीदार फ़व्वारा था | जिसमें गुलाब और केवड़े से महकता उदक हर वक़्त मौजूद रहता और आँगन को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहता | फिर एक लम्बा दालान जिसके दोनों तरफ़ा संगमरमर के खम्बे सजे थे, हवेली के प्रवेश द्वार तक ले जाता | उस विशाल चौमंज़िला हवेली में पचासियों नौकर चाकर और बांदियाँ एक टांग पर खड़े दिन रात ख़िदमत में लगे रहते | हवेली के पिछवाड़े घुड़साल और गौशाला थी जिसमें बीसियों घोड़े और गायें पाली जातीं | 

मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही बैठक हुआ करती थी | जहाँ आराम और रस रंग के सभी साज़ो-सामन मुहैया थे | एक तरफ चौपड़ और दूसरी तरफ मयखाना और इनके बीच बिछी हुई गौ-ताकियों की कतार के साथ गद्दे और उनके किनारे रखे मिस्र से मंगाए नक्काशी और रंगीन बेल बूटों से सजे हुक्के | जिन्हें दिन रात जमींदार साहब के मेहमान गुड़ गुड़ाते और ऐश कूटते | ईमारत की निचली दो मंजिलों में मर्दों के रहने की व्यस्था थी और उपरी दो मंजिलों में ज़नान खाना  था | जहाँ गार्गी देवी ऐश-ओ-आराम से जीवन यापन करती थीं | गार्गी देवी को भांति भांति के व्यंजन बनाने का बेहद शौक था | तरह तरह के अचार, मुरब्बे, लड्डू और मठरी इत्यादि बनाना उनके बाएं हाथ का खेल था | स्वादिष्ट इतने के जो एक बार उनके हाथों का स्वाद चख ले तो तो उनकी पाक कला का मुरीद हुए बिना न रह सके | उस बड़ी हवेली में आराम के सभी साधन और इंतजामात तो थे | पर जैसे की होता है बड़े घरों के राजनैतिक माहौल में अपनेपन, अकेलेपन और खालीपन की टीस ह्रदय में हमेशा बनी रहती थी | 

अनारो देवी के दुसरे पुत्र और पुत्रियों के रिश्ते भी संभ्रांत परिवारों में हुए थे | उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुरेन्द्र प्रसाद जिन्होंने लखनऊ से वकालत की पढाई पूर्ण की थी उनका विवाह उत्तर प्रदेश की एक छोटे से कसबे के जागीरदार की सुपुत्री के साथ हुआ था | 

उनसे छोटे श्री वीरेन्द्र प्रसाद जो की हर कार्य में दक्ष थे और ज़्यादातर अपने नाना साहू हरप्रसाद के सानिध्य और मातेहत बड़े हुए थे उन्होंने वाणिज्य और व्यापार की पढाई उत्तीर्ण की थी | उन्हें वकालत और ज़मींदारी का भी खासा अनुभव था | पुश्तैनी कारोबार ‘महिला वस्त्रालय’ का कार्यभार भी उन्ही के कंधो पर था | अपने पिताजी से कपडे को परखने और जांचने- पहचानने की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | व्यापार में माहिर और वाक् कुशलता में उनका कोई सानी नहीं था | अपने नानाजी और उनके कानूनी मसलों की भी सारी ज़िम्मेदारी उन्हें के सर थी | मात्र तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मेहनत से गंज के मोहल्ले में अपना मकान बनाया था | जिसके वास्तुशिल्प की संरचना को उन्होंने स्वयं अंजाम दिया था | उनका लग्न दिल्ली के एक बहुत ही सम्मानित उच्च कुल के परिवार में साहू नन्दुमल पुरुषोत्तम दस् जी की सुपुत्री के साथ हुआ | 

उनके अनुज श्री सत्येन्द्र प्रसाद जी जिन्होंने डाक्टरी की पढाई शुरू तो की थी परन्तु जीव हत्या और जीव-जंतुओं की कांट-पीट से विमुख हो वे पढाई अधूरी छोड़ वापस आ गए थे और मुरादाबाद में सरकारी ठेकेदारी के कार्य में लिप्त थे | उन्हें पाक कला का प्रगाढ़ अनुभव था और वो नए नए पकवान बनाने में दक्ष थे | उनका विवाह फरुक्खाबाद के एक बहुत ही शालीन और सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुआ | 

उनकी सुपुत्री बीना देवी का विवाह चंदौसी के बहुत ही पैसे वाले और रईस घराने में हुआ था | अपने ज़माने में चंदौसी जिले में उनके ससुर की तूती बोला करती थी | बेहद मशहूर और मारूफ़ हस्तियों में उनका नाम शुमार था | बड़ी बड़ी इमारतें, गोदाम, दुकाने, सिनेमा घर, बर्फ, पेपरमिंट और तेल बनाने का कारखाना और भी न जाने क्या क्या व्यापार थे उनके | साहू साहब के खानदान में उनका बहुत ही मेल-मिलाप और आना जाना था | इसी आपसदारी के चलते बीना देवी का विवाह उनके सुपुत्र के साथ तय हुआ था | 

बीना से छोटी माधरी देवी का विवाह मुंडिया के एक बहुत ही सुशील और पढ़े लिखे नौजवान के साथ हुआ था | उन्होंने उस ज़माने में एम्.बी.ए की पढाई उत्तीर्ण की थी और एक बहुत ही सम्मानित दैनिक समाचार पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत थे | बाद में उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र और मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू किया | साथ ही उन्होंने भवन निर्माण के व्यवसाय में भी बहुत नाम कमाया और दिल्ली के एक बहुत ही आलिशान और उच्चवर्गीय इलाके में अपनी कोठी का निर्माण किया | 

अन्त में सबसे छोटे श्री विनोद कुमार जिन्होंने यन्त्रशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | जीवन के शुरुवाती दिनों में उन्होंने एक सरकारी महकमे में यंत्रवेत्ता के पद पर कार्य किया परन्तु फिर चाकरी से दिल उकताने के कारण उन्होंने अपने स्वयं का व्यवसाय आरम्भ किया | उनकी शादी भी एक मुरादाबाद के पास के जिले लखीमपुर खिरी के एक बहुत ही सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुई थी | 

इस प्रकार से साहू साहब, अनारो देवी और गंगा सरन जी ने अपनी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बहुत ही कुशलतापूर्ण और व्यस्थित तरीके से निभाया था | उन्होंने जितना हो सके सात्विक संस्कार, रीति रिवाजों तथा उच्च शिक्षा अपनी संतानों को प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी संताने उनकी आशाओं के अनुरूप खरी उतरी और सभी अपनी दैनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन करने हेतु सक्षम थे | 

वहीँ साहू साब भी अपनी बीमारी के कारण पिछले दस वर्षों से मोतियाबिंद और आँखों में कला पाना उतरने की वजह से अपनी दृष्टि से मुक्त हो चुके थे | किन्तु फिर भी उनका रौब ज्यों का त्यों था | अपने मुकदमें बाज़ी, ज़मींदारी और दुसरे छोटे बड़े काम वे तब भी बड़ी सहजता के साथ स्वयं ही निपटा लिया करते थे | बस स्वभाव से ज़रा आशुकोपी, तुनकमिजाज़, हड़बड़हटी, उत्तेजित, उन्मादी, चिड़चिड़े, हठधर्मी और गुस्सैल हो गए थे | दृष्टि खो देने की पीड़ा उन्हें कभी कभार बहुत लाचार बना देते थी और गाली-गलौच में कुछ ज्यादा इजाफा कर दिया करती थी | अपनी दृष्टिहीनता से खिन्न वे कभी कभी बहुत झुंजला जाया करते और अभद्र भाषावली प्रयोग कर परिवार के सदस्यों पर बरस पड़ते |  अब उनकी दृष्टि वीरेन्द्र प्रसाद की आँखें ही थी जो उनका सारा काम संभाला करते थे | उनके गुस्सैल स्वाभाव और गलियों से त्रस्त दुसरे नाती उनसे कन्नी काटा करते | वहीँ दूसरी ओर वीरेन्द्र बाबु उनकी सभी रोज्मर्रह की ज़रूरियात, खाना पीना, घूमना और यहाँ वहां के छोटे बड़े काम सभी का ख़याल रखते और अपने नाना की बुजुर्गियत को सहारा देने मैं कभी कोताही न बरतते | वो कहते हैं न बड़ों की गाली भी स्वाली होती है | वीरेन्द्र बाबु उनकी इस भाषा को आशीर्वाद समझ ग्रहण करते और सच्चे ह्रदय से उनके सभी कार्य पूर्ण करते | उनकी एक आवाज़ पर अपने सभी काम काज और खाना पीना छोड़ दौड़े चले जाया करते |  यही कारण था के साहू साहब का सारा स्नेह और प्यार उन पर आशीर्वाद बनकर बरसता और वे साहू साहब के सबसे प्रिये और लाडले नाती थे |

अनारो देवी और गंगा सरन जी भी अब वयोवृद्ध अवस्था में प्रवेश कर चुके थे और अपने सभी उत्तरदायित्त्वों से मुक्त हो चुके थे | अब उनका अधिकतर समय भगवान् की भक्ति में गुज़रता और जो समय बच जाता वो अपने नाती पोतों के साथ समय व्यतीत करने में बीत जाता |  क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

गुरुवार, मार्च 21, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ८

अब तक के सभी भाग - १०
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आजाद मुल्क़ | दिलकश फ़िज़ा | खुशनुमा माहौल | दुःख और सुख के बादलों के साथ साथ अनारो देवी के पारिवारिक सुख में समृद्धि और वृद्धी का जोड़ तोड़ चलता रहा | जहाँ उनके बेटे महेन्द्र प्रसाद उर्फ़ मानू की बाल्यकाल में अकस्मात् मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया और दुसरे बेटे योगेन्द्र उर्फ़ ‘योगी’ की जवान मौत ने सारे परिवार को तोड़ उनके सामने दुःख का विशालकाय पर्वत ला खड़ा किया था | वहीँ अपनी संतानों की तरक्की और शादी ब्याह से उनका आँगन ख़ुशी के रंगों से भी सराबोर भी होता रहा था |

घटना उस समय की है जब महेन्द्र प्रसाद कुछ सात या आठ बरस के रहे होंगे | गर्मियों के दिन थे | जेठ के दोपहरी | एक दिन अचानक पाठशाला से लौट कर उन्हें तेज़ कपकपी उतरी और ज्वर चढ़ आया | अनारो देवी ने घरेलू काढ़ा दे कर उन्हें आराम करने की सलाह दी | परन्तु बालक तो बालक हैं उन्होंने आज तलक किसी की सुनी है भला | माँ की बात न मानकर वे दोस्तों के साथ तेज़ ताप में भी खेलने चले गए | शाम तक उनकी हालत बहुत बिगड़ गई और खेलते खेलते चक्कर खाकर गिर पड़े | सभी बच्चे डर गए और उनके घर पर आकर ये बात बताई | साहू साब तुरंत नौकर को साथ ले उन्हें डाक्टर के पास ले गए | डाक्टर ने बच्चे की हालत देखते हुए उन्हें अस्पताल में भरती कर लिया | परन्तु दिन-बा-दिन बीतते गए और मानू की हालत सुधरने की जगह बिगड़ने लगी | काफी दवा-दारू के बाद भी कोई सूरत-ए-हाल समझ नहीं आया | शहर के बड़े से बड़े डाक्टर को साहू साब ने बुलवाया | पानी की तरह पैसा बहाया पर नतीजा कुछ न निकला | घर में भी सभी का बुरा हाल था पर सब हताश हुए बैठे थे | मंदिर, मस्जिद, गिरिजे, गुरूद्वारे, पीर, फ़कीर, लंगर, प्याऊ सब कर के देखा | हर तरह के नुस्खे अपनाये गए | घंटे-घड़ियाल, कर्म-कान, पूजा-अर्चना, यज्ञ-हवन भी कर देखे पर अगर ऐसे सुनवाई होती तो फिर बात ही क्या थी | आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब मानु के विदाई की घडी सभी ने देखी | अपनी आँखों के सामने बिलांद भर के छोरे को काल के मुंह का ग्रास बनते देखते माँ का कलेजा फटे जा रहा था पर ऐसा कोई न था जो उनके लल्ला को जाने से रोक लेता | बुखार दिमाग पर चढ़ने की वजह से मानू कोमा में चला गया था और उसके धीरे धीरे उसकी सासें उसका साथ छोड़ गई |

जैसे तैसे मानू के दुःख से बहार आते आते सालों बीत गए | घर का चिराग बुझ चुका था पर सभी माँ के दिल को दिलासा देने में लगे रहते और संतोष करने को कहते और दूसरी संतानों के होने की दुहाई देते | लोग भगवान् की मर्ज़ी कह कर बात को आया गया कर देते और सुकून कर लेते | पर माँ का दिल कैसे तस्सली करता | जो टीस और पीड़ा उसके दिल के कोने में घर कर गई थी वो ता-उम्र साथ निभाने वाली थी | जीवन का चक्का बड़ा बलवान है और समय के हाथों घूमता है जिसमें इंसान पिस्ता है | अभी कुछ ही वर्ष गुज़रे थे के अचानक एक दिन योगेन्द्र भी मोहल्ले में सड़क पर चलते चलते गश खाकर गिर पड़े | उनकी उम्र तब कोई बीस के आस पास रही होगी | सभी मोहल्ले वाले तुरंत ही उठाकर उन्हें करीब के डाक्टर के पास ले गए | उन्होंने डाक्टर को सीने में दर्द होने की शिकायत बताई | डाक्टर ने तुरंत एक्स-रे निकलवाने का सुझाव दिया | तब तक घर से दुसरे लोग भी डाक्टर के यहाँ पहुँच चुके थे | गंगा सरन जी ने तुरंत ही निकट के अस्पताल में जाकर उनका एक्स-रे करवाया | उस समय एक्स-रे करवाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी | वहां घर पर अनारो देवी और साहू साब को बहुत चिंता लगी हुई थी | कुछ समय के पश्चात सभी योगी को साथ ले घर पहुंचे और तब सबकी जान में जान आई | दो दिन के बाद डाक्टर रिपोर्ट लेकर साहू साब के घर पधारे | सभी बहुत व्याकुल और चिंतित थे के ऐसी क्या बात है जो के डाक्टर साब स्वयं चलकर आये | उन्हें सम्मान सहित बैठक में विराजने को कहा गया और सभी लोग थोड़ी देर में बैठक में हाज़िर हो गए | साहू साब ने पुछा ,

“क्या हुआ डाक्टर बेटा, ऐसी कौन सी बात है जो तुम चलकर आये | कहलवा दिया होता मैं वीरेन्द्र को रपट लेने भिजवा देता | खैर अब आ ही गए हो तो खान पान कर के जाना | बताओ क्या बात है ?”

डाक्टर साब चुप चाप सब सुन रहे थे | उन्होंने धीरे से साहू साब का हाथ थामा और बोले,

“दद्दाजी, खबर अच्छी नहीं है | योगी भाई की हालत सही नहीं है | बात बहुत गंभीर और चिंताजनक है |”

उनकी बात सुनकर सभी सन्न रह गए | गंगा सरन जी ने पुछा,

“बेटे पर बात क्या है वो तो बताओ? ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी अचानक से | योगी तो भला चंगा है ये एक दम से हालत ख़राब | कुछ समझाओ डाक्टर साहब |”

डाक्टर साहब ने उत्तर दिया, “बाबूजी, योगी भाई के दिल में छेद है और दिल भी बढ़ रहा है | देर से पता चला है अब एडवांस स्टेज के करीब पहुँच चुकी है हालत | अगर इलाज भी करते हैं और लगातार दवाई भी करते हैं तो ज्यादा से ज्यादा चार पांच साल और खींच सकते हैं बस | इतना कहकर वो चुप हो गए |”

बैठक में सभी का दिल धक्क्क!!! कर के रह गया | ये कैसी विपदा आन पड़ी अचानक से | अभी सब लोग यही सोच रहे थे के इतना होनहार विद्यार्थी | पढाई लिखाई में अव्वल, हर एक कार्य में दक्ष योगी के साथ अचानक प्रभु ने ये क्या खेला रच डाला | तभी बैठक के दरवाज़े के पीछे से योगी निकल कर आये और बोले,

“अरे अभी पांच साल तो हैं | आप सब तो अभी से मातम मानाने लग गए | कम से कम पांच साल तो ख़ुशी से और अपनी तरह जी लेने दीजिये मुझे | आप सब ऐसे मुँह लटका कर बैठेंगे तो अम्मा को भी पता चल जायेगा | ऐसा में कतई नहीं चाहता के उन्हें ये सब पता चले और वो परेशान हों |”

उनकी बातें और विचार सुनकर सबकी आँखे भर आई और सभी ने उनकी बात का समर्थन करते हुए एक स्वर में हामी भरते बोले,

“हाँ, अम्मा को यह बात ना ही मालूम हो तो बेहतर होगा | अभी तो मानू के हादसे से ही न उभर पाई हैं अम्मा | ये बात पता चली तो न जाने क्या असर होगा |”

सभी ने एक सहमति से अनारो देवी को योगी की बीमारी के बारे में न बताने का फैसला लिया और डाक्टर साब को भी इसमें शामिल कर उनसे से विदाई ली |

देखने में बेहद सुन्दर योगेन्द्र उर्फ़ योगी, प्यार से यही कहकर बुलाती थी अनारो देवी उन्हें | व्यक्ति तो उच्चकोटि के थे ही साथ ही साथ वो पढाई लिखाई में भी अव्वल थे | अपनी बीमारी के चलते भी उन्होंने डबल एम्.ए किया और फिर वो कॉलेज में प्रोफेसर हो गए | उनका सारा समय पढाई लिखाई करने और अपने विद्यार्थीयों को पढ़ने में कैसे बीत जाता पता भी नहीं पड़ता था | साथ ही साथ चुपके चुपके वो अपने इलाज का भी ध्यान रख रहे थे | न ज्यादा हड्कल, न ज्यादा चढ़ना उतरना और न ही ज्यादा भाग दौड़ करते | साहू साब से कह कर उन्होंने बैठक के बगल वाला कमरा ले लिया था | बस सारा दिन वहीँ अपनी किताबों और बच्चों के साथ गुज़ार देते थे |

पर कहते हैं न माँ का दिल, माँ का ही होता है | उसकी आँखों से कुछ नहीं छिपता | क्योंकि वो बाहरी आँखों से नहीं मन की आँखों से देखा करती है | योगी की गिरती सेहत और बर्ताव ने अनारो देवी के मन में शंका उत्पन्न कर दी थी | काफी समय से वो योगी के खान पान, रहन सहन और आचरण पर निगाह कर रही थीं | घर के बाक़ी लोग भी उनकी शंका के घेरे में थे | समझदार को इशारा ही काफी होता है और समझदारी में अनारो देवी का कोई सानी न था | जीवन के अब तक अनुभवों और कटु सत्यों ने उन्हें स्तिथियों को समझने और परखने की ऐसी क्षमता प्रदान कर दी थी जिसके रहते वो किसी भी आनेवाली विपदा को पहले ही महसूस कर लेतीं थी |

एक दिन उन्होंने योगी को अपने कमरे में बुलवाया | कमजोरी के चलते योगी बहुत ही धीरे धीरे सीढियां चढ़कर उनके कमरे में पहुंचे | ऊपर तक जाने में वो बुरी तरह से हांफने लगे | अनारो देवी ने उन्हें देखा तो उठ कर उनके सर पर हाथ फेरा और कहा,

“आ गया लल्ला | बैठ जा | इतना हांफ क्यों रहा है | देख कितना कमज़ोर भी हो गया है तू | अपने खाने पीने का ख्याल रखा कर | वैसे भी अब तेरी शादी की उम्र हो रही है तंदरुस्त नहीं दिखेगा तो कैसे काम चलेगा | लल्ला, तू सारा दिन बस कॉलेज और उसके बाद अपने कमरे में ही रहता है | कहीं आता जाता भी नहीं है | क्या बात है, क्या परेशानी है, कोई दिक्कत है तो मुझे बता मैं तो तेरी अम्मा हूँ | मैं सब ठीक कर दूंगी | बचपन में तू दिल की सारी अच्छी बुरी झट से आकर कह दिया करता था | और जब से तूने वो नीचे वाला कमरा लिया है तब से तो तू अपने में ही खो गया है | अब तो अम्मा से मिले भी तुझे पखवाड़ों बीत जाते हैं | खाना भी अब नीचे ही मंगवा कर खाने लगा है | चुपड़ी रोटी भी नहीं खाता | घी-दानी भी ऐसे ही वापस आ जाती है | पहले कम से कम चौके बैठ कर ठीक से खाना तो खा लिया करता था | ठाकुरजी की कृपा से चौके में तेरी शक्ल देखने को मिलती तो थी अब तो उसके भी लाले हैं | इतना भी क्या व्यस्त हो गया तू के अपनी अम्मा को ही भूल गया |”

योगी अम्मा की गोद में सर रखकर लेट गए | “न अम्मा ऐसी तो कोई बात न है | बस आजकल कॉलेज मैं काम थोड़ा ज्यादा है और बच्चों के इम्तिहान भी सर पर हैं | फिर उन्हें पढ़ना, समझाना, परीक्षा के लिए तयार करना होता है इसलिए समय बचाने के लिए ज़्यादातर नीचे ही रहता हूँ और खाना भी नीचे ही मंगवा लेता हूँ और कहीं आता जाता भी नहीं हूँ | एक बार इम्तेहान निपट जाएँ फिर बस फारिक़ | बस और कोई बात न है तू फ़िक्र न करा कर | मैं ठीक हूँ |”

अनारो देवी ने योगी का हाथ उठाया और अपने सर पर रख लिया, “खा मेरी कसम के सब ठीक है | इतने दिनों से देख रही हूँ | सब पर नज़र है मेरी | तेरी अम्मा हूँ मैं कुछ तो है जो मुझसे छिपाया जा रहा है | अब बात क्या है बता नहीं तो...|”

योगी ने झट से अम्मा के मुंह पर हाथ रख दिया और आगे कुछ भी कहने से रोक दिया | “वो बात ऐसी है अम्मा के मेरी तबियत कुछ ठीक न है | इलाज करा रहा हूँ जल्दी ठीक हो जाऊंगा |”

“सच बता! बात क्या है | अम्मा से कुछ मत छिपा |”

“अम्मा!!! मेरे दिल में छेद है और दिल भी धीरे धीरे फैल रह है | डाक्टर का कहना है के अब ज्यादा दिन ना हैं मेरे पास | ज्यादा से ज्यादा महीना दो महीना और हैं |”

अनारो देवी अपने आपको सँभालते हुए पूछती हैं “कब से है ये बीमारी? बता कब से भर रहा है तू ये दर्द? ये बात सबको पता है न? कब से छिपाया जा रहा है मेरे से यह सब?

“अरी अम्मा, छोड़ यह सब सवाल जवाब, देख मैं हूँ तो तेरे सामने एक दम तंदरुस्त और हाँ आज सारी रात तेरी गोद में सर रखकर ही सो जाऊंगा |”

अनारो देवी अब समझ गईं थी के तबियत बिगड़ गई है और बात हाथ से निकल चुकी है | अनारो देवी भी अपनी आँखों पर एहसासों का बाँध बना अपने आंसुओं को बहने से रोकती रहीं और योगी से सर पर ममता का हाथ फिराती रहीं | एक सियाह रात अम्मा और लल्ला के बीच होती अनकही बातचीत में आँखों आँखों में गुज़र गई | रात की तन्हाई और कमरे की खामोश दीवारें अपने अनकहे शब्दों से सन्नाटे को गुंजायमान करती रही | सभी चिरागों की रौशनी को समेटे सुबह की लाली ने फिर से एक बार घर के आँगन का रुख किया | बस वही आखरी पल थे जो अनारो देवी और योगी ने साथ बिताये थे |

उस दिन के तकरीबन दो महीने बाद फागुन मास, दुलेहंडी वाले रोज़ योगेन्द्र अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे के बैठे रह गए | डाक्टरी रिपोर्ट के अनुसार उनका दिल पूरी तरह से फैल गया था जिसके चलते वो ब्रह्मलीन हो गए | उस समय उनकी आयु बत्तीस वर्ष के आस पास रही होगी | आख़िरकार उन्होंने डाक्टर के कहे को सिरे से झुठला दिया था और उम्र के तकरीबन बारह साल उस बीमारी से लड़ते गुज़ारे | घर में सभी इस सदमे के लिए तयार थे | कहीं न कहीं अनारो देवी भी इस दिन को देखने के लिए दिल मज़बूत किये ठाकुरजी से अपने लल्ला की सलामती की दुआएं माँगा करती थीं | उनकी आँखों से गिरते खून के कतरों का एहसास सिर्फ गंगा सरन जी ही लगा सकते थे | लाड, प्यार और दुलार से सींची हुई बगिया से ऐसे फूलों के उजड़ने का गम माली ही जान सकता है |

जीवन पथ अंतहीन है | यहाँ चलते ही रहना है | जो आता है वो जाता भी है | यह एक शाश्वत सत्य है | परमपिता परमेश्वर का लिखा कोई नहीं बदल सकता | जीवन में उसने जो पात्र, घटनाएँ और वृत्तान्त लिख कर भेजे हैं उनका सञ्चालन वह स्वयं ही करता है | किसी को जल्दी बुलावा आता है किसी को देर से | यही सोच अपने दुःख और पीड़ा को साथ लिए अनारो देवी और उनका समस्त परिवार जीवन के कठिन पलों का सामना करते हुए आगे बढ़ता रहा |

संतान भी बड़ी हो रही थीं | हालाँकि उम्र का अंतर संतानों में काफी ज्यादा था लेकिन आपस में प्यार, आदर और सम्मान एक दुसरे के लिए स्पष्ट था | सबकी आंखो की सच्चाई और आचरण में उनका एक दुसरे के प्रति व्यक्तिगत स्नेह और प्रेम निहित था | अब अनारो देवी को अपनी संतानों के ब्याह की चिंता सताने लगी थी | हालाँकि उनकी बड़ी बेटी गार्गी का ब्याह उन्होंने पंद्रह बरस की आयु में ही कर दिया था | समय गुज़रते बाक़ी की संतानों के भी हाथ पीले होते गए और वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होती चलीं गईं | क्रमशः

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सोमवार, मार्च 04, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ७

अब तक के सभी भाग - १०
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कहने को तो गंगा बाबु मुरादाबाद अपने सुसराल में आ बसे थे परन्तु उनका दिल अब भी उनकी जड़ों से जुड़ा था | वो शहर जो उनके बचपन, अल्हड़पन, जवानी, पिता के वात्सल्य, माता के दुलार, शिक्षकों के स्नेह और फटकार, मित्रों के अनुराग, कारोबारियों की वफ़ादारी, चाकरों की स्वामिभक्ति और उन सभी भवनों, स्थानों, पेड़, पौधे, खेत खलिहानों का साक्षी था जहाँ उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य, सुनहरे, निजी और मंगलमय पल बिताये थे आज बहुत दूर रह गया था | अब कुछ बचा था तो बस उस शहर और वहां के लोगों से जुडी कुछ यादें जिन्हें अपने दिल के भीतर समेट वे आज के जीवन को संवारने में प्रयासरत थे | उनकी उमंगें उनकी भावनाएं उनके मनोभाव और उनकी चित्तवृत्ति सभी उन्हें पुकार कर पूछते,

गंगा तुम इस परिवेश मैं कैसे समायोजन करोगे ? तुम घर जमाई बनकर रहोगे क्या ? तुम्हारे पुरखों ने ऐसा कभी नहीं सोचा होगा | क्या तुम उनका नाम गर्क़ करने पर आमादा हो ? तुम्हे इसके सिवा कुछ और नहीं सूझा ? घर दामाद होने से पहले तुम डूब क्यों न गए ? क्या तुम्हारा यह फैसला सही है ? अपनी इज्ज़त का तो ख्याल किया होता ? अब क्या सुसर के रहमो-कर्म पर रहोगे ? अपने रिश्ते नातेदारों क्या क्या मुंह दिखाओगे ? और भी न जाने क्या क्या सवाल फन फैलाये खड़े हो रहे थे उनके ज़हन में |  

मन में ऐसी जददोजहद के चलते वे मायूस रहने लगे | निढ़ाल रहने लगे | माता पिता को खोने और अपने शहर को छोड़ आने के दुःख की अनुभूति भी कम नहीं हुई थी | भूख प्यास सब अलोप थी | व्यापार तो वैसे भी ठप्प हो चुका था और अब किस्मत भी मज़ाक उड़वाने पर आमादा थी | किसी तरह का कोई व्यवसाय समझ नहीं आ रहा था | कई कई दिनों तक कमरे में अकेले बैठे गुज़ार देते | न किसी से हंसी ठिठोली न कोई आमोद प्रमोद | किसी चीज़ में दिल नहीं लगता | उस पर ऐसे खयालातों का दिमाग में घर करना कुछ ठीक शगुन नहीं था | कहते हैं के खाली दिमाग में  शैतान का डेरा होता है और ऐसे विचार किसी हानिकर दुष्ट से कम न थे | इसका आभास अनारो देवी को बहुत पहले से हो गया था और वे गंगा सरन जी की इस परेशानी को भांप गईं थी | अनारो देवी ने ऐसे कठिन समय में उनका पूर्णतः साथ निभाया | यह मसला कितना हस्सास है, उन्हें यह भली भांति ज्ञात था | इस नाज़ुक समय में उन्हें किस तरह का आचरण और व्यव्हार करना है उन्हें इसका अच्छे से बोध था | अपनी बातों से, अपने आचरण से और अपने प्रेमभाव, विश्वास और प्रणय अनुभूति से उन्हें कभी भी अकेलापन महसूस नहीं होने देतीं थीं | उन्हें कभी भी एहसास न होने देतीं के वो सुसराल में रह रहे हैं | यदि कोई भी गंभीर बात या ऐसा कोई भी संवेदनशील वाकया अनारो के समक्ष उभरता और उन्हें प्रतीत होता के उनके सुहाग के मान को इसके कारण ठेस पहुँचने का अंदेशा है तो उसका मुल्यांकन कर स्वयं ही स्पष्ट कर देतीं |  वे हमेशा कोशिश करतीं के गंगा बाबु का उत्साह और जोश बना रहे | वे हमेशा उनके प्रति और उनके प्रेम के प्रति प्राणार्पण को तत्पर रहती | किसी न किसी हीले से गंगा बाबु के प्रति अपने प्रेम, आदर और आत्मसमर्पण को जताती रहतीं थीं |  

आरम्भ में गंगा बाबू को उनके मन में उठने वाले सवालों ने बहुत कचोटा | मानसिक और जज़्बाती घुटन की अनुभूति भी हुई  | परन्तु धीरे धीरे अनारो देवी की कोशिशें और साहू साब के समझाने और तर्क संगत स्पष्टीकरण, मान सम्मान, आदर, लाड और स्नेह ने उन्हें ऐसी नकरात्म सोच से निज़ात दिलाई | घर के नौकर चाकर भी उनका बड़ा मान सम्मान करते और उन्हें उचित आदर प्रदान करते | उनके मन पसंद पकवान और उनकी पसंदीदा चीज़ों और बातों को हमेशा तवज्जो दी जाती | उनकी छोटी से छोटी बात, ख्वाइश और मिजाज़ को सिर्फ उनके हाव भाव के ज़रिये बिना बोले ही समझ लिया जाता और पूरा कर दिया जाता | आख़िरकार सबकी कोशिशें रंग लाई और गंगासरन जी का दिल मुरादाबाद में रमने लगा और उन्हें शहर से इश्क़ होने लगा | यदा कदा अनारो देवी को या साहू साब को, और कोई न मिलता तो मोहल्ले के बालकों को ही लेकर हलवाई के यहाँ जलेबियाँ और मूंग की दाल खिलने लिवा जाते | खाने और खिलने के बेहद शौक़ीन थे | सच कहें तो पूरे भोजनभट्ट थे | साहू साब को भी अपने दामाद की यह बात बेहद पसंद थी | धीरे धीरे सभी दुःख दर्द मादूम होते चले गए | अब वे साहू साब के दामाद न होकर पुत्र हो गए थे | साहू साब की सूनी हवेली में बसंत पधार चुका था | हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ थी | बच्चों की धमाचौकड़ी थी | हर दिन होली के जैसे और रात दिवाली की मानिंद गुज़रती थी |

गोया समय गुज़रता चला गया | निजी स्तर पर तो दिमाग़ी सुकून था पर कारोबारी कोण से दिक्क़तें पेश आ रहीं थी | समय के साथ गंगा बाबु ने बहुत से व्यापारों में किस्मत आज़माइश की | परन्तु इम्तहान-ए-ज़िन्दगी में सफलता उनकी किस्मत के पूरक चल रही थी | ज़्यादातर व्यवसायों में निराशा ही हाथ लगी | कुछ एक व्यापारों में थोडा बहुत लाभ अर्जित हुआ भी परन्तु वो दोज़ानु किस्मत के चलते दीगर जगह निकल जाता | 

साहू साब के कहने पर उन्होंने कुछ एक कामों में जोखिम उठा हाथ-आज़माइश की | जैसे कोयले का काम, मूंगफली, घी, लकड़ी, धान आदि भरने का काम उन्होंने करने की नाकाम कोशिशें भी की | परन्तु ज़्यादातर नुक्सान ही पल्ले पड़ा | अपनी किस्मत तो एक दफ़ा फिर से आज़माने का फैसला कर आखिरी बार उन्होंने सेरों चांदी खरीद कर भर ली | पर चूंकि किस्मत दगा देने पर आमादा थी तो लिहाज़ा नुक्सान तय था | दो दिन बाद से ही चांदी के दाम गिरने लगे | दो महीने गुज़रे और दाम पाताल पहुँच गए | गंगा बाबु को अब चिंता सताने लगी | हर रोज़ बाज़ार में चांदी के भाव गिर रहे थे | वे डर गए कहीं ऐसा न हो के और ज्यादा नुक्सान झेलना पड़ जाये और एंटी से पैसा निकल जाये | सर मुंडाते ओले न पड़ जाएँ इसी सोच के चलते और अपनी परिस्थितियों को देखते बिना सलाह मशवरा किये  उन्होंने माल का सौदा एक जौहरी से तय कर दिया | जो नुक्सान होना था सो तो हो चुका था | दो तीन दिन बाद सुबह साहू साब ने उन्हें बुलाया और कहा, 

"बेटा चांदी का भाव आसमान छूने लगा है | अब चांदी को बेचने का सही समय है | जाओ और जाकर सौदा कर आओ | "

बेचारे गंगा बाबु अपना माथा पकड़ कर बैठ गए | मुंह लटका लिया और बडबडाने लगे, 

"गंगा तेरी किस्मत ही खोटी है | तेरी चांदी से तो अब उस जौहरी की चांदी चांदी हो गई | तुझे चांदी की चमची भी नसीब न हुई | तेरे जीवन में अब कारोबारी सुख नहीं रहा | तेरी पत्री में ही नुक्सान लिखा हुआ है | तेरे ग्रहों पर शनि बैठा हुआ है | अब तू अपनी नाकामियों से कभी उभर नहीं सकता | तेरा बंटाधार निश्चित है |"

साहू साब को सब ज्ञात था | वह बहुत अच्छे से उनके चेहरे की मायूसी को पढ़ चुके थे | उनकी इस स्तिथि को भांप साहू साब बोल पड़े, 

"अरे बेटा! कोई बात नहीं व्यापार है, नफा नुक्सान तो लगा रहता है | कुछ नहीं होता कल की सोचो और कुछ नया करने का मन बनाओ | आज के नुक्सान में कल का फायदा छिपा है | इसलिए हमेशा आगे बढ़ो और आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास रखो | हिम्मत मत हारो हौंसला रखो | फिर पीछे मैं तो हूँ ही | डर काहे का | मैं संभाल लूँगा |"

गंगासरन जी सर हिलाकर ख़ामोशी से उठ कर चल दिए | 

समय की उठा पटक कैसी भी रही हो परन्तु अनारो देवी के जीवन में खुशियों की लहर कभी नहीं थमी | इन कुछ सालों के वक्फ़े ने उनकी गोद अनेकों बार भर दी थी | परन्तु कुछ दफा कुदरत निष्ठुर रही और कई बार खुशियाँ सांस लेती रही थी और नन्ही किलकारियां आँगन में गूंजती रहीं | आज भी जन्मोपरांत अपनी कुछ संतानों को खोने की पीड़ा झेलने के पश्चात भी अनारों देवी को पांच शिशुओं की माता होने का गौरव प्राप्त था | 

बड़ी बेटी थीं गार्गी | फिर बेटे सुरेन्द्र | उनसे बाद योगेन्द्र और महेन्द्र उर्फ़ 'मानू' | फिर गोद आए बेटे वीरेंद्र | फिर खुशियाँ लेकर आए सत्येन्द्र | अपने बेटों और बेटी के लालन पोषण में अनारो देवी इतनी मसरूफ़ हो गई थी के इस आपाधापी के चलते बाहरी जीवन किस ओर बहे चला जा रहा था उन्हें कुछ भी एहसास और आभास न था | सुबह से शाम तक बच्चों के साथ समय व्यतीत करतीं | उन्हें उचित संस्कार और सर्वोच्च माध्यम से शिक्षित करने का दायित्त्व पूर्णरूप से अनारो देवी पर ही था | उन्हें अपने धर्म और वेद पुराणों से अवगत करवाना तथा पूजा पाठ में रूचि जगाने का फ़र्ज़ भी अनारो देवी ही के हिस्से था | गंगा बहुत तो कारोबार के चक्कर के चलते इतना समय व्यतीत नहीं कर पाते थे | अतः शिशुओं के पालन पोषण का दायित्त्व अनारो देवी पर ज्यादा था | बच्चे भी बड़े हो रहे थे | सब समझते बूझते थे | वे सभी स्वभाव से विनर्म और आपस में बहुत प्यार से रहते | पढने लिखने के साथ ही माँ का रोज़मर्रा के कार्यों में हाथ बंटाया करते | अनारो देवी द्वारा सिखाई शिक्षा उनके चित्त को भली-भांति दृढ़ करके भीतर तक पैठा गई थी | सभी अपनी माता पिता की स्नेहमय भाषा भली भांति समझते और हमेशा आदर और सम्मान के साथ एक दुसरे से व्यव्हार करते थे | अपने नाना के तो सभी नाती नातिन चहेते थे परन्तु साहू साब को ख़ास लगाव मंझले नाती वीरेंद्र से था | वे हमेशा उन्हें हर कार्य में साथ रखते और अपने कारोबार का काम काज भी सिखाते और दीन दुनिया, दुनियादारी, व्यापार, क़ानून आदि के बार में भी समय समय पर अवगत कराते रहते | 

तिथि चाक जीवंत पर्यंत चलता रहता है | वक़्त किसी के लिए नहीं ठहरता | गुज़रते समय के साथ जीवन भी साकार रूप लेता रहा | अंततः गंगा सरन जी के जीवन से दुर्भाग्य का ग्रहण दूर हुआ | एक नया सूर्योदय हुआ और उनका कारोबार चल निकला | उन्होंने देसी थोक कपडे की आढ़त और देसी धागे से बुनी साड़ियों का काम कर लिया था | जो एक बार फिर से दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की की तरफ अग्रसर था | अनारो देवी और साहू साब के परामर्श से और अपने बुद्धि कौशल के बल पर उन्होंने खुदरा व्यापार के लिए बाज़ार में दुकान खरीदी | दुकान का नामकारण 'महिला वस्त्रालय' के नाम से करा गया | कुछ ही समय में उनकी दूकान की प्रखायती सम्पूर्ण मुरादाबाद में और आसपास के प्रदेशों में फ़ैल  गई | महिलाएं दूर दूर से वस्त्र खरीदने दुकान पर आतीं | मुल्क आज़ाद हो चुका था और वैसे ही गंगा बाबु अपने दुर्दिनो से मुक्त हो गए थे | उनका कारोबार एक बार फिर से आसमान की बुलंदियों की तरफ परवाज़ कर चुका था और एक नया मक़ाम हासिल करने हेतु अग्रसर था |

वक़्त के साथ अनारो देवी के परिवार में भी इज़ाफा हुआ | ख़ुदा ने उन्हें तीन और संतानों से नवाज़ा | जिसमें दो बेटियां बीना और माधरी तथा बेटे विनोद शामिल थे | अब उनकी कुल नौ संताने थी |  क्रमशः

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