ये पकड़ता है इंसान
ये पालता है आत्मा
ये लांघता है सीमा
ये सताता है कर्म
बर्फ़ सा ठंडा, अग्नि सा गर्म, श्याम-श्वेत एहसास,
अनोखा, अनदेखा, आज़ाद, अनियंत्रित
ये बहाता है आग
ये जनता है आकांक्षा
ये पालता है मरुस्थल
ये थामता है तूफां
घने सपनो के कोहरे में, चित्कार कर पुकारता
हर पल भेदता ह्रदय, फिर तोड़ता अपार
ये कुचलता है अविश्वास
ये निचोड़ता है बंधन
ये चौंकाता है जीवन
ये बांधता है आस
चीनी सा मीठा, नीम सा कड़वा
मिर्ची सा तीखा, नींबू सा खट्टा
ये रति देवी सा ललचाता है
ये वशीभूत कर तड़पाता है
ये बातों से बहलाता है
ये शिकार बना फंसाता है
नसों में रेंगता, ह्रदय में घूमता
स्वेच्छा को दबाता, भावों को सताता
ये गलाता है अहं
ये दफनाता है गुमान
ये चुभाता है चिंता
ये गिराता है झूठ
काम देव के धनुष-बाण सा
किसी भी पल चल जाता है
ये आत्मा गिरफ़्त में लेता है
ये काल से जीवन खींचता है
ये मध्यरात्री में सिसकता है
ये सूर्योदय में कूंजन करता है
ये महासागर शांत करता है
ये सुस्थिर लहर लाता है
गोधूलि बेला के आगमन पर
ख़ुशियाँ घर में भर लाता अपार
ये जमाता है विश्वास
ये रिझाता है एहसास
ये ढांकता है उम्मीद
ये छिपाता है जज़्बात
सौभाग्य नयन भिगाता, आंसू-मुस्कान के साथ
नित नव गीत सुनाता भूल पुरानी बात
ये पीछा करता है
ये ढूँढ ही लाता है
ये भीतर समाता है
ये गुदगुदाता है
ये ख़ुद से, 'निर्जन'
ख़ुद को मिलवाता है
--- तुषार राज रस्तोगी ---