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गुरुवार, अक्टूबर 01, 2015

प्यार और सासें

वो कभी भी दिल से दूर नहीं रहा, ज़रा भी नहीं। बमुश्किल ही कोई ऐसा दिन बीता होगा जब उसकी याद में खोई ना रही हो। झुंझलाहट, बड़बड़ाना, अपने से बतियाना, अपनी ही बात पर ख़ुद से तर्क-वितर्क करना, अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण खो देना, खुद को चुनौती देना, अपने मतभेद और दूरी के साथ संघर्ष करना, सही सोचते-सोचते अपने विचार से फिर जाना, आत्म-संदेह करना और अपने चिरकालिक अनाड़ीपन में फ़िर से खो जाना - आजकल यही सब तो होता दिखाई देने लग गया था आराधना के रोज़मर्रा जीवन की उठा-पटक में।

इस दूरी ने दोनों के इश्क़ में एक ठहराव ला दिया था। उनका प्यार समय की तलवार पर खरा उतरने को बेक़रार था। प्रेम का जुनून पहले की बनिज़बत कहीं ज्यादा मज़बूत और सच्चा हो गया था। हर एक गुज़ारते लम्हात के साथ उनके अपनेपन का नूर निखरता ही जा रहा था।

वो दिन जब दोनों के बीच बातचीत का कोई मुक़म्मल ज़रिया क़ायम नहीं हो पाता था, उस वक्फे में वो अपने दिल को समझाने में बिता देती और पुरानी यादों में खो जाया करती और अपने आपसे कहती, "एक ना एक दिन तो हमारी मुलाक़ात ज़रूर होगी।" - फिर जितनी भी दफ़ा राज, आराधना की यादों से होकर उसके दिल तक पहुँचता उसे महसूस होता कि उस एक पल उसकी आत्मा अपनी साँसों को थामे बेसब्री से उसके इंतज़ार में बाहें फैलाए खड़ी है।

वो अपनी आत्मा को सांत्वना देते हुए उस अदृश्य ड़ोर का हवाला देती जो उन दोनों को आपस में जोड़ता है और उसके सपनो में दोनों को एक साथ बांधे रखता है। वो याद करती है उन मुलाकातों और बरसात के पलों को जिसमें उनका इश्क़ परवान चढ़ा था और दोनों एक दुसरे के हो गए थे। वो विचार करती है कि शायद राज भी अपने अकेलेपन में यही सब सोचता होगा या फिर क्या वो भी उसके बारे में ही सोचता होगा? असल में, वो इन सब बातों को लेकर ज़रा भी निश्चित नहीं थी। यह भी तो हो सकता है वो उसकी इन भावनाओं से एकदम बेख़बर हो और मन में उठते विचार बस संकेत मात्र हों क्योंकि वो शायद वही देख और सोच रही थी जो वो अपने जीवन में होता देखना चाहती थी। पर कहीं ना कहीं उसे विश्वास था कि राज भी उसे उतना ही चाहता है जितना वो उसके प्रति आकर्षित है और दीवानों की तरह उसे चाहती है। बस इतने दिनों से दोनों को कोई मौका नहीं मिल पा रहा  था अपनी बात को स्पष्ट रूप से एक दुसरे तक पहुँचाने का।

उसे सच में ज़रा भी इल्म ना था कि आख़िर क्यों वो राज के लिए ऐसी भावनाएं दिल में सजाए रखती है, जो उनकी पहली मुलाक़ात के बाद से ही उत्पन्न होनी शुरू हो गईं थी और जिन्होंने उसके दिल पर ना जाने कैसा जादू कर दिया था। उसका दिल अब उसके बस से बाहर था, ऐसा जैसे अचानक ही ह्रदय का कोई कोना इस सब के इंतज़ार में था और उसे पहले से ज्ञात था कि ज़िन्दगी में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी मोड़ पर यह सिलसिला आरम्भ ज़रूर होगा। जो बात वो कभी सपने में भी नहीं सोचती थी आज, सच्चाई बन उसकी नज़रों के सामने थी और उसके हठीले स्वभाव पर मुस्कुरा रही थी। ऐसे समय में, उसके पास इन पलों को स्वीकारने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था।

वास्तव में कहें तो उसे बस इतना मालूम था कि अब उसकी असल जगह राज के दिल में ही है, और उसने अपनी मधुर मुस्कान और मनोभावी प्रवृत्ति से उसके मन को मोह लिया है और वो दोनों के दिलों का आपस में जुड़ाव महसूस कर सकती थी क्योंकि आज उन दोनों के बीच की छोटी से छोटी बात भी उसे ख़ुशी प्रदान करती है और वो दोनों जब भी साथ होते, उस समय बहुत ही ख़ुशहाल रहा करते थे।

वो दोनों हर मायनो में एक दुसरे की सादगी, सीरत, खुश्मिजाज़ी, मन की सुन्दरता पर मोहित हो गए थे और निरंतर रूप से एक दुसरे के प्रति आकर्षित और मंत्रमुग्ध थे। आज वो मंजिल आ गई थी जब दोनों के लिए इश्क़ सांस लेने जैसा हो गया था।

फिलहाल तो दोनों की ज़िंदगियाँ इस एक लम्हे में रुक गईं है आगे देखते हैं ज़िन्दगी कैसे और क्या-क्या रंग बिखेरती है और दोनों के प्यार की गहराई किस मक़ाम तक पहुँचती है। 

#तुषारराजरस्तोगी

मंगलवार, अगस्त 11, 2015

आशारों पे जवानी आई















इंतज़ार जिसका था एक ऊम्र से यारों मुझको
नासाज़ तबियत का सुन दौड़ी वो दीवानी आई

रोज़ गुजरतीं थीं शामें मदहोश उसके पहलु में
साथ उसके सुकून और ख़ुशी की कहानी आई

जुम्बिश नहीं थीं जिन काफ़िर नसों में अब तक
देख उसको लहू में फ़िर से पुरज़ोर रवानी आई

लगता था बीत जाएगी ज़िन्दगी अब तनहा यूँ ही
बाद मुद्दतों के फिर एक नई शाम सुहानी आई

किया करता था बातें रोज़ ख़ुदसे उसके बारे में
मिलीं नज़रें तो बात नज़रों से भी न बनानी आई

अरसा बाद दिया मौका उसने ग़ज़ल बनाने का
'निर्जन' ख़ारे अश्कों से आशारों पे जवानी आई

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #आशार

रविवार, अगस्त 09, 2015

राहगीर हूँ मैं














मेरी ताबीर-ए-हुस्न तेरा दिल-ए-दिल-गीर हूँ मैं
तेरे मचलते ख़्वाबों की इबारत-ए-ताबीर हूँ मैं

कल तलक थे बुझे ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात मेरे
आज रौशन-रू तेरे इश्क़ की एक तस्वीर हूँ मैं

दिल-ओ-जिस्म-ओ-जाँ से तेरा हूँ तू ही संभाले
दम-ए-दीगर से महकी शोख़ी-ए-तहरीर हूँ मैं

बुझ रह था मैं हर पल ज़िंदगी-ए-क़फ़स में 
आजकल इश्क़ में तेरे सहर-ए-तनवीर हूँ मैं

शरीक-ए-हयात हो जाए काश तू जल्दी मेरी
वस्ल-ए-जानाँ को तरसता हुआ राहगीर हूँ मैं

ताबीर-ए-हुस्न: interpretation of beauty
दिल-ए-दिल-गीर
: heart attracting heart,appealing heart
इबारत
: composition
ताबीर
: interpretation, explanation, elucidation
बुझे
: extinguished
ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात
: features of life
रौशन-रू
: bright faced
दम-ए-दीगर
: breath
शोख़ी-ए-तहरीर
: playfulness/mischief of writing mischievous writing, jotting
ज़िंदगी-ए-क़फ़स
: cage of life
सहर-ए-तनवीर
: morning brightness
शरीक
: a partner,a colleague,a comrade,a friend
वस्ल-ए-जानाँ
: union with beloved

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #तड़प

रविवार, जुलाई 26, 2015

मुलाक़ात

राज की मुलाक़ात आराधना से कन्याकुमारी जाते वक़्त पांच साल पहले बस में हुई थी और उसने बताया था कि वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है। राज द्वारा क्यों? पूछने पर उसने जवाब दिया, "उसे मालूम नहीं क्यों - पर उसके जीवन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो उसके भागने के फैंसले को सही साबित कर देंगी।

उसने दायें हाथ में बड़ा कॉफ़ी का मग पकड़ा था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो उसमें से उठती भाप को लम्बी सांस लेकर सूंघती और आह की ध्वनि के साथ निःश्वास होकर निश्चिंत हो जाती। देखने पर प्रतीत होता था कि उसे कॉफ़ी बेहद पसंद है और वह उसके स्वाद का भरपूर आनंद लेती हुई उसका लुत्फ़ उठा रही है। राज को अहसास हुआ कि उसने उसे एकटक ताड़ते हुए पकड़ लिया है जब उसकी नाक मग के सिरे को छू रही थी, और वो झट से बोल पड़ी कैफ़ीन मेरे दिल की तरंगों के जीवित होने का एहसास कराती है। उसकी आँखें अचरज से ऐसे चौड़ी और खुली हुई थीं जैसे मानो आज तक उसने कभी पलक झपकी ही ना हो, जैसे वो डर रही हो, जैसे...जैसे उसने कुछ खो दिया हो और सूरज उसकी पलकों पर चिड़ियों की भांति ऐसे बैठा था जैसे वो तारों पर बैठ झूलती हैं क्योंकि उसने बताया कि उसे रोना-धोना ज़रा भी पसंद नहीं आता है।

उसे चीज़ों को गिराने की आदत थी और वो चौथी मर्तबा सीट के नीचे झुककर कुछ उठाने के लिए ख़ोज-बीन कर रही थी के, अचानक से ज़ोर के चिल्लाई और उसकी फ़िरोज़ी टोपी राज के हाथ से टकराई और उसके कप से चाय बाहर छलक कर गिर गई। उसने बच्चों की तरह बड़ी मासूमियत भरी नज़रों से देखते हुए, दांतों से अपने नीचे वाले होंठ को काटते हुए माफ़ी मांगी और बोली, "वो ख़ुशी से इसलिए चीख़ी क्योंकि तुम्हारे टखने पर जो टैटू है बहुत प्यारा लगा।" - उसने बताया कि जब वो अट्ठारह बरस की हुई थी तब उसने अपनी कमर पर रंगीन तितली का टैटू बनवाया था और जब भी वो उसे आईने में निहारती है तब अपने आप से फुसफुसा कर सवाल करती है कि, "क्या वो इस तितली की तरह रंगीन,खुशमिजाज़ और चुलबुली है ?"

उस रात वो दोनों एक दुसरे के साथ में अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी कहानियां ऐसे अदला-बदली करते रहे जैसे दो प्रेमी आपस में चूमते हुए अपने इश्क़ के शर्बतों को एक दुसरे की आत्मा में उतार देते हैं और जब राज ने उससे कहा, "बत्ति जला लेते हैं क्योंकि हम मुश्किल से ही कुछ देख पा रहे हैं।" - तब इस पर मना करते हुए उसने लाजवाब जवाब दिया कि, "सच्ची और अच्छी आवाज़ों का साथ देने के लिए कभी किसी चेहरे की ज़रुरत नहीं होती है।"

उसकी गुस्ताख़ियों के बावजूद, वो बिलकुल मायावी थी और उसका उत्साह, तत्परता तथा उत्सुकता उसे बेहद मनमोहक बना रहीं थीं; उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों को छनछनाहट में कुछ तो था - जिसे राज समझ नहीं पा रहा था और ना ही कोई नाम दे पाने में सक्षम था और जब ठंडी हवा की लहर में उसकी ज़ुल्फ़ों का लहराना देखा तब ऐसा लगा मानो गर्म सेहरा के कांटो भरे कैक्टस में से अमृत धारा आज़ाद होकर रेगिस्तान में बह निकली हो।

अभी राज अपनी बातों के मध्य में ही पहुंचा था, उसके परिवार और उनकी खैरियत के बारे में सवाल करने ही वाला था कि बस रुक गई और कंडक्टर ने आवाज़ लगा दी की जिन्हें इस गंतव्य पर उतरना है वो आ जाएँ और अपना सामान डिक्की से निकलवा लें। उसने तेज़ी के साथ बातों का रुख मोड़ते हुए अपने कैनवास से बने बैकपैक से पोलारोइड कैमरा निकालकर झटपट एक राज का चित्र और फिर अपना चित्र खींच लिया।

अभी वो चित्रों को हवा में पंखे की तरह हिलाते हुए सुखा ही रही थी, राज ने पूछा, "इस साथ के बाद आगे कभी बात करने या मुलाक़ात का कोई तरीका या ज़रिया होगा?" परन्तु उसने तुरंत मुस्कुराकर नहीं में सर हिलाते हुए सवाल को सिरे से ख़ारिज कर दिया और बोली, "मुझे लगा था तुम मुझे इस सब से बेहतर समझते हो।" और जोर के हंसने लगी

राज के चेहरे पर फ़ीका अप्रकट मायूसी का भाव देख वो बिलकुल दंग रह गई और अपनी रेशमी आवाज़ में उसको उलझाते हुए अपने विदाई के जादुई शब्दों के जाल उस पर डाल दिए। "सुनो, ये लो," उसने खिसककर राज के सीने पर एक तस्वीर रख दी और कहा, "अब तुम्हारे पास मेरी तस्वीर है और मेरे पास तुम्हारी। एक दिन, हम फ़िर से ज़रूर मिलेंगे और शायद हमें यह सब कुछ भी याद ना रहे, पर मुझसे एक वादा करो कि जब तक हो सकेगा तुम इस तस्वीर को अपने साथ रखोगे और वैसा ही मैं भी करुँगी। और किसे मालूम है? शायद किसी रोज़ अपने अंतर्मन के ज्ञान और आवाज़ को सुनकर हम एक दुसरे को ढूँढने में क़ामयाब हो जाएँ। सम्भवतः ये बचपन के खेल छुपन-छिपाई जैसा होगा और यह खेल एक दिन सच हो जाएगा, और वैसे भी बाक़ी सब कुछ छोड़कर पूरी दुनिया हमारे इस खेल का मैदान होगी।" - उसकी आँखें यह कहते हुए चमक रहीं थीं।

पांच साल बाद भी, राज उसे दोबारा नहीं ख़ोज पाया पर उसने उम्मीद का दामन अभी तलक नहीं छोड़ा। वो जहाँ भी जाता उसे ढूँढने की कोशिश ज़रूर करता - हिन्दुस्तान, लंदन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, मलेशिया, मॉरिशस, थाईलैंड, रोम, बुडापेस्ट, श्रीलंका, और भी ना जाने कहाँ-कहाँ पर अफ़सोस उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई लड़की उसे नहीं मिली जो अपनी जुल्फों में रेगिस्तानी रेत की ख़ुशबू लिए चलती हो।

इतने साल बाद, राज टिकट काउंटर पर खड़ा पेरिस को जाने वाली रात की ट्रेन की टिकट बुक करा रहा था। ठीक उसके पीछे एक लड़की लाइन में खड़ी थी, उसके रेशमी बाल हवा में लहरा रहे थे और फिर गिरकर उसके गालों को चूम रहे थे। टिकट लेकर जैसे ही वो अपना बैग लेकर प्लेटफार्म की तरफ बढ़ रहा था उसके कानो में ये आवाज़ पड़ी और वो रुक गया। वो लड़की टिकट खिड़की पर झुकी हुई थी और अधिकारी को बता रही थी की वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है और इसी प्लानिंग के तहत वो आज यहाँ पहुंची है। राज यह सब सुनता रहा, रुक गया और आसमान की तरफ देख चुपचाप खड़ा मुस्कुराता रहा।

#तुषार राज रस्तोगी  #कहानी  #राज  #आराधना #इश्क़ #मोहब्बत #मुलाक़ात #इंतज़ार  #बस  #सफ़र  #पेरिस

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

सपने में मिलते हैं

वो एक सपना जो हमेशा से मेरी ज़िन्दगी के गुलदान को महकते गुलाबों से भर जाता है,"तुम मेरी बाहों में मेरे सिरहाने बगल में मेरे साथ लिपट कर साथ लेटी हो। मैं अपने गालों पर तुम्हारी साँसों की हरारत को महसूस कर सकता हूँ, तुम्हारी अनोखी, अद्भुत, मदमस्त कर देने वाली सुगंध मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करती है और मैं उम्र भर उस महक के साथ जी सकता हूँ। वो ख़ुशबू मुझे बारिश के बाद वाले बसंत की याद दिलाती है।

परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।

फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।

अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन  पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।

कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।

तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...

--- तुषार रस्तोगी ---

शुक्रवार, मार्च 20, 2015

इज़हार-ए-मोहब्बत

उन दोनों का मिलना समझो एक संयोग मात्र ही था।

फुटपाथ पर पैदल चलते हुए अचानक ही उसकी सैंडल की एड़ी के दरार में फंसने से उसका पैर मुड़ गया। अपने आपको सँभालने के चक्कर में उसके हाथ से किताबें फिसलकर बड़े ही लयबद्ध तरीके से ज़मीन पर जा गिरीं। हालाँकि ये पढ़ना और सुनना बड़ा घिसा-पिटा और फ़िल्मी सा प्रतीत होता है पर वो बिलकुल ऐसा ही सोचता था कि ज़िन्दगी में किसी से मिलने का ये सबसे उत्तम तरीक़ा है।

उसकी ज़िन्दगी ऐसे रोज़मर्रा के प्रसंगों से भरी पड़ी थी जिन्हें, वो या तो जीवन भर याद रख सकती थी या फिर भूल सकती थी, पर फिर भी उसने इस एक घटना के बारे में थोड़ा बहुत सोचने की ज़हमत उठा ही ली।
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सच पूछो तो उसने, उसके बारे में ज़रा-ज़रा सोचना शुरू कर दिया था। वो स्वभाव से बहुत ही उदार और सभ्य पुरुष मालूम देता था पर उसके साथ पहली मुलाक़ात, उफ़-तौबा! सरासर उबाऊ थी पर ये बात भी अलग थी कि, अब उस उबाऊपन में उसे विशेष रूचि होने लगी थी, उसे, उसी बोरियत में अपनी ज़िन्दगी के नए मायने मिलने लगे थे और इसलिए वो दोनों एक दफ़ा फिर से मिले और फिर मुलाकातों का सिलसिला लगातार पायदान चढ़ता चला गया।
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उसे कभी भी इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं था, वो कितना वक़्त उसके साथ गुज़ारती है जब तक उसने उस रात बिना किसी बात फ़ोन मिलाया और कुछ नहीं बोली, सिर्फ उसकी आवाज़ सुनने के लिए। अपने अन्दर के खौफ़ के कारण, वो ख़ुद, इस असलियत को स्वीकार करने से इनकार करती रही, जिसे पूरे दिल से वो मानना तो चाहती थी और जब उसने पहली ही घंटी पर फ़ोन उठाया तब उसने बिना सोचे समझे, "माफ़ कीजिये, गलती से आपका नंबर मिल गया" कहकर झट से फ़ोन काट दिया।

बाद में, उसे एहसास हुआ कि शायद वो जानता था ये उसका ही फ़ोन था, क्योंकि अगली मुलाक़ात के वक़्त वो चुपचाप उसे निहार रहा था और मिलते वक़्त उसके होठों पर एक ख़ास तरह की मुस्कान सजी हुई थी जिसे उसने बड़ी ही मशक्कत, जद्दोजहद और मुश्किलात के बाद नज़र अंदाज़ किया था।
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उसे पहेलियाँ सुलझाना बेहद पसंद था। बचपन में उसकी माँ उसे जासूसी उपन्यास पढ़कर सुनाया करती थीं हालाँकि उसे हमेशा इस बात का शक बना रहता था कि उन्होंने शब्दों में हेर फेर कर कहानी के कुछ भाग को इधर-उधर कर बताया है जिससे कहानी के रहस्य उसे समझ आ सकें। यहाँ तक कि उन्होंने उसके जन्मदिन पर उपहार में क्रिकेट बैट देने की जगह एक जासूसी विडियो गेम भेंट में दिया था।

उसे सहसा ही, साफ़ अंदाज़ा हो गया था कि वो उसके साथ इतना सारा वक़्त बिताना क्यों पसंद करती है।
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वो उसके साथ पुस्तकालय जाया करता, रास्ते भर उसका सामन उठाकर चलता और उसके साथ बातों में खोया रहता। एक बार जब वो दोनों साथ लाइब्रेरी में थे तब उसका सामना, उसके असल जज़्बातों के साथ हुआ। किताबों के साथ उसका रिश्ता और लगाव ऐसा था जैसे शायद कभी किसी और के साथ नहीं था। उसके दिल के तहख़ाने तक जाने का ज़रिया किताबें ही लगती थीं। वो नई-पुरानी किताबों को उठाकर, उनके कवर को अपनी कोमल उँगलियों से एक समान स्पर्श करती, उन्हें छूकर उसकी आँखें आनंद से चमक उठतीं और उसके चेहरे पर उफनती लहरें उसकी उँगलियों के नीचे बहते अनगिनत शब्दों के महासागर में उठते ज्वार-भाटे को बयां कर रही थीं।

"ये कमाल हैं," उसने एक बार उससे कहा था। "देखो ना, आप एक ही समय में शब्दों से स्वेच्छापूर्वक सब कुछ कह सकते हो, पर ठीक उसी समय में दूसरी ओर इनके साथ सीमा का बंधन भी रहता है। 'प्यार' शब्द लिखने से हर कोई उस प्रेम के एहसास को महसूस तो नहीं कर सकता ना!"

"ये तो पढ़ने वाले पर निर्भर करता है" उसने किसी बड़े दार्शनिक की तरह जवाब दिया और जैसे-जैसे वो किताब के पन्नो के बीच उँगलियाँ घुमा रही थी, वो लगातार उसके चेहरे पर उमड़ते अनगिनत भावों को पढ़ता जा रहा था और खुश होता रहा।

वो मन ही मन सोचता, "काश! जिस तरह वो उन किताबों को देखती है कभी उसे भी ऐसे ही देखे और उसके साथ सब कुछ भूल कर बातें करे।" अब इसमें कोई रहस्य नहीं रह गया था, वो बिना किसी अस्पष्टता के उसका साथ चाहता था। उसके साथ खुलकर हँसना चाहता था, उसको बाहों में भरना चाहता था, उसके आगोश में खो जाना चाहता था, देर तक उसको चूमना चाहता था, घंटो उसके साथ समय बिताना चाहता था। वो जानता था की सिर्फ किताबघर ही एक ऐसी जगह है जहाँ उसके चेहरे पर ऐसे कोमल, शांतिपूर्ण और स्थिर भाव देखने को मिलते हैं।

उसके साथ रहते हुए, उसे एहसास हुआ कि किताबों, कागज़ और स्याही के सिवा वो किसी पर भी भरोसा करने में असमर्थ है। उसने बड़ी सहजता के साथ उसे समझाया कि लोगों पर भरोसा किस तरह किया जा सकता है, हर इंसान सिर्फ खून और मांस का पुतला नहीं होता है, उनमें से शायद कोई ऐसा भी हो जो उसके ह्रदय को पढ़ सके, विचारों को समझ सके, भावनाओं को पूर्ण कर सके और जिसका साथ सदा स्वच्छंद, आनंदप्रद और सुखद एहसास दे। उसे इस बात का बहुत आश्चर्य था की आख़िर ऐसे कितने लोगों ने उसका ऐतबार तोड़ा होगा जिसकी वजह से उसे, उसपर ज़रा सा यक़ीन जमाने में इतना समय लगा रहा है।
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"मैंने कल रात तुम्हारे बारे में सपना देखा," वो उसे बताती है। वो मुस्कान के साथ ख़ुशी का इज़हार करता है और व्यक्तिगत रूप से इसे एक सफलता मानता है, एक ऐसी क़ामयाबी जिसके बारे में वह अभी भी अनिश्चित था।

"क्या वो एक अच्छा सपना था ?" उसने छेड़ने के अंदाज़ में पूछा, और उसकी बांह पर अपनी उँगलियाँ फेरने लगा, सिर्फ उसे शांत करने और उसे अपने खुद के बुने प्रतिबंधित चक्र से बहार निकलने के लिए। वो भी कुछ नहीं बोली सिर्फ हलके-हलके मुस्काती रही।

उस समय, उसका मुस्कुराना, उसे एक अच्छा संकेत प्रतीत हुआ परन्तु बाद में उसे एहसास हुआ कि वो जब बहुत उदास होती है सिर्फ तभी मुस्कुराती है।
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वो उसके कमरे में प्रवेश करता है और देखता है वो एक कुर्सी पर डरी, सहमी और सिकुड़ कर बैठी है और उसकी गोद में क़िताब है। वैसे इस दृश्य में कुछ भी असामान्य नहीं था; इस मुद्रा में उसे पहले भी अक्सर बैठे देखा था, यही एक कारण था कि ना चाहते हुए भी वो, उससे नाराज़ हो जाया करता। अब ये राज़ और भी गहराता जा रहा था, वो जानने को आतुर था आख़िर इस तरह से बैठे रहने के पीछे क्या कारण था?

"उफ़ ख़ुदाया! आख़िर तुम इतनी अड़ियल और ज़िद्दी क्यों हो? हमेशा किस दुनिया में खोयी रहती हो जबकि ज़िन्दगी के पास कितना कुछ है तुम्हे देने के लिए, बोलो?," वो अकस्मात् ही उसकी तरफ बढ़ा और मंद स्वर में पूछने लगा। उसकी तरफ गर्दन उठा कर देखते हुए मुस्काई और इस गहन सोच में खो गई कि, "इस पल ,ये मेरे कितने पास खड़ा है।"

"ये मुझे ख़ुशी देता है," बड़े ही अड़ियल मिजाज़ से, उसने आँखे चुराते हुए, उसे बताया। "मैं तुम्हारे बताए ख़ुशी पाने की तरीक़े क्यों अपनाऊं, जब मुझे उनमें ज़रा भी सहजता महसूस नहीं होती है, बताओ?"

"मैं समझ सकता हूँ।" उसने बड़ी शालीनता से, उसके कान के पास जाकर फुसफुसाते हुए जवाब दिया; अब वो उसके इतना करीब था की पास रखी किताब के पन्नो को पढ़ने में सक्षम था। "पर तुम ख़ुशी पाने के लिए तो नहीं पढ़ रही हो। तुम पढ़ रही हो - दुनिया को चुप कराने के लिए। और...तुम ख़ुश भी तो नहीं दिखाई दे रही हो।"

वो कुछ नहीं बोली, बस कस कर मुट्ठी भींच अपनी गोद में किताब को इतनी जोर से जकड़ा के उसकी उँगलियों के पोर सफ़ेद पड़ गए।
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कभी कभी वो सोचती कि किताबों में इतनी लापरवाही के साथ बयां किये गए ख़ूबसूरत इश्क़ के बारे में पढ़-पढ़ कर कहीं वो असल ज़िन्दगी में प्यार करना भूल तो नहीं गई।

उसे ताज्जुब था कि क्या जिन लोगों को उसने आज तक अपनी ज़िन्दगी से बहार किया था दरअसल उन्होंने कुछ ग़लत किया भी था, या फिर ऐसा तो नहीं था की वो कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही उम्मीद कर रही थी?

पर अंत में, हमेशा की तरह, वो इन सभी ख्यालों को अपने दिमाग से बाहर निकालकर फ़ेंक देती है।
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अब वो उसे समझना शुरू करता है, पर इससे ज़्यादा ज़रूरी बात है उसकी ख़ामियों को जानना, पर वो उसे अकेला छोड़ दे, बस इससे ज्यादा वो कुछ नहीं  चाहती थी। वो अपने दुःख, अपनी अप्रसन्नता, अपनी खीज, अपने क्रोध, अपनी हताशा को बर्दाश्त में असमर्थ थी और यही कारण था जो वो इस सब से छुटकारा पाने के लिए, अपने आपको सब से बचाने के लिए, उन लम्हों में जिन्हें वो संभाल नहीं सकती थी अपने आप को किताब के पन्नो में क़ैद कर लिया करती थी।

अब तक, वो उसे पूरी तरह से समझ चुका था और एक अच्छा दोस्त और हितकर व्यक्ति के नाते वो उसकी हर प्रकार से मदद करना चाहता था।

पर वो यह भी नहीं चाहता था कि वो उससे नफ़रत करने लगे।
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कभी कभी उसे उन परीलोक वाली प्रेम कथाओं से घृणा होने लगती जो उसे, उस महत्वपूर्ण इंसान के लिए तरसने और तड़पने को मजबूर करतीं, वो नायाब हीरा जिसको ढूँढना उसके लिए ना के बराबर था।
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एक पूरा साल, ३६५ दिनों का समय निकल गया, उसको सिर्फ इतनी सी बात समझने के लिए कि वो, ये नहीं चाहती, के वो उसे कभी भी उसका साथ छोड़ कर जाए।

अपनी ज़िन्दगी में, उम्र के लम्बे गुज़रे समय में, पहली बार उसने किताब को बंद कर नीचे रखा और अपने फ़ोन को हाथ में उठाया था।
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वो बचपन में भी अपनी माँ के जासूसी कहानियां ख़त्म करने से पहले ही उनका अंत ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर बता दिया करता था। वो आश्चर्यजनक रूप से अपने इस कार्य में बहुत निपुण था, और समय के साथ उसके इस कौशल की क्षमता एक विशेष योग्यता के रूप में परिवर्तित हो गई थी। वैसे भी, ख़ास तौर पर, उसे प्रेम उपन्यास पढ़ना नापसंद था और वो इन्हें असल ज़िन्दगी के सामने बड़ा ही तुच्छ और अपमानजनक समझता था।

"किसी भी प्यार के अफ़साने को खत्म करने के सिर्फ ये दो ही तरीक़े हो सकते हैं।" वो कहता, "या तो बे-तहाशा सच्चा प्यार या बे-दर्द भयानक दुखद त्रासदी"

हालाँकि उसे बिलकुल भी मालूम नहीं था कि क्या वो इस बात में यकीन रखती है कि प्रेम इतना सरल है, पर उसने स्वीकारा कि जब वो अपना दृष्टिकोण इतने दावे के साथ बतलाता है, उसे ये सब सुनना बहुत भाता है और वो उसकी बातों से इनकार नहीं कर पाती है।
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हालाँकि, उसको मालूम नहीं था, वो दोनों आपस में एक दुसरे के साथ कहाँ तक समन्जस्य बिठा पायेंगे।

और यदि वह जोर से चिल्लाकर अपनी प्रेम कहानी के अंत को बता सकता, उस सूरत में उसे मालूम था उसे क्या चुनाव करना है। उसे मालूम था इस रिश्ते से उन दोनों के लिए उसकी क्या अपेक्षाएं हैं, वो इस बंधन से क्या चाहता है, पर आज एक समय के लिए जीवन में पहली बार, वो स्वयं परिणाम को लेकर अस्पष्ट और अनिश्चित था।

फिर एक दिन अकस्मात् ही उसने पूरे ज़ोर से चिल्लाते हुए वो तीन चमत्कारी शब्द उसेके सामने कह दिए क्योंकि उनको ना बोल पाने की टीस और अफ़सोस को लेकर वो अपना सारा जीवन नहीं गंवाना चाहता था।

"आई लव यू - मैं तुमसे प्यार करता हूँ - बहुत प्यार करता हूँ..."

जब वो यह इज़हार-ए-मोहब्बत कर रहा था तब उसकी इंतज़ार भरी सूनी आँखें नम थीं।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, नवंबर 29, 2014

इंतज़ार













उसके इंतज़ार में दिल मेरा बेज़ार हो गया
इतना तड़पा के हर ख्व़ाब तार तार हो गया

आँख नम थी पर होटों पर हंसी थी 'निर्जन'
आवाज़ सुन उसकी दिल बेक़रार हो गया

लगता था आवाज़ में चाशनी घुली थी उसकी
अलफ़ाज़ सुनते ही गुलिस्तान गुलज़ार हो गया

वो साँसों की तपिश, जिस्म की महक उसकी
वो अदावत, वो अदाएं, वो मासूमियत उसकी

सोचते सोचते दिल बहका सा जाता है मेरा
अब तो बस ये कहने को जी चाहता है मेरा

खुश रहे वो सदा हंसती रहे गुनगुनाती रहे
अपनी आँखों से यूँ ही चांदनी छलकाती रहे

उसके साथ बस यूँ ही जी लूँगा ज़िन्दगी अपनी
खुश जो रहे वो तो समझो ज़िन्दगी आबाद अपनी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, सितंबर 08, 2014

कल्पना तू ही
















तुझसे हैं सुबहें मेरी
तुझेसे ही शामें मेरी
तुझसे रातें दहकती मेरी
तुझसे हैं बातें मेरी
जिस्म में दिल की जगह
अब तू ही तू धड़कती है
आईना देखूं जो मैं
मेरे अक्स में तू झलकती है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं
जो तू है तो सब कुछ यहीं
तेरा हूँ मैं और तू मेरी
‘निर्जन’ की है कल्पना तू ही
तुझसे हैं...


--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 22, 2014

रात बाक़ी है अभी














रात बाक़ी है अभी
बात बाक़ी है अभी
ख़ामोशी में तेरी सनम
फ़रियाद बाक़ी है अभी
तेरी साँसों की गर्मी में
आग बाक़ी है अभी
फुसफुसाती आवाज़ में
जज़्बात बाक़ी है अभी
अलसाई इन आँखों में
ख्व़ाब बाक़ी है अभी
होठों की मुस्कान में
राज़ बाक़ी है अभी
तेरे दिल में थमे
अल्फाज़ बाक़ी हैं अभी

बातों के आगाज़ में
परवाज़ बाक़ी है अभी 
रात बाक़ी है अभी
बात बाक़ी है अभी

सोमवार, फ़रवरी 10, 2014

तू क्या जाने
















तू क्या जाने इस दिल में
तेरी बेक़रारियां हैं क्या

तू क्या जाने इस दिल में
तेरी दुश्वारियां हैं क्या

तू क्या जाने इस दिल में
तेरी खुमारियां हैं क्या

तू क्या जाने इस दिल में
तेरी जिम्मेदारियां हैं क्या

तू क्या जाने इस दिल में
तेरी उन्सियत है क्या

तू क्या जाने इस दिल में
तेरी शक्सियत है क्या

तू क्या जाने इस दिल में
'निर्जन' धड़कन है क्या

ये दिल समझाता तुझको
कभी तू दिल को समझा

बुधवार, जनवरी 15, 2014

देखे होंगे


















मेरी तरह उसने भी तो रातों में
चाँद से लिपटते तारे देखे होंगे
चांदनी के आगोश में सिमटते
वो मदहोश नज़ारे देखे होंगे
रात के आसमान में धीरे से
खिसकते बादल देखे होंगे
छत की मुंडेर को थामे वो
रातों में मुझे ढूँढ़ते तो होंगे
सियाह रात के सर्द कुहरे में
बंद होठ धीरे से मुस्कुराते होंगे
अनकहे अनछुए एहसास उसके
दिल में भी धड़कते मचलते होंगे
बस कह नहीं पाता है वो
दिल की बात 'निर्जन' तुझसे
ये बात दीगर है कि सपने तो
उसने भी वही देखे होंगे...