ख्वाबों की दुनिया में बुने एक अलसाये मन के भाव, विचार, सोच, कहानियाँ, किस्से, कवितायेँ....|
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गुरुवार, मई 19, 2016
शनिवार, अप्रैल 11, 2015
सपने में मिलते हैं
वो एक सपना जो हमेशा से मेरी ज़िन्दगी के गुलदान को महकते गुलाबों से भर जाता है,"तुम मेरी बाहों में मेरे सिरहाने बगल में मेरे साथ लिपट कर साथ लेटी हो। मैं अपने गालों पर तुम्हारी साँसों की हरारत को महसूस कर सकता हूँ, तुम्हारी अनोखी, अद्भुत, मदमस्त कर देने वाली सुगंध मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करती है और मैं उम्र भर उस महक के साथ जी सकता हूँ। वो ख़ुशबू मुझे बारिश के बाद वाले बसंत की याद दिलाती है।
परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।
फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।
अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।
कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।
तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...
--- तुषार रस्तोगी ---
परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।
फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।
अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।
कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।
तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...
--- तुषार रस्तोगी ---
चिप्पियाँ:
इंतज़ार,
इश्क़ मोहब्बत,
एहसास,
कहानी,
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सपना
बुधवार, मार्च 18, 2015
ये
ये पकड़ता है इंसान
ये पालता है आत्मा
ये लांघता है सीमा
ये सताता है कर्म
बर्फ़ सा ठंडा, अग्नि सा गर्म, श्याम-श्वेत एहसास,
अनोखा, अनदेखा, आज़ाद, अनियंत्रित
ये बहाता है आग
ये जनता है आकांक्षा
ये पालता है मरुस्थल
ये थामता है तूफां
घने सपनो के कोहरे में, चित्कार कर पुकारता
हर पल भेदता ह्रदय, फिर तोड़ता अपार
ये कुचलता है अविश्वास
ये निचोड़ता है बंधन
ये चौंकाता है जीवन
ये बांधता है आस
चीनी सा मीठा, नीम सा कड़वा
मिर्ची सा तीखा, नींबू सा खट्टा
ये रति देवी सा ललचाता है
ये वशीभूत कर तड़पाता है
ये बातों से बहलाता है
ये शिकार बना फंसाता है
नसों में रेंगता, ह्रदय में घूमता
स्वेच्छा को दबाता, भावों को सताता
ये गलाता है अहं
ये दफनाता है गुमान
ये चुभाता है चिंता
ये गिराता है झूठ
काम देव के धनुष-बाण सा
किसी भी पल चल जाता है
ये आत्मा गिरफ़्त में लेता है
ये काल से जीवन खींचता है
ये मध्यरात्री में सिसकता है
ये सूर्योदय में कूंजन करता है
ये महासागर शांत करता है
ये सुस्थिर लहर लाता है
गोधूलि बेला के आगमन पर
ख़ुशियाँ घर में भर लाता अपार
ये जमाता है विश्वास
ये रिझाता है एहसास
ये ढांकता है उम्मीद
ये छिपाता है जज़्बात
सौभाग्य नयन भिगाता, आंसू-मुस्कान के साथ
नित नव गीत सुनाता भूल पुरानी बात
ये पीछा करता है
ये ढूँढ ही लाता है
ये भीतर समाता है
ये गुदगुदाता है
ये ख़ुद से, 'निर्जन'
ख़ुद को मिलवाता है
--- तुषार राज रस्तोगी ---
चिप्पियाँ:
इश्क़ मोहब्बत,
एहसास,
तुषार राज रस्तोगी,
दिल,
निर्जन,
प्यार,
प्रेम,
बंधन
सोमवार, नवंबर 03, 2014
मेरी ज़िन्दगी
तुमने रात भर तन्हाई में सरगोशियाँ की थीं
तेरी नर्म-गुफ्तारी ने रूह को खुशियाँ दी थीं
बातों ने संगीतमय संसार बक्शा था रातों को
यादों ने नया उनवान दिया था मेरे ख्वाबों को
तुमने 'निर्जन' इस दिल का सारा दर्द बांटा था
तेरी रूमानियत ने रात को फिर चाँद थामा था
मेरे आशारों में इश्क़ इल्हाम की सूरत रहता है
मानी बनके तू लफ़्ज़ों को मेरे एहसास देता है
तेरे होने से ज़िन्दगी हर लम्हा गुल्ज़ार रहती है
तेरी पायल की आहट कानो में संगीत कहती है
गुफ्तारी : वाक्पटुता, वाग्मिता, वाक्य शक्ति, बोलने की शक्ति
कर्ब : दुःख, दर्द, बेचैनी, रंज, ग़म
उन्वान : शीर्षक, टाइटल
इल्हाम : प्रेरणा
मानी : ताक़तवर
--- तुषार राज रस्तोगी ---
रविवार, नवंबर 02, 2014
अब भी
मचली हुई हैं गुज़री रात की सरगोशियाँ अब भी
तेरे इश्क़ की ख़ुशबू साँसे महका रही हैं अब भी
तड़पता दिल बड़ी शिद्दत से बहक रहा है अब भी
तेरी बातों की चसक चराग़ जला रही हैं अब भी
ख्वाहिश चाँद छूने की पूरी नहीं हुई है अब भी
तेरी अब्र-ए-नज़र दिल में झाँक रही हैं अब भी
बयां करना नामुमकिन ये बेख़ुदी है अभी भी
तेरे जिस्म की कसमसाहटें सता रही हैं अब भी
ये जज़्बात बहते आबशार की मानिंद हैं अब भी
ख़ुशनुमा मौसम देख होठ मुस्कुरा रहे हैं अब भी
अब्र : बादल
आबशार : झरना
--- तुषार राज रस्तोगी ---
गुरुवार, सितंबर 18, 2014
आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी
आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी,
कुछ यादें पुरानी बाक़ी हैं
कुछ ख़ुशी लुटानी बाक़ी हैं,
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाक़ी हैं,
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी हैं,
कुछ ग़म छिपाने बाक़ी हैं,
कुछ ज़ख्म मिटने बाक़ी हैं,
कुछ नगमे सुनाने बाक़ी हैं,
कुछ किस्से बताने बाक़ी हैं,
कुछ मुझमें थोडा बाक़ी है,
कुछ उनमें थोडा बाक़ी है,
ज़िन्दगी की दौड़ में 'निर्जन'
सच कितनी आपा-धापी है
आहिस्ता गुज़र.....
--- तुषार राज रस्तोगी ---
कुछ यादें पुरानी बाक़ी हैं
कुछ ख़ुशी लुटानी बाक़ी हैं,
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाक़ी हैं,
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी हैं,
कुछ ग़म छिपाने बाक़ी हैं,
कुछ ज़ख्म मिटने बाक़ी हैं,
कुछ नगमे सुनाने बाक़ी हैं,
कुछ किस्से बताने बाक़ी हैं,
कुछ मुझमें थोडा बाक़ी है,
कुछ उनमें थोडा बाक़ी है,
ज़िन्दगी की दौड़ में 'निर्जन'
सच कितनी आपा-धापी है
आहिस्ता गुज़र.....
--- तुषार राज रस्तोगी ---
शुक्रवार, अगस्त 29, 2014
मेरा अंदाज़ नहीं
मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं
मालूम है, दूर तक कोई आवाज़ नहीं
मालूम है, अनजाने ये हालात नहीं
ये तो वक़्त ने ऐसी हालत कर दी है
नहीं तो ऐसे जीना मेरा अंदाज़ नहीं
सवेरा कब हो चला कुछ मालूम नहीं
शाम कब ढल गई कुछ मालूम नहीं
गुज़ारा कैसे हुआ कुछ मालूम नहीं
ये तो सोना जागना ऐसे हो गया है
नहीं तो ऐसे घुलना मेरा अंदाज़ नहीं
मालूम है, दूर तक आज रौशनी नहीं
मालूम है , रहता बहुत कुछ याद नहीं
मालूम है, मैं हूँ आज भी गलत नहीं
ये तो ज़माना है जो बातें बनाता रहता है
नहीं तो ऐसी बर्बादी मेरा अंदाज़ नहीं
ये वक़्त भी निकल जायेगा 'निर्जन'
क्योंकि घने अँधेरे के बाद सुबह नहीं
ईश्वर ने बनाई ऐसी कोई रात नहीं
मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं
नाराज़गी अपनों से मेरा अंदाज़ नहीं
--- तुषार राज रस्तोगी ---
बुधवार, अगस्त 27, 2014
सच्ची सकारात्मक सोच
सोच बदलेगी, किस्मत बदल जाएगी
नज़र बदलेगी, नेमत बदल जाएगी
आसमां पाना हो, तो परवाज़ मत बदलना
परवाज़ बदलोगे, तो हवाएं बदल जाएँगी
हमारी प्रजाति मनुष्य की है। यह सोच का कीटाणु केवल हम मनुष्यों में विद्यमान है। यह कीटाणु कभी सकारात्मक होता है कभी बहुत ही विध्वंसक होता है। इस पर किसी का ज़ोर नहीं होता, परन्तु इसके आधार पर यह सीखा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सोच को यदि बुद्धिमानी से नियंत्रित करे तो वह एक सफल जीवन यापन कर सकता है और जीवन में सफलताओं और असफलताओं से ऊपर उठ सकता है। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति के जीवन में सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह शक्ति इसे जानवरों से मुख़्तलिफ़ करती है। सोच का मनुष्य के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। यही कारण है कि इंसान के विचारों को कैसा होना चाहिए, उसे कैसे व्यवस्थित करना चाहिए और उसके मन पर विशेष विचार का प्रभाव कैसे पड़ता है? यह मनुष्य स्वयं ही निर्धारित करे तो बेहतर है नहीं तो उसमें और कुत्ते की पूँछ में क्या फ़र्क रह जायेगा।
मैंने सुना था "ज़िन्दगी में हम जो भी कार्य करते हैं या जैसा भी बनते हैं उसके पीछे हमारा स्वाभाव, हमारे संस्कार तथा हमारी संगत आर्थात हमारे यार-दोस्त या रिश्ते-नातेदार जिनकी सोहबत में हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिताते हैं, का गहरा प्रभाव होता है" लेकिन जिस दिन आप अपनी सोच से अपने जीवन के फैसले खुद लेने लग जाते हैं उस क्षण के पश्चात् से यह प्रभाव, यह स्वाभाव, यह संस्कार और उस सांगत का कोई भी असर आपके ऊपर नहीं रहता। आपकी सोच अपने में इतनी सशक्त हो जाती है जो ना आपको बहकने देती है, ना बदलने, और ना अपने लक्ष्य से डिगने देती है।
इंसान जैसी सोच रखता है वैसा ही बन जाता है । सोच वही होती है जैसा हमारा मस्तिष्क आचरण करता है, जैसा हम करना चाहते हैं और उसे पूर्ण करने हेतु जो रास्ता हम अख्त्यार करते हैं । सच कहूँ तो वही हमारा वास्तविक स्वाभाव होता है और अंत में हम अपनी सोच के अनुरूप ढल जाते हैं । अगर पंक्तियों के माध्यम से अपने इस भाव को व्यक्त करना चाहूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि :
जैसा सोचोगे, वैसा बोलोगे
जैसा बोलोगे, वैसे करोगे
जैसा करोगे, वैसी आदत बनेगी
जैसी आदत होगी, वैसा चरित्र बनेगा
जैसा चरित्र बनेगा, वैसा जीवन आधार बनेगा
जैसा जीवन आधार बनेगा, वैसी ख्याति होगी
जैसी ख्याति होगी, वैसा वर्तमान होगा
जैसा वर्तमान होगा, वैसा भविष्य होगा
सोच यूँ तो बहुरूपी है परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यह दो ही रूपों में समाहित है - सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच।
यदा-कदा हम आपस में तर्क-वितर्क करने बैठ जाया करते हैं परन्तु अंत में वह बहस तर्क-कुतर्क में बदल जाती है और आपसी मतभेद और झगड़े-फ़साद की जड बन जाती है। उस समय इंसान और कुत्ता-बिल्ली में कोई फ़र्क नहीं रहता। अब तो तर्क-वितर्क सिर्फ नाम के रह गए हैं असल में तो तर्क-कुतर्क ही सोच के नए रूप हो गए हैं। कुतार्किक सोच, सोच का एक आधुनिक रूप है, और मैं ऐसा मानता हूँ कि यह एक (अस्वाभाविक) तरीका है। यहाँ सोच और संगत कर रही बातों के बीच के संबंध को हम सांसारिक रूप के अनुसार सोच कर पारंपरिक तरीके का नाटक करने के लिए औपचारिक तर्क के नियमों को दर्शाते हैं। ज्ञान भले ही अधूरा हो, हो न हो पर आडम्बर, ज़िद और बहस पूरा होता है। आजकल इस मॉडर्न सोच का बहुत प्रचलन देखने को मिलता है। जिसे देखो अपनी बात का ढ़ोल बजकर या सोच की पुष्टि हेतु तर्क देता नज़र आता है फिर वो तर्क भले ही ग़लत क्यों न हो, ऐसे में व्यक्ति को लगने लगता है वह ही आइन्स्टाइन का पड़पोता है या न्यूटन का तोता है। अक्सर बैठकों, गोष्ठी, सभाओं और सम्मेलनों इत्यादि में डंडीमार सोच या भांजिमार सोच वाले सूरमाओं को देखा गया है यह वो कौम होती है जो कभी भी सकारात्मक सोच से इत्तेफ़ाक नहीं करती हमेशा उसकी काट में लगी रहती है। इनके कारण कई बार कुछ समय के लिए अच्छी सोच वाले लोग भी बहक जाया करते और बनते काम बिगड़ जाया करते हैं। खुदा लानत भेजे ऐसे चिल्गोज़ों पर जो न खुद की सोच रखते हैं न किसी और की ज़हीन सोच का एहतराम करते हैं।
इसी तरह सोच के कई अन्य रूप भी सामने आये हैं जैसे - सोशल मीडिया सोच, टीवी सीरियल सोच, बड्बोली सोच, कामचोर की सोच, गधे की सोच, नेता की सोच, चाटुकार की सोच, बच्चे की सोच, बूढ़े की सोच, आशिक़ की सोच, माशूक की सोच, बीवी की सोच, पति की सोच, सास-बहु की सोच, पति-ससुर की सोच, जोरू के गुलाम की सोच, आवाम की सोच, बद की सोच, बदनाम की सोच, छिछोरे की सोच, बेटे की सोच, बेटी की सोच, अनाड़ी की सोच, खिलाड़ी की सोच, अफ़सर की सोच, नौकर की सोच, सफल की सोच, असफल की सोच, भिखारी की सोच, पूंजीवादी की सोच, विभीषण की सोच, सिपाही की सोच, दार्शनिक सोच, काल्पनिक सोच, विरोधाभासी सोच, सुसंगत सोच, कुसंगत सोच, संरचित सोच, सबूत के आधार पर सोच, अवधारणा आधारित सोच, न्यायपूर्ण सोच, तुलनात्मक सोच, स्पष्ट सोच, अस्पष्ट सोच, विश्लेषण सोच, संश्लेषण सोच, आलोचनात्मक सोच, सामान्यीकरण सोच, अमूर्त सोच (सार सोच) और अन्य कई प्रकार की सोच जिनकी क्षमता मनुष्य के मस्तिष्क में है क्योंकि सोच की हद तक कोई नहीं जा सकता और किसकी सोच किस हद तक जा सकती है यह कोई नहीं बता सकता। कहने को इनके रूप अनेक हैं परन्तु इनकी मुख्य श्रेणी यही दो हैं। सोच के इन विभिन्न रूपों के गुण-अवगुण जानकर उपयोग करने के पीछे ज़िम्मेदार केवल मनुष्य और उसका मस्तिष्क ही होता है। मुझे ऐसा लगता है सोच हमेशा सम होनी चाहियें। सभी पक्षों, परिस्थितियों, प्रभावों, परिणामो और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को बनाना चाहियें। सोच का दायरा सीमित नहीं असीमित होना चाहियें लेकिन सही दिशा में और सकारात्मक विचारधारा के साथ।
सकारात्मक सोच हमको ऊर्जा प्रदान करती है और हमारी गुप्त क्षमताओं को उजागर करती हैं। यह विचारधारा अवसरों के संबंध में चेतना में वृद्धि करती है। अच्छी सोच हमारे जीवन के अंधकारमय आयामों को प्रकाशमय करती है और हमारे अस्तित्व में गुप्त आयामों को स्पष्ट करती हैं। अच्छी सोच रखने वाला व्यक्ति घटनाओं की आशाजनक व्याख्या करता है और उसकी अच्छाइयों का पता लगाता है और रचनात्मक समाधान के मार्ग को पा लेता है जिसे ग़लत सोच रखने वाला समझ भी नहीं पाता। सकारात्मक सोच जीवन में आशा और उत्साह में वृद्धि का कारण बनती है, ऐसी आशा जिसके बिना जीवन लगभग असंभव हो जाता है।
एक अच्छी जिन्दगी के लिए एक अच्छी सोच का होने बेहद जरूरी है और आपकी प्रबल सोच हकीकत बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेती है। “सपने देखने का अधिकार भी उन्ही को है जो उसे पूरा करने का साहस भी रखते है” । किसी ने सच्च कहा है कि "हम अपनी सोच के आधार पर जो चाहे वो बन सकते है"। कहते है कि "अगर दिल से चाहो तो भगवान् को भी पाया जा सकता है"। इसी तरह से "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है", यहाँ भी भाव उसी सोच और उसे क्रियान्वित करने का है। आप जितना बड़ा सोचते हो उसे हकीकत में बदलने के लिए आपको बलिदान् भी उतना ही बड़ा देना पड़ता है। आदमी वह नहीं है जो चेहरे से दिखता है, आदमी वह है जो उसकी सोच से दिखता है।
अपनी इस सोच को मैं कुछ इस तरह विराम देना चाहता हूँ कि "हम खुद अपने भाग्य के रचयता है" जैसी होगी अपनी सोच और जिस ओर पग बढ़ाएंगे वैसा ही परिणाम हम पाएंगे और वैसे ही बनजायेंगे। मुझे लगता है "यदि हम सदा आलस्य, अशांति, असफलता, शत्रुता, कटुता, हार, चिंता, दुःख, द्वेष, लालच, जलन, भूख, गरीबी, बीमारी, लड़ाई, झगड़ा इत्यादि के बारे में सोचेंगे तो हमारे सामने हमेशा यही आता रहेगा किन्तु यदि हम हमेशा जीत, ख़ुशी, सामंजस्य, जाग्रति, शांति, अमीरी, सफलता, मित्रता, शीतलता, विश्वास, प्रेम, सद्भाव, दया आदि के बारे में सोचेंगे तो हमको ज़िन्दगी में यही सब प्राप्त होगा" इसलिए जहाँ तक हो सके बड़ी सोच रखें, सकारात्मक और सुलझी हुई सोच रखें, दूसरों से जल्दी, अच्छा और कलात्मक सोचें और निर्णय लेने की क्षमता रखें, सोच के पंखों को खुले आसमान की परवाज़ दें, व्यवहार कुशल सोच रखें, माफ़ी देने की सोच रखें, आशावादी सोच रखें जो आपस में क्रियान्वित हो सके। यदि आप ऐसी सोच के मालिक होंगे तो आपका जीवन निश्चित रूप से सफल होगा और आप आकाश की ऊँचाइयों पर विचरण करने में सफल होंगे एवं जीवन में गौरवान्ति महसूस करेंगे । सकारात्मक सोच पर भरोसा करते हुए दिनचर्या के कामों को सरलता से निपटाया जा सकता है और नया व स्पष्ट जीवन आपकी प्रतीक्षा में होगा और आपके सामने ख़ुशियों का ठाठे मारता समुद्र होगा। आपकी सच्ची सकारात्मक सोच ही आपके जीवन की सफलता और असफलता का पर्याय है | ज़रा सोचें !!!
"अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे, जिसकी जैसी सोच थी उसने उतना ही पहचाना मुझे"
--- तुषार राज रस्तोगी ---
नज़र बदलेगी, नेमत बदल जाएगी
आसमां पाना हो, तो परवाज़ मत बदलना
परवाज़ बदलोगे, तो हवाएं बदल जाएँगी
हमारी प्रजाति मनुष्य की है। यह सोच का कीटाणु केवल हम मनुष्यों में विद्यमान है। यह कीटाणु कभी सकारात्मक होता है कभी बहुत ही विध्वंसक होता है। इस पर किसी का ज़ोर नहीं होता, परन्तु इसके आधार पर यह सीखा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सोच को यदि बुद्धिमानी से नियंत्रित करे तो वह एक सफल जीवन यापन कर सकता है और जीवन में सफलताओं और असफलताओं से ऊपर उठ सकता है। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति के जीवन में सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह शक्ति इसे जानवरों से मुख़्तलिफ़ करती है। सोच का मनुष्य के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। यही कारण है कि इंसान के विचारों को कैसा होना चाहिए, उसे कैसे व्यवस्थित करना चाहिए और उसके मन पर विशेष विचार का प्रभाव कैसे पड़ता है? यह मनुष्य स्वयं ही निर्धारित करे तो बेहतर है नहीं तो उसमें और कुत्ते की पूँछ में क्या फ़र्क रह जायेगा।
मैंने सुना था "ज़िन्दगी में हम जो भी कार्य करते हैं या जैसा भी बनते हैं उसके पीछे हमारा स्वाभाव, हमारे संस्कार तथा हमारी संगत आर्थात हमारे यार-दोस्त या रिश्ते-नातेदार जिनकी सोहबत में हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिताते हैं, का गहरा प्रभाव होता है" लेकिन जिस दिन आप अपनी सोच से अपने जीवन के फैसले खुद लेने लग जाते हैं उस क्षण के पश्चात् से यह प्रभाव, यह स्वाभाव, यह संस्कार और उस सांगत का कोई भी असर आपके ऊपर नहीं रहता। आपकी सोच अपने में इतनी सशक्त हो जाती है जो ना आपको बहकने देती है, ना बदलने, और ना अपने लक्ष्य से डिगने देती है।
इंसान जैसी सोच रखता है वैसा ही बन जाता है । सोच वही होती है जैसा हमारा मस्तिष्क आचरण करता है, जैसा हम करना चाहते हैं और उसे पूर्ण करने हेतु जो रास्ता हम अख्त्यार करते हैं । सच कहूँ तो वही हमारा वास्तविक स्वाभाव होता है और अंत में हम अपनी सोच के अनुरूप ढल जाते हैं । अगर पंक्तियों के माध्यम से अपने इस भाव को व्यक्त करना चाहूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि :
जैसा सोचोगे, वैसा बोलोगे
जैसा बोलोगे, वैसे करोगे
जैसा करोगे, वैसी आदत बनेगी
जैसी आदत होगी, वैसा चरित्र बनेगा
जैसा चरित्र बनेगा, वैसा जीवन आधार बनेगा
जैसा जीवन आधार बनेगा, वैसी ख्याति होगी
जैसी ख्याति होगी, वैसा वर्तमान होगा
जैसा वर्तमान होगा, वैसा भविष्य होगा
सोच यूँ तो बहुरूपी है परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यह दो ही रूपों में समाहित है - सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच।
यदा-कदा हम आपस में तर्क-वितर्क करने बैठ जाया करते हैं परन्तु अंत में वह बहस तर्क-कुतर्क में बदल जाती है और आपसी मतभेद और झगड़े-फ़साद की जड बन जाती है। उस समय इंसान और कुत्ता-बिल्ली में कोई फ़र्क नहीं रहता। अब तो तर्क-वितर्क सिर्फ नाम के रह गए हैं असल में तो तर्क-कुतर्क ही सोच के नए रूप हो गए हैं। कुतार्किक सोच, सोच का एक आधुनिक रूप है, और मैं ऐसा मानता हूँ कि यह एक (अस्वाभाविक) तरीका है। यहाँ सोच और संगत कर रही बातों के बीच के संबंध को हम सांसारिक रूप के अनुसार सोच कर पारंपरिक तरीके का नाटक करने के लिए औपचारिक तर्क के नियमों को दर्शाते हैं। ज्ञान भले ही अधूरा हो, हो न हो पर आडम्बर, ज़िद और बहस पूरा होता है। आजकल इस मॉडर्न सोच का बहुत प्रचलन देखने को मिलता है। जिसे देखो अपनी बात का ढ़ोल बजकर या सोच की पुष्टि हेतु तर्क देता नज़र आता है फिर वो तर्क भले ही ग़लत क्यों न हो, ऐसे में व्यक्ति को लगने लगता है वह ही आइन्स्टाइन का पड़पोता है या न्यूटन का तोता है। अक्सर बैठकों, गोष्ठी, सभाओं और सम्मेलनों इत्यादि में डंडीमार सोच या भांजिमार सोच वाले सूरमाओं को देखा गया है यह वो कौम होती है जो कभी भी सकारात्मक सोच से इत्तेफ़ाक नहीं करती हमेशा उसकी काट में लगी रहती है। इनके कारण कई बार कुछ समय के लिए अच्छी सोच वाले लोग भी बहक जाया करते और बनते काम बिगड़ जाया करते हैं। खुदा लानत भेजे ऐसे चिल्गोज़ों पर जो न खुद की सोच रखते हैं न किसी और की ज़हीन सोच का एहतराम करते हैं।
इसी तरह सोच के कई अन्य रूप भी सामने आये हैं जैसे - सोशल मीडिया सोच, टीवी सीरियल सोच, बड्बोली सोच, कामचोर की सोच, गधे की सोच, नेता की सोच, चाटुकार की सोच, बच्चे की सोच, बूढ़े की सोच, आशिक़ की सोच, माशूक की सोच, बीवी की सोच, पति की सोच, सास-बहु की सोच, पति-ससुर की सोच, जोरू के गुलाम की सोच, आवाम की सोच, बद की सोच, बदनाम की सोच, छिछोरे की सोच, बेटे की सोच, बेटी की सोच, अनाड़ी की सोच, खिलाड़ी की सोच, अफ़सर की सोच, नौकर की सोच, सफल की सोच, असफल की सोच, भिखारी की सोच, पूंजीवादी की सोच, विभीषण की सोच, सिपाही की सोच, दार्शनिक सोच, काल्पनिक सोच, विरोधाभासी सोच, सुसंगत सोच, कुसंगत सोच, संरचित सोच, सबूत के आधार पर सोच, अवधारणा आधारित सोच, न्यायपूर्ण सोच, तुलनात्मक सोच, स्पष्ट सोच, अस्पष्ट सोच, विश्लेषण सोच, संश्लेषण सोच, आलोचनात्मक सोच, सामान्यीकरण सोच, अमूर्त सोच (सार सोच) और अन्य कई प्रकार की सोच जिनकी क्षमता मनुष्य के मस्तिष्क में है क्योंकि सोच की हद तक कोई नहीं जा सकता और किसकी सोच किस हद तक जा सकती है यह कोई नहीं बता सकता। कहने को इनके रूप अनेक हैं परन्तु इनकी मुख्य श्रेणी यही दो हैं। सोच के इन विभिन्न रूपों के गुण-अवगुण जानकर उपयोग करने के पीछे ज़िम्मेदार केवल मनुष्य और उसका मस्तिष्क ही होता है। मुझे ऐसा लगता है सोच हमेशा सम होनी चाहियें। सभी पक्षों, परिस्थितियों, प्रभावों, परिणामो और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को बनाना चाहियें। सोच का दायरा सीमित नहीं असीमित होना चाहियें लेकिन सही दिशा में और सकारात्मक विचारधारा के साथ।
सकारात्मक सोच हमको ऊर्जा प्रदान करती है और हमारी गुप्त क्षमताओं को उजागर करती हैं। यह विचारधारा अवसरों के संबंध में चेतना में वृद्धि करती है। अच्छी सोच हमारे जीवन के अंधकारमय आयामों को प्रकाशमय करती है और हमारे अस्तित्व में गुप्त आयामों को स्पष्ट करती हैं। अच्छी सोच रखने वाला व्यक्ति घटनाओं की आशाजनक व्याख्या करता है और उसकी अच्छाइयों का पता लगाता है और रचनात्मक समाधान के मार्ग को पा लेता है जिसे ग़लत सोच रखने वाला समझ भी नहीं पाता। सकारात्मक सोच जीवन में आशा और उत्साह में वृद्धि का कारण बनती है, ऐसी आशा जिसके बिना जीवन लगभग असंभव हो जाता है।
एक अच्छी जिन्दगी के लिए एक अच्छी सोच का होने बेहद जरूरी है और आपकी प्रबल सोच हकीकत बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेती है। “सपने देखने का अधिकार भी उन्ही को है जो उसे पूरा करने का साहस भी रखते है” । किसी ने सच्च कहा है कि "हम अपनी सोच के आधार पर जो चाहे वो बन सकते है"। कहते है कि "अगर दिल से चाहो तो भगवान् को भी पाया जा सकता है"। इसी तरह से "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है", यहाँ भी भाव उसी सोच और उसे क्रियान्वित करने का है। आप जितना बड़ा सोचते हो उसे हकीकत में बदलने के लिए आपको बलिदान् भी उतना ही बड़ा देना पड़ता है। आदमी वह नहीं है जो चेहरे से दिखता है, आदमी वह है जो उसकी सोच से दिखता है।
अपनी इस सोच को मैं कुछ इस तरह विराम देना चाहता हूँ कि "हम खुद अपने भाग्य के रचयता है" जैसी होगी अपनी सोच और जिस ओर पग बढ़ाएंगे वैसा ही परिणाम हम पाएंगे और वैसे ही बनजायेंगे। मुझे लगता है "यदि हम सदा आलस्य, अशांति, असफलता, शत्रुता, कटुता, हार, चिंता, दुःख, द्वेष, लालच, जलन, भूख, गरीबी, बीमारी, लड़ाई, झगड़ा इत्यादि के बारे में सोचेंगे तो हमारे सामने हमेशा यही आता रहेगा किन्तु यदि हम हमेशा जीत, ख़ुशी, सामंजस्य, जाग्रति, शांति, अमीरी, सफलता, मित्रता, शीतलता, विश्वास, प्रेम, सद्भाव, दया आदि के बारे में सोचेंगे तो हमको ज़िन्दगी में यही सब प्राप्त होगा" इसलिए जहाँ तक हो सके बड़ी सोच रखें, सकारात्मक और सुलझी हुई सोच रखें, दूसरों से जल्दी, अच्छा और कलात्मक सोचें और निर्णय लेने की क्षमता रखें, सोच के पंखों को खुले आसमान की परवाज़ दें, व्यवहार कुशल सोच रखें, माफ़ी देने की सोच रखें, आशावादी सोच रखें जो आपस में क्रियान्वित हो सके। यदि आप ऐसी सोच के मालिक होंगे तो आपका जीवन निश्चित रूप से सफल होगा और आप आकाश की ऊँचाइयों पर विचरण करने में सफल होंगे एवं जीवन में गौरवान्ति महसूस करेंगे । सकारात्मक सोच पर भरोसा करते हुए दिनचर्या के कामों को सरलता से निपटाया जा सकता है और नया व स्पष्ट जीवन आपकी प्रतीक्षा में होगा और आपके सामने ख़ुशियों का ठाठे मारता समुद्र होगा। आपकी सच्ची सकारात्मक सोच ही आपके जीवन की सफलता और असफलता का पर्याय है | ज़रा सोचें !!!
"अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे, जिसकी जैसी सोच थी उसने उतना ही पहचाना मुझे"
--- तुषार राज रस्तोगी ---
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सकारात्मक सोच,
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गुरुवार, अप्रैल 03, 2014
आराधना - माँ का ऑपरेशन
"ओ हो माँ ! रुको तो सही, मैं आ रही हूँ ना | ऐसी भी क्या जल्दी है ?"
"बेटी जल्दी नहीं है तेरे पापा के खाने का समय हो रहा है इसलिए खाना तैयार करना है | रात को उनकी दवा का समय हो जायेगा | अच्छा बता तू क्या खाएगी ?"
"नहीं माँ, आज से आप नहीं मैं खाना बनाउंगी आप आराम करो | वरना उस दिन की तरह फिर से हाथ ना जल जाये |"
"नहीं नहीं ! तू क्यों रसोई को देखती है तू अपनी पढ़ाई में दिल लगा | ये सब काम तेरे करने के नहीं हैं |"
आराधना जल्दी से रसोई में आई और माँ का हाथ पकड़ कर उनके कमरे में ले गई |
"अब बैठो यहाँ पर आराम से और कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है मेरे होते | जब तक तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन नहीं करवा देती घर के काम से तुम्हारी छुट्टी | मैं सब अकेले ही देख लुंगी | पापा को क्या पसंद है मुझे पता है | मैं सब संभाल लूंगी | चलो जल्दी से लेट जाओ और मैं आँखों में दवाई डाल देती हूँ | फिर आँखें बंद कर के आराम कर लेना कुछ देर | कल ऑपरेशन है इसलिए आज कोई भी टेंशन नहीं लेना वरना फिर से बी. पी. बढ़ जायेगा | "
आराधना एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता पिता की एकलौती संतान थी | संस्कारों से परिपूर्ण और मृदुभाषी | पिछले कुछ समय से उनका जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते बीत रहा था | पहले पिताजी की बीमारी और अब माँ की आँखों में काला मोतिया बिन्द | बहुत समय से तबियत ठीक ना होने के कारण उनके इलाज में देरी हो रही थी | जिसके चलते माँ को रोज़मर्रा के काम काज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था |
पर साहस की धनी आराधना भी इन मुश्किलों से डरकर पीछे हटने वालों में से नहीं थी | उसने भी फैसला कर लिया था के इस बरस माँ का इलाज करवा कर ही दम लेगी | रुपया रुपया कर के पैसे जोड़ रही थी | डॉक्टरों और नर्सिंग होम के चक्कर काट रही थी | पिता और माता के सिवा उसकी दुनिया में और कोई नहीं था | उसका तो छोटा सा संसार बस उन दोनों में ही था |
आराधना जल्दी से रसोई में गई और उसने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी | जल्दी जल्दी आटा गूंथ कर रोटियां बनायीं और बिजली की तेज़ी से खाना तयार कर दिया | रात को भोजन के उपरान्त उसने जल्दी जल्दी सब काम निपटाया और बिस्तर पर लेट गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी | सोचते सोचते ना जाने कब उसकी आँख लग गई |
पौ फटने पर जब अलार्म की आवाज़ सुनी तो हडबडा कर उठी और सुबह के काम निपटने लगी | आज माँ को लेकर जाना था | आज उनकी आँखों का ऑपरेशन होना था | बारह बजे का समय मुक़र्रर हुआ था | सुबह से ही माँ को समझाने में लगी थी |
"माँ आज सब कुछ ठीक से हो जायेगा | चिंता की कोई बात नहीं है | डॉक्टर बहुत अच्छे हैं | डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं |" उसके पिता भी उसका साथ दे रहे थे | अपनी बीमारी के बाद भी उनके जोश में कोई कमी नहीं थी | बोले, "आज तो मैं भी साथ चलूँगा |"
समय पर घर से सब साथ में निकले और नर्सिंग होम पहुँच गए | वहां पहले से ही बुकिंग हो रखी थी | पहुँचते ही उसके पापा डॉक्टर के कमरे में गए और उनसे अपने लिए एक बिस्तर का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की | बीमार होने के बाद भी उनकी हिम्मत की दाद देनी तो बनती थी | अपने दर्द को भुलाकर मुश्किल के समय में अपनी जीवन संगनी के साथ खड़े रहने का जो जज्बा उनके दिल में था उससे उनका प्यार की इन्तेहां का पता चलता था | डॉक्टर ने भी उनकी उम्र और तबियत को देखते हुए तुरंत एक बेड का इंतज़ाम करवा दिया जिससे वो आराम कर सकें |
सभी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद माँ के साथ उनके ऑपरेशन के इंतज़ार में बैठ गए | दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | आराधना ने अपना मोबाइल फ़ोन निकला और इन्टरनेट चालू किया और अपने एक मित्र को सब कुछ बताया | मित्र ने भी उसका साथ देते हुए उसे शांत रहने को कहा और सब कुछ ठीक होने का आश्वासन दिया |
समय बीतता गया और दोनों के बीच बातें चलती रहीं | पल पल जो भी हो रहा था वो अपने मित्र को बताती जा रही थी | अपने दिल में उठते डर और धबराहट को बांटती जा रही थी | इस सबके बीच माँ ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर में चली गईं | आराधना और उसके पापा दोनों भगवान् से बस यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब कुछ सुचारू रूप से हो जाये | उधर आराधना का दोस्त भी उसे तसल्ली दे रहा था |
अंततः खबर आई कि ऑपरेशन सही तरह से हो गया है | इतना सुनते ही सबकी जान में जान आई और आराधना की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये | जिस काम के पूरा होने में दो वर्ष का समय लग गया था आज वो पूरा हो ही गया | उसने अपने दोस्त को फ़ोन पर बताया कि सब कुछ कुशल मंगल है | ऑपरेशन ठीक हो गया है | अपने दोस्त को ऐसे वक़्त में साथ रहने के लिए और उसकी हिम्मत बाँधने के लिए धन्यवाद् देकर उसने बताया अब वो माँ-पापा को लेकर घर जा रही है और फिर बाद में बात करेगी |
शुक्रवार, फ़रवरी 21, 2014
तू साथ दे तो
तू कहती हैं तेरे लिए ये ग़ज़ल लिख दूं
तू साथ दें तो शब्दों का कँवल लिख दूं
गालों की सुर्खी से तेरी किरण लिख दूं
तू साथ दें तो आसमां पर सनम लिख दूं
आँखों के काजल से तेरे ये रात लिख दूं
तू साथ दें तो सितारे भी मैं साथ लिख दूं
दिल कहे है कागज़ पर गुलाब लिख दूं
तू साथ दें तो इश्क़ का गुलदस्ता लिख दूं
'निर्जन' तेरी आरज़ू इस दिल पर लिख दूं
तू साथ दे तो ज़िन्दगी भर आदाब लिख दूं
रविवार, फ़रवरी 02, 2014
तुम्हारे लिए
मेरी कविता, मेरे अलफ़ाज़
मेरी उम्मीद, मेरे उन्माद
मेरी कहानी, मेरे जज़्बात
मेरी नींद, मेरे ख्व़ाब
मेरा संगीत, मेरे साज़
मेरी बातें, मेरे लम्हात
मेरा जीवन, मेरे एहसास
मेरा जूनून, मेरा विश्वास
सब तुम्हारे लिए ही तो है
फिर क्या ज़िन्दगी में
तुमसे कह नहीं सकता
मेरे जीवन का हर क्षण
तुम्हारे लिए ही तो है
तुम भी अपनी साँसों में
मेरी हर एक सांस को
बसा सकते हो क्या ?
इस ज़िन्दगी में तुम
हर पल हर क्षण यही
गीत गा सकते हो क्या ?
एक गीत एक कविता
फिर कहानी सुनाएगी
कहेगी, बतलाएगी
मेरी मस्ती में तुम भी
शामिल हो जाओगी
निश्छल निर्मल
अनोखी सरल
शरारती दिल्लगी
तुम्हारे जीवन में
संचार करेगी तिश्नगी
जब तुम पा जाओगे
इश्क की मंजिल वही
ज़िन्दगी के हर लम्हे में
हर मोड़ पर हल पल में
फैल जाएगी सुगन्ध
महक मेरे पागलपन की
तसव्वुर में तुम्हारे
तब बेचैन हो उठोगे
अपने आप को
मेरी पहचान में
शामिल करने को.....
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इश्क़,
उम्मीद,
एहसास,
कल्पना कहानी,
कविता,
मोहब्बत,
संगीत,
हिंदी कविता
सोमवार, जनवरी 20, 2014
क्या कहूँ
अमा अब क्या कहूँ तुझे हमदम
नूर-ए-जन्नत, दिल की धड़कन
जान-ए-अज़ीज़, शमा-ए-महफ़िल
गुल-ए-गुलिस्तां, लुगात-ए-इश्क़
हर दिल फ़रीद, दीवान-ए-ज़ीस्त
अलफ़ाज़ होते नहीं मुकम्मल मेरे
पुर-सुकून शक्सियत तेरी जैसे
महकती फ़ज़ा-ए-गुलशन 'निर्जन'
हो सुबहो या शामें या रातों की बेदारी
तुझको देखा आज तलक नहीं है
फ़िर भी
तुझको सोचा बहुत है हर पल मैंने....
लुगात : शब्दकोष, dictionary
दीवान : उर्दू में किसी कवि या शायर की रचनाओं का संग्रह, collection of poems in urdu
ज़ीस्त : ज़िन्दगी, life
अलफ़ाज़ : शब्द, words
मुकम्मल : पूरे, complete
पुर-सुकून : शांत, peaceful/tranquil
बेदारी : अनिद्रा, wakefullness
चिप्पियाँ:
इश्क़ मोहब्बत,
उर्दू कविता,
एहसास,
निर्जन,
प्यार,
रूमानी,
शायरी,
शेर
मंगलवार, जनवरी 07, 2014
दिल का पैगाम
उनकी आमद से हसरतों को, मिले नए आयाम
सोच रहा हूँ उनको भेजूं मैं, कैसे दिल का पैगाम
दिल दरिया है, रूप कमल है, सोच है आह्लम
हंसी ख़ियाबां, नज़र निगाहबां, ऐसी हैं ख़ानम
ख़ुदाई इबादत, इश्क़ की बरकत, जैसे हो ईमान
सोच रहा हूँ उनको भेजूं मैं, कैसे दिल का पैगाम
दिल अज़ीज़ है, अदा अदीवा है, मिजाज़ है शबनम
खून गरम है, बातें नरम हैं, शक्सियत में है बचपन
लड़ती रोज़ है, भिड़ती रोज़ है, जिरह उनका काम
सोच रहा हूँ उनको भेजूं मैं, कैसे दिल का पैगाम
जब से मिला हूँ, तब से खिला हूँ, बनते सारे काम
मुस्कुराहटें, सरसराहटें, रहती सुबहों और शाम
दुआ रब से, मांगी है कब से, मिल जाये ये ईनाम
सोच रहा है 'निर्जन' उनको दे, कैसे दिल का पैगाम
आमद : आने
आह्लम : कल्पनाशील
ख़ियाबां : फूलों की क्यारी
निगाहबां : देख भाल करने वाला
ख़ानुम(ख़ानम) : राजकुमारी
अज़ीज़ : प्रिय
अदा : श्रृंगार, सुन्दरता
अदीवा : लुभावनी
शबनम : ओस
जिरह : बहस
गुरुवार, जनवरी 02, 2014
बना करते हैं
तेरी ज़ुल्फ़ के साए में जब आशार बना करते हैं
बाखुदा अब्र बरस जाने के आसार बना करते हैं
तेरे आगोश में रहकर जब दीवाने बना करते हैं
अदीबों की सोहबत में अफ़साने बना करते हैं
तेरी नेकी की गौ़र से जब गुलिस्तां बना करते हैं
ख्व़ार सहराओं में गुमगश्ता सैलाब बना करते हैं
तेरी निगार-ए-निगाह से जब नगमें बना करते हैं
अदना मेरे जैसे नाचीज़ तब 'निर्जन' बना करते हैं
आशार : शेर, ग़ज़ल का हिस्सा
अब्र : मेघ, बादल
आगोश : आलिंगन
अदीबों : विद्वानों
सोहबत : साथ
अफ़साने : किस्से
नेकी : अच्छाई
गौ़र : गहरी सोच
गुलिस्तां : गुलाबों का बगीचा
ख्व़ार : उजाड़
गुमगश्ता : भटकते हुए
निगार : प्रिय
निगाह : दृष्टि
नज़्म : कविता
नगमा : गीत
अदना : छोटा
नाचीज़ : तुच्छ
नज़र उसकी
अदा उसकी
अना उसकी
अल उसकी
आब उसकी
आंच उसकी
रह गया फ़कत
अत्फ़ बाक़ी 'निर्जन'
बस वो तेरा, फिर तेरी
जान उसकी
चाह उसकी
वफ़ा उसकी
क़ल्ब उसकी
ग़ज़ल उसकी
जो कुछ बाक़ी
रहा हमदम
गोया मुस्कुराते
कर देगा
नज़र उसकी
नज़र उसकी ...
*अदा : सुन्दरता, अना : अहं, अल : कला, आब : चमक, आंच : गर्मी, अत्फ़ : प्यार, क़ल्ब : आत्मा, नज़र : समर्पण
चिप्पियाँ:
इश्क़,
इश्क़ मोहब्बत,
उर्दू कविता,
एहसास,
कविता,
ख्याल,
ख्व़ाब,
ग़ज़ल
सोमवार, दिसंबर 30, 2013
मेरा रहबरा
चिप्पियाँ:
उर्दू कविता,
एहसास,
ऐतबार,
कविता,
दोस्ती,
हिंदी कविता
गुरुवार, दिसंबर 26, 2013
यह किसकी दुआ है
ऐ मेरी तकदीर बता
किसकी दुआ है
दिल में उमंग
जिगर में तरंग
यह किसकी दुआ है
मेरे जीवन की
मेरे मन की
चमक दमक तो
संवर गई अब
जुगनू सा
प्रकाशमय जीवन
जगमग सितारों सी
रौशनी है
यह किसकी दुआ है
मन को मोड़ा
तन को जोड़ा
साँसों की तारों
को झकझोरा
यह किसकी दुआ है
एक आवाज़
ह्रदय को हर्षाती
प्रार्थना को भेदती है
आत्मा के यौवन को
खुशियों से प्राणों
से जोड़ती है
यह किसकी दुआ है
अपनों के बंधन
सच्चे और मीठे
साँसों का
हर कतरा झूमा है
यह किसकी दुआ है
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा
एक-एक करके
मेरे मन मस्तिष्क में
हर क्षण, हर पल
कुछ ना कुछ
गाता है, गुनगुनाता है
पूछता है कहता है
'निर्जन'
यह किसकी दुआ है
यह किसकी दुआ है
बुधवार, दिसंबर 18, 2013
सोमवार, दिसंबर 16, 2013
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है
कुछ महके हुए ख्व़ाब
कुछ बिछड़े हुए अंदाज़
कुछ लफ़्ज़ों के एहसास
कुछ लिपटे हुए जज़्बात
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है
कुछ बातों में शरारत
कुछ नखरों में अदावत
कुछ इश्क़ में बनावट
कुछ जीवन में दिखावट
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है
कुछ लम्बी तनहा राहें
कुछ सुलगी चुप आहें
कुछ कमज़ोर वफाएं
कुछ उलझी जफाएं
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है
कुछ बेगाने अपने
कुछ अनजाने सपने
कुछ मुस्कुराते चेहरे
कुछ ग़म भी हैं गहरे
'निर्जन' इनसे आबाद है
शनिवार, दिसंबर 14, 2013
शाम तनहा है
शाम तनहा है
रात भी तनहा
चाँद मिलता है
अब यहाँ तनहा
शाम तनहा है...
टूटी हर आस
थम गया लम्हा
कसमसाता रहा
ये दिल तनहा
शाम तनहा है...
इश्क भी क्या
इसी को कहते हैं
लब तनहा है
जिस्म भी तनहा
शाम तनहा है...
साक़ी ग़र कोई
मिले भी तो क्या
जाम छलकेंगे
दोनों तनहा
शाम तनहा है...
जगमगाती
चांदनी से परे
सूना सूना है
एक जहाँ तनहा
शाम तनहा है...
याद रह जाएगी
दिलों में मेरी
जब चला जायेगा
'निर्जन' तनहा
शाम तनहा है...
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