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मंगलवार, नवंबर 25, 2014

मुझको



















ज़ख्म जलते हैं अज़ीयत नहीं होती मुझको
अब तेरी याद से वहशत नहीं होती मुझको

कोई आए कोई जाए दर्द नहीं होता मुझको
शरीक़े-ग़म की भी आदत नहीं होती मुझको

कुछ ऐसा बदला है फ़ुर्कत-ए-ग़म ने मुझको
अब झूठ बोलूं तो नदामत नहीं होती मुझको

मरकर भी कोई अब मार नहीं सकता मुझको
अब कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझको

इतनी जुनूं-ए-हवस जीने की हो गई है मुझको
अब सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती मुझको

वो कहती थी पा नहीं सकता 'निर्जन' मुझको
अब छू लेती है तो नफ़रत नहीं होती मुझको

अज़ीयत - कष्ट / torture;
वहशत - जंगलीपन / savagery;
शरीक़े-ग़म - दर्द का साथी / friend in pain;
फ़ुर्कत-ए-ग़म - जुदाई का दर्द / pain of seperation;
नदामत - झिझक / attrition;

--- तुषार राज रस्तोगी ---