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रविवार, अप्रैल 10, 2016

एक कहानी


सुनो सुनो - एक कहानी
सच्ची सी थोड़ी, अच्छी सी
एक ठगने वाले लुच्चे की
सुनो सुनो - एक कहानी

हिन्द नाम के गोले पर
है एक अदभुत जंगल
जंगल के थोड़े से प्राणी
भैया हैं बहुत ही मेंटल

गत वर्ष वो पगलेट हुए
चुनकर लाये रंगा सियार
फ़र्ज़ी बातों की खाकर लातें
सर चढ़ा लिए किसको यार

बिना बात के बैठे-बैठे
ख़ुद का ही उल्लू बनाया
रंग लपेट ईमानदारी का
सियार मंद-मंद मुस्काया

खुजली वाला रंगा सियार
है सच में दुर्लभ कीड़ा
साल भर से बाँट रहा वो
नित नई असहनीय पीड़ा

सबको दे धोखा सियार ने
चंदे में टाका बहुत कमाया
युटीलाईज़ेशन कर चंदे का
अपना बेलबांड भर आया

भ्रष्ट पुलिस की भ्रष्ट जेल में
अगले को जाना नहीं गंवारा
हाथ आई जंगल सत्ता पर है
अब तो एकाधिकार हमारा

चाहता तो देकर सबूत वो
जुगनू मौसा को फँसवाता
सबूतों का देकर वो फंदा
मौसा के गले में कसवाता

पर बचा लिया मौसा को
सुधरने का मौका बताया
जैसे लोमड़ी ताई को पहले
रुसवा होने से था बचाया

बूढ़े जानवर इस गोले के
समझाकर गए हैं गहरी बात
तुम नफरत करो बुराई से
ना देखो तुम बुरे की ज़ात

खुजली खुजली करते करते
खुजली की चुभ गई है फाँस
खुजा खुजा बंजर हुई धरती
अब कब उगेगी नई हरी घास ?

भैया पिछले एक वर्ष से
नाटक हो गया यह ख़ास
धूर्त सियार की ईमानदारी पर
टिक गई है सबकी आस

शिष्ट व्यवहार, मीठे वचनों से
इस सियार ने दिए हैं झंडे गाड़
कोई जिये या कोई मरे अब
इसकी बला से सब गए भाड़

कोटि कोटि नमन 'निर्जन' का
ऐसे सत्यानाशी सियार को यार
बदल दिया जिसने ख़ुद के ही 
वचनों-कसमें-वादों, का सार

धन्य हो गया गोला-ए-हिन्द
चरण धूलि से इनकी आज
ऐसे रंगे सियारों औ मूर्खों से
कौन बचाएगा हिन्द की लाज?

#तुषारराजरस्तोगी #निर्जन #राजनीति #कहानी #व्यंग #रंगासियार #गोला #जंगल #मूर्ख

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2015

प्यार और सासें

वो कभी भी दिल से दूर नहीं रहा, ज़रा भी नहीं। बमुश्किल ही कोई ऐसा दिन बीता होगा जब उसकी याद में खोई ना रही हो। झुंझलाहट, बड़बड़ाना, अपने से बतियाना, अपनी ही बात पर ख़ुद से तर्क-वितर्क करना, अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण खो देना, खुद को चुनौती देना, अपने मतभेद और दूरी के साथ संघर्ष करना, सही सोचते-सोचते अपने विचार से फिर जाना, आत्म-संदेह करना और अपने चिरकालिक अनाड़ीपन में फ़िर से खो जाना - आजकल यही सब तो होता दिखाई देने लग गया था आराधना के रोज़मर्रा जीवन की उठा-पटक में।

इस दूरी ने दोनों के इश्क़ में एक ठहराव ला दिया था। उनका प्यार समय की तलवार पर खरा उतरने को बेक़रार था। प्रेम का जुनून पहले की बनिज़बत कहीं ज्यादा मज़बूत और सच्चा हो गया था। हर एक गुज़ारते लम्हात के साथ उनके अपनेपन का नूर निखरता ही जा रहा था।

वो दिन जब दोनों के बीच बातचीत का कोई मुक़म्मल ज़रिया क़ायम नहीं हो पाता था, उस वक्फे में वो अपने दिल को समझाने में बिता देती और पुरानी यादों में खो जाया करती और अपने आपसे कहती, "एक ना एक दिन तो हमारी मुलाक़ात ज़रूर होगी।" - फिर जितनी भी दफ़ा राज, आराधना की यादों से होकर उसके दिल तक पहुँचता उसे महसूस होता कि उस एक पल उसकी आत्मा अपनी साँसों को थामे बेसब्री से उसके इंतज़ार में बाहें फैलाए खड़ी है।

वो अपनी आत्मा को सांत्वना देते हुए उस अदृश्य ड़ोर का हवाला देती जो उन दोनों को आपस में जोड़ता है और उसके सपनो में दोनों को एक साथ बांधे रखता है। वो याद करती है उन मुलाकातों और बरसात के पलों को जिसमें उनका इश्क़ परवान चढ़ा था और दोनों एक दुसरे के हो गए थे। वो विचार करती है कि शायद राज भी अपने अकेलेपन में यही सब सोचता होगा या फिर क्या वो भी उसके बारे में ही सोचता होगा? असल में, वो इन सब बातों को लेकर ज़रा भी निश्चित नहीं थी। यह भी तो हो सकता है वो उसकी इन भावनाओं से एकदम बेख़बर हो और मन में उठते विचार बस संकेत मात्र हों क्योंकि वो शायद वही देख और सोच रही थी जो वो अपने जीवन में होता देखना चाहती थी। पर कहीं ना कहीं उसे विश्वास था कि राज भी उसे उतना ही चाहता है जितना वो उसके प्रति आकर्षित है और दीवानों की तरह उसे चाहती है। बस इतने दिनों से दोनों को कोई मौका नहीं मिल पा रहा  था अपनी बात को स्पष्ट रूप से एक दुसरे तक पहुँचाने का।

उसे सच में ज़रा भी इल्म ना था कि आख़िर क्यों वो राज के लिए ऐसी भावनाएं दिल में सजाए रखती है, जो उनकी पहली मुलाक़ात के बाद से ही उत्पन्न होनी शुरू हो गईं थी और जिन्होंने उसके दिल पर ना जाने कैसा जादू कर दिया था। उसका दिल अब उसके बस से बाहर था, ऐसा जैसे अचानक ही ह्रदय का कोई कोना इस सब के इंतज़ार में था और उसे पहले से ज्ञात था कि ज़िन्दगी में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी मोड़ पर यह सिलसिला आरम्भ ज़रूर होगा। जो बात वो कभी सपने में भी नहीं सोचती थी आज, सच्चाई बन उसकी नज़रों के सामने थी और उसके हठीले स्वभाव पर मुस्कुरा रही थी। ऐसे समय में, उसके पास इन पलों को स्वीकारने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था।

वास्तव में कहें तो उसे बस इतना मालूम था कि अब उसकी असल जगह राज के दिल में ही है, और उसने अपनी मधुर मुस्कान और मनोभावी प्रवृत्ति से उसके मन को मोह लिया है और वो दोनों के दिलों का आपस में जुड़ाव महसूस कर सकती थी क्योंकि आज उन दोनों के बीच की छोटी से छोटी बात भी उसे ख़ुशी प्रदान करती है और वो दोनों जब भी साथ होते, उस समय बहुत ही ख़ुशहाल रहा करते थे।

वो दोनों हर मायनो में एक दुसरे की सादगी, सीरत, खुश्मिजाज़ी, मन की सुन्दरता पर मोहित हो गए थे और निरंतर रूप से एक दुसरे के प्रति आकर्षित और मंत्रमुग्ध थे। आज वो मंजिल आ गई थी जब दोनों के लिए इश्क़ सांस लेने जैसा हो गया था।

फिलहाल तो दोनों की ज़िंदगियाँ इस एक लम्हे में रुक गईं है आगे देखते हैं ज़िन्दगी कैसे और क्या-क्या रंग बिखेरती है और दोनों के प्यार की गहराई किस मक़ाम तक पहुँचती है। 

#तुषारराजरस्तोगी

रविवार, जुलाई 26, 2015

मुलाक़ात

राज की मुलाक़ात आराधना से कन्याकुमारी जाते वक़्त पांच साल पहले बस में हुई थी और उसने बताया था कि वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है। राज द्वारा क्यों? पूछने पर उसने जवाब दिया, "उसे मालूम नहीं क्यों - पर उसके जीवन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो उसके भागने के फैंसले को सही साबित कर देंगी।

उसने दायें हाथ में बड़ा कॉफ़ी का मग पकड़ा था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो उसमें से उठती भाप को लम्बी सांस लेकर सूंघती और आह की ध्वनि के साथ निःश्वास होकर निश्चिंत हो जाती। देखने पर प्रतीत होता था कि उसे कॉफ़ी बेहद पसंद है और वह उसके स्वाद का भरपूर आनंद लेती हुई उसका लुत्फ़ उठा रही है। राज को अहसास हुआ कि उसने उसे एकटक ताड़ते हुए पकड़ लिया है जब उसकी नाक मग के सिरे को छू रही थी, और वो झट से बोल पड़ी कैफ़ीन मेरे दिल की तरंगों के जीवित होने का एहसास कराती है। उसकी आँखें अचरज से ऐसे चौड़ी और खुली हुई थीं जैसे मानो आज तक उसने कभी पलक झपकी ही ना हो, जैसे वो डर रही हो, जैसे...जैसे उसने कुछ खो दिया हो और सूरज उसकी पलकों पर चिड़ियों की भांति ऐसे बैठा था जैसे वो तारों पर बैठ झूलती हैं क्योंकि उसने बताया कि उसे रोना-धोना ज़रा भी पसंद नहीं आता है।

उसे चीज़ों को गिराने की आदत थी और वो चौथी मर्तबा सीट के नीचे झुककर कुछ उठाने के लिए ख़ोज-बीन कर रही थी के, अचानक से ज़ोर के चिल्लाई और उसकी फ़िरोज़ी टोपी राज के हाथ से टकराई और उसके कप से चाय बाहर छलक कर गिर गई। उसने बच्चों की तरह बड़ी मासूमियत भरी नज़रों से देखते हुए, दांतों से अपने नीचे वाले होंठ को काटते हुए माफ़ी मांगी और बोली, "वो ख़ुशी से इसलिए चीख़ी क्योंकि तुम्हारे टखने पर जो टैटू है बहुत प्यारा लगा।" - उसने बताया कि जब वो अट्ठारह बरस की हुई थी तब उसने अपनी कमर पर रंगीन तितली का टैटू बनवाया था और जब भी वो उसे आईने में निहारती है तब अपने आप से फुसफुसा कर सवाल करती है कि, "क्या वो इस तितली की तरह रंगीन,खुशमिजाज़ और चुलबुली है ?"

उस रात वो दोनों एक दुसरे के साथ में अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी कहानियां ऐसे अदला-बदली करते रहे जैसे दो प्रेमी आपस में चूमते हुए अपने इश्क़ के शर्बतों को एक दुसरे की आत्मा में उतार देते हैं और जब राज ने उससे कहा, "बत्ति जला लेते हैं क्योंकि हम मुश्किल से ही कुछ देख पा रहे हैं।" - तब इस पर मना करते हुए उसने लाजवाब जवाब दिया कि, "सच्ची और अच्छी आवाज़ों का साथ देने के लिए कभी किसी चेहरे की ज़रुरत नहीं होती है।"

उसकी गुस्ताख़ियों के बावजूद, वो बिलकुल मायावी थी और उसका उत्साह, तत्परता तथा उत्सुकता उसे बेहद मनमोहक बना रहीं थीं; उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों को छनछनाहट में कुछ तो था - जिसे राज समझ नहीं पा रहा था और ना ही कोई नाम दे पाने में सक्षम था और जब ठंडी हवा की लहर में उसकी ज़ुल्फ़ों का लहराना देखा तब ऐसा लगा मानो गर्म सेहरा के कांटो भरे कैक्टस में से अमृत धारा आज़ाद होकर रेगिस्तान में बह निकली हो।

अभी राज अपनी बातों के मध्य में ही पहुंचा था, उसके परिवार और उनकी खैरियत के बारे में सवाल करने ही वाला था कि बस रुक गई और कंडक्टर ने आवाज़ लगा दी की जिन्हें इस गंतव्य पर उतरना है वो आ जाएँ और अपना सामान डिक्की से निकलवा लें। उसने तेज़ी के साथ बातों का रुख मोड़ते हुए अपने कैनवास से बने बैकपैक से पोलारोइड कैमरा निकालकर झटपट एक राज का चित्र और फिर अपना चित्र खींच लिया।

अभी वो चित्रों को हवा में पंखे की तरह हिलाते हुए सुखा ही रही थी, राज ने पूछा, "इस साथ के बाद आगे कभी बात करने या मुलाक़ात का कोई तरीका या ज़रिया होगा?" परन्तु उसने तुरंत मुस्कुराकर नहीं में सर हिलाते हुए सवाल को सिरे से ख़ारिज कर दिया और बोली, "मुझे लगा था तुम मुझे इस सब से बेहतर समझते हो।" और जोर के हंसने लगी

राज के चेहरे पर फ़ीका अप्रकट मायूसी का भाव देख वो बिलकुल दंग रह गई और अपनी रेशमी आवाज़ में उसको उलझाते हुए अपने विदाई के जादुई शब्दों के जाल उस पर डाल दिए। "सुनो, ये लो," उसने खिसककर राज के सीने पर एक तस्वीर रख दी और कहा, "अब तुम्हारे पास मेरी तस्वीर है और मेरे पास तुम्हारी। एक दिन, हम फ़िर से ज़रूर मिलेंगे और शायद हमें यह सब कुछ भी याद ना रहे, पर मुझसे एक वादा करो कि जब तक हो सकेगा तुम इस तस्वीर को अपने साथ रखोगे और वैसा ही मैं भी करुँगी। और किसे मालूम है? शायद किसी रोज़ अपने अंतर्मन के ज्ञान और आवाज़ को सुनकर हम एक दुसरे को ढूँढने में क़ामयाब हो जाएँ। सम्भवतः ये बचपन के खेल छुपन-छिपाई जैसा होगा और यह खेल एक दिन सच हो जाएगा, और वैसे भी बाक़ी सब कुछ छोड़कर पूरी दुनिया हमारे इस खेल का मैदान होगी।" - उसकी आँखें यह कहते हुए चमक रहीं थीं।

पांच साल बाद भी, राज उसे दोबारा नहीं ख़ोज पाया पर उसने उम्मीद का दामन अभी तलक नहीं छोड़ा। वो जहाँ भी जाता उसे ढूँढने की कोशिश ज़रूर करता - हिन्दुस्तान, लंदन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, मलेशिया, मॉरिशस, थाईलैंड, रोम, बुडापेस्ट, श्रीलंका, और भी ना जाने कहाँ-कहाँ पर अफ़सोस उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई लड़की उसे नहीं मिली जो अपनी जुल्फों में रेगिस्तानी रेत की ख़ुशबू लिए चलती हो।

इतने साल बाद, राज टिकट काउंटर पर खड़ा पेरिस को जाने वाली रात की ट्रेन की टिकट बुक करा रहा था। ठीक उसके पीछे एक लड़की लाइन में खड़ी थी, उसके रेशमी बाल हवा में लहरा रहे थे और फिर गिरकर उसके गालों को चूम रहे थे। टिकट लेकर जैसे ही वो अपना बैग लेकर प्लेटफार्म की तरफ बढ़ रहा था उसके कानो में ये आवाज़ पड़ी और वो रुक गया। वो लड़की टिकट खिड़की पर झुकी हुई थी और अधिकारी को बता रही थी की वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है और इसी प्लानिंग के तहत वो आज यहाँ पहुंची है। राज यह सब सुनता रहा, रुक गया और आसमान की तरफ देख चुपचाप खड़ा मुस्कुराता रहा।

#तुषार राज रस्तोगी  #कहानी  #राज  #आराधना #इश्क़ #मोहब्बत #मुलाक़ात #इंतज़ार  #बस  #सफ़र  #पेरिस

शनिवार, जुलाई 25, 2015

लम्हे इंतज़ार के

ऐ मेरे चंदा - शुभ-रात्री, आज रात मेरे लिए कोई प्रेम भरा गीत गाओ। काली सियाह रात का पर्दा गिर चुका है और तुम्हारी शीतल सफ़ेद चांदनी कोमल रुई की तरह चारों तरफ बरसने लगी है। क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ ? दिल की खिड़की खुली है और बाहर दरवाज़े बंद हो गए हैं। दुनिया मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रही है और मैं हूँ जो रत्ती भर भी हिल नहीं रहा है। मैं अपनी सोच और विचारों के साथ स्थिर हूँ। मैं उस शिखर पर हूँ जहाँ से देखने पर सब कुछ बदल जाता है। मेरी हर सांस के साथ मेरे अरमानो पर पिघलती बर्फ़ के बहते हुए हिमस्खलन जैसा डर लगने लगता है। तुम कितनी दूर हो मुझसे। मैं तुम्हे वास्तविकता में महसूस तो नहीं कर सकता, पर सितारों की रौशनी को देख सकता हूँ। नींद मेरे से कोसों दूर उन बंद अलमारियों के पीछे जाकर छिप गई है। मैं तुम्हे इस चाँद की सूरत में देख रहा हूँ, इसकी बरसती शफ्फाक़ चांदनी में तुम्हे अपनी बाहों के आग़ोश में महसूस कर सकता हूँ, हीरों से चमकते सितारों की जगमगाहट में तुम्हारी मुस्कान की झलक पा रहा हूँ। मैं तो तुम्हारे इश्क़ की मूर्ती हूँ और मेरा दिल इसकी मिटटी को धीरे-धीरे तोड़कर मेरी हथेलियों में भर रहा है। मैं निडर हूँ, फिर भी एक अनजाना डर मुझे तराशता जा रहा है।

मैं अधर में हूँ और जागते हुए भी सोया महसूस कर रहा हूँ, मेरे पैर ठंडे फ़र्श को छू रहे हैं और मैं इस अनिद्रा वाली नींद में चलते हुए अपने घर का खाखा ख़ोज रहा हूँ। मैं ग्रेनाइट से बनी मेज़ छू रहा हूँ और चमड़े से बने सोफ़े पर अपनी उँगलियों में पसीजते पसीने के निशाँ बनाकर छोड़ता रहा रहा हूँ। मैं दरवाज़े तक पहुंच उसे सरका कर बाहर लॉन में ओस से गीली नर्म घास पर खड़ा अपनी आत्मा को तुमसे जोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ। तुम यहाँ भी नहीं हो पर तुम यहाँ के कण-कण में व्याप्त हो। समस्त प्रांगण तुम्हारे प्रेम से दमक रहा है। मैं दिक्सूचक बन गया हूँ पर अपनी उत्तर दिशा नहीं ढूँढ पा रहा हूँ। मेरा तीर लगातार घूम रहा है और मुझे नींद के झोंके आने लगे हैं। मैं आसमां की तरफ देखता हूँ तो मेरी आँखें धुंधली हुई जाती हैं, मैं लालायित हूँ, मैं तरस रहा हूँ, मैं अपनी पसलियों को अपनी हथेलियों से थामे खड़ा हूँ और अपने दिल की धडकनों को सीने से बहार निकल पड़ने के लिए संघर्ष करते, दबाव बनाते महसूस कर रहा हूँ। मैं निडर हूँ, फिर भी मेरी हर सांस के साथ एक अनकहा डर सांस ले रहा है।

दुनिया मौन है। मैं पुराने बरगद पर, जिससे तुम्हे बेहद लगाव है, पर पड़े झूले पर औंधा लेट गया हूँ। तुम्हारे होने के एहसास को अपना तकिया बना तुम्हारे सीने पर सर रखकर मैं आराम से लेटा हूँ। पर यह एहसास मेरी मौजूदगी को नकार रहा है। मेरे सपने मेरी हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ कर रहे है। पर मैंने हार नहीं मानी है मैं कोशिश कर रहा हूँ। मैं तुम्हारे अक्स को इन बाहों में भरता हूँ पर मुझे तुम्हारी अनुपस्थिति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। मेरा ह्रदय में आज भी तुम्हारे साथ की स्मृतियाँ ताज़ा हैं। मैं तुम्हारी परछाई को इन बेजुबां चीज़ों में छूने की कोशशि कर रहा हूँ और अपने हाथों के स्पर्श से उन अलसाई स्मृतियों को मिटाता जा रहा हूँ। मैं आगे बढ़ एक दफ़ा फिर तुम्हे खोजने की कोशिश कर रहा हूँ। तुम मुझे चिढ़ाती हो और मेरी आँखें नम हो जाती हैं। तुम ख़ुशी से खिलखिलाकर, प्रफुल्लित हो उठती हो और मैं तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण में बंधा चला जाता हूँ। मैं अपने हाथ ऊपर उठा खड़ा हूँ और ऐसा महसूस कर रहा हूँ जैसे इश्क़ की हवा में तैर रहा हूँ और अरमानो के आसमां में तुम्हारी मदहोशी के बादलों में गोते लगता आगे बढ़ रहा हूँ और जल्द ही तुम्हारे करीब, बहुत करीब पहुँच जाऊंगा। मैं इन बादलों से ऊपर, इन वादियों से परे, चाँद सितारों के बीच कहीं किसी ख़ूबसूरत गुलिस्तां में तुम्हारे साथ बैठ बातें करूँगा। यही सोच मैं ख़ुशी से झूम जाता हूँ। मैं अपने वादे से बेहद प्रफुल्लित हूँ। तुम गर्म सांसें छोड़ रही हो, गहरी सांसें भर निःश्वास हो रही हो और तुम्हारा आकर्षण फिर से मुझे तुमसे जोड़ रहा है। आशा, उम्मीद, विश्वास मेरी नसों में खून बनकर दौड़ रहा है और मेरी देह की मिटटी को सींच रहा है। मैं एक दफ़ा फिर से इंतज़ार में बैठा हूँ तकियों को अपने आस-पास जमा किये हुए। अकेला बिलकुल अकेला, ख़ामोशी को पढ़ता और तुम्हारे प्रतिबिम्ब से बातें करता।  में अकेला हूँ सचमुच अकेला।

ऐ मेरे चंद्रमा - शुभरात्रि।
आज रात मेरे लिए कोई अनोखा गीत गाओ।
सुबह के उजाले तक मुझे अकेला इंतज़ार के लम्हों में तड़पता मत छोड़ देना।

#तुषार राज रस्तोगी #कहानी #इंतज़ार

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

माई बैटर हाफ़ - वो कहाँ है ?

उसके हाथ अब पहले जैसे दोषरहित नहीं रहे। उसके नाख़ूनों की शेप भी पहले जैसी नहीं रही और उनकी चमक भी फीकी पड़ गई है। वो घिस चुके हैं, ऊपर से थोड़े झुर्रीदार, बेहद थके-थके और पुराने से लगने लगे हैं। उसके नाख़ून एक दम सही तरह से कटे हुए हैं, पर उन पर अब कोई पॉलिश या नख प्रसाधन वो पहले जैसा आकर्षण और लावण्य नहीं ला पाते हैं।

उसकी ज़ुल्फ़ें अब नागिन सी लहराती लम्बी नहीं रहीं, ना ही लटें अब घनी घुमावदार पूरी तरह से गोल छल्ले बनाती दिखाई पड़ती हैं। अब तो ज़्यादातर बड़ी ही बेरहमी और लापरवाही के साथ क्लचर से बंधी नज़र आती हैं।

आज उसके होठों पर सारा दिन नम करने वाली चमकीली ग्लॉस की परत दिखाई देती है बनिज्बत उस मलाईदार लिपस्टिक की ख़ुशबू के जो सूरज की गर्मी में पके फल जैसी महक बिखेरती थी।

उसकी वो लोचदार वक्राकार सुन्दरता आज लुभाने के लिए नहीं परन्तु अब उसके शरीर के अनुपात के अनुसार बढ़कर सुख और हिफ़ाज़त देने के लिए ढल गई है।

पर उसकी नज़रों में आज भी वही चमक, चिंगारी, जोश, जीवंतता, हाज़िरजवाबी और शोभा कूट-कूट कर भरी हुई है और वो पहले से भी ज्यादा सजीव, स्पष्ट, उत्साहपूर्ण, तीक्ष्ण, दिलचस्प, रंगीन और रोचक हो गईं हैं। उसकी हंसी का संगीत चांदी की घंटी की खनखनाहट की तरह पूरे घर में भर जाता है, और फिर गुंजन कर बजता हुआ खिड़कीयों और दरवाज़ों से बहार निकल जाता है और सूरज की धुप बन घर में वापस आ जाता है।

हाँ! शायद यह वो लड़की नहीं है जिसे बरसों पहले घर ब्याह कर लाया था...पर यह वो स्त्री है जो हमेशा हर मुश्किल में साथ रही, भीषण तूफ़ान और तपती गर्मी भी उसके इरादों को डिगा नहीं पाए। जो हर परिस्थिति में हाथ थामे डटी रही जैसे असली हंसी तब्दील हो जाती है दाँतों के डाक्टर के चक्कर काटने में। जैसे खेल-कूद वाला जूता जॉगिंग वाले जूतों में बदल जाता हैं और फिर पैदल चलते समय पहनने वाले में...कुछ ही वर्षों में जैसे साइज़ मीडियम से बदलकर लार्ज और फिर एक्स्ट्रा लार्ज हो जाया करता है और बालों को संवारने वाली जैल, सफ़ेद होते बालों को छिपाने के लिए बालों वाले रंग में तब्दील हो जाती है।

यही है वो जो अनगिनत खूबसूरत जंगों और संजीदा वाद-विवादों के साथ, रूठने से ज्यादा मनाने के साथ, सिनेमाघर से ज्यादा बाज़ार के चक्कर लगाने के साथ, खाना पकाने की विधि पर ज्यादा ध्यान ना देकर अपने सहजज्ञान और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार लाजवाब खाना बनाने की कला में निपुण होने के साथ, गुस्से से कहीं ज्यादा हंसी मज़ाक के साथ, अड़ियलपन से ज्यादा समझदारी के साथ, मक्कारों से बचकर सूझ-बूझ के साथ, अपने अपनों को दूसरों की नज़र से बचाने के साथ, ख़ुद से पहले परिवार को खिलाने के साथ, लड़की से औरत बनी है।

यह वही महिला है जिसकी झुर्रियां, मुरझाई त्वचा, लापरवाह बाल, अस्त-व्यस्त वेशभूषा, पसीने में लथ-पथ पल्लू, बिखरती-संभालती साड़ी, ज़िन्दगी में भागम-भाग और कभी-कभी साफ़ कटे नाखून कहते हैं - "मैंने इस चार दीवारी को मकां से घर बनाया है और अपने अस्तित्व के बाहर एक जीवन अपनाया है।" - वही है साया, साथी, शरीक़-ए-हयात, हमदम, ज़िन्दगी, बंदगी, चैन-ओ-सुकूं-औ-क़रार, जीवन का प्यार, रिश्ते का सार...गुड, बेटर, बेस्ट हाफ...

माई बैटर हाफ...ढूंढता हूँ...वो कौन है और कहाँ है ?...कहीं तो होगी...शायद मिल जाए...!

--- तुषार रस्तोगी ---

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

सपने में मिलते हैं

वो एक सपना जो हमेशा से मेरी ज़िन्दगी के गुलदान को महकते गुलाबों से भर जाता है,"तुम मेरी बाहों में मेरे सिरहाने बगल में मेरे साथ लिपट कर साथ लेटी हो। मैं अपने गालों पर तुम्हारी साँसों की हरारत को महसूस कर सकता हूँ, तुम्हारी अनोखी, अद्भुत, मदमस्त कर देने वाली सुगंध मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करती है और मैं उम्र भर उस महक के साथ जी सकता हूँ। वो ख़ुशबू मुझे बारिश के बाद वाले बसंत की याद दिलाती है।

परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।

फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।

अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन  पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।

कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।

तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...

--- तुषार रस्तोगी ---

मंगलवार, अप्रैल 07, 2015

मी टू - एडिक्टेड टू यू एंड योर लव

ये मुझे क्या हो गया? तुमने देखा मुझे? तुम्हारी तरह मुझे भी इस इश्क़ की लत लग गई है और मैं इस प्यार का आदि हो गया हूँ। "येस! मी टू एडिक्टेड टू यू एंड योर लव", मुझे अपने इस प्यार में पड़ने से प्यार हो गया है। लो आज तुम्हारे सामने इसका इक़रार भी हो गया है। जो बात कल तक तुम्हारी जुबां पर थी आज मैं भी उस बात को कुबूल करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ । तुम जब उस तरह से नज़रे उठाकर मुझे देखती हो बस वही सम्मोहित करने और प्यार में बांधे रखने के लिए काफ़ी होता है। हमारे परवान चढ़ते, परवाज़ बुलंद करते, पंख पसारते, स्वछंद हवा से बहते, घने हरे पेड़ों से झूमते लहलहाते, परिंदों से चहचहाते, बचपन से खिलखिलाते, तारों से झिलमिलाते, फूलों से महकते, बादलों से बरसते, मिटटी से ठंडे, घास से कोमल, झरने से निर्मल, नदी से तेज़, पहाड़ से अडिग, चांदनी से चमकते, सूरज से दमकते, इश्क़ की वो पहली मुलाक़ात की यादें दोनों को ताउम्र साथ रखने के लिए काफ़ी हैं। अपनी बड़ी-बड़ी हिरनी सी आँखों से जब तुम मुझे निहारती हो, तब मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। गहरी, शांत, रहस्मय, नशीली निगाहों के पैमानों में डूब जाता हूँ और जिस पल अदा से तुम अपनी मोहब्बत का इज़हार करते हुए, "आई लव यू", कहती हो उसी पल मेरी सारी तकलीफ़, दुःख, उदासी, अवसाद, पीड़ा उड़न छू हो जाती। तुम्हारा इतना कहना, "मेरी जान एक टाइट झप्पी तुम्हे" मेरे सारे ग़म काफ़ूर कर देता है। तुम मेरी सोच का नूर हो, मेरा फ़ितूर हो, तुम्हारा साथ होने पर ज़िन्दगी जीने के मायने कुछ और ही हो जाते हैं। ज़िन्दगी जीने में लुत्फ़ आने लगता है और चेहरे पर एक ख़ुशी का माहौल बना रहता है। आख़िरकार तुमने मुझे भी इस नशे का आदि बना दिया ना - "यू हैव मेड मी आ लव एडिक्ट लाइक यू" - :)

जब तुम बेहद नज़ाकत, हिफ़ाज़त और चाहत के साथ मेरी बाहों में चली आती हो, मेरे दिल को कितना क़रार आता है। अपने आगोश में तुम्हारा कांपता जिस्म और करुणामय मन दोनों को पिघलते देखता हूँ और उस के साथ  तुम्हारा मुझसे ये इक़रार करना, "तुम्हारी बाहों में समाकर ऐसा क्यों होता कि वो इंतज़ार के लाम्हातों में बहते आंसू थम जाया करते हैं। इसका क्या राज़ है? बोलो ना। जिस तरह तुम हलके से, कोमलता के साथ मुझे चूमते हो, मैं सोच में पड़ जाती हूँ, काश! मैंने तुम्हे पहले ही ढूंढ लिया होता। तुम्हारे मज़बूत, चौड़े और अटूट सीने से लगकर ऐसा एहसास होता है कि क्यों ना समय अभी, यहीं, इसी वक़्त, हमेशा के लिए थम जाए और मैं तुम्हारे आलिंगन में सदा के लिए ऐसे ही समा जाऊं। मुझे तुम्हारा साथ होना बहुत सुकूं देता है। जिस तरह से तुम्हारा ऊपर वाला होंठ हरकत करता है ना, वो जब तुम मेरे चेहरे को देखकर अपनी मुस्कान रोकने की कोशिश करते हो, मुझे बेक़ाबू कर देता है, मुस्कुराने और सोचने पर मजबूर कर देता है, और मेरा दिल गाने लगता है। तुम्हारी संजीदा, महासागर जैसी अनंत भूरी आँखें जिनसे तुम हमेशा एकटक नज़र लगाये मेरे अन्दर मेरी आत्मा तक झांकते हो वो तुम्हारी शख़्सियत का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा है, जो मैंने ख़ोज निकाला है। जिस तरह से तुम मेरा नाम लेकर पुकारते हो, और मुझे प्यार भरे उन ख़ास नामो से बुलाते हो, मैं जानती हूँ और समझती भी हूँ कि तुम भी हमारे प्रेम की गहनता को उतना ही महसूस करते हो जितना मैं करती हूँ। जिस तरह से तुम किसी भी बजते हुए गाने के साथ अपनी भारी आवाज़ में उस गाने को गाने की नाकाम कोशिश करते हो, वो भी मुझे हंसने और तुम्हारे साथ गाने को उत्साहित करती है, जबकि मुझे पता होता है की तुम सुर से और सुर तुम से कितने दूर हैं। तुम मेरे चेहरे पर आई मुस्कराहट का कारण हो, तुम मेरी हंसी हो, मेरा गीत हो, संगीत हो, सोच हो, साज़ हो, आवाज़ हो, तुम ही हाँ सिर्फ़ तुम और तुम और तुम ही मेरा प्यार हो, सब कुछ हो। तुम्हारा इश्क़ मेरी दवा है, दुआ है, हाँ है, ना है, ज़िन्दगी है, बंदगी है, जुनून है, सुकून है, खून की रवानी है, मासूम सी कहानी है, धडकनों की हरक़त है, आरज़ू की बरक़त है, ख़ुदा की नेमत है, अफसानों की ताबीर है, कायनात की जागीर है, दिल में मचलता अरमान है, ख़्वाबों का फ़रमान है, रंगों की रंगीनी है, लज्ज़तों का स्वाद है, एहसासों की मिठास है, जीने की राह है, उमंगो की चाह है, साज़ों की आवाज़ है, उतरता-चढ़ता मिजाज़ है और इससे ज्यादा क्या कहूँ कि तुम्हारा और केवल तुम्हारा जुनूं-ए-इश्क़ मेरे हर लम्हे का आगाज़ है। तुम हो तो मैं हूँ, मैं हूँ तो तुम हो। मेरे और तुम्हारे होने से ही हम हैं। मुझे तुम्हारी आशिक़ी की बहुत बुरी आदत लग गई है।  सुनो ना, सुन रहे हो तुम, 'आई एम् एडिक्टेड टू यू एंड योर लव'"... और बस ये ही तो है अपनी "छोटी सी लव स्टोरी"...

--- तुषार रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 28, 2015

ये कहानी है













बारिश आग सी लग रही है क्या रवानी है
अनगिनत खुशियों से लिखी ये कहानी है

इस दिल में आज भी सुलगता है इश्क़ तेरा
हर एक सुकूं आरज़ू की वजह ये कहानी है

दिल दहकता है बारिश की हर बूँद के साथ
मेर परवान चढ़ते इश्क़ की भी ये कहानी है

तसल्ली होती है तेरे ख़याल से रूह को मेरी 
उफ़नती साँसों की रवानी की ये कहानी है

काश कोई पूछे उस दिल से जुड़ने की वजह
इश्क़ में फिसलते मेरे वजूद की ये कहानी है

माँगा है उसने मुझसे इस बेचैनी की सुराग़
इस राज़ को राज़ ना रखने की ये कहानी है

इन लबों पर सजी हैं दुआएं उसके ही लिए
हर पनपती ख्वाहिश की अब ये कहानी है

दो हाथ जब भी उठते हैं अब दुआ के लिए
'निर्जन' मैंने से माँगा है तुझे ये कहानी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 14, 2015

इश्क़ तो इश्क़ है


"सुनो, क्या तुम ठीक हो ?" बड़े ही सशक्त, मासूम और मीठे शब्दों में उसने पुछा।

"नहीं, बिलकुल भी ठीक नहीं हूँ" उसने करुणा भरे गले से रोते हुए कहा और उसके गर्म आंसुओं से उसके बर्फ से ठंडे और सूने गाल जल रहे थे।

"अच्छा" तुरंत त्योरी चढ़ा धर्य साधने से पहले वो बोला, "तो आओ, मैं तुम्हे थाम लेता हूँ।"

"लेकिन, नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकते" उसकी आवाज़ तीख़ी हो सकती थी पर उसने आंसुओं से रुंधे हुए स्वर में धीरे से जवाब दिया।

"क्यों, क्यों नहीं ? तुम हमेशा ऐसा क्यों करती हो ?"

"क्योंकि - क्योंकि वो सब यही कहते हैं, तुम नहीं कर सकते - कभी नहीं कर सकते !"

"अच्छा, तो हम कब से उनकी सुनने लगे हैं ? ज़रा बताओगी ?" उसने हलके से गहराई लिए लहज़े से पुछा। इस सवाल के पीछे गहरा मतलब छिपा था ।

"मैं तुम्हे चाहती हूँ... बहुत प्यार करती हूँ..."

"पगली, मुझे मालूम है, तुम मुझे बहुत प्यार करती हो," और उसने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भर लिया और सीने से लगा लिया।

"फिर आग़ोश में दोनों एक दुसरे को चूमते रहे। दोनों आंसुओं का मीठा और खारा स्वाद अपने होठों पर चखते रहे। दुनिया क्या सोचती है और क्या कहती है इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पड़ता है क्या ?

आख़िर इश्क़ तो इश्क़ है इसे इश्क़ ही रहने दो।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अप्रैल 08, 2014

आराधना - अंडे और दुविधा

“सुनो ना – कुछ तो बोलो ! आज तुम बात शुरू करो ना मैं ज्वाइन करती हूँ फिर | तुम कोई टॉपिक तो सेलेक्ट करो ना, प्लीज...” एक अबोध बालिका की तरह उसने राज से धीमे से फ़ोन पर यह कहा और बड़ी ही सरलता से उसके कानों तक अपनी मीठी आवाज़ में यह बात उस तक पहुंचा दी | 
“क्या यार ! रोज़ रोज़ यही होता है, मैं ही क्यों तुम क्यों नहीं ? तुम इतना जो पढ़ती हो उसका कुछ तो फायदा मिले | कभी कोई बात खुद भी शुरू किया करो ना | कोई टॉपिक खुद भी चुना करो कभी तुम | हमेशा ऐसे ही ख़ामोश बैठ जाया करती हो | मैं कोई स्कूल का हेडमास्टर या कोई रेडियो थोड़े ही हूँ जो बोलता रहूँ या बजता रहूँ सुबह शाम |” इतना सुनकर कुछ पल के लिए दोनों के बीच एक ख़ामोशी छा गई फिर थोड़ी देर के बाद राज को ही बोलना पड़ा – “ओह हो ! तुम्हारे नखरे – ज़रा कुछ कह दो, तुरंत साइलेंट मोड ऑन कर के बैठ जाती हो | ठीक है बात मान लेता हूँ, मैं ही शुरू करता हूँ | आज खाने पर बात करें क्या ? ईटिंग हैबिट्स - पर आज तक नहीं की है बात, बोलो तो - क्या कहती हो ?”

“अरे वाह ! एक दम नया टॉपिक है - बोलो कैसे शुरू करना है |” आराधना नए वार्तालाप के लिए बेहद उत्सुक हो रही थी | उसे इंतज़ार था राज द्वारा पूछे जाने वाले सवालों का और मन ही मन हर्षित हो रही थी | 

“तुम्हे क्या पसंद है वैसे ? सबसे अच्छा क्या लगता है ? बताओ सबसे अच्छी डिश कौनसी लगती है ? किस तरह का कुज़ीन तुम्हे आकर्षित करता है ? कौन से भोजन को देखकर तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है बताओ ?”

“अरे – हेल्लो – रुको भी | एक बार में एक सवाल करो यार | तुमने तो सवालों की ऐ.के – ४७ चला दी | अच्छा एक एक करने जवाब देती हूँ | ठीक है न – ह्म्म्म | वैसे तो मैं सब कुछ पसंद करती हूँ पर मुझे नॉन-वैज बहुत पसंद है | मैं ज़्यादातर यही खाती हूँ | अंडे, मछली, चिकन, मीट बहुत अच्छा लगता है | आई लव एग्स एंड चिकन | ओम्लेट्स, बॉयल्ड, फ्राइड, हाफ-फ्राइड मेरे फेवरेट हैं | मैं हर तरह का खाना खा लेती हूँ कोई परहेज़ नहीं रहा किसी चीज़ से कभी | कबाब, मटन-बिरियानी, चिल्ली-चिकन और भी हैं जिन्हें सोचकर ही मुंह में पानी आ जाता है | सर्दियों में तो मैं ज़्यादातर नॉन-वैज ही खाती हूँ | वैज भी पसंद आता है पर इतना नहीं बट आई एन्जॉय एवरीथिंग | अब आगे मेरा सुशी खाने का दिल है – एक बार तो ज़रूर ट्राय करना है लाइफ में | सुना है बहुत टेस्टी होता है |”

“ईशशशश – बस कर यार | इतना क्या खुश हो रही है यह सब अनाप शनाप खा कर | बेचारे मासूम जानवरों को मारकर उनके शवों को अपने शरीर के कब्रिस्तान में दफ़न कर रही है और इतना खिलखिला और चहक रही है | तेरा पेट नहीं है श्मशान घाट है जहाँ मासूमों की अंत्येष्टि होती है उदर की गर्मी में जलकर | मांसाहार खाने में कैसा मज़ा जिसका अपना कोई स्वाद ही नहीं | सारा स्वाद तो मसलों का है | अगर खाना है तो कच्चा खा कर बता | फिर बात करना | बात करती है - आई एन्जॉय नॉन वैज आ लॉट वाली | एर्र्र्रर्र्र्रर्र्र..... – आज से तुम्हे कब्रिस्तान ही बुलाऊंगा – सच्ची” - इतना कहकर राज चुप हो गया | 

“ओह हो – अपनी अपनी पसंद है – तुम वेजीटेरियन हो तो मैं क्या करूँ | सबका अपना अपना टेस्ट है यार | इसमें भड़कने वाली कौन सी बात है | ठीक है तुम्हे बुरा लगता है तो तुम्हारे सामने ऐसे खाने की बात नहीं किया करेंगे | ठीक है ना ? बोलो ?”

“अरे यार – फिर आगे कैसे होगा कुछ सोचा है ?” – राज ने संजीदा होकर सवाल किया 

“आगे – क्या आगे ? मतलब” – आराधना ने मज़ाहिया अंदाज़ में चुटकी लेते हुए पुछा 

“मेरे यहाँ ये सब नहीं चलता है | मुझे तो बदबू तक बर्दाश्त नहीं इन सब चीज़ों की | यक – एर्र्र्रर – ईश्श्श – ना बिलकुल भी नहीं, कभी भी नहीं | मैं तो शुद्ध वैष्णव हूँ |”

“मैं तो बिलकुल भी नहीं रह सकती इन सबके बिना | ठीक है मैं खुद बना लुंगी किसी को बनाने को नहीं बोलूंगी |” 

“बनाने को मतलब – अरे क्या बात कर रही हो | बवाल हो जायेगा | ये सब नहीं चलेगा मेरे साथ में | बहार खा लो ठीक है उसमें मुझे कोई परहेज़ नहीं पर घर में तो नहीं – ना बिलकुल भी नहीं | जब बदबू ही बर्दाश्त नहीं तब बनाना तो बहुत दूर की बात है हुज़ूर |” 

“मतलब मुझे अब अपना खान पान भी बदलना होगा क्या ? ना ऐसा तो कभी नहीं होगा | किसी के लिए मैं अपने आपको, अपनी आदतों को, अपनी इंडिपेंडेंट लाइफ स्टाइल और चोइसस को थोड़ी बदल सकती हूँ | नहीं बिलकुल भी नहीं | फिर तो तुम कहोगे की फ्रिज में भी नहीं रख सकती में अन्डो को | हैं न ? क्यों ? ठीक कहा ना मैंने ? फिर तो कुछ नहीं हो पायेगा कोई सोल्युशन नहीं इसका | एक आइडिया है – ऐसा करना – जब मैं अंडा बनाऊं तुम घर से बहार चले जाना – हा हा हा – और जब बन जाये तब वापस आ जाना – अन्डो की सुगंध भी नहीं सूंघने को मिलेगी और बहार ताज़ी हवा का आनंद भी मिल जायेगा लगे हाथों | क्यों जी, क्या कहते हो ? वैसे सच में यार क्या अब हमारे रिलेशन इन अन्डो का मोहताज हो गया है ? डू वे बोथ हैव तो डिपेंड ऑन दीज़ एग्स - सीरियसली - गिव मी आ ब्रेक यार | इतनी छोटी सी बात है देखा जायेगा टेंशन क्यों लेनी अभी से | ” इतना कहकर वो जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी | 

“आई ऍम सीरियस यार – तुझे मज़ाक सूझ रही है | कुछ तरीका तो सोचना पड़ेगा | अच्छा सुनो – अगर दो फ्रिज और दो रसोई बना लें तो कैसा रहेगा ?”

“अच्छा ! हाय ! सच्ची ! मेरे लिए ऐसा करोगे तुम ? सोच लो ?”

“नहीं यार – बात तो वहीं की वहीं रही – यह तरीका भी काम नहीं करेगा | घर में नहीं बन सकता – फॉर श्युर | बहार खाने वाली बात सही है पर घर में तो नहीं – ना सॉरी यार | तू सोच ना कुछ तरीका यार | कुछ तो होगा तेरे दिमाग में |” इतना कहकर राज ख़ामोश हो गया | 

“यार अंडे भी नहीं बना सकती क्या ? नॉनवैज बाहर से कभी ले आया करुँगी | पर अंडे तो बना ही सकती हूँ | किसी और को बनाने को थोड़ी बोलूंगी | आई रेस्पेक्ट योर फीलिंग्स एंड योर पॉइंट ऑफ़ व्यू दैट यू डॉन’ट लाइक इट – पर, मेरी बात भी तो समझो | ऐसा थोड़े ही होता है अब खाना थोड़ी छोड़ दूंगी और क्या यह बहुत बड़ी बात है जो इतना सीरियस डिस्कशन हो रहा है ? वी विल वर्क आउट ऑन दिस सम वे ऑर दी अदर | फिलहाल एन्जॉय लाइफ माय फ्रेंड |” 

“तेरे लिए नहीं यार मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | आज तक मेरे घर में ऐसा नहीं हुआ है | फिर अब कैसे | नहीं – मुझे तो ठीक नहीं लगता | तू ही कुछ सोच ना यार, बता सोच कर, कोई तरीका निकाल |” 

“फिर तो कुछ तरीका नहीं है जी, कुछ नहीं हो सकता | मैं तो किसी के लिए अपने आपको बदलने वाली नहीं हूँ चाहे कुछ भी हो जाये | जिसे जो सोचना है सोचे | यू डीसाईड योरसेल्फ़ | व्हाट डू यू वांट ?” इतना कह कर आराधना भी चुप हो गई | 

अब दोनों तरफ सन्नाटा था | ख़ामोशी के बीच दोनों की गर्म सांसें तेज़ी इस चुप्पी को भेद रही थीं और माहौल गरमा रहा था | दोनों सोच में पड़े हुए थे | राज सोच रहा था अगर अब ऐसे अंडे और मांसाहार शुरू हुआ तो आगे क्या होगा ? घर में यह सब होगा तो वो एडजस्ट कैसे करेगा ? क्या आगे की आने वाली पीढ़ी भी मांसाहारी बनेगी ? उफ़ नहीं – बड़ी दुविधा का समय है यह तो अब क्या उपाय है इसका, क्या रास्ता निकालूं ? काफी सोचने के बाद उसने फैंसला ले लिया – 

“ठीक है तुम नहीं बदल सकती हो तो दूसरा भी नहीं बदल सकता | जिस चीज़ की दुर्गन्ध तक बर्दाश्त नहीं उसका मेरी रसोई में बनना भी संभव नहीं फिर आगे चाहे कुछ भी हो देखा जायेगा | जिस बात के लिए आत्मा गवाही नहीं देती उसे तो मैं कभी भी नहीं करता और फिर यह तो एक तरह से जीव हत्या जैसा पाप है | एक तरह से मैं भी इसमें भागीदार हो जाऊंगा | ना कभी नहीं | अगर आगे कुछ लिखा होगा किस्मत में तो हो जायेगा नहीं होगा तो ना सही पर अपने संस्कारों से कभी भी समझौता नहीं | चाहे कुछ भी परिणाम हो फिर | जिसे सोचना हो वो सोच ले अब इस बारे में मैंने तो सोच लिया और निश्चित भी कर लिया | अब कोई संशय नहीं मेरे मन में इस बात को लेकर |” – इतना कहकर राज ने फ़ोन रख दिया | 

इन दोनों की कहानी में यह एक नया पेचीदा मोड़ आया है | क्या सच में यह एक बहुत बड़ी उलझन है ? क्या इस बात को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो जायेंगे ? क्या इस छोटी सी बात के लिए दोनों के बड़े से अहम् और हठ धर्मी आपस में टकरा जायेंगे ? क्या एक मांसाहारी और एक शाकाहारी साथ में रह पाएंगे ? क्या अलग अलग खान पान होने के कारण दोनों की दोस्ती और सम्बन्ध पर कोई फ़र्क पड़ेगा ? क्या राज और आराधना अपनी इस उलझन को सुलझा पाएंगे ? क्या इन दोनों की कहानी का नतीजा अंडो और ऑमलेट इन्ही के बीच झूलता रह जाएगी ? क्या कोई लाल पीली चटनी खाने से दोनों की रुकी हुई कृपा आगे बढ़ेगी ? क्या इन्हें इस समस्या का कोई समाधान मिल पायेगा ? मुख़्तलिफ़ खान पान होने के बाद भी क्या ये दोनों अपनी मंज़िल पा सकेंगे ? आगे क्या होगा फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता और ना ही किसी को पता है भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है | आगे क्या होगा इसका फैसला मैंने अपने पाठकों पर छोड़ा है | यदि आपको लगता है आपके पास इस बात का कोई अच्छा समाधान है तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मुझे बताएं | 

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

आराधना - माँ का ऑपरेशन

"ओ हो माँ ! रुको तो सही, मैं आ रही हूँ ना | ऐसी भी क्या जल्दी है ?"

"बेटी जल्दी नहीं है तेरे पापा के खाने का समय हो रहा है इसलिए खाना तैयार करना है | रात को उनकी दवा का समय हो जायेगा | अच्छा बता तू क्या खाएगी ?"

"नहीं माँ, आज से आप नहीं मैं खाना बनाउंगी आप आराम करो | वरना उस दिन की तरह फिर से हाथ ना जल जाये |"

"नहीं नहीं ! तू क्यों रसोई को देखती है तू अपनी पढ़ाई में दिल लगा | ये सब काम तेरे करने के नहीं हैं |"

आराधना जल्दी से रसोई में आई और माँ का हाथ पकड़ कर उनके कमरे में ले गई |

"अब बैठो यहाँ पर आराम से और कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है मेरे होते | जब तक तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन नहीं करवा देती घर के काम से तुम्हारी छुट्टी | मैं सब अकेले ही देख लुंगी | पापा को क्या पसंद है मुझे पता है | मैं सब संभाल लूंगी | चलो जल्दी से लेट जाओ और मैं आँखों में दवाई डाल देती हूँ | फिर आँखें बंद कर के आराम कर लेना कुछ देर | कल ऑपरेशन है इसलिए आज कोई भी टेंशन नहीं लेना वरना फिर से बी. पी. बढ़ जायेगा | "

आराधना एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता पिता की एकलौती संतान थी | संस्कारों से परिपूर्ण और मृदुभाषी | पिछले कुछ समय से उनका जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते बीत रहा था | पहले पिताजी की बीमारी और अब माँ की आँखों में काला मोतिया बिन्द | बहुत समय से तबियत ठीक ना होने के कारण उनके इलाज में देरी हो रही थी | जिसके चलते माँ को रोज़मर्रा के काम काज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था |

पर साहस की धनी आराधना भी इन मुश्किलों से डरकर पीछे हटने वालों में से नहीं थी | उसने भी फैसला कर लिया था के इस बरस माँ का इलाज करवा कर ही दम लेगी | रुपया रुपया कर के पैसे जोड़ रही थी | डॉक्टरों और नर्सिंग होम के चक्कर काट रही थी | पिता और माता के सिवा उसकी दुनिया में और कोई नहीं था | उसका तो छोटा सा संसार बस उन दोनों में ही था |

आराधना जल्दी से रसोई में गई और उसने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी | जल्दी जल्दी आटा गूंथ कर रोटियां बनायीं और बिजली की तेज़ी से खाना तयार कर दिया | रात को भोजन के उपरान्त उसने जल्दी जल्दी सब काम निपटाया और बिस्तर पर लेट गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी | सोचते सोचते ना जाने कब उसकी आँख लग गई |

पौ फटने पर जब अलार्म की आवाज़ सुनी तो हडबडा कर उठी और सुबह के काम निपटने लगी | आज माँ को लेकर जाना था | आज उनकी आँखों का ऑपरेशन होना था | बारह बजे का समय मुक़र्रर हुआ था | सुबह से ही माँ को समझाने में लगी थी |

"माँ आज सब कुछ ठीक से हो जायेगा | चिंता की कोई बात नहीं है | डॉक्टर बहुत अच्छे हैं | डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं |" उसके पिता भी उसका साथ दे रहे थे | अपनी बीमारी के बाद भी उनके जोश में कोई कमी नहीं थी | बोले, "आज तो मैं भी साथ चलूँगा |"

समय पर घर से सब साथ में निकले और नर्सिंग होम पहुँच गए | वहां पहले से ही बुकिंग हो रखी थी | पहुँचते ही उसके पापा डॉक्टर के कमरे में गए और उनसे अपने लिए एक बिस्तर का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की | बीमार होने के बाद भी उनकी हिम्मत की दाद देनी तो बनती थी | अपने दर्द को भुलाकर मुश्किल के समय में अपनी जीवन संगनी के साथ खड़े रहने का जो जज्बा उनके दिल में था उससे उनका प्यार की इन्तेहां का पता चलता था | डॉक्टर ने भी उनकी उम्र और तबियत को देखते हुए तुरंत एक बेड का इंतज़ाम करवा दिया जिससे वो आराम कर सकें |

सभी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद माँ के साथ उनके ऑपरेशन के इंतज़ार में बैठ गए | दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | आराधना ने अपना मोबाइल फ़ोन निकला और इन्टरनेट चालू किया और अपने एक मित्र को सब कुछ बताया | मित्र ने भी उसका साथ देते हुए उसे शांत रहने को कहा और सब कुछ ठीक होने का आश्वासन दिया |

समय बीतता गया और दोनों के बीच बातें चलती रहीं | पल पल जो भी हो रहा था वो अपने मित्र को बताती जा रही थी | अपने दिल में उठते डर और धबराहट को बांटती जा रही थी | इस सबके बीच माँ ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर में चली गईं | आराधना और उसके पापा दोनों भगवान् से बस यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब कुछ सुचारू रूप से हो जाये | उधर आराधना का दोस्त भी उसे तसल्ली दे रहा था |

अंततः खबर आई कि ऑपरेशन सही तरह से हो गया है | इतना सुनते ही सबकी जान में जान आई और आराधना की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये | जिस काम के पूरा होने में दो वर्ष का समय लग गया था आज वो पूरा हो ही गया | उसने अपने दोस्त को फ़ोन पर बताया कि सब कुछ कुशल मंगल है | ऑपरेशन ठीक हो गया है | अपने दोस्त को ऐसे वक़्त में साथ रहने के लिए और उसकी हिम्मत बाँधने के लिए धन्यवाद् देकर उसने बताया अब वो माँ-पापा को लेकर घर जा रही है और फिर बाद में बात करेगी |

सोमवार, मार्च 24, 2014

आराधना - एक दिन

"उठो न अभी भी सोये हो क्या ?" - फ़ोन पर उस मीठी सी आवाज़ ने राज के कानो में मिश्री घोल दी |

"हम्म ! आज तो इतवार है, छुट्टी का दिन है, प्लीज़ आज इतनी जल्दी नहीं | तुम उठ गईं क्या ?" - राज ने अपनी अलसाई आवाज़ और अधखुली आँखें मलते हुए पुछा |

"कब की, मैं तो चाय भी पी चुकी | नवाब साहब अभी तक सोये हैं | इतनी देर तक सोये हो ! उठे नहीं अभी तक, झल्ले !!" - आराधना की शीरीन आवाज़ में इस सवाल ने राज की नींद गायब कर दी |

फिर भी आलस भरे स्वर में उसने अंगड़ाई लेते हुए जवाब दिया, "क्या यार ! तुम भी, आज भी जल्दी, कम से कम आज तो आराम करने दो |  रात भी तो कितनी देर से सोये थे | तुम सोती नहीं हो क्या ?"

"सोती तो हूँ पर सुबह जल्दी उठाना भी तो होता है | घर के काम भी होते हैं | माँ-पापा का ख़याल भी तो मुझे ही रखना होता है | तुम्हारा क्या है, तुम्हारे मज़े हैं कोई बंधन जो नहीं है | मौज है तुम्हारी |" - आराधना ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया |

"नहीं यार ऐसा नहीं है, बंधन तो मेरे भी हैं | एक बंधन तो तुमसे ही बंधा है | ये नहीं कह सकतीं तुम | बाक़ी बंदा तो मैं भी काम का हूँ ये बात और हैं कि....." – कहते-कहते राज ने शब्दों को थाम लिया | अभी तक कुछ निश्चित नहीं हुआ है | आराधना ने आज तक कभी कुछ खुलकर जो नहीं कहा था पर दोस्ती तो दोनों की ही अटूट थी | सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक और फिर खाने से लेकर सोने तक की बातें दोनों आपस में बांटा करते थे | खूब हंसी मज़ाक, गप्पे और बातें एक दुसरे के साथ सारा दिन किया करते थे |

"हम्म ! बात पूरी नहीं की क्या हो गया ?"

"अरे, कुछ नहीं, फिर कभी और कुछ बोलो यार तुम तो ख़ामोश हो गईं | कुछ दस्सो"

"होर ते सब चंगा | सब वादिय जी | तुस्सी दस्सो"

"हुन मैं की दस्सां | राती तां सव दस्सेया सी त्वानू | तुस्सी वी तड़के शुरू हो जांदे हो | दस्सो जी दस्सो जी | मेंनू क्या आल इंडिया रेडियो समझदे हो तुस्सी ?”

“अच्छा जनाब ऐ गल सी कोई नहीं बच्चू देख लुंगी | और बताओ”

“बस यार सब बढ़िया – अच्छा सुनो यार - मैं ज़रा तयार हो जाऊं फिर बाद में बात करते हैं |” – राज उठा और झटपट बिजली की तेज़ी से तैयार होकर, नाश्ता कर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गया |

“हाँ जी ! उसने फ़ोन पर मेसेज भेजा | किद्दां ?

“आहो ! आ गई जी | हो गया ब्रेकफास्ट ? क्या खाया ? आज तो स्पेशल होगा ? सन्डे स्पेशल ? नहीं ? मुझे तो पुछा भी नहीं ? मैं बात नहीं करती ? झल्ले हो तुम |”

“ओ ओ ओ ! शताब्दी एक्सप्रेस थांबा | कभी तो कुछ कम सवाल भी किया कर यार | जब देखो तब शुरू |”

“अब दोस्त से सवाल नहीं करुँगी तो किससे करुँगी | बोलो ?”

“हाँ ! दोस्त से – हम्मममम” – राज ने ठंडी आह भरते हुए कहा

“अच्छा बता ना यार क्या खाया ब्रेकफास्ट में ? मैंने तो मूली के परांठे खाए और साथ में मिंट चटनी | य्म्मी”

“मैंने तो बटर ब्रेड टोस्ट खाया और चाय”

“ब्रेड एंड टोस्ट आर दी सेम थिंग्स | या तो ब्रेड बटर बोलो या बटर टोस्ट | ओके”

“जी बिलकुल, गलती हो गई | थैंक्स फॉर कोर्रेक्टिंग | और बताओ”

और फिर इसी तरह दिन भर ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा | आराधना कुछ कहती रही और राज सुनता रहा राज कुछ कहता रहा आराधना सुनती रही | एक बोन्डिंग थी दोनों के बीच जिसने दोनों को आपस में जोड़ रखा था | दोनों जितना लड़ते, झगड़ते उतना शायद ही कोई करता हो ऐसा उन्हें लगता था | पर फिर भी एक दुसरे के साथ थे, अगर कुछ हो भी जाता तो अगले ही पल सब ठीक हो जाता | एक दुसरे को सॉरी बोलने में बिलकुल भी हिचक नहीं होती, आपस में इतना भरोसा, इतना मान सम्मान, किसी बात को लेकर कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनता, किसी बात को लेकर कभी व्यर्थ बहस नहीं होती, सब कुछ इतना स्वाभाविक, सरल और नम्रता भरा था, ना ही आपस में कोई अहम् का भाव ना ही किसी तरह का कोई घमंड | बहुत ही प्यारी दोस्ती थी ये उन दोनों के बीच |

रात होते होते दोनों बहुत ही थक जाते और दिन की अंतिम बात के लिए अपने अपने फ़ोन पर आ जाते | राज सारा दिन आराधना से बातें करता फिर भी दोनों का दिल नहीं भरता और ज्यादा बातें करने को करता | दोनों अपने घर पर कानों में इअर प्लग लगाये बिस्तर पर लेटे नींद आने का इंतज़ार कर रहे थे | हर तरफ़ ख़ामोशी और सन्नाटा पसरा था | रात की इस ख़ामोशी में आराधना धीरे से बोली,

“कुछ बोल यार – क्या हुआ”

“क्या यार, हर टाइम मैं ही क्यों बोलूं आज तू ही कुछ बोल ले प्लीज | आज कोई टॉपिक नहीं मेरे पास बात करने के लिए | तू ही चूज़ कर ले कोई रैंडम टॉपिक उसी पर बात कर लेंगे | क्या कहती है ?”

“सोचने दे – यार कुछ दिमाग में नहीं आ रहा तू ही कर ले | मुझे कोई याद नहीं आ रहा | चल रहने दे आज नहीं | आज बहुत थक गई हूँ | काफी काम था | जनरल कुछ भी बात कर लेते हैं | ठीक है ?”

“ओके”

उसके बाद दोनों तरफ चुप्पी का राज हो गया | पूरा दिन इतनी सारी बातें करने के बाद अब कोई स्टॉक बाक़ी नहीं बचा था | थोड़ी ही देर बाद कानों में ज़ोर से सांसें चलने की आवाज़ आई |

“सो गई क्या ? ...... अरे यार सो गई क्या ? सोना है तो आराम से सो जा ना कल बात कर लेंगे |”

“हाँ सोती हूँ, बस दो मिनट अभी जाने का दिल नहीं कर रहा बस दो मिनट”

“क्या यार ! नींद तो आ रही है और दो मिनट कर रही है | चल सो जा जल्दी से वरना सुबह फिर दिक्कत होगी और फ्रेश नहीं उठ पायेगी | आराम कर | कल बात करते हैं ना”

“हम्म ! झप्पी दे”

“हाँ... बिलकुल यार ! झप्पी तो कभी भी | ले तेरी झप्पी लम्बी और टाइट वाली | ठीक है |”

“हाँ”

“अब तो जा सो जा यार”

“नहीं – दिल नहीं ऐसे ही रह झप्पी में – तुझे कोई तकलीफ है क्या ? जब दिल होगा तब जाउंगी” 

“कहाँ जाएगी ? तू ऐसे ही रह, कहीं जाने नहीं देना तुझे, ऐसे ही सो जा झप्पी में, मैं भी जब तक नहीं छोडूंगा जब तक खुद नहीं कहेगी | खुश ?”

“हम्मममम”

बस इतनी बात के बाद उस रात उसकी साँसों के सिवा और कुछ भी राज को सुनाई नहीं दिया | रात की निस्तब्धता में पहली बार राज की झप्पी में बंधे वो सपनो में खो गई | माइक पर उसकी सांसें सागर में उठते ज्वार भाटे के समान सुनाई पड़ रही थीं | उसकी सांसें केतली में आंच पर रखे उबलते पानी की भाप की तरह सुनाई दे रही थीं | साथ में कभी कभी सीटियाँ भी सुनाई दे रहीं थीं शायद पानी उबल रहा था | राज ने भी कॉल को नहीं काटा और झप्पी दिए लेटा रहा और आँखे मूंदे सोचता रहा | यह उसके जीवन का पहला मौका था जब राज को उसके बांहों में होने का एहसास हो रहा था | वह आराधना की उस अनदेखी और कानो सुनी मीठी सी नींद और चढ़ती उतरती साँसों की ध्वनि में असीम आनंद और अपनापन का एहसास महसूस करता रहा |

भले ही आज तक दोनों मिले ना हों पर यह फ़ोन का सिलसिला और मेसेज भेजने का क्रम जारी है | और यह दोस्ती दिन-बा-दिन अटूट होती जा रही है | देखते हैं किस्मत इस दोस्ती को कहाँ और कितना आगे लेकर जाएगी |

कुछ देर बाद राज भी अपने सपनों में खो गया | कॉल कटी या नहीं ? यह पहेली फिर कभी सुलझाई जाएगी | फिलहाल आप इस दोस्ती के बारे में सोचिये और इस कहानी का आनंद लीजिये | 

गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

जीवन - मृत्यु

जेठ की सुबह जब ‘प्रालेय’ बिस्तर से उठकर बैठा तो दिल में कुछ अलग सा एहसास अंगड़ाईयां ले रहा था | ह्रदय विचलित हो रहा था और नामालूम क्यों एक अनकहा सा डर दिल को ज़ोरों से धड़का रहा था | कुछ सोचते हुए उसने इधर-उधर नज़रें दौड़नी चाहि पर अलसाई अधखुली आँखों ने धुंधले परिदृश्य सामने उकेरने शुरू कर दिए | हथेलियों को ऊपर उठा धीरे से पलकों को मूँद कर अर्ध-निंद्रा से बोझिल होती आँखों को मसलना शुरू किया और जोर के अंगडाई के साथ बड़ी सी जम्भाई ली | 

“जय श्री राम”, का नाम लेते हुए उसने फिर अपनी दोनों हथेलियों में भगवान् की उकेरी हुई लकीरों को धीरे से चूमा और मन ही मन प्रभु को धन्यवाद् करने लगा | 

“हे प्रभु! आपने मुझे जो जीवन प्रदान किया है मैं उसके लिए आपका धन्यवाद् करता हूँ | आप ही हैं जिन्होंने मेरा परिचय जीवन से करवाने हेतु इस धरा पर अवतरित करने के लिए मेरी माता के रूप में मेरे लिए सबसे सुन्दर अप्सरा को भेजा | आप ही हैं जिन्होंने जीवन यापन के लिए मेरे पिता को मेरे रक्षक के रूप में ज़ालिम संसार से लोहा लेने के लिए और मेरे सर पर बरगद सरीखी छाँव बना कर रखने के लिए अपने आशीर्वाद के रूप में भेजा | आप ही हैं जिन्होंने छोटी माँ के रूप में मुस्कुराता चेहरा लिए मुझसे लड़ने, झगड़ने, जिद करने और अपनी मनमानी करने के लिए और एक सच्चे दोस्त की तरह दोस्ती निभाने के लिए मेरी छोटी बहन को इस संसार में मेरा साथ निभाने के लिए भेजा | आपकी इस परम पूजनीय कृपा दृष्टि के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ और आपके इस उपकार और कृपा दृष्टि के लिए मैं सदैव आपका ऋणी और हमेशा आभारी रहूँगा | प्रारब्ध की ऐसी पूँजी प्रदान करने के लिए आपको कोटि-कोटि नमन |”

इतना कुछ अपने ह्रदय में सोच कर उसने नीचे झुक कर धरती माता को उँगलियों से स्पर्श कर माथे से लगाया, उनका शुक्रिया अदा किया और बिस्तर से उठ खड़ा हुआ | 

चप्पल पहन मोबाइल उठा कर सीधा दौड़ कर घर की छत पर पहुँच गया | मुंडेर पर हाथ टिका उदय होते सूर्य देवता की आभा को निहारने लगा | मन ही मन में अरुणोदय को अपने प्रकाश से इस समस्त जग को प्रकाशमान करने के लिए प्रणाम किया और फिर उनके अलौकिक चमत्कार को पूर्ण होते हुए निहारता रहा | 

भोर का समय था | आसमान पर एक भीनी-भीनी लालिमा का अनावरण था | मंद-मंद पुरवाई उसके गालों को छु शरीर में सिहरन बढ़ा रही थी | पक्षी नभ में कल्लोल करते विचरण कर रहे थे | क्षितिज तक फैले व्योम में विचरते परिंदे और उनका चहचहाना ह्रदय को आत्मविभोर कर रहा था | बादलों की कतारें नव-निर्मित गगन में ऐसी प्रतीत हो रहीं थीं जैसे कोई भाप-यंत्र से निकलती धुएं की लकीरें हों | दूर तक फैले दृश्य में यदि आँख उठा कर देखो तो सिर्फ ऊँची-ऊँची इमारतें और सड़क से आती वाहनों की गड़गड़ाहट, पों-पों करती भोंपू का शोर सुनती गाड़ियाँ कानो में हलाहल घोल रही थीं | परन्तु पास के मंदिर में बजती घंटियाँ, पिछवाड़े की मस्जिद से गूंजती अज़ान की ध्वनि और पड़ोस वाली चाय की दुकान में धुलते, पटकते बर्तनों की मिश्रित ध्वनियों ने इस शानदार प्रभात-बेला में चार चाँद लगा दिए थे | 

छत पर बने अपने छोटे से बागीचे को निहारता रहा और उन में नव अंकुरित पुष्पों को सजीव हो झूमते देख कर उसका ह्रदय गद-गद हुआ जा रहा था | जेब से मोबाइल निकाल खिलखिलाते पत्तों, फूलों, और उन पर मंडराते जीव जंतुओं का छाया चित्र निकाल उसने उन पलों को अपने मोबाइल की एल्बम में कैद कर लिया | काफी देर ‘प्रालेय’ खड़ा रहकर कुदरत की इस अद्भुत और विहंगम चित्रकारी का रसपान करता रहा | फिर वापस अपने कमरे में लौट आया और बिस्तर पर लेट गया | अभी भी थोड़ा सा आलास चित्त में अठखेलियाँ कर रहा था | अभी एक और छोटी से झपकी लेने की सोच ही रहा था कि तभी आवाज़ आई, 

“बेटेजी उठ गए क्या ? राजा साहब की सवारी नाश्ते पर कब तशरीफ़ ला रही है ? मुहूर्त निकला या नहीं अभी तक या किसी को पत्रा ले कर भेजूं ?” 

“आता हूँ माँ | आप भी कभी चैन से सोने नहीं देती हो | आपको पता कैसे चल जाता है इस सब का ? मैं जाग रहा हूँ या सो रहा हूँ ?” 

“मैं माँ हूँ तुम्हारी तुम मेरी माँ नहीं हो | समझे ? अब ज़रा आने का कष्ट करो वरना चाय ठंडी हो जाएगी | महानुभव् अपने चरण कमलों को थोड़ी यातना दो और ऊपर आ जाओ | तुरंत |”

वो उठा और बालों को खुजलाते नाश्ते की मेज़ पर जा बैठा | 

“आइये ज़िल्लेसुभानी ! तशरीफ़ का टोकरा उठाये किधर को आये मियां ? आज इतनी सुबह इधर का रास्ता कैसे भूल गए जहाँपनाह ? अभी तो सिर्फ छह ही बजे हैं | आज सूरज देवता ज़रूर पश्चिम नहीं दक्षिण से निकले होंगे...जो आपके दर्शन इस समय हो गए |” छोटी बहन ने सुबह-सवेरे से चुटकी लेना प्रारंभ कर दिया | 

“चुप कर जा, दिमाग ना खा यार | आज पता नहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा | अचानक से सुबह आँख खुल गई और मन में विचित्र विचारों के सैलाब उमड़ रहे हैं | पता नहीं क्या होने वाला है |”

“लो भई...! और सुनो लेखक महोदय आज भोर से ही जाग उठे | चाय पीयो भाई चाय | दिमाग ज्यादा ना चलाओ | दिल ठंडा रख भाई | चिल्ल कर यार |”

अचानक...! मोबाइल की घंटी बज उठी | माँ ने फ़ोन उठाया | 

“हेल्लो...कौन ?”

“अरे! मैं बोल रहा हूँ दीदी...कैसी हो ?” 

“ठीक हूँ...तू बता कैसा है | इतनी सुबह कैसे फ़ोन किया आज ? लगता है रात भर मेरी याद में सोया नहीं तू तभी आवाज़ में आलास भरा है तेरी | घर पर सब कैसे हैं ?”

“दी...कुछ ठीक नहीं है | मम्मी की तबीयत बहुत ख़राब है | अचानक से बिगड़ गई | दो दिन हो गए अस्पताल में एडमिट हैं | डायलिसिस पर हैं | हो सके तो आ जाओ | मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है | दिल बहुत घबरा रहा है |”

इतना सुनते ही माँ कुर्सी पर धक् से बैठ गईं | ‘प्रालेय’ उठा और फ़ोन माँ के हाथ से लेकर बात करने लगा |
“हाँ...क्या हुआ कौन ?”

“अरे यार मैं बोल रहा हूँ | तू आजा यार | मम्मी अस्पताल में है | सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया | एक दम से पता नहीं क्या हो गया | दो दिन हो गए भर्ती हुए | उनके गुर्दों में संक्रमण हुआ है | वो डायलिसिस पर हैं पिछले दो दिन से |”

प्रालय बोला – “दो दिन से क्या कर रहा था ? आज बता रहा है | आ रहा हूँ फ़िक्र ना कर | बस पहुँचने में जो समय लगेगा उतना सब्र कर | बाक़ी बात आकर करूँगा | चल बाय |”

फ़ोन काट सीधा माँ के पास गया, उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर बोला “कुछ नहीं होगा माँ | उनके साथ हम सब हैं | मैं जा रहा हूँ | अभी तुरंत निकलता हूँ | जैसी भी स्तिथि होगी मैं ख़बर करता रहूँगा | आप चिंता ना करो | आपकी सेहत पर असर पड़ेगा | फिर ब्लड प्रेशर बढ़ जायेगा |”

दस मिनट में तयार होकर प्रालय घर से निकल पड़ा | बस पकड़ी और सीधा घर पहुँच गया | भाई इंतज़ार कर रहा था | पहुँचते ही उसने पुछा, “अब कैसी तबीयत है ?”

भाई बोला – “अरे यार ! बस पूछ मत | बस यह समझ ले ऊपर वाले ने सुध रख ली | अब सेहत में सुधार है थोड़ा पर स्तिथि चिंताजनक बनी हुई है | सबके हाथ पैर फूल गए थे इसलिए पहले फ़ोन कर के बता नहीं पाया | चल अस्पताल चलते हैं मैं तो तेरा ही इंतज़ार कर रहा था |”

भाई ओ गले लगा कर उसने उसकी परेशानी बांटते हुए कहा, “यार सब सही होगा | फ़िक्र क्यों करता है | अब तो मैं भी आ गया हूँ | हम दोनों सब संभाल लेंगे |”

मोटरसाइकिल उठा कर दोनों अस्पताल पहुंचे | आज बरसों के बाद फिर कोई अपना ऐसी जगह था जहाँ प्रालय को जाना कभी अच्छा नहीं लगता था | पिछली दफ़ा भाई की तबीयत बिगड़ने पर उसने वो पंद्रह दिन वहां कैसे बिताये थे यह वो ही जानता था | आज एक बार फिर उसी जगह खुद को पाकर उसका मन फिर से विचलित हो उठा था | 

भरी क़दमों से वो भाई के पीछे पीछे कमरे की और चल पड़ा | कमरा नम्बर - २०३ में जैसे ही दाख़िल हुआ एक बार को तो उसकी आँखें भर आईं | अस्पताल का माहौल उसे कभी पसंद नहीं था | डॉक्टरों से तो उसका छत्तीस का आंकड़ा था | कमरे में जाते ही पहला दृश्य देखा कि बिस्तर पर सफ़ेद चादर बिछी हुई है | सिरहाने पर लगी लम्बी रौड और उस पर लटकी ग्लूकोस की बोतल और साथ में इंजेक्शन की शीशी | उससे जुडी सुई और पाइप जिसका दूसरा सिरा उनकी हथेली के ऊपर वाले हिस्से में घुसा हुआ है | हाथ सूज कर कुप्पा हो रखा है | वो बेसुध बिस्तर पर लेटीं हैं | 

बराबर में रखी बैंच पर एक गद्दे पर सफ़ेद चादर लिपटी है और उस पर मौसी बैठी हैं | प्रालेय भी चुप चाप सिरहाने बैठ गया | भरी हुई आँखों से उनके चेहरे पर उभरते पीड़ा के भावों को पढ़ना प्रारंभ कर दिया | तकरीबन पंद्रह मिनट तक वो ख़ामोशी का जमा ओढ़े टकटकी बांधे तकता रहा | भगवान् से उनकी सलामती की दुआ करता रहा | फिर हिम्मत जुटा कर भरी आवाज़ में मौसी से पुछा, 

“अब तबीयत कैसी है ?”

कहने को तो बिस्तर पर जो लेटीं थीं उसकी मामी थीं पर प्यार हमेशा माँ की तरह किया था | हमेशा हंसती और खिलखिला कर बात करने वाली जीवंत महिला आज दर्द से बेचैन गफलत में खामोश बिस्तर पर लेटीं थी | चाहते हुए भी प्रालेय उनसे आज हमेशा की तरह हंसी मज़ाक नहीं कर सकता था | 

मौसी ने उसकी कमर को सहलाया और सर पर हाथ फेरकर बोलीं – “परेशान मत हो | अब तबीयत पहले से बेहतर है | बस खैर हो गई | ये समझ दूसरा जीवन मिला है | अचानक से दोनों किडनियों ने काम करना बंद कर दिया था | पूरे शरीर में इन्फेक्शन फैल गया था | शुगर इन्हें पहले से ही हैं | अभी एक हफ़्ता पहले आँख का ऑपरेशन हुआ था | उसी की कोई दवाई थी जिससे रिएक्शन हो गया और बस यहाँ पहुंचा दिया | पर अब धीरे धीरे सेहत में सुधार हो रहा है | समय पर सही डॉक्टर द्वारा सटीक उपचार मिलने से स्तिथि काबू में आ गई |”

यह सुन प्रालय की जान में जान आई | तुरंत मोबाइल से माँ को घर पर फ़ोन लगाया और सारी स्तिथि से अवगत कराया | उसकी बातों को सुनकर माँ का मन भी शांत हुआ और कुछ निश्चिंतता हुई | माँ ने पुछा – “तू कहाँ है बेटा ?” वो बोला – “मैं हॉस्पिटल में ही हूँ आप फ़िक्र ना करना अब मामी के ठीक होने के बाद अपने साथ लेकर ही वापस आऊंगा | फिर बाद में आप भी आ जाना उनसे मिलने के लिए |”

“ठीक है | जो भी हो मुझे खबर करते रहना |”

“हाँ माँ – बताता रहूँगा रोज़ फ़ोन करूँगा और जो भी ब्यौरा होगा अपडेट करता रहूँगा | अब रखता हूँ आप भी अपनी सेहत का ख्याल रखना | बाए |” 

इतना कह उसने फ़ोन काट दिया | 

आज चार दिन हो गए थे हॉस्पिटल में भर्ती हुए पर मामी की हालत में कुछ ख़ास सुधार नहीं हो पाया था | उनके मुंह में छाले पड़ गए थे | थोड़े थोड़े समय के अंतराल में उन्हें चम्मच से पानी ग्रहण करवाया जा रहा था | सेहत सुधारने के लिए थोडा बहुत लौकी और खीरे का रस भी दिया जा रहा था | 

एक बेहतरीन इंसान और बेहद जिंदादिल शख्सियत की मालकिन जिनका व्यक्तित्त्व हमेशा उनकी हंसी के साथ झलकता था आज आँखे मूंदे मरीज़ बन हॉस्पिटल के बिस्तर पर अपने दर्द से लड़ रहीं थीं | यदा-कदा अपनी आँखें खोल कर आस-पास के लोगों को पहचान पाने की कोशिश करतीं | कभी धीरे से मुस्कुराने की कोशिश भी करतीं पर दर्द हर बार जीत रहा था | दर्द इतना ज्यादा था कि अपने चेहरे के भावों से उसे छिपाने की कोशिश में वो नाकाम हो रहीं थीं | उनकी टीस का आंकलन उनकी आँखों से गिरते आंसुओं से ही हो जाता था | दिन के पंद्रह से ज्यादा इंजेक्शन, दसियों ग्लूकोस की बोतलें और बिस्तर पर पड़े पड़े ना हिल-डुल पाने की स्तिथि में कोई कैसा महसूस करता होगा अब वो समझ रहा था | इसी कवायत के चलते दिन बीत रहा था | शाम हुई और डाक्टर साहब रूटीन राउंड पर चेकअप  के लिए कमरे में आये | डाक्टरी रिपोर्ट और मौजूदा हालातों को देख उन्होंने आश्वासन दिया कि अब पहले से सेहत में सुधार हो रहा है | 

बातचीत होती रही | रिश्तेदारों और भाई बन्धु के साथ वो भी कुछ इधर-उधर की बातें डॉक्टर सब के साथ करने लगा | माहौल को थोड़ा हल्का करना भी बेहद ज़रूरी था | थोड़ी इस बातचीत के पश्चात अपने डॉक्टर भी जान पहचान और रिश्तेदारी में निकल आए | फिर क्या था प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टर वाला रवैया छोड़ कर उन्होंने भी अपनापन दिखाया और रिपोर्ट्स का और गहरा अध्ययन कर सही सही स्तिथि सामने रखी | दवाइयों के साथ साथ लाफ्टर थेरेपी प्रयोग कर माहौल को हल्का किया जा रहा था | उसकी बातों से मामी का मन भी खुश हो रहा था | हंसी मज़ाक वाले माहौल में उनकी हालत में भी सुधार होने की पूरी उम्मीद की जा रही थी | उनके दर्द से कराहते चेहरे पर हंसी और मुसकराहट लाने में अब थोड़ी सी कामयाबी हासिल हुई थी | 

रोज़ की तरह रात को मामी के साथ हॉस्पिटल में रहने का फैसला कर वो ताज़ा होने और कपडे बदलने घर वापस गया | भाई और वो पिछले कुछ दिनों से रात को एक साथ उनके पास रुक रहे थे | अभी घर पहुंचा ही था कि मामा जी से उसका सामना हुआ | वो तभी दूकान से वापस लौटे थे | उन्होंने देखते ही सबसे पहले यह सवाल किया, 

“अब क्या हाल है ? क्या कहा डॉक्टर ने ?” 

लुंगी और बनियान में वो अभी नहाने जाने की तैयारी में कुर्सी का सिरहाना पकड़े खड़े थे | ऊपर से भले ही कितने ही कड़क दीखते हों परन्तु सवाल करते वक़्त प्रालेय उनकी नज़रों में छिपे दर्द और प्यार को भली भांति पढ़ सकता था | 

उसने बताया कि अब हालत में थोडा सुधार है | चिंता की बात नहीं है और मामी जल्दी ही सही हो जाएँगी | उसका जवाब सुनकर कुछ लम्हा खामोश खड़े रहे और फिर धीरे से सर हिलाकर गुसलखाने में नहाने चले गए | 

उनके चेहरे के हाव-भाव और चाल-ढाल से उनकी चिंता स्पष्ट थी | पैंतालीस वर्ष के रिश्ते में भले ही उन्होंने अपने प्यार को बोलकर कभी ज़ाहिर ना किया हो परन्तु उनके दिल में मामी के लिए जो इज्ज़त, सम्मान और प्यार का अपार भण्डार छिपा था वो आज उसने पहली बार मामा की आँखों को पढ़कर महसूस किया था | उसे अच्छे से मालूम हो गया था कि उनके दिल में मामी की एक खास जगह है जिसे वो कभी भी बोल कर किसी के भी सामने बयां नहीं कर सकते | वही लोग जो उन्हें दिल से समझते हैं वे ही उनकी आँखों से झलकती उस चिंता और प्यार को पढ़ सकते हैं |

सारी रात उसने हॉस्पिटल में बैठे बैठे आँखों में गुज़ार दी | कहीं मामी को किसी चीज़ की ज़रुरत ना पड़ जाए | रात भर एक नई और आशा की किरण लिए आने वाली सुबह का इंतज़ार लगा रहता | बस यही सोचता रहता कि कब वो एक बार फिर से अपने भाइयों, मामी और परिवार जन के साथ घर पर फिर से हंसी-मज़ाक के उन पलों को जीवंत देख सकेगा | सब के साथ बैठकर एक दफ़ा फिर से मामी के साथ छेड़खानी और ठीठोली करेगा | कब मामी अपने अंदाज़ में एक बार फिर उसे कहेंगी – 

“हम से मज़ाक करते हो रुक जाओ आने दो तुम्हारे मामा को उनसे शिकायत कर देंगे |” 

यही सब सोच विचार करते भगवान् से प्रार्थना कर रहा था की उसकी मामी जल्द से जल्द स्वस्थ और तंदुरुस्त होकर घर वापस आ जाएँ | ईश्वर उन्हें लम्बी आयु और निरोगी रखे | उनका घर संसार हमेशा हँसता, खिलखिलाता और मुस्कुराता रहे | सभी रोग मुक्त रहें | उनका साया और आशीर्वाद सभी बच्चों पर सदा बना रहे | इन सब ख्यालों में पता ही नहीं चला कब सुबह हो गई | पूरी रात ऐसे ही आँखों-आँखों में कट गई | 

तकरीबन ग्यारह बजे डॉक्टर राउंड पर आया और परीक्षण कर बोला ठीक ही चल रहा है सब | आज एक और डायलिसिस होगा | घर से भाई भी आ गया था | सब कुछ सही चल रहा था | सब यही सोच रहे थे की अब सेहत में सुधार है और दो तीन डायलिसिस के बाद बस घर भेज देंगे | परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था | एक बजे उन्हें डायलिसिस रूम में ले जाया गया | तब तक सब कुछ ठीक था | दिल ना होते हुए भी प्रालेय अपने छोटे भाई की जिद पर उसके साथ घर तयार होने चला गया | मामी के साथ बड़े भैया थे और मौसी का बेटा था | थोडा हंसी मजाक करते मामी के ठीक होने की राह तकते सब इसी इंतज़ार में थे कि अब सब सही होगा | अभी दोनों घर पहुंचे ही थे कि उसके मोबाइल की घंटी बजी और दूसरी तरफ से आवाज़ आई – 

“यार बहुत गड़बड़ हो गई जल्दी आ हॉस्पिटल – तुरंत .... !!!” 

उसने भाई को आवाज़ लगाईं और उलटे पाऊँ दोनों वापस हो लिए | गोली की तेज़ी से मोटरसाइकिल दौड़ाते वापस पहुंचे तो सन्न रह गए | मामी आई.सी.यू में थीं | उन्हें बिजली के झटके दिए जा रहे थे | लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर उनका शरीर निर्जीव अवस्था में प्राणरहित मिटटी हुआ रखा था | डॉक्टर, नर्स और बाकि सभी भाग दौड़ कर रहे थे | कोई ऑक्सीजन लगा रहा था कोई उनके मुंह में बॉल पंप कर रहा था | पंद्रह मिनट के भीतर सारा नज़ारा ही बदल गया था | आख़िरकार सभी कोशिशें व्यर्थ हो गईं | 

डॉक्टर ने बहार आकर सर हिला कर कहा – “नहीं”

इतना सुनते के साथ ही सबकी कहानी वहीँ रुक गई | प्रालेय वहीँ एक कोने में खड़ा सब कुछ देखता रहा | ना रोते बनता था न कुछ कहते | बस एक टक मामी की तरफ देख रहा था | उनके साथ बिताया हर एक लम्हा सिनेमा की तरह उसकी नज़रों के सामने घूम गया | पर इस बार मामी धोखा दे गईं | सबके साथ छुट्टियों में घूमने चलने का वादा था | अब अकेले ही घूमने निकल गईं | विचार कितने ही उसके विचलित दिल में पनपते रहे | विचारों के चलते आंसू तक सूख गए | आँखें वीरान और खुश्क थीं | जीवन और मृत्यु का तमाशा भी उसने बहुत करीब से देख लिया था | जो अभी साथ था वो अगले ही पल रेत की भाँती हाथों से फिसल गया और साथ छोड़ गया | जीवन और मृत्यु का अर्थ अब उसकी समझ आ गया था | जो आया है उसे तो जाना ही है | इसलिए जाने वालों को रोकर विदा करने की जगह हंस कर विदा करो | जिस से वो उस संसार में भी वैसे ही खुश रहें जैसे यहाँ आपके साथ थे | 

कमबक्त ज़िन्दगी बहुत कुत्ती शय है, ये ना जाने क्या-क्या देखने, झेलने और सहने को विवश कर देती है | आज भी जब मामी की याद आती है तो आँखें पत्थर हो जाती है और प्रालेय थोडा सा उदास हो जाता है पर फिर उनकी मुस्कान को याद कर जीने का हौसला जगाता है, आगे कुछ नया देखने के लिए और एक नई शुरुवात के लिए तयार हो जाता है |

किसी ने सच कहा है ना - एक समृद्ध, जिंदादिल और खुशहाल जीवन जीने का रहस्य है - नई शुरुवात ज्यादा और अंत कम से कम :)

सोमवार, दिसंबर 09, 2013

नथिंग - समथिंग - एवरीथिंग

‘निहार’ शाम से अपने शयनकक्ष में अकेला बैठा है | सोच रहा है कि अपने आप को किस तरह से मसरूफ़ रखने की कोशिश करे | समय विपरीत चल रहा है | कुछ एक ही साथ देने को रह गए हैं | ज़रूरत के समय में साया भी साथ छोड़ देता है यह तो दुनियादारी वाले लोग हैं | सभी हाथ छुड़ा अपने-अपने रास्ते निकल लिए हैं | परन्तु उसके साहस और धैर्य में कोई कमी नहीं आई है | शांत रहकर होठों पर मंद मुस्कान लिए अपने असह्य समय के साथ संघर्ष रहा है | तंगहाल ज़हन को अब रफ़ू की ज़रूरत आन पड़ी है पर ख़ुशी बहुत है | ज़हन में सुकून का सैलाब पैवस्त है | अपने इसी जोश और जज़्बे को दिल में लिए वह हर पल ज़िन्दगी में आगे बढ़ रहा है | शांति, सब्र, धर्य और सहनशीलता उसके चरित्र की खासियत हैं जिनके सहारे से अपनी ज़िन्दगी में जितना उसे मिला है उसे संजोये खुदा का शुक्रिया अदा करता है | यार दोस्त जो इस समय में उसके साथ हैं उन्हें दिल से सलाम और प्यार भी करता है | जो दिल में आता है करता है और जो भी सोच के सैलाब में उमड़ता है वही कलम उठा कर कागज़ पर शब्दों में सज़ा कर उतार देता है | आज भी एक ऐसी ही कहानी दिल-दिमाग में सुनामी बन कर आगे बढ़ रही है | अपने अन्दर उठते इस सैलाब को आज शब्दों में यहाँ उतार रहा है |

अपने आसपास के लोगों में यदि झाँक कर देखता है तो एक ही नाम याद आता है ‘सारिका’ | उसके इर्दगिर्द ही इस कहानी का तानाबाना बुनने बैठ जाता है | स्याही और शब्दों के अताह सागर में डुबकियाँ लगता है | अपनी सोच के आकाश में धूमकेतु बन उसका मन कुछ नए और काल्पनिक ख्यालों में उड़ान भरने लगता है |

‘सारिका’ - तुम ही एकमात्र ऐसी शख्स हो जो शायद मुझे सही और पूरी तरह से समझ सकती है | पर तुम्हे भी तो अपने से दूर...बहुत दूर कर रखा है मैंने जैसे तुमने मुझे अपने से जुदा...एकदम जुदा रखा है |

आज रह-रह कर तुम्हारी बहुत याद आ रही है | एक सूनापन महसूस हो रहा है |  बीते वक़्त के गुज़रे पलों में जीने को दिल कर रहा है |  मुझे याद आ रहा है कैसे तुम्हे चुपके से मैंने पहली दफ़ा सबसे नज़रें चुराकर देखा था | दूसरों की नज़रों से बचते बचाते टेड़ी कनखियों से तुम्हे पहली बार लाल साड़ी पहने देखा और अपना सब कुछ हार बैठा था | तब से लेकर आज तक तुम्हारी छवि मेरे ह्रदयपटल पर अंकित है | अब तुम इसे मेरा बचपना कह लो या कुछ और पर सिर्फ तुम ही मेरी सच्ची दोस्त, हमदम, हमसाया और हमराज़ हो |  तुम्हारी उन शोख अदाओं और नरगिसी मुस्कान पर मन फ़िदा हो गया है |  रोज़ाना तुम्हे ऐसे ही नज़रें चुराकर देखना आदत बन गया है | जहाँ तहाँ रास्तों पर, बस स्टॉप पर, मेट्रो में, भीतर-बहार, घर के सामने हर एक शख्स में तुम्हारा अक्स नज़र आने लगा है | तुम्हारी एक झलक पाने की उत्सुकता दिल में लगातार बनी रहती थी |

मुझे याद है जब तुमने उस दिन नज़रें उठाकर पहली बार जब मुझे देखा था और फिर झट से नज़रें बचाते हुए तुम इधर उधर देखने लग गईं थी | ऐसा लगा था जैसे मुंडेर पर बैठी कोई चिड़िया आस पास गर्दन घुमाकर कुछ ढूँढ रही है | तुम इतनी व्यस्त होती नहीं हो जितना तुम दिखाने की कोशिश करती हो | थोड़े ही समय में हमारी दोस्ती इतनी मज़बूत हो जाएगी कभी सोचा ना था | पर अब शायद दोस्ती से आगे बढ़ने का मक़ाम आ गया है | बातें तो तुम भी खूब बना लेती हो | पर शायद दिल की बातें ज़बां तक आते आते मन की काली अंधरी कोठरी में कहीं गुम हो जाया करती हैं | बातों के दरमयां सवालात के वक़्त तुम्हारा जवाब में ‘नथिंग’ कहना बहुत कुछ कह देता है | देखो तो! इतनी बहस, लड़ाई झगड़े, तू-तू मैं-मैं के बाद भी हम तुम दोस्त है | हमारे बीच एक दुसरे से नाराजगी फिर रूठना मानना भी खूब होता है पर आज भी तुम्हारे और मेरे बीच यह मुआ ‘नथिंग’ ही चल रहा है | आज तुम अपने आप में व्यस्त हो...शायद कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो और मैं अपने आप में | हम दोनों शायद एक ही सोच वाले बाशिंदे हैं पर फिर भी एक दुसरे से बहुत अलग हैं |

आज तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है |  एक फ़ोन करने तक की फ़ुर्सत नहीं है |  मैं भी तुम्हारी तरह व्यस्त हो सकता हूँ |  अपनी व्यस्तता का उलाहना दे कर तुम्हे भुला सकता हूँ पर ऐसा करने के लिए दिल गंवारा नहीं करता |  दोस्त हूँ तो दोस्ती निभाना जानता हूँ | मेरे व्यस्त होने का मतलब यह कतई नहीं कि मैं तुम्हे भुलाना चाहता हूँ | मैं तो अपना हर पल तुम्हारे साथ ही गुज़ारना चाहता हूँ | कितना कुछ पाना चाहता हूँ पर इस कितने कुछ को पाने की दौड़ में तुम्हे नहीं खोना चाहता | ऐसा न हो के सब कुछ पाने के चक्कर में जीवन तुम्हारे बिना ‘नथिंग’ बनकर रह जाये | मैं तो अपनी हर ख़ुशी, हर ग़म, हर बात, हर सफलता, हर विफलता, जीवन का हर एक लम्हा, हँसना, रोना, मुस्कुराना, गुनगुनाना, तुम्हारे साथ बांटना चाहता हूँ पर किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर है | वो बेचारी तो अब तलक ‘नथिंग’ पर अटक कर रह गई है |

तुम ही तो हमेशा मुझ से कहती हो,

“तुम्हे समझना बहुत ही मुश्किल है | तुम कितने ‘जटिल’ हो | बहुत ही ज्यादा रहस्यात्मक व्यक्तित्त्व वाले इन्सान हो | क्या हो तुम ?”

मैं भी हंसकर जवाब में बस इतना ही कहता हूँ ‘नथिंग’... क्योंकि शब्दों में बता नहीं सकता और हर बात तुम्हे जताना मुनासिब भी नहीं हो पाता | इधर उधर की बातें होती ही रहती हैं | ऐसा हुआ-वैसा हुआ लगा रहता है | यहाँ गए-वहां गए, ये किया-वो किया, यह खाया-वो पिया सब कुछ कितनी सरलता से व्यक्त हो जाता है पर जो बात वास्तव में व्यक्त करनी होती है वहां तक पहुँचते ही शब्दों पर विराम लग जाता है और सिर्फ ‘नथिंग’ ही सामने उभर कर आता है | ऐसा नहीं है मैं तुम्हे या तुम मुझे समझते नहीं हैं | तुम्हारी अनकही और अनसुलझी बातों को मैं बखूबी महसूस करता हूँ और शायद तुम भी करती हो पर कहना कैसे है वो समझ नहीं आता है | कभी कभी जीवन में हम जानते हैं हमें क्या करना है और क्या कहना है पर परिस्थितियों के चलते कभी अपने आपको ज़ाहिर नहीं कर पाते | पर शायद जीवन में जीने के लिए जितना ज़रूरी सांस लेना होता है उतना ही ज़रूरी है अपने विचारों को समझाना और उन्हें व्यक्त करना भी होता है | मुझमें यह सबसे बड़ी खामी है मैं अपनी बातों को बिना कहे नहीं रह सकता | मैं जो जिसके बारे में महसूस करता हूँ उसे बिना वक़्त गंवाए उनके ह्रदय तक अपने अंदाज में पहुंचा ही देता हूँ | तुम्हारा मुझे पता है तुम अपने आप को कैसे व्यक्त करती हो ?

हमारे जीवन में बहुत कुछ घटता रहता है, बहुत से बदलाव आते हैं | बहुत से लोग मिलते हैं बहुत सी बातें होती हैं | ऐसा भी होता है कि कभी-कभी दूसरों की आदतों को हम देख और समझ कर अपने जीवन में अपना लेते हैं | ऐसी ही तुम्हारी कुछ आदतें हैं जो मैंने अपने जीवन में अपनाई हैं और मेरी कुछ बातें हैं जिनको शायद तुम भी अपनाने के बारे में सोचती तो ज़रूर होंगी | अब ये तो पता नहीं चल पाया है कि कब कैसे तुम्हारी पसंद मेरी हो गई है या मेरी तुम्हारी होने की उम्मीद है पर मुझे पूरा यकीन है यदि इस बारे में भी तुमसे कभी कुछ बात होगी तब भी तुम्हारा जवाब एक ही होगा ‘नथिंग’ या फिर ‘नथिंग लाइक दैट’ |

आज भी शाम से तुम मेरे साथ बात कर रही हो | तुम साथ भी हो और दूर भी हो | बहुत से विचारों का आदान प्रदान हो रहा है | फसबुक पर ख़ूब कमेंट्स आ रहे हैं, चैट हो रही है और फिर व्हाट्सऐप पर भी वार्तालाप निरंतर चल रहा है |

बातों के बीच मेरा यह यह सवाल करना के ‘क्या हुआ’ या ‘और क्या हो रहा है’, ‘क्या कर रही हो?’ जैसे सवाल पूछने पर तुम्हारा रटा-रटाया जवाब आता है ‘नथिंग’...अभी भी कितने ही सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब अनकहे हैं और तुम्हारी ‘नथिंग’ पर अटके हुए हैं | ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होता है जब तुम मुझसे कुछ पूछना चाहती हो तब मैं भी कुछ इसी तरह जवाब देने लगा हूँ | इन सवालों के जवाब शायद एक दुसरे से मिलने की जगह हम खुद से ही पूछते रहते हैं | यदि सवाल सामने आ भी जाता है तो सहसा एक ही उत्तर ज़हन से बहार कूदकर आता है ‘नथिंग’ | यह सवालों के जवाब से बचने का सबसे उम्दा तरीका होता है | हम इससे आगे निकलकर शायद कुछ सोचना ही नहीं चाहते | मुझे तो कोई तकलीफ नहीं होती यह बतलाने में कि मैंने तुमको खुद में शामिल कर लिया है | अपनी सुबहों में और शामों में भी तुमको शामिल कर लिया है पर अभी भी कुछ फासलें हैं जो तय करने हैं | देखें तुम कब अपनी शामों को मेरे नाम करती हो, अपने दिल की सुनकर अपने दिमाग से आगे निकलती हो |

यह तो कोई भी नहीं बतला सकता के कल में क्या छिपा है | अपने हाथों की लकीरों में क्या लिखा है | बस मुझे इतना तो पता है कि एक दोस्त है जिसके साथ आज तो बाँट ही सकता हूँ क्योंकि जीवन में किसी भी इंसान से बस ऐसे ही मुलाक़ात नहीं होती है | शायद आज नहीं तो कल तुम भी मेरी इस सोच पर विचार करने के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाओगी और मेरा यकीन करने लगोगे | मेरा अपना ऐसा मानना है जीवन में रिश्ता चाहे कोई भी हो यदि वह सच्चा है तो कभी भी अस्पष्ट सोच, हालातों और परस्थितियों का मोहताज नहीं होता और यदि एक दूसरे के लिए दिल में स्नेह, आदर, सम्मान, एहसास, विश्वास और संवेदनाएं होती है तो ‘नथिंग’ से ‘समथिंग’ तक पहुँचने में देर नहीं लगती और गाड़ी आगे ज़रूर बढ़ती है |

तुम्हारी दोस्ती के कारण अब दिन भी सुहाना लगने लगा है | मौसम खूबसूरत और संगीतमय लगने लगे हैं | फूलों के रंग इन्द्रधनुषी लगने लगे हैं | गुलाब का रंग और ज्यादा गहरा सुर्ख लगने लगा है | तुम्हारे साथ उगते सूरज की पहली किरण और डूबते सूरज की आख़िरी प्रभा देखने का दिल करने लगा है | तुम्हारे दिल को पढ़ने का मन करने लगा है | तुम्हारी मुश्किलों को जानने का मन करने लगा है | तुम्हारी हर बात सच्ची और अच्छी लगने लगी है | तुम्हारे ख्यालों को अपना ख्याल बनाने का दिल करने लगा है | तुम्हे तुमसे ज्यादा जान पाने का दिल करने लगा है | तुम जो रूठ जाओ तो मनाने का दिल करने लगा है | तुम्हारे अपनों को अपनाने का दिल करने लगा है | तुम्हारे ख्वाबों की ताबीर को हकीक़त बनाने का मन करने लगा है | दोस्त की दोस्ती पर कुर्बान हो जाने का दिल करने लगा है |

विचारों का सिलसिला यूँ ही चलता जा रहा था | निहार अपनी कलम से ऐसे ही विचारों को शब्दों में पिरो कर कागज़ पर गढ़ता जा रहा था | उसके सृजन का एक-एक पल जिसे उसने अपने विचारों में जिया है आज वह सब उसके सामने कागज़ पर लिखा गया था | सोचता था कि कैसे अपने विचार और यह पत्र वह सारिका तक पहुंचाएगा | यदि नहीं भी पहुंचा सका तो कम से कम अपनी दोस्ती तो ज़िन्दगी भर वफ़ादारी से निभाएगा | बहुत कुछ लिखा और कितना कुछ कहा पर अभी भी बहुत कुछ अनकहा बाक़ी है | बहुत कुछ ऐसा है जो शब्द बयान नहीं कर पाए | कुछ बातें बताई नहीं जाती हैं सिर्फ महसूस की जाती हैं | कुछ एहसासों को हमेशा यादों में समेट कर दिल में छिपा कर रखना ही मुनासिब होता है | यह शब्दों का कारवां और कहानी का सिलसिला एक दिन थम जायेगा और जीवन भी एक दिन विराम पा जायेगा पर सोच हमेशा के लिए रह जाती है | यादों में तो कम से कम रहती ही है | अपनी सोच को दूसरों की सोच के साथ मिला कर उनके व्यक्तित्त्व और विचारधारा का आदर करने के साथ अपने चरित्र का समन्वय उनके जीवन परिवेश में करना ही तो असल ज़िन्दगी है | यही दोस्ती का प्रथम नियम भी है | जहाँ दोस्ती है वही प्यार भी है और प्यार की कोई सीमा और इन्तेहाँ नहीं होती | वह कदापि समाप्त नहीं होता | वह सिर्फ और सिर्फ महसूस किया जाता है, समझा जाता है और किया जाता है | यदि दिलों में यह है तो नथिंग को समथिंग और समथिंग को एवरीथिंग बन जाने में ज़रा भी समय नहीं लगता |

दोस्तों भले ही यह कहानी मेरी परिकल्पना है परन्तु आज के परिवेश में हमारे आसपास ऐसा कितनो के साथ घटित हो रहा है | कितने  निहार और सारिका जीवन के ऐसे किनारों पर खड़े मिल जाते हैं | जिनकी कहानी सिर्फ एक ‘कुछ नहीं’ पर अटक कर रह जाती है और कभी आगे नहीं बढ़ पाती | इसमें कभी तो परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं होती, कभी कोई संकोच आड़े आ जाता है, कभी दोनों की अना एक दुसरे को आगे बढ़ने नहीं देती है, कहीं नकारात्मक सोच साकारात्मकता पर भारी पड़ जाती है और दुसरे बहुत से कारण हो सकते हैं | अब इस कहानी का परिणाम मैं अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ | आप ही बताएं निहार और सारिका को क्या फ़ैसला लेना चाहियें ? कहानी इस मोड़ से कैसे आगे बढ़नी चाहियें और किस तरफ आगे चलनी चाहियें ‘नथिंग’, ‘समथिंग’ या ‘एवरीथिंग’....??? सभी मित्रों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में......