शनिवार, अगस्त 29, 2015

बस यही दुआ



















दिल ने दिल को दी आवाज़
जीवन का कर नया आग़ाज़
प्यार का है यह बंधन ख़ास
बहन-भाई हैं आज सरताज

सूनी कलाई पे बाँधा है प्यार
ममता जिसमें है भरी अपार
लाख़ जनम दूं तुझ पर वार
कम है जितना करूँ दुलार

बहना मेरी, तू है मेरी जान
तुझसे बढ़ती है मेरी शान
तू है मेरे मस्तक की आन
नहीं है तुझे ज़रा भी भान 

तिलक करे दिन बन जाए
गर्व से सीना यह तन जाए
आरती करने जब तू आए
आलम सारा ये थम जाए

शगुन में तुझको दूं मैं क्या
'निर्जन' की बस यही दुआ
हंसती खेलती तू रहे सदा
ग़म तुझसे रहे सदा जुदा

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, अगस्त 15, 2015

भारत स्वतंत्र हो गया है























लो फ़िर से आया कहने को स्वतंत्रता दिवस
पर मैं हूँ अड़ियल इसे ना मानने को विवश

क्या सच में अपना देश हो गया आज़ाद है?
फ़िर क्यों खत्म नहीं होता सेक्युलरवाद है

कल पकिस्तान, बांग्लादेश काटा था आज तेलंगाना है
तरीका वही है बटवारा कर देश को बेच खाना है

आज़ादी का मोल यहाँ कुछ लोग क्या ख़ूब चुकाते हैं
गरिमा हिंदुस्तान के झंडे की जूतों में रौंदते जाते हैं 

काश्मीर की आग़ में मुल्क को भड़काना और जलना है
सेक्युलरवाद के चूल्हे पर राजनैतिक मंसूबा पकाना है

करते हैं तार-तार अस्मत आतंकी भारत माता की यहाँ
वो पीटते हैं डंका ईमानदारी-भाईचारे का बैठकर वहाँ

सामने आकर जो भाई कहकर गले से लगते हैं
ख़ंजर लिए आस्तीन में  वही पीछे से वार करते हैं

वो जो बनाते हैं आपसे बातें मीठी कई-कई-कई
दिल-दिमाग-सोच से होते हैं सच में शातिर लोग वही

जहाँ देश को बेचने वाला ही आज देश पे राज करता है
वहाँ देशभक्त कोख़ का जाया बेमौत सूली पर चढ़ता है

आतंक और घोटालों में बढ़ गया है देश बहुत आगे
वाह..! देखो तो लोगों के इमां सच में हैं कितने जागे

फ़र्ज़ी, दोगले, भ्रष्ट, धूर्त, पाखंडी खच्चर ज़ाफ़रान उड़ा रहे हैं
देशभक्त, इमां वाले, उसूल पसंद घोड़े सूखी घास चबा रहे हैं

नक़ाबपोश, मतलबपरस्त, झूठा हर एक शख्स दिखता है यहाँ
कभी सच की मूरत, न्याय पसंद महाराजा हरिश्चन्द्र जन्मे थे जहाँ

बे-ईमानी, बहसखोरी, लड़ने, भिड़ने को हर एक आमादा है
गोया चुनाचे सच को सच मान लेने में किसी का क्या जाता है

क़ानूनी शिकंजे में जकड़ा कोई मासूम भूख-प्यास से मरा जा रहा है
वहीं एक नापाक आतंकी यहाँ दामाद बनकर पकवान उड़ा रहा है

आज लहू सबका बदरंग, सफ़ेद, ठंडा, मिलावटी हो गया है
देशभक्ति वाला वो जज्बा अब तक़रीबन खत्म ही हो गया है

क्या ऐसी प्रगति की रफ़्तार ही उम्दा मिसाल देती है?
जो भी हो भारत माँ तो आज भी फटेहाल ही रहती है

अपनी खुदगर्ज़ी की कब्र में हर एक बाशिंदा चैन से सो गया है
लो सुनो अभी भी वो कहते हैं 'निर्जन' भारत स्वतंत्र हो गया है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अगस्त 11, 2015

आशारों पे जवानी आई















इंतज़ार जिसका था एक ऊम्र से यारों मुझको
नासाज़ तबियत का सुन दौड़ी वो दीवानी आई

रोज़ गुजरतीं थीं शामें मदहोश उसके पहलु में
साथ उसके सुकून और ख़ुशी की कहानी आई

जुम्बिश नहीं थीं जिन काफ़िर नसों में अब तक
देख उसको लहू में फ़िर से पुरज़ोर रवानी आई

लगता था बीत जाएगी ज़िन्दगी अब तनहा यूँ ही
बाद मुद्दतों के फिर एक नई शाम सुहानी आई

किया करता था बातें रोज़ ख़ुदसे उसके बारे में
मिलीं नज़रें तो बात नज़रों से भी न बनानी आई

अरसा बाद दिया मौका उसने ग़ज़ल बनाने का
'निर्जन' ख़ारे अश्कों से आशारों पे जवानी आई

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #आशार

रविवार, अगस्त 09, 2015

राहगीर हूँ मैं














मेरी ताबीर-ए-हुस्न तेरा दिल-ए-दिल-गीर हूँ मैं
तेरे मचलते ख़्वाबों की इबारत-ए-ताबीर हूँ मैं

कल तलक थे बुझे ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात मेरे
आज रौशन-रू तेरे इश्क़ की एक तस्वीर हूँ मैं

दिल-ओ-जिस्म-ओ-जाँ से तेरा हूँ तू ही संभाले
दम-ए-दीगर से महकी शोख़ी-ए-तहरीर हूँ मैं

बुझ रह था मैं हर पल ज़िंदगी-ए-क़फ़स में 
आजकल इश्क़ में तेरे सहर-ए-तनवीर हूँ मैं

शरीक-ए-हयात हो जाए काश तू जल्दी मेरी
वस्ल-ए-जानाँ को तरसता हुआ राहगीर हूँ मैं

ताबीर-ए-हुस्न: interpretation of beauty
दिल-ए-दिल-गीर
: heart attracting heart,appealing heart
इबारत
: composition
ताबीर
: interpretation, explanation, elucidation
बुझे
: extinguished
ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात
: features of life
रौशन-रू
: bright faced
दम-ए-दीगर
: breath
शोख़ी-ए-तहरीर
: playfulness/mischief of writing mischievous writing, jotting
ज़िंदगी-ए-क़फ़स
: cage of life
सहर-ए-तनवीर
: morning brightness
शरीक
: a partner,a colleague,a comrade,a friend
वस्ल-ए-जानाँ
: union with beloved

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #तड़प

लघुकथा: बैसाखियाँ

किसका समय कब बदल जाए किसको को कुछ मालूम नहीं होता। आज गोविन्द असहाय है और अपनी लाचारी पर अक्सर मलाल करता है। कल तक जो हवा में उड़ा फिरता था आज ज़मीन पर रेंगने लायक भी नहीं रहा। एक हादसा उसकी दोनों टाँगे छीन ले गया। बड़ी ही मुश्किल से वो आज बैसाखियों के सहारे अपने जिस्म को आगे धकेल पाने की जद्दोजहद में लगा रहता है। आदत नहीं थी ना और ना कभी सोचा था कि जीवन में यह दिवस भी देखना होगा।

अभी कल की ही तो बात लगती थी जब वो अपने कॉलेज के मुख्य द्वार के सामने बैठने वाले एक बेचारे दुकानदार की खिल्ली उड़ाया करता था और उसको लंगड़ा कहकर पुकारा करता था। कई दफ़ा दुत्कार कर या अपनी मोटरसाइकिल उस पर चढ़ाने का झांसा देकर उसे बे-इज़्ज़त और डराया-धमकाया भी करता था। इसपर भी जब उसका दिल परेशान करने से ना मानता तो उसकी पुरानी बैसाखियाँ छिपा दिया करता या लेकर भाग जाया करता और वो बेचारा बैठा घंटो इसके लौटने की बाट जोहता रहता परन्तु आज समय की लाठी की गाज ने उसे गूंगा कर दिया था। वो बैसाखियों पर चलता तो जा रहा था पर ये नहीं मालूम था किधर जाना है। अपनी मानसिक उधेड़बुन से लड़ते हुए वो घर से दूर सड़क के किनारे पहुँच गया था। हर तरफ़ शोर और वाहनों का शोर मचा था। वो सड़क पार करे तो कैसे? यही सोच कर बड़ी देर से चिंतित खड़ा था। कल जो मानसिक रूप से अपाहिज था आज वो देह से भी विकलांग हो गया था और लाचार था। तभी एक भले मानस से मदद का हाथ बढ़ाया और सड़क पार करा दी।

सड़क तो पार कर ली पर मस्तिष्क में उथल-पुथल कायम थी। अपनी पुरानी ज़िन्दगी के कुछ बेहद बेहूदा दिनों को कोसता हुआ वो धीरे-धीरे बढ़ता तो चला जा रहा था पर कुछ अनसुलझे सवाल उसका पीछा छोड़ने का नाम तक नहीं ले रहे थे। शायद उस बूढ़े भिखारी की हाय लगी है मुझे...मैंने ज़िन्दगी में बहुत गुनाह किये हैं उसी की सज़ा मिली है मुझे शायद...मुझे ऐसा बर्ताव उसके साथ नहीं करना चाहियें था...बड़बड़ाता हुआ उसका अहसास बैसाखियों पर आगे तो चल रहा था पर नियति आज ज़िन्दगी को बहुत पीछे ले आई थी।

#तुषारराजरस्तोगी  #अहसास  #बैसाखी  #बर्ताव  #विकलांग  #ज़िन्दगी

शुक्रवार, अगस्त 07, 2015

लघुकथा: पश्चाताप के आंसू

नीशू अभी-अभी बाहर से आवारागर्दी करके वापस लौटा था और घर के दरवाज़े से अन्दर दाख़िल हो ही रहा था कि उसे अपनी छोटी बहन रेवती के सुबक-सुबक कर रोने की आवाज़ आई। बहन को रोता सुन दौड़ा-दौड़ा कमरे में आया और पुछा, "क्या हुआ? ऐसे रो क्यों रही है? किसी ने कुछ कहा तुझे? बता मुझे मैं मुंह तोड़ दूंगा उसका - बता तो क्या हो गया?" - और बड़े ही विचिलित मन से और सवाल भरी नज़रों से रेवती की ओर देखता रहा।

"अब बोलेगी भी या टेसुए ही बहाए जाएगी, मेरा दिल बैठा जा रहा है। बता भी हुआ क्या है?"

रेवती ने आंसू थामते और सुबकते हुए कहा, "भैया...! कल से हम कॉलेज नहीं जायेंगे। हमें उसकी हरकतें पसंद नहीं। वो लड़का रोज़ हमें परेशान करता है। गंदे-गंदे जुमले कसता और इशारे भी करता है। आज तो हद ही हो गई हम स्कूटी पर मीना के साथ कॉलेज जा रहे थे और वो पीछे से अपनी मोटरसाइकिल पर आया और मेरा दुपट्टा ज़ोर से खींच कर ले भागा। देखो, मैं सड़क पर गिर भी गई मेरे कितनी चोट आई है, खून भी निकला कितना। मैं कल से नहीं जाऊँगी वरना वो कमीना फिर से परेशान करने आ जायेगा।"

इतना सुनते के साथ ही नीशू सन्न रह गया, मानो उस पर घड़ो पानी पड़ गया हो। ऐसे कमीनेपन में तो वो भी माहिर था। सारा दिन वो भी तो यही सब करता था अपने आवारा मित्रों के साथ मिलकर, मोहल्ले के चौराहे पर खड़े रहकर। आती-जाती, राह चलती लड़कियों को छेड़ना, फितरे कसना, परेशान करना, सीटियाँ बजाना, फ़िरकी लेना और भी ना जाने क्या-क्या। छिछोरपन में कोई कमी थोड़ी छोड़ी थी उसने कभी। उसकी करनी का नतीजा आज ख़ुदकी छोटी बहन के साथ हुए दुर्व्यवहार के रूप में उसके सामने था।

उसे यह अहसास और आभास कभी ना हुआ था कि, ऐसा कुछ उसकी बहन के साथ भी हो सकता है। अब उसे समझ में आया कि जिनके साथ वो बदसलूकी करता था वो भी किसी की बहन, बेटी, पत्नी या किसी के घर की इज्ज़त थीं। आज अपने आप से नज़रे मिलाने लायक नहीं रहा था वो, आत्मग्लानि होने पर उसका वजूद उसे धिक्कारने लगा और उसका दिल स्वयं अपने मुंह पर थूकने को करने लगा। शर्म से मुंह लटकाए, सर झुकाए, धक से वहीँ बहन के पास बैठ गया और पश्चाताप के आंसू उसकी आँखों में भर आए।

#तुषारराजरस्तोगी  #लघुकथा #सामाजिकसमस्या  #बदतमीज़ी  #छेड़छाड़  #लड़कियां  #पश्चाताप  #आंसू

मंगलवार, अगस्त 04, 2015

मेरा सपना

"ऐ राज...! सुनो ना...यहाँ आओ..." आराधना ने धीरे से पुकारते हुए कहा, "मैं तुम्हे अपने सपने के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।"

राज बिस्तर पर पास आकर लेट जाता है और कहता है, "लो जी आ गया, बोलो क्या बताना चाहती हो...अब कहो भी, ऐसे क्या देखती हो...बोलो ना, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"मैं जब सो जाती हूँ तब, मेरा मन कहीं दूर लम्बी और घुमावदार राह पर भटकने के लिए निकल पड़ता है। एक लचीले और रंगीन फ़ीते की तरह वो राह मेरे सामने बिछ जाने को बेक़रार रहती है, साथ में अपनी मनमोहक अदाओं से मेरे दिमाग़ को लुभाता है...और वो मंत्रमुग्ध हो इसका अनुगमन करना शुरू कर देता है। नींद जितनी गहरी होती चली जाती है, मैं विचरण करती हुई उतनी ही दूर निकल जाया करती हूँ, किसी अनदेखे, अनजाने, अपरिचित स्थान पर दूर बहुत दूर, इस संसार से परे कहीं किसी अलौकिक और मनमोहक दुनिया के मध्य, जहाँ मेरे सिवा और कोई नहीं होता। इस राह पर चलते हुए जिन चीज़ों का सामना मेरा मन-मस्तिष्क करता है और जिस तरह के कारनामे मैं करती हूँ, वो मुझ और मेरे सपने को साहसिक की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। परन्तु उसके बाद मैं जितना भी दूर इस पथ पर आगे गहराई की ओर चलती चली जाती हूँ, सुबह जागने के पश्चात मेरे लिए इस सपने को याद रखना उतना ही कठिन हो जाता है। नींद जितनी गहन होती चली जाती है मेरा सपना भी उतने ही अस्पष्ट और अस्पृश्य हो जाता है।"

"ओहो...क्या आराधना वो तो बस सपना ही है, तुम इतना संजीदा क्यों हो रही हो? सपना आया और सपना चला गया बस भूल जाओ।" - राज ने उसका हाथ थामते सहजता के साथ कहा...

आराधना ने उसकी आँखों में देखा और कहा, "नहीं राज...! ये सपने नहीं हैं मेरे लिए, कुछ तो है जो इसमें छिपा है...शायद कोई गहरा राज़...! मेरे दिल को मालूम होता है कब वापस लौटना है। हालाँकि उस राह के किसी किनारे पर कहीं दूर मैं खड़ी रहती हूँ और मेरे मस्तिष्क को याद होता है कब उस राह पर वापस चलना शुरू करना है जिसपर चलकर यहाँ तक आई थी और जैसे-जैसे वो उस बिंदु तक पहुँचता है जहाँ से शुरू किया था मेरी नींद टूटने लगती है और मैं जाग जाती हूँ। मैं जैसे ही उस राह के शुरुआती स्थल पर पहुँचती हूँ, मेरी आँखें खुल जाती हैं और मेरा सपना सिर्फ एक धुंधली सी याद बनकर रह जाता है....ओह...! सिर्फ एक याद।"

"अरे तो क्या हुआ? तुम्हे कौन सा कोई फ़िल्म बनानी है अपने सपने को लेकर, इतना ज़ोर ना डालो अपने नाज़ुक दिमाग़ पर, नहीं याद आता तो ना सही...छोड़ो भी, अब सोने की कोशिश करो तुम और ज्यादा दिमाग ना लगाओ इन सब बातों में।" - राज ने बात को खत्म करने के लिहाज़ से कहा।

"नहीं...ये ख़्वाब कभी-कभी जीवन में बाधाओं का पर्याय भी बन सकते हैं। अगर कभी मेरा मन, उस राह पर कभी, कहीं दूर बेहद दूर निकल गया या मैंने कभी अनजाने में अपने दिल को अनजानी राहों पर भटकने और बहकने के लिए छोड़ दिया, तो शायद मैं वहीँ रह जाऊँगी, गुम जाऊँगी, वापसी की राह कभी ख़ोज नहीं पाऊँगी, फिर...फिर क्या होगा? मैं कभी वापस नहीं लौट पाऊँगी क्या? ये सोचकर भी मेरा सारा वजूद डर से सिहर उठता है।" - उसने घबराते हुए राज को कस कर बाहों में जकड़ते हुए सवाल किये...

"हा हा हा...फिर कुछ नहीं होगा, समझी...?" - राज ने ज़ोरदार हंसी के साथ जवाब दिया

"क्यों?" - आराधना ने फिर पूछा

"क्योंकि उसी पल मैं अपने सपने की राह से होता हुआ वहां तुम्हारे पास आ जाऊंगा और तुम्हे अपने साथ वापस यहाँ ले आऊंगा। जब तुम्हारा साथ मैंने यहाँ नहीं छोड़ा कभी तो फिर भला सपने में कैसे तुम्हे अकेला रहने दूंगा। मेरे साथ के बिना तो मैं तुम्हे, सपना क्या कहीं भी गुमने नहीं देने वाला। जो राह तुम्हे सपने में वापसी का रास्ता भुला दे मैं ऐसी राह को ही हमेशा के लिए तबाह ना कर दूंगा और वैसे भी अगर कहीं गुमना ही है तो हम दोनों साथ में खो जायेंगे...कहीं किसी हसीन ख़ूबसूरत सी वादियों में, पहाड़ों में, झरनों के बीच - गुमने को क्या ये सपना ही बचा है...टेंशन नहीं लेने का डार्लिंग व्हेन आई एम् विद यू...." - राज उसकी आँखों में देखता हुआ यह सब कहता जा रहा था और वो उसकी बातों और मुस्कान में खोकर सब सुन रही थी...और उसके प्यार की गर्माहट को उसकी बातों में महसूस कर रही थी।

"अच्छा बाबा...अब सो जाएँ क्या हुज़ूर? रात बहुत हो गई है...सुबह बात करें...हम्म...शुभ रात्रि...एंड स्वीट ड्रीम्स..." - इतना कहकर दो युवा धड़कते दिलों के होठों के दो जोड़े आपस में सम्पर्क में आकर मीठा सा स्पर्श करते हुए सुखाभास की अवस्था में परम आनंद का अनुभव कर उल्लासोन्माद में डूबकर एक दूजे की बाहों में निद्रा के आग़ोश में एक नया सपना देखने के लिए खो जाते हैं।

#तुषारराजरस्तोगी  #सपना  #राज  #आराधना  #इश्क़  #कहानी  #मोहब्बत

शनिवार, अगस्त 01, 2015

गुलाबो भैंस भाई सा













कुंठित सी भैंस भाई सा, देखी हमने ख़ास
सब पर करूँगी राज मैं, इत्तूसी है बस आस
इत्तूसी है बस आस, बात-बात में रमभाए
कुंठा इनकी देख, दुनिया यह त्रस्त हो जाए

कलयुग के बाज़ार में, दिखा विचित्र सा भेस
लगा गुलाबी रंग, झूमती फ़िरे गुलाबो भैंस
झूमती फ़िरे गुलाबो भैंस, बुद्धि कतई ना पाई
मंदमति वीरांगना ये, बस पूँछ हिलाती आई

सींग हैं अदृश्य इसके, घिनौना सोच विस्तार
माथे पर बस सजा रहे, बेचैनी का अम्बार
बेचैनी का अम्बार, विचलित हस्ती इसकी
ख़ुदा अक्ल दिलाए, बुद्धि कुंद हो जिसकी

परेशां औरों से रहती, ढूंढती सब में ख़ामी
धारणा बनाए रहती, करती सबकी बदनामी
करती सबकी बदनामी, जुबां कड़वी चलाए
सीधा सादा इंसान हो तो, बस पगला जाए

लोमड़ी सी है चालु, बकरी सी है दुखियारी
शातिर बड़ी गुलाबो, फैलती द्वेष की बीमारी
फैलती द्वेष की बीमारी, अजी सब बचके रहना
चक्कर में जो आए, फ़िज़ूल दुःख पड़ेगा सहना

देता 'निर्जन' ये टिप, भैंस भाई सा तुम लेना
मरखने जंगली बैल से, ज़रा बचकर ही रहना
ज़रा बचकर ही रहना, पड़ ना जाए पछताना
अपनी सोच का गोबर, अपने मुंह पर लगाना

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