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मंगलवार, अगस्त 04, 2015

मेरा सपना

"ऐ राज...! सुनो ना...यहाँ आओ..." आराधना ने धीरे से पुकारते हुए कहा, "मैं तुम्हे अपने सपने के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।"

राज बिस्तर पर पास आकर लेट जाता है और कहता है, "लो जी आ गया, बोलो क्या बताना चाहती हो...अब कहो भी, ऐसे क्या देखती हो...बोलो ना, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"मैं जब सो जाती हूँ तब, मेरा मन कहीं दूर लम्बी और घुमावदार राह पर भटकने के लिए निकल पड़ता है। एक लचीले और रंगीन फ़ीते की तरह वो राह मेरे सामने बिछ जाने को बेक़रार रहती है, साथ में अपनी मनमोहक अदाओं से मेरे दिमाग़ को लुभाता है...और वो मंत्रमुग्ध हो इसका अनुगमन करना शुरू कर देता है। नींद जितनी गहरी होती चली जाती है, मैं विचरण करती हुई उतनी ही दूर निकल जाया करती हूँ, किसी अनदेखे, अनजाने, अपरिचित स्थान पर दूर बहुत दूर, इस संसार से परे कहीं किसी अलौकिक और मनमोहक दुनिया के मध्य, जहाँ मेरे सिवा और कोई नहीं होता। इस राह पर चलते हुए जिन चीज़ों का सामना मेरा मन-मस्तिष्क करता है और जिस तरह के कारनामे मैं करती हूँ, वो मुझ और मेरे सपने को साहसिक की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। परन्तु उसके बाद मैं जितना भी दूर इस पथ पर आगे गहराई की ओर चलती चली जाती हूँ, सुबह जागने के पश्चात मेरे लिए इस सपने को याद रखना उतना ही कठिन हो जाता है। नींद जितनी गहन होती चली जाती है मेरा सपना भी उतने ही अस्पष्ट और अस्पृश्य हो जाता है।"

"ओहो...क्या आराधना वो तो बस सपना ही है, तुम इतना संजीदा क्यों हो रही हो? सपना आया और सपना चला गया बस भूल जाओ।" - राज ने उसका हाथ थामते सहजता के साथ कहा...

आराधना ने उसकी आँखों में देखा और कहा, "नहीं राज...! ये सपने नहीं हैं मेरे लिए, कुछ तो है जो इसमें छिपा है...शायद कोई गहरा राज़...! मेरे दिल को मालूम होता है कब वापस लौटना है। हालाँकि उस राह के किसी किनारे पर कहीं दूर मैं खड़ी रहती हूँ और मेरे मस्तिष्क को याद होता है कब उस राह पर वापस चलना शुरू करना है जिसपर चलकर यहाँ तक आई थी और जैसे-जैसे वो उस बिंदु तक पहुँचता है जहाँ से शुरू किया था मेरी नींद टूटने लगती है और मैं जाग जाती हूँ। मैं जैसे ही उस राह के शुरुआती स्थल पर पहुँचती हूँ, मेरी आँखें खुल जाती हैं और मेरा सपना सिर्फ एक धुंधली सी याद बनकर रह जाता है....ओह...! सिर्फ एक याद।"

"अरे तो क्या हुआ? तुम्हे कौन सा कोई फ़िल्म बनानी है अपने सपने को लेकर, इतना ज़ोर ना डालो अपने नाज़ुक दिमाग़ पर, नहीं याद आता तो ना सही...छोड़ो भी, अब सोने की कोशिश करो तुम और ज्यादा दिमाग ना लगाओ इन सब बातों में।" - राज ने बात को खत्म करने के लिहाज़ से कहा।

"नहीं...ये ख़्वाब कभी-कभी जीवन में बाधाओं का पर्याय भी बन सकते हैं। अगर कभी मेरा मन, उस राह पर कभी, कहीं दूर बेहद दूर निकल गया या मैंने कभी अनजाने में अपने दिल को अनजानी राहों पर भटकने और बहकने के लिए छोड़ दिया, तो शायद मैं वहीँ रह जाऊँगी, गुम जाऊँगी, वापसी की राह कभी ख़ोज नहीं पाऊँगी, फिर...फिर क्या होगा? मैं कभी वापस नहीं लौट पाऊँगी क्या? ये सोचकर भी मेरा सारा वजूद डर से सिहर उठता है।" - उसने घबराते हुए राज को कस कर बाहों में जकड़ते हुए सवाल किये...

"हा हा हा...फिर कुछ नहीं होगा, समझी...?" - राज ने ज़ोरदार हंसी के साथ जवाब दिया

"क्यों?" - आराधना ने फिर पूछा

"क्योंकि उसी पल मैं अपने सपने की राह से होता हुआ वहां तुम्हारे पास आ जाऊंगा और तुम्हे अपने साथ वापस यहाँ ले आऊंगा। जब तुम्हारा साथ मैंने यहाँ नहीं छोड़ा कभी तो फिर भला सपने में कैसे तुम्हे अकेला रहने दूंगा। मेरे साथ के बिना तो मैं तुम्हे, सपना क्या कहीं भी गुमने नहीं देने वाला। जो राह तुम्हे सपने में वापसी का रास्ता भुला दे मैं ऐसी राह को ही हमेशा के लिए तबाह ना कर दूंगा और वैसे भी अगर कहीं गुमना ही है तो हम दोनों साथ में खो जायेंगे...कहीं किसी हसीन ख़ूबसूरत सी वादियों में, पहाड़ों में, झरनों के बीच - गुमने को क्या ये सपना ही बचा है...टेंशन नहीं लेने का डार्लिंग व्हेन आई एम् विद यू...." - राज उसकी आँखों में देखता हुआ यह सब कहता जा रहा था और वो उसकी बातों और मुस्कान में खोकर सब सुन रही थी...और उसके प्यार की गर्माहट को उसकी बातों में महसूस कर रही थी।

"अच्छा बाबा...अब सो जाएँ क्या हुज़ूर? रात बहुत हो गई है...सुबह बात करें...हम्म...शुभ रात्रि...एंड स्वीट ड्रीम्स..." - इतना कहकर दो युवा धड़कते दिलों के होठों के दो जोड़े आपस में सम्पर्क में आकर मीठा सा स्पर्श करते हुए सुखाभास की अवस्था में परम आनंद का अनुभव कर उल्लासोन्माद में डूबकर एक दूजे की बाहों में निद्रा के आग़ोश में एक नया सपना देखने के लिए खो जाते हैं।

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रविवार, जुलाई 26, 2015

मुलाक़ात

राज की मुलाक़ात आराधना से कन्याकुमारी जाते वक़्त पांच साल पहले बस में हुई थी और उसने बताया था कि वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है। राज द्वारा क्यों? पूछने पर उसने जवाब दिया, "उसे मालूम नहीं क्यों - पर उसके जीवन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो उसके भागने के फैंसले को सही साबित कर देंगी।

उसने दायें हाथ में बड़ा कॉफ़ी का मग पकड़ा था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो उसमें से उठती भाप को लम्बी सांस लेकर सूंघती और आह की ध्वनि के साथ निःश्वास होकर निश्चिंत हो जाती। देखने पर प्रतीत होता था कि उसे कॉफ़ी बेहद पसंद है और वह उसके स्वाद का भरपूर आनंद लेती हुई उसका लुत्फ़ उठा रही है। राज को अहसास हुआ कि उसने उसे एकटक ताड़ते हुए पकड़ लिया है जब उसकी नाक मग के सिरे को छू रही थी, और वो झट से बोल पड़ी कैफ़ीन मेरे दिल की तरंगों के जीवित होने का एहसास कराती है। उसकी आँखें अचरज से ऐसे चौड़ी और खुली हुई थीं जैसे मानो आज तक उसने कभी पलक झपकी ही ना हो, जैसे वो डर रही हो, जैसे...जैसे उसने कुछ खो दिया हो और सूरज उसकी पलकों पर चिड़ियों की भांति ऐसे बैठा था जैसे वो तारों पर बैठ झूलती हैं क्योंकि उसने बताया कि उसे रोना-धोना ज़रा भी पसंद नहीं आता है।

उसे चीज़ों को गिराने की आदत थी और वो चौथी मर्तबा सीट के नीचे झुककर कुछ उठाने के लिए ख़ोज-बीन कर रही थी के, अचानक से ज़ोर के चिल्लाई और उसकी फ़िरोज़ी टोपी राज के हाथ से टकराई और उसके कप से चाय बाहर छलक कर गिर गई। उसने बच्चों की तरह बड़ी मासूमियत भरी नज़रों से देखते हुए, दांतों से अपने नीचे वाले होंठ को काटते हुए माफ़ी मांगी और बोली, "वो ख़ुशी से इसलिए चीख़ी क्योंकि तुम्हारे टखने पर जो टैटू है बहुत प्यारा लगा।" - उसने बताया कि जब वो अट्ठारह बरस की हुई थी तब उसने अपनी कमर पर रंगीन तितली का टैटू बनवाया था और जब भी वो उसे आईने में निहारती है तब अपने आप से फुसफुसा कर सवाल करती है कि, "क्या वो इस तितली की तरह रंगीन,खुशमिजाज़ और चुलबुली है ?"

उस रात वो दोनों एक दुसरे के साथ में अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी कहानियां ऐसे अदला-बदली करते रहे जैसे दो प्रेमी आपस में चूमते हुए अपने इश्क़ के शर्बतों को एक दुसरे की आत्मा में उतार देते हैं और जब राज ने उससे कहा, "बत्ति जला लेते हैं क्योंकि हम मुश्किल से ही कुछ देख पा रहे हैं।" - तब इस पर मना करते हुए उसने लाजवाब जवाब दिया कि, "सच्ची और अच्छी आवाज़ों का साथ देने के लिए कभी किसी चेहरे की ज़रुरत नहीं होती है।"

उसकी गुस्ताख़ियों के बावजूद, वो बिलकुल मायावी थी और उसका उत्साह, तत्परता तथा उत्सुकता उसे बेहद मनमोहक बना रहीं थीं; उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों को छनछनाहट में कुछ तो था - जिसे राज समझ नहीं पा रहा था और ना ही कोई नाम दे पाने में सक्षम था और जब ठंडी हवा की लहर में उसकी ज़ुल्फ़ों का लहराना देखा तब ऐसा लगा मानो गर्म सेहरा के कांटो भरे कैक्टस में से अमृत धारा आज़ाद होकर रेगिस्तान में बह निकली हो।

अभी राज अपनी बातों के मध्य में ही पहुंचा था, उसके परिवार और उनकी खैरियत के बारे में सवाल करने ही वाला था कि बस रुक गई और कंडक्टर ने आवाज़ लगा दी की जिन्हें इस गंतव्य पर उतरना है वो आ जाएँ और अपना सामान डिक्की से निकलवा लें। उसने तेज़ी के साथ बातों का रुख मोड़ते हुए अपने कैनवास से बने बैकपैक से पोलारोइड कैमरा निकालकर झटपट एक राज का चित्र और फिर अपना चित्र खींच लिया।

अभी वो चित्रों को हवा में पंखे की तरह हिलाते हुए सुखा ही रही थी, राज ने पूछा, "इस साथ के बाद आगे कभी बात करने या मुलाक़ात का कोई तरीका या ज़रिया होगा?" परन्तु उसने तुरंत मुस्कुराकर नहीं में सर हिलाते हुए सवाल को सिरे से ख़ारिज कर दिया और बोली, "मुझे लगा था तुम मुझे इस सब से बेहतर समझते हो।" और जोर के हंसने लगी

राज के चेहरे पर फ़ीका अप्रकट मायूसी का भाव देख वो बिलकुल दंग रह गई और अपनी रेशमी आवाज़ में उसको उलझाते हुए अपने विदाई के जादुई शब्दों के जाल उस पर डाल दिए। "सुनो, ये लो," उसने खिसककर राज के सीने पर एक तस्वीर रख दी और कहा, "अब तुम्हारे पास मेरी तस्वीर है और मेरे पास तुम्हारी। एक दिन, हम फ़िर से ज़रूर मिलेंगे और शायद हमें यह सब कुछ भी याद ना रहे, पर मुझसे एक वादा करो कि जब तक हो सकेगा तुम इस तस्वीर को अपने साथ रखोगे और वैसा ही मैं भी करुँगी। और किसे मालूम है? शायद किसी रोज़ अपने अंतर्मन के ज्ञान और आवाज़ को सुनकर हम एक दुसरे को ढूँढने में क़ामयाब हो जाएँ। सम्भवतः ये बचपन के खेल छुपन-छिपाई जैसा होगा और यह खेल एक दिन सच हो जाएगा, और वैसे भी बाक़ी सब कुछ छोड़कर पूरी दुनिया हमारे इस खेल का मैदान होगी।" - उसकी आँखें यह कहते हुए चमक रहीं थीं।

पांच साल बाद भी, राज उसे दोबारा नहीं ख़ोज पाया पर उसने उम्मीद का दामन अभी तलक नहीं छोड़ा। वो जहाँ भी जाता उसे ढूँढने की कोशिश ज़रूर करता - हिन्दुस्तान, लंदन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, मलेशिया, मॉरिशस, थाईलैंड, रोम, बुडापेस्ट, श्रीलंका, और भी ना जाने कहाँ-कहाँ पर अफ़सोस उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई लड़की उसे नहीं मिली जो अपनी जुल्फों में रेगिस्तानी रेत की ख़ुशबू लिए चलती हो।

इतने साल बाद, राज टिकट काउंटर पर खड़ा पेरिस को जाने वाली रात की ट्रेन की टिकट बुक करा रहा था। ठीक उसके पीछे एक लड़की लाइन में खड़ी थी, उसके रेशमी बाल हवा में लहरा रहे थे और फिर गिरकर उसके गालों को चूम रहे थे। टिकट लेकर जैसे ही वो अपना बैग लेकर प्लेटफार्म की तरफ बढ़ रहा था उसके कानो में ये आवाज़ पड़ी और वो रुक गया। वो लड़की टिकट खिड़की पर झुकी हुई थी और अधिकारी को बता रही थी की वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है और इसी प्लानिंग के तहत वो आज यहाँ पहुंची है। राज यह सब सुनता रहा, रुक गया और आसमान की तरफ देख चुपचाप खड़ा मुस्कुराता रहा।

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शनिवार, जुलाई 18, 2015

एक सपना - एक एहसास

"तुम्हारे बेहद अदम्य, कोमल, नाज़ुक, मुलायम, नज़ाकत भरे हाथों के स्पर्श की छुअन बिलकुल वैसी है जैसी मैं हमेशा से चाहता था और जिनके लिए तरसता था। तुम बहुत ही शरारती इश्क़बाज़ हो और हमेशा मेरे साथ मीठी सी नई-नई शरारतें करती रहती हो जिनके लिए मैं अक्सर अपने आप को अचानक से तैयार नहीं कर पाता हूँ। तुम मुझे अपनी प्यार भरी बाहों में जकड़ लेती हो और मेरे से ऐसे लिपट जाया करती हो जैसे तुम्हारे लिए सिर्फ और सिर्फ बस मैं ही एक हूँ और जब मैं तुम्हे चूमता हूँ तब भी तुम मुझे हमेशा ही अप्रत्याशित रूप से विचलित कर देती हो। मैं तुम्हारे दिव्य प्यार को इन होठों की सरसराहट, छुपी हुई कसमसाहट, सिमटी हुई घबराहट और अनकहे कंपन में महसूस कर सकता हूँ। तुम्हारे आगोश में आते ही दिल में बहुत ही उग्र विचार उत्पन्न होते हैं परन्तु साथ ही तुम्हारे प्रेम की सहनशील स्नेही माधुर्यता, सुखदता और रमणीयता मुझे सहसा ही स्थिर और निश्चल बना देती हैं और तुम्हे मुझसे कसकर लिपटे रहने को बाध्य कर देती हैं साथ ही मेरे मन का एक छोटा सा हिस्सा इस आश्चर्य को मानते हुए मेरे दिल में उठती उमंगो पर क़ाबू पा लेता है जब तुम्हारे जोशीले हाथों का जिज्ञासापूर्ण स्पर्श मेरे तत्व में लीन होने की मनोकामना लिए और अधिक पाने की चाहत करते आलिंगन में इधर-उधर थोड़े पलों में बहुत कुछ तलाशता महसूस देता है। तुम्हारे भोले मनमोहक प्रेम की मोहकता, तुम्हारे व्यक्तित्त्व का तेज़, तुम्हारे गुणों की विशिष्टता, तुम्हारे चरित्र की सौम्यता, तुम्हारी देह की सुगंध, तुम्हारी निकटता की ताज़गी, तुम्हारी मुस्कराहट की मिठास, तुम्हारे अस्तित्त्व की मधुरता और तुम्हरी अंगार सी दहकती साँसों का सान्निध्य मुझे तुम्हारे इश्क़ में दुनिया से बेख़बर होने को मजबूर किए देता है। मेरे दिल के भीतर तुम्हारा भावुक, निर्मल प्रेम मुझे पूर्णता का एहसास करता है, तृप्त करता है, शांत करता है, मेरी बेचैनी और व्याकुलता को संतुष्ट करता है। आने वाले समय में भी मुझे उम्मीद है हमारा प्यार यूँ ही बढ़ता रहेगा और तुम्हारे दिल में मेरे और मेरे इश्क़ की लालसा और तड़प कल भी ऐसी ही बनी रहेगी और आह...! आज एक दफ़ा फिर से दोहराता हूँ कि मैं पूरी तरह अपने तन, मन, वचन से तुम्हारे इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुका हूँ। मैं तुम्हारा था, तुम्हारा हूँ और सदा तुम्हारा ही रहूँगा।"

टिंग...टिंग...अभी राज मन ही मन यह सब आराधना से कहने की सोच ही रहा था और अपने ख्यालों में मग्न खोया हुआ था कि लिफ्ट रुक गई और घंटी बजने के साथ ही लिफ्ट का दरवाज़ा खुल गया। एक बार फिर, उसके मन की बात मन में ही रह गई। आराधना उसकी शक्ल देखकर हँस पड़ी और बोली, "कहाँ गुम हो हुज़ूर, किधर खोये हुए हो, घर जाने का दिल नहीं है क्या? मेट्रो स्टेशन आ गया चलो एंट्री भी करनी है।"

राज उसके सवालों को सुनता, चेहरे को निहारता, हाथ थामे मुस्कुराता हुआ साथ चल दिया।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, अप्रैल 09, 2015

डे-ड्रीम

यह दास्तां हाई स्कूल से शुरू हुई थी। राज और आराधना दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे। राज चोरी-चोरी उसे देखा करता और मन ही मन उससे प्यार करता था। वो उसे अपनी प्रेमिका के रूप में देखता और हमेशा साथ रहने के सपने संजोता रहता। अफ़सोस की बात यह थी कि आराधना अपने में ही मग्न रहती और कभी भी उसकी तरफ ध्यान नहीं देती पर राज हमेशा से ही उसकी ख़ूबसूरती और अदाओं का क़ायल हुआ करता था। बेशक़ वो शब्दों के साथ कुछ ख़ास अच्छा नहीं था पर उसके लिए उसकी परवाह कभी कम नहीं थी। कई दफ़ा वो अपने आपसे सवाल करता, "मेरा प्यार उसके लिए कितना गहरा है?", पर जवाब में राज कुछ ना कह पता क्योंकि अपने शर्मीलेपन के कारण वो खुद को भी जवाब देने में सक्षम नहीं था। वो ज्यादा से ज्यादा समय उसके पास बिताना चाहता था पर उसकी किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। अपनी कुछ निजी परेशानियों के कारण और पारिवारिक दवाब के चलते उसे स्कूल और शहर दोनों छोड़ना पड़ा और उसकी तमन्ना उसके दिल के कोने में कहीं दब कर रह गई।

इधर वो अपनी किस्मत से जूझ रहा था और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में उलझा पड़ा था के अचानक ही बरसों बाद एक दिन समय ने क्या ख़ूब करवट ली और नियति ने आराधना को एक बार फिर उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया। वो आज भी उसके प्यार से अनजान थी और सिर्फ एक दोस्त की तरह उससे मिलती और बात करती थी। इतने सालों के बाद भी वो बिलकुल नहीं बदली थी और सबसे अच्छी बात ये हुई थी कि वो भी एक साथी की तलाश में थी। दोनों की मुलाक़ाते बढ़ती चली गईं और ना जाने कब दोनों की दोस्ती इश्क़ के रास्ते की तरफ निकल गई।

उस शाम वो स्थिर था और धीमे से थरथराती अपनी हथेली पर उसके सर को संभाले अपनी उँगलियों को सरसराते हुए उसके उलझे बालों में फ़िरा रहा था। अभी उसके होंठ पहली बार आराधना के लबों को हल्का सा स्पर्श करने के प्रयोग में आगे बढ़ ही रहे थे कि राज अपनी इस हिमाक़त के प्रति उसकी प्रतिक्रिया भांप गया और उसका दिल सीने में ज़ोरों के धड़कने लगा।

आराधना के होंठ भी स्वतः ही खुल गए, सांस लेने के लिए अलग हो गए और लालिमा से उसका चेहरा चमक उठा। पहली बार की तुलना में इस बार बेहद स्थिरता से अपने अधरों को उसके लबों पर रखने से पहले राज आश्चर्य से लबरेज़ उसकी आँखों में झलकते जवाब को ढूंढता है। अपने धूप के चश्मे के पीछे से वो बड़े आराम से उन फड़फड़ाती आंखो को बंद होने से पहले पूरी तरह खुले हुए देख रहा था। उनके शरीर इतने क़रीब थे कि जब आराधना ने पलट कर उसको चूमा तो उसकी नसों के स्पंदन को वो अन्दर तक महसूस कर सकता था।

उसने भी मंद से दबाव के साथ अपने होठों को उसके होठों पर रख दिया, बस, इससे ज्यादा उसे क्या चाहियें था कि आराधना ने उसे पलट कर चूम लिया। उसने ना ही उसे रोका और ना ही अपने से जुदा किया, तो इसका मतलब कहीं यह तो नहीं कि वो भी इस रिश्ते के लिए संजीदा है ?, शायद ? इस सोच के साथ राज का दिल जम गया। तो क्या होगा अगर वो वास्तव में उसको पसंद नहीं करती हो तो ?

यह ख़याल आते ही उसने अपनी आँखें भींच ली और अपनी खौलती नसों को शांत करने का प्रयास करने लगा। उसने उसे अपनी बाहों में मज़बूती से जकड़ लिया और अपने सर को उसके और करीब ले गया जिससे वो स्वाभाविक तौर पर अपनों होठों को उसके होठों की बनावट के अनुसार ढाल सके। उसका शरीर भट्टी में आग की तरह धधक रहा था। वो भी धीरे-धीरे उसकी कमीज़ को अपनी मुट्ठी से पकड़कर उसको अपनी ओर खींच रही थी।

उसने अनिच्छापूर्वक अपने आपको पीछे खींचा और उसके लहलहाते बालों में अपने चेहरे को छिपा उसके काँधे पर सर रखकर उसके गले लग गया। दोनों की सांसें अब भी तेज़ थी। उसने अपनी पकड़ ढ़ीली कर दी और उसकी कमर में हाथ डालकर उसको अपने सीने से लगा लिया। उसकी आँखें बंद थीं और वो अपने धैर्य को बनाने की कोशिश कर रहा था। जितनी बार भी वो यह कोशिश करता, अपने आत्मसंयम को पाने के करीब पहुँचता उतनी ही बार उसे यह एहसास होता कि आराधना उसके पास है। वो सब कुछ भुला कर अपनी आँखें खोलता है और अपने चेहरे को झुकाकर उसकी आँखों में अपने अक्स को ढूँढने की कोशिश करने लगता है।

उसका चेहरा शर्म की लाली से पहले से भी ज्यादा खिला हुआ था और वो ये देख सकता था कैसे वो इसे छिपाने की कोशिश में अपने आप से संघर्ष कर रही है। कुलबुलाहट में उसकी आँखें ठहर नहीं रहीं थीं कभी वो राज के सीने पर थम जातीं और कभी उसके चेहरे पर और उसकी उँगलियों ने मज़बूती से उसकी कमीज़ को जकड़ रखा था। अपने को पीछे करने के लिए राज को जोर लगाना पड़ा और इसके चक्कर में आराधना के होठ एक बार फिर उसकी ठोड़ी से छूते हुए निकल गए।

"रा...रा... राज, क... क्या तुम मुझे प्यार करते हो ?"

राज इस सवाल पर सोचता रहा फिर कुछ देर बाद बोला, -

"तुम आज भी उतनी ही नादान हो जितनी स्कूल में हुआ करतीं थीं। कभी अपने आस पास की दुनिया से बहार निकली हो ? अगर मैं तुमसे कला के बारे में सवाल करूँगा तो या तो तुम मुझे उस पर एक बड़ा सा लेक्चर दे दोगी या फिर वही कुछ पुरानी घिसी-पिटी किताबों के हवाले से किसी महान इंसान की कोई करामात के बारे में मुझे बताना शुरू कर दोगी। लेकिन तुम ये नहीं बता पाओगी के एक कलाकार की कलाकृति में जो रंग भरे होते हैं, उसमें जो भावनाएं रची होती हैं, उसमें जो जीवंत कर देने वाली सोच समाहित होती हैं उनकी वो भीनी सी ख़ुशबू कैसी होती है? तुम ना तो कभी ऐसी सोच के करीब गई हो ना ही अकेले सामने खड़े होकर कभी ऐसी कला को तुमने निहारा है। देखा है कभी ऐसा कुछ तुमने या विचार किया है ऐसी किसी चीज़ पर ?

मर्दों के बारे में तुम्हारा क्या नज़रिया है ? अगर उनके बारे में तुमसे कुछ पूछने की हिमाक़त करूँगा तो तुम मेरे सामने उनकी कमियों की एक लम्बी सी लिस्ट गिना दोगी। कुछ के साथ तुम्हारा वास्ता भी पड़ा होगा और कुछ तुम्हे नापसंद भी होंगे। तुम्हारी मर्दों के लिए इस चिढ़ की वजह मैं नहीं पूछुंगा। पर तुम्हे उस एहसास का कोई अंदाज़ा नहीं है जो एक सच्चे प्यार करने वाले इंसान के साथ सुबह उठने पर होता है। जब सुबह जागने के पहले लम्हे के साथ, आप उसके चेहरे पर, उन आँखों में, अपने लिए वो इज्ज़त, मान, प्यार, परवाह और हिफ़ाज़त भरा भाव देखती हो। तब जो महसूस होता है वो ऐसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।

तुम बोलती बहुत हो, बहादुर भी लगती हो। पर जब सही में बोलना होता है तब बोल नहीं पाती हो। अब अगर जीवन की जंग के बारे में पूछुंगा तो तुम फिर इतिहास से किसी ना किसी आलिफ़-क़ालिफ़ का कुछ भी उठा कर बखान करने लग पड़ोगी। लेकिन ज़िन्दगी में तुमने कोई जंग खुद लड़ी नहीं है। तुमने दम तोड़ते अपने किसी प्यारे को सीने से नहीं लगाया है। तुमने बेबस होकर, ख़ामोशी से उसे अपने से दूर होते नहीं देखा है। तुमने उसकी उखड़ती साँसों को नहीं सुना है। तुमने बचपन के साथ को हाथ से रेत की तरह ऐसे फ़िसलते महसूस नहीं किया है।

प्यार के बारे में अगर कुछ भी पूछुंगा तो किसी बड़े कलमकार की कविता या लेखनी का उदाहरण दे दोगी। क्या तुम किसी ऐसे इंसान से नहीं मिली हो जिसमें तुम अपना अक्स देख सको ? जिसे देख कर लगे कि ईश्वर ने सिर्फ़ तुम्हारे लिए इस राजकुमार को भेजा है। जो तुम्हे इस चिडचिडी, गुस्सैल, लाचारी और बेचारगी वाली सोच से निजात दिलाये। जिससे तुम अपने दिल की बात बेहिचक खुल कर कह सको। जिसके साथ तुम्हे कभी न्याय, परख और फ़ैसले का डर ना हो। जो मुस्कुराते हुए तुम्हारी हर बात को सुने और तुम्हे जज भी ना करे। उस फ़रिश्ते का तुम्हारी ज़िन्दगी में होना महसूस नहीं कर पाई हो अभी तक तुम।

जिसे तुम चाहती हो, प्यार करती हो उसका साथ दो। हर घड़ी हर पल उसके साथ रहो। ख़ुशी में भी और ग़म में भी। तुम नहीं जान पाओगी मुश्किल वक़्त में महीनो बैठे-बैठे सोना क्या होता है ? क्योंकि मुसीबत के समय किसी पर कोई भी नियम लागू नहीं किये जा सकते। किसी को खोने का कोई एहसास नहीं है तुम्हे। क्योंकि वो तभी होता है जब तुम किसी को अपने से ज्यादा प्यार करते हो। मैं नहीं जानता तुमने कभी किसी को इस तरह, इस क़दर प्यार किया है या नहीं । तुम्हे देखता हूँ तो तुम एक इंटेलीजेंट और कॉंफिडेंट वूमैन नज़र नहीं आती हो। तुम्हारे चेहरे में घमंड, सोच में अदावत और आँखों में डर नज़र आता है। पर तुम एक अच्छी लड़की हो इसमें कोई दोराय नहीं है। पता नहीं कोई तुम्हारी गहराई को समझ पाया है या नहीं पर लगता है तुम मेरे बारे में सब जान गई हो क्योंकि तुमने मुझसे सिर्फ़ दो-चार दफ़ा बात और मुलाक़ात क्या कर ली है। इतना सब होने और कहने के बाद भी तुम सोचती हो जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। इस सबके बाद भी तुम मुझसे ये सवाल कर रही हो, 'क्या मैं तुमसे प्यार करता हूँ?', कमाल करती हो आराधना तुम भी। क्या ये पूछने की ज़रूरत है अभी भी?"

धुप के चश्मे के पीछे छिपी उसकी आँखें छलक गईं और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उसका दिल फट पड़ेगा। फिर अपने आपको संभालते हुए वो मुस्कुराया, उसके चेहरे की तरफ देखा, अपनी आवाज़ को रुन्धने से बचाने के लिए लम्बी गहरी सांस ली, अपने गॉगल्स उतारे, उसकी आँखों में झाँका, एक कदम पीछे हटकर उसके सर को थोड़ा सा झुकाया और अपने चेहरे की तरफ देखने को कहा। वो तो अपने दिल की ये बात कब से कहने के लिए बेताब था।

"हाँ! मैं राज, तुमसे बेहद प्यार करता हूँ, बेशुमार प्यार करता हूँ।", इतना कहकर उसने एक बार फिर निष्कपटता से अपनी आँखें मूँद लीं, आगे बढ़ा, मुस्कुराया और उसके होठों को चूम लिया।

उसके होंठ अब हवा में थे। जिस चेहरे को उसने अपने हाथों में थामा हुआ था वो ग़ायब हो चुका था। उसे एक ज़बरदस्त झटका लगा और चुटकी बजाते ही सदमे से उसकी आँखें खुल गईं। जिस दृश्य के बारे में वो अब तक सोच रहा था वो बदल चुका था। उसकी जगह रेस्तरां ने ले ली थी। हर तरफ शोर था, लोगों की हंसी थी और उनकी तेज़ बातें करने की आवाज़ें आ रहीं थी। राज भी एक टेबल पर आराधना और दोस्तों के सामने बैठा था। बैरा उसके सामने खड़ा था और आर्डर लेने के लिए सर सर कहकर पुकार रहा था।

ओह! ये सिर्फ एक दिवा-स्वप्न था। वो ख़याली पुलाव पका रहा था। उसने कभी भी उसे नहीं चूमा था और ना ही कभी आराधना ने उससे ऐसा कोई सवाल किया था। शायद वो बैठे-बैठे जागते हुए सो गया था। अब अपनी शांति और मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए उसे अपना सब कुछ दांव पर लगा नज़र आ रहा था।

अभी वो अपनी मुट्ठी भींचे बैठा ये सब सोच ही रहा था कि तभी एक हाथ उसके कंधे पर दस्तक देता है। वो मुड़कर देखता है और अपनी लाल आँखों को उसकी नज़रों से जुड़ा पाता है। इससे पहले कि वो कुछ बोल पाता, नार्मल हो पाता, वो उसकी तरफ झुकती है और धीरे से पूछती है, "तुम ठीक हो राज? तुम इस प्लेट को पिछले बीस मिनट से घूर रहे हो? क्या तुम्हे किसी मदद की ज़रुरत है?"

वो एक दम बेख़बर भुलक्कड़ की तरह हताश नज़रों से उसकी तरफ देखता है और अपने चेहरे को जितना भावहीन हो सके रखने की कोशिश करता है और कहता है, "कुछ नहीं, ये सब शुरू शुरू के शौक़ होते हैं, बाद में सबको आदत पड़ जाती है।" वो उसकी बात का मतलब समझ नहीं पाती है और सवाल भरी नज़रों से उसकी तरफ देखती रहती है। वो बड़ी रुखाई अपने सर को हिलाता है और उसके हाथ को अपने कंधे से हटा देता है और एक बार फिर अपनी प्लेट की तरफ ग़ौर से देखने लगता है।

--- तुषार रस्तोगी ---

मंगलवार, अप्रैल 08, 2014

आराधना - अंडे और दुविधा

“सुनो ना – कुछ तो बोलो ! आज तुम बात शुरू करो ना मैं ज्वाइन करती हूँ फिर | तुम कोई टॉपिक तो सेलेक्ट करो ना, प्लीज...” एक अबोध बालिका की तरह उसने राज से धीमे से फ़ोन पर यह कहा और बड़ी ही सरलता से उसके कानों तक अपनी मीठी आवाज़ में यह बात उस तक पहुंचा दी | 
“क्या यार ! रोज़ रोज़ यही होता है, मैं ही क्यों तुम क्यों नहीं ? तुम इतना जो पढ़ती हो उसका कुछ तो फायदा मिले | कभी कोई बात खुद भी शुरू किया करो ना | कोई टॉपिक खुद भी चुना करो कभी तुम | हमेशा ऐसे ही ख़ामोश बैठ जाया करती हो | मैं कोई स्कूल का हेडमास्टर या कोई रेडियो थोड़े ही हूँ जो बोलता रहूँ या बजता रहूँ सुबह शाम |” इतना सुनकर कुछ पल के लिए दोनों के बीच एक ख़ामोशी छा गई फिर थोड़ी देर के बाद राज को ही बोलना पड़ा – “ओह हो ! तुम्हारे नखरे – ज़रा कुछ कह दो, तुरंत साइलेंट मोड ऑन कर के बैठ जाती हो | ठीक है बात मान लेता हूँ, मैं ही शुरू करता हूँ | आज खाने पर बात करें क्या ? ईटिंग हैबिट्स - पर आज तक नहीं की है बात, बोलो तो - क्या कहती हो ?”

“अरे वाह ! एक दम नया टॉपिक है - बोलो कैसे शुरू करना है |” आराधना नए वार्तालाप के लिए बेहद उत्सुक हो रही थी | उसे इंतज़ार था राज द्वारा पूछे जाने वाले सवालों का और मन ही मन हर्षित हो रही थी | 

“तुम्हे क्या पसंद है वैसे ? सबसे अच्छा क्या लगता है ? बताओ सबसे अच्छी डिश कौनसी लगती है ? किस तरह का कुज़ीन तुम्हे आकर्षित करता है ? कौन से भोजन को देखकर तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है बताओ ?”

“अरे – हेल्लो – रुको भी | एक बार में एक सवाल करो यार | तुमने तो सवालों की ऐ.के – ४७ चला दी | अच्छा एक एक करने जवाब देती हूँ | ठीक है न – ह्म्म्म | वैसे तो मैं सब कुछ पसंद करती हूँ पर मुझे नॉन-वैज बहुत पसंद है | मैं ज़्यादातर यही खाती हूँ | अंडे, मछली, चिकन, मीट बहुत अच्छा लगता है | आई लव एग्स एंड चिकन | ओम्लेट्स, बॉयल्ड, फ्राइड, हाफ-फ्राइड मेरे फेवरेट हैं | मैं हर तरह का खाना खा लेती हूँ कोई परहेज़ नहीं रहा किसी चीज़ से कभी | कबाब, मटन-बिरियानी, चिल्ली-चिकन और भी हैं जिन्हें सोचकर ही मुंह में पानी आ जाता है | सर्दियों में तो मैं ज़्यादातर नॉन-वैज ही खाती हूँ | वैज भी पसंद आता है पर इतना नहीं बट आई एन्जॉय एवरीथिंग | अब आगे मेरा सुशी खाने का दिल है – एक बार तो ज़रूर ट्राय करना है लाइफ में | सुना है बहुत टेस्टी होता है |”

“ईशशशश – बस कर यार | इतना क्या खुश हो रही है यह सब अनाप शनाप खा कर | बेचारे मासूम जानवरों को मारकर उनके शवों को अपने शरीर के कब्रिस्तान में दफ़न कर रही है और इतना खिलखिला और चहक रही है | तेरा पेट नहीं है श्मशान घाट है जहाँ मासूमों की अंत्येष्टि होती है उदर की गर्मी में जलकर | मांसाहार खाने में कैसा मज़ा जिसका अपना कोई स्वाद ही नहीं | सारा स्वाद तो मसलों का है | अगर खाना है तो कच्चा खा कर बता | फिर बात करना | बात करती है - आई एन्जॉय नॉन वैज आ लॉट वाली | एर्र्र्रर्र्र्रर्र्र..... – आज से तुम्हे कब्रिस्तान ही बुलाऊंगा – सच्ची” - इतना कहकर राज चुप हो गया | 

“ओह हो – अपनी अपनी पसंद है – तुम वेजीटेरियन हो तो मैं क्या करूँ | सबका अपना अपना टेस्ट है यार | इसमें भड़कने वाली कौन सी बात है | ठीक है तुम्हे बुरा लगता है तो तुम्हारे सामने ऐसे खाने की बात नहीं किया करेंगे | ठीक है ना ? बोलो ?”

“अरे यार – फिर आगे कैसे होगा कुछ सोचा है ?” – राज ने संजीदा होकर सवाल किया 

“आगे – क्या आगे ? मतलब” – आराधना ने मज़ाहिया अंदाज़ में चुटकी लेते हुए पुछा 

“मेरे यहाँ ये सब नहीं चलता है | मुझे तो बदबू तक बर्दाश्त नहीं इन सब चीज़ों की | यक – एर्र्र्रर – ईश्श्श – ना बिलकुल भी नहीं, कभी भी नहीं | मैं तो शुद्ध वैष्णव हूँ |”

“मैं तो बिलकुल भी नहीं रह सकती इन सबके बिना | ठीक है मैं खुद बना लुंगी किसी को बनाने को नहीं बोलूंगी |” 

“बनाने को मतलब – अरे क्या बात कर रही हो | बवाल हो जायेगा | ये सब नहीं चलेगा मेरे साथ में | बहार खा लो ठीक है उसमें मुझे कोई परहेज़ नहीं पर घर में तो नहीं – ना बिलकुल भी नहीं | जब बदबू ही बर्दाश्त नहीं तब बनाना तो बहुत दूर की बात है हुज़ूर |” 

“मतलब मुझे अब अपना खान पान भी बदलना होगा क्या ? ना ऐसा तो कभी नहीं होगा | किसी के लिए मैं अपने आपको, अपनी आदतों को, अपनी इंडिपेंडेंट लाइफ स्टाइल और चोइसस को थोड़ी बदल सकती हूँ | नहीं बिलकुल भी नहीं | फिर तो तुम कहोगे की फ्रिज में भी नहीं रख सकती में अन्डो को | हैं न ? क्यों ? ठीक कहा ना मैंने ? फिर तो कुछ नहीं हो पायेगा कोई सोल्युशन नहीं इसका | एक आइडिया है – ऐसा करना – जब मैं अंडा बनाऊं तुम घर से बहार चले जाना – हा हा हा – और जब बन जाये तब वापस आ जाना – अन्डो की सुगंध भी नहीं सूंघने को मिलेगी और बहार ताज़ी हवा का आनंद भी मिल जायेगा लगे हाथों | क्यों जी, क्या कहते हो ? वैसे सच में यार क्या अब हमारे रिलेशन इन अन्डो का मोहताज हो गया है ? डू वे बोथ हैव तो डिपेंड ऑन दीज़ एग्स - सीरियसली - गिव मी आ ब्रेक यार | इतनी छोटी सी बात है देखा जायेगा टेंशन क्यों लेनी अभी से | ” इतना कहकर वो जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी | 

“आई ऍम सीरियस यार – तुझे मज़ाक सूझ रही है | कुछ तरीका तो सोचना पड़ेगा | अच्छा सुनो – अगर दो फ्रिज और दो रसोई बना लें तो कैसा रहेगा ?”

“अच्छा ! हाय ! सच्ची ! मेरे लिए ऐसा करोगे तुम ? सोच लो ?”

“नहीं यार – बात तो वहीं की वहीं रही – यह तरीका भी काम नहीं करेगा | घर में नहीं बन सकता – फॉर श्युर | बहार खाने वाली बात सही है पर घर में तो नहीं – ना सॉरी यार | तू सोच ना कुछ तरीका यार | कुछ तो होगा तेरे दिमाग में |” इतना कहकर राज ख़ामोश हो गया | 

“यार अंडे भी नहीं बना सकती क्या ? नॉनवैज बाहर से कभी ले आया करुँगी | पर अंडे तो बना ही सकती हूँ | किसी और को बनाने को थोड़ी बोलूंगी | आई रेस्पेक्ट योर फीलिंग्स एंड योर पॉइंट ऑफ़ व्यू दैट यू डॉन’ट लाइक इट – पर, मेरी बात भी तो समझो | ऐसा थोड़े ही होता है अब खाना थोड़ी छोड़ दूंगी और क्या यह बहुत बड़ी बात है जो इतना सीरियस डिस्कशन हो रहा है ? वी विल वर्क आउट ऑन दिस सम वे ऑर दी अदर | फिलहाल एन्जॉय लाइफ माय फ्रेंड |” 

“तेरे लिए नहीं यार मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | आज तक मेरे घर में ऐसा नहीं हुआ है | फिर अब कैसे | नहीं – मुझे तो ठीक नहीं लगता | तू ही कुछ सोच ना यार, बता सोच कर, कोई तरीका निकाल |” 

“फिर तो कुछ तरीका नहीं है जी, कुछ नहीं हो सकता | मैं तो किसी के लिए अपने आपको बदलने वाली नहीं हूँ चाहे कुछ भी हो जाये | जिसे जो सोचना है सोचे | यू डीसाईड योरसेल्फ़ | व्हाट डू यू वांट ?” इतना कह कर आराधना भी चुप हो गई | 

अब दोनों तरफ सन्नाटा था | ख़ामोशी के बीच दोनों की गर्म सांसें तेज़ी इस चुप्पी को भेद रही थीं और माहौल गरमा रहा था | दोनों सोच में पड़े हुए थे | राज सोच रहा था अगर अब ऐसे अंडे और मांसाहार शुरू हुआ तो आगे क्या होगा ? घर में यह सब होगा तो वो एडजस्ट कैसे करेगा ? क्या आगे की आने वाली पीढ़ी भी मांसाहारी बनेगी ? उफ़ नहीं – बड़ी दुविधा का समय है यह तो अब क्या उपाय है इसका, क्या रास्ता निकालूं ? काफी सोचने के बाद उसने फैंसला ले लिया – 

“ठीक है तुम नहीं बदल सकती हो तो दूसरा भी नहीं बदल सकता | जिस चीज़ की दुर्गन्ध तक बर्दाश्त नहीं उसका मेरी रसोई में बनना भी संभव नहीं फिर आगे चाहे कुछ भी हो देखा जायेगा | जिस बात के लिए आत्मा गवाही नहीं देती उसे तो मैं कभी भी नहीं करता और फिर यह तो एक तरह से जीव हत्या जैसा पाप है | एक तरह से मैं भी इसमें भागीदार हो जाऊंगा | ना कभी नहीं | अगर आगे कुछ लिखा होगा किस्मत में तो हो जायेगा नहीं होगा तो ना सही पर अपने संस्कारों से कभी भी समझौता नहीं | चाहे कुछ भी परिणाम हो फिर | जिसे सोचना हो वो सोच ले अब इस बारे में मैंने तो सोच लिया और निश्चित भी कर लिया | अब कोई संशय नहीं मेरे मन में इस बात को लेकर |” – इतना कहकर राज ने फ़ोन रख दिया | 

इन दोनों की कहानी में यह एक नया पेचीदा मोड़ आया है | क्या सच में यह एक बहुत बड़ी उलझन है ? क्या इस बात को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो जायेंगे ? क्या इस छोटी सी बात के लिए दोनों के बड़े से अहम् और हठ धर्मी आपस में टकरा जायेंगे ? क्या एक मांसाहारी और एक शाकाहारी साथ में रह पाएंगे ? क्या अलग अलग खान पान होने के कारण दोनों की दोस्ती और सम्बन्ध पर कोई फ़र्क पड़ेगा ? क्या राज और आराधना अपनी इस उलझन को सुलझा पाएंगे ? क्या इन दोनों की कहानी का नतीजा अंडो और ऑमलेट इन्ही के बीच झूलता रह जाएगी ? क्या कोई लाल पीली चटनी खाने से दोनों की रुकी हुई कृपा आगे बढ़ेगी ? क्या इन्हें इस समस्या का कोई समाधान मिल पायेगा ? मुख़्तलिफ़ खान पान होने के बाद भी क्या ये दोनों अपनी मंज़िल पा सकेंगे ? आगे क्या होगा फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता और ना ही किसी को पता है भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है | आगे क्या होगा इसका फैसला मैंने अपने पाठकों पर छोड़ा है | यदि आपको लगता है आपके पास इस बात का कोई अच्छा समाधान है तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मुझे बताएं | 

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

आराधना - माँ का ऑपरेशन

"ओ हो माँ ! रुको तो सही, मैं आ रही हूँ ना | ऐसी भी क्या जल्दी है ?"

"बेटी जल्दी नहीं है तेरे पापा के खाने का समय हो रहा है इसलिए खाना तैयार करना है | रात को उनकी दवा का समय हो जायेगा | अच्छा बता तू क्या खाएगी ?"

"नहीं माँ, आज से आप नहीं मैं खाना बनाउंगी आप आराम करो | वरना उस दिन की तरह फिर से हाथ ना जल जाये |"

"नहीं नहीं ! तू क्यों रसोई को देखती है तू अपनी पढ़ाई में दिल लगा | ये सब काम तेरे करने के नहीं हैं |"

आराधना जल्दी से रसोई में आई और माँ का हाथ पकड़ कर उनके कमरे में ले गई |

"अब बैठो यहाँ पर आराम से और कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है मेरे होते | जब तक तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन नहीं करवा देती घर के काम से तुम्हारी छुट्टी | मैं सब अकेले ही देख लुंगी | पापा को क्या पसंद है मुझे पता है | मैं सब संभाल लूंगी | चलो जल्दी से लेट जाओ और मैं आँखों में दवाई डाल देती हूँ | फिर आँखें बंद कर के आराम कर लेना कुछ देर | कल ऑपरेशन है इसलिए आज कोई भी टेंशन नहीं लेना वरना फिर से बी. पी. बढ़ जायेगा | "

आराधना एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता पिता की एकलौती संतान थी | संस्कारों से परिपूर्ण और मृदुभाषी | पिछले कुछ समय से उनका जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते बीत रहा था | पहले पिताजी की बीमारी और अब माँ की आँखों में काला मोतिया बिन्द | बहुत समय से तबियत ठीक ना होने के कारण उनके इलाज में देरी हो रही थी | जिसके चलते माँ को रोज़मर्रा के काम काज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था |

पर साहस की धनी आराधना भी इन मुश्किलों से डरकर पीछे हटने वालों में से नहीं थी | उसने भी फैसला कर लिया था के इस बरस माँ का इलाज करवा कर ही दम लेगी | रुपया रुपया कर के पैसे जोड़ रही थी | डॉक्टरों और नर्सिंग होम के चक्कर काट रही थी | पिता और माता के सिवा उसकी दुनिया में और कोई नहीं था | उसका तो छोटा सा संसार बस उन दोनों में ही था |

आराधना जल्दी से रसोई में गई और उसने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी | जल्दी जल्दी आटा गूंथ कर रोटियां बनायीं और बिजली की तेज़ी से खाना तयार कर दिया | रात को भोजन के उपरान्त उसने जल्दी जल्दी सब काम निपटाया और बिस्तर पर लेट गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी | सोचते सोचते ना जाने कब उसकी आँख लग गई |

पौ फटने पर जब अलार्म की आवाज़ सुनी तो हडबडा कर उठी और सुबह के काम निपटने लगी | आज माँ को लेकर जाना था | आज उनकी आँखों का ऑपरेशन होना था | बारह बजे का समय मुक़र्रर हुआ था | सुबह से ही माँ को समझाने में लगी थी |

"माँ आज सब कुछ ठीक से हो जायेगा | चिंता की कोई बात नहीं है | डॉक्टर बहुत अच्छे हैं | डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं |" उसके पिता भी उसका साथ दे रहे थे | अपनी बीमारी के बाद भी उनके जोश में कोई कमी नहीं थी | बोले, "आज तो मैं भी साथ चलूँगा |"

समय पर घर से सब साथ में निकले और नर्सिंग होम पहुँच गए | वहां पहले से ही बुकिंग हो रखी थी | पहुँचते ही उसके पापा डॉक्टर के कमरे में गए और उनसे अपने लिए एक बिस्तर का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की | बीमार होने के बाद भी उनकी हिम्मत की दाद देनी तो बनती थी | अपने दर्द को भुलाकर मुश्किल के समय में अपनी जीवन संगनी के साथ खड़े रहने का जो जज्बा उनके दिल में था उससे उनका प्यार की इन्तेहां का पता चलता था | डॉक्टर ने भी उनकी उम्र और तबियत को देखते हुए तुरंत एक बेड का इंतज़ाम करवा दिया जिससे वो आराम कर सकें |

सभी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद माँ के साथ उनके ऑपरेशन के इंतज़ार में बैठ गए | दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | आराधना ने अपना मोबाइल फ़ोन निकला और इन्टरनेट चालू किया और अपने एक मित्र को सब कुछ बताया | मित्र ने भी उसका साथ देते हुए उसे शांत रहने को कहा और सब कुछ ठीक होने का आश्वासन दिया |

समय बीतता गया और दोनों के बीच बातें चलती रहीं | पल पल जो भी हो रहा था वो अपने मित्र को बताती जा रही थी | अपने दिल में उठते डर और धबराहट को बांटती जा रही थी | इस सबके बीच माँ ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर में चली गईं | आराधना और उसके पापा दोनों भगवान् से बस यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब कुछ सुचारू रूप से हो जाये | उधर आराधना का दोस्त भी उसे तसल्ली दे रहा था |

अंततः खबर आई कि ऑपरेशन सही तरह से हो गया है | इतना सुनते ही सबकी जान में जान आई और आराधना की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये | जिस काम के पूरा होने में दो वर्ष का समय लग गया था आज वो पूरा हो ही गया | उसने अपने दोस्त को फ़ोन पर बताया कि सब कुछ कुशल मंगल है | ऑपरेशन ठीक हो गया है | अपने दोस्त को ऐसे वक़्त में साथ रहने के लिए और उसकी हिम्मत बाँधने के लिए धन्यवाद् देकर उसने बताया अब वो माँ-पापा को लेकर घर जा रही है और फिर बाद में बात करेगी |

सोमवार, मार्च 24, 2014

आराधना - एक दिन

"उठो न अभी भी सोये हो क्या ?" - फ़ोन पर उस मीठी सी आवाज़ ने राज के कानो में मिश्री घोल दी |

"हम्म ! आज तो इतवार है, छुट्टी का दिन है, प्लीज़ आज इतनी जल्दी नहीं | तुम उठ गईं क्या ?" - राज ने अपनी अलसाई आवाज़ और अधखुली आँखें मलते हुए पुछा |

"कब की, मैं तो चाय भी पी चुकी | नवाब साहब अभी तक सोये हैं | इतनी देर तक सोये हो ! उठे नहीं अभी तक, झल्ले !!" - आराधना की शीरीन आवाज़ में इस सवाल ने राज की नींद गायब कर दी |

फिर भी आलस भरे स्वर में उसने अंगड़ाई लेते हुए जवाब दिया, "क्या यार ! तुम भी, आज भी जल्दी, कम से कम आज तो आराम करने दो |  रात भी तो कितनी देर से सोये थे | तुम सोती नहीं हो क्या ?"

"सोती तो हूँ पर सुबह जल्दी उठाना भी तो होता है | घर के काम भी होते हैं | माँ-पापा का ख़याल भी तो मुझे ही रखना होता है | तुम्हारा क्या है, तुम्हारे मज़े हैं कोई बंधन जो नहीं है | मौज है तुम्हारी |" - आराधना ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया |

"नहीं यार ऐसा नहीं है, बंधन तो मेरे भी हैं | एक बंधन तो तुमसे ही बंधा है | ये नहीं कह सकतीं तुम | बाक़ी बंदा तो मैं भी काम का हूँ ये बात और हैं कि....." – कहते-कहते राज ने शब्दों को थाम लिया | अभी तक कुछ निश्चित नहीं हुआ है | आराधना ने आज तक कभी कुछ खुलकर जो नहीं कहा था पर दोस्ती तो दोनों की ही अटूट थी | सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक और फिर खाने से लेकर सोने तक की बातें दोनों आपस में बांटा करते थे | खूब हंसी मज़ाक, गप्पे और बातें एक दुसरे के साथ सारा दिन किया करते थे |

"हम्म ! बात पूरी नहीं की क्या हो गया ?"

"अरे, कुछ नहीं, फिर कभी और कुछ बोलो यार तुम तो ख़ामोश हो गईं | कुछ दस्सो"

"होर ते सब चंगा | सब वादिय जी | तुस्सी दस्सो"

"हुन मैं की दस्सां | राती तां सव दस्सेया सी त्वानू | तुस्सी वी तड़के शुरू हो जांदे हो | दस्सो जी दस्सो जी | मेंनू क्या आल इंडिया रेडियो समझदे हो तुस्सी ?”

“अच्छा जनाब ऐ गल सी कोई नहीं बच्चू देख लुंगी | और बताओ”

“बस यार सब बढ़िया – अच्छा सुनो यार - मैं ज़रा तयार हो जाऊं फिर बाद में बात करते हैं |” – राज उठा और झटपट बिजली की तेज़ी से तैयार होकर, नाश्ता कर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गया |

“हाँ जी ! उसने फ़ोन पर मेसेज भेजा | किद्दां ?

“आहो ! आ गई जी | हो गया ब्रेकफास्ट ? क्या खाया ? आज तो स्पेशल होगा ? सन्डे स्पेशल ? नहीं ? मुझे तो पुछा भी नहीं ? मैं बात नहीं करती ? झल्ले हो तुम |”

“ओ ओ ओ ! शताब्दी एक्सप्रेस थांबा | कभी तो कुछ कम सवाल भी किया कर यार | जब देखो तब शुरू |”

“अब दोस्त से सवाल नहीं करुँगी तो किससे करुँगी | बोलो ?”

“हाँ ! दोस्त से – हम्मममम” – राज ने ठंडी आह भरते हुए कहा

“अच्छा बता ना यार क्या खाया ब्रेकफास्ट में ? मैंने तो मूली के परांठे खाए और साथ में मिंट चटनी | य्म्मी”

“मैंने तो बटर ब्रेड टोस्ट खाया और चाय”

“ब्रेड एंड टोस्ट आर दी सेम थिंग्स | या तो ब्रेड बटर बोलो या बटर टोस्ट | ओके”

“जी बिलकुल, गलती हो गई | थैंक्स फॉर कोर्रेक्टिंग | और बताओ”

और फिर इसी तरह दिन भर ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा | आराधना कुछ कहती रही और राज सुनता रहा राज कुछ कहता रहा आराधना सुनती रही | एक बोन्डिंग थी दोनों के बीच जिसने दोनों को आपस में जोड़ रखा था | दोनों जितना लड़ते, झगड़ते उतना शायद ही कोई करता हो ऐसा उन्हें लगता था | पर फिर भी एक दुसरे के साथ थे, अगर कुछ हो भी जाता तो अगले ही पल सब ठीक हो जाता | एक दुसरे को सॉरी बोलने में बिलकुल भी हिचक नहीं होती, आपस में इतना भरोसा, इतना मान सम्मान, किसी बात को लेकर कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनता, किसी बात को लेकर कभी व्यर्थ बहस नहीं होती, सब कुछ इतना स्वाभाविक, सरल और नम्रता भरा था, ना ही आपस में कोई अहम् का भाव ना ही किसी तरह का कोई घमंड | बहुत ही प्यारी दोस्ती थी ये उन दोनों के बीच |

रात होते होते दोनों बहुत ही थक जाते और दिन की अंतिम बात के लिए अपने अपने फ़ोन पर आ जाते | राज सारा दिन आराधना से बातें करता फिर भी दोनों का दिल नहीं भरता और ज्यादा बातें करने को करता | दोनों अपने घर पर कानों में इअर प्लग लगाये बिस्तर पर लेटे नींद आने का इंतज़ार कर रहे थे | हर तरफ़ ख़ामोशी और सन्नाटा पसरा था | रात की इस ख़ामोशी में आराधना धीरे से बोली,

“कुछ बोल यार – क्या हुआ”

“क्या यार, हर टाइम मैं ही क्यों बोलूं आज तू ही कुछ बोल ले प्लीज | आज कोई टॉपिक नहीं मेरे पास बात करने के लिए | तू ही चूज़ कर ले कोई रैंडम टॉपिक उसी पर बात कर लेंगे | क्या कहती है ?”

“सोचने दे – यार कुछ दिमाग में नहीं आ रहा तू ही कर ले | मुझे कोई याद नहीं आ रहा | चल रहने दे आज नहीं | आज बहुत थक गई हूँ | काफी काम था | जनरल कुछ भी बात कर लेते हैं | ठीक है ?”

“ओके”

उसके बाद दोनों तरफ चुप्पी का राज हो गया | पूरा दिन इतनी सारी बातें करने के बाद अब कोई स्टॉक बाक़ी नहीं बचा था | थोड़ी ही देर बाद कानों में ज़ोर से सांसें चलने की आवाज़ आई |

“सो गई क्या ? ...... अरे यार सो गई क्या ? सोना है तो आराम से सो जा ना कल बात कर लेंगे |”

“हाँ सोती हूँ, बस दो मिनट अभी जाने का दिल नहीं कर रहा बस दो मिनट”

“क्या यार ! नींद तो आ रही है और दो मिनट कर रही है | चल सो जा जल्दी से वरना सुबह फिर दिक्कत होगी और फ्रेश नहीं उठ पायेगी | आराम कर | कल बात करते हैं ना”

“हम्म ! झप्पी दे”

“हाँ... बिलकुल यार ! झप्पी तो कभी भी | ले तेरी झप्पी लम्बी और टाइट वाली | ठीक है |”

“हाँ”

“अब तो जा सो जा यार”

“नहीं – दिल नहीं ऐसे ही रह झप्पी में – तुझे कोई तकलीफ है क्या ? जब दिल होगा तब जाउंगी” 

“कहाँ जाएगी ? तू ऐसे ही रह, कहीं जाने नहीं देना तुझे, ऐसे ही सो जा झप्पी में, मैं भी जब तक नहीं छोडूंगा जब तक खुद नहीं कहेगी | खुश ?”

“हम्मममम”

बस इतनी बात के बाद उस रात उसकी साँसों के सिवा और कुछ भी राज को सुनाई नहीं दिया | रात की निस्तब्धता में पहली बार राज की झप्पी में बंधे वो सपनो में खो गई | माइक पर उसकी सांसें सागर में उठते ज्वार भाटे के समान सुनाई पड़ रही थीं | उसकी सांसें केतली में आंच पर रखे उबलते पानी की भाप की तरह सुनाई दे रही थीं | साथ में कभी कभी सीटियाँ भी सुनाई दे रहीं थीं शायद पानी उबल रहा था | राज ने भी कॉल को नहीं काटा और झप्पी दिए लेटा रहा और आँखे मूंदे सोचता रहा | यह उसके जीवन का पहला मौका था जब राज को उसके बांहों में होने का एहसास हो रहा था | वह आराधना की उस अनदेखी और कानो सुनी मीठी सी नींद और चढ़ती उतरती साँसों की ध्वनि में असीम आनंद और अपनापन का एहसास महसूस करता रहा |

भले ही आज तक दोनों मिले ना हों पर यह फ़ोन का सिलसिला और मेसेज भेजने का क्रम जारी है | और यह दोस्ती दिन-बा-दिन अटूट होती जा रही है | देखते हैं किस्मत इस दोस्ती को कहाँ और कितना आगे लेकर जाएगी |

कुछ देर बाद राज भी अपने सपनों में खो गया | कॉल कटी या नहीं ? यह पहेली फिर कभी सुलझाई जाएगी | फिलहाल आप इस दोस्ती के बारे में सोचिये और इस कहानी का आनंद लीजिये | 

बुधवार, अक्टूबर 23, 2013

आराधना - एक सोच

बहुत दिनों से सोच रहा था इस कहानी आगाज़ कैसे करूँ, कैसे शब्दों में बयां करूँ, अब जाकर कुछ सोच विचार कर मन बन पाया है | कहानी शुरू होती है हिंदुस्तान के दिल से यानी मेरी अपनी दिल्ली से | जी हाँ!  भारत की राजधानी दिल्ली | कहानी की नायिका है ‘आराधना’ | एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी, सुन्दर और सुशील कन्या | गोरा रंग, छरहरा बदन, तीखे नयन नक्श, स्वाभाव से बेहद चंचल और नटखट लेकिन बहुत ही अड़ियल है | गुस्सा तो जैसे हमेशा नाक पर धरा रहता है | जीवन में सवाल इतने के तौबा | अगर कोई साथ बैठ जाए तो ये मोहतरमा उनके जीवन का समस्त निचोड़, व्यक्तित्त्व का सारा नाप तौल और जीवन परीक्षण अपने सवालों से ही ले डालें और यदि कोई भूख से तड़पता हो तो इनके सवालों से ही उसका पेट भर जाये | इस लड़की के व्यक्तित्त्व में अनेकों खूबियों के साथ ख़ामियों की शिरकत भी बराबर दुरुस्त थी | जहाँ ये किसी से भी हुई बड़ी से बड़ी लड़ाई, तू तू मैं मैं, बहस, झगड़े इत्यादि को पल में बच्चों की तरह ऐसे भूल जाती जैसे कुछ हुआ ही न हो | वहीँ ना जाने क्यों ये कभी भी किसी पर भरोसा नहीं करती थी | यदि करती भी थी तो समय इतना निकाल देती भरोसा जताने में के गाड़ी प्लेटफार्म से निकल जाती | खैर इधर उधर की बात करने की बनिस्बत कहानी पर आते हैं | यह कहानी है उसके दिल और भरोसे के आपसी तालमेल, मतभेद, वार्तालाप और एक दूसरे के साथ हुए अनुबंध की जिसमें देखना यह है के जीत किसकी होती है | दिल की या भरोसे की |

अचानक यूँ ही एक दिन बात करते आराधना को ख्याल आया के उसका दिल और भरोसा दोनों अपनी जगह से नदारत है | तो लगा इन्हें ढूँढा जाये और लगीं इधर उधर अपने आप पास ढूँढने | ढूँढ मचाते यकायक अपने व्यक्तित्त्व की एक सूनी सी गली में जा पहुंची | माज़ी के कुछ अवशेष उस गली में बिखरे पाए और वहीँ गली के नुक्कड़ पर पड़ी एक पुरानी यादों की अलमारी की सबसे आख़िरी दराज़ में से कुछ आवाजें आती सुनाई पड़ीं | धीरे से आगे बढ़कर दराज़ को खोल कर देखा में उसने अपनी दिल और भरोसे को आपस में बात करते पाया | दोनों आपस में ख़ुसुर-फ़ुसुर करने में लगे थे | धीरे से कान लगाकर सुनने पर पता चला के बात दोनों के बीच मूल्यों और अपने महत्त्व को लेकर बातचीत हो रही थी |

भरोसा दिल से पूछता है, “ऐ दिल! क्या तू मुझपर भरोसा करता है ?”

दिल ने जवाब दिया, “यार! वैसे दिल तो नहीं कर रहा मेरा तुझपर ऐतबार करने को पर क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा “

भरोसा बोला, “यार हम दोनों तो हमेशा एक दुसरे के साथ रहते हैं | इतने समय से दोनों साथ हैं | फिर भी तू ऐसी बातें कर रहा है | मेरे भरोसे का खून कर रहा है | मेरा भरोसा तोड़ रहा है | ये कहाँ का इंसाफ़ हुआ मेरे भाई ?

दिल कुछ सोच के बोला, “यार! सच बतलाऊं दिल तो मेरा भी बहुत चाहता है के तेरे भरोसे पर ऐतबार कर लूं पर क्या करूँ मेरा दिल भी कितना पागल है ये कुछ भी करने से डरता है और सामने जब तुम आते हो ये ज़ोरों से धड़कता है | ऐसा कितनी बार हुआ है ज़िन्दगी के गलियारों में, दिल मेरा टूटा है भरोसे पर किये बीते वादों से |

भरोसे ने यह सुना तो उसकी आँखें नम हो कर झुक गईं | वो बोला, ‘सुन यार दिल हम दोनों एक ही ईमारत के आमने सामने वाले फ्लैट में रहते हैं | बिना दिल की मदद के भरोसे की गाड़ी नहीं चलती और ना बिना भरोसे दिल ही धड़कता है | मैं ये बात मान सकता हूँ कि किसी झूठे भरोसे पर तेरा दिल तार तार हुआ होगा पर क्या यह सही होगा कि किसी एक के कुचले भरोसे की सज़ा दुसरे के ईमानदार भरोसे को दी जाये ?”

दिल खामोश था, सोच रहा था क्या जवाब दे | कुछ देर सोचने के बाद दिन ने कहा, “ऐ दोस्त यकीन मुझको तेरी ईमानदारी पर पूरा है | तेरे भरोसे पर ऐतबार मेरा पूरा है पर ये दिल के जो घाव हर पल टीस देते हैं, कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं जो जीवन भर हरे ही रहते हैं |“

भरोसा समझदार था, पीड़ा दिल की समझ गया, धीरे से दिल के पास गया और अपने हाथ को दिल पर रखकर बोला, “दर्द तेरा जो है मैं समझ गया पर बस इतना करना एक आख़िरी दफ़ा मुझसे मिलकर तू मुझे अपनाने की कोशिश करना | बस यह छोटा सा वादा है तुझसे मैं तुझको दुःख न पहुंचाऊँगा | तेरे टूटने से पहले मैं खुद ही फ़नाह हो जाऊँगा | बस इतना एहसान तू मुझपर करना एक ज़रा हाथ अपना बढ़ा देना | थाम के आँचल मेरा तुम जीने की दुआ करना | फिर जीना क्या है वो मैं बतलाऊंगा | खुशियों से दामन तेरा मैं हर पल भरता जाऊंगा |”

दिल ने सुनकर, नज़रें उठा कर देखा, खुशियाँ भर कर आँखों में भरोसे की बातों पर सोचा, धीरे से मुस्कराया और थाम हाथ भरोसे का आँखों आँखों में विश्वास दर्शाया | सोचा एक मौका तो देना बनता है | पकड़ हाथ भरोसे का दिल जीवन की सीढ़ी चढ़ता है |

आराधना अचंभित खड़ी यह सब सुन और देख रही थी और अपने चेतन मस्तिष्क में कुछ नई खुशियाँ बुन रही थी | सोच रही थी क्या दिल और भरोसे की इस भागीदारी से वो जीवन नया बनाएगी | इस अनोखी भागीदारी को वो क्या कह के बुलाएगी | साथ किसका वो देगी अब ? वो दिल को जीत दिलाएगी या भरोसे को अपनाएगी ?

आखिर में फैसला इंसान खुद ही करता है वो जीवन में भरोसे को चुनता है या अपने दिल की सुनता है | क्योंकि दिल और भरोसा एक दुसरे के पूरख है | जीवन दोनों से ही आगे बढ़ता है | किसी एक का हाथ भी छूट जाये तो इन्सान सालों साल दुःख के आताह दलदल में तड़पता है |
आराधना का फैसला क्या होगा ये मैं अपने सभी पढ़ने वाले दोस्तों पर छोड़ता हूँ | आप ही बताएं आप ही सुझाएँ इस कहानी की शुरुवात अब आगे क्या होगी |