अब तक के सभी भाग - १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०
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गार्गी अनारो देवी की बड़ी बेटी थीं | उनका सुसराल बड़ा ही राजसी और ठाठ बाट वाला ख़ानदान था | अपनी बड़ी बेटी के लिए बहुत सोच समझ कर और साहु साब से सलाह मशवरा करने के पश्चात् ही उन्होंने रिश्ता तय किया था | दुल्हा भाई बेहद पढ़े लिखे और वकालत पास थे | बेबाक़ और पश्चमी सभ्यता के परवरिश के सानिध्य में पले बड़े ज़मींदार साहब बहुत ही शालीन, शिष्ट और देखने भालने के सुन्दर होने के साथ ही उनका जमाल काबिले तारीफ था | परन्तु सभी को भली भांति ज्ञात है उस ज़माने में ज़मींदारों के तौर तरीक़े और रहन सहन किस तरह के हुआ करते थे |
रजवाड़ों और ज़मींदारों का ख़ानदान था तो शौक़ भी वैसे ही विलासी थे | पांच हज़ार गज़ में फैली आलीशान हवेली मुरादाबाद जैसे छोटे शहर में बहुत मायने रखती थी | साहू साब की हसियत के मुताबिक महज़ वही एकलौता ख़ानदान था जो हर लिहाज़ से उनकी बराबरी के क़ाबिल था | उनकी हसियत का अंदाज़ा उनकी हवेली को देखकर लगाया जा सकता था | हवेली के बाहरी दरवाज़ों पर हमेशा दो पहरेदार, हाथी और महावत के साथ स्वागत के लिए खड़े रहते | हाथियों का काम सिर्फ इतना था के हर आने जाने वाले को अपनी सूंड उठाकर सलामी पेश करते | मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही मीलों फैला होने का एहसास देता बड़ा सा अहाता जिसके दोनों तरफ लगी रंग बिरंगे अंग्रेजी फूलों की बगिया में भिन्न भिन्न प्रजाति के पुष्प उन्मुख पक्षियों की तरह करलव करते चहचहाते प्रतीत होते | फूलों की महकभौरों की गुंजन, उन से आती भीनी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क में ऐसी उतरती मानो कोई अत्तार के बैठा इतर की शीशियाँ खोल खोल कर छिड़क रहा हो | आहते के बीचो बीच पुर्तगाली वास्तुशिल्प की बेजोड़ कला का प्रतीक एक नक्काशीदार फ़व्वारा था | जिसमें गुलाब और केवड़े से महकता उदक हर वक़्त मौजूद रहता और आँगन को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहता | फिर एक लम्बा दालान जिसके दोनों तरफ़ा संगमरमर के खम्बे सजे थे, हवेली के प्रवेश द्वार तक ले जाता | उस विशाल चौमंज़िला हवेली में पचासियों नौकर चाकर और बांदियाँ एक टांग पर खड़े दिन रात ख़िदमत में लगे रहते | हवेली के पिछवाड़े घुड़साल और गौशाला थी जिसमें बीसियों घोड़े और गायें पाली जातीं |
मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही बैठक हुआ करती थी | जहाँ आराम और रस रंग के सभी साज़ो-सामन मुहैया थे | एक तरफ चौपड़ और दूसरी तरफ मयखाना और इनके बीच बिछी हुई गौ-ताकियों की कतार के साथ गद्दे और उनके किनारे रखे मिस्र से मंगाए नक्काशी और रंगीन बेल बूटों से सजे हुक्के | जिन्हें दिन रात जमींदार साहब के मेहमान गुड़ गुड़ाते और ऐश कूटते | ईमारत की निचली दो मंजिलों में मर्दों के रहने की व्यस्था थी और उपरी दो मंजिलों में ज़नान खाना था | जहाँ गार्गी देवी ऐश-ओ-आराम से जीवन यापन करती थीं | गार्गी देवी को भांति भांति के व्यंजन बनाने का बेहद शौक था | तरह तरह के अचार, मुरब्बे, लड्डू और मठरी इत्यादि बनाना उनके बाएं हाथ का खेल था | स्वादिष्ट इतने के जो एक बार उनके हाथों का स्वाद चख ले तो तो उनकी पाक कला का मुरीद हुए बिना न रह सके | उस बड़ी हवेली में आराम के सभी साधन और इंतजामात तो थे | पर जैसे की होता है बड़े घरों के राजनैतिक माहौल में अपनेपन, अकेलेपन और खालीपन की टीस ह्रदय में हमेशा बनी रहती थी |
अनारो देवी के दुसरे पुत्र और पुत्रियों के रिश्ते भी संभ्रांत परिवारों में हुए थे | उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुरेन्द्र प्रसाद जिन्होंने लखनऊ से वकालत की पढाई पूर्ण की थी उनका विवाह उत्तर प्रदेश की एक छोटे से कसबे के जागीरदार की सुपुत्री के साथ हुआ था |
उनसे छोटे श्री वीरेन्द्र प्रसाद जो की हर कार्य में दक्ष थे और ज़्यादातर अपने नाना साहू हरप्रसाद के सानिध्य और मातेहत बड़े हुए थे उन्होंने वाणिज्य और व्यापार की पढाई उत्तीर्ण की थी | उन्हें वकालत और ज़मींदारी का भी खासा अनुभव था | पुश्तैनी कारोबार ‘महिला वस्त्रालय’ का कार्यभार भी उन्ही के कंधो पर था | अपने पिताजी से कपडे को परखने और जांचने- पहचानने की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | व्यापार में माहिर और वाक् कुशलता में उनका कोई सानी नहीं था | अपने नानाजी और उनके कानूनी मसलों की भी सारी ज़िम्मेदारी उन्हें के सर थी | मात्र तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मेहनत से गंज के मोहल्ले में अपना मकान बनाया था | जिसके वास्तुशिल्प की संरचना को उन्होंने स्वयं अंजाम दिया था | उनका लग्न दिल्ली के एक बहुत ही सम्मानित उच्च कुल के परिवार में साहू नन्दुमल पुरुषोत्तम दस् जी की सुपुत्री के साथ हुआ |
उनके अनुज श्री सत्येन्द्र प्रसाद जी जिन्होंने डाक्टरी की पढाई शुरू तो की थी परन्तु जीव हत्या और जीव-जंतुओं की कांट-पीट से विमुख हो वे पढाई अधूरी छोड़ वापस आ गए थे और मुरादाबाद में सरकारी ठेकेदारी के कार्य में लिप्त थे | उन्हें पाक कला का प्रगाढ़ अनुभव था और वो नए नए पकवान बनाने में दक्ष थे | उनका विवाह फरुक्खाबाद के एक बहुत ही शालीन और सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुआ |
उनकी सुपुत्री बीना देवी का विवाह चंदौसी के बहुत ही पैसे वाले और रईस घराने में हुआ था | अपने ज़माने में चंदौसी जिले में उनके ससुर की तूती बोला करती थी | बेहद मशहूर और मारूफ़ हस्तियों में उनका नाम शुमार था | बड़ी बड़ी इमारतें, गोदाम, दुकाने, सिनेमा घर, बर्फ, पेपरमिंट और तेल बनाने का कारखाना और भी न जाने क्या क्या व्यापार थे उनके | साहू साहब के खानदान में उनका बहुत ही मेल-मिलाप और आना जाना था | इसी आपसदारी के चलते बीना देवी का विवाह उनके सुपुत्र के साथ तय हुआ था |
बीना से छोटी माधरी देवी का विवाह मुंडिया के एक बहुत ही सुशील और पढ़े लिखे नौजवान के साथ हुआ था | उन्होंने उस ज़माने में एम्.बी.ए की पढाई उत्तीर्ण की थी और एक बहुत ही सम्मानित दैनिक समाचार पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत थे | बाद में उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र और मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू किया | साथ ही उन्होंने भवन निर्माण के व्यवसाय में भी बहुत नाम कमाया और दिल्ली के एक बहुत ही आलिशान और उच्चवर्गीय इलाके में अपनी कोठी का निर्माण किया |
अन्त में सबसे छोटे श्री विनोद कुमार जिन्होंने यन्त्रशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | जीवन के शुरुवाती दिनों में उन्होंने एक सरकारी महकमे में यंत्रवेत्ता के पद पर कार्य किया परन्तु फिर चाकरी से दिल उकताने के कारण उन्होंने अपने स्वयं का व्यवसाय आरम्भ किया | उनकी शादी भी एक मुरादाबाद के पास के जिले लखीमपुर खिरी के एक बहुत ही सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुई थी |
इस प्रकार से साहू साहब, अनारो देवी और गंगा सरन जी ने अपनी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बहुत ही कुशलतापूर्ण और व्यस्थित तरीके से निभाया था | उन्होंने जितना हो सके सात्विक संस्कार, रीति रिवाजों तथा उच्च शिक्षा अपनी संतानों को प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी संताने उनकी आशाओं के अनुरूप खरी उतरी और सभी अपनी दैनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन करने हेतु सक्षम थे |
वहीँ साहू साब भी अपनी बीमारी के कारण पिछले दस वर्षों से मोतियाबिंद और आँखों में कला पाना उतरने की वजह से अपनी दृष्टि से मुक्त हो चुके थे | किन्तु फिर भी उनका रौब ज्यों का त्यों था | अपने मुकदमें बाज़ी, ज़मींदारी और दुसरे छोटे बड़े काम वे तब भी बड़ी सहजता के साथ स्वयं ही निपटा लिया करते थे | बस स्वभाव से ज़रा आशुकोपी, तुनकमिजाज़, हड़बड़हटी, उत्तेजित, उन्मादी, चिड़चिड़े, हठधर्मी और गुस्सैल हो गए थे | दृष्टि खो देने की पीड़ा उन्हें कभी कभार बहुत लाचार बना देते थी और गाली-गलौच में कुछ ज्यादा इजाफा कर दिया करती थी | अपनी दृष्टिहीनता से खिन्न वे कभी कभी बहुत झुंजला जाया करते और अभद्र भाषावली प्रयोग कर परिवार के सदस्यों पर बरस पड़ते | अब उनकी दृष्टि वीरेन्द्र प्रसाद की आँखें ही थी जो उनका सारा काम संभाला करते थे | उनके गुस्सैल स्वाभाव और गलियों से त्रस्त दुसरे नाती उनसे कन्नी काटा करते | वहीँ दूसरी ओर वीरेन्द्र बाबु उनकी सभी रोज्मर्रह की ज़रूरियात, खाना पीना, घूमना और यहाँ वहां के छोटे बड़े काम सभी का ख़याल रखते और अपने नाना की बुजुर्गियत को सहारा देने मैं कभी कोताही न बरतते | वो कहते हैं न बड़ों की गाली भी स्वाली होती है | वीरेन्द्र बाबु उनकी इस भाषा को आशीर्वाद समझ ग्रहण करते और सच्चे ह्रदय से उनके सभी कार्य पूर्ण करते | उनकी एक आवाज़ पर अपने सभी काम काज और खाना पीना छोड़ दौड़े चले जाया करते | यही कारण था के साहू साहब का सारा स्नेह और प्यार उन पर आशीर्वाद बनकर बरसता और वे साहू साहब के सबसे प्रिये और लाडले नाती थे |
अनारो देवी और गंगा सरन जी भी अब वयोवृद्ध अवस्था में प्रवेश कर चुके थे और अपने सभी उत्तरदायित्त्वों से मुक्त हो चुके थे | अब उनका अधिकतर समय भगवान् की भक्ति में गुज़रता और जो समय बच जाता वो अपने नाती पोतों के साथ समय व्यतीत करने में बीत जाता | क्रमशः
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गार्गी अनारो देवी की बड़ी बेटी थीं | उनका सुसराल बड़ा ही राजसी और ठाठ बाट वाला ख़ानदान था | अपनी बड़ी बेटी के लिए बहुत सोच समझ कर और साहु साब से सलाह मशवरा करने के पश्चात् ही उन्होंने रिश्ता तय किया था | दुल्हा भाई बेहद पढ़े लिखे और वकालत पास थे | बेबाक़ और पश्चमी सभ्यता के परवरिश के सानिध्य में पले बड़े ज़मींदार साहब बहुत ही शालीन, शिष्ट और देखने भालने के सुन्दर होने के साथ ही उनका जमाल काबिले तारीफ था | परन्तु सभी को भली भांति ज्ञात है उस ज़माने में ज़मींदारों के तौर तरीक़े और रहन सहन किस तरह के हुआ करते थे |
रजवाड़ों और ज़मींदारों का ख़ानदान था तो शौक़ भी वैसे ही विलासी थे | पांच हज़ार गज़ में फैली आलीशान हवेली मुरादाबाद जैसे छोटे शहर में बहुत मायने रखती थी | साहू साब की हसियत के मुताबिक महज़ वही एकलौता ख़ानदान था जो हर लिहाज़ से उनकी बराबरी के क़ाबिल था | उनकी हसियत का अंदाज़ा उनकी हवेली को देखकर लगाया जा सकता था | हवेली के बाहरी दरवाज़ों पर हमेशा दो पहरेदार, हाथी और महावत के साथ स्वागत के लिए खड़े रहते | हाथियों का काम सिर्फ इतना था के हर आने जाने वाले को अपनी सूंड उठाकर सलामी पेश करते | मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही मीलों फैला होने का एहसास देता बड़ा सा अहाता जिसके दोनों तरफ लगी रंग बिरंगे अंग्रेजी फूलों की बगिया में भिन्न भिन्न प्रजाति के पुष्प उन्मुख पक्षियों की तरह करलव करते चहचहाते प्रतीत होते | फूलों की महकभौरों की गुंजन, उन से आती भीनी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क में ऐसी उतरती मानो कोई अत्तार के बैठा इतर की शीशियाँ खोल खोल कर छिड़क रहा हो | आहते के बीचो बीच पुर्तगाली वास्तुशिल्प की बेजोड़ कला का प्रतीक एक नक्काशीदार फ़व्वारा था | जिसमें गुलाब और केवड़े से महकता उदक हर वक़्त मौजूद रहता और आँगन को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहता | फिर एक लम्बा दालान जिसके दोनों तरफ़ा संगमरमर के खम्बे सजे थे, हवेली के प्रवेश द्वार तक ले जाता | उस विशाल चौमंज़िला हवेली में पचासियों नौकर चाकर और बांदियाँ एक टांग पर खड़े दिन रात ख़िदमत में लगे रहते | हवेली के पिछवाड़े घुड़साल और गौशाला थी जिसमें बीसियों घोड़े और गायें पाली जातीं |
मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही बैठक हुआ करती थी | जहाँ आराम और रस रंग के सभी साज़ो-सामन मुहैया थे | एक तरफ चौपड़ और दूसरी तरफ मयखाना और इनके बीच बिछी हुई गौ-ताकियों की कतार के साथ गद्दे और उनके किनारे रखे मिस्र से मंगाए नक्काशी और रंगीन बेल बूटों से सजे हुक्के | जिन्हें दिन रात जमींदार साहब के मेहमान गुड़ गुड़ाते और ऐश कूटते | ईमारत की निचली दो मंजिलों में मर्दों के रहने की व्यस्था थी और उपरी दो मंजिलों में ज़नान खाना था | जहाँ गार्गी देवी ऐश-ओ-आराम से जीवन यापन करती थीं | गार्गी देवी को भांति भांति के व्यंजन बनाने का बेहद शौक था | तरह तरह के अचार, मुरब्बे, लड्डू और मठरी इत्यादि बनाना उनके बाएं हाथ का खेल था | स्वादिष्ट इतने के जो एक बार उनके हाथों का स्वाद चख ले तो तो उनकी पाक कला का मुरीद हुए बिना न रह सके | उस बड़ी हवेली में आराम के सभी साधन और इंतजामात तो थे | पर जैसे की होता है बड़े घरों के राजनैतिक माहौल में अपनेपन, अकेलेपन और खालीपन की टीस ह्रदय में हमेशा बनी रहती थी |
अनारो देवी के दुसरे पुत्र और पुत्रियों के रिश्ते भी संभ्रांत परिवारों में हुए थे | उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुरेन्द्र प्रसाद जिन्होंने लखनऊ से वकालत की पढाई पूर्ण की थी उनका विवाह उत्तर प्रदेश की एक छोटे से कसबे के जागीरदार की सुपुत्री के साथ हुआ था |
उनसे छोटे श्री वीरेन्द्र प्रसाद जो की हर कार्य में दक्ष थे और ज़्यादातर अपने नाना साहू हरप्रसाद के सानिध्य और मातेहत बड़े हुए थे उन्होंने वाणिज्य और व्यापार की पढाई उत्तीर्ण की थी | उन्हें वकालत और ज़मींदारी का भी खासा अनुभव था | पुश्तैनी कारोबार ‘महिला वस्त्रालय’ का कार्यभार भी उन्ही के कंधो पर था | अपने पिताजी से कपडे को परखने और जांचने- पहचानने की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | व्यापार में माहिर और वाक् कुशलता में उनका कोई सानी नहीं था | अपने नानाजी और उनके कानूनी मसलों की भी सारी ज़िम्मेदारी उन्हें के सर थी | मात्र तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मेहनत से गंज के मोहल्ले में अपना मकान बनाया था | जिसके वास्तुशिल्प की संरचना को उन्होंने स्वयं अंजाम दिया था | उनका लग्न दिल्ली के एक बहुत ही सम्मानित उच्च कुल के परिवार में साहू नन्दुमल पुरुषोत्तम दस् जी की सुपुत्री के साथ हुआ |
उनके अनुज श्री सत्येन्द्र प्रसाद जी जिन्होंने डाक्टरी की पढाई शुरू तो की थी परन्तु जीव हत्या और जीव-जंतुओं की कांट-पीट से विमुख हो वे पढाई अधूरी छोड़ वापस आ गए थे और मुरादाबाद में सरकारी ठेकेदारी के कार्य में लिप्त थे | उन्हें पाक कला का प्रगाढ़ अनुभव था और वो नए नए पकवान बनाने में दक्ष थे | उनका विवाह फरुक्खाबाद के एक बहुत ही शालीन और सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुआ |
उनकी सुपुत्री बीना देवी का विवाह चंदौसी के बहुत ही पैसे वाले और रईस घराने में हुआ था | अपने ज़माने में चंदौसी जिले में उनके ससुर की तूती बोला करती थी | बेहद मशहूर और मारूफ़ हस्तियों में उनका नाम शुमार था | बड़ी बड़ी इमारतें, गोदाम, दुकाने, सिनेमा घर, बर्फ, पेपरमिंट और तेल बनाने का कारखाना और भी न जाने क्या क्या व्यापार थे उनके | साहू साहब के खानदान में उनका बहुत ही मेल-मिलाप और आना जाना था | इसी आपसदारी के चलते बीना देवी का विवाह उनके सुपुत्र के साथ तय हुआ था |
बीना से छोटी माधरी देवी का विवाह मुंडिया के एक बहुत ही सुशील और पढ़े लिखे नौजवान के साथ हुआ था | उन्होंने उस ज़माने में एम्.बी.ए की पढाई उत्तीर्ण की थी और एक बहुत ही सम्मानित दैनिक समाचार पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत थे | बाद में उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र और मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू किया | साथ ही उन्होंने भवन निर्माण के व्यवसाय में भी बहुत नाम कमाया और दिल्ली के एक बहुत ही आलिशान और उच्चवर्गीय इलाके में अपनी कोठी का निर्माण किया |
अन्त में सबसे छोटे श्री विनोद कुमार जिन्होंने यन्त्रशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | जीवन के शुरुवाती दिनों में उन्होंने एक सरकारी महकमे में यंत्रवेत्ता के पद पर कार्य किया परन्तु फिर चाकरी से दिल उकताने के कारण उन्होंने अपने स्वयं का व्यवसाय आरम्भ किया | उनकी शादी भी एक मुरादाबाद के पास के जिले लखीमपुर खिरी के एक बहुत ही सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुई थी |
इस प्रकार से साहू साहब, अनारो देवी और गंगा सरन जी ने अपनी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बहुत ही कुशलतापूर्ण और व्यस्थित तरीके से निभाया था | उन्होंने जितना हो सके सात्विक संस्कार, रीति रिवाजों तथा उच्च शिक्षा अपनी संतानों को प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी संताने उनकी आशाओं के अनुरूप खरी उतरी और सभी अपनी दैनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन करने हेतु सक्षम थे |
वहीँ साहू साब भी अपनी बीमारी के कारण पिछले दस वर्षों से मोतियाबिंद और आँखों में कला पाना उतरने की वजह से अपनी दृष्टि से मुक्त हो चुके थे | किन्तु फिर भी उनका रौब ज्यों का त्यों था | अपने मुकदमें बाज़ी, ज़मींदारी और दुसरे छोटे बड़े काम वे तब भी बड़ी सहजता के साथ स्वयं ही निपटा लिया करते थे | बस स्वभाव से ज़रा आशुकोपी, तुनकमिजाज़, हड़बड़हटी, उत्तेजित, उन्मादी, चिड़चिड़े, हठधर्मी और गुस्सैल हो गए थे | दृष्टि खो देने की पीड़ा उन्हें कभी कभार बहुत लाचार बना देते थी और गाली-गलौच में कुछ ज्यादा इजाफा कर दिया करती थी | अपनी दृष्टिहीनता से खिन्न वे कभी कभी बहुत झुंजला जाया करते और अभद्र भाषावली प्रयोग कर परिवार के सदस्यों पर बरस पड़ते | अब उनकी दृष्टि वीरेन्द्र प्रसाद की आँखें ही थी जो उनका सारा काम संभाला करते थे | उनके गुस्सैल स्वाभाव और गलियों से त्रस्त दुसरे नाती उनसे कन्नी काटा करते | वहीँ दूसरी ओर वीरेन्द्र बाबु उनकी सभी रोज्मर्रह की ज़रूरियात, खाना पीना, घूमना और यहाँ वहां के छोटे बड़े काम सभी का ख़याल रखते और अपने नाना की बुजुर्गियत को सहारा देने मैं कभी कोताही न बरतते | वो कहते हैं न बड़ों की गाली भी स्वाली होती है | वीरेन्द्र बाबु उनकी इस भाषा को आशीर्वाद समझ ग्रहण करते और सच्चे ह्रदय से उनके सभी कार्य पूर्ण करते | उनकी एक आवाज़ पर अपने सभी काम काज और खाना पीना छोड़ दौड़े चले जाया करते | यही कारण था के साहू साहब का सारा स्नेह और प्यार उन पर आशीर्वाद बनकर बरसता और वे साहू साहब के सबसे प्रिये और लाडले नाती थे |
अनारो देवी और गंगा सरन जी भी अब वयोवृद्ध अवस्था में प्रवेश कर चुके थे और अपने सभी उत्तरदायित्त्वों से मुक्त हो चुके थे | अब उनका अधिकतर समय भगवान् की भक्ति में गुज़रता और जो समय बच जाता वो अपने नाती पोतों के साथ समय व्यतीत करने में बीत जाता | क्रमशः
इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |
All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental.