दास्ताँ हमेशा दिल और प्यार से बनती है दिमाग से नहीं | जहाँ रिश्ते दिमाग से बुने जाते हैं वहां कभी कोई भी दास्ताँ पनप ही नहीं सकती | जहाँ दिल है वहां प्यार है और जहाँ प्यार है वहां कोई न कोई दास्ताँ ज़रूर होती है | प्यार को किसी भी पैमाने पर तौला नहीं जा सकता न की उसे साबित किया जा सकता है | प्यार है तो उसका दिखावा कभी नहीं हो सकता । प्यार तो एक एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और उस के चलते हर एक दास्ताँ को जन्म दिया जा सकता है | दिल के भीतर जितनी गहराई में प्यार होगा उतना ही मज़बूत रिश्ता भी होगा | ये कहानी भी कुछ ऐसे ही रिश्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिसमें प्यार की गहराई है, विद्रोह का दर्द है, सहन करने की पीड़ा है, अलगाव की वेदना है, मैं की भावना है, तकरार है, खून की खून के साथ बगावत है, अकेलेपन की व्यथा है, ख़ामोशी की कसक है, दिल की दुखन है और भी ऐसी बहुत सी भावनाएं हैं जिन्हें लेकर ये कहानी बुनी गई है | पर सबसे ऊपर है प्यार, विश्वास और एहतराम का जज़्बा जो इस कहानी का मूल स्तंभ है | जिसके चलते ये दास्ताँ लिखी गई है | उम्मीद करता हूँ आपको मेरी कोशिश अवश्य पसंद आएगी ।
पात्र:
लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल – दादा
सुधांशु अग्रवाल – पोता
लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल नामचीन व्यापारी थे | थोक के बाज़ार में उनका बड़ा रुतबा था | चावल की आढ़त का बहुत अच्छा कारोबार था उनका | एक छोटा सा परिवार था जिसमें उनकी धर्मपत्नी, दो बेटियां, बेटा, बहु और पोता पोती थे | आज की कहानी में दो मुख्य किरदार शिरकत करने वाले हैं और वो है लालाजी खुद और उनका पोता सुधांशु | कहानी यहीं से आरम्भ होती है जिस दिन सुधांशु का जन्म हुआ था | बड़ी की मन्नतों, पूजा पाठ, हवन, तंत्र मंत्र और मुरादों के बाद लालाजी के दिल की हसरत पूरी हुई थी | बेटे की शादी के दस साल बाद उन्हें पोते का मुंह देखना नसीब हुआ था | जन्म के साथ ही उसका लालन पालन राजकुमारों के जैसे शुरू हो गया |
लालाजी की जान बस्ती थी उसमें | अगर पोता धीरे से छींक भी दे तो डाक्टरों की कतार लगा देते थे | काम पर निकलने से पहले पोते का मुंह देखते और शाम को लौटकर सबसे पहले उसको गोद में लेकर खिलाते | रात को सुलाते भी अपने पास थे | इतना लगाव था पोते के साथ के उसके बिना जीना असंभव था | रिश्ते नातेदार अक्सर लालाजी का मजाक बनाया करते और कहते, “लालाजी पोता है पोता, तोता नहीं जो पिंजरे में बंद कर के साथ ले चलोगे |” लालाजी भी ऐसी बातों को हंसी में उड़ा दिया करते और कहते, “जब तुम्हारे होंगे तब पूछुंगा |” बस लगता है तभी से लोगों की नज़र लगनी शुरू हो गई इस रिश्ते को |
समय गुज़रा सुधांशु बड़ा हुआ | लालाजी ने अपने रसूक के चलते बेहतरीन और एक बहुत ही उच्च कोटि के माने हुए स्कूल में पोते का दाखिला कराया | सुधांशु भी होशियार था | अव्वल नम्बर लाता और घर में सब को खुश कर देता | इस सब से लालाजी फूले न समाते परन्तु लालाजी की धर्मपत्नी का मिजाज़ कुछ अजीब था | एकलौता पोता होते हुए भी उनका झुकाव अपने नाती-नातिन की ओर ज्यादा था | धनि परिवार से होने की वजह से उनमें ज़बरदस्त मैं और गुरूर था | इसके चलते वो अपने समक्ष किसी को कुछ नहीं समझती थी | हालातों एवं स्तिथि परिस्थिति को अपने इरादों के अनुरूप कैसे कुशलता पूर्वक प्रयोग करना चाहियें और चालाकी से काम निकलना उन्हें भली भांति ज्ञात था | इसीलिए उन्हें सुधांशु से कुछ खास लगाव नहीं था | और वो उसे अपनाती भी तो कैसे क्योंकि वो उसकी माँ को ही दिल से नहीं लगा पाई थी | इस बात में लालाजी की बेटियां भी अपनी मांजी पर ही गईं थी | परन्तु लालाजी इस सब से दूर अपने उत्तराधिकारी के साथ मस्त थे |
सुधांशु के पिता अलग व्यवसाय में थे | मसरूफ़ियत के चलते वो घर परिवार को ज्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे | हालाँकि संतान वो उन्ही की थी पर उन्हें अभी तक अपनी इस ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं था | जिस तरह के गैर जिम्मेदाराना परवरिश वाले माहौल में वो बड़े हुए थे उनका रवैया भी ज़िन्दगी के प्रति वैसा ही था | बालक होने के पश्चात भी उनमें रत्ती भर बदलाव नहीं आया था |
सुधांशु की माताजी एक बहुत ही सभ्य परिवार से थी | उनके पिता भी बहुत रासुक वाले और नामचीन व्यापारियों में से थे | खानदानी लोग थे | थोक मंडी में उनका बहुत साख़ थी | लालाजी ने ये रिश्ता मुंह से मांग कर लिया था | परन्तु घर के माहौल और लोगों के रवैये की वजह से वो कुछ खास खुश नहीं रहती थी | अब उनका सारा जीवन अपने सुपुत्र सुधांशु और उसकी छोटी बेटी के इर्द गिर्द ही घूमता रहता था | वो उन दोनों के लिए ही जीती थी | चुप रहती और सब कुछ सहती । उफ़ तक न करतीं थी ।
सुधांशु के जीवन का हर फैसला लालाजी लिया करते थे | क्या खाना है, क्या पीना है, कहाँ जाना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है, क्या पहनना है, स्कूल का होमवर्क, पिकनिक पर जाना, किसको मित्र बनाना है किसको नहीं इत्यादि सब लालाजी देखा करते थे | उसे भी अपने दादा से बेहद लगाव था | लालाजी कड़क मिजाज़ तो थे पर प्यार भी करते थे | यदा कदा सुधांशु की धुलाई भी कर दिया करते थे | उसे मर मर कर मोती के जैसे लिखना उन्होंने ही सिखाया था । वरना आज उसकी लिखाई भी कीड़े मकोडो जैसी होती । अक्षरों को मोती सा टांकना उनके डंडे की ही दें था । लालाजी में प्यार तो बहुत था पर उससे जताने का तरीका सही नहीं था | बात बात पर कठोर हो जाना और कड़ा व्यव्हार करना धीरे धीरे उनकी आदत में शुमार होता जा रहा था | दूसरा गाली गलोंच से बोलचाल करना उनकी सबसे बड़ी कमी थी ।
ज्यों ज्यों सुधांशु बड़ा हो रहा था वैसे वैसे कठोरता का मापदंड बढ़ता जा रहा था | अब लालाजी का व्यव्हार बात बात पर कड़ा हो जाया करता था | छोटी से छोटी गलती पर भी सज़ा मिलना लाज़मी होता था | गाली गुप्तारी तो आम बात थी और सजी भी कैसी जिसे देख कर दिल दहल जाये | कई दफा तो सुधांशु को सारा सारा दिन मुर्गा बनाये रखते थे | न खाना न पानी वो बेचारा भी जैसे तैसे इस पीड़ा को बर्दाश्त करने लग गया था | अब उसके दिल में दादा के प्रति डर की भावना भी उत्पन्न होने लग गई थी | इतना होने के बावजूद प्यार अभी भी बरक़रार था | खेल कूद में भी लालाजी पीछे न थे | वो सुधांशु के साथ हर खेल खेला करते खासकर कैरम और शतरंज उनके प्रिये थे | कभी कभार वो ताश, लूडो या सांप सीढ़ी भी खेल लिया करते थे । पर उन दोनों का सबसे प्रिय खेल रमी होता था जिसे वो दोनों छुट्टियों में रात को घंटो खेल करते थे ।
सुधांशु अब छठी कक्षा में आ गया था | वो चीज़ों को और बर्ताव को समझने लगा था | लाला जी का बात बात पर टोकना, गाली देना और दंड देना उसे अखरने लगा था | लालाजी ने कभी भी प्यार से बैठकर उससे दो बातें नहीं की थी । परन्तु विद्रोह के बारे में सोचना उसके बस में नहीं था | लालाजी की सोच का आलम ये होता जा रहा था के वो कभी भी सुधांशु को अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करने देते थे | हर एक चीज़ उससे इतने विस्तार से बतलाते जिसे सुनते सुनते वो भी उकता जाता | बात बात पर उसे टोकना और अपनी सोच उस पर थोपने लगे थे । मन हे मन अब वो लालाजी से दूर जाने के बहाने सोचता रहता | इस् सब के चलते तीन वर्ष और बीत गए |
सुधांशु अब पंद्रह वर्ष का हो गया था | इस उम्र में बच्चों का खास ख्याल रखने की ज़रुरत होती है और उनके साथ एक दोस्ताना व्यव्हार करना लाज़मी हो जाता है | वे अपने जीवन में बदलाव की देहलीज़ पर कदम रख रहे होते हैं | बचपने से जवानी की तरफ उनका अब पहला कदम होता है | लालाजी और घर के बाकी लोग कभी भी इस बात को समझ नहीं पाए थे | सिर्फ सुधांशु की माँ इस बात को समझ रही थी पर घर में उनकी भी एक न चलती थी | बचपन की मार, अपमान, गालियाँ और डांट डपट सह सह कर वो अपने अन्दर एक ज्वालामुखी पाले जा रहा था | पिटाई और मार के डर के साथ उसके मन में रोष भी जन्म ले चुका था । जितने जिद्दी और हठी लालाजी थे । उतना ही अड़ियल वो भी था । उसपर इतनी ज़िल्लत बर्दाश्त कर कर के वो ढीठ बनता जा रहा था । आखिर खून तो उन्ही का था । वो लालाजी से पीछे कैसे रहने वाला था । वो अपने बल पर अपनी सोच से खुद कुछ करना चाहता था । पर बात बात पर पाबन्दी, घर से बहार न निकलने देना और भेद भाव वाले व्यव्हार से वो पूर्णतः पक चुका था और एक दिन जिसका डर था वही हुआ | सुधांशु ने लालाजी को उल्टा जवाब पकड़ा दिया | क्रमशः
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जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |
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the characters, incidents and places in this blog stories are totally
fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or
place is purely coincidental.
बहुत सुंदर धारा प्रवाह कहानी,,,इन्तजार अगली कड़ी का,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST बदनसीबी,
बहुत ही सुंदर कहानी,धारावाहिक की तरह आगे के दृश्य का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंवाह ... जारी रहिए ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन: ताकि आपकी गैस न निकले - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आप सभी का बहुत बहुत आभार |
जवाब देंहटाएंतुषार जी,
जवाब देंहटाएंकहानी पढनी शुरू की है ...पूरी पढना चाहता हूँ पर आपके एहसास महसूस करके ...
खुश रहें ,
शुभकामनायें!और आभार ...
dil ki daasta ..part one....aaj padha....lg rha tha poori kahani padhti jau khatam hi na ho...bahut achha likha h
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