बंदगी पे उसकी, मैं फ़िदा नहीं
न इबादत में, न जमात में
शिकवा भी तो, किया नहीं
मैं हूँ नहीं, खुदा परस्त
यारों मैं हूँ, बेवफा सही
मुझको नहीं
फ़िदा'ऎ-दिल अज़ीज़
दीन-ओ-दिल, की मुझको
परवाह नहीं
फिर उसके, बाब जाऊं क्यों
मुझे जिससे कोई, गिला नहीं
या ख़ुदा, मैं हूँ काफ़िर अगर
ये उसको मैं, बतलाऊं क्यूँ
'निर्जन' तेरे न होने से भी
किस के काम बंद हैं
अब रोये बार बार क्या
तू करता हाय हाय क्यों
बस अपने में जीता जा तू
और अपने में मरता जा तू
कर के याद किस बेवफा को तू
है अपना दिल, जलाये क्यों
मैं हूँ नहीं, खुदा परस्त
सजदे में उसके, जाऊं क्यूँ
साधू साधू
जवाब देंहटाएंभावनाएं अच्छी हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति बधाई ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... पर उसके सजदे में खुदा समझ के ही क्यों जाऊं ... अपना प्यार समझ के भी सदका किया जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति ...
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंतुषार बहत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमै हूँ नहीं खुदा परस्त,
जवाब देंहटाएंसजदे में उसके जाऊं क्यू ,,,,उम्दा भाव लिए सुंदर पंक्तियाँ ,,
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बहुत बहुत शुक्रिया अरुण भाई |
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण रचना, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
umda aur bhavpurn rachna
जवाब देंहटाएंbadhiya rachna ..
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