दुविधा कब से है यह मन की
दुविधा है ये जन्म जन्म की
आकर जाना, जाकर आना
घट-घट वासी और निरंतर
मिटा धारणा मन की
जब चाहे तब घर छोड़ना
जब चाहे तब मिल जाना
ऐसी दशा नहीं चाहियें
ऐसा मरण नहीं चाहियें
व्यथित दशा है इस मन की
प्यासी लालसा नहीं चाहियें
दे दो मुक्ति दीनन जी
मेरी दीनता तुम्हे पुकारे
दे दो मुक्ति इस मन की
दुविधा कब तक सुलझेगी
इस मन की !!!
sahi likha hai aapne ..yah duvidha hi jiivan men kitani hi baar pairon men bediya daal deti hai ...sundar rachna..
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना |आपके ब्लॉग को यहाँ शामिल किया गया है- ब्लॉग"दीप"
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद | दिल से आभार व्यक्त करता हूँ | आप लोगों की ऐसी ही हौसलाफ्जाई के चलते मैं आगे भी लिखने का प्रयत्न करता रहूँगा |
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जनाब
जवाब देंहटाएंसशक्त और प्रभावशाली रचना.....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सुषमा
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