आखिरकार दिन, महीने और फिर साल गुज़रे और निज़ाम ऐसे ही चलता रहा | पंद्रह साल से ज्यादा बीत गए थे | सुधांशु २८ साल का हो गया था | आपसी मन मुटाव के चलते रिश्तों के बीच के एहसास भी सूली चढ़ चुके थे | लालाजी और समस्त परिवार एक तरफ और सुधांशु दूसरी तरफ | प्यार तो दिलों में बहुत था पर वक़्त ने उस प्यार को एक दुसरे तक कभी पहुँचने नहीं दिया | दुसरे शब्दों में कहूँ तो वक़्त ही 'मैं' बन गया था | और उस 'मैं' के रहते सब कुछ खत्म होता गया |
कहते हैं इंसान अच्छा या बुरा नहीं होता | जो होता है वक़्त होता है | सच कहूँ तो मुझे आज भी इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं है | इंसान तो इंसान है और उसका स्वाभाव उसके वश में है इसमें वक़्त का अच्छा और बुरा होने से क्या लेना देना | व्यव्हार इंसान के काबू में होना चाहियें चाहे फिर वक़्त कैसा भी हो | जिस व्यक्ति को अपने व्यव्हार और वाक्शक्ति पर नियंत्रण नहीं वो इन्सान कमज़ोर होता है | ऐसा मैं मानता हूँ ज़रूरी नहीं के हर कोई ऐसा ही सोचता हो |
सुधांशु की भी यही सोच था | उसका स्वभाव उसके वश में था और उसकी सभी इन्द्रियां भी | इसके चलते उसने एक चुप्पी साध ली थी | न वो बुरा कहना चाहता था न सुनना | न कोई शिकवा न किसी से कोई शिकायत | बस एक मौन था और दिल में दर्द का उमड़ता तूफ़ान जो उसे अन्दर ही अन्दर बहाए ले जा रहा था हर एक परिस्थिति और अपनों से दूर | करना बहुत कुछ चाहता था सबके लिए पर कद्र किसको है यह सोचता था | कर्मठता परिपूर्ण थी उसमें | हर एक कार्य में दक्ष था | अपने मतलब का हर काम करना वो भली भांति जानता था | आखिरकार लाला जी का खून था | चारों चूल चौकस और चौकन्ना | दिमाग तो उसका फेर्रारी से भी तेज़ दौड़ता था | अपने काम से और अपनी मेहनत से आज वो नौकरी में भी शिखर पर पहुँच चुका था | उसने बहुत ही कम उम्र में बहुत कुछ हासिल कर लिया था परन्तु दिल और हाथ एकदम ख़ाली थे | पैसा तो कमाया पर उसका मोह कभी नहीं किया | सारी कमाई दूसरों पर खर्च कर देता | एक पैसा न जोड़ता | घर में सभी के लिए कुछ न कुछ लेकर आता सिर्फ लालाजी और उनकी धर्म पत्नी के लिए नहीं | दिल तो बहुत करता पर कुछ ऐसा था जो उसे रोक देता | लालाजी ने भी तो आजतक ऐसा ही किया था | दिल तो उनका भी बहुत था करने को पर किया आज तक कुछ नहीं | दिलाया कुछ नहीं |
इसी के चलते सुधांशु का रिश्ता पक्का हो गया | लड़की उसने स्वयं पसंद की थी | उसने लव मैरिज करने का फैसला किया था | परिवार भी जैसे तैसे मान गया था | परन्तु लालाजी सहमत न थे | फिर भी अनमने बुझे दिल से वो शादी में शामिल हुए | शादी हुई और सुधांशु के जीवन का एक नया दौर आरम्भ हुआ | शुरुवाती दिनों में सब कुछ अच्छा लग रहा था | परन्तु जीवन के कुछ और इम्तिहानो से और बेहद बुरे दौर से गुज़ारना अभी बाकि था | शादी के कुछ समय बाद ही खटपट शुरू हो गई | न विचार मिलते थे दोनों के न ही व्यव्हार और सोच | उसको धर्मपत्नी से और बीवी को उससे शिकायतें रहने लगी | झगडा बढ़ते बढ़ते परिवारों के बीच पहुँच गया | दिलों में खटास और मन मुटाव के चलते कलह और आरोप प्रत्यारोप अपने चरम सीमा पार कर गए | बुजुर्गों का अपमान और उपेक्षा उसके लिए आम बात थी । न आदर न सम्मान । रिश्ते उसके लिए सिर्फ उपयोग की वस्तु रह गए थे । वो नाम के लिए पुत्र-वधु तो बनी थी पर कुल-वधु कभी नहीं बन पाई । अपने जीवन में उसे किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं था । बड़ों से लिहाज़ और छोटों से तहज़ीब और अदब से किस तरह पेश आना चाहियें था ये उसकी परवरिश में शुमार नहीं था । अपनी बात किसी से न कहने की कवायत के चलते फासला बढ़ता जा रहा था | न बोले तुम न मैंने कुछ कहा ने एक दीवार खड़ी कर दी रिश्तों में | वो हर बात पीता और अन्दर ही अन्दर घुट घुट कर जीता रहता | काम पर जाता तो वहां से वापस आने का दिल न करता | घर में कलेश का माहौल रहने लगा था | उसका दम घुटने लगा था | रोज़ रोज़ वही चिक चिक | वही महाभारत रोज़ रोज़ आखिर कौन कब तक बर्दाश्त करेगा | इस सब के चलते उसके एक संतान ने जन्म लिया | संतान के आने से जीवन में फूलों की बरसात हो गई हो | मेघा की झड़ी लग गई | खुशिओं की बरखा बरस गई | जितना लगाव और मोह उसे अपनी संतान से था उतना किसी से भी नहीं था | अपनी माँ के बाद अगर वो किसी को सच में चाहता था और जान देता था वो उसकी संतान ही थी | बीवी के और उसके बीच के रिश्ते परस्पर बिगड़ रहे थे | किसी तरह वो अपनी शादी को बचने का प्रयास करता रहा | कभी प्यार की खातिर कभी बेटी की खातिर |
परन्तु कहते हैं न औरत चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे या फिर नरक | ये सब उसके हाथ में होता है | एक गलत इंसान और एक बिना सोचे लिए गया फैसला आपकी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए तबाह कर सकता है | सुधांशु के साथ भी यही हुआ | एक दिन उसके सारे भ्रम टूट गए | उसके भरोसे का खून हो गया | जिस रिश्ते को उसने प्यार का रिश्ता समझा था उस रिश्ते में दरअसल प्यार तो कभी था ही नहीं | जिसे वो जीवन संगिनी समझे बैठा था वो तो किसी और की ही थी | अपने जीवन के इस अध्याय के सच सामने पाकर वो बिखर गया | अन्दर से पूर्णतः टूट गया | पर कहता किस से सुनता कौन उसकी | कहना और शिकायत करना तो उसने सीखा ही नहीं था | इसलिए खामोश रहा | सहता रहा | ज़िन्दगी सबसे बड़ा आघात उसे तब लगा जिस दिन उसे मालूम हुआ के किसी और के लिए उसकी बीवी ने उसे छोड़ दिया और उसकी संतान को भी लेकर घर से चली गई | इसी कशमकश और उलझनों के चलते उनका अलगाव होने की नौबत आ गई | भरसक प्रयास किया रिश्ते को बचने का परन्तु नतीजा कुछ न निकला | बड़े बूढों का साया सर पर रहते हुए भी ऐसे दिन देखने को नसीब होंगे उसने कभी सोचा न था | आख़िरकार उसका घरोंदा टूट गया | संतान से भी विच्छेद हो गया | अब वो एक दम अकेला था | इसका सबसे ज्यादा दुःख लालाजी को ही था | उनके रहते उनके खून की ऐसी हालत वो बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे | पर अपने दिल की बात कहना कहाँ आता था उन्हें | अब सुधांशु एक दम खामोश हो चुका था | खून के आंसू पी पी कर उसके दिल के ज़ख्म भी सूख चुके थे | पर वो बहुत ही हौसलें वाला इंसान था | जीवन का ये वार भी सह गया | प्रभु की एक और लीला समझ कर उसने उनका धन्यवाद् दिया और कहा के शायद इसमें भी कोई अच्छाई ही होगी जो आपने मेरे साथ ऐसा किया | जीवन के तमाशे के किरदार तो आपने लिख कर भेजे हैं मैं उन्हें बदलने वाला कौन हूँ | भगवान् पर उसका भरोसा अटल था | ऐसे झटकों से अक्सर लोग तबाह हो बिखर जाया करते हैं | पर वो संभल गया | अच्छे बुरे और अपने पराये की पहचान उसे भली भांति हो गई थी | पुराने लोग कह गए हैं के दर्द जब दिल के पार हो जाये और हद से गुज़र जाये तो होटों पर मुस्कान बन कर छलकता है | वही उसके साथ हुआ | अपने भीतर के दर्द से बचपन से लड़ते लड़ते वो इतना मज़बूत हो गया था के आज उसके सामने जो परिस्थिति थी वो उसके लिए कहीं न कहीं तयार था | दिल से कहूँ तो उसने अपने आपको इतनी बेहतरीन तरह से संभाला के आज उसके समस्त परिवार को भी उस पर नाज़ था |
उसके स्वाभाव में अचानक एक भव्य परिवर्तन हुआ | जो इंसान “एंग्री यंग मैन” के ख़िताब की पराकाष्ठा को भी पार कर चुका था, ख़ामोशी, अना, जिद, चिडचिड़ाहट, जवाबदेहि, मुन्ह्ज़ोरी, कडवाहट, बदजुबानी, जिसके पर्यायवाची हुआ करते थे | जो प्राणी या तो बोलता ही नही था या बोलता था तो काटने को दौड़ता था आज वो एक दम शांत था | उसके स्वभाव में एक ठहराव था | अपने प्यार को दर्शाने का ये तरीका उसने कब और कैसे छोड़ दिया इससे सब अनजान थे | आज एक पूर्णतः बदला हुआ सुधांशु सबके समक्ष था | अब उसका व्यव्हार और आचरण एक दम उसके स्वाभाव के विपरीत था | शायद एक गलत फैसले और गलत रिश्ते के तजुर्बे ने उसे ये भी सिखा दिया था के अपने अपने ही होते हैं और पराये कभी अपने नहीं होते | किसी पर भरोसा बहुत सोच समझ कर करना चाहियें |
वो इतवार का दिन था | इन्ही सभी ख़यालों में डूबा सुधांशु चुप चाप अपने कमरे में बैठा था | अचानक किसी ने अपना हाथ उसके काँधे पर रखा और पुछा,
"बेटा, किस सोच में बैठा है ? सब ठीक है न | रात सोया नहीं क्या ? कुछ तकलीफ तो नहीं है ? मैं तेरे साथ हूँ और तेरे पास भी | डरता और घबराता क्यों है | चल उठ खड़ा हो | मेरे गले तो लग जा ज़रा | अरसा हो गया तुझे सीने से लगाये | दिल तरस गया तेरे दिल की धड़कन को महसूस करने के लिए | तेरे मन की आवाज़ सुनने के लिए कान तरस गए | ऐसी भी कैसी नाराजगी? चल आ आज बहार चलते हैं | साथ में घूमेंगे और छोले कुलचे खायेंगे | थोड़ी हवाखोरी भी हो जाएगी | क्या कहता है ? चलें ? तयार है न मेरे शेर ? बता |" क्रमशः
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पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या
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All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental.
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