मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

कर्म और अकर्मण्यता














हे प्रभु! आपने तो
बचपन से ही
कर्म को प्रधानता दी
फिर यह मध्यकाल
आते-आते अकर्मण्यता
को क्यों बाँध लिया
अपने सर का
सेहरा बना कर,
बनाकर एक
अकमणयता की सेज
तुम्हारी ये निद्रा
तुम्हारे ही लिए नहीं
समस्त जन को
पीड़ा की सेज देगी
बैठा कर स्वजनों को
काँटों की सेज पर
पहना कर काँटों के
ताज को तुम ईशु
नहीं कहलाओगे
कहलाओगे सैय्याद
तुम अपनी निद्रा त्यागो
तुम कर्म की वो राह चुनो
जो पीडित स्वजनों को
रहत दे ऐसी राहत
जिसे सुनकर
मृत भी जी उठे

12 टिप्‍पणियां:

  1. कभी-कभी दूसरों की गलतियों की सज़ा भी भुगतनी होती है .....
    भगवान हैं ,तो उनका तो वे जाने वे क्या क्या रचते रहते हैं
    जो होता है ......... अच्छे के लिए होता है .......
    हार्दिक शुभकामनायें .......

    जवाब देंहटाएं
  2. अकर्मण्यता को त्याग कर्म का सन्देश प्रेषित करती सुन्दर कविता ...
    ( कृपया ...अकर्मण्यता... वर्तनी का सुधार कर लें)

    जवाब देंहटाएं
  3. क्या कहना चाहते हैं >> बहरहाल...प्रभु को अपना कर्त्तव्य याद दिलाने का शुक्रिया......वह कभी अकर्मण्य नहीं होता .....मानव को स्वयं का कर्तव्य याद रखना चाहिए....

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रभु ..प्रभु है यीशु नहीं .....

    जवाब देंहटाएं

कृपया किसी प्रकार का विज्ञापन टिप्पणी मे न दें। किसी प्रकार की आक्रामक, भड़काऊ, अशिष्ट और अपमानजनक भाषा निषिद्ध है | ऐसी टिप्पणीयां और टिप्पणीयां करने वाले लोगों को डिलीट और ब्लाक कर दिया जायेगा | कृपया अपनी गरिमा स्वयं बनाये रखें | कमेन्ट मोडरेशन सक्षम है। अतः आपकी टिप्पणी यहाँ दिखने मे थोड़ा समय लग सकता है ।

Please do not advertise in comment box. Offensive, provocative, impolite, uncivil, rude, vulgar, barbarous, unmannered and abusive language is prohibited. Such comments and people posting such comments will be deleted and blocked. Kindly maintain your dignity yourself. Comment Moderation is Active. So it may take some time for your comment to appear here.