सोच बदलेगी, किस्मत बदल जाएगी
नज़र बदलेगी, नेमत बदल जाएगी
आसमां पाना हो, तो परवाज़ मत बदलना
परवाज़ बदलोगे, तो हवाएं बदल जाएँगी
हमारी प्रजाति मनुष्य की है। यह सोच का कीटाणु केवल हम मनुष्यों में विद्यमान है। यह कीटाणु कभी सकारात्मक होता है कभी बहुत ही विध्वंसक होता है। इस पर किसी का ज़ोर नहीं होता, परन्तु इसके आधार पर यह सीखा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सोच को यदि बुद्धिमानी से नियंत्रित करे तो वह एक सफल जीवन यापन कर सकता है और जीवन में सफलताओं और असफलताओं से ऊपर उठ सकता है। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति के जीवन में सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह शक्ति इसे जानवरों से मुख़्तलिफ़ करती है। सोच का मनुष्य के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। यही कारण है कि इंसान के विचारों को कैसा होना चाहिए, उसे कैसे व्यवस्थित करना चाहिए और उसके मन पर विशेष विचार का प्रभाव कैसे पड़ता है? यह मनुष्य स्वयं ही निर्धारित करे तो बेहतर है नहीं तो उसमें और कुत्ते की पूँछ में क्या फ़र्क रह जायेगा।
मैंने सुना था "ज़िन्दगी में हम जो भी कार्य करते हैं या जैसा भी बनते हैं उसके पीछे हमारा स्वाभाव, हमारे संस्कार तथा हमारी संगत आर्थात हमारे यार-दोस्त या रिश्ते-नातेदार जिनकी सोहबत में हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिताते हैं, का गहरा प्रभाव होता है" लेकिन जिस दिन आप अपनी सोच से अपने जीवन के फैसले खुद लेने लग जाते हैं उस क्षण के पश्चात् से यह प्रभाव, यह स्वाभाव, यह संस्कार और उस सांगत का कोई भी असर आपके ऊपर नहीं रहता। आपकी सोच अपने में इतनी सशक्त हो जाती है जो ना आपको बहकने देती है, ना बदलने, और ना अपने लक्ष्य से डिगने देती है।
इंसान जैसी सोच रखता है वैसा ही बन जाता है । सोच वही होती है जैसा हमारा मस्तिष्क आचरण करता है, जैसा हम करना चाहते हैं और उसे पूर्ण करने हेतु जो रास्ता हम अख्त्यार करते हैं । सच कहूँ तो वही हमारा वास्तविक स्वाभाव होता है और अंत में हम अपनी सोच के अनुरूप ढल जाते हैं । अगर पंक्तियों के माध्यम से अपने इस भाव को व्यक्त करना चाहूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि :
जैसा सोचोगे, वैसा बोलोगे
जैसा बोलोगे, वैसे करोगे
जैसा करोगे, वैसी आदत बनेगी
जैसी आदत होगी, वैसा चरित्र बनेगा
जैसा चरित्र बनेगा, वैसा जीवन आधार बनेगा
जैसा जीवन आधार बनेगा, वैसी ख्याति होगी
जैसी ख्याति होगी, वैसा वर्तमान होगा
जैसा वर्तमान होगा, वैसा भविष्य होगा
सोच यूँ तो बहुरूपी है परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यह दो ही रूपों में समाहित है -
सकारात्मक सोच और
नकारात्मक सोच।
यदा-कदा हम आपस में तर्क-वितर्क करने बैठ जाया करते हैं परन्तु अंत में वह बहस तर्क-कुतर्क में बदल जाती है और आपसी मतभेद और झगड़े-फ़साद की जड बन जाती है। उस समय इंसान और कुत्ता-बिल्ली में कोई फ़र्क नहीं रहता। अब तो तर्क-वितर्क सिर्फ नाम के रह गए हैं असल में तो तर्क-कुतर्क ही सोच के नए रूप हो गए हैं। कुतार्किक सोच, सोच का एक आधुनिक रूप है, और मैं ऐसा मानता हूँ कि यह एक (अस्वाभाविक) तरीका है। यहाँ सोच और संगत कर रही बातों के बीच के संबंध को हम सांसारिक रूप के अनुसार सोच कर पारंपरिक तरीके का नाटक करने के लिए औपचारिक तर्क के नियमों को दर्शाते हैं। ज्ञान भले ही अधूरा हो, हो न हो पर आडम्बर, ज़िद और बहस पूरा होता है। आजकल इस मॉडर्न सोच का बहुत प्रचलन देखने को मिलता है। जिसे देखो अपनी बात का ढ़ोल बजकर या सोच की पुष्टि हेतु तर्क देता नज़र आता है फिर वो तर्क भले ही ग़लत क्यों न हो, ऐसे में व्यक्ति को लगने लगता है वह ही आइन्स्टाइन का पड़पोता है या न्यूटन का तोता है। अक्सर बैठकों, गोष्ठी, सभाओं और सम्मेलनों इत्यादि में डंडीमार सोच या भांजिमार सोच वाले सूरमाओं को देखा गया है यह वो कौम होती है जो कभी भी सकारात्मक सोच से इत्तेफ़ाक नहीं करती हमेशा उसकी काट में लगी रहती है। इनके कारण कई बार कुछ समय के लिए अच्छी सोच वाले लोग भी बहक जाया करते और बनते काम बिगड़ जाया करते हैं। खुदा लानत भेजे ऐसे चिल्गोज़ों पर जो न खुद की सोच रखते हैं न किसी और की ज़हीन सोच का एहतराम करते हैं।
इसी तरह सोच के कई अन्य रूप भी सामने आये हैं जैसे - सोशल मीडिया सोच, टीवी सीरियल सोच, बड्बोली सोच, कामचोर की सोच, गधे की सोच, नेता की सोच, चाटुकार की सोच, बच्चे की सोच, बूढ़े की सोच, आशिक़ की सोच, माशूक की सोच, बीवी की सोच, पति की सोच, सास-बहु की सोच, पति-ससुर की सोच, जोरू के गुलाम की सोच, आवाम की सोच, बद की सोच, बदनाम की सोच, छिछोरे की सोच, बेटे की सोच, बेटी की सोच, अनाड़ी की सोच, खिलाड़ी की सोच, अफ़सर की सोच, नौकर की सोच, सफल की सोच, असफल की सोच, भिखारी की सोच, पूंजीवादी की सोच, विभीषण की सोच, सिपाही की सोच, दार्शनिक सोच, काल्पनिक सोच, विरोधाभासी सोच, सुसंगत सोच, कुसंगत सोच, संरचित सोच, सबूत के आधार पर सोच, अवधारणा आधारित सोच, न्यायपूर्ण सोच, तुलनात्मक सोच, स्पष्ट सोच, अस्पष्ट सोच, विश्लेषण सोच, संश्लेषण सोच, आलोचनात्मक सोच, सामान्यीकरण सोच, अमूर्त सोच (सार सोच) और अन्य कई प्रकार की सोच जिनकी क्षमता मनुष्य के मस्तिष्क में है क्योंकि सोच की हद तक कोई नहीं जा सकता और किसकी सोच किस हद तक जा सकती है यह कोई नहीं बता सकता। कहने को इनके रूप अनेक हैं परन्तु इनकी मुख्य श्रेणी यही दो हैं। सोच के इन विभिन्न रूपों के गुण-अवगुण जानकर उपयोग करने के पीछे ज़िम्मेदार केवल मनुष्य और उसका मस्तिष्क ही होता है। मुझे ऐसा लगता है सोच हमेशा सम होनी चाहियें। सभी पक्षों, परिस्थितियों, प्रभावों, परिणामो और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को बनाना चाहियें। सोच का दायरा सीमित नहीं असीमित होना चाहियें लेकिन सही दिशा में और सकारात्मक विचारधारा के साथ।
सकारात्मक सोच हमको ऊर्जा प्रदान करती है और हमारी गुप्त क्षमताओं को उजागर करती हैं। यह विचारधारा अवसरों के संबंध में चेतना में वृद्धि करती है। अच्छी सोच हमारे जीवन के अंधकारमय आयामों को प्रकाशमय करती है और हमारे अस्तित्व में गुप्त आयामों को स्पष्ट करती हैं। अच्छी सोच रखने वाला व्यक्ति घटनाओं की आशाजनक व्याख्या करता है और उसकी अच्छाइयों का पता लगाता है और रचनात्मक समाधान के मार्ग को पा लेता है जिसे ग़लत सोच रखने वाला समझ भी नहीं पाता। सकारात्मक सोच जीवन में आशा और उत्साह में वृद्धि का कारण बनती है, ऐसी आशा जिसके बिना जीवन लगभग असंभव हो जाता है।
एक अच्छी जिन्दगी के लिए एक अच्छी सोच का होने बेहद जरूरी है और आपकी प्रबल सोच हकीकत बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेती है। “सपने देखने का अधिकार भी उन्ही को है जो उसे पूरा करने का साहस भी रखते है” । किसी ने सच्च कहा है कि "हम अपनी सोच के आधार पर जो चाहे वो बन सकते है"। कहते है कि "अगर दिल से चाहो तो भगवान् को भी पाया जा सकता है"। इसी तरह से "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है", यहाँ भी भाव उसी सोच और उसे क्रियान्वित करने का है। आप जितना बड़ा सोचते हो उसे हकीकत में बदलने के लिए आपको बलिदान् भी उतना ही बड़ा देना पड़ता है। आदमी वह नहीं है जो चेहरे से दिखता है, आदमी वह है जो उसकी सोच से दिखता है।
अपनी इस सोच को मैं कुछ इस तरह विराम देना चाहता हूँ कि "हम खुद अपने भाग्य के रचयता है" जैसी होगी अपनी सोच और जिस ओर पग बढ़ाएंगे वैसा ही परिणाम हम पाएंगे और वैसे ही बनजायेंगे। मुझे लगता है "यदि हम सदा आलस्य, अशांति, असफलता, शत्रुता, कटुता, हार, चिंता, दुःख, द्वेष, लालच, जलन, भूख, गरीबी, बीमारी, लड़ाई, झगड़ा इत्यादि के बारे में सोचेंगे तो हमारे सामने हमेशा यही आता रहेगा किन्तु यदि हम हमेशा जीत, ख़ुशी, सामंजस्य, जाग्रति, शांति, अमीरी, सफलता, मित्रता, शीतलता, विश्वास, प्रेम, सद्भाव, दया आदि के बारे में सोचेंगे तो हमको ज़िन्दगी में यही सब प्राप्त होगा" इसलिए जहाँ तक हो सके बड़ी सोच रखें, सकारात्मक और सुलझी हुई सोच रखें, दूसरों से जल्दी, अच्छा और कलात्मक सोचें और निर्णय लेने की क्षमता रखें, सोच के पंखों को खुले आसमान की परवाज़ दें, व्यवहार कुशल सोच रखें, माफ़ी देने की सोच रखें, आशावादी सोच रखें जो आपस में क्रियान्वित हो सके। यदि आप ऐसी सोच के मालिक होंगे तो आपका जीवन निश्चित रूप से सफल होगा और आप आकाश की ऊँचाइयों पर विचरण करने में सफल होंगे एवं जीवन में गौरवान्ति महसूस करेंगे । सकारात्मक सोच पर भरोसा करते हुए दिनचर्या के कामों को सरलता से निपटाया जा सकता है और नया व स्पष्ट जीवन आपकी प्रतीक्षा में होगा और आपके सामने ख़ुशियों का ठाठे मारता समुद्र होगा। आपकी सच्ची सकारात्मक सोच ही आपके जीवन की सफलता और असफलता का पर्याय है | ज़रा सोचें !!!
"अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे, जिसकी जैसी सोच थी उसने उतना ही पहचाना मुझे"
--- तुषार राज रस्तोगी ---