गुरुवार, अप्रैल 25, 2013

क्या लिखूं क्यों लिखूं





















स्याह ज़िन्दगी मेरी, कलम-ए-दर्द से कहूँ
जो लिखूं तो लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

सोच कर तो कभी, कुछ लिखता नहीं
वो लिखूं सो लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

एक फ़क़त सोच पर, जोर चलता नहीं
हाँ लिखूं ना लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

ग़म-ए-ऐतबार को, खून-ए-रंज से कहूँ
दिल लिखूं जां लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

तेरी बेवफाई का, हर सबक मैं कहूँ
कब लिखूं अब लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

फ़नाह 'निर्जन' कभी, दुःख से होगा नहीं
जी लिखूं मर लिखूं, क्या लिखूं क्यों लिखूं

मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

कर्म और अकर्मण्यता














हे प्रभु! आपने तो
बचपन से ही
कर्म को प्रधानता दी
फिर यह मध्यकाल
आते-आते अकर्मण्यता
को क्यों बाँध लिया
अपने सर का
सेहरा बना कर,
बनाकर एक
अकमणयता की सेज
तुम्हारी ये निद्रा
तुम्हारे ही लिए नहीं
समस्त जन को
पीड़ा की सेज देगी
बैठा कर स्वजनों को
काँटों की सेज पर
पहना कर काँटों के
ताज को तुम ईशु
नहीं कहलाओगे
कहलाओगे सैय्याद
तुम अपनी निद्रा त्यागो
तुम कर्म की वो राह चुनो
जो पीडित स्वजनों को
रहत दे ऐसी राहत
जिसे सुनकर
मृत भी जी उठे

रविवार, अप्रैल 21, 2013

बकरचंद
















आज बने है सब बकरचंद
पखवाड़े मुंह थे सब के बंद
आज खिला रहे हैं सबको
बतोलबाज़ी के कलाकंद

बने हैं ज्ञानी सब लामबंद
पोस्ट रहे हैं दना-दन छंद
आक्रोश जताने का अब
क्या बस बचा यही है ढंग

बकर-बक करे से क्या हो
मिला है सबको बस रंज
बकरी सा मिमियाने पे
मिलते हैं सबको बस तंज़

ज़रुरत है उग्र-रौद्र हों
गर्जना से सब क्षुब्ध हों
दुराचारी-पापी जो बैठे हैं
अपनी धरा से विलुप्त हों

दिखा दो सब जोश आज
शस्त्र थाम लो अपने हाथ
दरिंदों, बलात्कारियों की
आओ सब मिल लूटें लाज

बहुत हो लिए अनशन
खत्म करो अब टेंशन
हाथों से करो फंक्शन
दिखा दो अब एक्शन

आया नहीं जो रिएक्शन
तो खून में है इन्फेक्शन
'निर्जन' कहे उठो मुर्दों
दिखा दो कुछ फ्रिक्शन

मत बनो तुम बकरचंद
कर दो छंद-वंद सब बंद
इस मंशा के साथ बढ़ो
कलयुग में आगे स्वछंद

शनिवार, अप्रैल 20, 2013

बदल रहा है

















दुनिया बदल रही है
ज़माना बदल रहा है
इंसानी फितरत का
फ़साना बदल रहा है

भूख बदल रही है
भोजन बदल रहा है
विकृत हाथों का
निशाना बदल रहा है

आचार बदल रहा है
विचार बदल रहा है
भेड़िये दरिंदों सा
किरदार बदल रहा है

सलीका बदल रहा है
तरीका बदल रहा है
विकृत यौनइच्छा का
पैमाना बदल रहा है

बीवी बदल रहा है
बेटी बदल रहा है
हैवानी हदों का
जुर्माना बदल रहा है

दिल्ली बदल रही  है
दिल वाला बदल रहा है
वीभत्स कुकृत्यों से
दिल्लीनामा बदल रहा है

लिखना बदल रहा है
सुनाना बदल रहा है
'निर्जन' फरमाने को
अफसाना बदल रहा है

ऐ मुर्दों अब तो जागो
कब्रों से उठ के आओ
अब सोते रहने का
मौसम बदल रहा है

गुरुवार, अप्रैल 18, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग १०

अब तक के सभी भाग - १०
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प्रभु की अनुकंपा साहू साब के परिवार पर निरंतर सुधाकर से बरसती शीतल और कोमल स्नेह से परिपूर्ण चांदनी की भांति बरस रही थी | समस्त परिवार समृद्धि के पथ पर अग्रसर था | सभी अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे और अपने अपने जीवन का निर्वाह बड़ी ही शालीनता के साथ कर रहे थे | अपनी बेटी के सुखी संसार के साथ वे पुलकित हो उठते थे | जब कभी समय मिलता अनारो देवी के साथ बैठ कर घंटो बतियाते | घर में सबका हाल चाल मालूम करते रहते | बहुएँ भी उनका बहुत आदर सम्मान किया करती थी | देने लेने में भी वे कभी पीछे नहीं रहते | अच्छे से अच्छा अपने नाती, नातिनों, बहुओं और दामादों को दिया करते | अनारो देवी कभी कभार एतराज़ भी जताया करती परन्तु वो दो टूक जवाब देकर उन्हें ख़ामोश कर दिया करते | 

कहते, " देख लल्ली, मेरी तो उम्र हो चली है, ये सासें कभी भी साथ छोड़ सकती हैं और आँखे कभी भी मिच सकती हैं | अब मैं मोह माया से परे हूँ | मेरा जो कुछ भी है सब इन बच्चों का ही तो है | अब तो बस यही आस है के जाने से पहले अपनी आने वाली नई पीढ़ी का मुंह देख जाऊं | ठाकुर जी का बुलावा कभी भी आ सकता है | इससे पहले के उनका बुलावा आये अपने परिवार के साथ थोडा खुश और हो जाऊं | उन्होंने मुझे सब कुछ दिया, तेरे जैसी बेटी दी, गंगा जैसा दामाद और इतने प्यारे नाती और बहुएँ | बस अब छोटे बाल गोपालों से भी वो मुझे मिल्वादें तो आँखें चैन से मूँद लूँगा | वरना बूढ़े की आस साथ ही चली जाएगी |"

उनकी बात सुनकर अनारो देवी का दिल भर आता और कहती, "चाचा काहे ऐसी बातें करते हो आप | आप तो सौ साल भी कहीं न जाने वाले | आपका आशीर्वाद, साथ और आपका हाथ तो मेरे सर पर और मेरे बच्चों के सर पर हमेशा रहेगा | मैं कहीं न जाने दूंगा चाचा तुम्हे | समझ लो सही से |"

उनकी बात सुनकर साहू साब ठट्ठा लगाकर जोर से हंस देते और अनारो देवी भी खिलखिला उठतीं | बस ऐसे ही दिन रात जीवन का कारवां बढ़ता चला जा रहा था | परन्तु यह सुख के दिन सदा के लिए नहीं थे | कोई भी स्तिथि जीवन में निरंतर नहीं रहती | कालचक्र जब घूमता है तब सभी के जीवन में अनकहे सवाल आकर खड़े हो जाया करते हैं जिनके जवाब मनुष्य कभी भी आसानी से नहीं ढूँढ पाता | यही अनारो देवी के परिवार में भी होने वाला था | जिसकी कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की थी वो सामायिक स्तिथियों वाले परिवर्तित दिन उनके समक्ष जल्दी ही शिला के सामान खड़े होने वाली थे | अब देखना यह था के उम्र के इस पड़ाव पर वे जीवन से मिलने वाले इन दृश्यों का सामना कैसे करेंगी | 

समय गुज़रा अनारो देवी की संतानों के परिवार भी नवांकुरित हुए | बहुओं की गोद भरीं | पोते पोतियों के सुन्दर मुख दर्शन हुए | जीवन यापन के साधनों में नई मोहड़ीयां और जुड़ गई परन्तु कारोबार वही सीमित रहा | इसी प्रकार धीरे धीरे परिवार में सदस्यों की गिनती में इज़ाफा होता चला गया | साहू साब के रहते किसी को कोई परेशानी नहीं थी | परन्तु उनकी भी उम्र हो चली थी | वे भी कब तक ज़िम्मेदारी अपने बूढ़े कंधो पर लेते | परन्तु परिवार में यदि कोई बुज़ुर्ग हो तो परिवार हमेशा मुट्ठी की भाँती बंधा रहता है | बिखरता नहीं है | यही कारण था के आज तक इतना बड़ा संयुक्त परिवार होते हुए भी सब साथ रहते थे | 

परन्तु ऐसा कब तक चलता | सबकी संताने भी बड़ी हो रही थी | सुरेन्द्र बाबु की छ: संताने थी जिसमें दो बेटे और चार बेटियां थी | वीरेंद्र बाबु की तीन में एक बेटा और दो बेटियां | सत्येन्द्र बाबु के पांच बेटियां तथा विनोद बाबु के दो बेटियां और एक बेटा था | बेटियों का भी परिवार बहुत संपन्न था | सभी की गोद भर गईं थी | गार्गी देवी के दो बेटे और दो बेटियां, बीना देवी के दो बेटे, एक बेटी और माधरी देवी के एक सुपुत्र और दो सुपुत्रियाँ थी | इतने बड़ी परिवार के पालन पोषण, उपहार, दान, दहेज़, लेन देन सभी की ज़िम्मेदारी और सभी का ध्यान तथा ज़रूरतों का व्यय साहू साब  के सर था | हालाँकि सभी के अपने अपने कारोबार और आमदनी के साधन थे और परिवार को पालने की क्षमता थी परन्तु अक्सर बड़े संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों को ही सर्वोपरी मान सारा भार उनको सौंप दिया जाता है | पर अब बात हाथ से निकलने लगी थी | बच्चे बड़े हो रहे थे | उनकी मांगे भी उन्ही के हिसाब से पूरी करना आवश्यक हो रहा था | पढाई लिखाई, खान पान, कपड़े, गहने,जेबख़र्चा इत्यादि और रोज़ की ज़रूरीयात का सामान चाहियें होता था | कारोबार में भी हिस्सेदारी की बातें होने लगी थी | कहता कोई कुछ नहीं था परन्तु ज़रूरतों और समय के सामने किसकी चली है | दबी ज़बान बहुत कुछ बोल जाती है | हाव भाव शब्दों से ज्यादा चीत्कार करते हैं | मुंह से ज्यादा आँखों का चिल्लाना सुना जा सकता है | इसके चलते अन्दर ही अन्दर दिलों में खिचांव की स्तिथि जन्म लेने लग गई थी और एक दिन यह बात घर के बड़ो के सामने पहुँच गई | 

नौबत यहाँ तक पहुँच गई के बड़ों के लिए कोई न कोई फ़ैसला लेना अनिवार्य हो गया | आखिरकार ह्रदय पर पत्थर रख कर जीवन का सबसे कठोर फैसले का साहू साब, अनारो देवी और गंगा सरन जी को सामना करना पड़ा | उनके सर्वप्रिय वीरेन्द्र बाबु ने स्वीकृति से फैसला दिया के वो 'महिला वस्त्रालय' अपने बड़े भाई के लिए छोड़ कर दिल्ली जाकर कारोबार करेंगे | उनके साथ उनके छोटे भाई सत्येन्द्र भी दिल्ली जाने को राज़ी हो गए | फैसले के कुछ समय पश्चात ही वीरेन्द्र बाबु सबको अलविदा कह दिल्ली आकर बस गए | वहाँ उन्होंने अपने ससुर के साथ कपड़े के करोबार से जीवन की एक नई शुरुवात की और छोटे भाई सत्येन्द्र बाबु ने ठेकेदारी का काम आरम्भ किया | 

समय बीतता जा रहा था | जीवन की उठा पटक से ग्रस्त सभी के जीवन एक निश्चित तय की हुई रेल की भाँती एक ही पटरी पर सुबह शाम दौड़ती जा रही थी | वो पुराने दिन फ़ाक्ता हुए जाते थे | रोज़ एक नई चुनौती का सामना करना पड़ता | किराये के मकान में रहकर स्वयं अपने परिवार के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी निभाना और साथ ही साथ कारोबार भी देखना | यह ज़िंदगी की ओर से बहुत बड़ी ललकार थी | बिना माता पिता और नाना के साथ के नए शहर में, नए चेहरों के बीच, जीवन को नए प्रकार से समायोजित करना कितना असुगम तज़ुर्बा था यह बात सिर्फ वो दो बेटे ही बता सकते थे | 

उधर मुरादाबाद में भी कुछ ऐसा ही हाल था | बच्चों, नाती पोतों से जुदाई और अपने प्रिय सुपुत्र से पृथक होने के कारण कुछ समय बाद साहू साब की सेहत गिरने लगी | अब उनकी सुनने वाला भी कोई नहीं बचा था | इस अलगाव का असर उन पर इतना ज्यादा हुआ के उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और जीवन के दिन गिनना शुरू कर दिया | अनारो देवी और गंगा सरन जी भी बहुत विवश महसूस करते परन्तु शिकायत किस से करते | किस्मत से उपालंभ भी क्या जायज़ होता | इसलिए ख़ामोशी से जीवन का खेला देखते रहते और प्रभु भजन से जीवन-प्रत्याशा बनाये रखते |

अचानक एक दिन कहीं से कोई घर पर एक कुत्ता पालने के लिए ले आया | साहू साब को कुत्ते बिल्लियों से बहुत चिड़ थी | ख़ास तौर पर घर में पालने से | तो उनके डर और डांट डपट से बचने के लिए उसने कुत्ते को छत पर बाँध दिया और रोज़ उसका लालन पालन वहीँ छत पर होने लगा | गर्मियों के दिन थे, कुछ हफ़्तों बाद, अनायास ही एक दिन दोपहरी में जब, सब अपने अपने कमरों में आराम कर रहे थे साहू साब जैसे तैसे करते अपनी छड़ी और हाथों के सहारे टटोल टटोल कर ऊपर छत पर हवाखोरी के लिए पहुँच गए | उन्हे कुत्ते के बंधे होने के बारे में ज़रा भी मालूमात नहीं थी | इस सच से अनजान वे छत पर चहलकदमी करने लगे | कुछ क़दम ही बढ़ाये थे के अकस्मात् ही उनका पैर कुत्ते की पूँछ पर पड़ गया | उन्होंने सोचा शायद कोई रस्सी या कुछ और छत पर पड़ा है | अपनी छड़ी से उन्होंने जैसे ही उसे सरकाना चाहा कुत्ते से तुरंत पलटवार किया और उनका पैर दांतों के बीच लपक लिया और बुरी तरह काट लिया | 

दृष्टि से लाचार नेत्रहीन साहू साब चिल्ला कर गिर पड़े | इधर उधर जैसे तैसे बचाव की लिए छड़ी भी घुमाई परन्तु कोई फ़ायदा नहीं हुआ | जो अनिष्ट होना था वह तो हो गया था | उनके करहाने और चिल्लाने की आवाज़ सुनकर जितनी देर में नीचे से सब ऊपर छत पर आए उतनी देर में कुत्ते ने अपना काम कर दिया था | उसने साहू साब को काट काट कर लहुलुहान कर दिया था | तुरंत ही उन्हें उठा कर नीचे लाया गया और डाक्टर को बुलवाया गया | डाक्टर ने मरहम पट्टी की और दवाई भी दी | पैनी सुइयों की चुभन भी उन्हें अपने शिथिल होते वृद्ध काया में झेलनी पड़ीं | डाक्टर की ताकीद के अनुसार उन्हें अब कम से कम दो महीने बिस्तर पर आराम करना था | अपनी इस अवस्था में भी वे वीरेन्द्र बाबु को ही याद करते रहते | सबसे कहते,"कोई मेरे बिरेन को बुला दो" पर अब सुनने वाला कोई नहीं था | कोई जवाब भी नहीं देता था न ही काम करता था | 

इस हादसे को अब दस दिन बीत चुके थे | साहू साब की तबियत सुधरने की जगह बिगड़ने लगी थी | उधर छत पर कुत्ते की तबियत भी ठीक नहीं थी | कुत्ता भी अजीब तरह से पेश आने लगा था | बार बार सबको काटने को दौड़ता | जो भी खाना देने जाता उस पर भौंकने लगता और ज़ंजीर तोड़ने तक का जोर लगता और लगातार उसके मुंह से झाग निकलते रहते | वही हालत नीचे साहू साब की हो रही थी | वो बात करते करते अचानक कुकुर की भाँती आवाज़ निकलने लगते, मुंह से झाग निकलने लगते और जो भी सहायता के लिए पास आने की कोशिश करता उस पर लपकते और झपटते | डाक्टर को बुलावा भेजा गया और उसके पूछने पर पता चला की कुत्ते को किसी प्रकार का कोई भी टीका नहीं लगा था | वो समझ गया और उसने सबको चेतावनी दे दी के मसला गंभीर है | उसकी बात सुनकर और उनकी ऐसी हालत देखकर सब डर गए और तुरंत वीरेन्द्र बाबु के पास दिल्ली खबर भिजवाई गई | पर किस्मत के सामने किसकी चली है | वीरेन्द्र बाबु दिल्ली से बहार थे | शाम को जब वह लौटे तो उन्हें यह खबर मिली | तुरंत सुरेन्द्र बाबु को साथ ले कर उलटे पाँव मुरादाबाद के लिए रवाना हो गए | 

दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | अपने नाना में उनकी जान बस्ती थी | उनका समस्त संसार उनके नाना के इर्द गिर्द घूमता था | बचपन से जिस बरगद के साये में सांस लेते हुए, खेलते कूदते, ज्ञान लेते और सम्मान लेते बड़े हुए थे आज उनकी तबियत के बिगड़ जाने की खबर से उनका मन व्याकुल हो रहा था | अपनी जीवन की समस्त पूँजी को हाथ से जाने का ग़म जैसे होता है वैसा ही एहसास उनके ह्रदय को बार बार असहनीय पीड़ा से त्रस्त कर रहा था | सुरेन्द्र बाबु ने उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया परन्तु गुस्से में उन्होंने, उन्हें भी नहीं बक्शा और अच्छे से लताड़ दिया | उनके सर से उनका आसमान दूर होता प्रतीत हो रहा था | उनके लिए सफ़र का पल पल काटना भारी पड़ रहा था | 

उधर साहू साब की हालत बिगडती जा रही थी | वे पूरी तरह से कुत्ते की भाँती बर्ताव करने लगे थे | अचानक से छत पर कुत्ता मृत पाया गया | डाक्टर ने बतलाया था कि साहू साब को रेबीज हो गई है और यदि कुत्ता जीवित नहीं बचा तो अब उनका जीवित रहना भी नामुमकिन होगा | ज़हर और कीटाणु समस्त शरीर में असर कर चुके हैं | अब बहुत देरी हो चुकी है | आखिरकार आज वो दिन आ गया था | साहू साब को संभालना मुश्किल होता जा रहा था | वो जैसे ही खाने के लिए ज़मीन पर बैठे तुरंत ही लुड़क कर एक तरफ गिर पड़े और उनके मुंह से झाग निकलने लगे | ज्यादा समय नहीं लगा बिरेन बिरेन करते हुए चन्द मिनट में उनके प्राण पखेरू ब्रह्मलीन हो गए | समय की विडम्बना देखिये या इसे नियति का स्वांग कहिये इधर साहू साब की साँसों ने विराम लिया और उधर वीरेन्द्र बाबु ने घर की ड्योढ़ी पर कदम रखा | क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

बड़ी हुई बच्ची














कल कहीं पढ़ा था मैंने
कुछ लिखा किसी ने
ऐसा भी
बड़ा हुआ एक बच्चा
सच्ची बहुत बड़ा बच्चा
पाता है शादी कर के
पत्नी रूप में एक ग़च्चा
अम्मा बन सर बैठती है
झेलती है वो जीवन भर
नाज़ और नखरे अपने
अपना अस्तित्व
अरमान और सपने
स्वाह चूल्हे चौके में करती है
खुद सदा चुप रहकर वो
बच्चे के कसीदे पढ़ती है
पालती है वो मुन्ना को
लल्ला लल्ला करती है
'निर्जन' कहता
कलयुग में
क्या ?
सच्ची ऐसा होता है
उस अम्मा को सब ने झेला है
वो हिटलर की छाया रेखा है
वो भी बड़ी हुई बच्ची है
हाँ! बहुत बड़ी बच्ची है
माता पिता परेशां होकर
जो मुसीबत दान में देते हैं
सुख से न जीने देती है
न ख़ुशी से मरने देती है
सुबह सवेरे उठते ही
ऍफ़ एम् चालू करती है
लेडी वैम्पायर बन कर वो
जीवन के सब रस पीती है
भूल कभी कुछ हो जाये
दहाड़ मार कर रोती है
चुप करने में उसको फिर
जेब भी ढीली होती है
चैन नहीं तब भी आता
सर आसमान पर लेती है
बहस अकड़ के करती वो
है नहीं किसी से डरती वो
गलती चाहे बच्ची की हो
फिर भी है अम्मा बनती वो
उस बच्ची रुपी अम्मा में
अहम किसी से कम नही
आये कोई झुकाए मुझको
ऐसा किसी में दम नही
योगदान जो जीवन में
वो बच्चे के देती है
सही समय आने पर वो
ब्याज समेत वसूल लेती है
कम ना समझें बच्ची को
ये शातिर ख़िलाड़ी होती है
हत्थे इसके जो चढ़ जाओ
ये पटक पटक कर धोती है
कल कहीं....

ऐ बी सी डी - अमरीका में बिगड़ा कन्फ्यूज्ड देसी


कुछ हिन्दुस्तानी लोग जब अमरीका या किसी और देश चले जाते हैं और जब वहां से वापस आते हैं तो देखिये उनके तौर तरीको और रवैयों के अन्दाज़ | पेश करता हूँ..

Always says, “Bless you”, whenever someone sneezes.
कोई छींक मरेगा तो तुरंत कहेंगे, 'ब्लेस यू' |

US-returned people use the word “bucks” instead of “Rs.”
अमरीका से भारत लौटे लोग 'रूपये' नहीं कहते 'बक्स' कहना शुरू कर देते हैं |

Tries to use credit cards in a road side hotel.
हाईवे के ढाबे पर खाना खाने के बाद 'क्रेडिट कार्ड' से पेमेंट करेंगे |

Drinks and carries mineral water and always speaks of being health conscious.
मिनरल वाटर पीना शुरू कर देंगे, पूछने पर बहाना बताएँगे के पेट ख़राब हो जाता है, तबियत बिगड़ जाती है |

Sprays deodorant so that he doesn’t need to take bath.
डीओडरैनट इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे जिससे नहाना पड़े |

Sneezes and says ‘Excuse me’.
छींकेंगे और कहेंगे 'एक्सक्यूज़ मी'

Says “Hey” instead of “Hi”, ”Yoghurt” instead of “Curds”, ”Cab” instead of “Taxi”, “Trunk” of “Dicky” for a car trunk, ”Candy” instead of “Chocolate”,”Cookie” instead of “Biscuit” , ”got to go” instead of “Have to go”.
'हाई' को 'हे', 'दही' को 'योगर्ट', 'टैक्सी' को 'कैब', 'गाडी की डिक्की' को 'ट्रंक', 'चॉकलेट' को 'कैंडी', 'बिस्कुट' को 'कुकी', 'हैव टू गो' को 'गौट टू गो' बोलना शुरू कर देंगे |

Says “Oh” instead of “Zero”, (for 101, he will say One O One Instead of One Hundred One)
'जीरो' को '' कहना शुरू कर देंगे ( १०१ को 'एक सौ एक' की जगह 'वन वन' ) बोलेंगे |

Doesn’t forget to complain about the air pollution. Keeps complaining every time he steps out.
जब भी बहार जायेंगे हर बार हर जगह बार बार 'एयर पोल्यूशन' की बात करते नहीं थकेंगे |

Says all the distances in Miles (Not in Kilo Meters), and counts in Millions. (Not in Lakhs)
किलोमीटर भूल जायेगे मील में दूरी नापेंगे | लाख भूल जायेगे मिलियन में गिनेंगे |

Tries to figure all the prices in Dollars as far as possible (but deep inside multiplies by 44).
हर चीज़ के दाम डॉलर में लगायेंगे और अन्दर मन में उसे ५५ से गुणा करते रहेंगे |

Tries to see the % of fat on the cover of a milk pocket.
दूध की थैली के ऊपर सबसे पहले फैट परसेंटेज देखेंगे |

When he needs to say Z (zed), he never says Z (Zed), instead repeats “Zee” several times, and if the other person is unable to get it, then says X, Y Zee(but never says Zed)
'ज़ैड' को जान बूझ कर 'ज़ी' बोलेंगे | अगर कोई नहीं समझ पायेगा तो उससे एक्स, वाई ज़ी बोल कर बताएँगे पर 'ज़ैडनहीं बोलेंगे |

Writes the date in MM/DD/YYYY. On watching traditional DD/MM/YYYY, says “Oh! British Style!!!!”
तारीख़ को मंथ/डे/ईयर फॉर्मेट में लिखेंगे | अगर कहीं पुराना डे/मंथ/ईयर फॉर्मेट देख लेंगे तो कहेंगे, “ओह! ब्रिटिश स्टाइल!!!”

 Makes fun of Indian Standard Time and the Indian Road Conditions.
मौका मिलते ही इंडियन स्टैण्डर्ड टाइम और हिंदुस्तान की सड़कों का मजाक उड़ना शुरू कर देंगे |

Even after 2 months, complaints about “Jet Lag”.
आने के दो महीने बाद भी ‘जेटलैग’ से ग्रस्त रहेंगे |

Just to show off avoids eating spicy food.
दिखावे के लिए तीखा कहना खाने से परहेज़ करेंगे |

Tries to drink “Diet Coke”, instead of Normal Coke. Eats Pizza instead of Dosa.
‘नार्मल कोक’ की जगह ‘डाइट कोक’ पियेंगे | ‘डोसा’ की जगह ‘पिज़्ज़ा’ खायेंगे |

Tries to complain about anything in India as if he is experiencing it for the first time. Asks questions etc. about India as though its his first visit to India .
हिंदुस्तान की हर चीज़ के बारे में शिकायत करना शुरू कर देंगे जैसे परेशानी पहली दफा हो रही है | उट पटांग सवाल जवाब करने शुरू कर देंगे हिन्दुस्तान के बारे में जैसे पहली दफ़ा आये हों यहाँ |

Pronounces “schedule” as “skejule”, and “module” as “mojule”.
‘स्केड्यूल’ को ‘स्केज्यूल’ और ‘मोड्यूल’ को ‘मोज्यूल’ बोलना शुरू कर देंगे |

Looks suspiciously towards any Hotel/Dhaba food.
किसी भी होटल या ढाबे के खाने को शक की निगाहों से देखेंगे |

From the luggage bag, does not remove the stickers of the Airways by which he traveled back to India , even after 4 months of arrival.
लौटने के चार महीने बाद भी लगेज बैग से एयरवेज का स्टीकर नहीं छुटाएंगे जिससे भारत वापस आये हैं |

Takes the cabin luggage bag to short visits in India and tries to roll the bag on Indian Roads.
कैबिन लगेज को छोटी-मोटी यात्राओं पर चमकाने के लिए ले जायेंगे | हिन्दुस्तानी सड़कों पर बैग को रोल करके चलने लगेंगे |

Tries to begin any conversation with “In US ….” or “When I was in US…”
हर एक वार्तालाप शुरू करने से पहले कहेंगे, ‘जब मैं अमरीका में था...’ |

अब आप ही बताएं ऐसे कार्टूनों का क्या हो सकता है | यहाँ हिन्दुस्तान में अमरीकी आकर हिन्दुस्तानी सभ्यता और ज़बान सीख रहे हैं | और वहां कुछ अकलमंद लोग बाहरी फूहड़ता अपना कर अपने देश को नीचा दिखने में लगे हुए हैं | खुदा इन्हें अक्ल बक्शे |

रविवार, अप्रैल 14, 2013

क्या कहता

ख़ुदा जाने मैं क्या कहता, जो कहता मैं क्या कहता
सही के लिए क्या कहता, ग़लत के लिए क्या कहता

रहती है दूर क्या कहता, मिलने को ही क्या कहता
मिलते रहना ही क्या कहता, क्या है दिलमें क्या कहता

सूरज और चंदा क्या कहता, दोनों हैं वीरां क्या कहता
तेरे संग दिन क्या कहता, तेरे संग रातें क्या कहता

तुझ बिन जीवन क्या कहता, तुझ बिन मौसम क्या कहता
तुझ बिन तारें क्या कहता, तुझ बिन इतवारें क्या कहता

तेरे जाने पर क्या कहता, तेरे आने पर क्या कहता
पूरब से पश्चिम क्या कहता, उत्तर से दक्षिण क्या कहता

आखरी क़दम है क्या कहता, जीवन मरण है क्या कहता
जन्नत से पृथ्वी क्या कहता, मौला और चिस्ती क्या कहता

लोग और जगहें क्या कहता, यादें और बातें क्या कहता
हंसी मजाक जब क्या कहता, ह्रदय वेदना अब क्या कहता

तुझसे कहने को क्या कहता, तुझसे सुनने को क्या कहता
कहता तो बस कहता रहता, ‘निर्जन’ दिल से दिल कहता

शुक्रिया तेरा

शुक्रिया तेरा
प्रत्येक जतन के लिए
हर पल सुनने के लिए
परवाह करने के लिए
प्यार करने के लिए
खुद को खुद की तरह
रखने के लिए

हैरान रह जाता हूँ मैं
कैसे रहती है तू
इतनी शांत
कहाँ से लाइ है
इतनी सहनशीलता
क्यों है तेरे पास
इतना धीरज

तू पास मेरे बैठ कर
बस सुनती रहती है
जब भी अनाड़ीपन से
मैं छलकाता हूँ दिल के
जज़्बात सामने तेरे और
मुस्कराती रहती है तू
आँख मूंदे मंद मंद

पर मैं भी
चाहता हूँ करूँ
तेरे लिए कुछ ऐसा ही
चल बता तू अपने डर
और बता दे जो भी
दिल में बसी हैं
चाहतें तेरी

वादा तो मैं करता नहीं
दे सकूँगा सब कुछ तुझे
आज, कल या जिंदगी भर
पर इतना कहूँगा बस तुझे
जब तक है जां में जां मेरे
कोशिश करूँगा खुश
रहे तू उम्र भर

शुक्रिया तेरा
सब कुछ है तू
मेरे लिए
शुक्रिया कहते
नहीं थकता है
'निर्जन' आज
बस तेरे लिए

कौन गलत था कौन सही

उस दिन क्यों सोचा मैंने
शायद इश्क मैं करता हूँ
आह! पर क्या वह मेरे
जीवन की सबसे बड़ी गलती थी
कुछ उतावले, बचकाने जज़्बातों ने
दिखलाये ना जाने मुझे कितने अवसाद

अरसा गुज़र गया तब से
पर रञ्ज आज भी करता हूँ
उसकी कपटी आँखों को
मैं सोच रातों को जगता हूँ
शर्मिंदा खुद से रहता हूँ
अब खुद को कोसा करता हूँ

मुद्दत हुई बिछड़े हुए, पर
दिल आज भी डरता है
वो नाम सामने आते ही
एक सन्नाटे से भरता है
गलती तो सबसे होती है
पर क्या कोई ऐसा भी करता है

कौन ग़लत था कौन सही
यह सवाल आज तक है बना
जीवन में इसके रहते ही
है रोष सामने रहा तना
मैं जब भी कुछ बतलाऊंगा
वो सोचेगा झूठ कही

जब सही वक़्त अब आएगा
वो स्वयं उसे समझाएगा
तब वो खुद ही पहचानेगा
गलती किसकी थी मानेगा
बस कुछ बरस की देर रही
सब जानेंगे और मानेंगे
कौन गलत था कौन सही

गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

मत सोचा कर

फ़रहत शाहज़ाद साहब द्वारा लिखी उनकी कविता 'तनहा तनहा मत सोचा कर' को अपने अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्षमा प्रार्थी हूँ, मैं उनका या उनकी नज़्म का अपमान करने या दिल को ठेस पहुँचाने की गरज़ से यह हास्य कविता नहीं लिख रहा हूँ। सिर्फ़ मज़ाहिया तौर पर और हास्य व्यंग से लबरेज़ दिल की ख़ातिर ऐसा कर रहा हूँ।

अगड़म बगड़म मत सोचा कर
निपट जाएगा मत सोचा कर

औंगे पौंगे दोस्त बनाकर
काम आयेंगे मत सोचा कर

सपने कोरे देख देख कर
तर जायेगा मत सोचा कर

दिल लगा कर बंदी से तू
सुकूं पायेगा मत सोचा कर

सच्चा साथी किस्मत की बातें
करीना, कतरीना मत सोचा कर

इश्क विश्क में जीना मरना
धोखे खाकर मत सोचा कर

वो भी तुझसे प्यार करे है
इतना ऊंचा मत सोचा कर

ख़्वाब, हकीकत या अफसाना
क्या है दौलत मत सोचा कर

तेरे अपने क्या बहुत बुरे हैं
बेवकूफ़ी ये मत सोचा कर

अपनी टांग फंसा कर तूने
पाया है क्या मत सोचा कर

शाम को लंबा हो जाता है
क्यूँ मेरा साया? मत सोचा कर

मीट किलो भर भी बहुत है
बकरा भैंसा मत सोचा कर

हाय यह दारू चीज़ बुरी है
टल्ली होकर मत सोचा कर

राह कठिन और धूप कड़ी है
मांग ले छाता मत सोचा कर

बारिश में ज़्यादा भीग गया तो
खटिया पकडूँगा मत सोचा कर

मूँद के ऑंखें दौड़ चला चल
नाला गड्ढा मत सोचा कर

जिसकी किस्मत में पिटना हो
वो तो पिटेगा मत सोचा कर

जो लाया है लिखवाकर खटना
वो सदा खटेगा मत सोचा कर

सब ऐहमक फुकरे साथ हैं तेरे
ख़ुद को तनहा मत सोचा कर

उतार चढ़ाव जीवन का हिस्सा
हार जीत की मत सोचा कर

सोना दूभर हो जाएगा जाना
दीवाने इतना मत सोचा कर

खाया कर मेवा तू वर्ना
पछतायेगा मत सोचा कर

सोच सोच कर सोच में जीना
ऐसे मरने का मत सोचा कर

बुधवार, अप्रैल 10, 2013

मेरा बचपन

जीवन की पथरीली
राहों में चलते चलते
जीवन की सुलगती
आग में जलते जलते
जीवन की कंटीली
चुभन में घुटते घुटते
याद आती है
सुकोमल बचपन की
कर्तव्यों की बेड़ी में
जकड़े जीवन में
याद आती है
उस स्वछंदता की
सुकोमल स्वच्छ बचपन
सुगंधों से भरा बचपन
पाप, पुण्य से मुक्त बचपन
अब घिर गया है अनेक
समस्याओं में जीवन
साँसों की डोर जुड़ गई
अश्रु की लड़ी में
हे ईश्वर! कब टूटेगी
ये अश्रु की लड़ी
हे ईश्वर! कब छूटेगी
ये दुखों की झड़ी
हे ईश्वर! कब फूटेगी
मुरझाए होटों पर हंसी
कब वापस आएगा
सलोना बचपन
हर ग़म हर दर्द से दूर
अनजाना खिलखिलाता
बचपन
कभी कभी नानी की कहानी
कभी माँ का वो आँचल
स्वर्ग से ज्यादा हसीन\
था मेरा बचपन
एक धुंधली से छवि है
बचपन अब वो तेरी
खोजता जाता हूँ, कहाँ
छिप गया मेरा बचपन

सोमवार, अप्रैल 08, 2013

जय सियाराम

दिन ढल जाये, हाय
रात जो आये
शाम के आँचल में
तारे छिपाए
रात काली और अँधियारा गहराए
पूछूँ मैं खुद से, अब
कैसे जिया जाए
चाँद पास आए, और
मुझे समझाए
ज़िन्दगी के फलसफे
मुझे बतलाए
सुन बस दिल की
और दे अंजाम
बिगड़े हुए हैं जो
बनेंगे तेरे
जीवन के काम
हँस के गुज़ार तू
सुबह हो या शाम
ख़ुशी से तू मिल सबसे
ले प्रभु का नाम
ज़िन्दगी में पा जायेगा
सुख फिर तमाम
जीतेगा हर बाज़ी तू
कोई हो मैदान
डर ना किसी से अब
साथ हैं तेरे राम
बोलो सियावर रामचन्द्र
की जय!!!
बोलो बजरंगबली

की जय!!!

रविवार, अप्रैल 07, 2013

सन्डे मना रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं
बिस्तर पर पड़े
हम तो
पकोड़े खा रहे हैं

टीवी चला रहे हैं
मैच लगा रहे हैं
बल्ले पे बॉल आई
गुरु जी
धोते जा रहे हैं

लंच बना रहे हैं
परांठे सिकवा रहे हैं
लाल मिर्च निम्बू के
अचार से
चटखारे ले खा रहे हैं

रायता बिला रहे हैं
बूंदी मिला रहे हैं
फिर करछी आंच
पर रख हम
छौंका बना रहे हैं

बच्चों को पढ़ा रहे हैं
सर अपना खपा रहे हैं
हाथ में ले के डंडा
हम उनको
डरा धमका रहे हैं

सुस्ती दिखा रहे हैं
खटिया पे जा रहे हैं
लैपटॉप सामने रख
हम तो
उँगलियाँ चला रहे हैं

अब सोने जा रहे हैं
ख्व़ाब सजा रहे हैं
चादर ताने मुंह तक
हम अब
चुस्ती दिखा जा रहे हैं

शब्द सजा रहे हैं
सोच दौड़ा रहे हैं
कीबोर्ड यूज़ करके
हम अब
कवीता बना रहे हैं

जल्दी से लिख रहे हैं
पोस्ट बना रहे हैं
फेसबुक पर बैठे
हम ये
रचना पढ़वा रहे हैं

लोग भी आ रहे हैं
पढ़ पढ़ के जा रहे हैं
सिर्फ लाइक कर के
सब ये
बिना कमेंट किये जा रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं

मलिन सोच

सत्य वचन सुनाता है समझे
जग बीती बताता है समझे
दशा भयी कितनो की है यह   
'निर्जन' कथा दिखता है समझे

राह खड़ी फुसलावत है समझे 
कामुकता से रिझावत है समझे 
मकड़जाल में माया के यह 
फंसने पर छटपटावत है समझे 

ताज़ा ताज़ा दिल हारा है समझे  
बकरा कितना प्यारा है समझे 
जो मलिन सोच से बंधता है यह
जीवन में खुद का मारा है समझे

शादी अब कारोबार है समझे
सौदों की भरमार है समझे
दिल के रिश्तों को भी अब यह 
मिला नया बाज़ार है समझे

बातों को खरताल है समझे
सोना चांदी माल है समझे
जीवन में आव़ाज़ाही को यह   
बच्चों का खिलवाड़ है समझे

आते ही रंग दिखलाती है समझे
चप्पल जूते चलवाती है समझे
मासूम सदा बनकर जो है यह
घर में कलह करवाती है समझे

पौ फटते फ़रमाइश है समझे
जेब की भी नुमाइश है समझे
खर्चें हरी पत्तियां जो है यह
मेहनत की कमाई है समझे


व्यापार चौपट करवाती है समझे
दर दर धक्के खिलवाती है समझे 
व्यक्तित्वहीन सोच जो है यह 
मनुष्य को दरिंदा बनवाती है समझे 

नित नए स्वांग रचाती है समझे
जीवन चलचित्र बनाती है समझे
मान अपमान के मोल को यह
तफ़री में उड़ाती है समझे  

आँख निकाल गुर्राती है समझे
शोले रोज़ बरसाती है समझे
जीवन पावन पुस्तक को यह
क्रोधाग्नि में जलाती है समझे

तंतर-मंतर करवाती है समझे
दिल में फाँस गड़वाती है समझे
संबंधो में परस्पर प्रेम को यह  
सूली पर चढ़वाती है समझे

संतान विच्छेद करवाती है समझे
उलटी पट्टी पढ़वाती है समझे
अनुचित शिक्षा में माहिर है यह 
बालक भविष्य डुबाती है समझे 

पिता-पुत्र लड़वाती है समझे 
बहन-भाई भिड़वाती है समझे 
बैठे दूर तमाशबीन बन यह  
रिश्तों में फूट डलवाती है समझे 

मान मर्यादा भूली है समझे
क्रियाचारित्र पर झूली है समझे
अपमानित अभद्र व्यवहार से यह
मुंह काला कर भूली है समझे

माल समेट भागे है समझे
पता कहीं ना पावे है समझे
झूठे तर्क दिखाकर कर यह  
कोर्ट केस कर जावे है समझे

नर्क भ्रमण करवाती है समझे
यमलोक पहुंचती है समझे
सज्जन पुरुषों की तो यह
अर्थी तक बंधवाती है समझे

शुभचिंतक यही सुझाता है समझे
मलिन विचारणा में कभी न उलझे 
जिस क्षण दिल में आ जाती है यह
ऊर्जा नष्ट कर के जाती है समझे

इससे अब सब बचकर रहना 
ज़िंदगी में साथ न इसका देना 
जो यह कहीं मिल जाये तुमको 
रसीद तमाचा रखकर देना

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

चाँद तारे हो गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

तुम हमेशा ही रहे, बेगुनाहों की फेहरिस्त में
तुम्हारे जो भी थे गुनाह, अब नाम हमारे हो गए

आज हम भी जुड़ गए, रोटी को निकली भीड़ में
किस्मत के मारे जो थे हम, सड़कों के मारे हो गए

बंट गया वजूद अपना, कितने ही रिश्तों में अब
तन एक ही रह गया है, दिल के टुकड़े हो गए

तैराए दुआओं के जहाज़, उम्मीदों के समंदर में
हम तो बस डूबे रहे, बाक़ी सब किनारा हो गए

कल किसी ने नाम लेकर, दिल से पुकारा था हमें
अब तक थे जो अजनबी, अब जानेजाना हो गए

कहते थे जब हम ये बातें, पगला बताते थे हमें
आज वे बतलाने वाले, खुद ही पगले हो गए

दिल के ये जज़्बात तुमको, नज़र करने थे हमें
गाफ़िल मोहब्बत में रहे, हम खुद नजराना हो गए

इश्क जो करते हो तुम, आज बतला दो हमें
अब तलक बस हम थे अपने, अब से तुम्हारे हो गए

नींद भी गायब है अपनी, चैन भी टोके हमें
अश्क जो रातों में बहे थे, जुल्फों में अटके रह गए

है अधूरी ये ग़ज़ल, मुकम्मल तुम करदो इसे
वो चंद जो आशार थे, बहर से भटके रह गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

यह  ग़ज़ल शैली नामक कविता श्रद्धोन्मत्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण की गई | 

महबूब

आभा ! जैसा नाम वैसा ही स्वरुप और बहुत ही आभामय जीवन शैली का यापन करने वाली गुलाब के फूल सी कोमल युवती | हर हाल में, हर रूप में, हर स्वरुप में, सुख में, दुःख में, धुप में, छाँव में, ठंडी में, गर्मी में, पतझड़ में, बारिश में, और हर छोटे बड़े उतार चढ़ाव दर्शाती परिस्थिति में जीवन का ख़ैर मक़दम करने वाली बहुत ही जिंदादिल युवती है "आभा" | उसके नाम के अनुरूप ज़िन्दगी के प्रति उसका दृष्टिकोण भी आभायमान रहता था | जिंदादिल, खुश मिजाज़, ख़ुर्शीद से दमकते रूप, सौंदर्य से परिपूर्ण नफीस कुदरत का करिश्मा जिसे अल्लाह मियाँ ने किसी खास व्यक्ति के लिए चुन कर संसार में भेजा था | जीवन के बीस सावन पार कर अब वो आगे आने वाले सावन के इंतज़ार में थी | उसके चेहरे की तस्कीं, मीलों दूर फैले सहराओं का एहसास देती है | काली घनी नागिन सरीखी लहराती जुल्फें दिन में काली बदली लाने का माद्दा रखती हैं | शम्स की आग सा ताबिंदा पेशानी का नूर देखने वालों की नज़रों को झुकाने का सामर्थ्य रखता है | चाँद जैसे रौशन गुलज़ार रुखसारों के साथ गेज़ाल मदभरी आँखों पर कौन ना दिल हार बैठे और दिलों जान से मर ना मिटे | सुर्ख होटों पर शबनम सी बरसती हंसी किसी के भी दिल में इश्क के तूफ़ान कैसे न पैदा कर दे | ऐसी दिलफ़रेबी गुलफ़ाम से भला कौन बच सकता था | 

अपनी ज़िंदगनी की पहली पारी में आभा अपने प्रेमी सूरज से बहुत ज्यादा वाबसता थी | उसके इश्क का जादू आभा के सर पर चौबीस घंटे चढ़ा रहता | दिन रात सोते जागते बस एक ही नाम ज़हन में समाये जाता, सूरज! सूरज! सूरज! | वो दोनों एक दुसरे के इश्क में गिरफ्तार आलम से बेखबर, एक दुसरे के हाथ में हाथ लिए, आँखों में आँखे डाल महशर की रात के सपने सजाते और आग़ोश में बैठे साथ जीने मरने की कसमें खाते | पर ऐसा हो ना सका कुदरत को कुछ और ही मंज़ूर था | आभा के वालिद बहुत ही संजीदा इंसान थे | मिजाज़ से बहुत ही कड़क, हठी और गुस्सैल | जो उनके जी में आती वही करते | किसी की हिम्मत नहीं थी उनके सामने ज़बान खोल सकता और उफ़ तक कर सकता | अपने सैकड़ों ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल करते पर अंजाम सिर्फ अपनी सोच को ही दिया करते |

ऐसे में उन्हें एक दिन मालूम चलता है के उनकी बेटी आभा किसी के इश्क की गिरफ्त में है | मालूम चलने पर गुस्सा तो बहुत आया पर फिर लाल पीला होने की बजाये उन्होंने चुप रहकर एक राजनैतिक खेल खेला और ऐसे हालात पैदा कर दिए के आभा को शादी करने के लिए रज़ामंदी देनी पड़ी | उसका निकाह उन्होंने अपने पुराने लंगोटिया के साहबज़ादे के साथ पढ़वा दिया | हालाँकि आभा आज भी सूरज के गल्बा-ए-इश्क़ में मशगूल थी पर चूंकि पिताजी की इज्ज़त भी की लाज भी निभानी थी तो जैसे तैसे उसने अपने इस नए जीवन के आगाज़ का ख़ैर मक़दम कर लिया | 

पिता के प्रति अकीदे की बहुत भारी कीमत अदा कर आभा आज बिना किसी टिल्ले-नवीस के अपनी पुरानी ज़िन्दगी को टिल्ला के आगे बढ़ चुकी थी | अकेली हिज़्र की तपिश में स्वाह होती रहती पर अपनों के आय’जाज़ के लिए अपने माज़ी को टिली-लिली देती | अब उसकी यादों में सिर्फ गुज़रे वक़्त के अफसाने ही थे और कुछ अश्क जो उसने सबसे छिपा कर संजो रखे थे | उसके आने वाले जीवन में नया रंग भरने वाला मुसाविर अब उसका पति था और वो अपने इस नए परिवेश में फकत आसिरान बनी आने वाले वक़्त का तमाशा देख रही थी | इसका महासल यह हुआ के खिलखिलाती आभा हमेशा के लिए ख़ामोशी की चादर में लिपटी, लफ़्ज़ों को सिये अपनी ज़िन्दगी की तनहाइयों में गम हो गई | 

वक़्त का वकफ़ा कैसे गुज़ारा कुछ मालूम नहीं दिया | आज जब कि वो बहुत खुश है अपनी शादीशुदा ज़िंदगी मे, हर बात का ख्याल रखने वाले पति और दो प्यारे बच्चो के साथ, बीस वर्ष बाद अचानक सफाई करते समय पूर्व प्रेमी सूरज के ख़त पर नज़र पड़ती है | एक पुरानी किताब सफाई के दौरान नीचे गिर पड़ती हैं और ज़िन्दगी के पुराने सफों को खोल कर सामने ला खड़ा करती है | उस ख़त को पढने के बाद उसके सामने पुराना मंज़र एक बार फिर दौड़ जाता है | उसे अपना पहला प्यार याद आता है जिसकी हसरत-ए-दीदार के लिए कभी वो बेतहाशा तरसा और तड़पा करती थी | कुछ मजबूरियों की वजह से जिससे जुदा होना पड़ा था वो एक बार फिर से यादों की कब्र से उठ कर बहार आ खड़ा होता है | अब वो भावुक हो उठती है और आँखें नाम किये ख़त को सीने से लगाये खड़ी सोचती रहती है | एक बार पुराने प्रेमी को देखना चाहती है | अब उसे क्या करना चाहिए? क्या उस खत को फाड़ कर फेंक देना चाहिए? जला देना चाहियें?  ख़त हाथ में संभाले बीता वक़्त याद कर रोमांचित और रूमानी होते हुए उसके दिल में यही विचार उथल पुथल मचा रहे थे | इन्ही सब विचारों जूझते और खुद से लड़ते उसके कपडे पसीने से तर-ब-तर हुए जा रहे थे और उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे | दिमाग पुराने अफ्सानो की रेलगाड़ी में सवार था और दिल सूरज से मिलने जाने की कवायद को दस्तक दिए जा रहा था | वो अपने आप से सवाल किये जा रही थी और जवाब भी खुद ही तलाशने की कोशिश कर रही थी | क्या मुझे एक बार सूरज से मिलने जाना चाहियें? या अपने पुराने प्रेमी से मिलकर मैं कोई गुनाह तो नहीं करुँगी? क्या वो मुझे याद करता होगा या भूल गया होगा? 

इन्ही अटकलों के साथ ना जाने कब समय बीत गया पता भी नहीं पड़ा | अचानक पीछे से कंधे पर किसी ने दस्तक दी तो हडबडाकर आभा अपने तसव्वुर के फ़लक से नीचे उतर कर ज़मीन से मिलने आई और मुड़कर देखा तो सामने शोहर को पाया | उसका चेहरा देखते ही सारे ख़यालात और सवालात ना जाने कहाँ मुश्त-ए-गुबर में गुम हो गए | जो कुछ समय पहले ख़ाक-ब-सर गरीबां-ए-मुहब्बत बनी ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन ख्वाब बुन रही थी अब वो एक दम शांत थी | उसके सारे सवालों का जवाब उसके सामने मौजूद था | 

उससे बेतहाशा इश्क फरमाने वाला, बे-रिया, वफ़ा-शि'आर उसका शौहर जो गाहे-गाहे आश्कार अपने प्यार का इज़हार भी कर दिया करता है | जिसकी मुनफ़रिद शक्सियत ने इन बीस सालों में उसके पुराने प्यार को भुला देने में मदद की और आज जिसकी दिल-कुशा मुस्कराहट पर आभा मर मिटती है | जिसकी बे-सूद उल्फ़त और रफ़ाकत ने उसकी नई जिंदगानी को परवाज़ दी थी | जिसके सलीक़े की आज वो क़ायल है | जिसकी सादगी और रानाई की इबादत करते आज आभा थकती नहीं थी | जिसने उसकी अफ़सुर्दा और खामोश जिंदगी में मेहताब की नफीस रौनक भर दी थी | जिसके वस्ल की कस़क, जिसके एहतराम के लिए आज आभा मुद्दतों तक इंतज़ार कर सकती है | जिसके प्यार की खातिर आज आभा को क़िस्तों में मौत भी मंज़ूर है | आज वो उसका सच्चा हबीब है जिसके साथ वो दहर तक जीवन जीना चाहती है | 

वो साहिर जो उसके जीवन में खुशियों का क़ासिद बनकर आया था उसके सामने आते ही आभा ने ख़त को हथेली में दबोच लिया और डबडबाती आँखों से दो गाम आगे बढ़कर कर सीने से चिपट उसके गले लग गई और धीरे से कान में फ़ुसफ़ुसाया, 

"महबूब! ओह महबूब! अच्छा हुआ तुम आ गए | मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ, अपनी जान से भी ज्यादा | तुम्हारे बिना जीने की मैं सोच भी नहीं सकती"

और ख़त को मोड़ कर वापस दुसरे हाथ में दबी किताब में रख दिया | 

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ख़ुर्शीद - सूरज / sun
तस्कीं - शान्ति / peace
सहराओं  - रेगिस्तान / desert
शम्स - सूरज / sun
ताबिंदा - प्रकाशित, जगमग / illuminated and brightened
पेशानी - माथा / forehead 
नूर - रौशनी / light
गुलज़ार - लाली / bloom
रुखस़ार - ग़ाल / cheeks
गेज़ाल -  हिरनी जैसी, मृगनयनी / dove eyed damsel
शबनम - ओस / dew
दिलफ़रेबी गुलफ़ाम - दिल को ठगने वाली हसीना /  girlfriend
वाबसता - संलग्न, जुडी हुई / attached
ज़हन - दिमाग / mind
आलम - दुनिया / worldworld
महशर - क़यामत का दिन / judgement day 
आग़ोश - गोद / lap
वालिद - पिताजी / father 
ख़ैरख़्वाहों – शुभचिंतक / well wisher 
मुख़्लिस - दिल का साफ / pure hearted
मशवरों - सलाह /  suggestions
इस्तक़्बाल - इकराम, इज्ज़त / respect, welcome
अंजाम -  परिणाम  / result
रज़ामंदी - सहमति, अनुमति, अनुबंध / agree 
गल्बा-ए-इश्क़ - प्यार का जूनून / passion of love
मशगूल - मसरूफ़, व्यस्त / busy
आगाज़ - शुरुवात / start
ख़ैर मक़दम - स्वागत / welcome
अकीदा = श्रद्धा / devotion
टिल्ले-नवीस - बहाने बाजी / excuses
टिल्ला - धक्का / push
हिज़्र - जुदाई / seperation
आय’जाज़ - मान सम्मान / honour
टिली-लिली - अंगूठा दिखाना / show thumb
अफ़साने - कहानियां, किस्से / stories
अश्क - आंसू / tears
मुसाविर - तस्वीर बनाने वाला / painter
आसिरान - कैदी / captive
महासल - परिणाम स्वरुप / result
हसरत-ए-दीदार - ललक , आरज़ू  / longing, desire to see
कवायद - अभ्यास / drill, exercise
अफसाना - कहानी / tale
तसव्वुर- कलपना / contemplation, imagination, thought
फ़लक - आसमान / sky
मुश्त-ए-गुबर - चुल्लू भर धूल / handful of dust
ख़ाक-ब-सर - दीवाने, सर में मिट्टी डाले हुए / gaga 
गरीबां-ए-मुहब्बत - अनुरागिनी, मुहब्बत के मारे लोग / lover
ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन - चमन को उजाड़ने वाले / destroyer of flower garden
बे-रिया - मुख़्लिस, दिल का साफ / clear hearted
वफ़ा-शि’आर - वफ़ा करने वाला / loyal
आश्कार - सरे आम ,जाहिर / express
गाहे-गाहे - कभी-कभी / sometimes 
मुनफ़रिद – मुख़्तलिफ़, अनुपम / unmatchable
दिल-कुशा - मनोहर / pretty
बे-सूद - बिना किसी स्वार्थ के / without any benefit
उल्फ़त -  प्यार / love
रफ़ाकत - दोस्ती / friendship
सलीक़ा - good manner, etiquettes
रानाई - beauty
ईबादत - worship
अफ़सुर्दा - sad/sorry/dismal/withering
मेहताब - moon
नफीस - जगमगाती / illuminated
वस्ल - मुलाक़ात / meeting
कस़क - ache/longing
एहतराम - respect, courtesy
मुद्दत - a long period of time
क़िस्तों - instalments, pieces
हबीब - दोस्त / friend, beloved, lover
दहर - eternity
साहिर - magician
क़ासिद – messenger
दो गाम - दो कदम / two steps

सोमवार, अप्रैल 01, 2013

अपने ब्लॉग पर मेरी आखरी पोस्ट


सरकारी सूचना
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सभी आम और ख़ास ब्लॉगर मित्रों तथा जनहित में जारी : -

सभी मित्रों को सूचित किया जाता है के ३० मार्च, शाम ब्लागस्पाट के मैनेजमेंट और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट के सरकारी अधिकारीयों के बीच हुई बैठक ,वार्तालाप और भेंटवार्ता के नतीजे कुछ इस प्रकार हैं | सरकार द्वारा निर्णय लिया गया है और एक अध्यादेश पारित किया है जो ३१ मार्च, २०१३, रात १२ बजे, से लागू हो गया है | इसके अंतर्गत :

- ब्लागस्पाट.कॉम पर ब्लोग्गेर्स की बढती संख्या और सरकार की निंदा में लिखे हुए लेख, कविता, टिप्पणियां, दोहे, हाइकू, कुण्डलियाँ आदि को देखते हुए सरकार ने इस साईट को जल्द से जल्द बंद करने का आदेश पारित कर दिया है | 

- साईट पर अत्यधिक ट्रैफिक के आने की वजह से सरकार ने अपना प्रभाव बनाते हुए ब्लागस्पाट साईट को अपने शिकंजे में ले लिया है और इस पर १० करोड़ का जुरमाना लगा दिया है | 

- जो ब्लोग्गेर्स सरकार के विरोध में लिखना पसंद करते हैं उनकी सूची तयार कर उनपर सकत कार्यवाही करने की योजना बनाई जा चुकी है | 

- ३१ मार्च रात्रि १२ बजे के बाद से सभी तरह के ब्लोग्गेर्स पर ब्लॉग्गिंग करने की रोक लगा दी गई है | इस आदेश को ना मानने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा सकती है जिसमें १ लाख रूपये जुरमाना अथवा १ वर्ष बामशक्कत क़ैद का प्रावधान है | 

- ब्लागस्पाट और फेसबुक को आपस में जोड़कर पोस्ट सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वालों पर ज्यादा कड़ी कार्यवाही की जाएगी | 

- सरकारी बहु, सरकारी बेटी, सरकारी दामाद, सरकारी बच्चे, सरकारी नाती/पोती,  सरकारी मुलाजिम, सरकारी महकमे, सरकारी प्रसंशक अथवा स्वयं सरकार के बारे में कुछ भी लिखने वाले को ५ लाख रूपये का जुरमाना और २ वर्ष कठोर कारावास की सजा का प्रावधान तय पाया है | 

- फेसबुक, ट्विटर सरीखी सोशल मीडिया साइटों  को भी बैन करने की कवाय्तें शुरू की जा चुकी हैं | 

- जो लोग इन सभी विपदाओं से बचना चाहते हैं वे आने वाले चुनावों से पहले अपनी लेखनी में सिर्फ और सिर्फ सरकारी खानदान और सरकार का गुणगान करेंगे और सिर्फ सरकार के बारे में लिखेंगे | इसमें कवितायेँ, लेख, चाँद, हाइकू, ग़ज़ल, शेर इत्यादि शामिल हैं | 

- पसंद आने पर चयन की गई सर्वश्रेष्ट प्रविष्टि लिखने वाले को उचित इनाम और सरकारी भक्त के ख़िताब से नवाज़ा जायेगा | इसमें इनाम की राशि में २ लाख रूपये नकद, एक बिल्ला, एक प्रशंसा पत्र और सरकारी दामादों वाली खातिरदारी शामिल है | 

उपरोक्त सभी आदेशों का पालन न करने वाले के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जाएगी और उसे निम्बूपानी की सजा दी जाएगी जिससे उसका पेट साफ़ हो जाये और वो सरकार के साफ़ सुथरे प्रतिरूप को समझ सके और उसके बारे में आगे लिख सके | 

भाइयों मैं तो हैण्ड टू हैण्ड अभी से ब्लागिंग बंद कर रहा हूँ. इसे अप्रैल फूल समझने की गलती बिलकुल न करें वरना आपको पछताना पड़ सकता है | 

नमस्कार  
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अप्रैल फूल बनाया तो तुमको गुस्सा आया :)

उल्लू बनाया ,बड़ा मज़ा आया ;)

शनिवार, मार्च 30, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ९

अब तक के सभी भाग - १०
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गार्गी अनारो देवी की बड़ी बेटी थीं | उनका सुसराल बड़ा ही राजसी और ठाठ बाट वाला ख़ानदान था | अपनी बड़ी बेटी के लिए बहुत सोच समझ कर और साहु साब से सलाह मशवरा करने के पश्चात् ही उन्होंने रिश्ता तय किया था | दुल्हा भाई बेहद पढ़े लिखे और वकालत पास थे | बेबाक़ और पश्चमी सभ्यता के परवरिश के सानिध्य में पले बड़े ज़मींदार साहब बहुत ही शालीन, शिष्ट और देखने भालने के सुन्दर होने के साथ ही उनका जमाल काबिले तारीफ था | परन्तु सभी को भली भांति ज्ञात है उस ज़माने में ज़मींदारों के तौर तरीक़े और रहन सहन किस तरह के हुआ करते थे |

रजवाड़ों और ज़मींदारों का ख़ानदान था तो शौक़ भी वैसे ही विलासी थे | पांच हज़ार गज़ में फैली आलीशान हवेली मुरादाबाद जैसे छोटे शहर में बहुत मायने रखती थी | साहू साब की हसियत के मुताबिक महज़ वही एकलौता ख़ानदान था जो हर लिहाज़ से उनकी बराबरी के क़ाबिल था | उनकी हसियत का अंदाज़ा उनकी हवेली को देखकर लगाया जा सकता था | हवेली के बाहरी दरवाज़ों पर हमेशा दो पहरेदार, हाथी और महावत के साथ स्वागत के लिए खड़े रहते | हाथियों का काम सिर्फ इतना था के हर आने जाने वाले को अपनी सूंड उठाकर सलामी पेश करते | मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही मीलों फैला होने का एहसास देता बड़ा सा अहाता जिसके दोनों तरफ लगी रंग बिरंगे अंग्रेजी फूलों की बगिया में भिन्न भिन्न प्रजाति के पुष्प उन्मुख पक्षियों की तरह करलव करते चहचहाते प्रतीत होते | फूलों की महकभौरों की गुंजन,  उन से आती भीनी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क में ऐसी उतरती मानो कोई अत्तार के बैठा इतर की शीशियाँ खोल खोल कर छिड़क रहा हो | आहते के बीचो बीच पुर्तगाली वास्तुशिल्प की बेजोड़ कला का प्रतीक एक नक्काशीदार फ़व्वारा था | जिसमें गुलाब और केवड़े से महकता उदक हर वक़्त मौजूद रहता और आँगन को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहता | फिर एक लम्बा दालान जिसके दोनों तरफ़ा संगमरमर के खम्बे सजे थे, हवेली के प्रवेश द्वार तक ले जाता | उस विशाल चौमंज़िला हवेली में पचासियों नौकर चाकर और बांदियाँ एक टांग पर खड़े दिन रात ख़िदमत में लगे रहते | हवेली के पिछवाड़े घुड़साल और गौशाला थी जिसमें बीसियों घोड़े और गायें पाली जातीं | 

मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही बैठक हुआ करती थी | जहाँ आराम और रस रंग के सभी साज़ो-सामन मुहैया थे | एक तरफ चौपड़ और दूसरी तरफ मयखाना और इनके बीच बिछी हुई गौ-ताकियों की कतार के साथ गद्दे और उनके किनारे रखे मिस्र से मंगाए नक्काशी और रंगीन बेल बूटों से सजे हुक्के | जिन्हें दिन रात जमींदार साहब के मेहमान गुड़ गुड़ाते और ऐश कूटते | ईमारत की निचली दो मंजिलों में मर्दों के रहने की व्यस्था थी और उपरी दो मंजिलों में ज़नान खाना  था | जहाँ गार्गी देवी ऐश-ओ-आराम से जीवन यापन करती थीं | गार्गी देवी को भांति भांति के व्यंजन बनाने का बेहद शौक था | तरह तरह के अचार, मुरब्बे, लड्डू और मठरी इत्यादि बनाना उनके बाएं हाथ का खेल था | स्वादिष्ट इतने के जो एक बार उनके हाथों का स्वाद चख ले तो तो उनकी पाक कला का मुरीद हुए बिना न रह सके | उस बड़ी हवेली में आराम के सभी साधन और इंतजामात तो थे | पर जैसे की होता है बड़े घरों के राजनैतिक माहौल में अपनेपन, अकेलेपन और खालीपन की टीस ह्रदय में हमेशा बनी रहती थी | 

अनारो देवी के दुसरे पुत्र और पुत्रियों के रिश्ते भी संभ्रांत परिवारों में हुए थे | उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुरेन्द्र प्रसाद जिन्होंने लखनऊ से वकालत की पढाई पूर्ण की थी उनका विवाह उत्तर प्रदेश की एक छोटे से कसबे के जागीरदार की सुपुत्री के साथ हुआ था | 

उनसे छोटे श्री वीरेन्द्र प्रसाद जो की हर कार्य में दक्ष थे और ज़्यादातर अपने नाना साहू हरप्रसाद के सानिध्य और मातेहत बड़े हुए थे उन्होंने वाणिज्य और व्यापार की पढाई उत्तीर्ण की थी | उन्हें वकालत और ज़मींदारी का भी खासा अनुभव था | पुश्तैनी कारोबार ‘महिला वस्त्रालय’ का कार्यभार भी उन्ही के कंधो पर था | अपने पिताजी से कपडे को परखने और जांचने- पहचानने की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | व्यापार में माहिर और वाक् कुशलता में उनका कोई सानी नहीं था | अपने नानाजी और उनके कानूनी मसलों की भी सारी ज़िम्मेदारी उन्हें के सर थी | मात्र तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मेहनत से गंज के मोहल्ले में अपना मकान बनाया था | जिसके वास्तुशिल्प की संरचना को उन्होंने स्वयं अंजाम दिया था | उनका लग्न दिल्ली के एक बहुत ही सम्मानित उच्च कुल के परिवार में साहू नन्दुमल पुरुषोत्तम दस् जी की सुपुत्री के साथ हुआ | 

उनके अनुज श्री सत्येन्द्र प्रसाद जी जिन्होंने डाक्टरी की पढाई शुरू तो की थी परन्तु जीव हत्या और जीव-जंतुओं की कांट-पीट से विमुख हो वे पढाई अधूरी छोड़ वापस आ गए थे और मुरादाबाद में सरकारी ठेकेदारी के कार्य में लिप्त थे | उन्हें पाक कला का प्रगाढ़ अनुभव था और वो नए नए पकवान बनाने में दक्ष थे | उनका विवाह फरुक्खाबाद के एक बहुत ही शालीन और सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुआ | 

उनकी सुपुत्री बीना देवी का विवाह चंदौसी के बहुत ही पैसे वाले और रईस घराने में हुआ था | अपने ज़माने में चंदौसी जिले में उनके ससुर की तूती बोला करती थी | बेहद मशहूर और मारूफ़ हस्तियों में उनका नाम शुमार था | बड़ी बड़ी इमारतें, गोदाम, दुकाने, सिनेमा घर, बर्फ, पेपरमिंट और तेल बनाने का कारखाना और भी न जाने क्या क्या व्यापार थे उनके | साहू साहब के खानदान में उनका बहुत ही मेल-मिलाप और आना जाना था | इसी आपसदारी के चलते बीना देवी का विवाह उनके सुपुत्र के साथ तय हुआ था | 

बीना से छोटी माधरी देवी का विवाह मुंडिया के एक बहुत ही सुशील और पढ़े लिखे नौजवान के साथ हुआ था | उन्होंने उस ज़माने में एम्.बी.ए की पढाई उत्तीर्ण की थी और एक बहुत ही सम्मानित दैनिक समाचार पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत थे | बाद में उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र और मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू किया | साथ ही उन्होंने भवन निर्माण के व्यवसाय में भी बहुत नाम कमाया और दिल्ली के एक बहुत ही आलिशान और उच्चवर्गीय इलाके में अपनी कोठी का निर्माण किया | 

अन्त में सबसे छोटे श्री विनोद कुमार जिन्होंने यन्त्रशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | जीवन के शुरुवाती दिनों में उन्होंने एक सरकारी महकमे में यंत्रवेत्ता के पद पर कार्य किया परन्तु फिर चाकरी से दिल उकताने के कारण उन्होंने अपने स्वयं का व्यवसाय आरम्भ किया | उनकी शादी भी एक मुरादाबाद के पास के जिले लखीमपुर खिरी के एक बहुत ही सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुई थी | 

इस प्रकार से साहू साहब, अनारो देवी और गंगा सरन जी ने अपनी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बहुत ही कुशलतापूर्ण और व्यस्थित तरीके से निभाया था | उन्होंने जितना हो सके सात्विक संस्कार, रीति रिवाजों तथा उच्च शिक्षा अपनी संतानों को प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी संताने उनकी आशाओं के अनुरूप खरी उतरी और सभी अपनी दैनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन करने हेतु सक्षम थे | 

वहीँ साहू साब भी अपनी बीमारी के कारण पिछले दस वर्षों से मोतियाबिंद और आँखों में कला पाना उतरने की वजह से अपनी दृष्टि से मुक्त हो चुके थे | किन्तु फिर भी उनका रौब ज्यों का त्यों था | अपने मुकदमें बाज़ी, ज़मींदारी और दुसरे छोटे बड़े काम वे तब भी बड़ी सहजता के साथ स्वयं ही निपटा लिया करते थे | बस स्वभाव से ज़रा आशुकोपी, तुनकमिजाज़, हड़बड़हटी, उत्तेजित, उन्मादी, चिड़चिड़े, हठधर्मी और गुस्सैल हो गए थे | दृष्टि खो देने की पीड़ा उन्हें कभी कभार बहुत लाचार बना देते थी और गाली-गलौच में कुछ ज्यादा इजाफा कर दिया करती थी | अपनी दृष्टिहीनता से खिन्न वे कभी कभी बहुत झुंजला जाया करते और अभद्र भाषावली प्रयोग कर परिवार के सदस्यों पर बरस पड़ते |  अब उनकी दृष्टि वीरेन्द्र प्रसाद की आँखें ही थी जो उनका सारा काम संभाला करते थे | उनके गुस्सैल स्वाभाव और गलियों से त्रस्त दुसरे नाती उनसे कन्नी काटा करते | वहीँ दूसरी ओर वीरेन्द्र बाबु उनकी सभी रोज्मर्रह की ज़रूरियात, खाना पीना, घूमना और यहाँ वहां के छोटे बड़े काम सभी का ख़याल रखते और अपने नाना की बुजुर्गियत को सहारा देने मैं कभी कोताही न बरतते | वो कहते हैं न बड़ों की गाली भी स्वाली होती है | वीरेन्द्र बाबु उनकी इस भाषा को आशीर्वाद समझ ग्रहण करते और सच्चे ह्रदय से उनके सभी कार्य पूर्ण करते | उनकी एक आवाज़ पर अपने सभी काम काज और खाना पीना छोड़ दौड़े चले जाया करते |  यही कारण था के साहू साहब का सारा स्नेह और प्यार उन पर आशीर्वाद बनकर बरसता और वे साहू साहब के सबसे प्रिये और लाडले नाती थे |

अनारो देवी और गंगा सरन जी भी अब वयोवृद्ध अवस्था में प्रवेश कर चुके थे और अपने सभी उत्तरदायित्त्वों से मुक्त हो चुके थे | अब उनका अधिकतर समय भगवान् की भक्ति में गुज़रता और जो समय बच जाता वो अपने नाती पोतों के साथ समय व्यतीत करने में बीत जाता |  क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

एकाकी












एकाकी जीवन है
मेरा
पर्वत तेरे जैसा
कभी लगे
झरने तेरे जैसा
कभी लगे
बादल तेरे जैसा
उमड़ घुमड़ कर
दुःख आते हैं
मन को दुःख दे
छल जाते हैं
कभी अंतः
सुख बरसाते हैं
दिल कहता है
दुःख नहीं चाहियें
अंतः कहता
सुख नहीं चाहियें
अंतः
मन दोनों एकाकी है
जीवन
तन दोनों एकाकी है
तब मैं भी तो
एकाकी हूँ
जीवन डोर
प्रभु को सौंपी
मन, अंतः को
दिया भुलाय
बादल तुझसे
झरने तुझसे
अपना जीवन
लिया मिलाय
बहते रहना
बरसते नयना को
अब लिया है
अपनाय...