बुधवार, दिसंबर 31, 2014

हे वृक्ष - २












जबकि हर व्यक्ति
अपनी पकड़
अपने अहं
अपनी विलासता, को
मज़बूती से
पकड़े रहना चाहता है
वो चाहता है
उसके सम्बन्धी
उससे सम्बंधित
हर व्यक्ति
उसकी दासता माने
क्यों, क्या उससे
अलग किसी के शरीर में
मन, आत्मा या चेतना नहीं
हे वृक्ष
तुम मानव से
कहीं अधिक श्रेष्ठ हो
तुम सिर्फ अपनी
जड़ के स्वामी हो
अपनी ताक़त से
जड़ों की रक्षा करते हो, ताकि
वृक्ष का विस्तार
दूर दूर तक फैलता रहे
और मैं तुम्हे एक बार और
महानता की उपाधि देता हूँ
तुम अपने पत्ते,
अपने फल, अपने फूल को
जब तक ही पकड़े
रहना चाहते हो
जब तक वो अपने
अस्तित्व में पूर्ण नहीं होते
उसके बाद
तुम उनकी
चिंता छोड़ नए पत्ते
नए फल, नए फूल की
रचना में लग जाते हो
'निर्जन तुम्हे परमात्मा का
दूसरा स्वरुप मानता है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, दिसंबर 28, 2014

लगे हैं



















इस साल के दिन जाने लगे हैं
नए साल के दिन आने लगे हैं

नए दिन देखो क्या आने लगे हैं
बीते दिन सब भूल जाने लगे हैं

बिछड़े बच्चे गुम जाने लगे हैं
अपनों के ग़म सताने लगे हैं

बाढ़ और प्रलय तड़पाने लगे हैं
पीड़ितों को बाबू जताने लगे हैं

सीमा पर आहुति चढ़ाने लगे हैं
उजड़ी मांगों को तरसाने लगे हैं

चुनावी दिवस अब आने लगे हैं
नेता भी अपनी खुजाने लगे हैं

चील गिद्ध बन मंडराने लगे हैं
ज़ख्मों को नोच खाने लगे हैं

गले सब के फड़फड़ाने लगे हैं
मौकापरस्त मेंढक टर्राने लगे हैं 

सबको ग़लत गिनवाने लगे हैं
करनी अपनी छिपाने लगे हैं

दूसरों में दोष दिखाने लगे हैं
सब दूध से अब नहाने लगे हैं

भाषण से जनता बहलाने लगे हैं
टोपी सभी को पहनाने लगे हैं

दर्द और टीस के आने लगे हैं
'निर्जन' दाम पकड़ने लगे हैं

आदमखोर कितने सयाने लगे हैं
इंसा के दुःख को भुनाने लगे हैं

ज़ख्म पुराने यूँ भर जाने लगे हैं
ज़ख्म नए आवाज़ लगाने लगे हैं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

देखा है














दौर-ए-वक़्त आया वो ज़िन्दगी में एक बार
उफनते समंदर से ख़ुदको लड़ते देखा है

वो जो आज हँसते हैं मुझ पर, कल रोयेंगे
आग में तपकर ही कुंदन बनते देखा है

सुपुर्द-ए-गर्क होंगे तमाशबीन एक दिन 
खुद मुंह अपना उन्हें सियाह करते देखा है

कर बुलंद हौंसला नभ बुलाता है 'निर्जन'
क्या सूरज को किसी से उलझते देखा है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Dekha Hai
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Daur-e-waqt aaya wo zindagi mein ek baar
Ufante samandar se khudko ladte dekha hai 

Wo jo aaj hanste hain mujh par, kal royenge
Aag mein tapkar hee kundan bante dekha hai 

Supurd-e-gark honge tamashbeen ek din 
Khud munh apna unhe siyah karte dekha hai 

Kar buland haunsla nabh bulata hai 'nirjan'
Kya sooraj ko kisi se ulajhte dekha hai 

--- Tushar Raj Rastogi ---

शायरी

इश्क़ परखने का हुनर, हम बख़ूबी जानते हैं
कौन है आशिक़-ए-बुताँ, हम बख़ूबी जानते हैं
आशिक़-ए-बे-दिल के, बैत-ए-आशिक़ाना में
कौन है फ़र्द-ए-बशर, हम बख़ूबी जानते हैं

*आशिक़-ए-बुताँ - beauty lover
*आशिक़-ए-बे-दिल - heartless lover
*बैत-ए-आशिक़ाना - temple of love
*फ़र्द-ए-बशर - unique human being

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, दिसंबर 20, 2014

ये रात फ़िर अधूरी है















सितारे भी अधूरे हैं
चंदा भी अधूरा है
मचलते जज़्बात अधूरे हैं
मदहोश शामें अधूरी हैं
तड़पती तन्हाई अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

तरसते ख़्वाब अधूरे हैं
बुदबुदाते अल्फ़ाज़ अधूरे हैं
चादर की सिलवटें अधूरी हैं
अरमानो की टीस अधूरी है
नाचती उमंगें अधूरी हैं
ये रात फ़िर अधूरी है

तेरा साथ भी अधूरा है
पैग़ाम-ए-दिल भी अधूरा है
'निर्जन' आरज़ू अधूरी है
ये जुस्तजू भी अधूरी है
हर उम्मीद अब अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

दिल की बात अधूरी है
ये मुलाक़ात अधूरी है
ख़ुदाया कैसी मजबूरी है
नज़दीकि लगती दूरी है
दिल में दस्तक ज़रूरी है
बिन तेरे ज़िन्दगी अधूरी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Ye Raat Phir Adhoori Hai
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Sitare bhi adhoore hain
Chanda bhi adhoora hai
Machalte jazbaat adhoore hain
Madhosh shaamein adhoori hain
Tadapti tanhaai adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Taraste khwaab adhoore hain
Budbudate alfaaz adhoore hain
Chaadar ki silvatein adhoori hain
Armano ki tees adhoori hai
Naachti umangein adhoori hain
Ye raat phir adhoori hai

Tera sath bhi adhoori hai
Paigaam-e-dil bhi adhoora hai
'Nirjan' aarzoo adhoori hai
Ye justju bhi adhoori hai
Har umeed ab adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Dil ki baat adhoori hai
Ye mulaqaat adhoori hai
Khudaya kaisi majboori hai
Nazdeki lagti doori hai
Dil mein dastak zaroori hai
Bin tere zindagi adhoori hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2014

हे वृक्ष



















हे वृक्ष! तेरे पत्ते
हर शिशर के बाद
क्यों नए आते हैं
क्यों तू पुरानो का
नवीनीकरण करता
तुझे भी
बदली ऋतू में
नए ढ़ंग का
जीवन चाहियें
क्यों पुराने पत्तों को
पूरी तरह गिरा देता है
एक पत्ता भी क्यों नहीं रखता
स्मृति मात्र के लिए
एक अरसा तेरे साथ
रहने पर भी तू
उससे मोह नहीं करता
तेरे लिए एक वर्ष
एक युग के समान है
तभी सभी एक साथ
बदल देता है

हे वृक्ष! तेरे पक्षी
तुझे कभी नहीं छोड़ते
जो तेरी हरियाली में
तेरे साथ रहते हैं
वो तेरे ठूंठ पर भी
बैठे तेरी ख़ुशहाली की
शायद कामना
करते रहते होंगे
क्यों नहीं छोड़ते
वो तुझे पतझड़ में
तू, तेरे पत्ते, तेरे पक्षी
सब मानव सृष्टि और
परमात्मा का स्वरुप हैं
या सिर्फ़
सांसारिक चक्र का
मुझे बता आज
क्या है ये राज़
क्या इसमें भी कोई
मर्म छिपा है, या इसकी भी
कोई दर्द भरी कहानी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Hey Vraksh
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Hey vraksh! tere patte
Har shishr ke baad
Kyon naye aate hain
Kyon tu purano ka
Naveenikaran karta
Tujhe bhi
Badli ritu mein
Naye dhang ka
Jeevan chahiyen
Kyon purane patton ko
Poori tarah gira deta hai
Ek patta bhi kyon nahi rakhta
Smriti maatr ke liye
Ek arsa tere sath
Rehne par bhi tu
Usse moh nahi karta
Tere liye ek varsh
Ek yug ke smaan hai
Tabhi sabhi ek sath
Badal deta hai

Hey vraksh! tere pakshi
Tujhe kabhi nahi chhodte
Jo teri hariyali mein
tere sath rehte hain
Wo tere thoonth par bhi
Baithe teri khushhaali ki
Shayad kaamna
Karte rehte honge
Kyon nahi chhodte
Wo tujhe patjhad mein
Tu, tere patte, tere pakshi
Sab manav srishti aur
Paramatama ka swaroop hain
Ya sirf
Sansarik chakr ka
Mujhe bata aaj
Kya hai ye raaz
Kya ismein bhi koi
Marm chhipa hai, ya iski bhi
Koi dard bhari kahani hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

रविवार, दिसंबर 14, 2014

साईं संध्या या राजनैतिक अखाड़ा

 ॐ साईं नाथ - ॐ साईं राम

इतनी ख़ुशी मिली है ये दिल आबाद हो गया
साईं की महफ़िल में 'निर्जन' शादाब हो गया

आज शाम अचानक से प्रभु का बुलावा आ गया | अरे यारों! वो वाला बुलावा नहीं जो आप सोचने लग गए हो बल्कि सुअवसर था साईं बाबा के दर्शन करने का, उनके सामने नतमस्तक हो अपने जीवन के लिए सुन्दर कामनाएं करने का और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का | सोचा नहीं था कि खड़े खड़े यकायक यूँही कदम उनसे मिलने की ओर बढ़ते चले जायेंगे | मैं तो रोज़ शाम की तरह कुछ एक यारों की महफ़िल में उनके चुटकुलों और चुटकियों का लुत्फ़ उठा रहा था और सरसब्ज हो रहा था | मालूम हुआ के आज तो हमारे क्षेत्र की धरातल पर 'साईं संध्या' का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है | पहले तो सोचा के टाल कर जाता हूँ परन्तु मेरे अभिन्न मित्र और बड़े भाई के कहने पर रुक गया और उनके साथ चलने को मन ही मन राज़ी हो गया | भैया की अचार की दुकान पर चुनावी सरगर्मियों पर आचार विचार और चर्चाओं के प्रहार के बीच हम सभी दोस्त लोग एक दुसरे की खिंचाई कर आनंद उठा रहे थे | हमारे नवविवाहित वकील साब की शामों और रातों का मुक़द्दमा आजकल हम यारों की अदालत में ज़रा ज्यादा ही जोर शोर से उठाया जाता है | बेचारे वकील साहब शादी कर के अच्छे फेर में फँस गए हैं और आजकल उनकी बोलती भी बंद ही रहती है | मित्र-मण्डली के मज़ाक़ और टांग-खिंचाई के सामने बस वो कुछ ऐसे बेबस मुस्कुराते हुए अपने दर्द को छिपाते नज़र आते हैं जैसे ओसामा ओबामा की क़ैद में फंस गया हो | इसके साथ ही हमारे साथ दुकान पर एक राजनैतिक पार्टी के भावी प्रत्याशी भी चर्चा में शिरकत कर रहे थे | वो कुछ देर पहले ही अपने दल के एक चमचे के साथ दुकान पर पधारे थे | चमचा कहूँ या चुनावी मेंढक जो बुलेट मोटरसाइकिल पर सवार होकर आया था और उसका हैल्मेट ऐसा लग रहा था मानो द्वितीय विश्व युद्ध के किसी रंगरूट का लोहे का शिरस्त्राण हो अर्थात टोपा हो | उसकी इस वेशभूषा को देखते ही सबकी हंसी निकल गई | कुछ देर उसके साथ दिल्लगी की गई और उसके बाद सभी लोग बातचीत में मशगूल हो गए | सभी रात के ९ बजने के इंतजार में थे | सब ने साईं संध्या में जाने का मन बनाया था | मेरे से भी पुछा गया था परन्तु उस समय तक मैंने अपनी अंतर्मुखी दुविधा के चलते रज़ामंदी अभी तक अपने दिल में ही छिपा रखी थी | आखिरकार ९ बजे और सबने निकलने का विचार किया | बस कुछ ना कहते और सोचते हुए मैं भी सबके साथ चल पड़ा |

सहसा ही बहुत से उन्सुल्झे द्वन्द, सवालात और अनुत्तरित जवाबों को दिल में लिए मेरे कदम मित्रों और भावी नेताजी के साथ हंसी-ठठ्ठा करते संध्या स्थल की तरफ़ बढ़ते चले गए | पंडाल के पास पहुँच कर जब नज़र उठाकर देखा तो नज़ारा जितना मनमोहक था उतना ही आनंदमय वातावरण भी था | हर तरफ चमचमाती हेलोजन और बल्बों की रौशनी, लाल-पीले-हरे-सफ़ेद-गुलाबी रंग के कपड़ों से लगाया हुआ पंडाल | पंडाल के बीचोबीच साईं विराजमान थे | साईं का तेज और उनका प्रभामण्डल देखने योग्य था | उनके ठीक सामने रंगमंच सजा था | रंगमंच पर कलाकार रंग बिरंगी पोशाक में सजे-धजे अपनी कला का प्रदर्शन करने में मगन थे | बेहद श्रद्धा से परिपूर्ण कलाकार भगवान् श्री कृष्ण की झांकी और भजन प्रस्तुत कर रहे थे | सैंकड़ों की संख्या में जनता उपस्थित हो उस मनोहारी परिवेश में भाव विभोर होने से अपने आप को नहीं रोक पा रही थी | कोई खड़ा-खड़ा नाच रहा था तो कोई हवा में हाथ हिला हिला कर हिलोरे ले रहा था | बच्चे खेल कूद में लगे थे | सभी मन्त्रमुग्ध हो साईं की भक्ति में लीन दिखाई दे रहे थे | पंडाल के एक तरफ जूताघर का स्टाल लगाया गया था |  जूता घर के पास ही आने वाले श्रद्धालुओं के लिए साईं का तिथिपत्र भेंट स्वरुप देने का इंतज़ाम किया गया था | उसके आगे हाथ धोने के लिए पानी का स्टाल था | ठीक उसके सामने दूसरी तरफ खाने का इंतज़ाम था जहाँ साईं का प्रसाद ग्रहण किया जा सकता था | साईं के प्रसाद में कढ़ी-चावल और हलवा बनाया गया था | पंडाल में प्रोजेक्टर स्क्रीन का भी इंतज़ाम किया गया था जिससे जनता को कार्यक्रम का आनंद लेने से वंचित ना रहना पड़े |

हम सभी मित्रों ने नेताजी के साथ जैसे ही पंडाल में कदम बढ़ाये हमारे एक और मित्र जो की साईं संध्या के आयोजकों में से एक थे दौड़ कर हमारा स्वागत करने पधार गए | थोड़ी देर के वार्तालाप के बाद हमें वहां के प्रमुख आयोजक से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ | उन महानुभाव को जब ज्ञात हुआ की हमारे साथ अमुक राजनैतिक दल के भावी प्रत्याशी भी पधारे हैं तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | दौड़ दौड़ कर अपने परिचितों और स्वयं सेवी संस्था के लोगों से उनका परिचय आरम्भ कर दिया | यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक एक दूसरी अमुक पार्टी के पुराने बड़े नेताजी जिन्हें आधिकारिक न्योता संस्था ने पहले ही भेजा हुआ था और जिनका इंतज़ार बड़ी ही बेताबी और बेसब्री से हो रहा था, का आगमन नहीं हुआ | उनके चरणकमल द्वारा जैसे ही पंडाल दुलराया गया वैसे ही सभी लोग जो अब तक हमारे इर्द-गिर्द घूम नेताजी से फ़ौरी गठ-जोड़ बैठा रहे थे, उन्हें गले लगा रहे थे, अपने मोबाइल नंबर का आदान प्रदान कर रहे थे, गले मिल रहे थे या ऐसे मिल रहे थे मानो बरसों के बाद कोई बिछड़ा आज अकस्मात् ही सामने आ गया हो वो तुरंत ही छु-मंतर होते नज़र आए | माना की बड़के भैयाजी पिछले चुनाव में हारे हुए दल से चित हुए उम्मीदवार थे परन्तु वो कहते हैं ना पुराने चावल का स्वाद तो सबसे अलग ही होता है | बस फिर क्या था सभी का रुझान उनकी तरफ़ ही रहा और हम ये तमाशा देख मुस्कुराते रहे |

साईं दर्शन के लिए हमने अपने जूते-चप्पल जूताघर में उतारे, हाथ धोये और साईं दर्शन के लिए कतार में लग गए | हमारे परिचित मित्र पहले से ही साईं मंच के पास पंडित जी को बताने में लगे हुए थे कि नेताजी का आगमन होने वाला है | एक दफ़ा तो उन्होंने हमें सीधे कतार तोड़ कर भी आने का निमंत्रण दे डाला परन्तु हम आम जनता के साथ और उन्ही की तरह दर्शन करने के अभीलाषी थे अतः हम चुपचाप एक पंक्ति बनाकर चलते रहे | नेताजी को सामने देख आनन्-फ़ानन में पंडितजी ने उन्हें माल्यार्पण किया साथ ही दो अमरुद हाथ में थमा दिए और नेताजी हाथ जोड़ आगे बढ़ गए | नेताजी के पीछे हमारे वकील दोस्त भी थे जो प्रसाद के लिए मचले जा रहे थे | उन्होंने भी देखा-देखी प्रभु को शीश नवाया और हाथ बढ़ा दिया | पंडित ने उनकी शक्ल देखी और मुंह फेर लिया मानो कोई भिखारी देख लिया हो | प्रसाद देना तो दूर की बात पलट कर जायज़ा लेने को भी राज़ी नहीं थे | पर हमारे वकील साब तो वकील साब है और उस पर बड़ी बात यह है कि वो भी पंडित प्रजाति के अंश हैं बस फिर क्या था डटे रहे जब तक उनके हाथों में प्रसाद नहीं आ गया | खाद्य सामग्री प्राप्त होते ही वकील साब समपूर्ण स्फूर्ति के साथ नेताजी के पास हो लिए | हम तो ठहरे भाई आम आदमी यानी कॉमन मैन और हम लाइन में थे किसके पीछे, वकील साब के, लिहाज़ा जब वकील साब को पंडितजी ने कुछ नहीं समझा तो हम किस खेत की मूली थे | हमें भी पंडित जी ने नज़रन्दाज़ कर दिया और हम भी हाथ जोड़ कर आगे बढ़ गए |

अब आया खाने का नंबर | देखा तो ये लम्बी क्यू लगी थी खाने के स्टाल पर | पर अपना तो जुगाड़ फिट था | सभी बैठ गए कुर्सियां पकड़ कर और स्टेज पर हो रहे रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेने में मस्त हो गए | एक मित्र ने फ़ोन कर हमारे सूत्र को समझाया के भाई जल्दी आओ और स्टाफ चला कर खाने का इंतज़ाम करो | वो भी दौड़ कर तुरंत आए और सबके लिए फटाफट कढ़ी-चावल की प्लेटों का इंतज़ाम कर दिया | सभी दोस्तों ने तब तक नेताजी के साथ सेल्फी वाला कार्यक्रम निपटा लिया था | बस फिर क्या था सभी टूट पड़े | दे-दबा-दब पत्ते पर पत्ते उड़ा रहे थे कढ़ी-चावल के और प्रसाद का आनंद प्राप्त कर रहे थे | भोज के बाद मीठे की दरकार हुई और हलवा खाने की तलब लग गई | सब ने एक एक दोना हलवा उड़ाया और अपने अपने पिछवाड़े से हाथ पोंछ चप्पल जूते उठाने चल दिए | अपने चप्पल-जूते पहन कर और प्रभु को नमन कर हम सभी अपने अपने घर की ओर कूच कर गए |

कुल मिला कर कहूँ तो साईं-संध्या में आयोजक स्तर पर साफ़ तौर पर आस्था का स्तर कुछ कम ही नज़र आया | प्रभु के नाम पर एक ऐसा राजनैतिक अखाड़ा देखा जहाँ अपनी साख़ बनाने के लिए जद्दोजहद चल रही थी | आयोजकों द्वारा अलग अलग दल के नेताओं को बुलावा भेजा गया था | आने वाले चुनावों में अपनी स्तिथि मज़बूत करने के लिए और अपने अनकहे वर्चस्व के बखान और विधानसभा में अपनी उपस्थिथि दर्ज करवाने के लिए यह संध्या बहुत ही लाभदायक और बेहतरीन ज़रिया सिद्ध हो रही थी | जहाँ पंडित भी नोटों को और शक्लों को देखकर प्रसाद देता हो वहां और क्या अपेक्षा की जा सकती है | लोगों में उत्सुकता तो थी परन्तु कार्यक्रम के लिए कुछ ख़ास नहीं | ज्यादातर का ध्यान या तो खाने के ऊपर दिख रहा था या फिर सामान्य मौज मस्ती में लगे थे या किसी आपसी जोड़-तोड़ में तल्लीन थे परन्तु इसके विपरीत कुछ चेहरे ऐसे भी पढ़ने को मिले जो सच में साईं से रूबरू हो अपनी व्यथा बयां करने के इरादे से आए थे | जिनकी आँखों में एक आस थी और होठों पर साईं दर्शन के अमृत की प्यास थी | उनकी मुस्कराहट बयां कर रही थी, साईं संध्या में आने से ज़िन्दगी सफल हो गई | उनकी मुश्किलों का हल मिल गया है और वो बहुत संतुष्ट हो गए | हम भी यारों उन्ही में से एक थे | शायद आने वाले साल में हमारी दुआ भी क़ुबूल हो जाए और साईं के आशीर्वाद से हमारे काम भी बन जाएँ | उम्मीद तो यही है | देखते हैं और नए साल का इंतज़ार करते हैं ....... :)|

ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम....

बुधवार, दिसंबर 10, 2014

कलयुग घोर कलयुग















आज का युग बहुत ही बेढंगा युग है
कलयुग है गुरु जी घोर कलयुग है

बताओ तो -

आज प्यार भी एक मलिन व्यापार बनता जा रहा है
आज इसमें लड़की क्या लड़का भी मात खा रहा है

८० की उम्र में ३० की कली से निकाह पढ़वा रहा है
कब्र में लटक रहे हैं पाँव जान मर्दानगी दिखा रहा है

मर्यादा को त्याग हर कोई मद में धंसता जा रहा है
पाखंड दिखा निन्न्यांवे के फेर में फंसता जा रहा है

चार दिवारी छोड़ सड़क पर कामुकता दिखा रहा है
इंसानियत को हैवानियत का जामा ये पहना रहा है

अश्लीलता का नंगा नाच चैनलों पर होता जा रहा है
ओछेपन की चसक में मनुष्य ज्ञान खोता जा रहा है

अपना, अपनों को यहाँ बेख़ौफ़ धोखा दिए जा रहा है
जोंक बनकर अपनों के प्यार का खून पिए जा रहा है

धन के लोभ में इंसानियत छोड़ मन मारे जा रहा है
तन के मोह में गरिमाओं की अस्मत हारे जा रहा है 

मतिमंद है वो जो रोज़ इनको समझाता जा रहा है
जन्तु भी मानस की हरकत से घबराता जा रहा है

'निर्जन' सोचे देश में ये क्या अनर्थ होता जा रहा है
अश्व को नसीब ना घास गधा ज़ाफ़रान उड़ा रहा है

--- तुषार राज रस्तोगी ----

मंगलवार, दिसंबर 02, 2014

क़िस्मत




















मैं तो हर शब् से एक
रिश्ता बनाता गया था यूँ ही
जहाँ से भी गुज़रा यादों का
दरिया बहाता गया यूँ ही
पर मेरी क़िस्मत का
लिखा भी अजीब था 'निर्जन'
गुनेहगार कोई और था, और
सज़ा मैं पाता गया यूँ ही
हाँ, आज मैं ये तस्लीम करता हूँ
कि मुझे मोहब्बत नहीं मिलती
मगर, ओ मेरी सोच के मेहवार
कभी यह भी ज़रा सोचो कि
जो तुम को याद करता हूँ
तो खुद को भूल जाता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, नवंबर 29, 2014

इंतज़ार













उसके इंतज़ार में दिल मेरा बेज़ार हो गया
इतना तड़पा के हर ख्व़ाब तार तार हो गया

आँख नम थी पर होटों पर हंसी थी 'निर्जन'
आवाज़ सुन उसकी दिल बेक़रार हो गया

लगता था आवाज़ में चाशनी घुली थी उसकी
अलफ़ाज़ सुनते ही गुलिस्तान गुलज़ार हो गया

वो साँसों की तपिश, जिस्म की महक उसकी
वो अदावत, वो अदाएं, वो मासूमियत उसकी

सोचते सोचते दिल बहका सा जाता है मेरा
अब तो बस ये कहने को जी चाहता है मेरा

खुश रहे वो सदा हंसती रहे गुनगुनाती रहे
अपनी आँखों से यूँ ही चांदनी छलकाती रहे

उसके साथ बस यूँ ही जी लूँगा ज़िन्दगी अपनी
खुश जो रहे वो तो समझो ज़िन्दगी आबाद अपनी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

तरुण का बैंड बजा



















तरुण का बाजा बज गया
याड़ी अपना सज गया
ना ना करते धंस गया
शादी के फेर में फंस गया

दोस्त अपना है वकील
कहते जिसे अड़ंगा कील
घोड़ी कल चढ़ गया यार
घर ले आया अपना प्यार

महफ़िल भी जमी थी ख़ूब
नाच नाच डीजे पर कूद
हाथ पैर सब खूब चलाये
हम स्वराजी शादी में छाए

मनोज भाई हाईलाइट थे
अनशेवड डिलाइट थे
नाच नाच हुडदंग मचाये
मना करत वोडका चढ़ाये

यार अपने मनमौजी हैं
स्वराजी सब फ़ौजी हैं
सजे धजे दूल्हा बन आए
जलवे सबने खूब दिखाए

दिल से दुआ करते हैं यार
हर दिन तेरा हो त्यौहार
मिले ताउम्र सभी का प्यार 
'निर्जन' कहता जी खुल के यार

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, नवंबर 26, 2014

हम भी बदल गए
















इन मुश्किलों की राह में, हम बढ़ते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

आवारगी की मय से, हम जाम भरते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

फुर्कते-ग़म के चराग, हम भी बुझाते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

इश्क़ में बदनाम, हम सरनाम होते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

अंजाम से बेपरवाह, हम अब चलते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

दर्द की दास्ताँ को, हम यूँ बयां करते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

यूँ ज़िन्दगी को 'निर्जन', हम भी जीते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, नवंबर 25, 2014

मुझको



















ज़ख्म जलते हैं अज़ीयत नहीं होती मुझको
अब तेरी याद से वहशत नहीं होती मुझको

कोई आए कोई जाए दर्द नहीं होता मुझको
शरीक़े-ग़म की भी आदत नहीं होती मुझको

कुछ ऐसा बदला है फ़ुर्कत-ए-ग़म ने मुझको
अब झूठ बोलूं तो नदामत नहीं होती मुझको

मरकर भी कोई अब मार नहीं सकता मुझको
अब कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझको

इतनी जुनूं-ए-हवस जीने की हो गई है मुझको
अब सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती मुझको

वो कहती थी पा नहीं सकता 'निर्जन' मुझको
अब छू लेती है तो नफ़रत नहीं होती मुझको

अज़ीयत - कष्ट / torture;
वहशत - जंगलीपन / savagery;
शरीक़े-ग़म - दर्द का साथी / friend in pain;
फ़ुर्कत-ए-ग़म - जुदाई का दर्द / pain of seperation;
नदामत - झिझक / attrition;

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

आज का इंसान



















बाहर से आलोकनाथ है अन्दर शक्ति कपूर
आज का इंसान कितना कमीनेपन से भरपूर

सबक सैंकड़ों सीख कर भी आदत से मजबूर
लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, ग़द्दारी, चालाकी से भरपूर

पीढियां बीत गईं इसकी पर तहज़ीब है काफ़ूर
कुत्ते की दुम सी फ़ितरत है टेढ़ेपन से भरपूर

चलती फिरती नौटंकी है ये दुनिया में मशहूर
दिखावे खूब दबा कर करता ये झूठ से भरपूर

"निर्जन" कहता ऐसों से बेटा बनो नहीं तुम सूर
घड़ा पाप का जब भर जाए तब दंड मिले भरपूर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, नवंबर 03, 2014

मेरी ज़िन्दगी













तुमने रात भर तन्हाई में सरगोशियाँ की थीं
तेरी नर्म-गुफ्तारी ने रूह को खुशियाँ दी थीं

बातों ने संगीतमय संसार बक्शा था रातों को
यादों ने नया उनवान दिया था मेरे ख्वाबों को

तुमने 'निर्जन' इस दिल का सारा दर्द बांटा था
तेरी रूमानियत ने रात को फिर चाँद थामा था

मेरे आशारों में इश्क़ इल्हाम की सूरत रहता है
मानी बनके तू लफ़्ज़ों को मेरे एहसास देता है

तेरे होने से ज़िन्दगी हर लम्हा गुल्ज़ार रहती है 
तेरी पायल की आहट कानो में संगीत कहती है

गुफ्तारी : वाक्पटुता, वाग्मिता, वाक्य शक्ति, बोलने की शक्ति
कर्ब : दुःख, दर्द, बेचैनी, रंज, ग़म
उन्वान : शीर्षक, टाइटल
इल्हाम : प्रेरणा
मानी : ताक़तवर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, नवंबर 02, 2014

अब भी



















मचली हुई हैं गुज़री रात की सरगोशियाँ अब भी
तेरे इश्क़ की ख़ुशबू साँसे महका रही हैं अब भी

तड़पता दिल बड़ी शिद्दत से बहक रहा है अब भी
तेरी बातों की चसक चराग़ जला रही हैं अब भी

ख्वाहिश चाँद छूने की पूरी नहीं हुई है अब भी
तेरी अब्र-ए-नज़र दिल में झाँक रही हैं अब भी

बयां करना नामुमकिन ये बेख़ुदी है अभी भी
तेरे जिस्म की कसमसाहटें सता रही हैं अब भी

ये जज़्बात बहते आबशार की मानिंद हैं अब भी
ख़ुशनुमा मौसम देख होठ मुस्कुरा रहे हैं अब भी

अब्र : बादल
आबशार : झरना

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अक्टूबर 28, 2014

तेरा इश्क़ ही बस साथ है













बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ

कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ

मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ

वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ

नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ

जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ

साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ

शरर -  चिनगारी, स्पार्क

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, अक्टूबर 20, 2014

मोह














हे ईश्वर
मानव को
अपने रिश्तों का
मोह क्यों होता है ?
उसके खींची हुई
रिश्तों की कड़ी
ज्यों ज्यों बढ़ती है
उसका मोह
उतनी ही मज़बूत
ज़ंजीर में उसको
जकड़ता है

एक कैदी की
बड़ियों की तरह
हर समय
कष्ट देती है
जैसे कैदी को
इस कष्ट से
स्वयं मुक्ति
नहीं मिल सकती
उसी प्रकार
इन रिश्तों से
उबरने की
कोशिश करने
पर भी
मानव
अपने आप को
टूटा हुआ
होते देख कर भी
शायद
कैदी की भांति
बेबस है
अपने आप में
खोया हुआ
पाता है

मोह से अलग
अपने जीवन को
सोचना और
समझना उसकी
सामर्थ्य से
चेतना से
बहार हो जाता है
जब वो
इस कवच को
उतार फेंकता है
तब दो स्तिथियाँ
उसे मिलती हैं
जीवन में
ईश्वर का मिलन
और दूसरी वो
जिसमें वो
इतना व्याकुल
और बेबस
रहता है जैसे
बिन पानी प्यासी मीन

हे ईश्वर
हर मानव को
जल में
कमल की भांति
रहने की शक्ति दो
वो
जन्म के
कर्म के
मोह के
उस कड़वे
बंधनों से
सदैव मुक्त रहे
पावे तेरा
पावन धाम
अपने जीवन की
अनंत यात्रा में

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, सितंबर 18, 2014

ढ़ोल गंवार शूद्र पसु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी


प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढ़ोल गंवार शूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥


आज कुछ दोस्तों से एक बात पर परिचर्चा हो रही थी | बात थी तुलसी दास जी द्वारा लिखी गई सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई का एक भाग जो धीरे धीरे हमारे बीच एक वाद विवाद का विषय बन गई | उक्त "चौपाई"  के माध्यम से तुलसीदास जी ने उस समय का वर्णन किया है जब भगवान् श्री राम ने समुन्द्र देवता से लंका जाने की लिए रास्ता देने का आग्रह किया था | कदाचित तुलसीदास जी (१५३२ - १६२३) की यह सबसे गलत समझी गई "चौपाई" है | इस चौपाई में जो शब्द "ताड़ना" आता है मेरे अनुसार शायद उसका अर्थ "तारना" या " "ताडयेत्" या महज़ "ताड़ना" हो सकता है | जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज तक शायद ही किसी एक शब्द ने किसी की प्रतिष्ठा को इतना नुक्सान पहुँचाया हो जितना इस शब्द ने तुलसीदास जी की ख्याति को पहुँचाया है |

यह अपनी अपनी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है के कौन "ताड़ना" शब्द का क्या मतलब निकालता है | आइये अब ज़रा इस शब्द को स्थापित करके देखते हैं कैसे क्या मतलब निकलता है ?

यदि हम इस शब्द का मतलब "तारना" लेकर चलते हैं तो पूरी की पूरी चौपाई का अर्थ बहुत ही सुन्दर निकल कर आता है | अर्थात:

ढ़ोल, मूढ़, गरीब, जानवर और नारी सभी को ऊपर उठाये जाने, मतलब उत्थान का हक है |

पंद्रहवी शताब्दी में जिस प्रकार की कुरीतियाँ और बुराइयाँ समाज में थी उसे देखते हुए तुलसीदास जी ने नारी की तुलना गरीब, जानवर, ढ़ोल और निपढ से की है, उस समय क्योंकि इनमें से किसी को भी अपनी मर्ज़ी और नियति के बारे में फैंसला करना का कोई हक़ नहीं था | परन्तु इस सन्दर्भ में यदि आज के आधुनिक समाज के लोगों से पूछेंगे तो वो तुलसीदास जी के उस उदाहरण से ज़रा भी सहमत नहीं होंगे | पर यदि हम उस समय के परिवेश को ध्यान में रखकर सोचेंगे तो पंद्रहवी शताब्दी में नारी को पुरुष के समक्ष वो अधिकार प्राप्त नहीं थी जो आज की नारी को हासिल हैं |

अब यदि इसका दूसरा अर्थ देखें अर्थात "ताडयेत्" से जो की संस्कृत भाषा का शब्द है तो इसका मतलब निकलता है "कठोर अनुशासन" या "पिटाई" | तो इस लिहाज़ से देखें तो पूरी चौपाई का अर्थ बिलकुल ही बदल जाता है |

ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सभी की अच्छे से पिटाई करनी चाहियें जिससे वह ठीक तरह से कार्य कर सकें | इस चौपाई का यह स्पष्टीकरण शायद उन लोगों द्वारा दिया गया है जो विस्पंदन करने में विश्वास रखते हैं और तुलसीदास जी के विरोधी हैं | इस आशय में कभी भी मुझे कोई अर्थ नज़र नहीं आता सिर्फ अनर्थ ही दिखाई देता है क्योंकि तुलसीदास जी तो महिलाओं को अत्यंत मान-सम्मान देते थे और वह स्वयं आदमी और औरतों के बराबर अधिकारों के लिए पक्ष्समर्थाकों में से एक थे ऐसा रामचरितमानस और उनके अन्य लेखन कार्यों  में उनके "दोहों" और "चौपाइयों" में साफ़-साफ़ प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट होता है | लोगों को यह भी ज्ञात होना चाहियें कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी को अत्यंत प्रेम करते थे और उनकी पत्नी द्वारा जनता के बीच उनकी प्रताड़ना ही उनका सांसारिक मोह से विमुख होने का मुख्य कारण बना था | रामचरितमानस की रचना भी उन्होंने उसी के बाद की थी |

अब यही हम इस चौपाई का तीसरा अर्थ देखते हैं जो कि मेरी निगाह में किसी निपुण, प्रतिभाशाली महानुभाव का कार्य ही लगता है....!!!

व्याख्या कुछ इस प्रकार से है कि एक ढ़ोल, एक निरक्षर या गरीब और बुरी स्त्री (चरित्रहीन नारी), यह सब पीटने योग्य हैं जिसके होने से यह सब अपना सर्वस्व देकर सही तरह से काम करते हैं ...!!! इस व्याख्यान की खासियत यह है कि इसमें जो शब्द "गंवार" और "पशु" हैं वो "शुद्र" और "नारी" के लिए विशेषण के रूप में उपयोग में लाये गए हैं |

वैसे माफ़ी चाहूँगा लेकिन एक और मज़ाहिया नज़रिया भी हो सकता है इस चौपाई का जो मैं बैठे बैठे सोच रहा हूँ अर्थात यदि हम शब्द "ताड़ना" को आज की स्तिथि में रखकर देखें या यूँ कहें की "कलयुगी रूप" में देखें तो उसका मतलब होता है "निष्कपट भाव से टकटकी लगाकर किसी को देखना (नज़रों से किसी को टटोलना)" लिहाज़ा मतलब यह निकलता है की किसी की सुन्दरता का रसपान करना और यह तो सर्व विदित है कि सभी खूबसूरत नारियां हर तरह से देखने योग्य होती ही हैं और किसी के सौंदर्य को देख निगाहों को ठंडक देने में कौन सी बुराई है ... !!!

बस भैया बाक़ी तो बस राम ही राखा ... हा हा हा ... जय श्री राम ... हर हर महादेव शिव शम्भू ...जय बजरंगबली महाराज ... :)

Faceless by Nizam Ahmed - Book Review

Faceless....by Nizam Ahmed

First of all I would like to thank becomeshakespeare.com for sending me books to read and review them.

Its really like that I deliberately and seriously want to criticize the book "Faceless" and its author. Whatever I am posting and writing here in this review after reading the book, is completely based on my personal opinion. The writing, the language, the plot, the narration & every single thing of this book is abrogating & nugatory. Leaves a very amatory impression about the author and his thoughts.

 




  • Faceless - what kind of a name is this ? Such a depressing and negative title. Cover page of a book with such dark feeling. I strongly felt it would have been much better if the writer would have given some adventurous name analogous to the plot.
  • The language is very mediocre.
  • Though the plot or idea of a superhero is really exciting but the author have killed it himself with his writing skills. He could have managed to bring this plot so beautifully but just bobbled and bumbled the whole creativity.
  • When we are talking about the superhero thing, it has to be interesting, full of surprises, action, power pact with rainbow of super powers creating some chain of events but here in this book no creativity, originality, inventiveness and imagination is shown in this context. Can anyone ever imagine of a superhero with only one superpower throughout the book while its told that he is a defender with excessively heroic powers.
  • From the start of the book till it finishes, it seems as if i have been watching some "C" grade movie which is a mix concept of South Indian, Bhojpuri and Bollywood cinema with abstracted ideas from various boring sources like mix of quotidian flicks and low-cost novels & stories where superhero protagonist and the main antagonist both are so predictable. The overall idea is a complete cliche. A depressing love story where the female lead never ever expresses anything properly. Instead she is a kind of conundrum to everyone.
  • The superhero section is also not very out of the box thinking. I felt its a depreciated mix of stolen ideas from various superhero movies.

I definitely would not recommend this book as a must read. Its very disappointing and I personally feel is totally a waste of time. I author is very kiddish and need more maturity in his writing. I am sorry to say but I seriously did not liked this book at all. I generally don't write reviews like that but this book is literally an exception. I rate this book 1/5. Overall one of the most pathetic book I have ever read.