बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ
कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ
मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ
वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ
नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ
जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ
साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ
शरर - चिनगारी, स्पार्क
--- तुषार राज रस्तोगी ---
वाह बढ़िया :)
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना मन को छू गई |
जवाब देंहटाएंहर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंRecent Post कुछ रिश्ते अनाम होते है:) होते
Kahne ko hai bas do shabd ....Waah.... Lajawaab !!
जवाब देंहटाएंनए से इश्क की खुमारी शाम ढलने तक ही। ....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल !
Bahut acha poem hain. I loved it.
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