गुरुवार, अक्टूबर 31, 2013

लफ़्ज़ों का जूनून - एक्सटेमपोर मुशायरा







कल 'लफ़्ज़ों का जूनून ग्रुप' की एडमिन अंजू वर्मा द्वारा आयोजित ऑनलाइन एक्सटेमपोर मुशायरा में भागीदारी करने का अवसर प्राप्त हुआ | बहुत ही बढ़िया तजुर्बा रहा मुशायरे में शिरकत करने काम, अपने जैसी सोच वाले दुसरे गुणीजन से मिलने का, उनके विचार और शेर पढने का | कार्यक्रम तकरीबन एक घंटा चला शाम ७.०० बजे से ८.०० बजे तक और सच कहूँ हो मौसम बहुत ही खुशमिजाज़ रहा | मैं शुक्रगुजार हूँ अंजू वर्मा का जिन्होंने मुझे इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए दावत दी और मेरा मान बढ़ाया | कार्यक्रम में सहभागिता  लेने वाले अन्य व्यक्तियों के नाम हैं नीना शैल भटनागर, और विशाल शुक्ला |  मुशायरे का आगाज़ अंजू वर्मा के मिसरा-ए-सानी देने के साथ हुआ जो था - 

मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली....

कार्यक्रम में मेरे द्वारा लिखे कुछ क्षणिक शेर आपकी नज़र कर रहा हूँ |

लक्ष्मी माँ करें कृपा तब मिट जाती बदहाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

संग साथ में रहें सभी सजाएँ पूजा की थाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

सुख और दुःख भूल मनाओ रात मतवाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

प्रेम प्रसंग को तड़पाती आई रात यह काली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

दिल में जब झंकार उठे गाए दिल क़व्वाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

भर कर सितारे मांग में झूमती है घरवाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

तीख़े बाण चलायें दिल पर बतियाँ तेरी मतवाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

खूब लगाओ पेड़ और पौधे करो ज़रा हरियाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

अन्ताक्षरी चले धमाधम बैठे हों जीजा साली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

बालक बूढ़े खूब हँसे खिलखिला बजाएं ताली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

ह्रदय की नदिया से बहे प्रेम की धार निराली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

अगरबत्तियों से महकाए आज रात यह काली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

छोड़ धमाके रिश्तों में चलाओ प्रेम दुनाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

कड़वाहट सब दूर करें खाएं मीठी सुआली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

नशा, मसाले सब बंद करें त्यागो ये जुगाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

जुआ-जुआरी से कहो न करो जेब तुम खाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

लक्ष्मी माँ को नमन करो पाओ अनुकंपा लाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

द्वेष भाव को त्याग कर खिलाओ भूखे को थाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

मेरी बातों पर गौर करें बन जाएँ खुद सवाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

पटाखों में आग लगा करते रात क्यों काली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

बंद करो पटाखे दिये से करो रात उजियाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

एक दूजे को समझ कर बजाएं साथ में ताली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

बज गए हैं आठ अब गएँ मिल सब क़व्वाली
मन से मन के दीप जलें तब होती है दीवाली

सिलसिले चलते रहें यूँ ही,
चमके कलम की धार निराली,
मन से मन के दीप जलें,
तब होती है दीवाली ....

कुल मिला कर शाम मज़ेदार रही | उम्मीद है ऐसे मुशायरे और कार्यक्रम जल्दी जल्दी आयोजित होंगे और मुझे उनमें सहभागी बनने का अवसर प्राप्त होता रहेगा | दीपावली सभी की मंगलमय हो, खुशियों से भरी हो और सुरक्षित हो | 

जय श्री राम | हर हर महादेव | बजरंगबली महाराज की जय

मंगलवार, अक्टूबर 29, 2013

अनजाने जाने पहचाने चेहरे

चेहरा बेशक अनजान था पर दिल शायद अनजान नहीं था । टोटल ज़िन्दगी देने वाला और मुर्दे में जान फूँक देने वाले नयन नक़श थे । 

आज मेट्रो में कहीं से आ रहा था । मेट्रो को वातानुकूलक यंत्र यानी एअर कंडीशनर का शीत माप चरम पर था । खिडकियों पर ओस की तरह भाप जमी साफ नज़र आ रही थी । काफी लोग जिन्होंने या तो आधी बाज़ू के कपड़े पहन रखे थे या जो ज़रुरत से ज्यादा फैशन परस्त थे ठण्ड के कारण सिकुड़े जा रहे थे । भीड़ ठीक ठाक थी । आने वाले त्यौहार की गर्मी इस ठन्डे डिब्बे में रौनक बनकर छा रही थी । मैं भी थोड़ी बहुत ठण्ड बर्दाश्त कर रहा था क्योंकि अभी अभी बीमारी से दुआ सलाम कर के दुनिया के मैदान में हाज़िर हुआ था । सोचता था के कहीं दोबारा से रामा-शामा की नौबत न आ जाये।

मैं मस्ती से अपने नए मोबाइल पर कानो में हेडफोन लगाये 'होब्बिट्स' नामक फिल्म के रोमांच का आनंद प्राप्त करने में व्यस्त था कि तभी उस स्टॉप से एक बेहद सादी, मनोरम, सुन्दर सी लड़की डब्बे में चढ़ी और मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गई । उसको एक बार नज़र उठा कर देखा फिर मैं अपनी फिल्म देखने में मशगूल हो गया । पर कुछ ही पल बाद दिल फिल्म की जगह उसे देखने को कर रहा था तो एक बार फिर से निगाह उठा कर उसका दीदार किया । कमाल की थी वो । सच ! इतनी आकर्षक लड़की अक्सर कम ही देखने को मिलती है । ऐसा चेहरा जिससे देख कर दिल गार्डन नहीं साला तुरंत ईडन गार्डन हो गया । एक दम साधारण होकर भी बहुत असाधारण थी । पर हम भी कौन सा कम हैं अपनी आदत से मजबूर, मेरा अंदरूनी अवलोकन यंत्र शुरू हो गया अर्थात मैं उसका चेहरा, हाव भाव, बैठने के तरीके और शारीरिक भाषा को पढ़ने का प्रयास करने लगा । दरअसल मुझे लोगों का बहुत ही बारीकी से निरूपण करना अच्छा लगता है । उन्हें पढ़ना और उनकी हरकतों से खुद को वाकिफ करना बेहद रोचक रहता है ।

वो बेहद सादा पहनावा नीली डेनिम की जीन्स पर, सफ़ेद टी-शर्ट, कानो में बड़ी गोल बालियाँ, माथे पर पसीने की कुछ बूँदें, कलाईयों पर  हल्का रुआं और टाइटन की सुनहरे डायल वाली घडी के साथ पैरों में कानपुरी चप्पल पहने थी । भीनी भीनी महक वाला डीओ भी अच्छा लगा रखा था । हल्का इवनिंग मेकअप, आईलाइनर, और खुले हुए बालों के बीच उसका चमकता साफ़, गोरा, सुन्दर, चंचल चेहरा और उस पर भूरी आँखें ऐसे झाँक रही थी मानो सागर में से कोई छोटी लहरें बहार आने को बेताब हो रही हो । महीन सी छिदी हुई नाक और बारीक लकीर जैसे उसके होंठ | तौबा ऐसी सुन्दरता को देख कौन न फ़िदा हो जाये । मैं तो सच देखता ही रह गया था । एक हाथ में मोबाइल फ़ोन और दुसरे में कुछ फइलें । सबसे कोने वाली सीट पर बैठी उसकी उदासी उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी । ऐसा लगता था मानो ज़िन्दगी की जंग हार के बैठी हो । डबडबाती आँखों में उमड़ते सैलाब को थामने का जतन करती वो अपने अगल बगल नज़रें झुकाए बार बार देखती फिर अपनी मोबाइल की स्क्रीन पर देखती और चुप चाप हथेलियों से नम आँखें पोंछ लेती । हजारों सवाल थे उसकी मासूम आँखों में और शायद कितनी ही शिकायतें रही होंगी उन कपकपाते होटों पर जिन्हें वो धीरे से बार बार दांतों के बीच दबाती और अपने में बुदबुदाकर धीरे से धक् करके रह जाती। उसको देखकर दिल में बस एक ही ख्याल आता था कि - "आँख है भरी भरी और तुम ठीक होने का दिखावा करती हो, होठ हैं बुझे बुझे और तुम मुस्कराहट का तमाशा करती हो" । 

मैं लगातार उसको बड़े ही गौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था । वो बार बार इधर उधर देखती, मेरी तरफ देखती, फिर घुटनों पर घुटने चढ़ा कर बैठती और कुछ मिनट के बाद अपने बैठने का तरीका बदल लेती या फिर टांगें बदल लेती । कभी अपनी फ़ाइल तो कभी मोबाइल को सँभालने में लग जाती । लगता था के जैसे या तो बहुत गहन उधेड़ बुन में है या फिर कहीं पहुँचने की बेहद जल्दी है । लगातार बार बार हर दफा अपने पैरों के अंगूठों को आगे पीछे करना, उसका उँगलियों को सिकोड़ना, हाथों की उँगलियों को बार बार हथेली से दबाना और फिर गर्दन का झटकना साफ़ इशारा करता था के उसके दिल में उथल पुथल चल रही थी । वो कुछ सोच रही थी पर निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी । जो भी था उसके भीतर बहुत ही दर्दनाक और तकलीफ़देह था क्योंकि इतनी भीड़ में भी वो एक दम गुमसुम, अकेली, तनहा और अनजान नज़र आ रही थी । उसकी कालाईयों पर खड़े रोंगटे नए अंकुरित पौधे की भाँती सर उठा कर मानो ऐसे सवाल कर रहे थे कि आगे क्या होगा ? हमारा ख़याल कौन करेगा ? पता नहीं वो डर से था या फिर फ़िक्र से ?

इस सब के बीच उसकी नज़रें कई बार मेरे से मिलीं और हर बार उसने ऐसे देखा जैसे बात करना चाहती हो । वो जानती थी और समझ रही थी मैं उसे बहुत देर से देख रहा हूँ । उसकी एक एक हरकत पर मेरी निगाह है । उसकी नज़रें सवाल कर रही थी ? क्या है ? ऐसे क्यों पढने की कोशिश कर रहे हो मुझे ? क्या पूछना चाहते हो ? रहने दो मत देखो ? मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो ? प्लीज़ । उसने लपक कर मुझे नज़रन्दाज़ करने की बहुत कोशिश की पर शायद वो भी जान गई थी के जो सामने है वो उसको लगातार पढ़ने की कोशिश कर रहा है । उसने अपने भावों को और हरकतों को छिपाने की बहुत कोशिश की पर कामयाबी हासिल ना कर सकी । उसकी उन भूरी और दिल से बात कहने वाली आँखों ने सभी राज़ फ़ाश कर दिए । दिल का विरानापन चेहरे पर दस्तक देता नज़र आता रहा और वो हर लम्हा अपने अकेलेपन से लड़ती रही दूसरों की नज़रों से बचाकर।

कुछ समय बीता और उसका स्टॉप आ गया । वो उठी और गेट की तरफ आगे बढ़ी । मैं भी उसको एक टक देखता जा रहा था । सोच रहा था के काश! इसकी जो भी परेशानी है दूर हो जाये । इसके दिल में जो भी ग़म हैं वो सब फनाह हो जाएँ । इतने सुन्दर चेहरे पर सिर्फ मुस्कान ही अच्छी लग सकती है उदासी, ग़मज़दा तन्हाई और मायूसी नहीं । मैं फिर भी शीशे से परे उसको एकटक देखता रहा । फिर उसने अचानक एक दफा पीछे मुड़कर देखा और मेरी तरफ देखती रही । उसका मुड़कर देखना ऐसा था जैसे वो मेरे से सवाल करना चाहती हो तुम क्या जानना चाहते हो ? मेरे लिए ऐसे परेशान क्यों हो ? आखीर क्या पूछना चाहते हो ? क्या हम बात कर सकते हैं ? फिर अचानक प्लेटफार्म आया, दरवाज़े खुले और वो उतर गई । कुछ देर ऐसे ही खड़े खड़े मेरी ओर देखती रही फिर मेट्रो के दरवाज़े बंद होते ही लिफ्ट की ओर बढ़ गई ।

कभी कभी जीवन में ऐसा भी होता है कि बिना कहे भी किसी अनजान से आप इतनी बातें कर लेते हैं जितनी शायद आप किसी से बोल कर भी और समझ कर भी नहीं कर पाते । ईश्वर ऐसे खूबसूरत चेहरों के दिल को सुकून दे । ऐसे माहताबी, रौनक लगाने वाले चेहरों को रोने और उदास होने का कोई हक नहीं है । मेरी बस इतनी सी इल्तज़ा है लड़की की जो भी मुश्किलें हों वो दूर हो जाएँ । वो सिर्फ़ और सिर्फ़ हंसें, खिलखिलाएं, मुस्कुराएँ, नफासत बरसायें और दूसरो के जीने की प्रेरणा बन जाएँ । उनका काम बस यही होना चाहियें सुन्दरता को कभी रोना नहीं चाहियें । ऐसा मेरा सोचना है औरों से मुझे कुछ लेना देना है वो क्या सोचते हैं । 

खुदा आगे भी मुझे ऐसे ही सुन्दर और अविस्मृत चेहरों के नज़ारे देखने को मिलते रहें ।  आमीन 

सोमवार, अक्टूबर 28, 2013

कौन निभाता किसका साथ















कौन निभाता किसका साथ 
आती है रह-रह कर यह बात 

मर कर भी ना भूलें जो बातें 
कोई बंधा दे अब ऐसी आस 

गुज़रे लम्हों को लगे जिलाने  
रो रो दिनभर कर ली है रात

सूना यह दिल किसे पुकारे 
दया ना आती जिसको आज 

आना होता अब तो आ जाता 
अपनी कहने सुनने को पास 

कह देता इतना मत रो अब 
यह अपने आपस की बात 

झूठी हसरत सुला कब्र में 
सुबह हुई 'निर्जन' अब जाग 

आती है रह-रह कर यह बात 
कौन निभाता किसका साथ 

बुधवार, अक्टूबर 23, 2013

आराधना - एक सोच

बहुत दिनों से सोच रहा था इस कहानी आगाज़ कैसे करूँ, कैसे शब्दों में बयां करूँ, अब जाकर कुछ सोच विचार कर मन बन पाया है | कहानी शुरू होती है हिंदुस्तान के दिल से यानी मेरी अपनी दिल्ली से | जी हाँ!  भारत की राजधानी दिल्ली | कहानी की नायिका है ‘आराधना’ | एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी, सुन्दर और सुशील कन्या | गोरा रंग, छरहरा बदन, तीखे नयन नक्श, स्वाभाव से बेहद चंचल और नटखट लेकिन बहुत ही अड़ियल है | गुस्सा तो जैसे हमेशा नाक पर धरा रहता है | जीवन में सवाल इतने के तौबा | अगर कोई साथ बैठ जाए तो ये मोहतरमा उनके जीवन का समस्त निचोड़, व्यक्तित्त्व का सारा नाप तौल और जीवन परीक्षण अपने सवालों से ही ले डालें और यदि कोई भूख से तड़पता हो तो इनके सवालों से ही उसका पेट भर जाये | इस लड़की के व्यक्तित्त्व में अनेकों खूबियों के साथ ख़ामियों की शिरकत भी बराबर दुरुस्त थी | जहाँ ये किसी से भी हुई बड़ी से बड़ी लड़ाई, तू तू मैं मैं, बहस, झगड़े इत्यादि को पल में बच्चों की तरह ऐसे भूल जाती जैसे कुछ हुआ ही न हो | वहीँ ना जाने क्यों ये कभी भी किसी पर भरोसा नहीं करती थी | यदि करती भी थी तो समय इतना निकाल देती भरोसा जताने में के गाड़ी प्लेटफार्म से निकल जाती | खैर इधर उधर की बात करने की बनिस्बत कहानी पर आते हैं | यह कहानी है उसके दिल और भरोसे के आपसी तालमेल, मतभेद, वार्तालाप और एक दूसरे के साथ हुए अनुबंध की जिसमें देखना यह है के जीत किसकी होती है | दिल की या भरोसे की |

अचानक यूँ ही एक दिन बात करते आराधना को ख्याल आया के उसका दिल और भरोसा दोनों अपनी जगह से नदारत है | तो लगा इन्हें ढूँढा जाये और लगीं इधर उधर अपने आप पास ढूँढने | ढूँढ मचाते यकायक अपने व्यक्तित्त्व की एक सूनी सी गली में जा पहुंची | माज़ी के कुछ अवशेष उस गली में बिखरे पाए और वहीँ गली के नुक्कड़ पर पड़ी एक पुरानी यादों की अलमारी की सबसे आख़िरी दराज़ में से कुछ आवाजें आती सुनाई पड़ीं | धीरे से आगे बढ़कर दराज़ को खोल कर देखा में उसने अपनी दिल और भरोसे को आपस में बात करते पाया | दोनों आपस में ख़ुसुर-फ़ुसुर करने में लगे थे | धीरे से कान लगाकर सुनने पर पता चला के बात दोनों के बीच मूल्यों और अपने महत्त्व को लेकर बातचीत हो रही थी |

भरोसा दिल से पूछता है, “ऐ दिल! क्या तू मुझपर भरोसा करता है ?”

दिल ने जवाब दिया, “यार! वैसे दिल तो नहीं कर रहा मेरा तुझपर ऐतबार करने को पर क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा “

भरोसा बोला, “यार हम दोनों तो हमेशा एक दुसरे के साथ रहते हैं | इतने समय से दोनों साथ हैं | फिर भी तू ऐसी बातें कर रहा है | मेरे भरोसे का खून कर रहा है | मेरा भरोसा तोड़ रहा है | ये कहाँ का इंसाफ़ हुआ मेरे भाई ?

दिल कुछ सोच के बोला, “यार! सच बतलाऊं दिल तो मेरा भी बहुत चाहता है के तेरे भरोसे पर ऐतबार कर लूं पर क्या करूँ मेरा दिल भी कितना पागल है ये कुछ भी करने से डरता है और सामने जब तुम आते हो ये ज़ोरों से धड़कता है | ऐसा कितनी बार हुआ है ज़िन्दगी के गलियारों में, दिल मेरा टूटा है भरोसे पर किये बीते वादों से |

भरोसे ने यह सुना तो उसकी आँखें नम हो कर झुक गईं | वो बोला, ‘सुन यार दिल हम दोनों एक ही ईमारत के आमने सामने वाले फ्लैट में रहते हैं | बिना दिल की मदद के भरोसे की गाड़ी नहीं चलती और ना बिना भरोसे दिल ही धड़कता है | मैं ये बात मान सकता हूँ कि किसी झूठे भरोसे पर तेरा दिल तार तार हुआ होगा पर क्या यह सही होगा कि किसी एक के कुचले भरोसे की सज़ा दुसरे के ईमानदार भरोसे को दी जाये ?”

दिल खामोश था, सोच रहा था क्या जवाब दे | कुछ देर सोचने के बाद दिन ने कहा, “ऐ दोस्त यकीन मुझको तेरी ईमानदारी पर पूरा है | तेरे भरोसे पर ऐतबार मेरा पूरा है पर ये दिल के जो घाव हर पल टीस देते हैं, कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं जो जीवन भर हरे ही रहते हैं |“

भरोसा समझदार था, पीड़ा दिल की समझ गया, धीरे से दिल के पास गया और अपने हाथ को दिल पर रखकर बोला, “दर्द तेरा जो है मैं समझ गया पर बस इतना करना एक आख़िरी दफ़ा मुझसे मिलकर तू मुझे अपनाने की कोशिश करना | बस यह छोटा सा वादा है तुझसे मैं तुझको दुःख न पहुंचाऊँगा | तेरे टूटने से पहले मैं खुद ही फ़नाह हो जाऊँगा | बस इतना एहसान तू मुझपर करना एक ज़रा हाथ अपना बढ़ा देना | थाम के आँचल मेरा तुम जीने की दुआ करना | फिर जीना क्या है वो मैं बतलाऊंगा | खुशियों से दामन तेरा मैं हर पल भरता जाऊंगा |”

दिल ने सुनकर, नज़रें उठा कर देखा, खुशियाँ भर कर आँखों में भरोसे की बातों पर सोचा, धीरे से मुस्कराया और थाम हाथ भरोसे का आँखों आँखों में विश्वास दर्शाया | सोचा एक मौका तो देना बनता है | पकड़ हाथ भरोसे का दिल जीवन की सीढ़ी चढ़ता है |

आराधना अचंभित खड़ी यह सब सुन और देख रही थी और अपने चेतन मस्तिष्क में कुछ नई खुशियाँ बुन रही थी | सोच रही थी क्या दिल और भरोसे की इस भागीदारी से वो जीवन नया बनाएगी | इस अनोखी भागीदारी को वो क्या कह के बुलाएगी | साथ किसका वो देगी अब ? वो दिल को जीत दिलाएगी या भरोसे को अपनाएगी ?

आखिर में फैसला इंसान खुद ही करता है वो जीवन में भरोसे को चुनता है या अपने दिल की सुनता है | क्योंकि दिल और भरोसा एक दुसरे के पूरख है | जीवन दोनों से ही आगे बढ़ता है | किसी एक का हाथ भी छूट जाये तो इन्सान सालों साल दुःख के आताह दलदल में तड़पता है |
आराधना का फैसला क्या होगा ये मैं अपने सभी पढ़ने वाले दोस्तों पर छोड़ता हूँ | आप ही बताएं आप ही सुझाएँ इस कहानी की शुरुवात अब आगे क्या होगी | 

सोमवार, अक्टूबर 21, 2013

धोखेबाज़ दोस्त

















अब ऐतबार के लायक रहा नहीं जहाँ
दोस्त बन के देते हैं धोखा कहाँ कहाँ

दर्द-ए-दिल बताओ जो अपना जान के
दो मुंहे डसते हैं ये फन अपना तान के

ना करना भरोसा दुनिया पर तुम कभी
दुखेगा दिल तुम्हारा सोचो ये तुम अभी

छिपा कर दिल के घाव रखो सबसे जुदा
दुनिया में मिलेगा पगपग पर नया खुदा

बातों में उनकी आकर पछताओगे तुम
सीने में खंजर घोंप के हो जायेंगे ये गुम

गुज़ारिश 'निर्जन' करता तुमसे है यही
भरोसा न करना ऐसों पर रहेगा सदा सही

सोमवार, अक्टूबर 14, 2013

जीवन हर पल बदल रहा है















जब मैं छोटा बच्चा था, दुनिया बड़ी सी लगती थी
घर से विद्यालय के रास्ते में, कई दुकाने सजती थीं
लल्लू छोले भठूरे की दूकान, चाट का ठेला, बर्फ का गोला
मूंग दाल के लड्डू का खोमचा, हलवाई के रसीले पकवान
और भी ना जाने क्या क्या था, जीवन के यह रस ज्यादा था
आज वहां पर बड़ी दुकाने हैं, बड़े बड़े पार्लर और शोरूम हैं
भीड़ तो बहुत दिखाई देती है, फिर भी सब कुछ कितना सूना है
लगता है जीवन सिमट रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, शामें लम्बी होती थीं मेरी
हर शाम साथ गुज़रती थीं, मुझसे ही बातें करती सी
छत पर घंटो पतंगे उड़ाता था, गलियों में दौड़ लगाता था
शाम तलक थक कर चूर होकर, मैं घर को वापस आता था
माँ की गोदी में सर रखकर, बस अनजाने ही सो जाता था
अब सब मस्ती वो लुप्त हुई, जीवन में शामें भी सुप्त हुई
अब दिन तो ढल जाता है, पर सीधे रात को पाता है
लगता है वक़्त सिमट रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, तब खेल बहुत हुआ करते थे
पापा के डर से हम, पड़ोसी की छत पर कूदा करते थे
लंगड़ी टांग, इस्टापू, छुपान छुपाई, पोषम पा,
टिप्पी टिप्पी टैप, पकड़म पकड़ाई, उंच नींच का पपड़ा
कितने ही ढेरों खेल थे जब, मिलकर साथ में खेलें थे सब
सब मिलकर केक काटते थे, आपस में प्यार बांटते थे
तब सब साथ में चलते थे, गले प्यार से मिलते थे
अब इन्टरनेट का दौर है जी, मल्टीप्लेक्स का जोर है जी
फुर्सत किसी को मिलती नहीं, आदत किसी की पड़ती नहीं
लगता है ज़िन्दगी भाग रही है, जीवन हर पल बदल रहा है

जब मैं छोटा बच्चा था, तब दोस्त बहुत से मेरे थे
तब दोस्ती गहरी होती थी, साथ में सब मिल खेलते थे
मिल बैठ के बाँट के खाते थे, सब मटर यूँही भुनाते थे
जब हँसना रोना साथ में था, कम्बल में सोना साथ में था
इश्क विश्क की बातें साँझा थीं, हीर की और राँझा की
अब भी कई दोस्त हैं मेरे, पर दोस्ती न जाने कहाँ गई
ट्रैफिक सिग्नल पर मिलते हैं, या फसबुक पर खिलते हैं
हाई-हेल्लो बस कर के ये, अपने अपने रास्ते चलते हैं
होली, दिवाली, जन्मदिन, नव वर्ष के मेसेज आ जाते हैं
लगता है रिश्ते बदल रहे हैं, जीवन हर पल बदल रहा है

अब शायद मैं बड़ा हो गया हूँ, जीवन को खूब समझता हूँ
जीवन का शायद सबसे बड़ा सच यही है 'निर्जन'
जो अक्सर शमशान घाट के बाहर लिखा होता है
'मंजिल तो यही थी, बस ज़िन्दगी गुज़र गई यहाँ आते आते"
ज़िन्दगी के लम्हे बहुत छोटे हैं, कल का कुछ पता नहीं
आने वाला कल सिर्फ एक सपना है, जो पल पास है वही अपना है
उम्मीदों से भर कर जीवन को, जीने का प्रयास अब करना है
जीवन को जीवन सा जीना है, नहीं काट काट कर मरना है
लगता है जीवन संभल रहा है, जीवन हर पल बदल रहा है

रविवार, अक्टूबर 13, 2013

दुर्गा द्वारा मरना होगा





















हर ओर हैं आज दरिन्दे
कब तक तुम ऐसे रोओगी
भारत की धरती कब तक
अपने अश्कों से धोओगी

क्षत्राणी, वीरांगनाओं की
इस ओजस्वी भूमि पर
समर भयंकर सम्मुख सेना में
हैं लाखों रावण रणभूमि पर

हाथों उनके लाज तुम अपनी
ऐसे कब तक खोओगी
मस्तक झुका पिट पिट कर
चिर निद्रा में सोओगी

मान यदि रखना है अपना
चलो हाथ में खड़क उठा
इस दशहरा के अवसर पर
उद्घोष करो तुम बिगुल बजा

कर हुंकार लड़ो रावण से
दो तुम उसको धुल चटा
धूल-धूसरित मस्तक करने को
बढ़ो प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा

रावण धराशायी करने को
चंडी बन आगे बढ़ना होगा
साध निशाना नाभि पर
संधान अचूक करना होगा

इस बार दशहरे पर तुमको
प्रकृति का नियम बदलना होगा
राम के हाथों मुक्ति ना पाकर
रावण को दुर्गा द्वारा मरना होगा

क्यों ???

क्यों दिल उसके इंतज़ार में सदा रहता है
मिलता है रोज़ मगर दिल तनहा रहता है

पास है जो उसे दुनिया बुरा ही कहती है
देखा नहीं जिसे उसने उसे ख़ुदा कहती है

नफरत अपनों से अपनों को छुड़ा देती है
फासला दिलों में यह कितना बढ़ा देती है

बस चंद मासूम से शब्दों का लहू है 'निर्जन'
दुनिया जिसे मेरे ज़ख्मों की दवा कहती है

शुक्रवार, अक्टूबर 11, 2013

वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे



वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे
वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे
इसके फ़रेब की आंधी में उजड़ जाओगे
वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे

झूठ और धोखे की फितरत का ये बाशिंदा है
ये तो बस जनता है हर हाल में भी जिंदा है
काम क्यों कर दे वो कल जिस पर शर्मिंदा हो
तुम जो शर्मिंदा हुए देश को भी झुकाओगे
वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे

क्यों कोई चोर अब देश का मेहमान रहे
घूस खाना है इमां इसका ये बदनाम बड़े
राजनीति में ये उम्रभर तो बेईमान रहे
सर पे बैठाओगे इसको तो पछताओगे
वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे

एक ये क्या अभी बैठे हैं लुटेरे कितने
अभी गूंजेंगे गुनाहों के फ़साने कितने
पार्टियाँ तुमको सुनाएंगी तराने कितने
क्यों समझते हो बदलाव ये कल लायेंगे

वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे
इसके फ़रेब की आंधी में उजड़ जाओगे
वोट इसको जो दिया तुमने तो क्या पाओगे 

शनिवार, अक्टूबर 05, 2013

कुछ शब्द



















कुछ शब्द
अटपटे से
चटपटे से
खट्टी अंबी से
चटकीले नींबू से
काट पीट कर
बीन बटोर कर
धो धा कर
साफ़ कर के
धुप लगा कर
हवा में सुखा कर
मसालों में मिलकर
तेल में भिगोकर
मर्तबान में भरकर
ताख पर रख दिए हैं
जब पक जायेंगे
फिर निकालूँगा
शब्दों का नया अचार
सबको चखाऊंगा
चटखारे दिलवाऊंगा
क्योंकि 'निर्जन' अनुसार
शब्दों के अचार का भी
अपना ही मज़ा होता है
वैसे भी अचार तो
हर मौसम में स्वाद देता है

गुरुवार, अक्टूबर 03, 2013

भरोसा

















भरोसा क्या है ?
एक पल
वह मन्दता भरा क्षण
जिसमें कोई अपने सभी कवच
उतार फेंकता है
अपनी सभी अरक्षितता को
किसी के समक्ष खोलता है
पर ऐसा कोई क्यों चाहता है ?
ऐसा मैं क्यों चाहता हूँ ?

क्या यह संभव है
बारम्बार प्रहार के बाद
भरोसा बनाये रखना
दिल में, दिमाग में और पीठ पीछे
उन से जिन्हें बेहद चाहा
पर ऐसा कोई क्यों चाहेगा ?
ऐसा मैं क्यों चाहता हूँ ?

क्या ऐसा संभव है
इस पृथ्वी पर कोई ऐसा एक
प्राणी हो जिस पर
जो भरोसे के काबिल हो
जो जीवन भर दूसरों की भांति
मेरे भरोसे का क़त्ल न करे
पर ऐसा कोई क्यों चाहेगा ?
ऐसा 'निर्जन' क्यों चाहता है ?