शनिवार, जनवरी 09, 2016

हर लम्हा याद मैं करता हूँ



















बस यूँ ही बैठा-बैठा, अब
माज़ी को याद मैं, करता हूँ
गुज़रे दिनों की, यादों से
मैं आज भी, बातें करता हूँ

पुराने घर का, हर किस्सा
याद, आज फिर आता है
हिस्सा, एक उम्र का गुज़रा
जो अब ना, भूलने पाता है

फाटक का, वो दरवाज़ा
घर की याद, दिलाता है
गुज़रता हूँ, गली से जब
दिल मेरा, भर आता है

गुलिस्तां की, कलियों पर
फ़िदा दिल, हो जाता था
बड़े, दालान की रौनक़ में
दिल ये, खो जाता था

वो बारिश, जब भी होती थी
कोना-कोना, भीग जाता था
सौंधी मिटटी, की खुशबू से
आँगन वो, महक जाता था

सूरज भी, छिप छिप कर
अटखेलियां, करता था
किरणों के, झाँकने पर भी
कमरा आधा ही, भरता था

बड़ा कमरा था, बीचों बीच
याद बहुत वो, आता है
मेरी, शरारतों का नगमा
वो, हर्फ़े-हर्फ़ सुनाता है

कई रिश्तों की, दावतों का
अकेला ही, गवाह था वो
कई अपनों की, कहानी का
ख़ुदाया, ख़ैर-ख़्वाह था वो

बड़े कमरे के, भीतर ही
पाक एक कोठरी, भी थी
मेरे ख़ुदा से मेरी, रोज़ाना
जहाँ, गुफ़्तगू होती थी

उस बड़े घर के, बड़े दिल में
बड़ी सी, माँ की रसोई थी
जहाँ माँ ने मेरी, बड़े दिल से
अरमानो की लड़ी, पिरोई थी

बड़े ही चाव से, अम्मा वहां
लज़ीज़, अरमां पकाती थी
रूह भर जाती थी, अपनी
जब हाथों से, वो खिलाती थी

शाम को, छतों पर सब
मिलकर, पतंगें उड़ाते थे
कुछ पेंचे, लड़ाते थे
तो कुछ, आंखे भिड़ाते थे

अपनी तबियत, देख मलंग
पड़ोसन भी, शर्माती थी
चुपके से, झुकाकर नज़रें 
धीमे-धीमे, मुस्काती थी

छुट्टी के दिन, चौक में
क्रिकेट का मैच, होता था 
खेलना खेल, बहाना था
इश्क़ में, दिल कैच होता था 

खिड़की पर, खड़ी महबूबा
पोशीदा एक, राज़ होती थी
ना उड़ जाये, किल्ली अपनी
के बस वही, लाज होती थी 

हर एक मौसम, को चखना
दिल-ए-दस्तूर, होता था
हर ख़वाहिश, पूरी हो जाए
एक यही, फितूर होता था

हर मौके का, लुत्फ़ 'निर्जन'
मैंने तबियत से, उठाया था
हर एक मंज़र, चहकता था
पुराने घर का, सरमाया था 

उन बातें को, उन किस्सों को
आज भी, जी भर याद करता हूँ
बिछड़े आशियाने को अब भी
हर लम्हा याद मैं करता हूँ...

#तुषारराजरस्तोगी #लम्हे #यादें #बातें #पुरानाघर #अपनाघर

शनिवार, जनवरी 02, 2016

इमोशनल फूल













कुछ अपने हुए नामाकूल
टॉक्स हैं इनकी जैसे शूल
माइंड में मतलब की चूल
अक्ल से हैं ये बैल से लूल
करें प्यार का टैक्स वसूल

भाड़ में जाएँ नियम उसूल
अपनेपन की बात फ़िज़ूल
अपने अपनों को देते हूल
पराये अब लगते जो कूल
पैसा बन गया आज रसूल

हिस्ट्री-फ्यूचर में रहे हैं झूल
प्रेजेंट में ये करते है डरूल
हसरत इनकी उल जुलूल
'निर्जन' कहते हैं ये सब से   
नही हैं ये इमोशनल फूल

भैया अपन भी गए थे भूल
सब हैं अपने में ही मशगूल
चढ़ी आज जज्बातों पर धूल
जीवन जीने का नया ये रुल
प्रक्टिकैलिटी में है अनकूल

#तुषारराजरस्तोगी #प्रैक्टिकल #इमोशनल #फूल

गुरुवार, दिसंबर 31, 2015

फ़क़त शुक्रिया



















यह कविता मेरे उन मित्रों और मेरे अपनों को समर्पित है जिन्होंने मुझे प्रोत्साहन दिया, प्रेरणा दी, मेरी लेखनी को मान दिया, मुझे सम्मान दिया और मेरी रचनाओं को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। यह कविता मेरा तोहफ़ा है मेरे उन तमाम दोस्तों के नाम जिन्होंने मेरे ब्लॉग और फेसबुक पेज को पसंद किया है और जो निजी ज़िन्दगी में मेरे अच्छे बुरे वक़्त में किसी ना किसी रूप से मुझसे जुड़े रहे हैं। मैं आप सबका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ, आभारी हूँ और दिल से आप सबका मान करता हूँ। मेरे इस साल को यादगार बनाने के लिए, मेरी ज़िन्दगी को जिंदादिल बनाने के लिए आपके समक्ष नतमस्तक हूँ और कामना करता हूँ जीवन में आगे भी आप सभी का प्रेम और मार्गदर्शन ऐसे ही मिलता रहेगा। एक दफ़ा फिर से सभी यारों को नवाज़िश, ज़र्रानवाज़ी और प्यार वाली झप्पी। मेरे सभी दोस्तों को नव वर्ष कि हार्दिक शुभकामनायें। आप सभी के लिए आने वाला साल मंगलमय हो। जय हो – हर हर महादेव...

कुछ अपनों ने निगाह-ए-उल्फ़त बरसाई है
उनका उपकार जिन्होंने जिंदगानी बनाई है

महज़ लफ़्ज़ों में अदा ना होगा उनका सवाब
हसीं ख़्वाबों की रात जिन्होंने हिस्से सजाई है

नजरें झुका कर बैठूँगा मैं बंदगी में उनकी
दामन में सितारों की झड़ी जिन्होंने लगाई है

अब तो होने लगा है अपने होने का गुमान
कद्रदां हैं, ज़हन में उम्मीद जिन्होंने जगाई है

कितनी मायूसी थी कभी इस किरदार में
स्नेह से अपने जिन्होंने हर कमी मिटाई है

रूठ कर जा रही थी ज़िन्दगी हर पल जैसे
हाथ थाम इसका जिन्होंने इसे घर लाई है

खिलखिलाती है ख़ुशी बेधड़क इन आँखों में
हाथ थाम मेरा जिन्होंने दुनिया नई दिखाई है

फ़क़त शुक्रिया अदा करे क्या ‘निर्जन’ उनका
हर पल दिल से जिन्होंने यह दोस्ती निभाई है

#तुषारराजरस्तोगी #शुक्रिया #नववर्ष #शुभकामनायें

शनिवार, दिसंबर 19, 2015

दारूबाज़ों की रीयूनियन
















यादगार एक शाम रही, बिछड़े यारों के नाम
करत-करत मज़ाक ही, हो गया सबका काम

हो गया सबका काम, पीने मयखाने पहुंचे
बाउंसर कि बातें सुन, 'निर्जन' हम चौंके

कहें सैंडल नहीं अलाउड, नो एंट्री है अन्दर
सोचा मन ही में भाई, बन गया तेरा बन्दर

पीने आए दारु, जूते-चप्पल पर क्या ध्यान
कोई तो समझाए लॉजिक, दे इनको ये ज्ञान

खैर मामला सुलट गया, हम पहुंच गए अन्दर
साबू-चोपू को देख, बन गए हम भी सिकंदर

गले मिले और बैठ गए, बातें कर के चार
अब दारु कब आएगी, ये होता रहा विचार

होता रहा विचार, लफंडर बाक़ी भी आएं
संग साथ सब बैठ, फिर से मौज उड़ाएं

पहुंचे जौहरी लाला, रित्ति-सुब्बू के साथ
पीछे से चोटी आया, हिलाते अपना हाथ 

रित्ति भाई शुरू हो गया, ले हाथ में साज़
फ़ोटू चकाचक चमकाई, ये है सेल्फीबाज़

विंक है फ़ॉरएवर प्नचुअल, बंडलबाज़ है यार
प्रिंटर-फाइटर को लाया, इन इम्पोर्टेड कार

दो घंटा लेट से आए, बाबुजी खासमख़ास
मेहता दानव आकृति, फुलऑन बकवास

फुलऑन बकवास, करते बाबाजी बड़बोले
गला तर कर सियाल ने, हिस्ट्री के पन्ने खोले

मित्रों नॉसटेलजीया फ़ीवर, चढ़ गया रातों रात
इतनी थीं करने को सबसे, खत्म ना होतीं बात

हा हा-ही ही-हू हू करते, बस बीती सारी शाम
यारों, दारु, चिकन, मटन और सुट्टों के नाम 

मज़ा आ गया कसम ख़ुदा की, २० बरस के बाद
दारुबाजों की रीयूनियन, रहेगी जीवन भर याद


--- तुषार रस्तोगी ---



शनिवार, दिसंबर 05, 2015

शायद वो सोचती है



















शायद वो सोचती है
मेरे हालात सुधर गए
अब क्या बताएं उसको
हम अंधेरों से घिर गए

ऐसी भी नहीं है बात कि
हौंसले अपने बिखर गए
वक़्त को मुताज़ाद देख
हम ख़ामोश कर गए

जब दिल में थे जज़्बात
तब अलफ़ाज़ नहीं थे
आज लफ्ज़ बेक़रार हैं
पर कोई साथ नहीं है

बात यूँ भी नहीं है कि
एहतराम अपने घट गए
दामन अपना देख कर 
हम ख़ुद ही सिमट गए

चन्दन का मैं नहीं था
दरख़्त फिर किस लिए
दोज़ख़ के दो मुंहे सांप
सब मुझसे ही लिपट गए

'निर्जन' गुफ़्तगू में उससे
अंदाज़ अपने सुलट गए
मासूम वो सोचती है मेरे
बेज़ारी के दिन पलट गए

मुताज़ाद - विपरीत / opposite
एहतराम - इज्ज़त / respect
दरख़्त - पेड़ / tree
दोज़ख़ - नरक / hell
बेज़ारी - बेसरोकार / to be sick of


#तुषारराजरस्तोगी

बुधवार, नवंबर 25, 2015

ज़रा अंजाम होने दो



















अभी तारे नहीं चमके
जवां ये शाम होने दो
लबों से जाम हटा लूँगा
बहक कर नाम होने दो

मुझे आबाद करने की
वजह तुम ढूंढती क्यों हो?
मैं बर्बाद ही बेहतर हूँ
नाम ये बेनाम रहने दो

अभी मानी नहीं है हार
मुझे अंगार पे चलने दो
मैं हर वादा निभाऊंगा
ज़िद्दी हालात संवारने दो

मेरा इमान है अनमोल
उन्हें अंदाज़ा लगाने दो
मैं ख़ुद को बेच डालूँगा
नीलामी दिल की होने दो

इब्तदा-ए-इश्क में तुम 
हौंसला क्यों हार बैठे हो
जीत लेगा तुम्हे 'निर्जन'
ज़रा अंजाम होने दो

#तुषारराजरस्तोगी

शुक्रवार, नवंबर 20, 2015

तेरा इश्क़


















तेरा आना ख़ुदा की रहमत है
तेरी बातें ज़िन्दगी की नेमत है

तेरा होना हर लम्हा त्यौहार है
तेरी मुस्कान जो मिलनसार है

तेरे क़दमों से घरोंदा पाक है
तेरी कमी से जीवन ख़ाक है

तेरा नखरा तो बजता साज़ है
तेरे दिल की सच्ची आवाज़ है

तेरा इश्क़ वो रूहानी दौलत है
'निर्जन' की जिस से शोहरत है

#तुषाररस्तोगी

सोमवार, अक्टूबर 05, 2015

गुलबन कर गया















रौशन चरागों को मेरा नसीब कर गया
ख़ुदा शायद मुझे ख़ुशनसीब कर गया

मंज़िलों के रास्ते मेरे आसान कर गया
हर एक मरासिम वो मेरे नाम कर गया

ज़र्रा-ज़र्रा महक उठा जिसकी ख़ुशबू से
है कौन जो शामों को सरनाम कर गया

बहक रहा हूं अब भी मैं अरमानों में तर 
वो फ़रिश्ता नज़रों से दिल में उतर गया

सजा कर राह में 'निर्जन' गुंचा-ए-ग़ुलाब
मेरा दिलबर मेरी राहें गुलबन कर गया

मरासिम - रिश्ते / Relations
गुलबन - ग़ुलाब की झाड़ी / Rosebush

#तुषारराजरस्तोगी

गुरुवार, अक्टूबर 01, 2015

प्यार और सासें

वो कभी भी दिल से दूर नहीं रहा, ज़रा भी नहीं। बमुश्किल ही कोई ऐसा दिन बीता होगा जब उसकी याद में खोई ना रही हो। झुंझलाहट, बड़बड़ाना, अपने से बतियाना, अपनी ही बात पर ख़ुद से तर्क-वितर्क करना, अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण खो देना, खुद को चुनौती देना, अपने मतभेद और दूरी के साथ संघर्ष करना, सही सोचते-सोचते अपने विचार से फिर जाना, आत्म-संदेह करना और अपने चिरकालिक अनाड़ीपन में फ़िर से खो जाना - आजकल यही सब तो होता दिखाई देने लग गया था आराधना के रोज़मर्रा जीवन की उठा-पटक में।

इस दूरी ने दोनों के इश्क़ में एक ठहराव ला दिया था। उनका प्यार समय की तलवार पर खरा उतरने को बेक़रार था। प्रेम का जुनून पहले की बनिज़बत कहीं ज्यादा मज़बूत और सच्चा हो गया था। हर एक गुज़ारते लम्हात के साथ उनके अपनेपन का नूर निखरता ही जा रहा था।

वो दिन जब दोनों के बीच बातचीत का कोई मुक़म्मल ज़रिया क़ायम नहीं हो पाता था, उस वक्फे में वो अपने दिल को समझाने में बिता देती और पुरानी यादों में खो जाया करती और अपने आपसे कहती, "एक ना एक दिन तो हमारी मुलाक़ात ज़रूर होगी।" - फिर जितनी भी दफ़ा राज, आराधना की यादों से होकर उसके दिल तक पहुँचता उसे महसूस होता कि उस एक पल उसकी आत्मा अपनी साँसों को थामे बेसब्री से उसके इंतज़ार में बाहें फैलाए खड़ी है।

वो अपनी आत्मा को सांत्वना देते हुए उस अदृश्य ड़ोर का हवाला देती जो उन दोनों को आपस में जोड़ता है और उसके सपनो में दोनों को एक साथ बांधे रखता है। वो याद करती है उन मुलाकातों और बरसात के पलों को जिसमें उनका इश्क़ परवान चढ़ा था और दोनों एक दुसरे के हो गए थे। वो विचार करती है कि शायद राज भी अपने अकेलेपन में यही सब सोचता होगा या फिर क्या वो भी उसके बारे में ही सोचता होगा? असल में, वो इन सब बातों को लेकर ज़रा भी निश्चित नहीं थी। यह भी तो हो सकता है वो उसकी इन भावनाओं से एकदम बेख़बर हो और मन में उठते विचार बस संकेत मात्र हों क्योंकि वो शायद वही देख और सोच रही थी जो वो अपने जीवन में होता देखना चाहती थी। पर कहीं ना कहीं उसे विश्वास था कि राज भी उसे उतना ही चाहता है जितना वो उसके प्रति आकर्षित है और दीवानों की तरह उसे चाहती है। बस इतने दिनों से दोनों को कोई मौका नहीं मिल पा रहा  था अपनी बात को स्पष्ट रूप से एक दुसरे तक पहुँचाने का।

उसे सच में ज़रा भी इल्म ना था कि आख़िर क्यों वो राज के लिए ऐसी भावनाएं दिल में सजाए रखती है, जो उनकी पहली मुलाक़ात के बाद से ही उत्पन्न होनी शुरू हो गईं थी और जिन्होंने उसके दिल पर ना जाने कैसा जादू कर दिया था। उसका दिल अब उसके बस से बाहर था, ऐसा जैसे अचानक ही ह्रदय का कोई कोना इस सब के इंतज़ार में था और उसे पहले से ज्ञात था कि ज़िन्दगी में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी मोड़ पर यह सिलसिला आरम्भ ज़रूर होगा। जो बात वो कभी सपने में भी नहीं सोचती थी आज, सच्चाई बन उसकी नज़रों के सामने थी और उसके हठीले स्वभाव पर मुस्कुरा रही थी। ऐसे समय में, उसके पास इन पलों को स्वीकारने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था।

वास्तव में कहें तो उसे बस इतना मालूम था कि अब उसकी असल जगह राज के दिल में ही है, और उसने अपनी मधुर मुस्कान और मनोभावी प्रवृत्ति से उसके मन को मोह लिया है और वो दोनों के दिलों का आपस में जुड़ाव महसूस कर सकती थी क्योंकि आज उन दोनों के बीच की छोटी से छोटी बात भी उसे ख़ुशी प्रदान करती है और वो दोनों जब भी साथ होते, उस समय बहुत ही ख़ुशहाल रहा करते थे।

वो दोनों हर मायनो में एक दुसरे की सादगी, सीरत, खुश्मिजाज़ी, मन की सुन्दरता पर मोहित हो गए थे और निरंतर रूप से एक दुसरे के प्रति आकर्षित और मंत्रमुग्ध थे। आज वो मंजिल आ गई थी जब दोनों के लिए इश्क़ सांस लेने जैसा हो गया था।

फिलहाल तो दोनों की ज़िंदगियाँ इस एक लम्हे में रुक गईं है आगे देखते हैं ज़िन्दगी कैसे और क्या-क्या रंग बिखेरती है और दोनों के प्यार की गहराई किस मक़ाम तक पहुँचती है। 

#तुषारराजरस्तोगी

गुरुवार, सितंबर 17, 2015

संवर जाता है



















उसकी बातों से दिल बेक़रार हो जाता है
जब नहीं हों बातें दिल बेज़ार हो जाता है

उससे मिलने को जीया ये मचल जाता है
उसकी यादों में दूर कहीं निकल जाता है

जब इंतिहा में सदाक़त-शिद्दत दोनों हों
उस तपिश से पत्थर भी पिघल जाता है

उसके इश्क़ की गहराई में जब से डूबा
दफ़न है ये अहं, ग़ुस्सा संभल जाता है

जुदाई का उससे जब भी ख़याल आता है
सैलाब-ए-लहू इन आँखों में उतर आता है

इश्क़ का कोई मौसम होता नहीं 'निर्जन'
इश्क़ से हर एक मौसम ही संवर जाता है

बेक़रार - restless
बेज़ार - to be sick
इंतिहा - utmost limit, end, extremity
सदाक़त - truth, sincerity, fidelity
शिद्दत - intensity
तपिश - heat,

#तुषारराजरस्तोगी #इश्क़ #मोहब्बत #ग़ज़ल

शनिवार, अगस्त 29, 2015

बस यही दुआ



















दिल ने दिल को दी आवाज़
जीवन का कर नया आग़ाज़
प्यार का है यह बंधन ख़ास
बहन-भाई हैं आज सरताज

सूनी कलाई पे बाँधा है प्यार
ममता जिसमें है भरी अपार
लाख़ जनम दूं तुझ पर वार
कम है जितना करूँ दुलार

बहना मेरी, तू है मेरी जान
तुझसे बढ़ती है मेरी शान
तू है मेरे मस्तक की आन
नहीं है तुझे ज़रा भी भान 

तिलक करे दिन बन जाए
गर्व से सीना यह तन जाए
आरती करने जब तू आए
आलम सारा ये थम जाए

शगुन में तुझको दूं मैं क्या
'निर्जन' की बस यही दुआ
हंसती खेलती तू रहे सदा
ग़म तुझसे रहे सदा जुदा

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, अगस्त 15, 2015

भारत स्वतंत्र हो गया है























लो फ़िर से आया कहने को स्वतंत्रता दिवस
पर मैं हूँ अड़ियल इसे ना मानने को विवश

क्या सच में अपना देश हो गया आज़ाद है?
फ़िर क्यों खत्म नहीं होता सेक्युलरवाद है

कल पकिस्तान, बांग्लादेश काटा था आज तेलंगाना है
तरीका वही है बटवारा कर देश को बेच खाना है

आज़ादी का मोल यहाँ कुछ लोग क्या ख़ूब चुकाते हैं
गरिमा हिंदुस्तान के झंडे की जूतों में रौंदते जाते हैं 

काश्मीर की आग़ में मुल्क को भड़काना और जलना है
सेक्युलरवाद के चूल्हे पर राजनैतिक मंसूबा पकाना है

करते हैं तार-तार अस्मत आतंकी भारत माता की यहाँ
वो पीटते हैं डंका ईमानदारी-भाईचारे का बैठकर वहाँ

सामने आकर जो भाई कहकर गले से लगते हैं
ख़ंजर लिए आस्तीन में  वही पीछे से वार करते हैं

वो जो बनाते हैं आपसे बातें मीठी कई-कई-कई
दिल-दिमाग-सोच से होते हैं सच में शातिर लोग वही

जहाँ देश को बेचने वाला ही आज देश पे राज करता है
वहाँ देशभक्त कोख़ का जाया बेमौत सूली पर चढ़ता है

आतंक और घोटालों में बढ़ गया है देश बहुत आगे
वाह..! देखो तो लोगों के इमां सच में हैं कितने जागे

फ़र्ज़ी, दोगले, भ्रष्ट, धूर्त, पाखंडी खच्चर ज़ाफ़रान उड़ा रहे हैं
देशभक्त, इमां वाले, उसूल पसंद घोड़े सूखी घास चबा रहे हैं

नक़ाबपोश, मतलबपरस्त, झूठा हर एक शख्स दिखता है यहाँ
कभी सच की मूरत, न्याय पसंद महाराजा हरिश्चन्द्र जन्मे थे जहाँ

बे-ईमानी, बहसखोरी, लड़ने, भिड़ने को हर एक आमादा है
गोया चुनाचे सच को सच मान लेने में किसी का क्या जाता है

क़ानूनी शिकंजे में जकड़ा कोई मासूम भूख-प्यास से मरा जा रहा है
वहीं एक नापाक आतंकी यहाँ दामाद बनकर पकवान उड़ा रहा है

आज लहू सबका बदरंग, सफ़ेद, ठंडा, मिलावटी हो गया है
देशभक्ति वाला वो जज्बा अब तक़रीबन खत्म ही हो गया है

क्या ऐसी प्रगति की रफ़्तार ही उम्दा मिसाल देती है?
जो भी हो भारत माँ तो आज भी फटेहाल ही रहती है

अपनी खुदगर्ज़ी की कब्र में हर एक बाशिंदा चैन से सो गया है
लो सुनो अभी भी वो कहते हैं 'निर्जन' भारत स्वतंत्र हो गया है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अगस्त 11, 2015

आशारों पे जवानी आई















इंतज़ार जिसका था एक ऊम्र से यारों मुझको
नासाज़ तबियत का सुन दौड़ी वो दीवानी आई

रोज़ गुजरतीं थीं शामें मदहोश उसके पहलु में
साथ उसके सुकून और ख़ुशी की कहानी आई

जुम्बिश नहीं थीं जिन काफ़िर नसों में अब तक
देख उसको लहू में फ़िर से पुरज़ोर रवानी आई

लगता था बीत जाएगी ज़िन्दगी अब तनहा यूँ ही
बाद मुद्दतों के फिर एक नई शाम सुहानी आई

किया करता था बातें रोज़ ख़ुदसे उसके बारे में
मिलीं नज़रें तो बात नज़रों से भी न बनानी आई

अरसा बाद दिया मौका उसने ग़ज़ल बनाने का
'निर्जन' ख़ारे अश्कों से आशारों पे जवानी आई

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #आशार

रविवार, अगस्त 09, 2015

राहगीर हूँ मैं














मेरी ताबीर-ए-हुस्न तेरा दिल-ए-दिल-गीर हूँ मैं
तेरे मचलते ख़्वाबों की इबारत-ए-ताबीर हूँ मैं

कल तलक थे बुझे ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात मेरे
आज रौशन-रू तेरे इश्क़ की एक तस्वीर हूँ मैं

दिल-ओ-जिस्म-ओ-जाँ से तेरा हूँ तू ही संभाले
दम-ए-दीगर से महकी शोख़ी-ए-तहरीर हूँ मैं

बुझ रह था मैं हर पल ज़िंदगी-ए-क़फ़स में 
आजकल इश्क़ में तेरे सहर-ए-तनवीर हूँ मैं

शरीक-ए-हयात हो जाए काश तू जल्दी मेरी
वस्ल-ए-जानाँ को तरसता हुआ राहगीर हूँ मैं

ताबीर-ए-हुस्न: interpretation of beauty
दिल-ए-दिल-गीर
: heart attracting heart,appealing heart
इबारत
: composition
ताबीर
: interpretation, explanation, elucidation
बुझे
: extinguished
ख़द-ओ-ख़ाल-ए-हयात
: features of life
रौशन-रू
: bright faced
दम-ए-दीगर
: breath
शोख़ी-ए-तहरीर
: playfulness/mischief of writing mischievous writing, jotting
ज़िंदगी-ए-क़फ़स
: cage of life
सहर-ए-तनवीर
: morning brightness
शरीक
: a partner,a colleague,a comrade,a friend
वस्ल-ए-जानाँ
: union with beloved

#तुषारराजरस्तोगी  #ग़ज़ल  #इश्क़  #मोहब्बत  #इंतज़ार  #तड़प

लघुकथा: बैसाखियाँ

किसका समय कब बदल जाए किसको को कुछ मालूम नहीं होता। आज गोविन्द असहाय है और अपनी लाचारी पर अक्सर मलाल करता है। कल तक जो हवा में उड़ा फिरता था आज ज़मीन पर रेंगने लायक भी नहीं रहा। एक हादसा उसकी दोनों टाँगे छीन ले गया। बड़ी ही मुश्किल से वो आज बैसाखियों के सहारे अपने जिस्म को आगे धकेल पाने की जद्दोजहद में लगा रहता है। आदत नहीं थी ना और ना कभी सोचा था कि जीवन में यह दिवस भी देखना होगा।

अभी कल की ही तो बात लगती थी जब वो अपने कॉलेज के मुख्य द्वार के सामने बैठने वाले एक बेचारे दुकानदार की खिल्ली उड़ाया करता था और उसको लंगड़ा कहकर पुकारा करता था। कई दफ़ा दुत्कार कर या अपनी मोटरसाइकिल उस पर चढ़ाने का झांसा देकर उसे बे-इज़्ज़त और डराया-धमकाया भी करता था। इसपर भी जब उसका दिल परेशान करने से ना मानता तो उसकी पुरानी बैसाखियाँ छिपा दिया करता या लेकर भाग जाया करता और वो बेचारा बैठा घंटो इसके लौटने की बाट जोहता रहता परन्तु आज समय की लाठी की गाज ने उसे गूंगा कर दिया था। वो बैसाखियों पर चलता तो जा रहा था पर ये नहीं मालूम था किधर जाना है। अपनी मानसिक उधेड़बुन से लड़ते हुए वो घर से दूर सड़क के किनारे पहुँच गया था। हर तरफ़ शोर और वाहनों का शोर मचा था। वो सड़क पार करे तो कैसे? यही सोच कर बड़ी देर से चिंतित खड़ा था। कल जो मानसिक रूप से अपाहिज था आज वो देह से भी विकलांग हो गया था और लाचार था। तभी एक भले मानस से मदद का हाथ बढ़ाया और सड़क पार करा दी।

सड़क तो पार कर ली पर मस्तिष्क में उथल-पुथल कायम थी। अपनी पुरानी ज़िन्दगी के कुछ बेहद बेहूदा दिनों को कोसता हुआ वो धीरे-धीरे बढ़ता तो चला जा रहा था पर कुछ अनसुलझे सवाल उसका पीछा छोड़ने का नाम तक नहीं ले रहे थे। शायद उस बूढ़े भिखारी की हाय लगी है मुझे...मैंने ज़िन्दगी में बहुत गुनाह किये हैं उसी की सज़ा मिली है मुझे शायद...मुझे ऐसा बर्ताव उसके साथ नहीं करना चाहियें था...बड़बड़ाता हुआ उसका अहसास बैसाखियों पर आगे तो चल रहा था पर नियति आज ज़िन्दगी को बहुत पीछे ले आई थी।

#तुषारराजरस्तोगी  #अहसास  #बैसाखी  #बर्ताव  #विकलांग  #ज़िन्दगी

शुक्रवार, अगस्त 07, 2015

लघुकथा: पश्चाताप के आंसू

नीशू अभी-अभी बाहर से आवारागर्दी करके वापस लौटा था और घर के दरवाज़े से अन्दर दाख़िल हो ही रहा था कि उसे अपनी छोटी बहन रेवती के सुबक-सुबक कर रोने की आवाज़ आई। बहन को रोता सुन दौड़ा-दौड़ा कमरे में आया और पुछा, "क्या हुआ? ऐसे रो क्यों रही है? किसी ने कुछ कहा तुझे? बता मुझे मैं मुंह तोड़ दूंगा उसका - बता तो क्या हो गया?" - और बड़े ही विचिलित मन से और सवाल भरी नज़रों से रेवती की ओर देखता रहा।

"अब बोलेगी भी या टेसुए ही बहाए जाएगी, मेरा दिल बैठा जा रहा है। बता भी हुआ क्या है?"

रेवती ने आंसू थामते और सुबकते हुए कहा, "भैया...! कल से हम कॉलेज नहीं जायेंगे। हमें उसकी हरकतें पसंद नहीं। वो लड़का रोज़ हमें परेशान करता है। गंदे-गंदे जुमले कसता और इशारे भी करता है। आज तो हद ही हो गई हम स्कूटी पर मीना के साथ कॉलेज जा रहे थे और वो पीछे से अपनी मोटरसाइकिल पर आया और मेरा दुपट्टा ज़ोर से खींच कर ले भागा। देखो, मैं सड़क पर गिर भी गई मेरे कितनी चोट आई है, खून भी निकला कितना। मैं कल से नहीं जाऊँगी वरना वो कमीना फिर से परेशान करने आ जायेगा।"

इतना सुनते के साथ ही नीशू सन्न रह गया, मानो उस पर घड़ो पानी पड़ गया हो। ऐसे कमीनेपन में तो वो भी माहिर था। सारा दिन वो भी तो यही सब करता था अपने आवारा मित्रों के साथ मिलकर, मोहल्ले के चौराहे पर खड़े रहकर। आती-जाती, राह चलती लड़कियों को छेड़ना, फितरे कसना, परेशान करना, सीटियाँ बजाना, फ़िरकी लेना और भी ना जाने क्या-क्या। छिछोरपन में कोई कमी थोड़ी छोड़ी थी उसने कभी। उसकी करनी का नतीजा आज ख़ुदकी छोटी बहन के साथ हुए दुर्व्यवहार के रूप में उसके सामने था।

उसे यह अहसास और आभास कभी ना हुआ था कि, ऐसा कुछ उसकी बहन के साथ भी हो सकता है। अब उसे समझ में आया कि जिनके साथ वो बदसलूकी करता था वो भी किसी की बहन, बेटी, पत्नी या किसी के घर की इज्ज़त थीं। आज अपने आप से नज़रे मिलाने लायक नहीं रहा था वो, आत्मग्लानि होने पर उसका वजूद उसे धिक्कारने लगा और उसका दिल स्वयं अपने मुंह पर थूकने को करने लगा। शर्म से मुंह लटकाए, सर झुकाए, धक से वहीँ बहन के पास बैठ गया और पश्चाताप के आंसू उसकी आँखों में भर आए।

#तुषारराजरस्तोगी  #लघुकथा #सामाजिकसमस्या  #बदतमीज़ी  #छेड़छाड़  #लड़कियां  #पश्चाताप  #आंसू

मंगलवार, अगस्त 04, 2015

मेरा सपना

"ऐ राज...! सुनो ना...यहाँ आओ..." आराधना ने धीरे से पुकारते हुए कहा, "मैं तुम्हे अपने सपने के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।"

राज बिस्तर पर पास आकर लेट जाता है और कहता है, "लो जी आ गया, बोलो क्या बताना चाहती हो...अब कहो भी, ऐसे क्या देखती हो...बोलो ना, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"मैं जब सो जाती हूँ तब, मेरा मन कहीं दूर लम्बी और घुमावदार राह पर भटकने के लिए निकल पड़ता है। एक लचीले और रंगीन फ़ीते की तरह वो राह मेरे सामने बिछ जाने को बेक़रार रहती है, साथ में अपनी मनमोहक अदाओं से मेरे दिमाग़ को लुभाता है...और वो मंत्रमुग्ध हो इसका अनुगमन करना शुरू कर देता है। नींद जितनी गहरी होती चली जाती है, मैं विचरण करती हुई उतनी ही दूर निकल जाया करती हूँ, किसी अनदेखे, अनजाने, अपरिचित स्थान पर दूर बहुत दूर, इस संसार से परे कहीं किसी अलौकिक और मनमोहक दुनिया के मध्य, जहाँ मेरे सिवा और कोई नहीं होता। इस राह पर चलते हुए जिन चीज़ों का सामना मेरा मन-मस्तिष्क करता है और जिस तरह के कारनामे मैं करती हूँ, वो मुझ और मेरे सपने को साहसिक की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। परन्तु उसके बाद मैं जितना भी दूर इस पथ पर आगे गहराई की ओर चलती चली जाती हूँ, सुबह जागने के पश्चात मेरे लिए इस सपने को याद रखना उतना ही कठिन हो जाता है। नींद जितनी गहन होती चली जाती है मेरा सपना भी उतने ही अस्पष्ट और अस्पृश्य हो जाता है।"

"ओहो...क्या आराधना वो तो बस सपना ही है, तुम इतना संजीदा क्यों हो रही हो? सपना आया और सपना चला गया बस भूल जाओ।" - राज ने उसका हाथ थामते सहजता के साथ कहा...

आराधना ने उसकी आँखों में देखा और कहा, "नहीं राज...! ये सपने नहीं हैं मेरे लिए, कुछ तो है जो इसमें छिपा है...शायद कोई गहरा राज़...! मेरे दिल को मालूम होता है कब वापस लौटना है। हालाँकि उस राह के किसी किनारे पर कहीं दूर मैं खड़ी रहती हूँ और मेरे मस्तिष्क को याद होता है कब उस राह पर वापस चलना शुरू करना है जिसपर चलकर यहाँ तक आई थी और जैसे-जैसे वो उस बिंदु तक पहुँचता है जहाँ से शुरू किया था मेरी नींद टूटने लगती है और मैं जाग जाती हूँ। मैं जैसे ही उस राह के शुरुआती स्थल पर पहुँचती हूँ, मेरी आँखें खुल जाती हैं और मेरा सपना सिर्फ एक धुंधली सी याद बनकर रह जाता है....ओह...! सिर्फ एक याद।"

"अरे तो क्या हुआ? तुम्हे कौन सा कोई फ़िल्म बनानी है अपने सपने को लेकर, इतना ज़ोर ना डालो अपने नाज़ुक दिमाग़ पर, नहीं याद आता तो ना सही...छोड़ो भी, अब सोने की कोशिश करो तुम और ज्यादा दिमाग ना लगाओ इन सब बातों में।" - राज ने बात को खत्म करने के लिहाज़ से कहा।

"नहीं...ये ख़्वाब कभी-कभी जीवन में बाधाओं का पर्याय भी बन सकते हैं। अगर कभी मेरा मन, उस राह पर कभी, कहीं दूर बेहद दूर निकल गया या मैंने कभी अनजाने में अपने दिल को अनजानी राहों पर भटकने और बहकने के लिए छोड़ दिया, तो शायद मैं वहीँ रह जाऊँगी, गुम जाऊँगी, वापसी की राह कभी ख़ोज नहीं पाऊँगी, फिर...फिर क्या होगा? मैं कभी वापस नहीं लौट पाऊँगी क्या? ये सोचकर भी मेरा सारा वजूद डर से सिहर उठता है।" - उसने घबराते हुए राज को कस कर बाहों में जकड़ते हुए सवाल किये...

"हा हा हा...फिर कुछ नहीं होगा, समझी...?" - राज ने ज़ोरदार हंसी के साथ जवाब दिया

"क्यों?" - आराधना ने फिर पूछा

"क्योंकि उसी पल मैं अपने सपने की राह से होता हुआ वहां तुम्हारे पास आ जाऊंगा और तुम्हे अपने साथ वापस यहाँ ले आऊंगा। जब तुम्हारा साथ मैंने यहाँ नहीं छोड़ा कभी तो फिर भला सपने में कैसे तुम्हे अकेला रहने दूंगा। मेरे साथ के बिना तो मैं तुम्हे, सपना क्या कहीं भी गुमने नहीं देने वाला। जो राह तुम्हे सपने में वापसी का रास्ता भुला दे मैं ऐसी राह को ही हमेशा के लिए तबाह ना कर दूंगा और वैसे भी अगर कहीं गुमना ही है तो हम दोनों साथ में खो जायेंगे...कहीं किसी हसीन ख़ूबसूरत सी वादियों में, पहाड़ों में, झरनों के बीच - गुमने को क्या ये सपना ही बचा है...टेंशन नहीं लेने का डार्लिंग व्हेन आई एम् विद यू...." - राज उसकी आँखों में देखता हुआ यह सब कहता जा रहा था और वो उसकी बातों और मुस्कान में खोकर सब सुन रही थी...और उसके प्यार की गर्माहट को उसकी बातों में महसूस कर रही थी।

"अच्छा बाबा...अब सो जाएँ क्या हुज़ूर? रात बहुत हो गई है...सुबह बात करें...हम्म...शुभ रात्रि...एंड स्वीट ड्रीम्स..." - इतना कहकर दो युवा धड़कते दिलों के होठों के दो जोड़े आपस में सम्पर्क में आकर मीठा सा स्पर्श करते हुए सुखाभास की अवस्था में परम आनंद का अनुभव कर उल्लासोन्माद में डूबकर एक दूजे की बाहों में निद्रा के आग़ोश में एक नया सपना देखने के लिए खो जाते हैं।

#तुषारराजरस्तोगी  #सपना  #राज  #आराधना  #इश्क़  #कहानी  #मोहब्बत

शनिवार, अगस्त 01, 2015

गुलाबो भैंस भाई सा













कुंठित सी भैंस भाई सा, देखी हमने ख़ास
सब पर करूँगी राज मैं, इत्तूसी है बस आस
इत्तूसी है बस आस, बात-बात में रमभाए
कुंठा इनकी देख, दुनिया यह त्रस्त हो जाए

कलयुग के बाज़ार में, दिखा विचित्र सा भेस
लगा गुलाबी रंग, झूमती फ़िरे गुलाबो भैंस
झूमती फ़िरे गुलाबो भैंस, बुद्धि कतई ना पाई
मंदमति वीरांगना ये, बस पूँछ हिलाती आई

सींग हैं अदृश्य इसके, घिनौना सोच विस्तार
माथे पर बस सजा रहे, बेचैनी का अम्बार
बेचैनी का अम्बार, विचलित हस्ती इसकी
ख़ुदा अक्ल दिलाए, बुद्धि कुंद हो जिसकी

परेशां औरों से रहती, ढूंढती सब में ख़ामी
धारणा बनाए रहती, करती सबकी बदनामी
करती सबकी बदनामी, जुबां कड़वी चलाए
सीधा सादा इंसान हो तो, बस पगला जाए

लोमड़ी सी है चालु, बकरी सी है दुखियारी
शातिर बड़ी गुलाबो, फैलती द्वेष की बीमारी
फैलती द्वेष की बीमारी, अजी सब बचके रहना
चक्कर में जो आए, फ़िज़ूल दुःख पड़ेगा सहना

देता 'निर्जन' ये टिप, भैंस भाई सा तुम लेना
मरखने जंगली बैल से, ज़रा बचकर ही रहना
ज़रा बचकर ही रहना, पड़ ना जाए पछताना
अपनी सोच का गोबर, अपने मुंह पर लगाना

#तुषारराजरस्तोगी  #गुलाबो  #हास्यव्यंग  #भैंसभाईसा  #नसीहत  #हैप्पीफ्रेंडशिपडे

सोमवार, जुलाई 27, 2015

स्वर्गीय चाचा कलाम को शत-शत नमन और हृदयतल से श्रद्धांजलि














अवुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम
जन्म : १५ अक्टूबर १९३१ - २७ जुलाई २०१५
स्थान : रामेश्वरम, तमिलनाडु, भारत
इन्हें डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम से जाना जाता है।
भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति, जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता के रूप में विख्यात हैं।
स्वर्गीय चाचा कलाम को शत-शत नमन और हृदयतल से श्रद्धांजलि
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वो शक्सियत है ख़ास
पर इंसा बेहद आम हैं
भारत माता के सपूत  
हिन्दुस्तान की शान हैं 

मातृभूमि सेवा में सदा
अग्रसर, अविराम हैं
कर्मयोगी, कर्मठ वो
देश का अभीमान हैं 

जीवन उनका हमेशा
ख़ुद में एक संग्राम है
शिक्षा उनसे मिली जो
बहुमूल्य वरदान है

प्रेरणा के स्रोत हर पल
वो ज्ञान के भण्डार हैं
दे जीवन दान अपना
वैज्ञानिको का मान हैं

प्रेम जनता के दिलों में
करते सभी सम्मान हैं 
भारत-रत्न, युगपुरुष वो  
अमर अब्दुल कलाम हैं

#तुषारराजरस्तोगी  #भारतरत्न #डाअब्दुलकलाम  #श्रद्धांजलि  

रविवार, जुलाई 26, 2015

मुलाक़ात

राज की मुलाक़ात आराधना से कन्याकुमारी जाते वक़्त पांच साल पहले बस में हुई थी और उसने बताया था कि वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है। राज द्वारा क्यों? पूछने पर उसने जवाब दिया, "उसे मालूम नहीं क्यों - पर उसके जीवन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो उसके भागने के फैंसले को सही साबित कर देंगी।

उसने दायें हाथ में बड़ा कॉफ़ी का मग पकड़ा था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो उसमें से उठती भाप को लम्बी सांस लेकर सूंघती और आह की ध्वनि के साथ निःश्वास होकर निश्चिंत हो जाती। देखने पर प्रतीत होता था कि उसे कॉफ़ी बेहद पसंद है और वह उसके स्वाद का भरपूर आनंद लेती हुई उसका लुत्फ़ उठा रही है। राज को अहसास हुआ कि उसने उसे एकटक ताड़ते हुए पकड़ लिया है जब उसकी नाक मग के सिरे को छू रही थी, और वो झट से बोल पड़ी कैफ़ीन मेरे दिल की तरंगों के जीवित होने का एहसास कराती है। उसकी आँखें अचरज से ऐसे चौड़ी और खुली हुई थीं जैसे मानो आज तक उसने कभी पलक झपकी ही ना हो, जैसे वो डर रही हो, जैसे...जैसे उसने कुछ खो दिया हो और सूरज उसकी पलकों पर चिड़ियों की भांति ऐसे बैठा था जैसे वो तारों पर बैठ झूलती हैं क्योंकि उसने बताया कि उसे रोना-धोना ज़रा भी पसंद नहीं आता है।

उसे चीज़ों को गिराने की आदत थी और वो चौथी मर्तबा सीट के नीचे झुककर कुछ उठाने के लिए ख़ोज-बीन कर रही थी के, अचानक से ज़ोर के चिल्लाई और उसकी फ़िरोज़ी टोपी राज के हाथ से टकराई और उसके कप से चाय बाहर छलक कर गिर गई। उसने बच्चों की तरह बड़ी मासूमियत भरी नज़रों से देखते हुए, दांतों से अपने नीचे वाले होंठ को काटते हुए माफ़ी मांगी और बोली, "वो ख़ुशी से इसलिए चीख़ी क्योंकि तुम्हारे टखने पर जो टैटू है बहुत प्यारा लगा।" - उसने बताया कि जब वो अट्ठारह बरस की हुई थी तब उसने अपनी कमर पर रंगीन तितली का टैटू बनवाया था और जब भी वो उसे आईने में निहारती है तब अपने आप से फुसफुसा कर सवाल करती है कि, "क्या वो इस तितली की तरह रंगीन,खुशमिजाज़ और चुलबुली है ?"

उस रात वो दोनों एक दुसरे के साथ में अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी कहानियां ऐसे अदला-बदली करते रहे जैसे दो प्रेमी आपस में चूमते हुए अपने इश्क़ के शर्बतों को एक दुसरे की आत्मा में उतार देते हैं और जब राज ने उससे कहा, "बत्ति जला लेते हैं क्योंकि हम मुश्किल से ही कुछ देख पा रहे हैं।" - तब इस पर मना करते हुए उसने लाजवाब जवाब दिया कि, "सच्ची और अच्छी आवाज़ों का साथ देने के लिए कभी किसी चेहरे की ज़रुरत नहीं होती है।"

उसकी गुस्ताख़ियों के बावजूद, वो बिलकुल मायावी थी और उसका उत्साह, तत्परता तथा उत्सुकता उसे बेहद मनमोहक बना रहीं थीं; उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों को छनछनाहट में कुछ तो था - जिसे राज समझ नहीं पा रहा था और ना ही कोई नाम दे पाने में सक्षम था और जब ठंडी हवा की लहर में उसकी ज़ुल्फ़ों का लहराना देखा तब ऐसा लगा मानो गर्म सेहरा के कांटो भरे कैक्टस में से अमृत धारा आज़ाद होकर रेगिस्तान में बह निकली हो।

अभी राज अपनी बातों के मध्य में ही पहुंचा था, उसके परिवार और उनकी खैरियत के बारे में सवाल करने ही वाला था कि बस रुक गई और कंडक्टर ने आवाज़ लगा दी की जिन्हें इस गंतव्य पर उतरना है वो आ जाएँ और अपना सामान डिक्की से निकलवा लें। उसने तेज़ी के साथ बातों का रुख मोड़ते हुए अपने कैनवास से बने बैकपैक से पोलारोइड कैमरा निकालकर झटपट एक राज का चित्र और फिर अपना चित्र खींच लिया।

अभी वो चित्रों को हवा में पंखे की तरह हिलाते हुए सुखा ही रही थी, राज ने पूछा, "इस साथ के बाद आगे कभी बात करने या मुलाक़ात का कोई तरीका या ज़रिया होगा?" परन्तु उसने तुरंत मुस्कुराकर नहीं में सर हिलाते हुए सवाल को सिरे से ख़ारिज कर दिया और बोली, "मुझे लगा था तुम मुझे इस सब से बेहतर समझते हो।" और जोर के हंसने लगी

राज के चेहरे पर फ़ीका अप्रकट मायूसी का भाव देख वो बिलकुल दंग रह गई और अपनी रेशमी आवाज़ में उसको उलझाते हुए अपने विदाई के जादुई शब्दों के जाल उस पर डाल दिए। "सुनो, ये लो," उसने खिसककर राज के सीने पर एक तस्वीर रख दी और कहा, "अब तुम्हारे पास मेरी तस्वीर है और मेरे पास तुम्हारी। एक दिन, हम फ़िर से ज़रूर मिलेंगे और शायद हमें यह सब कुछ भी याद ना रहे, पर मुझसे एक वादा करो कि जब तक हो सकेगा तुम इस तस्वीर को अपने साथ रखोगे और वैसा ही मैं भी करुँगी। और किसे मालूम है? शायद किसी रोज़ अपने अंतर्मन के ज्ञान और आवाज़ को सुनकर हम एक दुसरे को ढूँढने में क़ामयाब हो जाएँ। सम्भवतः ये बचपन के खेल छुपन-छिपाई जैसा होगा और यह खेल एक दिन सच हो जाएगा, और वैसे भी बाक़ी सब कुछ छोड़कर पूरी दुनिया हमारे इस खेल का मैदान होगी।" - उसकी आँखें यह कहते हुए चमक रहीं थीं।

पांच साल बाद भी, राज उसे दोबारा नहीं ख़ोज पाया पर उसने उम्मीद का दामन अभी तलक नहीं छोड़ा। वो जहाँ भी जाता उसे ढूँढने की कोशिश ज़रूर करता - हिन्दुस्तान, लंदन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, मलेशिया, मॉरिशस, थाईलैंड, रोम, बुडापेस्ट, श्रीलंका, और भी ना जाने कहाँ-कहाँ पर अफ़सोस उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई लड़की उसे नहीं मिली जो अपनी जुल्फों में रेगिस्तानी रेत की ख़ुशबू लिए चलती हो।

इतने साल बाद, राज टिकट काउंटर पर खड़ा पेरिस को जाने वाली रात की ट्रेन की टिकट बुक करा रहा था। ठीक उसके पीछे एक लड़की लाइन में खड़ी थी, उसके रेशमी बाल हवा में लहरा रहे थे और फिर गिरकर उसके गालों को चूम रहे थे। टिकट लेकर जैसे ही वो अपना बैग लेकर प्लेटफार्म की तरफ बढ़ रहा था उसके कानो में ये आवाज़ पड़ी और वो रुक गया। वो लड़की टिकट खिड़की पर झुकी हुई थी और अधिकारी को बता रही थी की वो अपने जीवन की उलझनों से भाग रही है और इसी प्लानिंग के तहत वो आज यहाँ पहुंची है। राज यह सब सुनता रहा, रुक गया और आसमान की तरफ देख चुपचाप खड़ा मुस्कुराता रहा।

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