शनिवार, अप्रैल 25, 2020

ग़ज़ल

Pen - Pilot Animal Series Fine Point
Ink - Sulekha Turquoise Blue

पेश-ए-ख़िदमत है मेरी एक संजीदा कोशिश। उम्मीद कर रहा हूँ आप सभी को पसंद आएगी। ग़लतियों के लिए मा'ज़रत। आप के तब्सिरा का इंतिज़ार रहेगा।

ग़ज़ल

इक चेहरे पे कई चेहरे लगा रक्खे हैं
यूँ ज़माने से कई राज़ छिपा रक्खे हैं //१

अश्क आँखों में हैं और हँसी चेहरे पर
दर्द सीने में कई लाख दबा रक्खे हैं //२

गर्क हो जाएं ना कहीं अश्क जमीं पर गिरकर
इसलिए पलकों पे करीने से उठा रक्खे हैं //३

दौर-ए-जुनूँ को मेरे ख़्वाब समझ आएँगे
सोचकर यही इन आँखों में बसा रक्खे हैं //५

दे न पाएगा वक़्त कभी जिनके जवाब
तहें-दिल वो सवालात बचा रक्खे हैं //५

पार होगा ये सफ़ीना मेरा कैसे मौला
ज़ीस्त ने कई तूफ़ान उठा रक्खे हैं //६

लौट के फिर कभी आ घर अपने 'निर्जन'
हमने ड्योढ़ी पे चिराग़ जला रक्खे हैं //७

तहें - गहराई
गर्क - सोख लेना
अश्क - आंसू
सफ़ीना - जहाज़, नाव, मरकब

- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'

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शुक्रवार, अप्रैल 24, 2020

ग़ज़ल हो गई - तंज़-ओ-मज़ा

मुशायरा इक जोड़ा ग़ज़ल हो गई
पेलम पेला निगोड़ा ग़ज़ल हो गई

काहिल-ओ-जाहिल दिखें क़ाबिल
किताब ख़ुद ही छपाए ग़ज़ल हो गई

कलजुग का खोता बन गया शायर
रेंका ढेंचू-ढेंचू और ग़ज़ल हो गई

लफ़्ज़ों को लपेटा जहाँ से समेटा
कूड़ा पढ़ता जा बेटा ग़ज़ल हो गई

वो उठाया वहाँ से न जानें कहाँ से
यूँ सुनाया दहाँ से ग़ज़ल हो गई

मिसरा बे-बहर शेर क़ातिल क़हर
और गढ़े जा रहा है ग़ज़ल हो गई

रदीफ़ तिलमिलाए क़ाफ़िए बिलबिलाए
करते हाय हाय हाय ग़ज़ल हो गई

ख़्याल अशआर में घोला वज़न न तोला
लो चिरकुट चमन की ग़ज़ल हो गई

चढ़ बैठा इक ऊपर कहे ख़ुद को सुपर
पांव नहीं उसके ब-बर लो ग़ज़ल हो गई

माईक पे बोला दबा दब मुँह खोला
बे-तरतीब घचोला लो ग़ज़ल हो गई

'निर्जन' की सुन लो फ़िल्मी धुन हो
तान लो फिर चकाचक ग़ज़ल हो गई

अदीबों का जोड़ा खा शिकंजी-पकोड़ा
जम के कर दी वाह-वाही ग़ज़ल हो गई

काहिल - आलसी, अलस, सुस्त, मंद / lazy, indolent
जाहिल - अज्ञानी / ignorant, illiterate, rude
क़ाबिल - इल्मदाँ, विद्वान / Able, Competent, Clever
खोता - गधा / donkey
दहाँ - मुँह / mouth
ब-बर - ज़मीन पर / on land
अदीबों - साहित्यकार, कलाकार / writer, literary figureartist

- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'

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बुधवार, अप्रैल 22, 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल

नौ-उम्र जज़्बात हैं जबीन-ए-पाक में
बाला-तर जज़्बात हैं दिल-ए-बेबाक में

फ़लक से देख क्यों बरस रहा है लहू?
खूँ रोता है, क्या वहाँ अफ़्लाक में?

आह! वस्ल-ए-यार किस सूरत करूँ?
उम्र हो रही है ज़ाया इन सवालात में

ज़िस्त है बे-नम बर्ग-ए-काह का ढेर
सुलगाओ आग ख़स-ओ-ख़ाशाक में

तुमने भी तो कोई कसर नहीं रक्खी
सुराख़ क्या कम हैं मेरे लिबास में?

ऐसा फ़़रेब-ए-हयात या रब ना दे
हम कहाँ हैं क़िस्सा-ए-लोलाक में 

ख़ाक ही इब्तिदा और इंतिहा है जब
क्यों न ख़ुद ही, ख़ुद को, मिला दूँ मैं ख़ाक में!

दम-क़दम कर दी तर्क़ अब मैंने 'निर्जन'
क्या ख़बर कितने अंदोह बैठे हों ताक में

जबीन-ए-पाक - साफ़ शुद्ध धार्मिक दिमाग़
नौ-उम्र - जवान
बाला-तर - बहुत ऊंचा
दिल-ए-बेबाक - निडर दिल
अफ़लाक - फ़लक़ / आसमान की जमा
ज़िस्त - ज़िन्दगी
बे-नम - सूखा
बर्ग-ए-काह - पत्तियाँ और तिनके
ख़स-ओ-ख़ाशाक - सूखी घास फूस
सुराख़ - छेद
लिबास - कपड़े
फ़़रेब-ए-हयात - ज़िन्दगी के धोखे
क़िस्सा-ए-लोलाक - आसमान के मालिक की कहानी
दम-क़दम - जीवन, मौजूदगी
तर्क़ - छोड़ देना
अंदोह - कष्ट, दुख

- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'

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मंगलवार, अप्रैल 21, 2020

वो भी क्या दिन थे

एक पुराना क़िस्सा याद आ गया। ये मेरे स्कूल के दिनों की बात है। दिल वाले दुलहनिया ले जाएँगे रिलीज़ हुई थी। लड़के काजोल पर उन दिनों जान छिड़कते थे। हम भी उन में से एक थे। हाॅस्टल में रहा करते थे। अब फ़िल्म कैसे देखी जाए। बाहर जाना मना था। तो सोच कर प्लान बनाया रात को रोल काॅल के बाद जब लाईटस बंद होंगी तब बंक मारकर दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाएँगे। ख़ुराफ़ाती दिमाग़ तो शुरू से ही रहा है। तो बस रूम की खिड़की के सरिए काट दिए और बैडशीट की रस्सी बनाकर निकल लिए कमांडो।

मैनें DDLJ दोस्तों के साथ हाॅस्टल से बंक मार-मार कर लगातार दो महीने देखी। रात ९:३० का शो ९:४५ पर पहुँचना पूरी फ़िल्म देखना और वापस होस्टल में आना बड़ा रोमांचक लगता था। दिवार फांद कर, जंगल से होते हुए, मेरठ कैंट में से गुज़र कर सिटी तक पैदल पहुँचना अपने आप में एक नया तजुर्बा था। फ़िल्म का एक-एक डाॅयलाग रट चुका था। हर कलाकार की एंट्री और इग्ज़िट तक याद हो गई थी। रात वाला सिनेमा हाॅल का गार्ड जो टिकट चेकर भी था दोस्त के जैसा हो गया था। कितनी ही दफ़ा तो फ़्रन्ट स्टाल की टिकट लेकर बालकनी में बैठकर फ़िल्म देखी थी और कई बार बिना टिकट भी। सब गोपी की महरबानी। बस उसको एक रजनीगंधा और तुलसी खिलाना होता था। एक आद बार एक छुटकु पव्वा काम पैंतीस कर देता था।

शायद कुछ समय और देख पाते पर हाय री क़िस्मत एक दिन हाॅस्टल से निकल जाने के बाद जब पैदल सड़क से जा रहे थे तब हाॅस्टल में रहने वाले एक अध्यापक ने रास्ते में हमें पकड़ लिया। घोड़े की सी तेज़ी से सरपट वापस तो दौड़ गए और अपने अपने रूम में भी पहुँच गए पर उसके बाद जो हुआ वो भी एक यादगार क़िस्सा है। ठंड रखिए वो भी जल्दी ही साझा करूँगा।

अब इस तालाबंदी में मुझे वही हाॅस्टल वाली फील आने लगी है। काश आज भी बंक मारकर दोस्तों के साथ वो दिन वापस ला सकता। वो भी क्या दिन थे।


















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शनिवार, अप्रैल 18, 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल
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शब-ए-हिज्र तो किसी तौर गुज़र जाएगी
रात गहरी है तेरी याद बहुत आएगी //१
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मेरे होठों पे तेरा इश्क़ दहकता है अभी
इन सांसों में तेरा लमस महकता है अभी //२
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मेरे सीने में तेरा नाम धड़कता है अभी
इन बाहों में तेरा हुस्न भड़कता है अभी //३
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तेरी आवाज़ का एजाज़ है सिर्फ़ मेरे लिए
तेरे मल्बूस की ख़ुशबू है सिर्फ़ मेरे लिए //४
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तेरी बाहें तेरा सू-बा-सू है सिर्फ़ मेरे लिए
तेरे गेसू तेरा गुल-रू है सिर्फ़ मेरे लिए //५
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जान करने को मेरे पास बहुत कुछ है अभी
यूँ तो कहने के लिए ख़ास बहुत कुछ है अभी //६
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इश्क़ हैरां है सर-ए-सहर-ए-सबा क्या होगा
मेरे क़ातिल तेरा अंदाज़-ए-वफ़ा क्या होगा //७
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आज की रैन तो किसी तरह बीत जाएगी
कल की सुबह इक नया रंग-ए-वफ़ा लाएगी //८
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सोचता हूँ कल तुझ से मुलाक़ात के बाद
हौसला-ओ-उम्मीद मेरी और संवर जाएगी //९
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हुस्न आएगा और बस आके ठहर जाएगा
जीत होगी जब यार आग़ोश में आ जाएगा //१०
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आह! ये लील तो जैसे-तैसे गुज़र जाएगी
कल यक़ीनन बराए नाम मेरे लिखी जाएगी /११
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लमस - स्पर्श
एजाज़ - जादू, आदत
मल्बूस - लिबास, कपड़े
गेसू - ज़ुल्फ़
सू-बा-सू - यहाँ और वहाँ
गुल-रू - गुलाबी चेहरा
लील- रात

- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'

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सोमवार, अप्रैल 13, 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल
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करते हैं इश्क़ मगर मेरा नाम नहीं लिख सकते
वो कौन हैं मेरे ये सर-ए-आम नहीं लिख सकते //१
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यूँ तो रोज़ करते हैं गुफ़तगू कई-कई घंटो मुझसे
इक ज़रा सा वक़्त वो मेरे नाम नहीं लिख सकते //२
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उन की अदायें कभी मेरी समझ में नहीं आतीं
वो क्या आंखों को कभी जाम नहीं लिख सकते //३
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कहते हैं तुम गर चाहो तो मेरा जहाँ ख़रीद लो
कहते हैं सब मगर बस दाम नहीं लिख सकते //४
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सोच रहा हूँ क्यों न अब मैं भी भुला दूँ उनको
वो तो चाह कर भी अंजाम नहीं लिख सकते //५
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जितना इस इश्क़ ने मुझे कर दिया है अब तक
ख़ैर उतना भी मुझे बदनाम नहीं लिख सकते //६
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- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'
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ग़ज़ल

ग़ज़ल
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ये दुनिया के लोगों से, क्यों आस लगाए रहता हूँ
अपनी मर्ज़ी का मालिक, मैं रौब जमाए रहता हूँ //१
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महफ़िल में शामिल रह कर, मैं रंग जमाता रहता हूँ
गुज़रे माज़ी के पन्नो पर, मैं ख़क उड़ाता रहता हूँ //२
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ये रस्ता मुझ से वाक़िफ़ है, मैं आता-जाता रहता हूँ
हाल सुनाना मुश्किल है, मैं शेर सुनाता रहता हूँ //३
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ये रस्म-ए-दुनिया-दारी है, मैं हाथ मिलाता रहता हूँ
ये आलम एक छलावा है, मैं जान छुड़ाता रहता हूँ //४
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परेशां होना बिमारी है, मैं फ़िकर जताता रहता हूँ
आने वाले हर लम्हे का, मैं जश्न मनाता रहता हूँ //५
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- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'
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मंगलवार, अप्रैल 07, 2020

ग़ज़ल १

ग़ज़ल
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रौशन हुआ है आज अक्स माहताब का
उतरा है मेरी रूह में जलवा शबाब का //१

उसकी अदाएँ मेरी नज़रों में बस गईं
आग़ाज़ था ये इश्क़ की पहली बहार का //२

बेनूर हो गया था जो तूफ़ानी बयार में
शबनम गिरी तो खिल उठा चेहरा दयार का //३

मुस्करा के 'निर्जन' इश्क़ की राह चल दिया
मंज़र जो देखा फ़लक़ पर उस आफ़ताब का //४

बीती हुई फ़स्ल की तक़लीफ़ों को भूल जा
अब आया है देख मौसम वस्ल-ए-यार का //५

- तुषार रस्तोगी 'निर्जन'















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सोमवार, अप्रैल 06, 2020

नज़्म: चाहता हूँ मैं

चाहता हूँ मैं 
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नज़रों के समंदर का ठिकाना चाहता हूँ मैं 
मुझे तुझ से मोहब्बत है बताना चाहता हूँ मैं //१

अब ज़ाया लगती है हर मौसम की शादाबी
तुझे अपनी सांसो में बसाना चाहता हूँ मैं //२

ये दिल धड़कता है मेरे दम से लेकिन 
तेरे इश्क़ से दुनिया सजाना चाहता हूँ मैं //३

ख़ुद से भी ज़्यादा तुझ में अक़िदत है
तेरे क़रीब आने का बहाना चाहता हूँ मैं //४

आशिक़ी जताने का ये मौक़ा अच्छा है
तुझे फ़क़्त इतना ही बताना चाहता हूँ मैं //५

शादाबी - सरसब्ज़, हरियाली
अक़ीदत - भरोसा

 - तुषार रस्तोगी 'निर्जन'

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शुक्रवार, अक्तूबर 11, 2019

गुरुवार, जून 28, 2018

अर्ज़ किया है



















...
ज़िक्र करते हैं तेरा इस कदर अलफाज़-ए-'निर्जन'
दुनिया शायरी को मेरी जुनूँ-ए-इश्क़ कहती है आज

Zikr karte hain tera iss qadr alfaaz-e-'nirjan'
Duniya shayari ko meri junu-e-ishq kehti hai aaj

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मंगलवार, नवंबर 28, 2017

शर अर्ज़ है

तुमसे लफ्ज़ों का नहीं 'निर्जन'
रूहानी-रूमानी रिश्ता है मेरा
तुम तो तहलील हो सांसो में
इबादत की ख़ुशबू की तरह


रविवार, नवंबर 19, 2017

हास्य-व्यंग्य अर्ज़ है

सिग्रेट, शराब, चरस, अफ़ीम, रम
नशा ज़िंदगी में कभी नहीं था कम
कुछ इस तरह 'निर्जन' निकला दम
एक हाथ में लोटा दूसरे हाथ में बम

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क़समें वादे प्यार वफ़ा सब

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शनिवार, नवंबर 18, 2017

O Saathi Re Tere Bina Bhi Kya Jeena

[tusharrastogi] sings O Saathi Re Tere Bina by Kishore Kumar, what an incredible voice on StarMaker! StarMaker, 40,000,000+ music lovers are singing here! 

O Saathi Re Tere Bina Bhi Kya Jeena

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सोमवार, नवंबर 13, 2017

अर्ज़ किया है

जुगनुओं से क्या मिले हम भी चराग हो गए 
नाज़नीन दिलरुबा के दिल का ख्व़ाब हो गए 
यूँ तो अता किये उन्होंने नज़राने कई 'निर्जन'
कातिलाना इनायत से उनकी आबाद हो गए

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शनिवार, नवंबर 11, 2017

अर्ज़ किया है

तिश्नगी अपनी दानिस्ता नाआश्ना 'निर्जन' हुआ 
नुक्तादानी करके भी नाशिनास साबित हुआ 

तिश्नगी : लालसा, अभिलाष
दानिस्ता : जानते हुए
नाआश्ना : अजनबी
नुक्तादानी : बुद्धिमानी
नाशिनास= अज्ञानी

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गुरुवार, नवंबर 09, 2017

अर्ज़ किया है

बेबस, बेकस, बेकार, बेकरार ऐसे क्यों हैं
ये लोग कुछ ज्यादा ही होशियार क्यों हैं
हर एक चेहरे पर एक मुखौटा है 'निर्जन'
इन लोगो के ज़हर में बुझे किरदार क्यों हैं

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बुधवार, नवंबर 08, 2017

ये ज़मी गा रही है

ये ज़मीं नहीं हम गा रहे हैं ;)

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शुक्रवार, नवंबर 03, 2017

अर्ज़ किया है

इश्क़ परखने का हुनर, हम बख़ूबी जानते हैं
कौन है आशिक़-ए-बुताँ, हम बख़ूबी जानते हैं
आशिक़-ए-बे-दिल के, बैत-ए-आशिक़ाना में
कौन है फ़र्द-ए-बशर, हम बख़ूबी जानते हैं

आशिक़-ए-बुताँ - beauty lover
आशिक़-ए-बे-दिल - heartless lover
बैत-ए-आशिक़ाना - temple of love
फ़र्द-ए-बशर - unique human being

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