रविवार, जुलाई 28, 2013

दर्द और मैं

















दिल के दर्द क्यों दिखलाऊं
दिल की बातें क्यों बतलाऊं
दिल को अपने मैं समझाऊं
जीवन में बस चलता जाऊं
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दर्द मेरा बस मेरा ही है
दर्द तेरा बस मेरा भी है
दर्द से बनते रिश्तों में
एहसास बड़ा गहरा भी है
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खुशियाँ मेरी जब दी हैं
दुआएं दिल से तब ली हैं
ज़िन्दगी मेरी सब की है
हंसी लबों पर अब भी हैं
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रात काली थी चली गई
सुबह सुहानी दिखी नही
किस्मत का ये देखो ज़ोर
सन्नाटे में सुनता हूँ शोर
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बातें उनसे होती हैं कई
दिल फिर भी मिलते नहीं
बातें बस बातें ही रहती हैं
ख़ामोशी ही सच कहती हैं
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परदे के पीछे वो चुप है
परदे के आगे मैं चुप हूँ
आखीर क्यों वो चुप है
आखीर क्यों मैं चुप हूँ
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धोखा कोई देता नही
धोखा कोई खाता नही
सब किस्मत का खेला है
दर्द ही बस अकेला है
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सोमवार, जुलाई 22, 2013

स्वराज की मशाल





















मशाल लिए हाथ में 
हर एक खड़ा है 
ये आम आदमी है 
न छोटा है न बड़ा है 
हल्का ही सही 
तमाचा तो लगा है 
चमचों की मुहीम पर 
एक सांचा तो कसा है 
मान लो गर गलती 
तो छोड़ देंगे हम 
जो करेंगे चापलूसी 
उन्हें तोड़ देंगे हम 
'स्वराज' है 
हक हमारा 
इसे ला कर रहेंगे 
अपने विचारों को
अब खुलकर कहेंगे
दिलों में अपने 
जोश अब 
कम होने न पाए 
आओ सब मिलकर 
अब एक हो जाएँ 
आवाज़ सबके 
दिल से 'निर्जन' 
उठती है यही
स्वराज है 
स्वराज है 
हाँ स्वराज है यही

गुरुवार, जुलाई 18, 2013

यहाँ दिल अब पत्थर हैं




















व्यक्ति विशेष यहाँ ऐसे भी हैं
जिनमें शेष अब प्राण नहीं
विचारों से निष्प्राण हैं जो
उन्हें सही गलत का ज्ञान नहीं

कुछ लोग यहाँ ऐसे भी है
जो दोस्त बनकर डसते हैं
मुंह देखे मीठी बातें कर
पीठ पीछे से हँसते हैं

बातें करते हैं बड़ी बड़ी
कलम कागज़ पर घिसते हैं
पर शब्दों में वज़न नहीं
कोरी बातें ही लिखते हैं

कलयुग है यह वाजिब है
भरोसा और ऐतबार नहीं
लोगों के दिल अब पत्थर हैं
सूखे दिलों में प्यार नहीं

तू निरा मलंग है 'निर्जन'
ना जाने नफा नुक्सान है क्या
बस दिल से दोस्त बनाकर तू
क्यों खाता है धोखे ये बता?

ख़ामोशी है वीरानों सी
दिल में मगर विश्वास यही
एक दिन तो दोस्त मिलेगा वो
दिल जिसका बेजान नहीं 

रविवार, जुलाई 14, 2013

ऐसे हैं हम





















आदत में हम अपनी
स्वराज ले भिड़ते हैं
ऐसे स्वाराजी है हम

खून में हम अपने
गर्मी ले बढ़ते हैं
ऐसे जोशीले हैं हम

बदल सके जो हमको
ज़माना नहीं बना वो
ऐसे हठीले हैं हम

आसमानों में परिंदों
से आजाद उड़ते हैं
फौलादी हवाओं को
ले साथ फिरते हैं
गहराई सागरों की
मापते फिरते हैं
दोस्त हो या दुश्मन
गर्मजोशी से मिलते हैं

आँखों में हम अपनी
सपने ले जीते हैं
ऐसे मतवाले हैं हम

जिगर में हम अपने
आग ले जलते हैं
ऐसे लड़ाकू हैं हम

दिल में 'निर्जन' अपने
उम्मीद ले चलते हैं
ऐसे आशावादी हैं हम

गुरुवार, जुलाई 11, 2013

हंसी और ग़म



















होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
हम ही हम हैं, तो क्या हम हैं

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
कहीं ज्यादा है, कहीं पर कम है

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
मुस्कान भी है, आँखे नम हैं

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
पास तो है, पर क्या दूरी कम है

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
क्या व्हिस्की और क्या रम है

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
कुछ चलता सा, कुछ कुछ थम है

होठों पे हंसी, दिल में ग़म है
हम ही हम हैं, तो क्या हम हैं

सोमवार, जुलाई 08, 2013

'स्वराज' की हुंकार















अंतर्मन चीत्कार कर
बहिर्मन प्रतिकार कर
प्रघोष महाघोष कर
निनाद महानाद कर
नाद कर नाद कर
'स्वराज' का प्रणाद कर

साम, दाम, दण्ड, भेद
ह्रदय में रह न जाये खेद
भुलाकर समस्त मतभेद
सीना दुश्मनों का छेद
प्रहार कर प्रहार कर
'स्वराज' की दहाड़ कर

मुल्क अब भी गुलाम है
चाटुकारी आम है
काट चमचो का सर
धरती को स्वाधीन कर
उद्घोष कर उद्घोष कर
'स्वराज' की हुंकार भर

कदम रुकेंगे नहीं
कदम डिगेंगे नहीं
अटल रहे अडिग रहे
सर उठा कर कहे
बढ़ चले बढ़ चले
'स्वराज' पथ पर चढ़े

रणफेरी की ललकार है
मच रहा हाहाकार है
रावणों की फ़ौज है
भक्षकों की मौज है
मार कर मार कर
'स्वराज' का वार कर

शनिवार, जुलाई 06, 2013

ख़ुशी और सुख

















ख़ुशी और सुख के
अनमोल खज़ाने
ले चल मुझको 
वहां ठिकाने 
जहाँ तेरा ही 
बस डेरा हो 
जहाँ आनंद ने 
घेरा हो 
तेरे उस 
अथाह समुन्द्र में
क्या मैं 
डूब ना जाऊंगा 
उबरने की 
कोई जगह ना हो 
बस मुस्कानों में 
डूबता जाऊंगा  
ले चल मुझे 
एक अनोखे जहाँ में 
कपट, लोभ, नफरत से दूर 
जहाँ तू भी अकेला है 
यहाँ मैं भी अकेला हूँ 
'निर्जन' मीत तू बन ऐसे 
जैसे सागर में फेना है 
ओ मेरे सुख
बस इस दिल में 
एक तेरा ही बसेरा है 
जीवन दुःख से मुक्त हो 
आत्मा बंधन से रिक्त हो 
एक ऐसे खुशहाल संसार में 
जहाँ सिर्फ खुशियों का डेरा हो 
ओ सुख के अनमोल खज़ाने
ले चल मुझको वहां ठिकाने

शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

एक मुलाकत 'सच्चे बादशाह' के साथ

















अभी हाल ही में अमृतसर जाने का अवसर प्राप्त हुआ | अगर दुसरे शब्दों में बयां करूँ तो अचानक ही बैठे बैठे 'दरबार साहब- हरमिंदर साहिब' से बुलावा आ गया | तो बस उठे और चल पड़े कदम 'वाहे गुरु' को सीस नावाने | 'दरबार साहब' के समक्ष अपने को जब खड़ा पाया तो एह्साह हुआ के जीवन में सब कुछ कितना छोटा है, बेमानी है और मिथ्या है | कुछ एक ऐसी परिस्थितियां जिनमे इंसान अपने को कमज़ोर महसूस करने लगता है, हालातों का गुलाम होने लगता है और उस पर एक नकारात्मक सोच काबिज़ होने लगती है ये सब 'हुज़ूर साहब' के सामने कुछ भी नहीं हैं | उनके दर्शन करते ही एक नई स्फूर्ति, नया जोश, नई सोच, नया विश्वास, नई उमंग, नए विचार और जीवन संतुलन के प्रति नया दार्शनिक नजरिया उनके आशीर्वाद से आपके समक्ष दिव्यज्योति बन कर आपके आसपास के वातावरण को प्रकाशित करता है और जीवन जीने की नई शक्ति प्रदान करता है | 'सच्चे बादशाह' के दरबार के कोई कभी खाली हाथ नहीं जाता | मैंने भी अपने जीवन के कुछ क्षण उनके साथ वार्तालाप करने में और 'श्री गुरु ग्रन्थ साहिब' के दर्शन करने में व्यतीत किये और उनका जो जवाब मुझे मिला वो मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ | मुझे लगा उन्होंने मेरे सवालों के जवाब कुछ इस प्रकार से दिए : 

पुत्र 
अपनी भटकन 
मुझे 
क़र्ज़ रूप में 
ही दे दो 
अपने 
मन मस्तिष्क 
का वो शून्य 
जिसमें तुम खो कर 
अपने आप को 
अस्तित्वहीन सा 
पाते हो 
जीवन की एक
गौरव भरी 
सजीव शक्ति 
उस क़र्ज़ के बदले 
मैं तुम्हे देता हूँ 
जिस को 
स्वीकारने पर 
तुम स्वयं 
एक नई दिशा 
बनाओगे 
चेतना स्फूर्ति
कर्म भरा जीवन 
तुम पाओगे 
एक निश्चित धरातल 
जिसमें भटकन का 
कोई स्थान नहीं होगा 
सिर्फ
अथाह कर्म का सागर 
यश और 
समृद्धि का एक रत्न 
उज्जवल आकाश 
निर्मल धारा
सूर्या का तेज 
चन्द्र की शीतलता 
तब तुम्हारा मेरा ऋण
पूरा होगा 
एक कुशल 
व्यापारी की भांति 
हम एक दुसरे के 
सच्चे मित्र होंगे

बस इतना सा कहा उन्होंने मुझसे और मैं माथा टेक कर उनका शुक्रिया अदा कर मुस्कराता हुआ उनसे मिलकर प्रसादी और लंगर  ग्रहण कर वापस चला आया | 

वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फ़तेह | जो बोले सो निहाल 'सत श्री आकाल' | 

जैसे गुरु साहब ने मेरे ऊपर मेहर रखी वैसे ही सभी पर कृपा करते हैं |