शुक्रवार, अप्रैल 26, 2013

डर लगता है















दरिंदगी इस कदर बढ़ गई है ज़माने में
डर लगता है यारो तार पर अस्मत सुखाने में

लूटेरे हर जगह फिरते मुंडेरों पे, शाख़ो पे
बना कर भेस अपनों सा लपकते हैं लाखों पे

न लो रिस्क तुम बच के ही रहना दरिंदो से
दिखने में कबूतर हैं ये गिद्ध रुपी परिंदों से

भूलकर भी मत सुखाना अस्मत को तार पर
मंडराते फिरते है रक्तपिपासु वैम्पायर रातभर

इज़्ज़त तार कर देंगे तार पर देख अस्मत को
वापस फिर न आती लौट कर गई शुचिता जो

संभालो पवित्रता अपनी खुद अब दोनों हाथों से
खत्म कर दो हैवानो को जीवन की बारातों से

चलाओ बत्तीस बोर कर दो छेद इतने तुम इनमें
मरें जाके नाले में इंसानियत बची नहीं जिनमें

दरिंदगी इस कदर बढ़ गई है ज़माने में
डर लगता है यारो तार पर अस्मत सुखाने में

25 टिप्‍पणियां:

  1. चौथे छंद की दूसरी पंक्ति का तुक सही नहीं लगा। देख लीजिएगा। बाकी गोपनीयता को आपने उधाड़ के रख दिया। बढ़िया।

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    1. विकेश भाई थोडा ठीक किया है अब बताएं |

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    2. उड़ते हैं गिद्ध लगाए घात खून से सने।
      शायद ऐसा कुछ हो जाए। क्‍यूंकि ऐसी विसंगति के लिए (सपने) जैसा सकारात्‍मक शब्‍द बेकार जाएगा।

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  2. यही स्थितियां बन गई हैं आजकल.

    रामराम

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  3. तुक-बंदी में कुछ गंभीर प्रयास करें .....ये सुझाव है

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  4. सच को उकेरा है आपने! बहुत सुन्दर! बधाई!

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  5. चेतावनी और साहस देती हुई रचना
    गहन अनुभूति को बड़ी सहजता से व्यक्त किया है
    बधाई

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  6. सच को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कियें है,आभार.

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  7. प्रासंगिक रचना रूपक तत्व लिए .

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  8. प्रासंगिक रचना रूपक तत्व लिए .

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  9. कटु सत्य को व्यक्त किया अपनी रचना में ..........सशक्त रचना

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  10. आज कुछ ऐसी ही स्थिति है ..अच्छा व्यंग किया है ..बहुत बढ़िया ..

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  11. कविता के भाव बेहतर हैं ....मेरे ब्लॉग का अनुसरण करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया .....!!!

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  12. वाह ... सभी शेर लाजवाब हैं ...
    सच को लिखा है हर शेर में ..

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  13. सभी मित्रों का बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद् | आप समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर आये और अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत की | आभार

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