बुधवार, दिसंबर 31, 2014

हे वृक्ष - २












जबकि हर व्यक्ति
अपनी पकड़
अपने अहं
अपनी विलासता, को
मज़बूती से
पकड़े रहना चाहता है
वो चाहता है
उसके सम्बन्धी
उससे सम्बंधित
हर व्यक्ति
उसकी दासता माने
क्यों, क्या उससे
अलग किसी के शरीर में
मन, आत्मा या चेतना नहीं
हे वृक्ष
तुम मानव से
कहीं अधिक श्रेष्ठ हो
तुम सिर्फ अपनी
जड़ के स्वामी हो
अपनी ताक़त से
जड़ों की रक्षा करते हो, ताकि
वृक्ष का विस्तार
दूर दूर तक फैलता रहे
और मैं तुम्हे एक बार और
महानता की उपाधि देता हूँ
तुम अपने पत्ते,
अपने फल, अपने फूल को
जब तक ही पकड़े
रहना चाहते हो
जब तक वो अपने
अस्तित्व में पूर्ण नहीं होते
उसके बाद
तुम उनकी
चिंता छोड़ नए पत्ते
नए फल, नए फूल की
रचना में लग जाते हो
'निर्जन तुम्हे परमात्मा का
दूसरा स्वरुप मानता है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, दिसंबर 28, 2014

लगे हैं



















इस साल के दिन जाने लगे हैं
नए साल के दिन आने लगे हैं

नए दिन देखो क्या आने लगे हैं
बीते दिन सब भूल जाने लगे हैं

बिछड़े बच्चे गुम जाने लगे हैं
अपनों के ग़म सताने लगे हैं

बाढ़ और प्रलय तड़पाने लगे हैं
पीड़ितों को बाबू जताने लगे हैं

सीमा पर आहुति चढ़ाने लगे हैं
उजड़ी मांगों को तरसाने लगे हैं

चुनावी दिवस अब आने लगे हैं
नेता भी अपनी खुजाने लगे हैं

चील गिद्ध बन मंडराने लगे हैं
ज़ख्मों को नोच खाने लगे हैं

गले सब के फड़फड़ाने लगे हैं
मौकापरस्त मेंढक टर्राने लगे हैं 

सबको ग़लत गिनवाने लगे हैं
करनी अपनी छिपाने लगे हैं

दूसरों में दोष दिखाने लगे हैं
सब दूध से अब नहाने लगे हैं

भाषण से जनता बहलाने लगे हैं
टोपी सभी को पहनाने लगे हैं

दर्द और टीस के आने लगे हैं
'निर्जन' दाम पकड़ने लगे हैं

आदमखोर कितने सयाने लगे हैं
इंसा के दुःख को भुनाने लगे हैं

ज़ख्म पुराने यूँ भर जाने लगे हैं
ज़ख्म नए आवाज़ लगाने लगे हैं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

देखा है














दौर-ए-वक़्त आया वो ज़िन्दगी में एक बार
उफनते समंदर से ख़ुदको लड़ते देखा है

वो जो आज हँसते हैं मुझ पर, कल रोयेंगे
आग में तपकर ही कुंदन बनते देखा है

सुपुर्द-ए-गर्क होंगे तमाशबीन एक दिन 
खुद मुंह अपना उन्हें सियाह करते देखा है

कर बुलंद हौंसला नभ बुलाता है 'निर्जन'
क्या सूरज को किसी से उलझते देखा है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Dekha Hai
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Daur-e-waqt aaya wo zindagi mein ek baar
Ufante samandar se khudko ladte dekha hai 

Wo jo aaj hanste hain mujh par, kal royenge
Aag mein tapkar hee kundan bante dekha hai 

Supurd-e-gark honge tamashbeen ek din 
Khud munh apna unhe siyah karte dekha hai 

Kar buland haunsla nabh bulata hai 'nirjan'
Kya sooraj ko kisi se ulajhte dekha hai 

--- Tushar Raj Rastogi ---

शायरी

इश्क़ परखने का हुनर, हम बख़ूबी जानते हैं
कौन है आशिक़-ए-बुताँ, हम बख़ूबी जानते हैं
आशिक़-ए-बे-दिल के, बैत-ए-आशिक़ाना में
कौन है फ़र्द-ए-बशर, हम बख़ूबी जानते हैं

*आशिक़-ए-बुताँ - beauty lover
*आशिक़-ए-बे-दिल - heartless lover
*बैत-ए-आशिक़ाना - temple of love
*फ़र्द-ए-बशर - unique human being

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, दिसंबर 20, 2014

ये रात फ़िर अधूरी है















सितारे भी अधूरे हैं
चंदा भी अधूरा है
मचलते जज़्बात अधूरे हैं
मदहोश शामें अधूरी हैं
तड़पती तन्हाई अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

तरसते ख़्वाब अधूरे हैं
बुदबुदाते अल्फ़ाज़ अधूरे हैं
चादर की सिलवटें अधूरी हैं
अरमानो की टीस अधूरी है
नाचती उमंगें अधूरी हैं
ये रात फ़िर अधूरी है

तेरा साथ भी अधूरा है
पैग़ाम-ए-दिल भी अधूरा है
'निर्जन' आरज़ू अधूरी है
ये जुस्तजू भी अधूरी है
हर उम्मीद अब अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

दिल की बात अधूरी है
ये मुलाक़ात अधूरी है
ख़ुदाया कैसी मजबूरी है
नज़दीकि लगती दूरी है
दिल में दस्तक ज़रूरी है
बिन तेरे ज़िन्दगी अधूरी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Ye Raat Phir Adhoori Hai
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Sitare bhi adhoore hain
Chanda bhi adhoora hai
Machalte jazbaat adhoore hain
Madhosh shaamein adhoori hain
Tadapti tanhaai adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Taraste khwaab adhoore hain
Budbudate alfaaz adhoore hain
Chaadar ki silvatein adhoori hain
Armano ki tees adhoori hai
Naachti umangein adhoori hain
Ye raat phir adhoori hai

Tera sath bhi adhoori hai
Paigaam-e-dil bhi adhoora hai
'Nirjan' aarzoo adhoori hai
Ye justju bhi adhoori hai
Har umeed ab adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Dil ki baat adhoori hai
Ye mulaqaat adhoori hai
Khudaya kaisi majboori hai
Nazdeki lagti doori hai
Dil mein dastak zaroori hai
Bin tere zindagi adhoori hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2014

हे वृक्ष



















हे वृक्ष! तेरे पत्ते
हर शिशर के बाद
क्यों नए आते हैं
क्यों तू पुरानो का
नवीनीकरण करता
तुझे भी
बदली ऋतू में
नए ढ़ंग का
जीवन चाहियें
क्यों पुराने पत्तों को
पूरी तरह गिरा देता है
एक पत्ता भी क्यों नहीं रखता
स्मृति मात्र के लिए
एक अरसा तेरे साथ
रहने पर भी तू
उससे मोह नहीं करता
तेरे लिए एक वर्ष
एक युग के समान है
तभी सभी एक साथ
बदल देता है

हे वृक्ष! तेरे पक्षी
तुझे कभी नहीं छोड़ते
जो तेरी हरियाली में
तेरे साथ रहते हैं
वो तेरे ठूंठ पर भी
बैठे तेरी ख़ुशहाली की
शायद कामना
करते रहते होंगे
क्यों नहीं छोड़ते
वो तुझे पतझड़ में
तू, तेरे पत्ते, तेरे पक्षी
सब मानव सृष्टि और
परमात्मा का स्वरुप हैं
या सिर्फ़
सांसारिक चक्र का
मुझे बता आज
क्या है ये राज़
क्या इसमें भी कोई
मर्म छिपा है, या इसकी भी
कोई दर्द भरी कहानी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Hey Vraksh
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Hey vraksh! tere patte
Har shishr ke baad
Kyon naye aate hain
Kyon tu purano ka
Naveenikaran karta
Tujhe bhi
Badli ritu mein
Naye dhang ka
Jeevan chahiyen
Kyon purane patton ko
Poori tarah gira deta hai
Ek patta bhi kyon nahi rakhta
Smriti maatr ke liye
Ek arsa tere sath
Rehne par bhi tu
Usse moh nahi karta
Tere liye ek varsh
Ek yug ke smaan hai
Tabhi sabhi ek sath
Badal deta hai

Hey vraksh! tere pakshi
Tujhe kabhi nahi chhodte
Jo teri hariyali mein
tere sath rehte hain
Wo tere thoonth par bhi
Baithe teri khushhaali ki
Shayad kaamna
Karte rehte honge
Kyon nahi chhodte
Wo tujhe patjhad mein
Tu, tere patte, tere pakshi
Sab manav srishti aur
Paramatama ka swaroop hain
Ya sirf
Sansarik chakr ka
Mujhe bata aaj
Kya hai ye raaz
Kya ismein bhi koi
Marm chhipa hai, ya iski bhi
Koi dard bhari kahani hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

रविवार, दिसंबर 14, 2014

साईं संध्या या राजनैतिक अखाड़ा

 ॐ साईं नाथ - ॐ साईं राम

इतनी ख़ुशी मिली है ये दिल आबाद हो गया
साईं की महफ़िल में 'निर्जन' शादाब हो गया

आज शाम अचानक से प्रभु का बुलावा आ गया | अरे यारों! वो वाला बुलावा नहीं जो आप सोचने लग गए हो बल्कि सुअवसर था साईं बाबा के दर्शन करने का, उनके सामने नतमस्तक हो अपने जीवन के लिए सुन्दर कामनाएं करने का और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का | सोचा नहीं था कि खड़े खड़े यकायक यूँही कदम उनसे मिलने की ओर बढ़ते चले जायेंगे | मैं तो रोज़ शाम की तरह कुछ एक यारों की महफ़िल में उनके चुटकुलों और चुटकियों का लुत्फ़ उठा रहा था और सरसब्ज हो रहा था | मालूम हुआ के आज तो हमारे क्षेत्र की धरातल पर 'साईं संध्या' का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है | पहले तो सोचा के टाल कर जाता हूँ परन्तु मेरे अभिन्न मित्र और बड़े भाई के कहने पर रुक गया और उनके साथ चलने को मन ही मन राज़ी हो गया | भैया की अचार की दुकान पर चुनावी सरगर्मियों पर आचार विचार और चर्चाओं के प्रहार के बीच हम सभी दोस्त लोग एक दुसरे की खिंचाई कर आनंद उठा रहे थे | हमारे नवविवाहित वकील साब की शामों और रातों का मुक़द्दमा आजकल हम यारों की अदालत में ज़रा ज्यादा ही जोर शोर से उठाया जाता है | बेचारे वकील साहब शादी कर के अच्छे फेर में फँस गए हैं और आजकल उनकी बोलती भी बंद ही रहती है | मित्र-मण्डली के मज़ाक़ और टांग-खिंचाई के सामने बस वो कुछ ऐसे बेबस मुस्कुराते हुए अपने दर्द को छिपाते नज़र आते हैं जैसे ओसामा ओबामा की क़ैद में फंस गया हो | इसके साथ ही हमारे साथ दुकान पर एक राजनैतिक पार्टी के भावी प्रत्याशी भी चर्चा में शिरकत कर रहे थे | वो कुछ देर पहले ही अपने दल के एक चमचे के साथ दुकान पर पधारे थे | चमचा कहूँ या चुनावी मेंढक जो बुलेट मोटरसाइकिल पर सवार होकर आया था और उसका हैल्मेट ऐसा लग रहा था मानो द्वितीय विश्व युद्ध के किसी रंगरूट का लोहे का शिरस्त्राण हो अर्थात टोपा हो | उसकी इस वेशभूषा को देखते ही सबकी हंसी निकल गई | कुछ देर उसके साथ दिल्लगी की गई और उसके बाद सभी लोग बातचीत में मशगूल हो गए | सभी रात के ९ बजने के इंतजार में थे | सब ने साईं संध्या में जाने का मन बनाया था | मेरे से भी पुछा गया था परन्तु उस समय तक मैंने अपनी अंतर्मुखी दुविधा के चलते रज़ामंदी अभी तक अपने दिल में ही छिपा रखी थी | आखिरकार ९ बजे और सबने निकलने का विचार किया | बस कुछ ना कहते और सोचते हुए मैं भी सबके साथ चल पड़ा |

सहसा ही बहुत से उन्सुल्झे द्वन्द, सवालात और अनुत्तरित जवाबों को दिल में लिए मेरे कदम मित्रों और भावी नेताजी के साथ हंसी-ठठ्ठा करते संध्या स्थल की तरफ़ बढ़ते चले गए | पंडाल के पास पहुँच कर जब नज़र उठाकर देखा तो नज़ारा जितना मनमोहक था उतना ही आनंदमय वातावरण भी था | हर तरफ चमचमाती हेलोजन और बल्बों की रौशनी, लाल-पीले-हरे-सफ़ेद-गुलाबी रंग के कपड़ों से लगाया हुआ पंडाल | पंडाल के बीचोबीच साईं विराजमान थे | साईं का तेज और उनका प्रभामण्डल देखने योग्य था | उनके ठीक सामने रंगमंच सजा था | रंगमंच पर कलाकार रंग बिरंगी पोशाक में सजे-धजे अपनी कला का प्रदर्शन करने में मगन थे | बेहद श्रद्धा से परिपूर्ण कलाकार भगवान् श्री कृष्ण की झांकी और भजन प्रस्तुत कर रहे थे | सैंकड़ों की संख्या में जनता उपस्थित हो उस मनोहारी परिवेश में भाव विभोर होने से अपने आप को नहीं रोक पा रही थी | कोई खड़ा-खड़ा नाच रहा था तो कोई हवा में हाथ हिला हिला कर हिलोरे ले रहा था | बच्चे खेल कूद में लगे थे | सभी मन्त्रमुग्ध हो साईं की भक्ति में लीन दिखाई दे रहे थे | पंडाल के एक तरफ जूताघर का स्टाल लगाया गया था |  जूता घर के पास ही आने वाले श्रद्धालुओं के लिए साईं का तिथिपत्र भेंट स्वरुप देने का इंतज़ाम किया गया था | उसके आगे हाथ धोने के लिए पानी का स्टाल था | ठीक उसके सामने दूसरी तरफ खाने का इंतज़ाम था जहाँ साईं का प्रसाद ग्रहण किया जा सकता था | साईं के प्रसाद में कढ़ी-चावल और हलवा बनाया गया था | पंडाल में प्रोजेक्टर स्क्रीन का भी इंतज़ाम किया गया था जिससे जनता को कार्यक्रम का आनंद लेने से वंचित ना रहना पड़े |

हम सभी मित्रों ने नेताजी के साथ जैसे ही पंडाल में कदम बढ़ाये हमारे एक और मित्र जो की साईं संध्या के आयोजकों में से एक थे दौड़ कर हमारा स्वागत करने पधार गए | थोड़ी देर के वार्तालाप के बाद हमें वहां के प्रमुख आयोजक से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ | उन महानुभाव को जब ज्ञात हुआ की हमारे साथ अमुक राजनैतिक दल के भावी प्रत्याशी भी पधारे हैं तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | दौड़ दौड़ कर अपने परिचितों और स्वयं सेवी संस्था के लोगों से उनका परिचय आरम्भ कर दिया | यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक एक दूसरी अमुक पार्टी के पुराने बड़े नेताजी जिन्हें आधिकारिक न्योता संस्था ने पहले ही भेजा हुआ था और जिनका इंतज़ार बड़ी ही बेताबी और बेसब्री से हो रहा था, का आगमन नहीं हुआ | उनके चरणकमल द्वारा जैसे ही पंडाल दुलराया गया वैसे ही सभी लोग जो अब तक हमारे इर्द-गिर्द घूम नेताजी से फ़ौरी गठ-जोड़ बैठा रहे थे, उन्हें गले लगा रहे थे, अपने मोबाइल नंबर का आदान प्रदान कर रहे थे, गले मिल रहे थे या ऐसे मिल रहे थे मानो बरसों के बाद कोई बिछड़ा आज अकस्मात् ही सामने आ गया हो वो तुरंत ही छु-मंतर होते नज़र आए | माना की बड़के भैयाजी पिछले चुनाव में हारे हुए दल से चित हुए उम्मीदवार थे परन्तु वो कहते हैं ना पुराने चावल का स्वाद तो सबसे अलग ही होता है | बस फिर क्या था सभी का रुझान उनकी तरफ़ ही रहा और हम ये तमाशा देख मुस्कुराते रहे |

साईं दर्शन के लिए हमने अपने जूते-चप्पल जूताघर में उतारे, हाथ धोये और साईं दर्शन के लिए कतार में लग गए | हमारे परिचित मित्र पहले से ही साईं मंच के पास पंडित जी को बताने में लगे हुए थे कि नेताजी का आगमन होने वाला है | एक दफ़ा तो उन्होंने हमें सीधे कतार तोड़ कर भी आने का निमंत्रण दे डाला परन्तु हम आम जनता के साथ और उन्ही की तरह दर्शन करने के अभीलाषी थे अतः हम चुपचाप एक पंक्ति बनाकर चलते रहे | नेताजी को सामने देख आनन्-फ़ानन में पंडितजी ने उन्हें माल्यार्पण किया साथ ही दो अमरुद हाथ में थमा दिए और नेताजी हाथ जोड़ आगे बढ़ गए | नेताजी के पीछे हमारे वकील दोस्त भी थे जो प्रसाद के लिए मचले जा रहे थे | उन्होंने भी देखा-देखी प्रभु को शीश नवाया और हाथ बढ़ा दिया | पंडित ने उनकी शक्ल देखी और मुंह फेर लिया मानो कोई भिखारी देख लिया हो | प्रसाद देना तो दूर की बात पलट कर जायज़ा लेने को भी राज़ी नहीं थे | पर हमारे वकील साब तो वकील साब है और उस पर बड़ी बात यह है कि वो भी पंडित प्रजाति के अंश हैं बस फिर क्या था डटे रहे जब तक उनके हाथों में प्रसाद नहीं आ गया | खाद्य सामग्री प्राप्त होते ही वकील साब समपूर्ण स्फूर्ति के साथ नेताजी के पास हो लिए | हम तो ठहरे भाई आम आदमी यानी कॉमन मैन और हम लाइन में थे किसके पीछे, वकील साब के, लिहाज़ा जब वकील साब को पंडितजी ने कुछ नहीं समझा तो हम किस खेत की मूली थे | हमें भी पंडित जी ने नज़रन्दाज़ कर दिया और हम भी हाथ जोड़ कर आगे बढ़ गए |

अब आया खाने का नंबर | देखा तो ये लम्बी क्यू लगी थी खाने के स्टाल पर | पर अपना तो जुगाड़ फिट था | सभी बैठ गए कुर्सियां पकड़ कर और स्टेज पर हो रहे रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेने में मस्त हो गए | एक मित्र ने फ़ोन कर हमारे सूत्र को समझाया के भाई जल्दी आओ और स्टाफ चला कर खाने का इंतज़ाम करो | वो भी दौड़ कर तुरंत आए और सबके लिए फटाफट कढ़ी-चावल की प्लेटों का इंतज़ाम कर दिया | सभी दोस्तों ने तब तक नेताजी के साथ सेल्फी वाला कार्यक्रम निपटा लिया था | बस फिर क्या था सभी टूट पड़े | दे-दबा-दब पत्ते पर पत्ते उड़ा रहे थे कढ़ी-चावल के और प्रसाद का आनंद प्राप्त कर रहे थे | भोज के बाद मीठे की दरकार हुई और हलवा खाने की तलब लग गई | सब ने एक एक दोना हलवा उड़ाया और अपने अपने पिछवाड़े से हाथ पोंछ चप्पल जूते उठाने चल दिए | अपने चप्पल-जूते पहन कर और प्रभु को नमन कर हम सभी अपने अपने घर की ओर कूच कर गए |

कुल मिला कर कहूँ तो साईं-संध्या में आयोजक स्तर पर साफ़ तौर पर आस्था का स्तर कुछ कम ही नज़र आया | प्रभु के नाम पर एक ऐसा राजनैतिक अखाड़ा देखा जहाँ अपनी साख़ बनाने के लिए जद्दोजहद चल रही थी | आयोजकों द्वारा अलग अलग दल के नेताओं को बुलावा भेजा गया था | आने वाले चुनावों में अपनी स्तिथि मज़बूत करने के लिए और अपने अनकहे वर्चस्व के बखान और विधानसभा में अपनी उपस्थिथि दर्ज करवाने के लिए यह संध्या बहुत ही लाभदायक और बेहतरीन ज़रिया सिद्ध हो रही थी | जहाँ पंडित भी नोटों को और शक्लों को देखकर प्रसाद देता हो वहां और क्या अपेक्षा की जा सकती है | लोगों में उत्सुकता तो थी परन्तु कार्यक्रम के लिए कुछ ख़ास नहीं | ज्यादातर का ध्यान या तो खाने के ऊपर दिख रहा था या फिर सामान्य मौज मस्ती में लगे थे या किसी आपसी जोड़-तोड़ में तल्लीन थे परन्तु इसके विपरीत कुछ चेहरे ऐसे भी पढ़ने को मिले जो सच में साईं से रूबरू हो अपनी व्यथा बयां करने के इरादे से आए थे | जिनकी आँखों में एक आस थी और होठों पर साईं दर्शन के अमृत की प्यास थी | उनकी मुस्कराहट बयां कर रही थी, साईं संध्या में आने से ज़िन्दगी सफल हो गई | उनकी मुश्किलों का हल मिल गया है और वो बहुत संतुष्ट हो गए | हम भी यारों उन्ही में से एक थे | शायद आने वाले साल में हमारी दुआ भी क़ुबूल हो जाए और साईं के आशीर्वाद से हमारे काम भी बन जाएँ | उम्मीद तो यही है | देखते हैं और नए साल का इंतज़ार करते हैं ....... :)|

ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम....

बुधवार, दिसंबर 10, 2014

कलयुग घोर कलयुग















आज का युग बहुत ही बेढंगा युग है
कलयुग है गुरु जी घोर कलयुग है

बताओ तो -

आज प्यार भी एक मलिन व्यापार बनता जा रहा है
आज इसमें लड़की क्या लड़का भी मात खा रहा है

८० की उम्र में ३० की कली से निकाह पढ़वा रहा है
कब्र में लटक रहे हैं पाँव जान मर्दानगी दिखा रहा है

मर्यादा को त्याग हर कोई मद में धंसता जा रहा है
पाखंड दिखा निन्न्यांवे के फेर में फंसता जा रहा है

चार दिवारी छोड़ सड़क पर कामुकता दिखा रहा है
इंसानियत को हैवानियत का जामा ये पहना रहा है

अश्लीलता का नंगा नाच चैनलों पर होता जा रहा है
ओछेपन की चसक में मनुष्य ज्ञान खोता जा रहा है

अपना, अपनों को यहाँ बेख़ौफ़ धोखा दिए जा रहा है
जोंक बनकर अपनों के प्यार का खून पिए जा रहा है

धन के लोभ में इंसानियत छोड़ मन मारे जा रहा है
तन के मोह में गरिमाओं की अस्मत हारे जा रहा है 

मतिमंद है वो जो रोज़ इनको समझाता जा रहा है
जन्तु भी मानस की हरकत से घबराता जा रहा है

'निर्जन' सोचे देश में ये क्या अनर्थ होता जा रहा है
अश्व को नसीब ना घास गधा ज़ाफ़रान उड़ा रहा है

--- तुषार राज रस्तोगी ----

मंगलवार, दिसंबर 02, 2014

क़िस्मत




















मैं तो हर शब् से एक
रिश्ता बनाता गया था यूँ ही
जहाँ से भी गुज़रा यादों का
दरिया बहाता गया यूँ ही
पर मेरी क़िस्मत का
लिखा भी अजीब था 'निर्जन'
गुनेहगार कोई और था, और
सज़ा मैं पाता गया यूँ ही
हाँ, आज मैं ये तस्लीम करता हूँ
कि मुझे मोहब्बत नहीं मिलती
मगर, ओ मेरी सोच के मेहवार
कभी यह भी ज़रा सोचो कि
जो तुम को याद करता हूँ
तो खुद को भूल जाता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, नवंबर 29, 2014

इंतज़ार













उसके इंतज़ार में दिल मेरा बेज़ार हो गया
इतना तड़पा के हर ख्व़ाब तार तार हो गया

आँख नम थी पर होटों पर हंसी थी 'निर्जन'
आवाज़ सुन उसकी दिल बेक़रार हो गया

लगता था आवाज़ में चाशनी घुली थी उसकी
अलफ़ाज़ सुनते ही गुलिस्तान गुलज़ार हो गया

वो साँसों की तपिश, जिस्म की महक उसकी
वो अदावत, वो अदाएं, वो मासूमियत उसकी

सोचते सोचते दिल बहका सा जाता है मेरा
अब तो बस ये कहने को जी चाहता है मेरा

खुश रहे वो सदा हंसती रहे गुनगुनाती रहे
अपनी आँखों से यूँ ही चांदनी छलकाती रहे

उसके साथ बस यूँ ही जी लूँगा ज़िन्दगी अपनी
खुश जो रहे वो तो समझो ज़िन्दगी आबाद अपनी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

तरुण का बैंड बजा



















तरुण का बाजा बज गया
याड़ी अपना सज गया
ना ना करते धंस गया
शादी के फेर में फंस गया

दोस्त अपना है वकील
कहते जिसे अड़ंगा कील
घोड़ी कल चढ़ गया यार
घर ले आया अपना प्यार

महफ़िल भी जमी थी ख़ूब
नाच नाच डीजे पर कूद
हाथ पैर सब खूब चलाये
हम स्वराजी शादी में छाए

मनोज भाई हाईलाइट थे
अनशेवड डिलाइट थे
नाच नाच हुडदंग मचाये
मना करत वोडका चढ़ाये

यार अपने मनमौजी हैं
स्वराजी सब फ़ौजी हैं
सजे धजे दूल्हा बन आए
जलवे सबने खूब दिखाए

दिल से दुआ करते हैं यार
हर दिन तेरा हो त्यौहार
मिले ताउम्र सभी का प्यार 
'निर्जन' कहता जी खुल के यार

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, नवंबर 26, 2014

हम भी बदल गए
















इन मुश्किलों की राह में, हम बढ़ते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

आवारगी की मय से, हम जाम भरते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

फुर्कते-ग़म के चराग, हम भी बुझाते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

इश्क़ में बदनाम, हम सरनाम होते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

अंजाम से बेपरवाह, हम अब चलते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

दर्द की दास्ताँ को, हम यूँ बयां करते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

यूँ ज़िन्दगी को 'निर्जन', हम भी जीते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, नवंबर 25, 2014

मुझको



















ज़ख्म जलते हैं अज़ीयत नहीं होती मुझको
अब तेरी याद से वहशत नहीं होती मुझको

कोई आए कोई जाए दर्द नहीं होता मुझको
शरीक़े-ग़म की भी आदत नहीं होती मुझको

कुछ ऐसा बदला है फ़ुर्कत-ए-ग़म ने मुझको
अब झूठ बोलूं तो नदामत नहीं होती मुझको

मरकर भी कोई अब मार नहीं सकता मुझको
अब कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझको

इतनी जुनूं-ए-हवस जीने की हो गई है मुझको
अब सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती मुझको

वो कहती थी पा नहीं सकता 'निर्जन' मुझको
अब छू लेती है तो नफ़रत नहीं होती मुझको

अज़ीयत - कष्ट / torture;
वहशत - जंगलीपन / savagery;
शरीक़े-ग़म - दर्द का साथी / friend in pain;
फ़ुर्कत-ए-ग़म - जुदाई का दर्द / pain of seperation;
नदामत - झिझक / attrition;

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

आज का इंसान



















बाहर से आलोकनाथ है अन्दर शक्ति कपूर
आज का इंसान कितना कमीनेपन से भरपूर

सबक सैंकड़ों सीख कर भी आदत से मजबूर
लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, ग़द्दारी, चालाकी से भरपूर

पीढियां बीत गईं इसकी पर तहज़ीब है काफ़ूर
कुत्ते की दुम सी फ़ितरत है टेढ़ेपन से भरपूर

चलती फिरती नौटंकी है ये दुनिया में मशहूर
दिखावे खूब दबा कर करता ये झूठ से भरपूर

"निर्जन" कहता ऐसों से बेटा बनो नहीं तुम सूर
घड़ा पाप का जब भर जाए तब दंड मिले भरपूर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, नवंबर 03, 2014

मेरी ज़िन्दगी













तुमने रात भर तन्हाई में सरगोशियाँ की थीं
तेरी नर्म-गुफ्तारी ने रूह को खुशियाँ दी थीं

बातों ने संगीतमय संसार बक्शा था रातों को
यादों ने नया उनवान दिया था मेरे ख्वाबों को

तुमने 'निर्जन' इस दिल का सारा दर्द बांटा था
तेरी रूमानियत ने रात को फिर चाँद थामा था

मेरे आशारों में इश्क़ इल्हाम की सूरत रहता है
मानी बनके तू लफ़्ज़ों को मेरे एहसास देता है

तेरे होने से ज़िन्दगी हर लम्हा गुल्ज़ार रहती है 
तेरी पायल की आहट कानो में संगीत कहती है

गुफ्तारी : वाक्पटुता, वाग्मिता, वाक्य शक्ति, बोलने की शक्ति
कर्ब : दुःख, दर्द, बेचैनी, रंज, ग़म
उन्वान : शीर्षक, टाइटल
इल्हाम : प्रेरणा
मानी : ताक़तवर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, नवंबर 02, 2014

अब भी



















मचली हुई हैं गुज़री रात की सरगोशियाँ अब भी
तेरे इश्क़ की ख़ुशबू साँसे महका रही हैं अब भी

तड़पता दिल बड़ी शिद्दत से बहक रहा है अब भी
तेरी बातों की चसक चराग़ जला रही हैं अब भी

ख्वाहिश चाँद छूने की पूरी नहीं हुई है अब भी
तेरी अब्र-ए-नज़र दिल में झाँक रही हैं अब भी

बयां करना नामुमकिन ये बेख़ुदी है अभी भी
तेरे जिस्म की कसमसाहटें सता रही हैं अब भी

ये जज़्बात बहते आबशार की मानिंद हैं अब भी
ख़ुशनुमा मौसम देख होठ मुस्कुरा रहे हैं अब भी

अब्र : बादल
आबशार : झरना

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अक्तूबर 28, 2014

तेरा इश्क़ ही बस साथ है













बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ

कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ

मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ

वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ

नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ

जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ

साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ

शरर -  चिनगारी, स्पार्क

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, अक्तूबर 20, 2014

मोह














हे ईश्वर
मानव को
अपने रिश्तों का
मोह क्यों होता है ?
उसके खींची हुई
रिश्तों की कड़ी
ज्यों ज्यों बढ़ती है
उसका मोह
उतनी ही मज़बूत
ज़ंजीर में उसको
जकड़ता है

एक कैदी की
बड़ियों की तरह
हर समय
कष्ट देती है
जैसे कैदी को
इस कष्ट से
स्वयं मुक्ति
नहीं मिल सकती
उसी प्रकार
इन रिश्तों से
उबरने की
कोशिश करने
पर भी
मानव
अपने आप को
टूटा हुआ
होते देख कर भी
शायद
कैदी की भांति
बेबस है
अपने आप में
खोया हुआ
पाता है

मोह से अलग
अपने जीवन को
सोचना और
समझना उसकी
सामर्थ्य से
चेतना से
बहार हो जाता है
जब वो
इस कवच को
उतार फेंकता है
तब दो स्तिथियाँ
उसे मिलती हैं
जीवन में
ईश्वर का मिलन
और दूसरी वो
जिसमें वो
इतना व्याकुल
और बेबस
रहता है जैसे
बिन पानी प्यासी मीन

हे ईश्वर
हर मानव को
जल में
कमल की भांति
रहने की शक्ति दो
वो
जन्म के
कर्म के
मोह के
उस कड़वे
बंधनों से
सदैव मुक्त रहे
पावे तेरा
पावन धाम
अपने जीवन की
अनंत यात्रा में

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, सितंबर 18, 2014

ढ़ोल गंवार शूद्र पसु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी


प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढ़ोल गंवार शूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥


आज कुछ दोस्तों से एक बात पर परिचर्चा हो रही थी | बात थी तुलसी दास जी द्वारा लिखी गई सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई का एक भाग जो धीरे धीरे हमारे बीच एक वाद विवाद का विषय बन गई | उक्त "चौपाई"  के माध्यम से तुलसीदास जी ने उस समय का वर्णन किया है जब भगवान् श्री राम ने समुन्द्र देवता से लंका जाने की लिए रास्ता देने का आग्रह किया था | कदाचित तुलसीदास जी (१५३२ - १६२३) की यह सबसे गलत समझी गई "चौपाई" है | इस चौपाई में जो शब्द "ताड़ना" आता है मेरे अनुसार शायद उसका अर्थ "तारना" या " "ताडयेत्" या महज़ "ताड़ना" हो सकता है | जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज तक शायद ही किसी एक शब्द ने किसी की प्रतिष्ठा को इतना नुक्सान पहुँचाया हो जितना इस शब्द ने तुलसीदास जी की ख्याति को पहुँचाया है |

यह अपनी अपनी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है के कौन "ताड़ना" शब्द का क्या मतलब निकालता है | आइये अब ज़रा इस शब्द को स्थापित करके देखते हैं कैसे क्या मतलब निकलता है ?

यदि हम इस शब्द का मतलब "तारना" लेकर चलते हैं तो पूरी की पूरी चौपाई का अर्थ बहुत ही सुन्दर निकल कर आता है | अर्थात:

ढ़ोल, मूढ़, गरीब, जानवर और नारी सभी को ऊपर उठाये जाने, मतलब उत्थान का हक है |

पंद्रहवी शताब्दी में जिस प्रकार की कुरीतियाँ और बुराइयाँ समाज में थी उसे देखते हुए तुलसीदास जी ने नारी की तुलना गरीब, जानवर, ढ़ोल और निपढ से की है, उस समय क्योंकि इनमें से किसी को भी अपनी मर्ज़ी और नियति के बारे में फैंसला करना का कोई हक़ नहीं था | परन्तु इस सन्दर्भ में यदि आज के आधुनिक समाज के लोगों से पूछेंगे तो वो तुलसीदास जी के उस उदाहरण से ज़रा भी सहमत नहीं होंगे | पर यदि हम उस समय के परिवेश को ध्यान में रखकर सोचेंगे तो पंद्रहवी शताब्दी में नारी को पुरुष के समक्ष वो अधिकार प्राप्त नहीं थी जो आज की नारी को हासिल हैं |

अब यदि इसका दूसरा अर्थ देखें अर्थात "ताडयेत्" से जो की संस्कृत भाषा का शब्द है तो इसका मतलब निकलता है "कठोर अनुशासन" या "पिटाई" | तो इस लिहाज़ से देखें तो पूरी चौपाई का अर्थ बिलकुल ही बदल जाता है |

ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सभी की अच्छे से पिटाई करनी चाहियें जिससे वह ठीक तरह से कार्य कर सकें | इस चौपाई का यह स्पष्टीकरण शायद उन लोगों द्वारा दिया गया है जो विस्पंदन करने में विश्वास रखते हैं और तुलसीदास जी के विरोधी हैं | इस आशय में कभी भी मुझे कोई अर्थ नज़र नहीं आता सिर्फ अनर्थ ही दिखाई देता है क्योंकि तुलसीदास जी तो महिलाओं को अत्यंत मान-सम्मान देते थे और वह स्वयं आदमी और औरतों के बराबर अधिकारों के लिए पक्ष्समर्थाकों में से एक थे ऐसा रामचरितमानस और उनके अन्य लेखन कार्यों  में उनके "दोहों" और "चौपाइयों" में साफ़-साफ़ प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट होता है | लोगों को यह भी ज्ञात होना चाहियें कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी को अत्यंत प्रेम करते थे और उनकी पत्नी द्वारा जनता के बीच उनकी प्रताड़ना ही उनका सांसारिक मोह से विमुख होने का मुख्य कारण बना था | रामचरितमानस की रचना भी उन्होंने उसी के बाद की थी |

अब यही हम इस चौपाई का तीसरा अर्थ देखते हैं जो कि मेरी निगाह में किसी निपुण, प्रतिभाशाली महानुभाव का कार्य ही लगता है....!!!

व्याख्या कुछ इस प्रकार से है कि एक ढ़ोल, एक निरक्षर या गरीब और बुरी स्त्री (चरित्रहीन नारी), यह सब पीटने योग्य हैं जिसके होने से यह सब अपना सर्वस्व देकर सही तरह से काम करते हैं ...!!! इस व्याख्यान की खासियत यह है कि इसमें जो शब्द "गंवार" और "पशु" हैं वो "शुद्र" और "नारी" के लिए विशेषण के रूप में उपयोग में लाये गए हैं |

वैसे माफ़ी चाहूँगा लेकिन एक और मज़ाहिया नज़रिया भी हो सकता है इस चौपाई का जो मैं बैठे बैठे सोच रहा हूँ अर्थात यदि हम शब्द "ताड़ना" को आज की स्तिथि में रखकर देखें या यूँ कहें की "कलयुगी रूप" में देखें तो उसका मतलब होता है "निष्कपट भाव से टकटकी लगाकर किसी को देखना (नज़रों से किसी को टटोलना)" लिहाज़ा मतलब यह निकलता है की किसी की सुन्दरता का रसपान करना और यह तो सर्व विदित है कि सभी खूबसूरत नारियां हर तरह से देखने योग्य होती ही हैं और किसी के सौंदर्य को देख निगाहों को ठंडक देने में कौन सी बुराई है ... !!!

बस भैया बाक़ी तो बस राम ही राखा ... हा हा हा ... जय श्री राम ... हर हर महादेव शिव शम्भू ...जय बजरंगबली महाराज ... :)

Faceless by Nizam Ahmed - Book Review

Faceless....by Nizam Ahmed

First of all I would like to thank becomeshakespeare.com for sending me books to read and review them.

Its really like that I deliberately and seriously want to criticize the book "Faceless" and its author. Whatever I am posting and writing here in this review after reading the book, is completely based on my personal opinion. The writing, the language, the plot, the narration & every single thing of this book is abrogating & nugatory. Leaves a very amatory impression about the author and his thoughts.

 




  • Faceless - what kind of a name is this ? Such a depressing and negative title. Cover page of a book with such dark feeling. I strongly felt it would have been much better if the writer would have given some adventurous name analogous to the plot.
  • The language is very mediocre.
  • Though the plot or idea of a superhero is really exciting but the author have killed it himself with his writing skills. He could have managed to bring this plot so beautifully but just bobbled and bumbled the whole creativity.
  • When we are talking about the superhero thing, it has to be interesting, full of surprises, action, power pact with rainbow of super powers creating some chain of events but here in this book no creativity, originality, inventiveness and imagination is shown in this context. Can anyone ever imagine of a superhero with only one superpower throughout the book while its told that he is a defender with excessively heroic powers.
  • From the start of the book till it finishes, it seems as if i have been watching some "C" grade movie which is a mix concept of South Indian, Bhojpuri and Bollywood cinema with abstracted ideas from various boring sources like mix of quotidian flicks and low-cost novels & stories where superhero protagonist and the main antagonist both are so predictable. The overall idea is a complete cliche. A depressing love story where the female lead never ever expresses anything properly. Instead she is a kind of conundrum to everyone.
  • The superhero section is also not very out of the box thinking. I felt its a depreciated mix of stolen ideas from various superhero movies.

I definitely would not recommend this book as a must read. Its very disappointing and I personally feel is totally a waste of time. I author is very kiddish and need more maturity in his writing. I am sorry to say but I seriously did not liked this book at all. I generally don't write reviews like that but this book is literally an exception. I rate this book 1/5. Overall one of the most pathetic book I have ever read.

मैं तुमसे प्यार करता हूँ



















मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
हाँ, बहुत प्यार करता हूँ,
आज इकरार करता हूँ,
पर कम ही बता पाया हूँ,
ख्वाबों में,
तुमसे मिलने की तमन्ना लिए,
बिछाता हूँ शान से बिस्तर,
फिर,
सारी रात बदलकर करवटें,
याद करता हूँ तुम्हे,
बेचैन रहता हूँ,
आँखे मूँद रमता जोगी बन,
लगता हूँ ध्यान
पर यह अलग बात है,
सो बिलकुल नहीं पाता हूँ,
हर दफ़ा सोचता हूँ,
ना देखूं तुमको,
पर खुदा जाने ऐसा क्या है,
तुम्हारे गुलज़ार चेहरे में,
कि हर शब् बिना देखे तुम्हे,
रह नहीं पाता हूँ,
एक नज़र तुम जो देख लो,
मुझको 'निर्जन',
फिर,
बिना साँसों के जी सकता हूँ,
मैं तुमसे जितना भी,
प्यार करता हूँ,
उतना ही,
कम कह पाता हूँ...

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शेर-शायरी

तू कहे तो फलक की जगमगाहट तेरे आँचल में उतार दूं
तेरी हर उम्मीद को मान कर धर्म जीवन भर सम्मान दूं
दिल से तमन्ना है हर ख़ुशी को तेरी मैं चाहत से संवार दूं
जो तू कहे 'निर्जन' इस प्यार पर जान हँसते हुए निसार दूं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

ऐ जान अभी ना जा

ऐ जान अभी ना जा,
ज़रा कुछ देर तो ठहर "निर्जन",
अक्सर साथ तेरा पाया है मैंने,
तन्हाई मेरी मिटाने को,
अकेलेपन के इस विराने मे,
हक अपना जतलाने को,
गम से निजात दिलाने को,
इन होठों को हंसाने को,
दोस्ती अपनी निभाने को,
प्यार से गले लगाने को,
अपना कोई कहलाने को।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी,
कुछ यादें पुरानी बाक़ी हैं
कुछ ख़ुशी लुटानी बाक़ी हैं,
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाक़ी हैं,
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी हैं,
कुछ ग़म छिपाने बाक़ी हैं,
कुछ ज़ख्म मिटने बाक़ी हैं,
कुछ नगमे सुनाने बाक़ी हैं,
कुछ किस्से बताने बाक़ी हैं,
कुछ मुझमें थोडा बाक़ी है,
कुछ उनमें थोडा बाक़ी है,
ज़िन्दगी की दौड़ में 'निर्जन'
सच कितनी आपा-धापी है
आहिस्ता गुज़र.....

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, सितंबर 16, 2014

मानव - मानवता



















बढ़ा हाथों को अपने झुका दो आसमां धरती पर
चीर सीना पाषाण का नदियाँ बहा दो पृथ्वी पर
थरथरा दो सब दिशाएं तुम्हारी एक हुंकार पर 
प्राणों की आहुति सजा दो माटी की पुकार पर

प्रतिरोध कोई आड़े ना आए राह में बढ़ने पर
पाठ मुश्किलों को पढ़ा दो ठोकरों की मार पर
सफलता कभी मिलती नहीं है यारों मांगने पर
जीत को महबूबा बना लो खेल अपने मान पर

कोई हँसे ना अमन और शांति की बातों पर
दुश्मनों को ये बता दो एक ही ललकार पर
डरना फितरत में नहीं है शांति के नाम पर
डर को आईना दिखा दो क्रान्ति के दाम पर

फूल बंजर में खिला दो पृथ्वी के हर कोने पर
मेहनत कर सोना उगा दो खेतों की छाती पर
अब तो ज़रा मरहम लगा दो देश के ज़ख्मो पर
अब तो भरोसा जगा दो इंसानों का इंसानों पर

भेद-भाव को त्याग भाईचारे को अपनाने पर
जनता के ह्रदय में प्यार का भाव जगाने पर
जाति,ऊँच,नीच,भाषा,धर्म की बेडी तोड़ने पर
'निर्जन' देता ज़ोर मानव को मानवता से जोड़ने पर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, सितंबर 12, 2014

मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे


तुम बन गई हो स्वभाव मेरा
तुम से जीवन है ख़ास मेरा
तुम अब रोजमर्रा की आदत हो
तुम ख़ुदा के मानिंद इबादत हो
तुम बेस्वाद ज़िन्दगी में स्वाद हो
तुम विनोदी घटनाओं में ख़ास हो
तुम मज़ेदार कहानी सा किस्सा हो
तुम ज़ोरदार लतीफ़े का हिस्सा हो 
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

कितनी ही बातें की हैं मैंने तुमसे
कितने जज़्बे, इरादे कहे हैं तुमसे
कितने दर्द सहे हैं रहकर दूर तुमसे
कितनी ही बातें अनकही हैं तुमसे
कितने अरमां बाक़ी है कहने तुमसे
कितनी अधूरी है जुदा ज़िन्दगी तुमसे
कितनी उन्सियत है दिल को तुमसे
कितना भी कहूँ हमेशा कम है तुमसे
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

साथ हमने जीवन का रंग देखा है
साथ तुम्हारे हर मौसम चहका है
साथ तुम्हारा महकती कस्तूरी है
साथ नहीं जो ये ज़िन्दगी अधूरी है
साथ चलते शाम-ए-हयात आएगी
साथ मोहब्बत का पैग़ाम लाएगी
साथ का तेरे यकीन है हमदम
साथ हर पल है तेरे प्यार का बंधन
तुम ही कहो ना परमप्रिय
'निर्जन' इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, सितंबर 08, 2014

कल्पना तू ही
















तुझसे हैं सुबहें मेरी
तुझेसे ही शामें मेरी
तुझसे रातें दहकती मेरी
तुझसे हैं बातें मेरी
जिस्म में दिल की जगह
अब तू ही तू धड़कती है
आईना देखूं जो मैं
मेरे अक्स में तू झलकती है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं
जो तू है तो सब कुछ यहीं
तेरा हूँ मैं और तू मेरी
‘निर्जन’ की है कल्पना तू ही
तुझसे हैं...


--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, अगस्त 29, 2014

मेरा अंदाज़ नहीं














मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं 
मालूम है, दूर तक कोई आवाज़ नहीं
मालूम है, अनजाने ये हालात नहीं
ये तो वक़्त ने ऐसी हालत कर दी है
नहीं तो ऐसे जीना मेरा अंदाज़ नहीं

सवेरा कब हो चला कुछ मालूम नहीं
शाम कब ढल गई कुछ मालूम नहीं
गुज़ारा कैसे हुआ कुछ मालूम नहीं
ये तो सोना जागना ऐसे हो गया है
नहीं तो ऐसे घुलना मेरा अंदाज़ नहीं

मालूम है, दूर तक आज रौशनी नहीं
मालूम है , रहता बहुत कुछ याद नहीं
मालूम है, मैं हूँ आज भी गलत नहीं
ये तो ज़माना है जो बातें बनाता रहता है 
नहीं तो ऐसी बर्बादी मेरा अंदाज़ नहीं

ये वक़्त भी निकल जायेगा 'निर्जन'
क्योंकि घने अँधेरे के बाद सुबह नहीं
ईश्वर ने बनाई ऐसी कोई रात नहीं
मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं 
नाराज़गी अपनों से मेरा अंदाज़ नहीं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, अगस्त 28, 2014

जानबूझकर















सिलसिला-ए-गुफ़्तगू चलता रहा तुमसे
इत्तफ़ाक नहीं करता था मैं जानबूझकर

साथ चलते यूँ ही छू जाता है हाथ तुमसे 
या तुम छू लेती हो मेरा हाथ जानबूझकर

जानता हूँ सड़क पर चलना आता है तुमसे 
थामता हूँ हाथ तुम्हारा मैं भी जानबूझकर

बस गुज़र रहा था, मिलने चला आया तुमसे
मुलाकातें चाहता हूँ मैं मुसल्सल जानबूझकर

'निर्जन' हाल-ए-दिल मेरा छिपा नहीं है तुमसे
ना जाने क्यों करता हूँ इनकार मैं जानबूझकर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, अगस्त 27, 2014

सच्ची सकारात्मक सोच

सोच बदलेगी, किस्मत बदल जाएगी
नज़र बदलेगी, नेमत बदल जाएगी
आसमां पाना हो, तो परवाज़ मत बदलना
परवाज़ बदलोगे, तो हवाएं बदल जाएँगी

हमारी प्रजाति मनुष्य की है। यह सोच का कीटाणु केवल हम मनुष्यों में विद्यमान है। यह कीटाणु कभी सकारात्मक होता है कभी बहुत ही विध्वंसक होता है। इस पर किसी का ज़ोर नहीं होता, परन्तु इसके आधार पर यह सीखा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सोच को यदि बुद्धिमानी से नियंत्रित करे तो वह एक सफल जीवन यापन कर सकता है और जीवन में सफलताओं और असफलताओं से ऊपर उठ सकता है। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति के जीवन में सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह शक्ति इसे जानवरों से मुख़्तलिफ़ करती है। सोच का मनुष्य के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। यही कारण है कि इंसान के विचारों को कैसा होना चाहिए, उसे कैसे व्यवस्थित करना चाहिए और उसके मन पर विशेष विचार का प्रभाव कैसे पड़ता है? यह मनुष्य स्वयं ही निर्धारित करे तो बेहतर है नहीं तो उसमें और कुत्ते की पूँछ में क्या फ़र्क रह जायेगा।

मैंने सुना था "ज़िन्दगी में हम जो भी कार्य करते हैं या जैसा भी बनते हैं उसके पीछे हमारा स्वाभाव, हमारे संस्कार तथा हमारी संगत आर्थात हमारे यार-दोस्त या रिश्ते-नातेदार जिनकी सोहबत में हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिताते हैं, का गहरा प्रभाव होता है" लेकिन जिस दिन आप अपनी सोच से अपने जीवन के फैसले खुद लेने लग जाते हैं उस क्षण के पश्चात् से यह प्रभाव, यह स्वाभाव, यह संस्कार और उस सांगत का कोई भी असर आपके ऊपर नहीं रहता। आपकी सोच अपने में इतनी सशक्त हो जाती है जो ना आपको बहकने देती है, ना बदलने, और ना अपने लक्ष्य से डिगने देती है।

इंसान जैसी सोच रखता है वैसा ही बन जाता है । सोच वही होती है जैसा हमारा मस्तिष्क आचरण करता है, जैसा हम करना चाहते हैं और उसे पूर्ण करने हेतु जो रास्ता हम अख्त्यार करते हैं । सच कहूँ तो वही हमारा वास्तविक स्वाभाव होता है और अंत में हम अपनी सोच के अनुरूप ढल जाते हैं । अगर पंक्तियों के माध्यम से अपने इस भाव को व्यक्त करना चाहूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि :

जैसा सोचोगे, वैसा बोलोगे
जैसा बोलोगे, वैसे करोगे
जैसा करोगे, वैसी आदत बनेगी
जैसी आदत होगी, वैसा चरित्र बनेगा
जैसा चरित्र बनेगा, वैसा जीवन आधार बनेगा
जैसा जीवन आधार बनेगा, वैसी ख्याति होगी
जैसी ख्याति होगी, वैसा वर्तमान होगा
जैसा वर्तमान होगा, वैसा भविष्य होगा

सोच यूँ तो बहुरूपी है परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यह दो ही रूपों में समाहित है - सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच

यदा-कदा हम आपस में तर्क-वितर्क करने बैठ जाया करते हैं परन्तु अंत में वह बहस तर्क-कुतर्क में बदल जाती है और आपसी मतभेद और झगड़े-फ़साद की जड बन जाती है। उस समय इंसान और कुत्ता-बिल्ली में कोई फ़र्क नहीं रहता। अब तो तर्क-वितर्क सिर्फ नाम के रह गए हैं असल में तो तर्क-कुतर्क ही सोच के नए रूप हो गए हैं। कुतार्किक सोच, सोच का एक आधुनिक रूप है, और मैं ऐसा मानता हूँ कि यह एक (अस्वाभाविक) तरीका है। यहाँ सोच और संगत कर रही बातों के बीच के संबंध को हम सांसारिक रूप के अनुसार सोच कर पारंपरिक तरीके का नाटक करने के लिए औपचारिक तर्क के नियमों को दर्शाते हैं। ज्ञान भले ही अधूरा हो, हो न हो पर आडम्बर, ज़िद और बहस पूरा होता है। आजकल इस मॉडर्न सोच का बहुत प्रचलन देखने को मिलता है। जिसे देखो अपनी बात का ढ़ोल बजकर या सोच की पुष्टि हेतु तर्क देता नज़र आता है फिर वो तर्क भले ही ग़लत क्यों न हो, ऐसे में व्यक्ति को लगने लगता है वह ही आइन्स्टाइन का पड़पोता है या न्यूटन का तोता है। अक्सर बैठकों, गोष्ठी, सभाओं और सम्मेलनों इत्यादि में डंडीमार सोच या भांजिमार सोच वाले सूरमाओं को देखा गया है यह वो कौम होती है जो कभी भी सकारात्मक सोच से इत्तेफ़ाक नहीं करती हमेशा उसकी काट में लगी रहती है। इनके कारण कई बार कुछ समय के लिए अच्छी सोच वाले लोग भी बहक जाया करते और बनते काम बिगड़ जाया करते हैं। खुदा लानत भेजे ऐसे चिल्गोज़ों पर जो न खुद की सोच रखते हैं न किसी और की ज़हीन सोच का एहतराम करते हैं।

इसी तरह सोच के कई अन्य रूप भी सामने आये हैं जैसे - सोशल मीडिया सोच, टीवी सीरियल सोच, बड्बोली सोच, कामचोर की सोच, गधे की सोच, नेता की सोच, चाटुकार की सोच, बच्चे की सोच, बूढ़े की सोच, आशिक़ की सोच, माशूक की सोच, बीवी की सोच, पति की सोच, सास-बहु की सोच, पति-ससुर की सोच, जोरू के गुलाम की सोच, आवाम की सोच, बद की सोच, बदनाम की सोच, छिछोरे की सोच, बेटे की सोच, बेटी की सोच, अनाड़ी की सोच, खिलाड़ी की सोच, अफ़सर की सोच, नौकर की सोच, सफल की सोच, असफल की सोच, भिखारी की सोच, पूंजीवादी की सोच, विभीषण की सोच, सिपाही की सोच, दार्शनिक सोच, काल्पनिक सोच, विरोधाभासी सोच, सुसंगत सोच, कुसंगत सोच, संरचित सोच, सबूत के आधार पर सोच, अवधारणा आधारित सोच, न्यायपूर्ण सोच, तुलनात्मक सोच, स्पष्ट सोच, अस्पष्ट सोच, विश्लेषण सोच, संश्लेषण सोच, आलोचनात्मक सोच, सामान्यीकरण सोच, अमूर्त सोच (सार सोच) और अन्य कई प्रकार की सोच जिनकी क्षमता मनुष्य के मस्तिष्क में है क्योंकि सोच की हद तक कोई नहीं जा सकता और किसकी सोच किस हद तक जा सकती है यह कोई नहीं बता सकता। कहने को इनके रूप अनेक हैं परन्तु इनकी मुख्य श्रेणी यही दो हैं। सोच के इन विभिन्न रूपों के गुण-अवगुण जानकर उपयोग करने के पीछे ज़िम्मेदार केवल मनुष्य और उसका मस्तिष्क ही होता है। मुझे ऐसा लगता है सोच हमेशा सम होनी चाहियें। सभी पक्षों, परिस्थितियों, प्रभावों, परिणामो और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को बनाना चाहियें। सोच का दायरा सीमित नहीं असीमित होना चाहियें लेकिन सही दिशा में और सकारात्मक विचारधारा के साथ।

सकारात्मक सोच हमको ऊर्जा प्रदान करती है और हमारी गुप्त क्षमताओं को उजागर करती हैं। यह विचारधारा अवसरों के संबंध में चेतना में वृद्धि करती है। अच्छी सोच हमारे जीवन के अंधकारमय आयामों को प्रकाशमय करती है और हमारे अस्तित्व में गुप्त आयामों को स्पष्ट करती हैं। अच्छी सोच रखने वाला व्यक्ति घटनाओं की आशाजनक व्याख्या करता है और उसकी अच्छाइयों का पता लगाता है और रचनात्मक समाधान के मार्ग को पा लेता है जिसे ग़लत सोच रखने वाला समझ भी नहीं पाता। सकारात्मक सोच जीवन में आशा और उत्साह में वृद्धि का कारण बनती है, ऐसी आशा जिसके बिना जीवन लगभग असंभव हो जाता है।

एक अच्छी जिन्दगी के लिए एक अच्छी सोच का होने बेहद जरूरी है और आपकी प्रबल सोच हकीकत बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेती है। “सपने देखने का अधिकार भी उन्ही को है जो उसे पूरा करने का साहस भी रखते है” । किसी ने सच्च कहा है कि "हम अपनी सोच के आधार पर जो चाहे वो बन सकते है"। कहते है कि "अगर दिल से चाहो तो भगवान् को भी पाया जा सकता है"। इसी तरह से "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है", यहाँ भी भाव उसी सोच और उसे क्रियान्वित करने का है। आप जितना बड़ा सोचते हो उसे हकीकत में बदलने के लिए आपको बलिदान् भी उतना ही बड़ा देना पड़ता है। आदमी वह नहीं है जो चेहरे से दिखता है, आदमी वह है जो उसकी सोच से दिखता है।

अपनी इस सोच को मैं कुछ इस तरह विराम देना चाहता हूँ कि "हम खुद अपने भाग्य के रचयता है" जैसी होगी अपनी सोच और जिस ओर पग बढ़ाएंगे वैसा ही परिणाम हम पाएंगे और वैसे ही बनजायेंगे। मुझे लगता है "यदि हम सदा आलस्य, अशांति, असफलता, शत्रुता, कटुता, हार, चिंता, दुःख, द्वेष, लालच, जलन, भूख, गरीबी, बीमारी, लड़ाई, झगड़ा इत्यादि के बारे में सोचेंगे तो हमारे सामने हमेशा यही आता रहेगा किन्तु यदि हम हमेशा जीत, ख़ुशी, सामंजस्य, जाग्रति, शांति, अमीरी, सफलता, मित्रता, शीतलता, विश्वास, प्रेम, सद्भाव, दया आदि के बारे में सोचेंगे तो हमको ज़िन्दगी में यही सब प्राप्त होगा" इसलिए जहाँ तक हो सके बड़ी सोच रखें, सकारात्मक और सुलझी हुई सोच रखें, दूसरों से जल्दी, अच्छा और कलात्मक सोचें और निर्णय लेने की क्षमता रखें, सोच के पंखों को खुले आसमान की परवाज़ दें, व्यवहार कुशल सोच रखें, माफ़ी देने की सोच रखें, आशावादी सोच रखें जो आपस में क्रियान्वित हो सके। यदि आप ऐसी सोच के मालिक होंगे तो आपका जीवन निश्चित रूप से सफल होगा और आप आकाश की ऊँचाइयों पर विचरण करने में सफल होंगे एवं जीवन में गौरवान्ति महसूस करेंगे । सकारात्मक सोच पर भरोसा करते हुए दिनचर्या के कामों को सरलता से निपटाया जा सकता है और नया व स्पष्ट जीवन आपकी प्रतीक्षा में होगा और आपके सामने ख़ुशियों का ठाठे मारता समुद्र होगा। आपकी सच्ची सकारात्मक सोच ही आपके जीवन की सफलता और असफलता का पर्याय है | ज़रा सोचें !!!

"अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे, जिसकी जैसी सोच थी उसने उतना ही पहचाना मुझे"

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, मई 09, 2014

I shall Not Hear the Nightingale

After a very long time i have read such fine novelty by Late. Mr. Khushwant Singh. One of the finest stories i have read so far told with such ease and simplicity. What a writer, what command over the language, bluntness, openness, situations, characters, narration and spellbinding story telling. 

The novel was all set to convey the story of a family where each family member have got their own independent thinking and ways of living yet they are bonded together with love, affection, respect, dedication, loyalty, tears, gratitude, attitude, and faith in Almighty. 

The loyalty of a magistrate towards the British Raj with the heart of a father for a son at home, the belief and affection of a mother and a wife, the generative, passionate, blooming hale of a young wife, the sincerety of a son and a husband, whimsical and flirtatious youth, the rake lover, opportunistic Infidelity, honesty of maid and servant, patriotism in human genes, obedience and truthfulness of a tamed dog and sympathies of an english man towards an indian family. Full on drama, suspense, action, thrill, sex, murder, plotting, crime, jail, politics, manliness, womanhood all this and lot more....excellently composed and swarmed in the form of a book. 

The character of Sarbhai is really very humble and devoted. Marvellous job done with her characterization. Complete portrait of Indian mother. I had tears in my eyes while reading about her demise in the chapter. Such a dignified and true portrait of Indian woman. 

Well...! Its the first novel that i have read by him and i can proudly say that i have an urge to read more by him. I am totally in love with his writing. The novel indeed is really very engaging. I completed it in 3 days. The more i read the more i crave to know more. Its been really an awesome experience. 

Will recommend it to everyone who like to read and also to those who don't like to read because after reading this they will start liking to read books.

शनिवार, मई 03, 2014

My Review for the book - Potluck

Potluck - Just finished reading this book. 

A bouquet of thoughts framed into stories featuring amazing collection of soulful exaggerations, sensible, intriguing, engaging, full swing drama, emotions, love, pain, relationships, memoirs, peace, devotion, adoration and so much more...that seems just plain truth inspite of being imagination. A book full of variety from all aspects of life which makes it a good read with a enjoyable but kindda serious starting... of course the book is DAMN GOOD !!!... Finally everything starts to interwine as you start reading the book and you just go mesmerised until you finish the book.. you won't be able to keep the book down once you start it and thats a guarantee!! 

I have just finished reading this book. Nicely woven basket of short stories. Seems totally realistic. Featurelessly narrated. Apposite characters. Enjoyable wordings. Congruous vocabulary.  After reading the stories i am having a feel that this book may have a potential to create buzz among the masses as the stories are close to reality and rings a ting in readers mind by reminding of similar incedents that may have happened with him in past. I wanted to give a detailed storywise review but due to scarcity of time avoiding it. So i will be giving complete analysis of the book in one go. 

The stories are really good. But just have one question in mind - why to start a book with an incident that ends up with such sad ending of blood and death ? Something jovial, happening, interesting, comical, and sparky must have been used to generate a fire in the minds of the reader and to develop excitement and interest in this book. Otherwise all other stories are quite decently told. Overall reading this book is a satisfying experience.

Some of my personal favourite stories that i enjoyed reading and liked most are : 

1. Pink - My Favourite Colour by Bhavini Merchant Dayal
2. The Peas, the Peck and the Pickles by Bhavini Merchant Dayal
3. A Weekend at Aspect Hall by Janki Thackersey
4. Ma's Waiting by Renu Balakrishnan
5. The Lady on the Plane by Richa S. Chatterjee
6. The Reunion by Richa S. Chatterjee

I will rate this book 3.5/5 stars. Also, will recommend this book to everyone those who really enjoy reading astute fiction and non fiction about life and relations.

गुरुवार, अप्रैल 24, 2014

रे मुसाफ़िर














रे मुसाफ़िर चलता ही जा -

नहीं तो राहों से चूक जायेगा
पहुंचेगा कहाँ, वहाँ जहाँ तू
अपने आप को भूल जाएगा
तू तनहा राह में रह जायेगा

जीवन है काँटों की झाड़ी
उलझ अटक रह जायेगा
आधी को संजोने खातिर
तू पूरा जीवन गंवाएगा

छूट जायेगा अपने से तू
भूल जायेगा जीवन को तू
रे मुसाफ़िर मंज़िल को भी
तू, फिर छोड़ कर जायेगा

इस दुनिया से तू बेगाना सा
तेरे ख्वाबों के रंग उड़ जायेंगे
सब राहे होंगी अनजानी तब
सबसे छूटेगा अपने से टूटेगा

मंजिल कभी खत्म ना हो तेरी
मंजिल से कभी तू भटके ना
यही प्रार्थना करता हूँ मैं
लिए हाथों में यह दीपशिखा

राह में जब अंधियारा छाएगा
निर्भय होकर तू चलता चल
यह दीपशिखा तुझको पल पल
तेरा मार्ग दिखलाएगी

रे मुसाफ़िर तू चलता चल
नहीं तो राह में रह जायेगा
पीछे मुड़कर ना देख ज़रा
वरना जीवन में पछतायेगा

रे मुसाफ़िर चलता ही जा....

मंगलवार, अप्रैल 08, 2014

आराधना - अंडे और दुविधा

“सुनो ना – कुछ तो बोलो ! आज तुम बात शुरू करो ना मैं ज्वाइन करती हूँ फिर | तुम कोई टॉपिक तो सेलेक्ट करो ना, प्लीज...” एक अबोध बालिका की तरह उसने राज से धीमे से फ़ोन पर यह कहा और बड़ी ही सरलता से उसके कानों तक अपनी मीठी आवाज़ में यह बात उस तक पहुंचा दी | 
“क्या यार ! रोज़ रोज़ यही होता है, मैं ही क्यों तुम क्यों नहीं ? तुम इतना जो पढ़ती हो उसका कुछ तो फायदा मिले | कभी कोई बात खुद भी शुरू किया करो ना | कोई टॉपिक खुद भी चुना करो कभी तुम | हमेशा ऐसे ही ख़ामोश बैठ जाया करती हो | मैं कोई स्कूल का हेडमास्टर या कोई रेडियो थोड़े ही हूँ जो बोलता रहूँ या बजता रहूँ सुबह शाम |” इतना सुनकर कुछ पल के लिए दोनों के बीच एक ख़ामोशी छा गई फिर थोड़ी देर के बाद राज को ही बोलना पड़ा – “ओह हो ! तुम्हारे नखरे – ज़रा कुछ कह दो, तुरंत साइलेंट मोड ऑन कर के बैठ जाती हो | ठीक है बात मान लेता हूँ, मैं ही शुरू करता हूँ | आज खाने पर बात करें क्या ? ईटिंग हैबिट्स - पर आज तक नहीं की है बात, बोलो तो - क्या कहती हो ?”

“अरे वाह ! एक दम नया टॉपिक है - बोलो कैसे शुरू करना है |” आराधना नए वार्तालाप के लिए बेहद उत्सुक हो रही थी | उसे इंतज़ार था राज द्वारा पूछे जाने वाले सवालों का और मन ही मन हर्षित हो रही थी | 

“तुम्हे क्या पसंद है वैसे ? सबसे अच्छा क्या लगता है ? बताओ सबसे अच्छी डिश कौनसी लगती है ? किस तरह का कुज़ीन तुम्हे आकर्षित करता है ? कौन से भोजन को देखकर तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है बताओ ?”

“अरे – हेल्लो – रुको भी | एक बार में एक सवाल करो यार | तुमने तो सवालों की ऐ.के – ४७ चला दी | अच्छा एक एक करने जवाब देती हूँ | ठीक है न – ह्म्म्म | वैसे तो मैं सब कुछ पसंद करती हूँ पर मुझे नॉन-वैज बहुत पसंद है | मैं ज़्यादातर यही खाती हूँ | अंडे, मछली, चिकन, मीट बहुत अच्छा लगता है | आई लव एग्स एंड चिकन | ओम्लेट्स, बॉयल्ड, फ्राइड, हाफ-फ्राइड मेरे फेवरेट हैं | मैं हर तरह का खाना खा लेती हूँ कोई परहेज़ नहीं रहा किसी चीज़ से कभी | कबाब, मटन-बिरियानी, चिल्ली-चिकन और भी हैं जिन्हें सोचकर ही मुंह में पानी आ जाता है | सर्दियों में तो मैं ज़्यादातर नॉन-वैज ही खाती हूँ | वैज भी पसंद आता है पर इतना नहीं बट आई एन्जॉय एवरीथिंग | अब आगे मेरा सुशी खाने का दिल है – एक बार तो ज़रूर ट्राय करना है लाइफ में | सुना है बहुत टेस्टी होता है |”

“ईशशशश – बस कर यार | इतना क्या खुश हो रही है यह सब अनाप शनाप खा कर | बेचारे मासूम जानवरों को मारकर उनके शवों को अपने शरीर के कब्रिस्तान में दफ़न कर रही है और इतना खिलखिला और चहक रही है | तेरा पेट नहीं है श्मशान घाट है जहाँ मासूमों की अंत्येष्टि होती है उदर की गर्मी में जलकर | मांसाहार खाने में कैसा मज़ा जिसका अपना कोई स्वाद ही नहीं | सारा स्वाद तो मसलों का है | अगर खाना है तो कच्चा खा कर बता | फिर बात करना | बात करती है - आई एन्जॉय नॉन वैज आ लॉट वाली | एर्र्र्रर्र्र्रर्र्र..... – आज से तुम्हे कब्रिस्तान ही बुलाऊंगा – सच्ची” - इतना कहकर राज चुप हो गया | 

“ओह हो – अपनी अपनी पसंद है – तुम वेजीटेरियन हो तो मैं क्या करूँ | सबका अपना अपना टेस्ट है यार | इसमें भड़कने वाली कौन सी बात है | ठीक है तुम्हे बुरा लगता है तो तुम्हारे सामने ऐसे खाने की बात नहीं किया करेंगे | ठीक है ना ? बोलो ?”

“अरे यार – फिर आगे कैसे होगा कुछ सोचा है ?” – राज ने संजीदा होकर सवाल किया 

“आगे – क्या आगे ? मतलब” – आराधना ने मज़ाहिया अंदाज़ में चुटकी लेते हुए पुछा 

“मेरे यहाँ ये सब नहीं चलता है | मुझे तो बदबू तक बर्दाश्त नहीं इन सब चीज़ों की | यक – एर्र्र्रर – ईश्श्श – ना बिलकुल भी नहीं, कभी भी नहीं | मैं तो शुद्ध वैष्णव हूँ |”

“मैं तो बिलकुल भी नहीं रह सकती इन सबके बिना | ठीक है मैं खुद बना लुंगी किसी को बनाने को नहीं बोलूंगी |” 

“बनाने को मतलब – अरे क्या बात कर रही हो | बवाल हो जायेगा | ये सब नहीं चलेगा मेरे साथ में | बहार खा लो ठीक है उसमें मुझे कोई परहेज़ नहीं पर घर में तो नहीं – ना बिलकुल भी नहीं | जब बदबू ही बर्दाश्त नहीं तब बनाना तो बहुत दूर की बात है हुज़ूर |” 

“मतलब मुझे अब अपना खान पान भी बदलना होगा क्या ? ना ऐसा तो कभी नहीं होगा | किसी के लिए मैं अपने आपको, अपनी आदतों को, अपनी इंडिपेंडेंट लाइफ स्टाइल और चोइसस को थोड़ी बदल सकती हूँ | नहीं बिलकुल भी नहीं | फिर तो तुम कहोगे की फ्रिज में भी नहीं रख सकती में अन्डो को | हैं न ? क्यों ? ठीक कहा ना मैंने ? फिर तो कुछ नहीं हो पायेगा कोई सोल्युशन नहीं इसका | एक आइडिया है – ऐसा करना – जब मैं अंडा बनाऊं तुम घर से बहार चले जाना – हा हा हा – और जब बन जाये तब वापस आ जाना – अन्डो की सुगंध भी नहीं सूंघने को मिलेगी और बहार ताज़ी हवा का आनंद भी मिल जायेगा लगे हाथों | क्यों जी, क्या कहते हो ? वैसे सच में यार क्या अब हमारे रिलेशन इन अन्डो का मोहताज हो गया है ? डू वे बोथ हैव तो डिपेंड ऑन दीज़ एग्स - सीरियसली - गिव मी आ ब्रेक यार | इतनी छोटी सी बात है देखा जायेगा टेंशन क्यों लेनी अभी से | ” इतना कहकर वो जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी | 

“आई ऍम सीरियस यार – तुझे मज़ाक सूझ रही है | कुछ तरीका तो सोचना पड़ेगा | अच्छा सुनो – अगर दो फ्रिज और दो रसोई बना लें तो कैसा रहेगा ?”

“अच्छा ! हाय ! सच्ची ! मेरे लिए ऐसा करोगे तुम ? सोच लो ?”

“नहीं यार – बात तो वहीं की वहीं रही – यह तरीका भी काम नहीं करेगा | घर में नहीं बन सकता – फॉर श्युर | बहार खाने वाली बात सही है पर घर में तो नहीं – ना सॉरी यार | तू सोच ना कुछ तरीका यार | कुछ तो होगा तेरे दिमाग में |” इतना कहकर राज ख़ामोश हो गया | 

“यार अंडे भी नहीं बना सकती क्या ? नॉनवैज बाहर से कभी ले आया करुँगी | पर अंडे तो बना ही सकती हूँ | किसी और को बनाने को थोड़ी बोलूंगी | आई रेस्पेक्ट योर फीलिंग्स एंड योर पॉइंट ऑफ़ व्यू दैट यू डॉन’ट लाइक इट – पर, मेरी बात भी तो समझो | ऐसा थोड़े ही होता है अब खाना थोड़ी छोड़ दूंगी और क्या यह बहुत बड़ी बात है जो इतना सीरियस डिस्कशन हो रहा है ? वी विल वर्क आउट ऑन दिस सम वे ऑर दी अदर | फिलहाल एन्जॉय लाइफ माय फ्रेंड |” 

“तेरे लिए नहीं यार मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | आज तक मेरे घर में ऐसा नहीं हुआ है | फिर अब कैसे | नहीं – मुझे तो ठीक नहीं लगता | तू ही कुछ सोच ना यार, बता सोच कर, कोई तरीका निकाल |” 

“फिर तो कुछ तरीका नहीं है जी, कुछ नहीं हो सकता | मैं तो किसी के लिए अपने आपको बदलने वाली नहीं हूँ चाहे कुछ भी हो जाये | जिसे जो सोचना है सोचे | यू डीसाईड योरसेल्फ़ | व्हाट डू यू वांट ?” इतना कह कर आराधना भी चुप हो गई | 

अब दोनों तरफ सन्नाटा था | ख़ामोशी के बीच दोनों की गर्म सांसें तेज़ी इस चुप्पी को भेद रही थीं और माहौल गरमा रहा था | दोनों सोच में पड़े हुए थे | राज सोच रहा था अगर अब ऐसे अंडे और मांसाहार शुरू हुआ तो आगे क्या होगा ? घर में यह सब होगा तो वो एडजस्ट कैसे करेगा ? क्या आगे की आने वाली पीढ़ी भी मांसाहारी बनेगी ? उफ़ नहीं – बड़ी दुविधा का समय है यह तो अब क्या उपाय है इसका, क्या रास्ता निकालूं ? काफी सोचने के बाद उसने फैंसला ले लिया – 

“ठीक है तुम नहीं बदल सकती हो तो दूसरा भी नहीं बदल सकता | जिस चीज़ की दुर्गन्ध तक बर्दाश्त नहीं उसका मेरी रसोई में बनना भी संभव नहीं फिर आगे चाहे कुछ भी हो देखा जायेगा | जिस बात के लिए आत्मा गवाही नहीं देती उसे तो मैं कभी भी नहीं करता और फिर यह तो एक तरह से जीव हत्या जैसा पाप है | एक तरह से मैं भी इसमें भागीदार हो जाऊंगा | ना कभी नहीं | अगर आगे कुछ लिखा होगा किस्मत में तो हो जायेगा नहीं होगा तो ना सही पर अपने संस्कारों से कभी भी समझौता नहीं | चाहे कुछ भी परिणाम हो फिर | जिसे सोचना हो वो सोच ले अब इस बारे में मैंने तो सोच लिया और निश्चित भी कर लिया | अब कोई संशय नहीं मेरे मन में इस बात को लेकर |” – इतना कहकर राज ने फ़ोन रख दिया | 

इन दोनों की कहानी में यह एक नया पेचीदा मोड़ आया है | क्या सच में यह एक बहुत बड़ी उलझन है ? क्या इस बात को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो जायेंगे ? क्या इस छोटी सी बात के लिए दोनों के बड़े से अहम् और हठ धर्मी आपस में टकरा जायेंगे ? क्या एक मांसाहारी और एक शाकाहारी साथ में रह पाएंगे ? क्या अलग अलग खान पान होने के कारण दोनों की दोस्ती और सम्बन्ध पर कोई फ़र्क पड़ेगा ? क्या राज और आराधना अपनी इस उलझन को सुलझा पाएंगे ? क्या इन दोनों की कहानी का नतीजा अंडो और ऑमलेट इन्ही के बीच झूलता रह जाएगी ? क्या कोई लाल पीली चटनी खाने से दोनों की रुकी हुई कृपा आगे बढ़ेगी ? क्या इन्हें इस समस्या का कोई समाधान मिल पायेगा ? मुख़्तलिफ़ खान पान होने के बाद भी क्या ये दोनों अपनी मंज़िल पा सकेंगे ? आगे क्या होगा फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता और ना ही किसी को पता है भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है | आगे क्या होगा इसका फैसला मैंने अपने पाठकों पर छोड़ा है | यदि आपको लगता है आपके पास इस बात का कोई अच्छा समाधान है तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मुझे बताएं | 

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

आराधना - माँ का ऑपरेशन

"ओ हो माँ ! रुको तो सही, मैं आ रही हूँ ना | ऐसी भी क्या जल्दी है ?"

"बेटी जल्दी नहीं है तेरे पापा के खाने का समय हो रहा है इसलिए खाना तैयार करना है | रात को उनकी दवा का समय हो जायेगा | अच्छा बता तू क्या खाएगी ?"

"नहीं माँ, आज से आप नहीं मैं खाना बनाउंगी आप आराम करो | वरना उस दिन की तरह फिर से हाथ ना जल जाये |"

"नहीं नहीं ! तू क्यों रसोई को देखती है तू अपनी पढ़ाई में दिल लगा | ये सब काम तेरे करने के नहीं हैं |"

आराधना जल्दी से रसोई में आई और माँ का हाथ पकड़ कर उनके कमरे में ले गई |

"अब बैठो यहाँ पर आराम से और कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है मेरे होते | जब तक तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन नहीं करवा देती घर के काम से तुम्हारी छुट्टी | मैं सब अकेले ही देख लुंगी | पापा को क्या पसंद है मुझे पता है | मैं सब संभाल लूंगी | चलो जल्दी से लेट जाओ और मैं आँखों में दवाई डाल देती हूँ | फिर आँखें बंद कर के आराम कर लेना कुछ देर | कल ऑपरेशन है इसलिए आज कोई भी टेंशन नहीं लेना वरना फिर से बी. पी. बढ़ जायेगा | "

आराधना एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता पिता की एकलौती संतान थी | संस्कारों से परिपूर्ण और मृदुभाषी | पिछले कुछ समय से उनका जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते बीत रहा था | पहले पिताजी की बीमारी और अब माँ की आँखों में काला मोतिया बिन्द | बहुत समय से तबियत ठीक ना होने के कारण उनके इलाज में देरी हो रही थी | जिसके चलते माँ को रोज़मर्रा के काम काज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था |

पर साहस की धनी आराधना भी इन मुश्किलों से डरकर पीछे हटने वालों में से नहीं थी | उसने भी फैसला कर लिया था के इस बरस माँ का इलाज करवा कर ही दम लेगी | रुपया रुपया कर के पैसे जोड़ रही थी | डॉक्टरों और नर्सिंग होम के चक्कर काट रही थी | पिता और माता के सिवा उसकी दुनिया में और कोई नहीं था | उसका तो छोटा सा संसार बस उन दोनों में ही था |

आराधना जल्दी से रसोई में गई और उसने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी | जल्दी जल्दी आटा गूंथ कर रोटियां बनायीं और बिजली की तेज़ी से खाना तयार कर दिया | रात को भोजन के उपरान्त उसने जल्दी जल्दी सब काम निपटाया और बिस्तर पर लेट गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी | सोचते सोचते ना जाने कब उसकी आँख लग गई |

पौ फटने पर जब अलार्म की आवाज़ सुनी तो हडबडा कर उठी और सुबह के काम निपटने लगी | आज माँ को लेकर जाना था | आज उनकी आँखों का ऑपरेशन होना था | बारह बजे का समय मुक़र्रर हुआ था | सुबह से ही माँ को समझाने में लगी थी |

"माँ आज सब कुछ ठीक से हो जायेगा | चिंता की कोई बात नहीं है | डॉक्टर बहुत अच्छे हैं | डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं |" उसके पिता भी उसका साथ दे रहे थे | अपनी बीमारी के बाद भी उनके जोश में कोई कमी नहीं थी | बोले, "आज तो मैं भी साथ चलूँगा |"

समय पर घर से सब साथ में निकले और नर्सिंग होम पहुँच गए | वहां पहले से ही बुकिंग हो रखी थी | पहुँचते ही उसके पापा डॉक्टर के कमरे में गए और उनसे अपने लिए एक बिस्तर का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की | बीमार होने के बाद भी उनकी हिम्मत की दाद देनी तो बनती थी | अपने दर्द को भुलाकर मुश्किल के समय में अपनी जीवन संगनी के साथ खड़े रहने का जो जज्बा उनके दिल में था उससे उनका प्यार की इन्तेहां का पता चलता था | डॉक्टर ने भी उनकी उम्र और तबियत को देखते हुए तुरंत एक बेड का इंतज़ाम करवा दिया जिससे वो आराम कर सकें |

सभी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद माँ के साथ उनके ऑपरेशन के इंतज़ार में बैठ गए | दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | आराधना ने अपना मोबाइल फ़ोन निकला और इन्टरनेट चालू किया और अपने एक मित्र को सब कुछ बताया | मित्र ने भी उसका साथ देते हुए उसे शांत रहने को कहा और सब कुछ ठीक होने का आश्वासन दिया |

समय बीतता गया और दोनों के बीच बातें चलती रहीं | पल पल जो भी हो रहा था वो अपने मित्र को बताती जा रही थी | अपने दिल में उठते डर और धबराहट को बांटती जा रही थी | इस सबके बीच माँ ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर में चली गईं | आराधना और उसके पापा दोनों भगवान् से बस यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब कुछ सुचारू रूप से हो जाये | उधर आराधना का दोस्त भी उसे तसल्ली दे रहा था |

अंततः खबर आई कि ऑपरेशन सही तरह से हो गया है | इतना सुनते ही सबकी जान में जान आई और आराधना की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये | जिस काम के पूरा होने में दो वर्ष का समय लग गया था आज वो पूरा हो ही गया | उसने अपने दोस्त को फ़ोन पर बताया कि सब कुछ कुशल मंगल है | ऑपरेशन ठीक हो गया है | अपने दोस्त को ऐसे वक़्त में साथ रहने के लिए और उसकी हिम्मत बाँधने के लिए धन्यवाद् देकर उसने बताया अब वो माँ-पापा को लेकर घर जा रही है और फिर बाद में बात करेगी |

शुक्रवार, मार्च 28, 2014

कुछ लोग दिखावा करते हैं



















कुछ लोग दिखावा करते हैं
झूठी तारीफों पर मरते हैं

खुद से आसक्त वो रहते हैं
खुद मिट्ठू मिट्ठू कहते हैं

सच सामने जब आ जाता है
तब कन्नी काट निकलते हैं

सच से वो बचना चाहते हैं
सच्चाई से कतरा जाते हैं

आईना कोई दिखलाता है
तब अहं बड़ा झल्लाता हैं

कमेन्ट पोस्ट पर डालो जो
तब तुरंत डिलीट ये करते हैं

मजाक करो तो सड़ते हैं
अपने मन में झगड़ते हैं

कुछ लोग दिखावा करते हैं
झूठी तारीफों पर मरते हैं 

सोमवार, मार्च 24, 2014

आराधना - एक दिन

"उठो न अभी भी सोये हो क्या ?" - फ़ोन पर उस मीठी सी आवाज़ ने राज के कानो में मिश्री घोल दी |

"हम्म ! आज तो इतवार है, छुट्टी का दिन है, प्लीज़ आज इतनी जल्दी नहीं | तुम उठ गईं क्या ?" - राज ने अपनी अलसाई आवाज़ और अधखुली आँखें मलते हुए पुछा |

"कब की, मैं तो चाय भी पी चुकी | नवाब साहब अभी तक सोये हैं | इतनी देर तक सोये हो ! उठे नहीं अभी तक, झल्ले !!" - आराधना की शीरीन आवाज़ में इस सवाल ने राज की नींद गायब कर दी |

फिर भी आलस भरे स्वर में उसने अंगड़ाई लेते हुए जवाब दिया, "क्या यार ! तुम भी, आज भी जल्दी, कम से कम आज तो आराम करने दो |  रात भी तो कितनी देर से सोये थे | तुम सोती नहीं हो क्या ?"

"सोती तो हूँ पर सुबह जल्दी उठाना भी तो होता है | घर के काम भी होते हैं | माँ-पापा का ख़याल भी तो मुझे ही रखना होता है | तुम्हारा क्या है, तुम्हारे मज़े हैं कोई बंधन जो नहीं है | मौज है तुम्हारी |" - आराधना ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया |

"नहीं यार ऐसा नहीं है, बंधन तो मेरे भी हैं | एक बंधन तो तुमसे ही बंधा है | ये नहीं कह सकतीं तुम | बाक़ी बंदा तो मैं भी काम का हूँ ये बात और हैं कि....." – कहते-कहते राज ने शब्दों को थाम लिया | अभी तक कुछ निश्चित नहीं हुआ है | आराधना ने आज तक कभी कुछ खुलकर जो नहीं कहा था पर दोस्ती तो दोनों की ही अटूट थी | सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक और फिर खाने से लेकर सोने तक की बातें दोनों आपस में बांटा करते थे | खूब हंसी मज़ाक, गप्पे और बातें एक दुसरे के साथ सारा दिन किया करते थे |

"हम्म ! बात पूरी नहीं की क्या हो गया ?"

"अरे, कुछ नहीं, फिर कभी और कुछ बोलो यार तुम तो ख़ामोश हो गईं | कुछ दस्सो"

"होर ते सब चंगा | सब वादिय जी | तुस्सी दस्सो"

"हुन मैं की दस्सां | राती तां सव दस्सेया सी त्वानू | तुस्सी वी तड़के शुरू हो जांदे हो | दस्सो जी दस्सो जी | मेंनू क्या आल इंडिया रेडियो समझदे हो तुस्सी ?”

“अच्छा जनाब ऐ गल सी कोई नहीं बच्चू देख लुंगी | और बताओ”

“बस यार सब बढ़िया – अच्छा सुनो यार - मैं ज़रा तयार हो जाऊं फिर बाद में बात करते हैं |” – राज उठा और झटपट बिजली की तेज़ी से तैयार होकर, नाश्ता कर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गया |

“हाँ जी ! उसने फ़ोन पर मेसेज भेजा | किद्दां ?

“आहो ! आ गई जी | हो गया ब्रेकफास्ट ? क्या खाया ? आज तो स्पेशल होगा ? सन्डे स्पेशल ? नहीं ? मुझे तो पुछा भी नहीं ? मैं बात नहीं करती ? झल्ले हो तुम |”

“ओ ओ ओ ! शताब्दी एक्सप्रेस थांबा | कभी तो कुछ कम सवाल भी किया कर यार | जब देखो तब शुरू |”

“अब दोस्त से सवाल नहीं करुँगी तो किससे करुँगी | बोलो ?”

“हाँ ! दोस्त से – हम्मममम” – राज ने ठंडी आह भरते हुए कहा

“अच्छा बता ना यार क्या खाया ब्रेकफास्ट में ? मैंने तो मूली के परांठे खाए और साथ में मिंट चटनी | य्म्मी”

“मैंने तो बटर ब्रेड टोस्ट खाया और चाय”

“ब्रेड एंड टोस्ट आर दी सेम थिंग्स | या तो ब्रेड बटर बोलो या बटर टोस्ट | ओके”

“जी बिलकुल, गलती हो गई | थैंक्स फॉर कोर्रेक्टिंग | और बताओ”

और फिर इसी तरह दिन भर ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा | आराधना कुछ कहती रही और राज सुनता रहा राज कुछ कहता रहा आराधना सुनती रही | एक बोन्डिंग थी दोनों के बीच जिसने दोनों को आपस में जोड़ रखा था | दोनों जितना लड़ते, झगड़ते उतना शायद ही कोई करता हो ऐसा उन्हें लगता था | पर फिर भी एक दुसरे के साथ थे, अगर कुछ हो भी जाता तो अगले ही पल सब ठीक हो जाता | एक दुसरे को सॉरी बोलने में बिलकुल भी हिचक नहीं होती, आपस में इतना भरोसा, इतना मान सम्मान, किसी बात को लेकर कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनता, किसी बात को लेकर कभी व्यर्थ बहस नहीं होती, सब कुछ इतना स्वाभाविक, सरल और नम्रता भरा था, ना ही आपस में कोई अहम् का भाव ना ही किसी तरह का कोई घमंड | बहुत ही प्यारी दोस्ती थी ये उन दोनों के बीच |

रात होते होते दोनों बहुत ही थक जाते और दिन की अंतिम बात के लिए अपने अपने फ़ोन पर आ जाते | राज सारा दिन आराधना से बातें करता फिर भी दोनों का दिल नहीं भरता और ज्यादा बातें करने को करता | दोनों अपने घर पर कानों में इअर प्लग लगाये बिस्तर पर लेटे नींद आने का इंतज़ार कर रहे थे | हर तरफ़ ख़ामोशी और सन्नाटा पसरा था | रात की इस ख़ामोशी में आराधना धीरे से बोली,

“कुछ बोल यार – क्या हुआ”

“क्या यार, हर टाइम मैं ही क्यों बोलूं आज तू ही कुछ बोल ले प्लीज | आज कोई टॉपिक नहीं मेरे पास बात करने के लिए | तू ही चूज़ कर ले कोई रैंडम टॉपिक उसी पर बात कर लेंगे | क्या कहती है ?”

“सोचने दे – यार कुछ दिमाग में नहीं आ रहा तू ही कर ले | मुझे कोई याद नहीं आ रहा | चल रहने दे आज नहीं | आज बहुत थक गई हूँ | काफी काम था | जनरल कुछ भी बात कर लेते हैं | ठीक है ?”

“ओके”

उसके बाद दोनों तरफ चुप्पी का राज हो गया | पूरा दिन इतनी सारी बातें करने के बाद अब कोई स्टॉक बाक़ी नहीं बचा था | थोड़ी ही देर बाद कानों में ज़ोर से सांसें चलने की आवाज़ आई |

“सो गई क्या ? ...... अरे यार सो गई क्या ? सोना है तो आराम से सो जा ना कल बात कर लेंगे |”

“हाँ सोती हूँ, बस दो मिनट अभी जाने का दिल नहीं कर रहा बस दो मिनट”

“क्या यार ! नींद तो आ रही है और दो मिनट कर रही है | चल सो जा जल्दी से वरना सुबह फिर दिक्कत होगी और फ्रेश नहीं उठ पायेगी | आराम कर | कल बात करते हैं ना”

“हम्म ! झप्पी दे”

“हाँ... बिलकुल यार ! झप्पी तो कभी भी | ले तेरी झप्पी लम्बी और टाइट वाली | ठीक है |”

“हाँ”

“अब तो जा सो जा यार”

“नहीं – दिल नहीं ऐसे ही रह झप्पी में – तुझे कोई तकलीफ है क्या ? जब दिल होगा तब जाउंगी” 

“कहाँ जाएगी ? तू ऐसे ही रह, कहीं जाने नहीं देना तुझे, ऐसे ही सो जा झप्पी में, मैं भी जब तक नहीं छोडूंगा जब तक खुद नहीं कहेगी | खुश ?”

“हम्मममम”

बस इतनी बात के बाद उस रात उसकी साँसों के सिवा और कुछ भी राज को सुनाई नहीं दिया | रात की निस्तब्धता में पहली बार राज की झप्पी में बंधे वो सपनो में खो गई | माइक पर उसकी सांसें सागर में उठते ज्वार भाटे के समान सुनाई पड़ रही थीं | उसकी सांसें केतली में आंच पर रखे उबलते पानी की भाप की तरह सुनाई दे रही थीं | साथ में कभी कभी सीटियाँ भी सुनाई दे रहीं थीं शायद पानी उबल रहा था | राज ने भी कॉल को नहीं काटा और झप्पी दिए लेटा रहा और आँखे मूंदे सोचता रहा | यह उसके जीवन का पहला मौका था जब राज को उसके बांहों में होने का एहसास हो रहा था | वह आराधना की उस अनदेखी और कानो सुनी मीठी सी नींद और चढ़ती उतरती साँसों की ध्वनि में असीम आनंद और अपनापन का एहसास महसूस करता रहा |

भले ही आज तक दोनों मिले ना हों पर यह फ़ोन का सिलसिला और मेसेज भेजने का क्रम जारी है | और यह दोस्ती दिन-बा-दिन अटूट होती जा रही है | देखते हैं किस्मत इस दोस्ती को कहाँ और कितना आगे लेकर जाएगी |

कुछ देर बाद राज भी अपने सपनों में खो गया | कॉल कटी या नहीं ? यह पहेली फिर कभी सुलझाई जाएगी | फिलहाल आप इस दोस्ती के बारे में सोचिये और इस कहानी का आनंद लीजिये |