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बुधवार, जुलाई 27, 2016

सुना है























सुना है कि बारिशों जैसी हो
कुछ कहो बरसती कैसी हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
सावन की बूंदों जैसी हो

सुना है कि गुलाब जैसी हो
कुछ कहो ज़रा तुम कैसी हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
शायर के ख़्वाबों जैसी हो

सुना है कि इश्क जैसी हो
कुछ कहो बहकती कैसी हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
रूबाई-ए-खय्याम जैसी हो

सुना है कि शर्म जैसी हो
कुछ कहो नाज़ुक कैसी हो 
मैंने यह सुना है दुनिया से
छुईमुई की डाली जैसी हो

सुना है कि आदत जैसी हो
कुछ कहो सआदत कैसी हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
बेहतरीन शराबों जैसी हो

सुना है कि चाँद जैसी हो
कुछ कहों कि कहां रहती हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
पूनम की चाँदनी जैसी हो

सुना है कि शेरनी जैसी हो
कुछ कहो गरज के वैसी हो
मैंने यह सुना है दुनिया से
रानी लक्ष्मीबाई के जैसी हो

जानता हूँ कि तुम कैसी हो
'निर्जन' की कल्पना जैसी हो
कुछ नहीं है सुनना दुनिया से
जीवन में प्राणों के जैसी हो

सआदत - Prosperity, Happiness, Good Fortune

#तुषारराजरस्तोगी #कल्पना #निर्जन #इश्क़ #मोहब्बत #जज़्बात #दुनिया #सुनाहै  #जीवन #प्राण

शुक्रवार, जुलाई 08, 2016

एक शब्द
















सनक और जूनून
वासना और प्यार
अभीप्सा और देखभाल
तुम्हारी ग़ैरहाज़िरी खल रही है
तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ
और सब से बहुत ही ज़्यादा
हर एक तर्क से परे
है यह सारी सोच
ये प्यार जो जलता है
आग से भी ज्यादा गर्म
तपिश इसकी है जो
ज्वालामुखी से ज्यादा
ये इबादत है जो
बंदिश नहीं है
ये दर्द है जो
कम नहीं होता
ये पीड़ा है जो
कभी जाती नहीं है
ये वफ़ादारी है जो
सच में अंधी है
ये विश्वास है जो
हर किसी प्रकार से भिन्न है
ये है डर की भावना
श्रद्धा के साथ
कि यह व्यक्ति
शायद मेरा हो सकता है
मेरी आत्मा का आत्मसमर्पण
मेरा दिल तुम्हारा है
हमेशा के लिए
यह सब कुछ
सदा के लिए
संचित है
एक शब्द में
जिसे तुम शायद ही
समझ पाती हो
लेकिन शायद
कभी किसी दिन
तुम समझ जाओगी
यह एक शब्द:
'मोहब्बत - प्यार - इश्क़'

अभीप्सा - Longing

#तुषारराजरस्तोगी #निर्जन #एकशब्द #इश्क़ #प्यार #मोहब्बत #इबादत #समझ

बुधवार, जून 01, 2016

मोहब्बत हो ही गई है















जादू-अदा बा-ख़ुदा ख़ूब उसकी
बाग़-ए-इरम ज़िन्दगी होने लगी है

ऐतबार-ए-इश्क़ ऐसा है उसका
आलम-ए-दीवानगी होने लगी है 

नज़राना-ए-शोख़ी नज़र ख़ूब उसकी
अज़ीज़-ए-दिल उल्फ़त होने लगी है

गुल-ए-विसाल मासूमियत उसकी
दीवार-ए-ज़िन्दगी होने लगी है

हसरत थामे आँचल अब उसका
जानिब-ए-गुलिस्ताँ होने लगी है

चलते हैं साथ जिस रहगुज़र पर
अब जादा-ए-हस्ती होने लगी है

लुत्फ़-ए-तसव्वुर रहता है उसका
चाँदनी अब हर रात होने लगी है

फ़िराक़-ए-यार सोचते भी अब
दहशत सी दिल में होने लगी है

लगता है 'निर्जन' रूह्दारी करते
तुझको मोहब्बत हो ही गई है

बाग़-ए-इरम - जन्नत का बागीचा
ऐतबार-ए-इश्क़ - प्यार पर भरोसा
आलम-ए-दीवानगी - दीवाने की स्थिति
अज़ीज़-ए-दिल - दिल को प्रिय
गुल-ए-विसाल - मिलन का फूल
दीवार-ए-ज़िन्दगी - ज़िन्दगी का सहारा
जानिब-ए-गुलिस्ताँ  - गुलाबों के बागीचे की तरफ़
रहगुज़र - पथ
जादा-ए-हस्ती - ज़िन्दगी की राह
फ़िराक़-ए-यार - प्रियेतम से बिछड़ना
रूह्दारी - लुका छुपी

--- तुषार राज रस्तोगी 'निर्जन' ---

#इश्क़ #ग़ज़ल #तुषारराजरस्तोगी #निर्जन #रूह्दारी #मोहब्बत

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2015

प्यार और सासें

वो कभी भी दिल से दूर नहीं रहा, ज़रा भी नहीं। बमुश्किल ही कोई ऐसा दिन बीता होगा जब उसकी याद में खोई ना रही हो। झुंझलाहट, बड़बड़ाना, अपने से बतियाना, अपनी ही बात पर ख़ुद से तर्क-वितर्क करना, अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण खो देना, खुद को चुनौती देना, अपने मतभेद और दूरी के साथ संघर्ष करना, सही सोचते-सोचते अपने विचार से फिर जाना, आत्म-संदेह करना और अपने चिरकालिक अनाड़ीपन में फ़िर से खो जाना - आजकल यही सब तो होता दिखाई देने लग गया था आराधना के रोज़मर्रा जीवन की उठा-पटक में।

इस दूरी ने दोनों के इश्क़ में एक ठहराव ला दिया था। उनका प्यार समय की तलवार पर खरा उतरने को बेक़रार था। प्रेम का जुनून पहले की बनिज़बत कहीं ज्यादा मज़बूत और सच्चा हो गया था। हर एक गुज़ारते लम्हात के साथ उनके अपनेपन का नूर निखरता ही जा रहा था।

वो दिन जब दोनों के बीच बातचीत का कोई मुक़म्मल ज़रिया क़ायम नहीं हो पाता था, उस वक्फे में वो अपने दिल को समझाने में बिता देती और पुरानी यादों में खो जाया करती और अपने आपसे कहती, "एक ना एक दिन तो हमारी मुलाक़ात ज़रूर होगी।" - फिर जितनी भी दफ़ा राज, आराधना की यादों से होकर उसके दिल तक पहुँचता उसे महसूस होता कि उस एक पल उसकी आत्मा अपनी साँसों को थामे बेसब्री से उसके इंतज़ार में बाहें फैलाए खड़ी है।

वो अपनी आत्मा को सांत्वना देते हुए उस अदृश्य ड़ोर का हवाला देती जो उन दोनों को आपस में जोड़ता है और उसके सपनो में दोनों को एक साथ बांधे रखता है। वो याद करती है उन मुलाकातों और बरसात के पलों को जिसमें उनका इश्क़ परवान चढ़ा था और दोनों एक दुसरे के हो गए थे। वो विचार करती है कि शायद राज भी अपने अकेलेपन में यही सब सोचता होगा या फिर क्या वो भी उसके बारे में ही सोचता होगा? असल में, वो इन सब बातों को लेकर ज़रा भी निश्चित नहीं थी। यह भी तो हो सकता है वो उसकी इन भावनाओं से एकदम बेख़बर हो और मन में उठते विचार बस संकेत मात्र हों क्योंकि वो शायद वही देख और सोच रही थी जो वो अपने जीवन में होता देखना चाहती थी। पर कहीं ना कहीं उसे विश्वास था कि राज भी उसे उतना ही चाहता है जितना वो उसके प्रति आकर्षित है और दीवानों की तरह उसे चाहती है। बस इतने दिनों से दोनों को कोई मौका नहीं मिल पा रहा  था अपनी बात को स्पष्ट रूप से एक दुसरे तक पहुँचाने का।

उसे सच में ज़रा भी इल्म ना था कि आख़िर क्यों वो राज के लिए ऐसी भावनाएं दिल में सजाए रखती है, जो उनकी पहली मुलाक़ात के बाद से ही उत्पन्न होनी शुरू हो गईं थी और जिन्होंने उसके दिल पर ना जाने कैसा जादू कर दिया था। उसका दिल अब उसके बस से बाहर था, ऐसा जैसे अचानक ही ह्रदय का कोई कोना इस सब के इंतज़ार में था और उसे पहले से ज्ञात था कि ज़िन्दगी में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी मोड़ पर यह सिलसिला आरम्भ ज़रूर होगा। जो बात वो कभी सपने में भी नहीं सोचती थी आज, सच्चाई बन उसकी नज़रों के सामने थी और उसके हठीले स्वभाव पर मुस्कुरा रही थी। ऐसे समय में, उसके पास इन पलों को स्वीकारने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था।

वास्तव में कहें तो उसे बस इतना मालूम था कि अब उसकी असल जगह राज के दिल में ही है, और उसने अपनी मधुर मुस्कान और मनोभावी प्रवृत्ति से उसके मन को मोह लिया है और वो दोनों के दिलों का आपस में जुड़ाव महसूस कर सकती थी क्योंकि आज उन दोनों के बीच की छोटी से छोटी बात भी उसे ख़ुशी प्रदान करती है और वो दोनों जब भी साथ होते, उस समय बहुत ही ख़ुशहाल रहा करते थे।

वो दोनों हर मायनो में एक दुसरे की सादगी, सीरत, खुश्मिजाज़ी, मन की सुन्दरता पर मोहित हो गए थे और निरंतर रूप से एक दुसरे के प्रति आकर्षित और मंत्रमुग्ध थे। आज वो मंजिल आ गई थी जब दोनों के लिए इश्क़ सांस लेने जैसा हो गया था।

फिलहाल तो दोनों की ज़िंदगियाँ इस एक लम्हे में रुक गईं है आगे देखते हैं ज़िन्दगी कैसे और क्या-क्या रंग बिखेरती है और दोनों के प्यार की गहराई किस मक़ाम तक पहुँचती है। 

#तुषारराजरस्तोगी

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

माई बैटर हाफ़ - वो कहाँ है ?

उसके हाथ अब पहले जैसे दोषरहित नहीं रहे। उसके नाख़ूनों की शेप भी पहले जैसी नहीं रही और उनकी चमक भी फीकी पड़ गई है। वो घिस चुके हैं, ऊपर से थोड़े झुर्रीदार, बेहद थके-थके और पुराने से लगने लगे हैं। उसके नाख़ून एक दम सही तरह से कटे हुए हैं, पर उन पर अब कोई पॉलिश या नख प्रसाधन वो पहले जैसा आकर्षण और लावण्य नहीं ला पाते हैं।

उसकी ज़ुल्फ़ें अब नागिन सी लहराती लम्बी नहीं रहीं, ना ही लटें अब घनी घुमावदार पूरी तरह से गोल छल्ले बनाती दिखाई पड़ती हैं। अब तो ज़्यादातर बड़ी ही बेरहमी और लापरवाही के साथ क्लचर से बंधी नज़र आती हैं।

आज उसके होठों पर सारा दिन नम करने वाली चमकीली ग्लॉस की परत दिखाई देती है बनिज्बत उस मलाईदार लिपस्टिक की ख़ुशबू के जो सूरज की गर्मी में पके फल जैसी महक बिखेरती थी।

उसकी वो लोचदार वक्राकार सुन्दरता आज लुभाने के लिए नहीं परन्तु अब उसके शरीर के अनुपात के अनुसार बढ़कर सुख और हिफ़ाज़त देने के लिए ढल गई है।

पर उसकी नज़रों में आज भी वही चमक, चिंगारी, जोश, जीवंतता, हाज़िरजवाबी और शोभा कूट-कूट कर भरी हुई है और वो पहले से भी ज्यादा सजीव, स्पष्ट, उत्साहपूर्ण, तीक्ष्ण, दिलचस्प, रंगीन और रोचक हो गईं हैं। उसकी हंसी का संगीत चांदी की घंटी की खनखनाहट की तरह पूरे घर में भर जाता है, और फिर गुंजन कर बजता हुआ खिड़कीयों और दरवाज़ों से बहार निकल जाता है और सूरज की धुप बन घर में वापस आ जाता है।

हाँ! शायद यह वो लड़की नहीं है जिसे बरसों पहले घर ब्याह कर लाया था...पर यह वो स्त्री है जो हमेशा हर मुश्किल में साथ रही, भीषण तूफ़ान और तपती गर्मी भी उसके इरादों को डिगा नहीं पाए। जो हर परिस्थिति में हाथ थामे डटी रही जैसे असली हंसी तब्दील हो जाती है दाँतों के डाक्टर के चक्कर काटने में। जैसे खेल-कूद वाला जूता जॉगिंग वाले जूतों में बदल जाता हैं और फिर पैदल चलते समय पहनने वाले में...कुछ ही वर्षों में जैसे साइज़ मीडियम से बदलकर लार्ज और फिर एक्स्ट्रा लार्ज हो जाया करता है और बालों को संवारने वाली जैल, सफ़ेद होते बालों को छिपाने के लिए बालों वाले रंग में तब्दील हो जाती है।

यही है वो जो अनगिनत खूबसूरत जंगों और संजीदा वाद-विवादों के साथ, रूठने से ज्यादा मनाने के साथ, सिनेमाघर से ज्यादा बाज़ार के चक्कर लगाने के साथ, खाना पकाने की विधि पर ज्यादा ध्यान ना देकर अपने सहजज्ञान और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार लाजवाब खाना बनाने की कला में निपुण होने के साथ, गुस्से से कहीं ज्यादा हंसी मज़ाक के साथ, अड़ियलपन से ज्यादा समझदारी के साथ, मक्कारों से बचकर सूझ-बूझ के साथ, अपने अपनों को दूसरों की नज़र से बचाने के साथ, ख़ुद से पहले परिवार को खिलाने के साथ, लड़की से औरत बनी है।

यह वही महिला है जिसकी झुर्रियां, मुरझाई त्वचा, लापरवाह बाल, अस्त-व्यस्त वेशभूषा, पसीने में लथ-पथ पल्लू, बिखरती-संभालती साड़ी, ज़िन्दगी में भागम-भाग और कभी-कभी साफ़ कटे नाखून कहते हैं - "मैंने इस चार दीवारी को मकां से घर बनाया है और अपने अस्तित्व के बाहर एक जीवन अपनाया है।" - वही है साया, साथी, शरीक़-ए-हयात, हमदम, ज़िन्दगी, बंदगी, चैन-ओ-सुकूं-औ-क़रार, जीवन का प्यार, रिश्ते का सार...गुड, बेटर, बेस्ट हाफ...

माई बैटर हाफ...ढूंढता हूँ...वो कौन है और कहाँ है ?...कहीं तो होगी...शायद मिल जाए...!

--- तुषार रस्तोगी ---

शुक्रवार, मार्च 20, 2015

इज़हार-ए-मोहब्बत

उन दोनों का मिलना समझो एक संयोग मात्र ही था।

फुटपाथ पर पैदल चलते हुए अचानक ही उसकी सैंडल की एड़ी के दरार में फंसने से उसका पैर मुड़ गया। अपने आपको सँभालने के चक्कर में उसके हाथ से किताबें फिसलकर बड़े ही लयबद्ध तरीके से ज़मीन पर जा गिरीं। हालाँकि ये पढ़ना और सुनना बड़ा घिसा-पिटा और फ़िल्मी सा प्रतीत होता है पर वो बिलकुल ऐसा ही सोचता था कि ज़िन्दगी में किसी से मिलने का ये सबसे उत्तम तरीक़ा है।

उसकी ज़िन्दगी ऐसे रोज़मर्रा के प्रसंगों से भरी पड़ी थी जिन्हें, वो या तो जीवन भर याद रख सकती थी या फिर भूल सकती थी, पर फिर भी उसने इस एक घटना के बारे में थोड़ा बहुत सोचने की ज़हमत उठा ही ली।
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सच पूछो तो उसने, उसके बारे में ज़रा-ज़रा सोचना शुरू कर दिया था। वो स्वभाव से बहुत ही उदार और सभ्य पुरुष मालूम देता था पर उसके साथ पहली मुलाक़ात, उफ़-तौबा! सरासर उबाऊ थी पर ये बात भी अलग थी कि, अब उस उबाऊपन में उसे विशेष रूचि होने लगी थी, उसे, उसी बोरियत में अपनी ज़िन्दगी के नए मायने मिलने लगे थे और इसलिए वो दोनों एक दफ़ा फिर से मिले और फिर मुलाकातों का सिलसिला लगातार पायदान चढ़ता चला गया।
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उसे कभी भी इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं था, वो कितना वक़्त उसके साथ गुज़ारती है जब तक उसने उस रात बिना किसी बात फ़ोन मिलाया और कुछ नहीं बोली, सिर्फ उसकी आवाज़ सुनने के लिए। अपने अन्दर के खौफ़ के कारण, वो ख़ुद, इस असलियत को स्वीकार करने से इनकार करती रही, जिसे पूरे दिल से वो मानना तो चाहती थी और जब उसने पहली ही घंटी पर फ़ोन उठाया तब उसने बिना सोचे समझे, "माफ़ कीजिये, गलती से आपका नंबर मिल गया" कहकर झट से फ़ोन काट दिया।

बाद में, उसे एहसास हुआ कि शायद वो जानता था ये उसका ही फ़ोन था, क्योंकि अगली मुलाक़ात के वक़्त वो चुपचाप उसे निहार रहा था और मिलते वक़्त उसके होठों पर एक ख़ास तरह की मुस्कान सजी हुई थी जिसे उसने बड़ी ही मशक्कत, जद्दोजहद और मुश्किलात के बाद नज़र अंदाज़ किया था।
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उसे पहेलियाँ सुलझाना बेहद पसंद था। बचपन में उसकी माँ उसे जासूसी उपन्यास पढ़कर सुनाया करती थीं हालाँकि उसे हमेशा इस बात का शक बना रहता था कि उन्होंने शब्दों में हेर फेर कर कहानी के कुछ भाग को इधर-उधर कर बताया है जिससे कहानी के रहस्य उसे समझ आ सकें। यहाँ तक कि उन्होंने उसके जन्मदिन पर उपहार में क्रिकेट बैट देने की जगह एक जासूसी विडियो गेम भेंट में दिया था।

उसे सहसा ही, साफ़ अंदाज़ा हो गया था कि वो उसके साथ इतना सारा वक़्त बिताना क्यों पसंद करती है।
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वो उसके साथ पुस्तकालय जाया करता, रास्ते भर उसका सामन उठाकर चलता और उसके साथ बातों में खोया रहता। एक बार जब वो दोनों साथ लाइब्रेरी में थे तब उसका सामना, उसके असल जज़्बातों के साथ हुआ। किताबों के साथ उसका रिश्ता और लगाव ऐसा था जैसे शायद कभी किसी और के साथ नहीं था। उसके दिल के तहख़ाने तक जाने का ज़रिया किताबें ही लगती थीं। वो नई-पुरानी किताबों को उठाकर, उनके कवर को अपनी कोमल उँगलियों से एक समान स्पर्श करती, उन्हें छूकर उसकी आँखें आनंद से चमक उठतीं और उसके चेहरे पर उफनती लहरें उसकी उँगलियों के नीचे बहते अनगिनत शब्दों के महासागर में उठते ज्वार-भाटे को बयां कर रही थीं।

"ये कमाल हैं," उसने एक बार उससे कहा था। "देखो ना, आप एक ही समय में शब्दों से स्वेच्छापूर्वक सब कुछ कह सकते हो, पर ठीक उसी समय में दूसरी ओर इनके साथ सीमा का बंधन भी रहता है। 'प्यार' शब्द लिखने से हर कोई उस प्रेम के एहसास को महसूस तो नहीं कर सकता ना!"

"ये तो पढ़ने वाले पर निर्भर करता है" उसने किसी बड़े दार्शनिक की तरह जवाब दिया और जैसे-जैसे वो किताब के पन्नो के बीच उँगलियाँ घुमा रही थी, वो लगातार उसके चेहरे पर उमड़ते अनगिनत भावों को पढ़ता जा रहा था और खुश होता रहा।

वो मन ही मन सोचता, "काश! जिस तरह वो उन किताबों को देखती है कभी उसे भी ऐसे ही देखे और उसके साथ सब कुछ भूल कर बातें करे।" अब इसमें कोई रहस्य नहीं रह गया था, वो बिना किसी अस्पष्टता के उसका साथ चाहता था। उसके साथ खुलकर हँसना चाहता था, उसको बाहों में भरना चाहता था, उसके आगोश में खो जाना चाहता था, देर तक उसको चूमना चाहता था, घंटो उसके साथ समय बिताना चाहता था। वो जानता था की सिर्फ किताबघर ही एक ऐसी जगह है जहाँ उसके चेहरे पर ऐसे कोमल, शांतिपूर्ण और स्थिर भाव देखने को मिलते हैं।

उसके साथ रहते हुए, उसे एहसास हुआ कि किताबों, कागज़ और स्याही के सिवा वो किसी पर भी भरोसा करने में असमर्थ है। उसने बड़ी सहजता के साथ उसे समझाया कि लोगों पर भरोसा किस तरह किया जा सकता है, हर इंसान सिर्फ खून और मांस का पुतला नहीं होता है, उनमें से शायद कोई ऐसा भी हो जो उसके ह्रदय को पढ़ सके, विचारों को समझ सके, भावनाओं को पूर्ण कर सके और जिसका साथ सदा स्वच्छंद, आनंदप्रद और सुखद एहसास दे। उसे इस बात का बहुत आश्चर्य था की आख़िर ऐसे कितने लोगों ने उसका ऐतबार तोड़ा होगा जिसकी वजह से उसे, उसपर ज़रा सा यक़ीन जमाने में इतना समय लगा रहा है।
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"मैंने कल रात तुम्हारे बारे में सपना देखा," वो उसे बताती है। वो मुस्कान के साथ ख़ुशी का इज़हार करता है और व्यक्तिगत रूप से इसे एक सफलता मानता है, एक ऐसी क़ामयाबी जिसके बारे में वह अभी भी अनिश्चित था।

"क्या वो एक अच्छा सपना था ?" उसने छेड़ने के अंदाज़ में पूछा, और उसकी बांह पर अपनी उँगलियाँ फेरने लगा, सिर्फ उसे शांत करने और उसे अपने खुद के बुने प्रतिबंधित चक्र से बहार निकलने के लिए। वो भी कुछ नहीं बोली सिर्फ हलके-हलके मुस्काती रही।

उस समय, उसका मुस्कुराना, उसे एक अच्छा संकेत प्रतीत हुआ परन्तु बाद में उसे एहसास हुआ कि वो जब बहुत उदास होती है सिर्फ तभी मुस्कुराती है।
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वो उसके कमरे में प्रवेश करता है और देखता है वो एक कुर्सी पर डरी, सहमी और सिकुड़ कर बैठी है और उसकी गोद में क़िताब है। वैसे इस दृश्य में कुछ भी असामान्य नहीं था; इस मुद्रा में उसे पहले भी अक्सर बैठे देखा था, यही एक कारण था कि ना चाहते हुए भी वो, उससे नाराज़ हो जाया करता। अब ये राज़ और भी गहराता जा रहा था, वो जानने को आतुर था आख़िर इस तरह से बैठे रहने के पीछे क्या कारण था?

"उफ़ ख़ुदाया! आख़िर तुम इतनी अड़ियल और ज़िद्दी क्यों हो? हमेशा किस दुनिया में खोयी रहती हो जबकि ज़िन्दगी के पास कितना कुछ है तुम्हे देने के लिए, बोलो?," वो अकस्मात् ही उसकी तरफ बढ़ा और मंद स्वर में पूछने लगा। उसकी तरफ गर्दन उठा कर देखते हुए मुस्काई और इस गहन सोच में खो गई कि, "इस पल ,ये मेरे कितने पास खड़ा है।"

"ये मुझे ख़ुशी देता है," बड़े ही अड़ियल मिजाज़ से, उसने आँखे चुराते हुए, उसे बताया। "मैं तुम्हारे बताए ख़ुशी पाने की तरीक़े क्यों अपनाऊं, जब मुझे उनमें ज़रा भी सहजता महसूस नहीं होती है, बताओ?"

"मैं समझ सकता हूँ।" उसने बड़ी शालीनता से, उसके कान के पास जाकर फुसफुसाते हुए जवाब दिया; अब वो उसके इतना करीब था की पास रखी किताब के पन्नो को पढ़ने में सक्षम था। "पर तुम ख़ुशी पाने के लिए तो नहीं पढ़ रही हो। तुम पढ़ रही हो - दुनिया को चुप कराने के लिए। और...तुम ख़ुश भी तो नहीं दिखाई दे रही हो।"

वो कुछ नहीं बोली, बस कस कर मुट्ठी भींच अपनी गोद में किताब को इतनी जोर से जकड़ा के उसकी उँगलियों के पोर सफ़ेद पड़ गए।
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कभी कभी वो सोचती कि किताबों में इतनी लापरवाही के साथ बयां किये गए ख़ूबसूरत इश्क़ के बारे में पढ़-पढ़ कर कहीं वो असल ज़िन्दगी में प्यार करना भूल तो नहीं गई।

उसे ताज्जुब था कि क्या जिन लोगों को उसने आज तक अपनी ज़िन्दगी से बहार किया था दरअसल उन्होंने कुछ ग़लत किया भी था, या फिर ऐसा तो नहीं था की वो कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही उम्मीद कर रही थी?

पर अंत में, हमेशा की तरह, वो इन सभी ख्यालों को अपने दिमाग से बाहर निकालकर फ़ेंक देती है।
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अब वो उसे समझना शुरू करता है, पर इससे ज़्यादा ज़रूरी बात है उसकी ख़ामियों को जानना, पर वो उसे अकेला छोड़ दे, बस इससे ज्यादा वो कुछ नहीं  चाहती थी। वो अपने दुःख, अपनी अप्रसन्नता, अपनी खीज, अपने क्रोध, अपनी हताशा को बर्दाश्त में असमर्थ थी और यही कारण था जो वो इस सब से छुटकारा पाने के लिए, अपने आपको सब से बचाने के लिए, उन लम्हों में जिन्हें वो संभाल नहीं सकती थी अपने आप को किताब के पन्नो में क़ैद कर लिया करती थी।

अब तक, वो उसे पूरी तरह से समझ चुका था और एक अच्छा दोस्त और हितकर व्यक्ति के नाते वो उसकी हर प्रकार से मदद करना चाहता था।

पर वो यह भी नहीं चाहता था कि वो उससे नफ़रत करने लगे।
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कभी कभी उसे उन परीलोक वाली प्रेम कथाओं से घृणा होने लगती जो उसे, उस महत्वपूर्ण इंसान के लिए तरसने और तड़पने को मजबूर करतीं, वो नायाब हीरा जिसको ढूँढना उसके लिए ना के बराबर था।
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एक पूरा साल, ३६५ दिनों का समय निकल गया, उसको सिर्फ इतनी सी बात समझने के लिए कि वो, ये नहीं चाहती, के वो उसे कभी भी उसका साथ छोड़ कर जाए।

अपनी ज़िन्दगी में, उम्र के लम्बे गुज़रे समय में, पहली बार उसने किताब को बंद कर नीचे रखा और अपने फ़ोन को हाथ में उठाया था।
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वो बचपन में भी अपनी माँ के जासूसी कहानियां ख़त्म करने से पहले ही उनका अंत ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर बता दिया करता था। वो आश्चर्यजनक रूप से अपने इस कार्य में बहुत निपुण था, और समय के साथ उसके इस कौशल की क्षमता एक विशेष योग्यता के रूप में परिवर्तित हो गई थी। वैसे भी, ख़ास तौर पर, उसे प्रेम उपन्यास पढ़ना नापसंद था और वो इन्हें असल ज़िन्दगी के सामने बड़ा ही तुच्छ और अपमानजनक समझता था।

"किसी भी प्यार के अफ़साने को खत्म करने के सिर्फ ये दो ही तरीक़े हो सकते हैं।" वो कहता, "या तो बे-तहाशा सच्चा प्यार या बे-दर्द भयानक दुखद त्रासदी"

हालाँकि उसे बिलकुल भी मालूम नहीं था कि क्या वो इस बात में यकीन रखती है कि प्रेम इतना सरल है, पर उसने स्वीकारा कि जब वो अपना दृष्टिकोण इतने दावे के साथ बतलाता है, उसे ये सब सुनना बहुत भाता है और वो उसकी बातों से इनकार नहीं कर पाती है।
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हालाँकि, उसको मालूम नहीं था, वो दोनों आपस में एक दुसरे के साथ कहाँ तक समन्जस्य बिठा पायेंगे।

और यदि वह जोर से चिल्लाकर अपनी प्रेम कहानी के अंत को बता सकता, उस सूरत में उसे मालूम था उसे क्या चुनाव करना है। उसे मालूम था इस रिश्ते से उन दोनों के लिए उसकी क्या अपेक्षाएं हैं, वो इस बंधन से क्या चाहता है, पर आज एक समय के लिए जीवन में पहली बार, वो स्वयं परिणाम को लेकर अस्पष्ट और अनिश्चित था।

फिर एक दिन अकस्मात् ही उसने पूरे ज़ोर से चिल्लाते हुए वो तीन चमत्कारी शब्द उसेके सामने कह दिए क्योंकि उनको ना बोल पाने की टीस और अफ़सोस को लेकर वो अपना सारा जीवन नहीं गंवाना चाहता था।

"आई लव यू - मैं तुमसे प्यार करता हूँ - बहुत प्यार करता हूँ..."

जब वो यह इज़हार-ए-मोहब्बत कर रहा था तब उसकी इंतज़ार भरी सूनी आँखें नम थीं।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, सितंबर 18, 2014

मैं तुमसे प्यार करता हूँ



















मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
हाँ, बहुत प्यार करता हूँ,
आज इकरार करता हूँ,
पर कम ही बता पाया हूँ,
ख्वाबों में,
तुमसे मिलने की तमन्ना लिए,
बिछाता हूँ शान से बिस्तर,
फिर,
सारी रात बदलकर करवटें,
याद करता हूँ तुम्हे,
बेचैन रहता हूँ,
आँखे मूँद रमता जोगी बन,
लगता हूँ ध्यान
पर यह अलग बात है,
सो बिलकुल नहीं पाता हूँ,
हर दफ़ा सोचता हूँ,
ना देखूं तुमको,
पर खुदा जाने ऐसा क्या है,
तुम्हारे गुलज़ार चेहरे में,
कि हर शब् बिना देखे तुम्हे,
रह नहीं पाता हूँ,
एक नज़र तुम जो देख लो,
मुझको 'निर्जन',
फिर,
बिना साँसों के जी सकता हूँ,
मैं तुमसे जितना भी,
प्यार करता हूँ,
उतना ही,
कम कह पाता हूँ...

--- तुषार राज रस्तोगी ---

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी,
कुछ यादें पुरानी बाक़ी हैं
कुछ ख़ुशी लुटानी बाक़ी हैं,
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाक़ी हैं,
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी हैं,
कुछ ग़म छिपाने बाक़ी हैं,
कुछ ज़ख्म मिटने बाक़ी हैं,
कुछ नगमे सुनाने बाक़ी हैं,
कुछ किस्से बताने बाक़ी हैं,
कुछ मुझमें थोडा बाक़ी है,
कुछ उनमें थोडा बाक़ी है,
ज़िन्दगी की दौड़ में 'निर्जन'
सच कितनी आपा-धापी है
आहिस्ता गुज़र.....

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, सितंबर 12, 2014

मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे


तुम बन गई हो स्वभाव मेरा
तुम से जीवन है ख़ास मेरा
तुम अब रोजमर्रा की आदत हो
तुम ख़ुदा के मानिंद इबादत हो
तुम बेस्वाद ज़िन्दगी में स्वाद हो
तुम विनोदी घटनाओं में ख़ास हो
तुम मज़ेदार कहानी सा किस्सा हो
तुम ज़ोरदार लतीफ़े का हिस्सा हो 
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

कितनी ही बातें की हैं मैंने तुमसे
कितने जज़्बे, इरादे कहे हैं तुमसे
कितने दर्द सहे हैं रहकर दूर तुमसे
कितनी ही बातें अनकही हैं तुमसे
कितने अरमां बाक़ी है कहने तुमसे
कितनी अधूरी है जुदा ज़िन्दगी तुमसे
कितनी उन्सियत है दिल को तुमसे
कितना भी कहूँ हमेशा कम है तुमसे
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

साथ हमने जीवन का रंग देखा है
साथ तुम्हारे हर मौसम चहका है
साथ तुम्हारा महकती कस्तूरी है
साथ नहीं जो ये ज़िन्दगी अधूरी है
साथ चलते शाम-ए-हयात आएगी
साथ मोहब्बत का पैग़ाम लाएगी
साथ का तेरे यकीन है हमदम
साथ हर पल है तेरे प्यार का बंधन
तुम ही कहो ना परमप्रिय
'निर्जन' इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, अगस्त 28, 2014

जानबूझकर















सिलसिला-ए-गुफ़्तगू चलता रहा तुमसे
इत्तफ़ाक नहीं करता था मैं जानबूझकर

साथ चलते यूँ ही छू जाता है हाथ तुमसे 
या तुम छू लेती हो मेरा हाथ जानबूझकर

जानता हूँ सड़क पर चलना आता है तुमसे 
थामता हूँ हाथ तुम्हारा मैं भी जानबूझकर

बस गुज़र रहा था, मिलने चला आया तुमसे
मुलाकातें चाहता हूँ मैं मुसल्सल जानबूझकर

'निर्जन' हाल-ए-दिल मेरा छिपा नहीं है तुमसे
ना जाने क्यों करता हूँ इनकार मैं जानबूझकर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 22, 2014

रात बाक़ी है अभी














रात बाक़ी है अभी
बात बाक़ी है अभी
ख़ामोशी में तेरी सनम
फ़रियाद बाक़ी है अभी
तेरी साँसों की गर्मी में
आग बाक़ी है अभी
फुसफुसाती आवाज़ में
जज़्बात बाक़ी है अभी
अलसाई इन आँखों में
ख्व़ाब बाक़ी है अभी
होठों की मुस्कान में
राज़ बाक़ी है अभी
तेरे दिल में थमे
अल्फाज़ बाक़ी हैं अभी

बातों के आगाज़ में
परवाज़ बाक़ी है अभी 
रात बाक़ी है अभी
बात बाक़ी है अभी

रविवार, फ़रवरी 02, 2014

तुम्हारे लिए





















मेरी कविता, मेरे अलफ़ाज़
मेरी उम्मीद, मेरे उन्माद
मेरी कहानी, मेरे जज़्बात
मेरी नींद, मेरे ख्व़ाब
मेरा संगीत, मेरे साज़
मेरी बातें, मेरे लम्हात
मेरा जीवन, मेरे एहसास
मेरा जूनून, मेरा विश्वास
सब तुम्हारे लिए ही तो है
फिर क्या ज़िन्दगी में
तुमसे कह नहीं सकता
मेरे जीवन का हर क्षण
तुम्हारे लिए ही तो है
तुम भी अपनी साँसों में
मेरी हर एक सांस को
बसा सकते हो क्या ?
इस ज़िन्दगी में तुम
हर पल हर क्षण यही
गीत गा सकते हो क्या ?

एक गीत एक कविता
फिर कहानी सुनाएगी
कहेगी, बतलाएगी
मेरी मस्ती में तुम भी
शामिल हो जाओगी
निश्छल निर्मल
अनोखी सरल
शरारती दिल्लगी
तुम्हारे जीवन में
संचार करेगी तिश्नगी
जब तुम पा जाओगे
इश्क की मंजिल वही
ज़िन्दगी के हर लम्हे में
हर मोड़ पर हल पल में
फैल जाएगी सुगन्ध
महक मेरे पागलपन की
तसव्वुर में तुम्हारे
तब बेचैन हो उठोगे
अपने आप को
मेरी पहचान में
शामिल करने को.....

सोमवार, दिसंबर 16, 2013

ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है











कुछ महके हुए ख्व़ाब
कुछ बिछड़े हुए अंदाज़
कुछ लफ़्ज़ों के एहसास
कुछ लिपटे हुए जज़्बात
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है

कुछ बातों में शरारत
कुछ नखरों में अदावत
कुछ इश्क़ में बनावट
कुछ जीवन में दिखावट
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है

कुछ लम्बी तनहा राहें
कुछ सुलगी चुप आहें
कुछ कमज़ोर वफाएं
कुछ उलझी जफाएं
ज़िन्दगी इनसे बर्बाद है

कुछ बेगाने अपने
कुछ अनजाने सपने
कुछ मुस्कुराते चेहरे
कुछ ग़म भी हैं गहरे
'निर्जन' इनसे आबाद है