शनिवार, अप्रैल 20, 2013

बदल रहा है

















दुनिया बदल रही है
ज़माना बदल रहा है
इंसानी फितरत का
फ़साना बदल रहा है

भूख बदल रही है
भोजन बदल रहा है
विकृत हाथों का
निशाना बदल रहा है

आचार बदल रहा है
विचार बदल रहा है
भेड़िये दरिंदों सा
किरदार बदल रहा है

सलीका बदल रहा है
तरीका बदल रहा है
विकृत यौनइच्छा का
पैमाना बदल रहा है

बीवी बदल रहा है
बेटी बदल रहा है
हैवानी हदों का
जुर्माना बदल रहा है

दिल्ली बदल रही  है
दिल वाला बदल रहा है
वीभत्स कुकृत्यों से
दिल्लीनामा बदल रहा है

लिखना बदल रहा है
सुनाना बदल रहा है
'निर्जन' फरमाने को
अफसाना बदल रहा है

ऐ मुर्दों अब तो जागो
कब्रों से उठ के आओ
अब सोते रहने का
मौसम बदल रहा है

26 टिप्‍पणियां:

  1. समसामयिक पंक्तियाँ....सच में निशब्द हूँ ...

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  2. एक-एक घर ही
    हम बदल सकें
    तो ज़माना बदल जाएगा
    हार्दिक शुभकामनायें .....

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  3. बहुत सटीक ...समाज को आइना रचना .....अफ़सोस कोई देखना नहीं चाहता

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  4. बहुत बढ़िया। समसामयिक चिंता। बहुत ही सुन्‍दर।

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  5. गर्मयोशी और समसामयिक

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  6. बढ़िया है आदरणीय -
    शुभकामनायें-

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  7. दिल्ली का क्या दोष भाई , दिल्ली हो या कानपुर , कलकत्ता हो या मुजफ्फरपुर हर जगह बस दोष है तो मानसिकता का। ऐसी विकृत मानसिकता को बदलना है ।

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  8. बहुत उम्दा सटीक सामायिक सुंदर प्रस्तुति ,,,

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  9. आज इस विकृत मानसिकता के खिलाफ़ सब को खड़ा होना होगा...बहुत सुन्दर और समसामयिक प्रस्तुति...

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  10. सार्थक प्रस्तुति ......आभार

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  11. मुझे कब्र में सोता हुआ कहा जा सकता है लेकिन आपकी यह रचना कईबार पढ़ने के बाद भी...




    नि:शब्द हूं।

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  12. सब कुछ बदल रहा है पर इंसान की भूख नहीं बदल रही ...

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  13. ऐसे बदलाव से तो अच्छा है की हम वापस आदिम ज़माने में चले जाएँ ... आज़ाद भारत में दरिन्दे आज़ाद हैं अपनी भूख को मिटाने को ...

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  14. इस मानसिकता का विरोध पहली कड़ी है इस बीमारी को मिटाने का. बढ़िया सामयिक प्रस्तुति.

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  15. kya bat hai per kuch bat esa laga ki repeet ho gai hai ...

    raunaq habib

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  16. kavita achi hai..pr kahi kahi laga ki baat repeet hui hai....

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