प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढ़ोल गंवार शूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
आज कुछ दोस्तों से एक बात पर परिचर्चा हो रही थी | बात थी तुलसी दास जी द्वारा लिखी गई सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई का एक भाग जो धीरे धीरे हमारे बीच एक वाद विवाद का विषय बन गई | उक्त "चौपाई" के माध्यम से तुलसीदास जी ने उस समय का वर्णन किया है जब भगवान् श्री राम ने समुन्द्र देवता से लंका जाने की लिए रास्ता देने का आग्रह किया था | कदाचित तुलसीदास जी (१५३२ - १६२३) की यह सबसे गलत समझी गई "चौपाई" है | इस चौपाई में जो शब्द "ताड़ना" आता है मेरे अनुसार शायद उसका अर्थ "तारना" या " "ताडयेत्" या महज़ "ताड़ना" हो सकता है | जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज तक शायद ही किसी एक शब्द ने किसी की प्रतिष्ठा को इतना नुक्सान पहुँचाया हो जितना इस शब्द ने तुलसीदास जी की ख्याति को पहुँचाया है |
यह अपनी अपनी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है के कौन "ताड़ना" शब्द का क्या मतलब निकालता है | आइये अब ज़रा इस शब्द को स्थापित करके देखते हैं कैसे क्या मतलब निकलता है ?
यदि हम इस शब्द का मतलब "तारना" लेकर चलते हैं तो पूरी की पूरी चौपाई का अर्थ बहुत ही सुन्दर निकल कर आता है | अर्थात:
ढ़ोल, मूढ़, गरीब, जानवर और नारी सभी को ऊपर उठाये जाने, मतलब उत्थान का हक है |
पंद्रहवी शताब्दी में जिस प्रकार की कुरीतियाँ और बुराइयाँ समाज में थी उसे देखते हुए तुलसीदास जी ने नारी की तुलना गरीब, जानवर, ढ़ोल और निपढ से की है, उस समय क्योंकि इनमें से किसी को भी अपनी मर्ज़ी और नियति के बारे में फैंसला करना का कोई हक़ नहीं था | परन्तु इस सन्दर्भ में यदि आज के आधुनिक समाज के लोगों से पूछेंगे तो वो तुलसीदास जी के उस उदाहरण से ज़रा भी सहमत नहीं होंगे | पर यदि हम उस समय के परिवेश को ध्यान में रखकर सोचेंगे तो पंद्रहवी शताब्दी में नारी को पुरुष के समक्ष वो अधिकार प्राप्त नहीं थी जो आज की नारी को हासिल हैं |
अब यदि इसका दूसरा अर्थ देखें अर्थात "ताडयेत्" से जो की संस्कृत भाषा का शब्द है तो इसका मतलब निकलता है "कठोर अनुशासन" या "पिटाई" | तो इस लिहाज़ से देखें तो पूरी चौपाई का अर्थ बिलकुल ही बदल जाता है |
ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सभी की अच्छे से पिटाई करनी चाहियें जिससे वह ठीक तरह से कार्य कर सकें | इस चौपाई का यह स्पष्टीकरण शायद उन लोगों द्वारा दिया गया है जो विस्पंदन करने में विश्वास रखते हैं और तुलसीदास जी के विरोधी हैं | इस आशय में कभी भी मुझे कोई अर्थ नज़र नहीं आता सिर्फ अनर्थ ही दिखाई देता है क्योंकि तुलसीदास जी तो महिलाओं को अत्यंत मान-सम्मान देते थे और वह स्वयं आदमी और औरतों के बराबर अधिकारों के लिए पक्ष्समर्थाकों में से एक थे ऐसा रामचरितमानस और उनके अन्य लेखन कार्यों में उनके "दोहों" और "चौपाइयों" में साफ़-साफ़ प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट होता है | लोगों को यह भी ज्ञात होना चाहियें कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी को अत्यंत प्रेम करते थे और उनकी पत्नी द्वारा जनता के बीच उनकी प्रताड़ना ही उनका सांसारिक मोह से विमुख होने का मुख्य कारण बना था | रामचरितमानस की रचना भी उन्होंने उसी के बाद की थी |
अब यही हम इस चौपाई का तीसरा अर्थ देखते हैं जो कि मेरी निगाह में किसी निपुण, प्रतिभाशाली महानुभाव का कार्य ही लगता है....!!!
व्याख्या कुछ इस प्रकार से है कि एक ढ़ोल, एक निरक्षर या गरीब और बुरी स्त्री (चरित्रहीन नारी), यह सब पीटने योग्य हैं जिसके होने से यह सब अपना सर्वस्व देकर सही तरह से काम करते हैं ...!!! इस व्याख्यान की खासियत यह है कि इसमें जो शब्द "गंवार" और "पशु" हैं वो "शुद्र" और "नारी" के लिए विशेषण के रूप में उपयोग में लाये गए हैं |
वैसे माफ़ी चाहूँगा लेकिन एक और मज़ाहिया नज़रिया भी हो सकता है इस चौपाई का जो मैं बैठे बैठे सोच रहा हूँ अर्थात यदि हम शब्द "ताड़ना" को आज की स्तिथि में रखकर देखें या यूँ कहें की "कलयुगी रूप" में देखें तो उसका मतलब होता है "निष्कपट भाव से टकटकी लगाकर किसी को देखना (नज़रों से किसी को टटोलना)" लिहाज़ा मतलब यह निकलता है की किसी की सुन्दरता का रसपान करना और यह तो सर्व विदित है कि सभी खूबसूरत नारियां हर तरह से देखने योग्य होती ही हैं और किसी के सौंदर्य को देख निगाहों को ठंडक देने में कौन सी बुराई है ... !!!
बस भैया बाक़ी तो बस राम ही राखा ... हा हा हा ... जय श्री राम ... हर हर महादेव शिव शम्भू ...जय बजरंगबली महाराज ... :)
ताड़ना यानी अपना मौक़ा ताड़ना और टकटकी लगाके किसी के सौंदर्य को देखना ,बल्लेबाज़ अपना मौक़ा ताड़के गेंद को बाउंड्री के पार कर देते हैं। कलियुगी व्यक्ति कलियुगी - नारी के अंगों को ऐसे स्केन करता है जैसे वह अलग अलग हों जैसे विज्ञापन में दीखते हैं, दिखाए जाते हैं। सुन्दर विवेचना। कई लोग अपनी ना -समझी में कहते हैं :तुलसीदास पत्नी पीड़ित ,पत्नी- प्रताड़ित थे इसी लिए इस चौपाई में बदला लेने पर उतर आये हैं। सुन्दर विवेचना चौपाई की।
जवाब देंहटाएंएक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :http://tamasha-e-zindagi.blogspot.com/2014/09/blog-post_93.html
शुक्रिया शर्मा जी
हटाएंमज़ाहिया नज़रिया तो बिलकुल ओरिजिनल है - कमाल का (तुलसी सुन लें तो बेचारे अपना ही सिर पीट लें )!
जवाब देंहटाएंहा हा हा - जी बिलकुल - शुक्रिया प्रतिभा जी - आभार
हटाएंतुषार जी, 'ढोल' का उत्थान किस प्रकार किया जा सकता है, कृपया यह भी स्पष्ट करें तो अच्छा हो।
जवाब देंहटाएंवैसे तो ये प्रश्न टांग खींचने की मंशा से पुछा गया है फिर भी मैं आपकी दुविधा को दूर किये देता हूँ कि ढ़ोल का उत्थान होगा उसको सही प्रकार लयबद्ध तरीके से बजाकर नाकि सिर्फ उसको पीट पीट कर | यदि डंडा बजाते वक़्त सही तरह से सही जगह लगेगा तभी सुरीली आवाज़ होगी वरना रंग में भंग | उम्मीद करता हूँ आपको आपके प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा | नमस्कार
हटाएं