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रविवार, अप्रैल 14, 2013

शुक्रिया तेरा

शुक्रिया तेरा
प्रत्येक जतन के लिए
हर पल सुनने के लिए
परवाह करने के लिए
प्यार करने के लिए
खुद को खुद की तरह
रखने के लिए

हैरान रह जाता हूँ मैं
कैसे रहती है तू
इतनी शांत
कहाँ से लाइ है
इतनी सहनशीलता
क्यों है तेरे पास
इतना धीरज

तू पास मेरे बैठ कर
बस सुनती रहती है
जब भी अनाड़ीपन से
मैं छलकाता हूँ दिल के
जज़्बात सामने तेरे और
मुस्कराती रहती है तू
आँख मूंदे मंद मंद

पर मैं भी
चाहता हूँ करूँ
तेरे लिए कुछ ऐसा ही
चल बता तू अपने डर
और बता दे जो भी
दिल में बसी हैं
चाहतें तेरी

वादा तो मैं करता नहीं
दे सकूँगा सब कुछ तुझे
आज, कल या जिंदगी भर
पर इतना कहूँगा बस तुझे
जब तक है जां में जां मेरे
कोशिश करूँगा खुश
रहे तू उम्र भर

शुक्रिया तेरा
सब कुछ है तू
मेरे लिए
शुक्रिया कहते
नहीं थकता है
'निर्जन' आज
बस तेरे लिए

कौन गलत था कौन सही

उस दिन क्यों सोचा मैंने
शायद इश्क मैं करता हूँ
आह! पर क्या वह मेरे
जीवन की सबसे बड़ी गलती थी
कुछ उतावले, बचकाने जज़्बातों ने
दिखलाये ना जाने मुझे कितने अवसाद

अरसा गुज़र गया तब से
पर रञ्ज आज भी करता हूँ
उसकी कपटी आँखों को
मैं सोच रातों को जगता हूँ
शर्मिंदा खुद से रहता हूँ
अब खुद को कोसा करता हूँ

मुद्दत हुई बिछड़े हुए, पर
दिल आज भी डरता है
वो नाम सामने आते ही
एक सन्नाटे से भरता है
गलती तो सबसे होती है
पर क्या कोई ऐसा भी करता है

कौन ग़लत था कौन सही
यह सवाल आज तक है बना
जीवन में इसके रहते ही
है रोष सामने रहा तना
मैं जब भी कुछ बतलाऊंगा
वो सोचेगा झूठ कही

जब सही वक़्त अब आएगा
वो स्वयं उसे समझाएगा
तब वो खुद ही पहचानेगा
गलती किसकी थी मानेगा
बस कुछ बरस की देर रही
सब जानेंगे और मानेंगे
कौन गलत था कौन सही

गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

मत सोचा कर

फ़रहत शाहज़ाद साहब द्वारा लिखी उनकी कविता 'तनहा तनहा मत सोचा कर' को अपने अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्षमा प्रार्थी हूँ, मैं उनका या उनकी नज़्म का अपमान करने या दिल को ठेस पहुँचाने की गरज़ से यह हास्य कविता नहीं लिख रहा हूँ। सिर्फ़ मज़ाहिया तौर पर और हास्य व्यंग से लबरेज़ दिल की ख़ातिर ऐसा कर रहा हूँ।

अगड़म बगड़म मत सोचा कर
निपट जाएगा मत सोचा कर

औंगे पौंगे दोस्त बनाकर
काम आयेंगे मत सोचा कर

सपने कोरे देख देख कर
तर जायेगा मत सोचा कर

दिल लगा कर बंदी से तू
सुकूं पायेगा मत सोचा कर

सच्चा साथी किस्मत की बातें
करीना, कतरीना मत सोचा कर

इश्क विश्क में जीना मरना
धोखे खाकर मत सोचा कर

वो भी तुझसे प्यार करे है
इतना ऊंचा मत सोचा कर

ख़्वाब, हकीकत या अफसाना
क्या है दौलत मत सोचा कर

तेरे अपने क्या बहुत बुरे हैं
बेवकूफ़ी ये मत सोचा कर

अपनी टांग फंसा कर तूने
पाया है क्या मत सोचा कर

शाम को लंबा हो जाता है
क्यूँ मेरा साया? मत सोचा कर

मीट किलो भर भी बहुत है
बकरा भैंसा मत सोचा कर

हाय यह दारू चीज़ बुरी है
टल्ली होकर मत सोचा कर

राह कठिन और धूप कड़ी है
मांग ले छाता मत सोचा कर

बारिश में ज़्यादा भीग गया तो
खटिया पकडूँगा मत सोचा कर

मूँद के ऑंखें दौड़ चला चल
नाला गड्ढा मत सोचा कर

जिसकी किस्मत में पिटना हो
वो तो पिटेगा मत सोचा कर

जो लाया है लिखवाकर खटना
वो सदा खटेगा मत सोचा कर

सब ऐहमक फुकरे साथ हैं तेरे
ख़ुद को तनहा मत सोचा कर

उतार चढ़ाव जीवन का हिस्सा
हार जीत की मत सोचा कर

सोना दूभर हो जाएगा जाना
दीवाने इतना मत सोचा कर

खाया कर मेवा तू वर्ना
पछतायेगा मत सोचा कर

सोच सोच कर सोच में जीना
ऐसे मरने का मत सोचा कर

बुधवार, अप्रैल 10, 2013

मेरा बचपन

जीवन की पथरीली
राहों में चलते चलते
जीवन की सुलगती
आग में जलते जलते
जीवन की कंटीली
चुभन में घुटते घुटते
याद आती है
सुकोमल बचपन की
कर्तव्यों की बेड़ी में
जकड़े जीवन में
याद आती है
उस स्वछंदता की
सुकोमल स्वच्छ बचपन
सुगंधों से भरा बचपन
पाप, पुण्य से मुक्त बचपन
अब घिर गया है अनेक
समस्याओं में जीवन
साँसों की डोर जुड़ गई
अश्रु की लड़ी में
हे ईश्वर! कब टूटेगी
ये अश्रु की लड़ी
हे ईश्वर! कब छूटेगी
ये दुखों की झड़ी
हे ईश्वर! कब फूटेगी
मुरझाए होटों पर हंसी
कब वापस आएगा
सलोना बचपन
हर ग़म हर दर्द से दूर
अनजाना खिलखिलाता
बचपन
कभी कभी नानी की कहानी
कभी माँ का वो आँचल
स्वर्ग से ज्यादा हसीन\
था मेरा बचपन
एक धुंधली से छवि है
बचपन अब वो तेरी
खोजता जाता हूँ, कहाँ
छिप गया मेरा बचपन

सोमवार, अप्रैल 08, 2013

जय सियाराम

दिन ढल जाये, हाय
रात जो आये
शाम के आँचल में
तारे छिपाए
रात काली और अँधियारा गहराए
पूछूँ मैं खुद से, अब
कैसे जिया जाए
चाँद पास आए, और
मुझे समझाए
ज़िन्दगी के फलसफे
मुझे बतलाए
सुन बस दिल की
और दे अंजाम
बिगड़े हुए हैं जो
बनेंगे तेरे
जीवन के काम
हँस के गुज़ार तू
सुबह हो या शाम
ख़ुशी से तू मिल सबसे
ले प्रभु का नाम
ज़िन्दगी में पा जायेगा
सुख फिर तमाम
जीतेगा हर बाज़ी तू
कोई हो मैदान
डर ना किसी से अब
साथ हैं तेरे राम
बोलो सियावर रामचन्द्र
की जय!!!
बोलो बजरंगबली

की जय!!!

रविवार, अप्रैल 07, 2013

सन्डे मना रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं
बिस्तर पर पड़े
हम तो
पकोड़े खा रहे हैं

टीवी चला रहे हैं
मैच लगा रहे हैं
बल्ले पे बॉल आई
गुरु जी
धोते जा रहे हैं

लंच बना रहे हैं
परांठे सिकवा रहे हैं
लाल मिर्च निम्बू के
अचार से
चटखारे ले खा रहे हैं

रायता बिला रहे हैं
बूंदी मिला रहे हैं
फिर करछी आंच
पर रख हम
छौंका बना रहे हैं

बच्चों को पढ़ा रहे हैं
सर अपना खपा रहे हैं
हाथ में ले के डंडा
हम उनको
डरा धमका रहे हैं

सुस्ती दिखा रहे हैं
खटिया पे जा रहे हैं
लैपटॉप सामने रख
हम तो
उँगलियाँ चला रहे हैं

अब सोने जा रहे हैं
ख्व़ाब सजा रहे हैं
चादर ताने मुंह तक
हम अब
चुस्ती दिखा जा रहे हैं

शब्द सजा रहे हैं
सोच दौड़ा रहे हैं
कीबोर्ड यूज़ करके
हम अब
कवीता बना रहे हैं

जल्दी से लिख रहे हैं
पोस्ट बना रहे हैं
फेसबुक पर बैठे
हम ये
रचना पढ़वा रहे हैं

लोग भी आ रहे हैं
पढ़ पढ़ के जा रहे हैं
सिर्फ लाइक कर के
सब ये
बिना कमेंट किये जा रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं

मलिन सोच

सत्य वचन सुनाता है समझे
जग बीती बताता है समझे
दशा भयी कितनो की है यह   
'निर्जन' कथा दिखता है समझे

राह खड़ी फुसलावत है समझे 
कामुकता से रिझावत है समझे 
मकड़जाल में माया के यह 
फंसने पर छटपटावत है समझे 

ताज़ा ताज़ा दिल हारा है समझे  
बकरा कितना प्यारा है समझे 
जो मलिन सोच से बंधता है यह
जीवन में खुद का मारा है समझे

शादी अब कारोबार है समझे
सौदों की भरमार है समझे
दिल के रिश्तों को भी अब यह 
मिला नया बाज़ार है समझे

बातों को खरताल है समझे
सोना चांदी माल है समझे
जीवन में आव़ाज़ाही को यह   
बच्चों का खिलवाड़ है समझे

आते ही रंग दिखलाती है समझे
चप्पल जूते चलवाती है समझे
मासूम सदा बनकर जो है यह
घर में कलह करवाती है समझे

पौ फटते फ़रमाइश है समझे
जेब की भी नुमाइश है समझे
खर्चें हरी पत्तियां जो है यह
मेहनत की कमाई है समझे


व्यापार चौपट करवाती है समझे
दर दर धक्के खिलवाती है समझे 
व्यक्तित्वहीन सोच जो है यह 
मनुष्य को दरिंदा बनवाती है समझे 

नित नए स्वांग रचाती है समझे
जीवन चलचित्र बनाती है समझे
मान अपमान के मोल को यह
तफ़री में उड़ाती है समझे  

आँख निकाल गुर्राती है समझे
शोले रोज़ बरसाती है समझे
जीवन पावन पुस्तक को यह
क्रोधाग्नि में जलाती है समझे

तंतर-मंतर करवाती है समझे
दिल में फाँस गड़वाती है समझे
संबंधो में परस्पर प्रेम को यह  
सूली पर चढ़वाती है समझे

संतान विच्छेद करवाती है समझे
उलटी पट्टी पढ़वाती है समझे
अनुचित शिक्षा में माहिर है यह 
बालक भविष्य डुबाती है समझे 

पिता-पुत्र लड़वाती है समझे 
बहन-भाई भिड़वाती है समझे 
बैठे दूर तमाशबीन बन यह  
रिश्तों में फूट डलवाती है समझे 

मान मर्यादा भूली है समझे
क्रियाचारित्र पर झूली है समझे
अपमानित अभद्र व्यवहार से यह
मुंह काला कर भूली है समझे

माल समेट भागे है समझे
पता कहीं ना पावे है समझे
झूठे तर्क दिखाकर कर यह  
कोर्ट केस कर जावे है समझे

नर्क भ्रमण करवाती है समझे
यमलोक पहुंचती है समझे
सज्जन पुरुषों की तो यह
अर्थी तक बंधवाती है समझे

शुभचिंतक यही सुझाता है समझे
मलिन विचारणा में कभी न उलझे 
जिस क्षण दिल में आ जाती है यह
ऊर्जा नष्ट कर के जाती है समझे

इससे अब सब बचकर रहना 
ज़िंदगी में साथ न इसका देना 
जो यह कहीं मिल जाये तुमको 
रसीद तमाचा रखकर देना

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

चाँद तारे हो गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

तुम हमेशा ही रहे, बेगुनाहों की फेहरिस्त में
तुम्हारे जो भी थे गुनाह, अब नाम हमारे हो गए

आज हम भी जुड़ गए, रोटी को निकली भीड़ में
किस्मत के मारे जो थे हम, सड़कों के मारे हो गए

बंट गया वजूद अपना, कितने ही रिश्तों में अब
तन एक ही रह गया है, दिल के टुकड़े हो गए

तैराए दुआओं के जहाज़, उम्मीदों के समंदर में
हम तो बस डूबे रहे, बाक़ी सब किनारा हो गए

कल किसी ने नाम लेकर, दिल से पुकारा था हमें
अब तक थे जो अजनबी, अब जानेजाना हो गए

कहते थे जब हम ये बातें, पगला बताते थे हमें
आज वे बतलाने वाले, खुद ही पगले हो गए

दिल के ये जज़्बात तुमको, नज़र करने थे हमें
गाफ़िल मोहब्बत में रहे, हम खुद नजराना हो गए

इश्क जो करते हो तुम, आज बतला दो हमें
अब तलक बस हम थे अपने, अब से तुम्हारे हो गए

नींद भी गायब है अपनी, चैन भी टोके हमें
अश्क जो रातों में बहे थे, जुल्फों में अटके रह गए

है अधूरी ये ग़ज़ल, मुकम्मल तुम करदो इसे
वो चंद जो आशार थे, बहर से भटके रह गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

यह  ग़ज़ल शैली नामक कविता श्रद्धोन्मत्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण की गई | 

शनिवार, मार्च 30, 2013

एकाकी












एकाकी जीवन है
मेरा
पर्वत तेरे जैसा
कभी लगे
झरने तेरे जैसा
कभी लगे
बादल तेरे जैसा
उमड़ घुमड़ कर
दुःख आते हैं
मन को दुःख दे
छल जाते हैं
कभी अंतः
सुख बरसाते हैं
दिल कहता है
दुःख नहीं चाहियें
अंतः कहता
सुख नहीं चाहियें
अंतः
मन दोनों एकाकी है
जीवन
तन दोनों एकाकी है
तब मैं भी तो
एकाकी हूँ
जीवन डोर
प्रभु को सौंपी
मन, अंतः को
दिया भुलाय
बादल तुझसे
झरने तुझसे
अपना जीवन
लिया मिलाय
बहते रहना
बरसते नयना को
अब लिया है
अपनाय...

बुधवार, मार्च 27, 2013

होली की ख़्वाहिशें ऐसी



अपने कुछ दोस्तों के लिए होली पर लिखी ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ | उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी |

हजारों, ख़्वाहिशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
लेख प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ, निकले

निकलना, बच के,
पिचकारी, से मेरी
पारुल, शैली, सोचे थे
मगर, रंग डाला
जो मैंने, हाय
गुलाबी
होके वो निकले

होली में नहीं है
फर्क लड़के
और लड़की का
पकड़ रंग देता हूँ
मैं हरा, जहाँ नेहा,
सचिन, दिव्या, विनय
मिल जाएँ

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
अभीलेख प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ निकले

चंदा के वास्ते
लाया हूँ पीला
नीला, रचना के
सुर्ख टेटी के
बैंगनी, प्रीती
के लिए

समीर, विष्णु,
को रंग दूं नारंगी
सोचे बैठा हूँ,
मैं भूरा, मृदुला दी
को रंगून
ये कब से सोचे बैठा हूँ

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
ऋतुराज प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ निकले

सुनहरा, ख़ाकी, भूरा
सफ़ेद, मैरून, सलेटी
कत्थई, चमकीला रंग दूं
सभी से
खेलूं मैं होली
सभी दोस्तों से
है गुज़ारिश,
‘निर्जन’ बस इतनी
जो खेलें
होली हम मिल के
दिल भी अपने
मिल जाएँ
जहाँ भी रहे
हम दुनिया में
याद, एक दूजे को आयें

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले.....
बहुत निकले मेरे अरमान 
लेकिन रंगीन ही निकले 
हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले.....

शुक्रवार, मार्च 22, 2013

कविता दिवस - कविता पर कविता

कविता दिवस पर सोचा
क्यों न प्रयास कर मैं भी
रच डालूं 'निर्जन', कविता
पर एक कंपायक कविता

'क' कृतियाँ सोच
'क' कलात्मक लोच
'क' कोमलता गुन
'क' कर्णप्रीयता सुन

'व' विषय चुन
'व' विचारावेश बुन
'व' वृत्तान्त गढ़
'व' विश्वास दृढ़

'त' तुकबंदी कर
'त' तरकश भर
'त' तंजिया कस
'त' तंत का रस

डाल दिमाग की मिक्सी में
घोट बना कर उद्देश्य
होली पर पेश यह करता हूँ
कविता का कवितामय पेय

रसपान कंकोलक शब्दों का
कँटियाना संभव है मन का
कंटालु भाव मैं बतलाता
कविता दिवस, कविता पर
मैं कविता लिख दिखलाता...

कंपायक - तरंगायक
कंकोलक - चीनी / मीठे
कँटियाना - रोमांचित होना
कंटालु - बबूल

बुधवार, मार्च 20, 2013

इश्किया होली


इश्क़िया होली पर तुझे दिल पेश करूँ
इश्क़िया होली पर तुझे जां पेश करूँ
इश्क़िया होली पर तुझे जहां पेश करूँ
जो तू कहे नगमा-ए-जज़्बात तुझे 
मेरी जानिब-ए-मंजिल पेश करूँ
गर मालूम हो तेरी नियाज़-ए-इश्क 
फ़िर नगमात-ए-इश्क गाकर वही 
दिलनवाज़ दिल्साज़ मैं पेश करूँ
जो तेरी नम हसरतों को हवा दे 
जज़्बात वही सजाकर पेश करूँ 
या कोई तेरी ग़ज़ल, कविता, किस्सा 
तेरे ही अल्फाजों में तुझे पेश करूँ 
तू जो एक बार मिल जाये होली पर 
अपने नवरंग प्यार की बौछार से भिगा
सराबोर कर, तुझको तुझे ही पेश करूँ 
अबके होली....

रविवार, मार्च 17, 2013

खूब मना मिलकर तू होली

होली के दिन आए आज
खूब बजेंगे जमकर साज़
ला दिखलायें अपना दिल
होली आकर हमसे मिल
बढ़े अपनों का प्यार ज़रा
चढ़े इश्क़ का खुमार ज़रा
त्योहार गले मिलते अपने
होत हैं सच दिल के सपने
सबके दिल में रंग खिले
गले लग करें दूर गिले
लुत्फ़ बहुत ही आता है
मुफ्त मज़ा दे जाता है
छोड़-छाड़ हर शरम-वरम
खूब निभाओ छुपे करम  
होली पर मस्ती में जीना
भंग तो जमकर है पीना
रंग चढ़ता हँसते हँसते 
भुला देता सारे रस्ते
पास लाओ अपना कान
मेरी बात पर दो ध्यान
चबाओ एक बनारसी पान
लगाके उसमें केसरी किमाम
नशे की जब चढ़ती मस्ती
दुनियादारी की क्या हस्ती
अपनी धुन में डोलती है
स्वछंद विचारों की कश्ती
हल्ला गुल्ला शोर मचे
सब देख सरीखे मोर सजे
होली की जो मचती है धूम
जनता सबरी जाती झूम
होली में बनाती तकदीरें
क्या खूब संवरती तदबीरें
अबीर भरा है समस्त गगन
घर घर हो रहे लोग मगन
सब रंगे हैं ललाम लाल
सबरे गालों का एही हाल
मनवा बावरा हाले डोले
हर क्षण पगला मुझसे बोले
खूब मना मिलकर तू होली
'निर्जन' बन सबका हमजोली

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

ज़िन्दगी से मुलाक़ात


आओ बतलाऊं दिल की बात
आज दिन था कितना खास
ज़िन्दगी से एक मुलाक़ात
बढ़ी गुफ्तगू की सौगात
कैसे सुबह से शाम हो गई
दिल की बातें आम हो गईं
जादू झप्पी से हुआ आगाज़
कितना सुन्दर रहा रिवाज़
शब्दों को भी पकड़ जकड़
दिए उलाहने अगर मगर
सवालात कुछ आम हुए
मियां मुफ्त सरनाम हुए
कुछ तस्वीरें कुछ तकरीरें
मिल बांटी हाथों की लकीरें
थोड़ी खुशियाँ थोड़े ग़म
सांझे किये कर आँखें नम
फिर आगे ये गज़र चली
कुदरत संग ये जा मिली
नदी, फूल, तितली के रंग
साथ खिले बातों के संग
गपियाने के जब दौर चले
जाने किस किस ओर चले
विचार, सुन्दरता, आकर्षण
अनावरण, भावना, विकर्षण
कर जीवंत आत्मा का मंथन
क्या खूब किया था विश्लेषण
हृदय द्वार जब खोल दिये
अस्तित्व शब्दों में बोल दिये
उन अपनेपन की बातों ने
जीवन में नवरस घोल दिए
द्रुतवाह अग्नि का खेल हुआ
बौद्धिक क्षमता का मेल हुआ
एक पड़ाव फिर ऐसा आया
पकवानों को सम्मुख पाया
शौक़ भोजन व्यंजन का
हृदय क्षुधा संबद्ध दर्शाया
हंसी ठीठोली खूब रहीं
कवितायेँ भी खूब कहीं
धारावाहिक, फिल्में, गाने
चर्चा इन पर ख़ास हुई
माज़ी से चुनकर लम्हात
शरीक हुए अब जज़्बात
वाह वाही भी खूब कही
ऐसे ही सारी शाम बही
वक़्त बिछड़ने का आया
दिल अपना मुंह को लाया
लम्हा काश ये थम जाता
जीवन यूँ ही चल पाता
कब होता है ऐसा यार
जाना लाज़मी उस पार
हाथ छुड़ा निमिष का
मिलने का वादा कर
निश्चल मन हुए जुदा
बिछडन के लम्हे पर
दागा गया कड़ा गोला
सवाल था बड़ा भोला
दिन पूरा कैसा गुज़रा ?
शब्दों में बतलाओ
भावनाओं को दर्शाओ
हमने कहा बतलायेंगे
हम भी कुछ जतलायेंगे
गौर थोडा फरमाएंगे
तब ही कुछ दिखलायेंगे
लो कहा दिनभर का सार
अब तुम करते रहो विचार
ज़िन्दगी से एक मुलाक़ात
दिन बना मेरा यह खास....

गुरुवार, मार्च 14, 2013

जीवन चक्र

एक को तेरा मरण
तेरह दिन में
मिले नए सम्बन्ध
छूटे रिश्ते वो सब
जो तेरे अपने
जाने और अनजाने थे
क्यों मानव इस
चक्रव्यूह में
घूमता है
ये, अजीब सा सत्य
हे ईश्वर
एक, तीन का मिश्रण
शुन्य सा हुआ
हर मानव
कब तक
आता जाता
रहेगा
पृथ्वी की तरह
चाँद सूरज के पीछे
सुबह शाम
घूमता रहेगा
एक घर
एक परिवेश से
दुसरे परिवेश में
कभी जब
पुराने सम्बन्धी
आयेंगे यादों में
तब तू अपने
जन्म की
अनंत पीड़ा से
अपनी मृत्यु की
वेदना का अनुभव
करते हुए क्या
सुख की सांस भी
ले पायेगा ......

बुधवार, मार्च 13, 2013

आयो होरी को त्यौहार

आयो होरी को त्यौहार
लायो रंगों की बौछार
भीजी चुनरी तुम्हार
सुलगे जियेरा हमार
आओ मिल बांटे प्यार
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
फागुन सुलगाये सांस
आयो देखो मधुमास
मारे हिलोरे आस
बसंत जिलावे प्यास   
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
खिलती कली कली
अरमानो में खलबली
गीत गावे मनचली
चली मैं पिया गली
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
कोकिला कूक लगाये
अमिया बौरायी जाये
अंतर्मन अग्न जगाये
प्रिये संग नेह बनाये
आयो होरी...

आयो होरी को त्यौहार
भंग लाओ मेरे यार
रंग चढे अब के बार
आई टेसू की फुहार
हुडदंग होवे सर पार
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
ढोल मंजीरे बजाएं ताल
नाचें बाल, बाला, गोपाल
नभ उड़े अबीर-ओ-गुलाल
गरे डारे बइयाँ माल
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
शायरी, नज़्म, पान
कविता, शेर, पीकदान  
साहेबान, मेहरबान
क़द्रदान, खानदान
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
पकवान मज़ेदार
कांजी-बड़ा ज़ोरदार
आलू पोहा मिर्चमार  
ठंडाई चढ़ी नशेदार
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
राजमा-चावल मांडमार
छोले भठूरे ज़ायकेदार
कढ़ी पकोड़ी झोलदार
पिंडी छोले हवादार
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
सैंडविच, टिक्की, भेल, पापड़ी
स्नैक्स, उपमा, चकली, फाफ्ड़ी
नगौरी, ढोकला, मठरी, कचौड़ी
मेथी चटनी, भल्ले, समोसा, पूड़ी
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
मिष्ठानों से भरते थाल    
रसगुल्ला, गुंजिया, लड्डू, बर्फ़ी,
खीर, जलेबी, हलवा, कतली
सबरों देसी घी को माल
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
ज़न्खी बेरंगी सरकार
निगोड़ी से न दरक़ार
किसी की न वफ़ादार
बेमानी, चोर और बेकार
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
मज़हबी दंगे फसाद
सुसरे सब अवसरवाद
नफरत बारूदी खाद
हमरी नस्ल हुई बर्बाद
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
खून से ललाम लाल
मचा कैसा है बवाल
पिचकारी गोला हाथ
गुब्बारा बम के साथ
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
नशेड़ियों की होती मांग
दारू, सुलफ़ा, चरस, अफीम,
बीडी, सिगरेट, गांजा, भांग
हाई हो देते सीमा लांघ
आयो होरी.....

आयो होरी को त्यौहार
लाल प्रेम का गुलाल
पीली मित्रता की धार
नीली सौभाग्य की फुहार
बैंगनी खुशियाँ अपार
आयो होरी.....

शहीद सरदार उधम सिंह को मेरा शत शत नमन



भारत की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब के प्रमुख क्रान्तिकारी सरदार उधम सिंह का नाम अमर है। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि उन्होने जालियाँवाला बाग हत्याकांड के उत्तरदायी जनरल डायर को लन्दन में जाकर गोली मारी और निर्दोष लोगों की हत्या का बदला लिया, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उन्होंने माइकल ओडवायर को मारा था, जो जलियांवाला बाग कांड के समय पंजाब का गर्वनर था | ऐसा भी माना जाता है के ओडवायर जहां उधम सिंह की गोली से मरा, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से ग्रसित होकर मरा।

२६ दिसंबर १८९९  को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह अनाथ थे। सन १९०१  में ऊधम सिंह की माता और १९०७  में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले। अनाथालय में ऊधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि १९१७ में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। १९१९ में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने १३ अप्रैल १९१९ को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।

इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है। अमर शहीद उधम सिंह उर्फ राम मुहम्मद सिंह आजाद १३ अप्रैल, १९१९ को घटे जालियाँवाला बाग नरसंहार को अपनी आँखों के सामने होते देखा । कुछ घटिया राजनेताओं की साजिश के कारण जलियाँवाला बाग़ में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई परन्तु इस काण्ड से हमारे वीर उधमसिंह घायल शेर की भांति खूंखार हो गए और गुस्से से आग बबूला हो गए | तकरीबन १८०० लोग जो शहीद हुए थे उन्होंने मन ही मन उनके लिए लड़ने की ठानी और प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगे |  ऊधम सिंह ने जलियाँवाला बाग़ की मिटटी को हाथ में ले और माथे से लगा प्रण लिया के वो इस दुष्कर्म के लिए ज़िम्मेदार माइकल ओ डायर को सबक ज़रूर सिखायेंगे |

देशप्रेम का यह सच्चा सपूत संकल्पित था ब्रटिश दुर्दांत हुकूमत द्वारा किये गए पाप और अपने देशवासियों के क्रूर अपमानजनक मौत का बदला लेने के लिए | अपनी इस मुहीम को अंजाम देने हेतु उन्होंने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन् १९३४ में हमारे उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां ९, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। यहाँ वहाँ यात्रा करने के लिए उन्होंने एक गाड़ी भी ख़रीदी | उसके साथ उन्होंने एक ६ गोलियों वाली पिस्तौल भी खरीद के रखी |

फिर वो सही समय का इंतज़ार करेने लगे | सिंह साब सही मौका मिलते ही कमीने माइकल ओ डायर को मारने की फ़िराक में थे और उचित वक़्त की बाट जोह रहे थे | १९४० में उन्हें जलियाँवाला बाग़ में शहीद हुए अपने सैकड़ों भाई, बहन, माताओं और देशवासिओं की मौत का बदला लेने का मौका मिला | उस काण्ड के २१ साल बाद १३ मार्च १९४० को | ब्रिटिश अख़बारों में प्रकाशित हुआ की लन्दन के कैक्सटन हाल में एक गोष्ठी आयोजित होने वाली है जिसमे ओ डायर के अलावा पूर्व भारत सचिव लार्ड जेटलैंड भी पहुंचेगा | दिन में दो बजे एक वकील की वेशभूषा में सज्जित उधम सिंह हाँथ में एक मोटी पुस्तक लिए पहुँच गए | मूलतः उसी किताब को भीतर से पिस्तौल के आकर में काट कर एक लोडेड पिस्तौल उसी में सुरक्षित रख दी थी | निश्चित समय पर कार्यक्रम प्रारंभ हुआ | हाल खचाखच भरा हुआ था | ओ डायर ने यहाँ भी अपना भारत विरोधी जहर उगला | तालियों की गडगडाहट से पूरा हाल गूंज उठा | लेकिन तभी गोलियों की तडतडाहट ने तालियों की गडगडाहट को खामोश कर दिया | दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं । सूअर ओ डायर जमीन पर पड़ा तड़फ रहा था और उसकी तत्काल मौत हो गई | जेटलैंड के हिस्से की गोली भी उसे  मिल चुकी थी | पिस्तौल खाली हो चुकी थी किन्तु उधम सिंह का चेहरा संकल्प पूर्ण होने की दैवी आभा से चमक रहा था | बैठक के बाद उधमसिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला । अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।

१ अप्रेल १९४० को केन्द्रीय आपराधिक ओल्ड बेयले मुकद्दमे की औपचारिता निभा कर ४ जून १९४० को उन्हें फांसी की सजा सुना कर उसी ब्रिक्सटन जेल भेज दिया गया जहाँ अमर शहीद मदन लाल धींगरा को भेजा गया था | जेल में उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब, कुरान और हिन्दू धर्म की पुस्तकों का अध्यन करने की कोशिश की किन्तु क्रूर ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें दस दिन में एक बार नहाने की छुट दी थी | अतः इन पवित्र पुस्तकों को स्नान कर छूने की भारतीय परम्परा के चलते उन्होंने इसमें आंशिक सफलता ही प्राप्त की | ३१ जुलाई को पेंटोंन विले जेल में फांसी का फंदा चूम कर उन्होंने जुलाई के महीने को पवित्र कर दिया | उनकी अंतिम क्रिया भी ब्रिटिश हुकूमत ने गुप्त रूप से कर दी | १९ जुलाई १९७४ को उधम सिंह के अवशेष भारत लाये जा सके और उन अवशेषों को हिन्दू-मुस्लिम-सिख समुदाय ने उधम सिंह की इच्छानुसार हरिद्वार में गंगा, फतेहगढ़ मस्जिद के साथ लगे कब्रिस्तान में और सिख भाइयों ने उनकी अंत्येष्टि आनंद साहिब में पूर्ण की | देशप्रेम के इस सच्चे सपूत को देशभक्तों का हार्दिक-हार्दिक अभिनन्दन अनिवार्य है | इस तरह यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया |

मैं अपने देश के ऐसे सच्चे वीर बेटों, सेनानियों और शहीदों को शीश झुका कर शत शत नमन करता हूँ |

आप सभी देशवासियों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ के देश को गंदे नेताओं से बचाने के लिए हमें आज ऐसा ही आदर्श देश पुत्र चाहिए ??? "सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,  मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए" | यदि आप इस सवाल पर सहमत हैं तो कृपया अपना जवाब और मत टिपण्णी के रूप ज़रूर ज़रूर दीजिये |

भारत माता की जय | जो बोले सो निहाल सत श्री आकाल | जय श्री राम | हर हर महादेव | जय कारा वीर बजरंगी का | यलगार हो | जयहिंद !!!

समझो तब

जीवन पहेली है
ना समझो तब
जीवन कहानी है
समझो तब

जीवन अन्धकार है
ना समझो तब
जीवन दर्शन है
समझो तब

जीवन काँटा है
ना समझो तब
जीवन गुलदस्ता है
समझो तब

रिश्ते तमाशा हैं
ना समझो तब
रिश्ते ज़िम्मेदारी हैं
समझो तब

साथ दुखमय है
ना समझो तब
साथ सुखमय है
समझो तब

प्रेम मृगतृष्णा है
ना समझो तब
प्रेम अनुभूति है
समझो तब

मन निर्जीव है
ना समझो तब
मन सजीव है
समझो तब

विचार पीड़ा हैं
ना समझो तब
विचार क्रीडा हैं
समझो तब

बातें व्यर्थ हैं
ना समझो तब
बातें अर्थ हैं
समझो तब

मुलाक़ात बेमानी है
ना समझो तब
मुलाक़ात दीवानी है
समझो तब

चरित्र धोखा है
ना समझो तब
चरित्र भरोसा है
समझो तब

कसक सज़ा है
ना समझो तब
कसक मज़ा है
समझो तब

मनुष्य अज्ञानी है
ना समझो तब
मनुष्य ज्ञानी है
समझो तब

जीवन यापन अनुभव है
अलौकिक व पारलौकिक का
समझो तब, समझो तब, समझो तब...

मेरी मृगतृष्णा

मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल की
जन्मो जन्मो से
तरसती है
मैं कौन हूँ
क्या हूँ
सब जानते हुए
हर जन्म में
नई मोह माया के
उधड़े बुने जाल में
फंसती है

मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल से
किसी चाहत को
तड़पती है
कभी श्राप है
कभी आशीर्वाद है
नौका विहार की भांति
लहरों से मुझे
मिलाती है

गहन अन्धकार
दिव्य प्रकाश
हर जन्म में मुझे
धरोहर में मिलता है
मेरी मृगतृष्णा
अनंत काल से
कुछ ना
पाने को की
मचलती है 

जी क्यों है

कोई ये कैसे बताये, के ये 'जी' क्यों है 
वो जो अपने हैं, वही 'जी' 'जी' करते क्यों है 
यही बातें हैं,  तो फिर बातों में, 'जी' 'जी' क्यों है 
यही होता है तो, आखिर ये, 'जी' होता क्यों है 

एक ज़रा बात बढ़ा दे, तो समझ लें 'जी' को 
उसकी बातों से समझ जायेंगे, हम भी 'जी' को 
इतनी फुर्सत में हैं, समझा तो ज़रा, तू 'जी' को 

शब्द-ए-बर्बाद से,  वाबस्ता है अब तक कोई 
उम्र-ए-दर्द दिया करता है, अब तक वोई  
शब्द जो भूल गए, फिर से सुनाता क्यों है

दिल-ए-उल्फत कहो, या कहो, अफ़सुर्दा
कहते हैं 'जी' का ये रिश्ता है, कसक का रिश्ता 
है कसक का, जो ये रिश्ता, भला कहते क्यों है ...... 

वाबस्ता - get stuck/attached
उल्फत - love
अफ़सुर्दा - sad/sorry/dismal/withering