ज़िन्दगी भी है खफ़ा
और लोग हैं बेरहम
अब हो गया यकीन मुझे
न बुरा हूँ मैं न तुम
किस को मेरे हाल से
निस्बत हो क्यों भला
आँखें भी दुश्मनों की
हर पल ही ज़ुल्म करें
मेरे सिवा तेरे
न होने का ग़म किसे ?
तेरी तलाश में तो बस
मैं ही हूँ क्या कहूँ
कुछ आज शाम ही से
दिल भी है बुझा बुझा
वोह ज़िन्दगी की आग भी
है मध्यम ज़रा ज़रा
इस सेहरा-ए-आरज़ू से मैं
बहार निकल चलूँ
मेरे दिल की रौनकों में
कोई दम भी न बचा
सब कुछ सही है 'निर्जन'
मगर इतना ज़रूर है
दुनिया में बहुत कम है
अपने लोग
यहाँ वहाँ...
(निस्बत - रिश्ते, relation ; सेहरा- रगिस्तान, desert; आरज़ू - ख्वाइश, desire )