रविवार, अप्रैल 07, 2013

सन्डे मना रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं
बिस्तर पर पड़े
हम तो
पकोड़े खा रहे हैं

टीवी चला रहे हैं
मैच लगा रहे हैं
बल्ले पे बॉल आई
गुरु जी
धोते जा रहे हैं

लंच बना रहे हैं
परांठे सिकवा रहे हैं
लाल मिर्च निम्बू के
अचार से
चटखारे ले खा रहे हैं

रायता बिला रहे हैं
बूंदी मिला रहे हैं
फिर करछी आंच
पर रख हम
छौंका बना रहे हैं

बच्चों को पढ़ा रहे हैं
सर अपना खपा रहे हैं
हाथ में ले के डंडा
हम उनको
डरा धमका रहे हैं

सुस्ती दिखा रहे हैं
खटिया पे जा रहे हैं
लैपटॉप सामने रख
हम तो
उँगलियाँ चला रहे हैं

अब सोने जा रहे हैं
ख्व़ाब सजा रहे हैं
चादर ताने मुंह तक
हम अब
चुस्ती दिखा जा रहे हैं

शब्द सजा रहे हैं
सोच दौड़ा रहे हैं
कीबोर्ड यूज़ करके
हम अब
कवीता बना रहे हैं

जल्दी से लिख रहे हैं
पोस्ट बना रहे हैं
फेसबुक पर बैठे
हम ये
रचना पढ़वा रहे हैं

लोग भी आ रहे हैं
पढ़ पढ़ के जा रहे हैं
सिर्फ लाइक कर के
सब ये
बिना कमेंट किये जा रहे हैं

सन्डे मना रहे हैं
मौज उड़ा रहे हैं

मलिन सोच

सत्य वचन सुनाता है समझे
जग बीती बताता है समझे
दशा भयी कितनो की है यह   
'निर्जन' कथा दिखता है समझे

राह खड़ी फुसलावत है समझे 
कामुकता से रिझावत है समझे 
मकड़जाल में माया के यह 
फंसने पर छटपटावत है समझे 

ताज़ा ताज़ा दिल हारा है समझे  
बकरा कितना प्यारा है समझे 
जो मलिन सोच से बंधता है यह
जीवन में खुद का मारा है समझे

शादी अब कारोबार है समझे
सौदों की भरमार है समझे
दिल के रिश्तों को भी अब यह 
मिला नया बाज़ार है समझे

बातों को खरताल है समझे
सोना चांदी माल है समझे
जीवन में आव़ाज़ाही को यह   
बच्चों का खिलवाड़ है समझे

आते ही रंग दिखलाती है समझे
चप्पल जूते चलवाती है समझे
मासूम सदा बनकर जो है यह
घर में कलह करवाती है समझे

पौ फटते फ़रमाइश है समझे
जेब की भी नुमाइश है समझे
खर्चें हरी पत्तियां जो है यह
मेहनत की कमाई है समझे


व्यापार चौपट करवाती है समझे
दर दर धक्के खिलवाती है समझे 
व्यक्तित्वहीन सोच जो है यह 
मनुष्य को दरिंदा बनवाती है समझे 

नित नए स्वांग रचाती है समझे
जीवन चलचित्र बनाती है समझे
मान अपमान के मोल को यह
तफ़री में उड़ाती है समझे  

आँख निकाल गुर्राती है समझे
शोले रोज़ बरसाती है समझे
जीवन पावन पुस्तक को यह
क्रोधाग्नि में जलाती है समझे

तंतर-मंतर करवाती है समझे
दिल में फाँस गड़वाती है समझे
संबंधो में परस्पर प्रेम को यह  
सूली पर चढ़वाती है समझे

संतान विच्छेद करवाती है समझे
उलटी पट्टी पढ़वाती है समझे
अनुचित शिक्षा में माहिर है यह 
बालक भविष्य डुबाती है समझे 

पिता-पुत्र लड़वाती है समझे 
बहन-भाई भिड़वाती है समझे 
बैठे दूर तमाशबीन बन यह  
रिश्तों में फूट डलवाती है समझे 

मान मर्यादा भूली है समझे
क्रियाचारित्र पर झूली है समझे
अपमानित अभद्र व्यवहार से यह
मुंह काला कर भूली है समझे

माल समेट भागे है समझे
पता कहीं ना पावे है समझे
झूठे तर्क दिखाकर कर यह  
कोर्ट केस कर जावे है समझे

नर्क भ्रमण करवाती है समझे
यमलोक पहुंचती है समझे
सज्जन पुरुषों की तो यह
अर्थी तक बंधवाती है समझे

शुभचिंतक यही सुझाता है समझे
मलिन विचारणा में कभी न उलझे 
जिस क्षण दिल में आ जाती है यह
ऊर्जा नष्ट कर के जाती है समझे

इससे अब सब बचकर रहना 
ज़िंदगी में साथ न इसका देना 
जो यह कहीं मिल जाये तुमको 
रसीद तमाचा रखकर देना

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

चाँद तारे हो गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

तुम हमेशा ही रहे, बेगुनाहों की फेहरिस्त में
तुम्हारे जो भी थे गुनाह, अब नाम हमारे हो गए

आज हम भी जुड़ गए, रोटी को निकली भीड़ में
किस्मत के मारे जो थे हम, सड़कों के मारे हो गए

बंट गया वजूद अपना, कितने ही रिश्तों में अब
तन एक ही रह गया है, दिल के टुकड़े हो गए

तैराए दुआओं के जहाज़, उम्मीदों के समंदर में
हम तो बस डूबे रहे, बाक़ी सब किनारा हो गए

कल किसी ने नाम लेकर, दिल से पुकारा था हमें
अब तक थे जो अजनबी, अब जानेजाना हो गए

कहते थे जब हम ये बातें, पगला बताते थे हमें
आज वे बतलाने वाले, खुद ही पगले हो गए

दिल के ये जज़्बात तुमको, नज़र करने थे हमें
गाफ़िल मोहब्बत में रहे, हम खुद नजराना हो गए

इश्क जो करते हो तुम, आज बतला दो हमें
अब तलक बस हम थे अपने, अब से तुम्हारे हो गए

नींद भी गायब है अपनी, चैन भी टोके हमें
अश्क जो रातों में बहे थे, जुल्फों में अटके रह गए

है अधूरी ये ग़ज़ल, मुकम्मल तुम करदो इसे
वो चंद जो आशार थे, बहर से भटके रह गए

रात आई, ख्व़ाब सारे, चाँद तारे हो गए
हम बेसहारा ना रहे, ग़म के सहारे हो गए

यह  ग़ज़ल शैली नामक कविता श्रद्धोन्मत्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण की गई | 

महबूब

आभा ! जैसा नाम वैसा ही स्वरुप और बहुत ही आभामय जीवन शैली का यापन करने वाली गुलाब के फूल सी कोमल युवती | हर हाल में, हर रूप में, हर स्वरुप में, सुख में, दुःख में, धुप में, छाँव में, ठंडी में, गर्मी में, पतझड़ में, बारिश में, और हर छोटे बड़े उतार चढ़ाव दर्शाती परिस्थिति में जीवन का ख़ैर मक़दम करने वाली बहुत ही जिंदादिल युवती है "आभा" | उसके नाम के अनुरूप ज़िन्दगी के प्रति उसका दृष्टिकोण भी आभायमान रहता था | जिंदादिल, खुश मिजाज़, ख़ुर्शीद से दमकते रूप, सौंदर्य से परिपूर्ण नफीस कुदरत का करिश्मा जिसे अल्लाह मियाँ ने किसी खास व्यक्ति के लिए चुन कर संसार में भेजा था | जीवन के बीस सावन पार कर अब वो आगे आने वाले सावन के इंतज़ार में थी | उसके चेहरे की तस्कीं, मीलों दूर फैले सहराओं का एहसास देती है | काली घनी नागिन सरीखी लहराती जुल्फें दिन में काली बदली लाने का माद्दा रखती हैं | शम्स की आग सा ताबिंदा पेशानी का नूर देखने वालों की नज़रों को झुकाने का सामर्थ्य रखता है | चाँद जैसे रौशन गुलज़ार रुखसारों के साथ गेज़ाल मदभरी आँखों पर कौन ना दिल हार बैठे और दिलों जान से मर ना मिटे | सुर्ख होटों पर शबनम सी बरसती हंसी किसी के भी दिल में इश्क के तूफ़ान कैसे न पैदा कर दे | ऐसी दिलफ़रेबी गुलफ़ाम से भला कौन बच सकता था | 

अपनी ज़िंदगनी की पहली पारी में आभा अपने प्रेमी सूरज से बहुत ज्यादा वाबसता थी | उसके इश्क का जादू आभा के सर पर चौबीस घंटे चढ़ा रहता | दिन रात सोते जागते बस एक ही नाम ज़हन में समाये जाता, सूरज! सूरज! सूरज! | वो दोनों एक दुसरे के इश्क में गिरफ्तार आलम से बेखबर, एक दुसरे के हाथ में हाथ लिए, आँखों में आँखे डाल महशर की रात के सपने सजाते और आग़ोश में बैठे साथ जीने मरने की कसमें खाते | पर ऐसा हो ना सका कुदरत को कुछ और ही मंज़ूर था | आभा के वालिद बहुत ही संजीदा इंसान थे | मिजाज़ से बहुत ही कड़क, हठी और गुस्सैल | जो उनके जी में आती वही करते | किसी की हिम्मत नहीं थी उनके सामने ज़बान खोल सकता और उफ़ तक कर सकता | अपने सैकड़ों ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल करते पर अंजाम सिर्फ अपनी सोच को ही दिया करते |

ऐसे में उन्हें एक दिन मालूम चलता है के उनकी बेटी आभा किसी के इश्क की गिरफ्त में है | मालूम चलने पर गुस्सा तो बहुत आया पर फिर लाल पीला होने की बजाये उन्होंने चुप रहकर एक राजनैतिक खेल खेला और ऐसे हालात पैदा कर दिए के आभा को शादी करने के लिए रज़ामंदी देनी पड़ी | उसका निकाह उन्होंने अपने पुराने लंगोटिया के साहबज़ादे के साथ पढ़वा दिया | हालाँकि आभा आज भी सूरज के गल्बा-ए-इश्क़ में मशगूल थी पर चूंकि पिताजी की इज्ज़त भी की लाज भी निभानी थी तो जैसे तैसे उसने अपने इस नए जीवन के आगाज़ का ख़ैर मक़दम कर लिया | 

पिता के प्रति अकीदे की बहुत भारी कीमत अदा कर आभा आज बिना किसी टिल्ले-नवीस के अपनी पुरानी ज़िन्दगी को टिल्ला के आगे बढ़ चुकी थी | अकेली हिज़्र की तपिश में स्वाह होती रहती पर अपनों के आय’जाज़ के लिए अपने माज़ी को टिली-लिली देती | अब उसकी यादों में सिर्फ गुज़रे वक़्त के अफसाने ही थे और कुछ अश्क जो उसने सबसे छिपा कर संजो रखे थे | उसके आने वाले जीवन में नया रंग भरने वाला मुसाविर अब उसका पति था और वो अपने इस नए परिवेश में फकत आसिरान बनी आने वाले वक़्त का तमाशा देख रही थी | इसका महासल यह हुआ के खिलखिलाती आभा हमेशा के लिए ख़ामोशी की चादर में लिपटी, लफ़्ज़ों को सिये अपनी ज़िन्दगी की तनहाइयों में गम हो गई | 

वक़्त का वकफ़ा कैसे गुज़ारा कुछ मालूम नहीं दिया | आज जब कि वो बहुत खुश है अपनी शादीशुदा ज़िंदगी मे, हर बात का ख्याल रखने वाले पति और दो प्यारे बच्चो के साथ, बीस वर्ष बाद अचानक सफाई करते समय पूर्व प्रेमी सूरज के ख़त पर नज़र पड़ती है | एक पुरानी किताब सफाई के दौरान नीचे गिर पड़ती हैं और ज़िन्दगी के पुराने सफों को खोल कर सामने ला खड़ा करती है | उस ख़त को पढने के बाद उसके सामने पुराना मंज़र एक बार फिर दौड़ जाता है | उसे अपना पहला प्यार याद आता है जिसकी हसरत-ए-दीदार के लिए कभी वो बेतहाशा तरसा और तड़पा करती थी | कुछ मजबूरियों की वजह से जिससे जुदा होना पड़ा था वो एक बार फिर से यादों की कब्र से उठ कर बहार आ खड़ा होता है | अब वो भावुक हो उठती है और आँखें नाम किये ख़त को सीने से लगाये खड़ी सोचती रहती है | एक बार पुराने प्रेमी को देखना चाहती है | अब उसे क्या करना चाहिए? क्या उस खत को फाड़ कर फेंक देना चाहिए? जला देना चाहियें?  ख़त हाथ में संभाले बीता वक़्त याद कर रोमांचित और रूमानी होते हुए उसके दिल में यही विचार उथल पुथल मचा रहे थे | इन्ही सब विचारों जूझते और खुद से लड़ते उसके कपडे पसीने से तर-ब-तर हुए जा रहे थे और उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे | दिमाग पुराने अफ्सानो की रेलगाड़ी में सवार था और दिल सूरज से मिलने जाने की कवायद को दस्तक दिए जा रहा था | वो अपने आप से सवाल किये जा रही थी और जवाब भी खुद ही तलाशने की कोशिश कर रही थी | क्या मुझे एक बार सूरज से मिलने जाना चाहियें? या अपने पुराने प्रेमी से मिलकर मैं कोई गुनाह तो नहीं करुँगी? क्या वो मुझे याद करता होगा या भूल गया होगा? 

इन्ही अटकलों के साथ ना जाने कब समय बीत गया पता भी नहीं पड़ा | अचानक पीछे से कंधे पर किसी ने दस्तक दी तो हडबडाकर आभा अपने तसव्वुर के फ़लक से नीचे उतर कर ज़मीन से मिलने आई और मुड़कर देखा तो सामने शोहर को पाया | उसका चेहरा देखते ही सारे ख़यालात और सवालात ना जाने कहाँ मुश्त-ए-गुबर में गुम हो गए | जो कुछ समय पहले ख़ाक-ब-सर गरीबां-ए-मुहब्बत बनी ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन ख्वाब बुन रही थी अब वो एक दम शांत थी | उसके सारे सवालों का जवाब उसके सामने मौजूद था | 

उससे बेतहाशा इश्क फरमाने वाला, बे-रिया, वफ़ा-शि'आर उसका शौहर जो गाहे-गाहे आश्कार अपने प्यार का इज़हार भी कर दिया करता है | जिसकी मुनफ़रिद शक्सियत ने इन बीस सालों में उसके पुराने प्यार को भुला देने में मदद की और आज जिसकी दिल-कुशा मुस्कराहट पर आभा मर मिटती है | जिसकी बे-सूद उल्फ़त और रफ़ाकत ने उसकी नई जिंदगानी को परवाज़ दी थी | जिसके सलीक़े की आज वो क़ायल है | जिसकी सादगी और रानाई की इबादत करते आज आभा थकती नहीं थी | जिसने उसकी अफ़सुर्दा और खामोश जिंदगी में मेहताब की नफीस रौनक भर दी थी | जिसके वस्ल की कस़क, जिसके एहतराम के लिए आज आभा मुद्दतों तक इंतज़ार कर सकती है | जिसके प्यार की खातिर आज आभा को क़िस्तों में मौत भी मंज़ूर है | आज वो उसका सच्चा हबीब है जिसके साथ वो दहर तक जीवन जीना चाहती है | 

वो साहिर जो उसके जीवन में खुशियों का क़ासिद बनकर आया था उसके सामने आते ही आभा ने ख़त को हथेली में दबोच लिया और डबडबाती आँखों से दो गाम आगे बढ़कर कर सीने से चिपट उसके गले लग गई और धीरे से कान में फ़ुसफ़ुसाया, 

"महबूब! ओह महबूब! अच्छा हुआ तुम आ गए | मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ, अपनी जान से भी ज्यादा | तुम्हारे बिना जीने की मैं सोच भी नहीं सकती"

और ख़त को मोड़ कर वापस दुसरे हाथ में दबी किताब में रख दिया | 

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
ख़ुर्शीद - सूरज / sun
तस्कीं - शान्ति / peace
सहराओं  - रेगिस्तान / desert
शम्स - सूरज / sun
ताबिंदा - प्रकाशित, जगमग / illuminated and brightened
पेशानी - माथा / forehead 
नूर - रौशनी / light
गुलज़ार - लाली / bloom
रुखस़ार - ग़ाल / cheeks
गेज़ाल -  हिरनी जैसी, मृगनयनी / dove eyed damsel
शबनम - ओस / dew
दिलफ़रेबी गुलफ़ाम - दिल को ठगने वाली हसीना /  girlfriend
वाबसता - संलग्न, जुडी हुई / attached
ज़हन - दिमाग / mind
आलम - दुनिया / worldworld
महशर - क़यामत का दिन / judgement day 
आग़ोश - गोद / lap
वालिद - पिताजी / father 
ख़ैरख़्वाहों – शुभचिंतक / well wisher 
मुख़्लिस - दिल का साफ / pure hearted
मशवरों - सलाह /  suggestions
इस्तक़्बाल - इकराम, इज्ज़त / respect, welcome
अंजाम -  परिणाम  / result
रज़ामंदी - सहमति, अनुमति, अनुबंध / agree 
गल्बा-ए-इश्क़ - प्यार का जूनून / passion of love
मशगूल - मसरूफ़, व्यस्त / busy
आगाज़ - शुरुवात / start
ख़ैर मक़दम - स्वागत / welcome
अकीदा = श्रद्धा / devotion
टिल्ले-नवीस - बहाने बाजी / excuses
टिल्ला - धक्का / push
हिज़्र - जुदाई / seperation
आय’जाज़ - मान सम्मान / honour
टिली-लिली - अंगूठा दिखाना / show thumb
अफ़साने - कहानियां, किस्से / stories
अश्क - आंसू / tears
मुसाविर - तस्वीर बनाने वाला / painter
आसिरान - कैदी / captive
महासल - परिणाम स्वरुप / result
हसरत-ए-दीदार - ललक , आरज़ू  / longing, desire to see
कवायद - अभ्यास / drill, exercise
अफसाना - कहानी / tale
तसव्वुर- कलपना / contemplation, imagination, thought
फ़लक - आसमान / sky
मुश्त-ए-गुबर - चुल्लू भर धूल / handful of dust
ख़ाक-ब-सर - दीवाने, सर में मिट्टी डाले हुए / gaga 
गरीबां-ए-मुहब्बत - अनुरागिनी, मुहब्बत के मारे लोग / lover
ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन - चमन को उजाड़ने वाले / destroyer of flower garden
बे-रिया - मुख़्लिस, दिल का साफ / clear hearted
वफ़ा-शि’आर - वफ़ा करने वाला / loyal
आश्कार - सरे आम ,जाहिर / express
गाहे-गाहे - कभी-कभी / sometimes 
मुनफ़रिद – मुख़्तलिफ़, अनुपम / unmatchable
दिल-कुशा - मनोहर / pretty
बे-सूद - बिना किसी स्वार्थ के / without any benefit
उल्फ़त -  प्यार / love
रफ़ाकत - दोस्ती / friendship
सलीक़ा - good manner, etiquettes
रानाई - beauty
ईबादत - worship
अफ़सुर्दा - sad/sorry/dismal/withering
मेहताब - moon
नफीस - जगमगाती / illuminated
वस्ल - मुलाक़ात / meeting
कस़क - ache/longing
एहतराम - respect, courtesy
मुद्दत - a long period of time
क़िस्तों - instalments, pieces
हबीब - दोस्त / friend, beloved, lover
दहर - eternity
साहिर - magician
क़ासिद – messenger
दो गाम - दो कदम / two steps

सोमवार, अप्रैल 01, 2013

अपने ब्लॉग पर मेरी आखरी पोस्ट


सरकारी सूचना
-----------------------

सभी आम और ख़ास ब्लॉगर मित्रों तथा जनहित में जारी : -

सभी मित्रों को सूचित किया जाता है के ३० मार्च, शाम ब्लागस्पाट के मैनेजमेंट और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट के सरकारी अधिकारीयों के बीच हुई बैठक ,वार्तालाप और भेंटवार्ता के नतीजे कुछ इस प्रकार हैं | सरकार द्वारा निर्णय लिया गया है और एक अध्यादेश पारित किया है जो ३१ मार्च, २०१३, रात १२ बजे, से लागू हो गया है | इसके अंतर्गत :

- ब्लागस्पाट.कॉम पर ब्लोग्गेर्स की बढती संख्या और सरकार की निंदा में लिखे हुए लेख, कविता, टिप्पणियां, दोहे, हाइकू, कुण्डलियाँ आदि को देखते हुए सरकार ने इस साईट को जल्द से जल्द बंद करने का आदेश पारित कर दिया है | 

- साईट पर अत्यधिक ट्रैफिक के आने की वजह से सरकार ने अपना प्रभाव बनाते हुए ब्लागस्पाट साईट को अपने शिकंजे में ले लिया है और इस पर १० करोड़ का जुरमाना लगा दिया है | 

- जो ब्लोग्गेर्स सरकार के विरोध में लिखना पसंद करते हैं उनकी सूची तयार कर उनपर सकत कार्यवाही करने की योजना बनाई जा चुकी है | 

- ३१ मार्च रात्रि १२ बजे के बाद से सभी तरह के ब्लोग्गेर्स पर ब्लॉग्गिंग करने की रोक लगा दी गई है | इस आदेश को ना मानने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा सकती है जिसमें १ लाख रूपये जुरमाना अथवा १ वर्ष बामशक्कत क़ैद का प्रावधान है | 

- ब्लागस्पाट और फेसबुक को आपस में जोड़कर पोस्ट सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वालों पर ज्यादा कड़ी कार्यवाही की जाएगी | 

- सरकारी बहु, सरकारी बेटी, सरकारी दामाद, सरकारी बच्चे, सरकारी नाती/पोती,  सरकारी मुलाजिम, सरकारी महकमे, सरकारी प्रसंशक अथवा स्वयं सरकार के बारे में कुछ भी लिखने वाले को ५ लाख रूपये का जुरमाना और २ वर्ष कठोर कारावास की सजा का प्रावधान तय पाया है | 

- फेसबुक, ट्विटर सरीखी सोशल मीडिया साइटों  को भी बैन करने की कवाय्तें शुरू की जा चुकी हैं | 

- जो लोग इन सभी विपदाओं से बचना चाहते हैं वे आने वाले चुनावों से पहले अपनी लेखनी में सिर्फ और सिर्फ सरकारी खानदान और सरकार का गुणगान करेंगे और सिर्फ सरकार के बारे में लिखेंगे | इसमें कवितायेँ, लेख, चाँद, हाइकू, ग़ज़ल, शेर इत्यादि शामिल हैं | 

- पसंद आने पर चयन की गई सर्वश्रेष्ट प्रविष्टि लिखने वाले को उचित इनाम और सरकारी भक्त के ख़िताब से नवाज़ा जायेगा | इसमें इनाम की राशि में २ लाख रूपये नकद, एक बिल्ला, एक प्रशंसा पत्र और सरकारी दामादों वाली खातिरदारी शामिल है | 

उपरोक्त सभी आदेशों का पालन न करने वाले के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जाएगी और उसे निम्बूपानी की सजा दी जाएगी जिससे उसका पेट साफ़ हो जाये और वो सरकार के साफ़ सुथरे प्रतिरूप को समझ सके और उसके बारे में आगे लिख सके | 

भाइयों मैं तो हैण्ड टू हैण्ड अभी से ब्लागिंग बंद कर रहा हूँ. इसे अप्रैल फूल समझने की गलती बिलकुल न करें वरना आपको पछताना पड़ सकता है | 

नमस्कार  
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.

.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.

.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.

.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.

.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
अप्रैल फूल बनाया तो तुमको गुस्सा आया :)

उल्लू बनाया ,बड़ा मज़ा आया ;)

शनिवार, मार्च 30, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ९

अब तक के सभी भाग - १०
---------------------------------------------------------
गार्गी अनारो देवी की बड़ी बेटी थीं | उनका सुसराल बड़ा ही राजसी और ठाठ बाट वाला ख़ानदान था | अपनी बड़ी बेटी के लिए बहुत सोच समझ कर और साहु साब से सलाह मशवरा करने के पश्चात् ही उन्होंने रिश्ता तय किया था | दुल्हा भाई बेहद पढ़े लिखे और वकालत पास थे | बेबाक़ और पश्चमी सभ्यता के परवरिश के सानिध्य में पले बड़े ज़मींदार साहब बहुत ही शालीन, शिष्ट और देखने भालने के सुन्दर होने के साथ ही उनका जमाल काबिले तारीफ था | परन्तु सभी को भली भांति ज्ञात है उस ज़माने में ज़मींदारों के तौर तरीक़े और रहन सहन किस तरह के हुआ करते थे |

रजवाड़ों और ज़मींदारों का ख़ानदान था तो शौक़ भी वैसे ही विलासी थे | पांच हज़ार गज़ में फैली आलीशान हवेली मुरादाबाद जैसे छोटे शहर में बहुत मायने रखती थी | साहू साब की हसियत के मुताबिक महज़ वही एकलौता ख़ानदान था जो हर लिहाज़ से उनकी बराबरी के क़ाबिल था | उनकी हसियत का अंदाज़ा उनकी हवेली को देखकर लगाया जा सकता था | हवेली के बाहरी दरवाज़ों पर हमेशा दो पहरेदार, हाथी और महावत के साथ स्वागत के लिए खड़े रहते | हाथियों का काम सिर्फ इतना था के हर आने जाने वाले को अपनी सूंड उठाकर सलामी पेश करते | मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही मीलों फैला होने का एहसास देता बड़ा सा अहाता जिसके दोनों तरफ लगी रंग बिरंगे अंग्रेजी फूलों की बगिया में भिन्न भिन्न प्रजाति के पुष्प उन्मुख पक्षियों की तरह करलव करते चहचहाते प्रतीत होते | फूलों की महकभौरों की गुंजन,  उन से आती भीनी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क में ऐसी उतरती मानो कोई अत्तार के बैठा इतर की शीशियाँ खोल खोल कर छिड़क रहा हो | आहते के बीचो बीच पुर्तगाली वास्तुशिल्प की बेजोड़ कला का प्रतीक एक नक्काशीदार फ़व्वारा था | जिसमें गुलाब और केवड़े से महकता उदक हर वक़्त मौजूद रहता और आँगन को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहता | फिर एक लम्बा दालान जिसके दोनों तरफ़ा संगमरमर के खम्बे सजे थे, हवेली के प्रवेश द्वार तक ले जाता | उस विशाल चौमंज़िला हवेली में पचासियों नौकर चाकर और बांदियाँ एक टांग पर खड़े दिन रात ख़िदमत में लगे रहते | हवेली के पिछवाड़े घुड़साल और गौशाला थी जिसमें बीसियों घोड़े और गायें पाली जातीं | 

मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही बैठक हुआ करती थी | जहाँ आराम और रस रंग के सभी साज़ो-सामन मुहैया थे | एक तरफ चौपड़ और दूसरी तरफ मयखाना और इनके बीच बिछी हुई गौ-ताकियों की कतार के साथ गद्दे और उनके किनारे रखे मिस्र से मंगाए नक्काशी और रंगीन बेल बूटों से सजे हुक्के | जिन्हें दिन रात जमींदार साहब के मेहमान गुड़ गुड़ाते और ऐश कूटते | ईमारत की निचली दो मंजिलों में मर्दों के रहने की व्यस्था थी और उपरी दो मंजिलों में ज़नान खाना  था | जहाँ गार्गी देवी ऐश-ओ-आराम से जीवन यापन करती थीं | गार्गी देवी को भांति भांति के व्यंजन बनाने का बेहद शौक था | तरह तरह के अचार, मुरब्बे, लड्डू और मठरी इत्यादि बनाना उनके बाएं हाथ का खेल था | स्वादिष्ट इतने के जो एक बार उनके हाथों का स्वाद चख ले तो तो उनकी पाक कला का मुरीद हुए बिना न रह सके | उस बड़ी हवेली में आराम के सभी साधन और इंतजामात तो थे | पर जैसे की होता है बड़े घरों के राजनैतिक माहौल में अपनेपन, अकेलेपन और खालीपन की टीस ह्रदय में हमेशा बनी रहती थी | 

अनारो देवी के दुसरे पुत्र और पुत्रियों के रिश्ते भी संभ्रांत परिवारों में हुए थे | उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुरेन्द्र प्रसाद जिन्होंने लखनऊ से वकालत की पढाई पूर्ण की थी उनका विवाह उत्तर प्रदेश की एक छोटे से कसबे के जागीरदार की सुपुत्री के साथ हुआ था | 

उनसे छोटे श्री वीरेन्द्र प्रसाद जो की हर कार्य में दक्ष थे और ज़्यादातर अपने नाना साहू हरप्रसाद के सानिध्य और मातेहत बड़े हुए थे उन्होंने वाणिज्य और व्यापार की पढाई उत्तीर्ण की थी | उन्हें वकालत और ज़मींदारी का भी खासा अनुभव था | पुश्तैनी कारोबार ‘महिला वस्त्रालय’ का कार्यभार भी उन्ही के कंधो पर था | अपने पिताजी से कपडे को परखने और जांचने- पहचानने की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | व्यापार में माहिर और वाक् कुशलता में उनका कोई सानी नहीं था | अपने नानाजी और उनके कानूनी मसलों की भी सारी ज़िम्मेदारी उन्हें के सर थी | मात्र तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मेहनत से गंज के मोहल्ले में अपना मकान बनाया था | जिसके वास्तुशिल्प की संरचना को उन्होंने स्वयं अंजाम दिया था | उनका लग्न दिल्ली के एक बहुत ही सम्मानित उच्च कुल के परिवार में साहू नन्दुमल पुरुषोत्तम दस् जी की सुपुत्री के साथ हुआ | 

उनके अनुज श्री सत्येन्द्र प्रसाद जी जिन्होंने डाक्टरी की पढाई शुरू तो की थी परन्तु जीव हत्या और जीव-जंतुओं की कांट-पीट से विमुख हो वे पढाई अधूरी छोड़ वापस आ गए थे और मुरादाबाद में सरकारी ठेकेदारी के कार्य में लिप्त थे | उन्हें पाक कला का प्रगाढ़ अनुभव था और वो नए नए पकवान बनाने में दक्ष थे | उनका विवाह फरुक्खाबाद के एक बहुत ही शालीन और सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुआ | 

उनकी सुपुत्री बीना देवी का विवाह चंदौसी के बहुत ही पैसे वाले और रईस घराने में हुआ था | अपने ज़माने में चंदौसी जिले में उनके ससुर की तूती बोला करती थी | बेहद मशहूर और मारूफ़ हस्तियों में उनका नाम शुमार था | बड़ी बड़ी इमारतें, गोदाम, दुकाने, सिनेमा घर, बर्फ, पेपरमिंट और तेल बनाने का कारखाना और भी न जाने क्या क्या व्यापार थे उनके | साहू साहब के खानदान में उनका बहुत ही मेल-मिलाप और आना जाना था | इसी आपसदारी के चलते बीना देवी का विवाह उनके सुपुत्र के साथ तय हुआ था | 

बीना से छोटी माधरी देवी का विवाह मुंडिया के एक बहुत ही सुशील और पढ़े लिखे नौजवान के साथ हुआ था | उन्होंने उस ज़माने में एम्.बी.ए की पढाई उत्तीर्ण की थी और एक बहुत ही सम्मानित दैनिक समाचार पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत थे | बाद में उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र और मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू किया | साथ ही उन्होंने भवन निर्माण के व्यवसाय में भी बहुत नाम कमाया और दिल्ली के एक बहुत ही आलिशान और उच्चवर्गीय इलाके में अपनी कोठी का निर्माण किया | 

अन्त में सबसे छोटे श्री विनोद कुमार जिन्होंने यन्त्रशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | जीवन के शुरुवाती दिनों में उन्होंने एक सरकारी महकमे में यंत्रवेत्ता के पद पर कार्य किया परन्तु फिर चाकरी से दिल उकताने के कारण उन्होंने अपने स्वयं का व्यवसाय आरम्भ किया | उनकी शादी भी एक मुरादाबाद के पास के जिले लखीमपुर खिरी के एक बहुत ही सम्मानित परिवार की बेटी के साथ हुई थी | 

इस प्रकार से साहू साहब, अनारो देवी और गंगा सरन जी ने अपनी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बहुत ही कुशलतापूर्ण और व्यस्थित तरीके से निभाया था | उन्होंने जितना हो सके सात्विक संस्कार, रीति रिवाजों तथा उच्च शिक्षा अपनी संतानों को प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी संताने उनकी आशाओं के अनुरूप खरी उतरी और सभी अपनी दैनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन करने हेतु सक्षम थे | 

वहीँ साहू साब भी अपनी बीमारी के कारण पिछले दस वर्षों से मोतियाबिंद और आँखों में कला पाना उतरने की वजह से अपनी दृष्टि से मुक्त हो चुके थे | किन्तु फिर भी उनका रौब ज्यों का त्यों था | अपने मुकदमें बाज़ी, ज़मींदारी और दुसरे छोटे बड़े काम वे तब भी बड़ी सहजता के साथ स्वयं ही निपटा लिया करते थे | बस स्वभाव से ज़रा आशुकोपी, तुनकमिजाज़, हड़बड़हटी, उत्तेजित, उन्मादी, चिड़चिड़े, हठधर्मी और गुस्सैल हो गए थे | दृष्टि खो देने की पीड़ा उन्हें कभी कभार बहुत लाचार बना देते थी और गाली-गलौच में कुछ ज्यादा इजाफा कर दिया करती थी | अपनी दृष्टिहीनता से खिन्न वे कभी कभी बहुत झुंजला जाया करते और अभद्र भाषावली प्रयोग कर परिवार के सदस्यों पर बरस पड़ते |  अब उनकी दृष्टि वीरेन्द्र प्रसाद की आँखें ही थी जो उनका सारा काम संभाला करते थे | उनके गुस्सैल स्वाभाव और गलियों से त्रस्त दुसरे नाती उनसे कन्नी काटा करते | वहीँ दूसरी ओर वीरेन्द्र बाबु उनकी सभी रोज्मर्रह की ज़रूरियात, खाना पीना, घूमना और यहाँ वहां के छोटे बड़े काम सभी का ख़याल रखते और अपने नाना की बुजुर्गियत को सहारा देने मैं कभी कोताही न बरतते | वो कहते हैं न बड़ों की गाली भी स्वाली होती है | वीरेन्द्र बाबु उनकी इस भाषा को आशीर्वाद समझ ग्रहण करते और सच्चे ह्रदय से उनके सभी कार्य पूर्ण करते | उनकी एक आवाज़ पर अपने सभी काम काज और खाना पीना छोड़ दौड़े चले जाया करते |  यही कारण था के साहू साहब का सारा स्नेह और प्यार उन पर आशीर्वाद बनकर बरसता और वे साहू साहब के सबसे प्रिये और लाडले नाती थे |

अनारो देवी और गंगा सरन जी भी अब वयोवृद्ध अवस्था में प्रवेश कर चुके थे और अपने सभी उत्तरदायित्त्वों से मुक्त हो चुके थे | अब उनका अधिकतर समय भगवान् की भक्ति में गुज़रता और जो समय बच जाता वो अपने नाती पोतों के साथ समय व्यतीत करने में बीत जाता |  क्रमशः

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

एकाकी












एकाकी जीवन है
मेरा
पर्वत तेरे जैसा
कभी लगे
झरने तेरे जैसा
कभी लगे
बादल तेरे जैसा
उमड़ घुमड़ कर
दुःख आते हैं
मन को दुःख दे
छल जाते हैं
कभी अंतः
सुख बरसाते हैं
दिल कहता है
दुःख नहीं चाहियें
अंतः कहता
सुख नहीं चाहियें
अंतः
मन दोनों एकाकी है
जीवन
तन दोनों एकाकी है
तब मैं भी तो
एकाकी हूँ
जीवन डोर
प्रभु को सौंपी
मन, अंतः को
दिया भुलाय
बादल तुझसे
झरने तुझसे
अपना जीवन
लिया मिलाय
बहते रहना
बरसते नयना को
अब लिया है
अपनाय...

शुक्रवार, मार्च 29, 2013

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है













कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है -

काश लोन लेकर शादी की होती -
तो ज़िन्दगी आबाद हो भी सकती थी

ये बेलन और झाड़ू से पिटाई बदन पे खाई है -
रिकवरी एजेंटों की दुआओं से खो भी सकती थी

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है -
के बीवी ही है, जिसे मेरा दम निकालने की जुस्तजू  ही है

गुज़र रही है कुछ इस तरह से ज़िन्दगी जैसे -
इससे वसूली वालों के सहारे की आरज़ू ही है

ना कोई राह, न मंज़िल, न रौशनी का सुराग -
गुज़र रही है हतौडों-थपेड़ों में ज़िन्दगी मेरी

इन्ही हतौडों-थपेड़ों से उठ जाऊंगा कभी सो कर -
मैं जानता हूँ मेरे ग़म-वफ़ात, मगर यूँही

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

बुधवार, मार्च 27, 2013

गोरी संग होरी

आज न छोड़ेंगे
तुझको हम गोरी
खेलेंगे तो से  होरी
खेलेंगे तो से होरी

चाहे रूठे
हमसे तू गोरिया
चाहे होवे ठिठोली
खेलेंगे तो से होरी

समझे खुद को
तू कितनी सायानी
प्रीत पड़ेगी निभानी
चले न तेरी मनमानी

भर पिचकारी
रंग देंगे तुझको
लाल, नीला, गुलाबी
बचके हमसे जो भागी

भीजेगी फिर
तोहरी चुनरिया
भीज जाएगी चोली
खेलेंगे तो से होरी

ऐसे हमको
नखरे दिखा न
हम ये जीतेंगे बाज़ी
दिखा न ऐसे नाराजी

चाहे लठ चलें
या नैन कटारें
पीछे हम न हटेंगे
खेलेंगे तो से होरी

आज न छोड़ेंगे
तुझको हम गोरी
खेलेंगे हम होरी
खेलेंगे हम होरी

होली का हुल्लड़ - २

होली का हुल्लड़ है, ज़रा हल्ले से निकले
जैसे भी निकले पर,धड़ल्ले से निकले
हम इश्क़ के ख़ादिम ज़रा बल्ले से निकले
रंगीन शब्दों के गुब्बारे, मेरे गल्ले से निकले
जो बनते थे अपने को गज़ब झल्ले से निकले
अब के जो चढ़ा है रंग, बनके छल्ले से निकले
जिन्होंने ये पोता है रंग लल्ले से निकले
होली के रंग, भंग, तरंग पल्ले से निकले
लाल रंग पींको का भर गल्लों से निकले
जम के रंग लगाओ कोई बच के ना निकले
होली है होली मनाओ धूम मचाओ...
बहुत बहुत शुभकामनायें

होली की ख़्वाहिशें ऐसी



अपने कुछ दोस्तों के लिए होली पर लिखी ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ | उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी |

हजारों, ख़्वाहिशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
लेख प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ, निकले

निकलना, बच के,
पिचकारी, से मेरी
पारुल, शैली, सोचे थे
मगर, रंग डाला
जो मैंने, हाय
गुलाबी
होके वो निकले

होली में नहीं है
फर्क लड़के
और लड़की का
पकड़ रंग देता हूँ
मैं हरा, जहाँ नेहा,
सचिन, दिव्या, विनय
मिल जाएँ

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
अभीलेख प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ निकले

चंदा के वास्ते
लाया हूँ पीला
नीला, रचना के
सुर्ख टेटी के
बैंगनी, प्रीती
के लिए

समीर, विष्णु,
को रंग दूं नारंगी
सोचे बैठा हूँ,
मैं भूरा, मृदुला दी
को रंगून
ये कब से सोचे बैठा हूँ

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले,
वो बच निकले,
ऋतुराज प्यारे,
लेकिन,
बच कहाँ निकले

सुनहरा, ख़ाकी, भूरा
सफ़ेद, मैरून, सलेटी
कत्थई, चमकीला रंग दूं
सभी से
खेलूं मैं होली
सभी दोस्तों से
है गुज़ारिश,
‘निर्जन’ बस इतनी
जो खेलें
होली हम मिल के
दिल भी अपने
मिल जाएँ
जहाँ भी रहे
हम दुनिया में
याद, एक दूजे को आयें

हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले.....
बहुत निकले मेरे अरमान 
लेकिन रंगीन ही निकले 
हजारों, ख्वाइशें, ऐसी,
के हर ख्वाइश पे,
रंग निकले.....

सोमवार, मार्च 25, 2013

होली का हुल्लड़ - १

प्यारे दोस्तों मैं आप सभी को आदाब अर्ज़ करता हूँ | होली के इस शुभ मौके पर मैं आप सबके सामने अपना लिखा एक गीत प्रस्तुत करने जा रहा हूं | उम्मीद करता हूँ आप सभी मेम्बरान को मेरी कोशिश पसंद आएगी | ज़िन्दगी में रिकॉर्डिंग का ये मेरा प्रथम प्रयास है | यदि कोई त्रुटी हो जाये तो शमा चाहूँगा | तो पेश-ए-खिदमत है होली का हुल्लड़ |


दस, नौ, आठ, सात
छह, पांच, चार, तीन
दो एक...मस्ती शरू
करते हैं हम...

रंग भरी इन बौछारों से
भीगी है चुनरिया, हे
भीजे तोहरी चोली, मां
बावरे हैं सब जन यहाँ

मन पर नहीं काबू
होली का है जादू...

ये होली का जादू है ला र ला 
नहीं दिल पे काबू है ला र ला  
दीवाने हम हो गए,
रंगों गुजियों में खो गए
ज़िन्दगी स्वाद और, मस्ती है ला र ला 
ये होली का जादू है ला र ला...

ठंडाई गिलसिया के संग,
भंग घुटी है कोरी, हे
ऐसा मज़ा देवे, जैसे
इन्द्रलोक की गोरी

गरमा, गर्म पूरी की फुहारें
खट्टी कांजी की डकारें
सबको मदहोश हैं करती
देखो, समोसे के कतारें
पहले कभी तो न अब से
इतराता था इतना, रसगुल्ला

ये होली का जादू है ला र ला 
नहीं दिल पे काबू है ला र ला  
दीवाने हम हो गए,
रंगों गुजियों में खो गए
ज़िन्दगी स्वाद और, मस्ती है ला र ला 
ये होली का जादू है ला ला...

जल्दी जल्दी खेल के 
घर भी तो है जाना, हे
नशा ये न चढ़ जाये
दे डैडी से पिटवा न

दिल को, हम जीत चलें है
गाकर ये गीत सांवरिया
है ये, रंग दीवाने का
याद रहे, सारी उमरिया
अब बोलो कैसे बचोगे
‘निर्जन’ की है,
प्यारी सी दुनिया

ये होली का जादू है ला र ला 
नहीं दिल पे काबू है ला र ला  
दीवाने हम हो गए,
रंगों गुजियों में खो गए
ज़िन्दगी स्वाद और, मस्ती है ला र ला 
ये होली का जादू है ला ला...

शुक्रवार, मार्च 22, 2013

कविता दिवस - कविता पर कविता

कविता दिवस पर सोचा
क्यों न प्रयास कर मैं भी
रच डालूं 'निर्जन', कविता
पर एक कंपायक कविता

'क' कृतियाँ सोच
'क' कलात्मक लोच
'क' कोमलता गुन
'क' कर्णप्रीयता सुन

'व' विषय चुन
'व' विचारावेश बुन
'व' वृत्तान्त गढ़
'व' विश्वास दृढ़

'त' तुकबंदी कर
'त' तरकश भर
'त' तंजिया कस
'त' तंत का रस

डाल दिमाग की मिक्सी में
घोट बना कर उद्देश्य
होली पर पेश यह करता हूँ
कविता का कवितामय पेय

रसपान कंकोलक शब्दों का
कँटियाना संभव है मन का
कंटालु भाव मैं बतलाता
कविता दिवस, कविता पर
मैं कविता लिख दिखलाता...

कंपायक - तरंगायक
कंकोलक - चीनी / मीठे
कँटियाना - रोमांचित होना
कंटालु - बबूल

गुरुवार, मार्च 21, 2013

I Love Rains


I love rains,
It take me back memory lanes,
Makes me wet,
With showers of her love and care.

When it thunders,
It reminds me of blunders,
That we both made,
During that loving decade.

When it breezees,
I recall her sneezes,
Wet clothes she wear,
She looked mesmerising i swear.

I love rains,
It take me back memory lanes.

श्रीमती अनारो देवी - भाग ८

अब तक के सभी भाग - १०
---------------------------------------------------------
आजाद मुल्क़ | दिलकश फ़िज़ा | खुशनुमा माहौल | दुःख और सुख के बादलों के साथ साथ अनारो देवी के पारिवारिक सुख में समृद्धि और वृद्धी का जोड़ तोड़ चलता रहा | जहाँ उनके बेटे महेन्द्र प्रसाद उर्फ़ मानू की बाल्यकाल में अकस्मात् मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया और दुसरे बेटे योगेन्द्र उर्फ़ ‘योगी’ की जवान मौत ने सारे परिवार को तोड़ उनके सामने दुःख का विशालकाय पर्वत ला खड़ा किया था | वहीँ अपनी संतानों की तरक्की और शादी ब्याह से उनका आँगन ख़ुशी के रंगों से भी सराबोर भी होता रहा था |

घटना उस समय की है जब महेन्द्र प्रसाद कुछ सात या आठ बरस के रहे होंगे | गर्मियों के दिन थे | जेठ के दोपहरी | एक दिन अचानक पाठशाला से लौट कर उन्हें तेज़ कपकपी उतरी और ज्वर चढ़ आया | अनारो देवी ने घरेलू काढ़ा दे कर उन्हें आराम करने की सलाह दी | परन्तु बालक तो बालक हैं उन्होंने आज तलक किसी की सुनी है भला | माँ की बात न मानकर वे दोस्तों के साथ तेज़ ताप में भी खेलने चले गए | शाम तक उनकी हालत बहुत बिगड़ गई और खेलते खेलते चक्कर खाकर गिर पड़े | सभी बच्चे डर गए और उनके घर पर आकर ये बात बताई | साहू साब तुरंत नौकर को साथ ले उन्हें डाक्टर के पास ले गए | डाक्टर ने बच्चे की हालत देखते हुए उन्हें अस्पताल में भरती कर लिया | परन्तु दिन-बा-दिन बीतते गए और मानू की हालत सुधरने की जगह बिगड़ने लगी | काफी दवा-दारू के बाद भी कोई सूरत-ए-हाल समझ नहीं आया | शहर के बड़े से बड़े डाक्टर को साहू साब ने बुलवाया | पानी की तरह पैसा बहाया पर नतीजा कुछ न निकला | घर में भी सभी का बुरा हाल था पर सब हताश हुए बैठे थे | मंदिर, मस्जिद, गिरिजे, गुरूद्वारे, पीर, फ़कीर, लंगर, प्याऊ सब कर के देखा | हर तरह के नुस्खे अपनाये गए | घंटे-घड़ियाल, कर्म-कान, पूजा-अर्चना, यज्ञ-हवन भी कर देखे पर अगर ऐसे सुनवाई होती तो फिर बात ही क्या थी | आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब मानु के विदाई की घडी सभी ने देखी | अपनी आँखों के सामने बिलांद भर के छोरे को काल के मुंह का ग्रास बनते देखते माँ का कलेजा फटे जा रहा था पर ऐसा कोई न था जो उनके लल्ला को जाने से रोक लेता | बुखार दिमाग पर चढ़ने की वजह से मानू कोमा में चला गया था और उसके धीरे धीरे उसकी सासें उसका साथ छोड़ गई |

जैसे तैसे मानू के दुःख से बहार आते आते सालों बीत गए | घर का चिराग बुझ चुका था पर सभी माँ के दिल को दिलासा देने में लगे रहते और संतोष करने को कहते और दूसरी संतानों के होने की दुहाई देते | लोग भगवान् की मर्ज़ी कह कर बात को आया गया कर देते और सुकून कर लेते | पर माँ का दिल कैसे तस्सली करता | जो टीस और पीड़ा उसके दिल के कोने में घर कर गई थी वो ता-उम्र साथ निभाने वाली थी | जीवन का चक्का बड़ा बलवान है और समय के हाथों घूमता है जिसमें इंसान पिस्ता है | अभी कुछ ही वर्ष गुज़रे थे के अचानक एक दिन योगेन्द्र भी मोहल्ले में सड़क पर चलते चलते गश खाकर गिर पड़े | उनकी उम्र तब कोई बीस के आस पास रही होगी | सभी मोहल्ले वाले तुरंत ही उठाकर उन्हें करीब के डाक्टर के पास ले गए | उन्होंने डाक्टर को सीने में दर्द होने की शिकायत बताई | डाक्टर ने तुरंत एक्स-रे निकलवाने का सुझाव दिया | तब तक घर से दुसरे लोग भी डाक्टर के यहाँ पहुँच चुके थे | गंगा सरन जी ने तुरंत ही निकट के अस्पताल में जाकर उनका एक्स-रे करवाया | उस समय एक्स-रे करवाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी | वहां घर पर अनारो देवी और साहू साब को बहुत चिंता लगी हुई थी | कुछ समय के पश्चात सभी योगी को साथ ले घर पहुंचे और तब सबकी जान में जान आई | दो दिन के बाद डाक्टर रिपोर्ट लेकर साहू साब के घर पधारे | सभी बहुत व्याकुल और चिंतित थे के ऐसी क्या बात है जो के डाक्टर साब स्वयं चलकर आये | उन्हें सम्मान सहित बैठक में विराजने को कहा गया और सभी लोग थोड़ी देर में बैठक में हाज़िर हो गए | साहू साब ने पुछा ,

“क्या हुआ डाक्टर बेटा, ऐसी कौन सी बात है जो तुम चलकर आये | कहलवा दिया होता मैं वीरेन्द्र को रपट लेने भिजवा देता | खैर अब आ ही गए हो तो खान पान कर के जाना | बताओ क्या बात है ?”

डाक्टर साब चुप चाप सब सुन रहे थे | उन्होंने धीरे से साहू साब का हाथ थामा और बोले,

“दद्दाजी, खबर अच्छी नहीं है | योगी भाई की हालत सही नहीं है | बात बहुत गंभीर और चिंताजनक है |”

उनकी बात सुनकर सभी सन्न रह गए | गंगा सरन जी ने पुछा,

“बेटे पर बात क्या है वो तो बताओ? ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी अचानक से | योगी तो भला चंगा है ये एक दम से हालत ख़राब | कुछ समझाओ डाक्टर साहब |”

डाक्टर साहब ने उत्तर दिया, “बाबूजी, योगी भाई के दिल में छेद है और दिल भी बढ़ रहा है | देर से पता चला है अब एडवांस स्टेज के करीब पहुँच चुकी है हालत | अगर इलाज भी करते हैं और लगातार दवाई भी करते हैं तो ज्यादा से ज्यादा चार पांच साल और खींच सकते हैं बस | इतना कहकर वो चुप हो गए |”

बैठक में सभी का दिल धक्क्क!!! कर के रह गया | ये कैसी विपदा आन पड़ी अचानक से | अभी सब लोग यही सोच रहे थे के इतना होनहार विद्यार्थी | पढाई लिखाई में अव्वल, हर एक कार्य में दक्ष योगी के साथ अचानक प्रभु ने ये क्या खेला रच डाला | तभी बैठक के दरवाज़े के पीछे से योगी निकल कर आये और बोले,

“अरे अभी पांच साल तो हैं | आप सब तो अभी से मातम मानाने लग गए | कम से कम पांच साल तो ख़ुशी से और अपनी तरह जी लेने दीजिये मुझे | आप सब ऐसे मुँह लटका कर बैठेंगे तो अम्मा को भी पता चल जायेगा | ऐसा में कतई नहीं चाहता के उन्हें ये सब पता चले और वो परेशान हों |”

उनकी बातें और विचार सुनकर सबकी आँखे भर आई और सभी ने उनकी बात का समर्थन करते हुए एक स्वर में हामी भरते बोले,

“हाँ, अम्मा को यह बात ना ही मालूम हो तो बेहतर होगा | अभी तो मानू के हादसे से ही न उभर पाई हैं अम्मा | ये बात पता चली तो न जाने क्या असर होगा |”

सभी ने एक सहमति से अनारो देवी को योगी की बीमारी के बारे में न बताने का फैसला लिया और डाक्टर साब को भी इसमें शामिल कर उनसे से विदाई ली |

देखने में बेहद सुन्दर योगेन्द्र उर्फ़ योगी, प्यार से यही कहकर बुलाती थी अनारो देवी उन्हें | व्यक्ति तो उच्चकोटि के थे ही साथ ही साथ वो पढाई लिखाई में भी अव्वल थे | अपनी बीमारी के चलते भी उन्होंने डबल एम्.ए किया और फिर वो कॉलेज में प्रोफेसर हो गए | उनका सारा समय पढाई लिखाई करने और अपने विद्यार्थीयों को पढ़ने में कैसे बीत जाता पता भी नहीं पड़ता था | साथ ही साथ चुपके चुपके वो अपने इलाज का भी ध्यान रख रहे थे | न ज्यादा हड्कल, न ज्यादा चढ़ना उतरना और न ही ज्यादा भाग दौड़ करते | साहू साब से कह कर उन्होंने बैठक के बगल वाला कमरा ले लिया था | बस सारा दिन वहीँ अपनी किताबों और बच्चों के साथ गुज़ार देते थे |

पर कहते हैं न माँ का दिल, माँ का ही होता है | उसकी आँखों से कुछ नहीं छिपता | क्योंकि वो बाहरी आँखों से नहीं मन की आँखों से देखा करती है | योगी की गिरती सेहत और बर्ताव ने अनारो देवी के मन में शंका उत्पन्न कर दी थी | काफी समय से वो योगी के खान पान, रहन सहन और आचरण पर निगाह कर रही थीं | घर के बाक़ी लोग भी उनकी शंका के घेरे में थे | समझदार को इशारा ही काफी होता है और समझदारी में अनारो देवी का कोई सानी न था | जीवन के अब तक अनुभवों और कटु सत्यों ने उन्हें स्तिथियों को समझने और परखने की ऐसी क्षमता प्रदान कर दी थी जिसके रहते वो किसी भी आनेवाली विपदा को पहले ही महसूस कर लेतीं थी |

एक दिन उन्होंने योगी को अपने कमरे में बुलवाया | कमजोरी के चलते योगी बहुत ही धीरे धीरे सीढियां चढ़कर उनके कमरे में पहुंचे | ऊपर तक जाने में वो बुरी तरह से हांफने लगे | अनारो देवी ने उन्हें देखा तो उठ कर उनके सर पर हाथ फेरा और कहा,

“आ गया लल्ला | बैठ जा | इतना हांफ क्यों रहा है | देख कितना कमज़ोर भी हो गया है तू | अपने खाने पीने का ख्याल रखा कर | वैसे भी अब तेरी शादी की उम्र हो रही है तंदरुस्त नहीं दिखेगा तो कैसे काम चलेगा | लल्ला, तू सारा दिन बस कॉलेज और उसके बाद अपने कमरे में ही रहता है | कहीं आता जाता भी नहीं है | क्या बात है, क्या परेशानी है, कोई दिक्कत है तो मुझे बता मैं तो तेरी अम्मा हूँ | मैं सब ठीक कर दूंगी | बचपन में तू दिल की सारी अच्छी बुरी झट से आकर कह दिया करता था | और जब से तूने वो नीचे वाला कमरा लिया है तब से तो तू अपने में ही खो गया है | अब तो अम्मा से मिले भी तुझे पखवाड़ों बीत जाते हैं | खाना भी अब नीचे ही मंगवा कर खाने लगा है | चुपड़ी रोटी भी नहीं खाता | घी-दानी भी ऐसे ही वापस आ जाती है | पहले कम से कम चौके बैठ कर ठीक से खाना तो खा लिया करता था | ठाकुरजी की कृपा से चौके में तेरी शक्ल देखने को मिलती तो थी अब तो उसके भी लाले हैं | इतना भी क्या व्यस्त हो गया तू के अपनी अम्मा को ही भूल गया |”

योगी अम्मा की गोद में सर रखकर लेट गए | “न अम्मा ऐसी तो कोई बात न है | बस आजकल कॉलेज मैं काम थोड़ा ज्यादा है और बच्चों के इम्तिहान भी सर पर हैं | फिर उन्हें पढ़ना, समझाना, परीक्षा के लिए तयार करना होता है इसलिए समय बचाने के लिए ज़्यादातर नीचे ही रहता हूँ और खाना भी नीचे ही मंगवा लेता हूँ और कहीं आता जाता भी नहीं हूँ | एक बार इम्तेहान निपट जाएँ फिर बस फारिक़ | बस और कोई बात न है तू फ़िक्र न करा कर | मैं ठीक हूँ |”

अनारो देवी ने योगी का हाथ उठाया और अपने सर पर रख लिया, “खा मेरी कसम के सब ठीक है | इतने दिनों से देख रही हूँ | सब पर नज़र है मेरी | तेरी अम्मा हूँ मैं कुछ तो है जो मुझसे छिपाया जा रहा है | अब बात क्या है बता नहीं तो...|”

योगी ने झट से अम्मा के मुंह पर हाथ रख दिया और आगे कुछ भी कहने से रोक दिया | “वो बात ऐसी है अम्मा के मेरी तबियत कुछ ठीक न है | इलाज करा रहा हूँ जल्दी ठीक हो जाऊंगा |”

“सच बता! बात क्या है | अम्मा से कुछ मत छिपा |”

“अम्मा!!! मेरे दिल में छेद है और दिल भी धीरे धीरे फैल रह है | डाक्टर का कहना है के अब ज्यादा दिन ना हैं मेरे पास | ज्यादा से ज्यादा महीना दो महीना और हैं |”

अनारो देवी अपने आपको सँभालते हुए पूछती हैं “कब से है ये बीमारी? बता कब से भर रहा है तू ये दर्द? ये बात सबको पता है न? कब से छिपाया जा रहा है मेरे से यह सब?

“अरी अम्मा, छोड़ यह सब सवाल जवाब, देख मैं हूँ तो तेरे सामने एक दम तंदरुस्त और हाँ आज सारी रात तेरी गोद में सर रखकर ही सो जाऊंगा |”

अनारो देवी अब समझ गईं थी के तबियत बिगड़ गई है और बात हाथ से निकल चुकी है | अनारो देवी भी अपनी आँखों पर एहसासों का बाँध बना अपने आंसुओं को बहने से रोकती रहीं और योगी से सर पर ममता का हाथ फिराती रहीं | एक सियाह रात अम्मा और लल्ला के बीच होती अनकही बातचीत में आँखों आँखों में गुज़र गई | रात की तन्हाई और कमरे की खामोश दीवारें अपने अनकहे शब्दों से सन्नाटे को गुंजायमान करती रही | सभी चिरागों की रौशनी को समेटे सुबह की लाली ने फिर से एक बार घर के आँगन का रुख किया | बस वही आखरी पल थे जो अनारो देवी और योगी ने साथ बिताये थे |

उस दिन के तकरीबन दो महीने बाद फागुन मास, दुलेहंडी वाले रोज़ योगेन्द्र अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे के बैठे रह गए | डाक्टरी रिपोर्ट के अनुसार उनका दिल पूरी तरह से फैल गया था जिसके चलते वो ब्रह्मलीन हो गए | उस समय उनकी आयु बत्तीस वर्ष के आस पास रही होगी | आख़िरकार उन्होंने डाक्टर के कहे को सिरे से झुठला दिया था और उम्र के तकरीबन बारह साल उस बीमारी से लड़ते गुज़ारे | घर में सभी इस सदमे के लिए तयार थे | कहीं न कहीं अनारो देवी भी इस दिन को देखने के लिए दिल मज़बूत किये ठाकुरजी से अपने लल्ला की सलामती की दुआएं माँगा करती थीं | उनकी आँखों से गिरते खून के कतरों का एहसास सिर्फ गंगा सरन जी ही लगा सकते थे | लाड, प्यार और दुलार से सींची हुई बगिया से ऐसे फूलों के उजड़ने का गम माली ही जान सकता है |

जीवन पथ अंतहीन है | यहाँ चलते ही रहना है | जो आता है वो जाता भी है | यह एक शाश्वत सत्य है | परमपिता परमेश्वर का लिखा कोई नहीं बदल सकता | जीवन में उसने जो पात्र, घटनाएँ और वृत्तान्त लिख कर भेजे हैं उनका सञ्चालन वह स्वयं ही करता है | किसी को जल्दी बुलावा आता है किसी को देर से | यही सोच अपने दुःख और पीड़ा को साथ लिए अनारो देवी और उनका समस्त परिवार जीवन के कठिन पलों का सामना करते हुए आगे बढ़ता रहा |

संतान भी बड़ी हो रही थीं | हालाँकि उम्र का अंतर संतानों में काफी ज्यादा था लेकिन आपस में प्यार, आदर और सम्मान एक दुसरे के लिए स्पष्ट था | सबकी आंखो की सच्चाई और आचरण में उनका एक दुसरे के प्रति व्यक्तिगत स्नेह और प्रेम निहित था | अब अनारो देवी को अपनी संतानों के ब्याह की चिंता सताने लगी थी | हालाँकि उनकी बड़ी बेटी गार्गी का ब्याह उन्होंने पंद्रह बरस की आयु में ही कर दिया था | समय गुज़रते बाक़ी की संतानों के भी हाथ पीले होते गए और वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होती चलीं गईं | क्रमशः

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental. 

बुधवार, मार्च 20, 2013

इश्किया होली


इश्क़िया होली पर तुझे दिल पेश करूँ
इश्क़िया होली पर तुझे जां पेश करूँ
इश्क़िया होली पर तुझे जहां पेश करूँ
जो तू कहे नगमा-ए-जज़्बात तुझे 
मेरी जानिब-ए-मंजिल पेश करूँ
गर मालूम हो तेरी नियाज़-ए-इश्क 
फ़िर नगमात-ए-इश्क गाकर वही 
दिलनवाज़ दिल्साज़ मैं पेश करूँ
जो तेरी नम हसरतों को हवा दे 
जज़्बात वही सजाकर पेश करूँ 
या कोई तेरी ग़ज़ल, कविता, किस्सा 
तेरे ही अल्फाजों में तुझे पेश करूँ 
तू जो एक बार मिल जाये होली पर 
अपने नवरंग प्यार की बौछार से भिगा
सराबोर कर, तुझको तुझे ही पेश करूँ 
अबके होली....

रविवार, मार्च 17, 2013

खूब मना मिलकर तू होली

होली के दिन आए आज
खूब बजेंगे जमकर साज़
ला दिखलायें अपना दिल
होली आकर हमसे मिल
बढ़े अपनों का प्यार ज़रा
चढ़े इश्क़ का खुमार ज़रा
त्योहार गले मिलते अपने
होत हैं सच दिल के सपने
सबके दिल में रंग खिले
गले लग करें दूर गिले
लुत्फ़ बहुत ही आता है
मुफ्त मज़ा दे जाता है
छोड़-छाड़ हर शरम-वरम
खूब निभाओ छुपे करम  
होली पर मस्ती में जीना
भंग तो जमकर है पीना
रंग चढ़ता हँसते हँसते 
भुला देता सारे रस्ते
पास लाओ अपना कान
मेरी बात पर दो ध्यान
चबाओ एक बनारसी पान
लगाके उसमें केसरी किमाम
नशे की जब चढ़ती मस्ती
दुनियादारी की क्या हस्ती
अपनी धुन में डोलती है
स्वछंद विचारों की कश्ती
हल्ला गुल्ला शोर मचे
सब देख सरीखे मोर सजे
होली की जो मचती है धूम
जनता सबरी जाती झूम
होली में बनाती तकदीरें
क्या खूब संवरती तदबीरें
अबीर भरा है समस्त गगन
घर घर हो रहे लोग मगन
सब रंगे हैं ललाम लाल
सबरे गालों का एही हाल
मनवा बावरा हाले डोले
हर क्षण पगला मुझसे बोले
खूब मना मिलकर तू होली
'निर्जन' बन सबका हमजोली

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

ज़िन्दगी से मुलाक़ात


आओ बतलाऊं दिल की बात
आज दिन था कितना खास
ज़िन्दगी से एक मुलाक़ात
बढ़ी गुफ्तगू की सौगात
कैसे सुबह से शाम हो गई
दिल की बातें आम हो गईं
जादू झप्पी से हुआ आगाज़
कितना सुन्दर रहा रिवाज़
शब्दों को भी पकड़ जकड़
दिए उलाहने अगर मगर
सवालात कुछ आम हुए
मियां मुफ्त सरनाम हुए
कुछ तस्वीरें कुछ तकरीरें
मिल बांटी हाथों की लकीरें
थोड़ी खुशियाँ थोड़े ग़म
सांझे किये कर आँखें नम
फिर आगे ये गज़र चली
कुदरत संग ये जा मिली
नदी, फूल, तितली के रंग
साथ खिले बातों के संग
गपियाने के जब दौर चले
जाने किस किस ओर चले
विचार, सुन्दरता, आकर्षण
अनावरण, भावना, विकर्षण
कर जीवंत आत्मा का मंथन
क्या खूब किया था विश्लेषण
हृदय द्वार जब खोल दिये
अस्तित्व शब्दों में बोल दिये
उन अपनेपन की बातों ने
जीवन में नवरस घोल दिए
द्रुतवाह अग्नि का खेल हुआ
बौद्धिक क्षमता का मेल हुआ
एक पड़ाव फिर ऐसा आया
पकवानों को सम्मुख पाया
शौक़ भोजन व्यंजन का
हृदय क्षुधा संबद्ध दर्शाया
हंसी ठीठोली खूब रहीं
कवितायेँ भी खूब कहीं
धारावाहिक, फिल्में, गाने
चर्चा इन पर ख़ास हुई
माज़ी से चुनकर लम्हात
शरीक हुए अब जज़्बात
वाह वाही भी खूब कही
ऐसे ही सारी शाम बही
वक़्त बिछड़ने का आया
दिल अपना मुंह को लाया
लम्हा काश ये थम जाता
जीवन यूँ ही चल पाता
कब होता है ऐसा यार
जाना लाज़मी उस पार
हाथ छुड़ा निमिष का
मिलने का वादा कर
निश्चल मन हुए जुदा
बिछडन के लम्हे पर
दागा गया कड़ा गोला
सवाल था बड़ा भोला
दिन पूरा कैसा गुज़रा ?
शब्दों में बतलाओ
भावनाओं को दर्शाओ
हमने कहा बतलायेंगे
हम भी कुछ जतलायेंगे
गौर थोडा फरमाएंगे
तब ही कुछ दिखलायेंगे
लो कहा दिनभर का सार
अब तुम करते रहो विचार
ज़िन्दगी से एक मुलाक़ात
दिन बना मेरा यह खास....

गुरुवार, मार्च 14, 2013

मैं और मेरी तन्हाई

मैं और
मेरी तन्हाई
बस यही है
अब मेरी अपनी
इस तन्हाई में
मैं कितने
मौसम सजाता हूँ
सब कुछ
भूल कर मैं
तुझसे मिलने
आता हूँ
तेरी यादें
तेरी बातें
तेरे सपने
सजाता हूँ
फिर जब
आँख खुलती है
मुस्करा कर
सर हिलाता हूँ
तेरे ख्वाबों को
दिल से
लगाकर मैं
मुड़कर तन्हाई
में अपनी वापस
लौट जाता हूँ
मैं इस तन्हाई से हूँ
और मेरा
जादू ये तन्हाई
बस अब एक
तनहा मैं
और फ़कत
मेरी ये तन्हाई.....

जीवन चक्र

एक को तेरा मरण
तेरह दिन में
मिले नए सम्बन्ध
छूटे रिश्ते वो सब
जो तेरे अपने
जाने और अनजाने थे
क्यों मानव इस
चक्रव्यूह में
घूमता है
ये, अजीब सा सत्य
हे ईश्वर
एक, तीन का मिश्रण
शुन्य सा हुआ
हर मानव
कब तक
आता जाता
रहेगा
पृथ्वी की तरह
चाँद सूरज के पीछे
सुबह शाम
घूमता रहेगा
एक घर
एक परिवेश से
दुसरे परिवेश में
कभी जब
पुराने सम्बन्धी
आयेंगे यादों में
तब तू अपने
जन्म की
अनंत पीड़ा से
अपनी मृत्यु की
वेदना का अनुभव
करते हुए क्या
सुख की सांस भी
ले पायेगा ......