बीते दिनों की धरोहर सन १९९८, कक्षा ११ शायद तभी लिखी थी यह कविता और उसी संकलन से एक और मोती आपके पेश-ए-खिदमत है | गौर फरमाएं....
आज मैं नाखुश हूँ खुद से
भटक गया हूँ अपनी मंजिल से
आज मैं भटक गया हूँ अपनी राहों से
भूल गया हूँ वो मार्ग
जिसकी आकांशा कुछ लोग करते थे मुझसे
लेकिन कसूर सिर्फ मेरा नहीं है
वो भी इसमें शामिल हैं
मैं बचपन से जीतता आया था
उनका प्यार पाता आया था
लेकिन
जब एक बार गया हार
सहनी पड़ी सब की दुत्कार
मन को शांत करने के लिए
मैं ढूँढने लगा मार्ग
लेकिन वो मार्ग मुझे कहाँ ले जा रहा है
ये मैं नहीं जानता हूँ
आज मैं नाखुश हूँ खुद से
भटक गया हूँ अपनी मंजिल से
कुछ दोस्त मिले नए
सब लगे अच्छे
उन्ही के चलते अपना कुछ
गम भुला पाया हूँ
लेकिन मेरे अपनों को मुझ पर
नहीं है विश्वास
वे नहीं करते मेरा एतबार
इसलिए मैं आज भटक गया हूँ
अपनी मंजिल से
आज मैं नाखुश हूँ जिंदगी से...
आज मैं नाखुश हूँ खुद से
भटक गया हूँ अपनी मंजिल से
आज मैं भटक गया हूँ अपनी राहों से
भूल गया हूँ वो मार्ग
जिसकी आकांशा कुछ लोग करते थे मुझसे
लेकिन कसूर सिर्फ मेरा नहीं है
वो भी इसमें शामिल हैं
मैं बचपन से जीतता आया था
उनका प्यार पाता आया था
लेकिन
जब एक बार गया हार
सहनी पड़ी सब की दुत्कार
मन को शांत करने के लिए
मैं ढूँढने लगा मार्ग
लेकिन वो मार्ग मुझे कहाँ ले जा रहा है
ये मैं नहीं जानता हूँ
आज मैं नाखुश हूँ खुद से
भटक गया हूँ अपनी मंजिल से
कुछ दोस्त मिले नए
सब लगे अच्छे
उन्ही के चलते अपना कुछ
गम भुला पाया हूँ
लेकिन मेरे अपनों को मुझ पर
नहीं है विश्वास
वे नहीं करते मेरा एतबार
इसलिए मैं आज भटक गया हूँ
अपनी मंजिल से
आज मैं नाखुश हूँ जिंदगी से...