रविवार, दिसंबर 14, 2014

साईं संध्या या राजनैतिक अखाड़ा

 ॐ साईं नाथ - ॐ साईं राम

इतनी ख़ुशी मिली है ये दिल आबाद हो गया
साईं की महफ़िल में 'निर्जन' शादाब हो गया

आज शाम अचानक से प्रभु का बुलावा आ गया | अरे यारों! वो वाला बुलावा नहीं जो आप सोचने लग गए हो बल्कि सुअवसर था साईं बाबा के दर्शन करने का, उनके सामने नतमस्तक हो अपने जीवन के लिए सुन्दर कामनाएं करने का और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का | सोचा नहीं था कि खड़े खड़े यकायक यूँही कदम उनसे मिलने की ओर बढ़ते चले जायेंगे | मैं तो रोज़ शाम की तरह कुछ एक यारों की महफ़िल में उनके चुटकुलों और चुटकियों का लुत्फ़ उठा रहा था और सरसब्ज हो रहा था | मालूम हुआ के आज तो हमारे क्षेत्र की धरातल पर 'साईं संध्या' का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है | पहले तो सोचा के टाल कर जाता हूँ परन्तु मेरे अभिन्न मित्र और बड़े भाई के कहने पर रुक गया और उनके साथ चलने को मन ही मन राज़ी हो गया | भैया की अचार की दुकान पर चुनावी सरगर्मियों पर आचार विचार और चर्चाओं के प्रहार के बीच हम सभी दोस्त लोग एक दुसरे की खिंचाई कर आनंद उठा रहे थे | हमारे नवविवाहित वकील साब की शामों और रातों का मुक़द्दमा आजकल हम यारों की अदालत में ज़रा ज्यादा ही जोर शोर से उठाया जाता है | बेचारे वकील साहब शादी कर के अच्छे फेर में फँस गए हैं और आजकल उनकी बोलती भी बंद ही रहती है | मित्र-मण्डली के मज़ाक़ और टांग-खिंचाई के सामने बस वो कुछ ऐसे बेबस मुस्कुराते हुए अपने दर्द को छिपाते नज़र आते हैं जैसे ओसामा ओबामा की क़ैद में फंस गया हो | इसके साथ ही हमारे साथ दुकान पर एक राजनैतिक पार्टी के भावी प्रत्याशी भी चर्चा में शिरकत कर रहे थे | वो कुछ देर पहले ही अपने दल के एक चमचे के साथ दुकान पर पधारे थे | चमचा कहूँ या चुनावी मेंढक जो बुलेट मोटरसाइकिल पर सवार होकर आया था और उसका हैल्मेट ऐसा लग रहा था मानो द्वितीय विश्व युद्ध के किसी रंगरूट का लोहे का शिरस्त्राण हो अर्थात टोपा हो | उसकी इस वेशभूषा को देखते ही सबकी हंसी निकल गई | कुछ देर उसके साथ दिल्लगी की गई और उसके बाद सभी लोग बातचीत में मशगूल हो गए | सभी रात के ९ बजने के इंतजार में थे | सब ने साईं संध्या में जाने का मन बनाया था | मेरे से भी पुछा गया था परन्तु उस समय तक मैंने अपनी अंतर्मुखी दुविधा के चलते रज़ामंदी अभी तक अपने दिल में ही छिपा रखी थी | आखिरकार ९ बजे और सबने निकलने का विचार किया | बस कुछ ना कहते और सोचते हुए मैं भी सबके साथ चल पड़ा |

सहसा ही बहुत से उन्सुल्झे द्वन्द, सवालात और अनुत्तरित जवाबों को दिल में लिए मेरे कदम मित्रों और भावी नेताजी के साथ हंसी-ठठ्ठा करते संध्या स्थल की तरफ़ बढ़ते चले गए | पंडाल के पास पहुँच कर जब नज़र उठाकर देखा तो नज़ारा जितना मनमोहक था उतना ही आनंदमय वातावरण भी था | हर तरफ चमचमाती हेलोजन और बल्बों की रौशनी, लाल-पीले-हरे-सफ़ेद-गुलाबी रंग के कपड़ों से लगाया हुआ पंडाल | पंडाल के बीचोबीच साईं विराजमान थे | साईं का तेज और उनका प्रभामण्डल देखने योग्य था | उनके ठीक सामने रंगमंच सजा था | रंगमंच पर कलाकार रंग बिरंगी पोशाक में सजे-धजे अपनी कला का प्रदर्शन करने में मगन थे | बेहद श्रद्धा से परिपूर्ण कलाकार भगवान् श्री कृष्ण की झांकी और भजन प्रस्तुत कर रहे थे | सैंकड़ों की संख्या में जनता उपस्थित हो उस मनोहारी परिवेश में भाव विभोर होने से अपने आप को नहीं रोक पा रही थी | कोई खड़ा-खड़ा नाच रहा था तो कोई हवा में हाथ हिला हिला कर हिलोरे ले रहा था | बच्चे खेल कूद में लगे थे | सभी मन्त्रमुग्ध हो साईं की भक्ति में लीन दिखाई दे रहे थे | पंडाल के एक तरफ जूताघर का स्टाल लगाया गया था |  जूता घर के पास ही आने वाले श्रद्धालुओं के लिए साईं का तिथिपत्र भेंट स्वरुप देने का इंतज़ाम किया गया था | उसके आगे हाथ धोने के लिए पानी का स्टाल था | ठीक उसके सामने दूसरी तरफ खाने का इंतज़ाम था जहाँ साईं का प्रसाद ग्रहण किया जा सकता था | साईं के प्रसाद में कढ़ी-चावल और हलवा बनाया गया था | पंडाल में प्रोजेक्टर स्क्रीन का भी इंतज़ाम किया गया था जिससे जनता को कार्यक्रम का आनंद लेने से वंचित ना रहना पड़े |

हम सभी मित्रों ने नेताजी के साथ जैसे ही पंडाल में कदम बढ़ाये हमारे एक और मित्र जो की साईं संध्या के आयोजकों में से एक थे दौड़ कर हमारा स्वागत करने पधार गए | थोड़ी देर के वार्तालाप के बाद हमें वहां के प्रमुख आयोजक से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ | उन महानुभाव को जब ज्ञात हुआ की हमारे साथ अमुक राजनैतिक दल के भावी प्रत्याशी भी पधारे हैं तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | दौड़ दौड़ कर अपने परिचितों और स्वयं सेवी संस्था के लोगों से उनका परिचय आरम्भ कर दिया | यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक एक दूसरी अमुक पार्टी के पुराने बड़े नेताजी जिन्हें आधिकारिक न्योता संस्था ने पहले ही भेजा हुआ था और जिनका इंतज़ार बड़ी ही बेताबी और बेसब्री से हो रहा था, का आगमन नहीं हुआ | उनके चरणकमल द्वारा जैसे ही पंडाल दुलराया गया वैसे ही सभी लोग जो अब तक हमारे इर्द-गिर्द घूम नेताजी से फ़ौरी गठ-जोड़ बैठा रहे थे, उन्हें गले लगा रहे थे, अपने मोबाइल नंबर का आदान प्रदान कर रहे थे, गले मिल रहे थे या ऐसे मिल रहे थे मानो बरसों के बाद कोई बिछड़ा आज अकस्मात् ही सामने आ गया हो वो तुरंत ही छु-मंतर होते नज़र आए | माना की बड़के भैयाजी पिछले चुनाव में हारे हुए दल से चित हुए उम्मीदवार थे परन्तु वो कहते हैं ना पुराने चावल का स्वाद तो सबसे अलग ही होता है | बस फिर क्या था सभी का रुझान उनकी तरफ़ ही रहा और हम ये तमाशा देख मुस्कुराते रहे |

साईं दर्शन के लिए हमने अपने जूते-चप्पल जूताघर में उतारे, हाथ धोये और साईं दर्शन के लिए कतार में लग गए | हमारे परिचित मित्र पहले से ही साईं मंच के पास पंडित जी को बताने में लगे हुए थे कि नेताजी का आगमन होने वाला है | एक दफ़ा तो उन्होंने हमें सीधे कतार तोड़ कर भी आने का निमंत्रण दे डाला परन्तु हम आम जनता के साथ और उन्ही की तरह दर्शन करने के अभीलाषी थे अतः हम चुपचाप एक पंक्ति बनाकर चलते रहे | नेताजी को सामने देख आनन्-फ़ानन में पंडितजी ने उन्हें माल्यार्पण किया साथ ही दो अमरुद हाथ में थमा दिए और नेताजी हाथ जोड़ आगे बढ़ गए | नेताजी के पीछे हमारे वकील दोस्त भी थे जो प्रसाद के लिए मचले जा रहे थे | उन्होंने भी देखा-देखी प्रभु को शीश नवाया और हाथ बढ़ा दिया | पंडित ने उनकी शक्ल देखी और मुंह फेर लिया मानो कोई भिखारी देख लिया हो | प्रसाद देना तो दूर की बात पलट कर जायज़ा लेने को भी राज़ी नहीं थे | पर हमारे वकील साब तो वकील साब है और उस पर बड़ी बात यह है कि वो भी पंडित प्रजाति के अंश हैं बस फिर क्या था डटे रहे जब तक उनके हाथों में प्रसाद नहीं आ गया | खाद्य सामग्री प्राप्त होते ही वकील साब समपूर्ण स्फूर्ति के साथ नेताजी के पास हो लिए | हम तो ठहरे भाई आम आदमी यानी कॉमन मैन और हम लाइन में थे किसके पीछे, वकील साब के, लिहाज़ा जब वकील साब को पंडितजी ने कुछ नहीं समझा तो हम किस खेत की मूली थे | हमें भी पंडित जी ने नज़रन्दाज़ कर दिया और हम भी हाथ जोड़ कर आगे बढ़ गए |

अब आया खाने का नंबर | देखा तो ये लम्बी क्यू लगी थी खाने के स्टाल पर | पर अपना तो जुगाड़ फिट था | सभी बैठ गए कुर्सियां पकड़ कर और स्टेज पर हो रहे रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेने में मस्त हो गए | एक मित्र ने फ़ोन कर हमारे सूत्र को समझाया के भाई जल्दी आओ और स्टाफ चला कर खाने का इंतज़ाम करो | वो भी दौड़ कर तुरंत आए और सबके लिए फटाफट कढ़ी-चावल की प्लेटों का इंतज़ाम कर दिया | सभी दोस्तों ने तब तक नेताजी के साथ सेल्फी वाला कार्यक्रम निपटा लिया था | बस फिर क्या था सभी टूट पड़े | दे-दबा-दब पत्ते पर पत्ते उड़ा रहे थे कढ़ी-चावल के और प्रसाद का आनंद प्राप्त कर रहे थे | भोज के बाद मीठे की दरकार हुई और हलवा खाने की तलब लग गई | सब ने एक एक दोना हलवा उड़ाया और अपने अपने पिछवाड़े से हाथ पोंछ चप्पल जूते उठाने चल दिए | अपने चप्पल-जूते पहन कर और प्रभु को नमन कर हम सभी अपने अपने घर की ओर कूच कर गए |

कुल मिला कर कहूँ तो साईं-संध्या में आयोजक स्तर पर साफ़ तौर पर आस्था का स्तर कुछ कम ही नज़र आया | प्रभु के नाम पर एक ऐसा राजनैतिक अखाड़ा देखा जहाँ अपनी साख़ बनाने के लिए जद्दोजहद चल रही थी | आयोजकों द्वारा अलग अलग दल के नेताओं को बुलावा भेजा गया था | आने वाले चुनावों में अपनी स्तिथि मज़बूत करने के लिए और अपने अनकहे वर्चस्व के बखान और विधानसभा में अपनी उपस्थिथि दर्ज करवाने के लिए यह संध्या बहुत ही लाभदायक और बेहतरीन ज़रिया सिद्ध हो रही थी | जहाँ पंडित भी नोटों को और शक्लों को देखकर प्रसाद देता हो वहां और क्या अपेक्षा की जा सकती है | लोगों में उत्सुकता तो थी परन्तु कार्यक्रम के लिए कुछ ख़ास नहीं | ज्यादातर का ध्यान या तो खाने के ऊपर दिख रहा था या फिर सामान्य मौज मस्ती में लगे थे या किसी आपसी जोड़-तोड़ में तल्लीन थे परन्तु इसके विपरीत कुछ चेहरे ऐसे भी पढ़ने को मिले जो सच में साईं से रूबरू हो अपनी व्यथा बयां करने के इरादे से आए थे | जिनकी आँखों में एक आस थी और होठों पर साईं दर्शन के अमृत की प्यास थी | उनकी मुस्कराहट बयां कर रही थी, साईं संध्या में आने से ज़िन्दगी सफल हो गई | उनकी मुश्किलों का हल मिल गया है और वो बहुत संतुष्ट हो गए | हम भी यारों उन्ही में से एक थे | शायद आने वाले साल में हमारी दुआ भी क़ुबूल हो जाए और साईं के आशीर्वाद से हमारे काम भी बन जाएँ | उम्मीद तो यही है | देखते हैं और नए साल का इंतज़ार करते हैं ....... :)|

ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम....

बुधवार, दिसंबर 10, 2014

कलयुग घोर कलयुग















आज का युग बहुत ही बेढंगा युग है
कलयुग है गुरु जी घोर कलयुग है

बताओ तो -

आज प्यार भी एक मलिन व्यापार बनता जा रहा है
आज इसमें लड़की क्या लड़का भी मात खा रहा है

८० की उम्र में ३० की कली से निकाह पढ़वा रहा है
कब्र में लटक रहे हैं पाँव जान मर्दानगी दिखा रहा है

मर्यादा को त्याग हर कोई मद में धंसता जा रहा है
पाखंड दिखा निन्न्यांवे के फेर में फंसता जा रहा है

चार दिवारी छोड़ सड़क पर कामुकता दिखा रहा है
इंसानियत को हैवानियत का जामा ये पहना रहा है

अश्लीलता का नंगा नाच चैनलों पर होता जा रहा है
ओछेपन की चसक में मनुष्य ज्ञान खोता जा रहा है

अपना, अपनों को यहाँ बेख़ौफ़ धोखा दिए जा रहा है
जोंक बनकर अपनों के प्यार का खून पिए जा रहा है

धन के लोभ में इंसानियत छोड़ मन मारे जा रहा है
तन के मोह में गरिमाओं की अस्मत हारे जा रहा है 

मतिमंद है वो जो रोज़ इनको समझाता जा रहा है
जन्तु भी मानस की हरकत से घबराता जा रहा है

'निर्जन' सोचे देश में ये क्या अनर्थ होता जा रहा है
अश्व को नसीब ना घास गधा ज़ाफ़रान उड़ा रहा है

--- तुषार राज रस्तोगी ----

मंगलवार, दिसंबर 02, 2014

क़िस्मत




















मैं तो हर शब् से एक
रिश्ता बनाता गया था यूँ ही
जहाँ से भी गुज़रा यादों का
दरिया बहाता गया यूँ ही
पर मेरी क़िस्मत का
लिखा भी अजीब था 'निर्जन'
गुनेहगार कोई और था, और
सज़ा मैं पाता गया यूँ ही
हाँ, आज मैं ये तस्लीम करता हूँ
कि मुझे मोहब्बत नहीं मिलती
मगर, ओ मेरी सोच के मेहवार
कभी यह भी ज़रा सोचो कि
जो तुम को याद करता हूँ
तो खुद को भूल जाता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, नवंबर 29, 2014

इंतज़ार













उसके इंतज़ार में दिल मेरा बेज़ार हो गया
इतना तड़पा के हर ख्व़ाब तार तार हो गया

आँख नम थी पर होटों पर हंसी थी 'निर्जन'
आवाज़ सुन उसकी दिल बेक़रार हो गया

लगता था आवाज़ में चाशनी घुली थी उसकी
अलफ़ाज़ सुनते ही गुलिस्तान गुलज़ार हो गया

वो साँसों की तपिश, जिस्म की महक उसकी
वो अदावत, वो अदाएं, वो मासूमियत उसकी

सोचते सोचते दिल बहका सा जाता है मेरा
अब तो बस ये कहने को जी चाहता है मेरा

खुश रहे वो सदा हंसती रहे गुनगुनाती रहे
अपनी आँखों से यूँ ही चांदनी छलकाती रहे

उसके साथ बस यूँ ही जी लूँगा ज़िन्दगी अपनी
खुश जो रहे वो तो समझो ज़िन्दगी आबाद अपनी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

तरुण का बैंड बजा



















तरुण का बाजा बज गया
याड़ी अपना सज गया
ना ना करते धंस गया
शादी के फेर में फंस गया

दोस्त अपना है वकील
कहते जिसे अड़ंगा कील
घोड़ी कल चढ़ गया यार
घर ले आया अपना प्यार

महफ़िल भी जमी थी ख़ूब
नाच नाच डीजे पर कूद
हाथ पैर सब खूब चलाये
हम स्वराजी शादी में छाए

मनोज भाई हाईलाइट थे
अनशेवड डिलाइट थे
नाच नाच हुडदंग मचाये
मना करत वोडका चढ़ाये

यार अपने मनमौजी हैं
स्वराजी सब फ़ौजी हैं
सजे धजे दूल्हा बन आए
जलवे सबने खूब दिखाए

दिल से दुआ करते हैं यार
हर दिन तेरा हो त्यौहार
मिले ताउम्र सभी का प्यार 
'निर्जन' कहता जी खुल के यार

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, नवंबर 26, 2014

हम भी बदल गए
















इन मुश्किलों की राह में, हम बढ़ते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

आवारगी की मय से, हम जाम भरते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

फुर्कते-ग़म के चराग, हम भी बुझाते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

इश्क़ में बदनाम, हम सरनाम होते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

अंजाम से बेपरवाह, हम अब चलते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

दर्द की दास्ताँ को, हम यूँ बयां करते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

यूँ ज़िन्दगी को 'निर्जन', हम भी जीते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, नवंबर 25, 2014

मुझको



















ज़ख्म जलते हैं अज़ीयत नहीं होती मुझको
अब तेरी याद से वहशत नहीं होती मुझको

कोई आए कोई जाए दर्द नहीं होता मुझको
शरीक़े-ग़म की भी आदत नहीं होती मुझको

कुछ ऐसा बदला है फ़ुर्कत-ए-ग़म ने मुझको
अब झूठ बोलूं तो नदामत नहीं होती मुझको

मरकर भी कोई अब मार नहीं सकता मुझको
अब कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझको

इतनी जुनूं-ए-हवस जीने की हो गई है मुझको
अब सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती मुझको

वो कहती थी पा नहीं सकता 'निर्जन' मुझको
अब छू लेती है तो नफ़रत नहीं होती मुझको

अज़ीयत - कष्ट / torture;
वहशत - जंगलीपन / savagery;
शरीक़े-ग़म - दर्द का साथी / friend in pain;
फ़ुर्कत-ए-ग़म - जुदाई का दर्द / pain of seperation;
नदामत - झिझक / attrition;

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

आज का इंसान



















बाहर से आलोकनाथ है अन्दर शक्ति कपूर
आज का इंसान कितना कमीनेपन से भरपूर

सबक सैंकड़ों सीख कर भी आदत से मजबूर
लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, ग़द्दारी, चालाकी से भरपूर

पीढियां बीत गईं इसकी पर तहज़ीब है काफ़ूर
कुत्ते की दुम सी फ़ितरत है टेढ़ेपन से भरपूर

चलती फिरती नौटंकी है ये दुनिया में मशहूर
दिखावे खूब दबा कर करता ये झूठ से भरपूर

"निर्जन" कहता ऐसों से बेटा बनो नहीं तुम सूर
घड़ा पाप का जब भर जाए तब दंड मिले भरपूर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, नवंबर 03, 2014

मेरी ज़िन्दगी













तुमने रात भर तन्हाई में सरगोशियाँ की थीं
तेरी नर्म-गुफ्तारी ने रूह को खुशियाँ दी थीं

बातों ने संगीतमय संसार बक्शा था रातों को
यादों ने नया उनवान दिया था मेरे ख्वाबों को

तुमने 'निर्जन' इस दिल का सारा दर्द बांटा था
तेरी रूमानियत ने रात को फिर चाँद थामा था

मेरे आशारों में इश्क़ इल्हाम की सूरत रहता है
मानी बनके तू लफ़्ज़ों को मेरे एहसास देता है

तेरे होने से ज़िन्दगी हर लम्हा गुल्ज़ार रहती है 
तेरी पायल की आहट कानो में संगीत कहती है

गुफ्तारी : वाक्पटुता, वाग्मिता, वाक्य शक्ति, बोलने की शक्ति
कर्ब : दुःख, दर्द, बेचैनी, रंज, ग़म
उन्वान : शीर्षक, टाइटल
इल्हाम : प्रेरणा
मानी : ताक़तवर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, नवंबर 02, 2014

अब भी



















मचली हुई हैं गुज़री रात की सरगोशियाँ अब भी
तेरे इश्क़ की ख़ुशबू साँसे महका रही हैं अब भी

तड़पता दिल बड़ी शिद्दत से बहक रहा है अब भी
तेरी बातों की चसक चराग़ जला रही हैं अब भी

ख्वाहिश चाँद छूने की पूरी नहीं हुई है अब भी
तेरी अब्र-ए-नज़र दिल में झाँक रही हैं अब भी

बयां करना नामुमकिन ये बेख़ुदी है अभी भी
तेरे जिस्म की कसमसाहटें सता रही हैं अब भी

ये जज़्बात बहते आबशार की मानिंद हैं अब भी
ख़ुशनुमा मौसम देख होठ मुस्कुरा रहे हैं अब भी

अब्र : बादल
आबशार : झरना

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अक्तूबर 28, 2014

तेरा इश्क़ ही बस साथ है













बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ

कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ

मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ

वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ

नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ

जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ

साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ

शरर -  चिनगारी, स्पार्क

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, अक्तूबर 20, 2014

मोह














हे ईश्वर
मानव को
अपने रिश्तों का
मोह क्यों होता है ?
उसके खींची हुई
रिश्तों की कड़ी
ज्यों ज्यों बढ़ती है
उसका मोह
उतनी ही मज़बूत
ज़ंजीर में उसको
जकड़ता है

एक कैदी की
बड़ियों की तरह
हर समय
कष्ट देती है
जैसे कैदी को
इस कष्ट से
स्वयं मुक्ति
नहीं मिल सकती
उसी प्रकार
इन रिश्तों से
उबरने की
कोशिश करने
पर भी
मानव
अपने आप को
टूटा हुआ
होते देख कर भी
शायद
कैदी की भांति
बेबस है
अपने आप में
खोया हुआ
पाता है

मोह से अलग
अपने जीवन को
सोचना और
समझना उसकी
सामर्थ्य से
चेतना से
बहार हो जाता है
जब वो
इस कवच को
उतार फेंकता है
तब दो स्तिथियाँ
उसे मिलती हैं
जीवन में
ईश्वर का मिलन
और दूसरी वो
जिसमें वो
इतना व्याकुल
और बेबस
रहता है जैसे
बिन पानी प्यासी मीन

हे ईश्वर
हर मानव को
जल में
कमल की भांति
रहने की शक्ति दो
वो
जन्म के
कर्म के
मोह के
उस कड़वे
बंधनों से
सदैव मुक्त रहे
पावे तेरा
पावन धाम
अपने जीवन की
अनंत यात्रा में

--- तुषार राज रस्तोगी ---