गुरुवार, जनवरी 22, 2015

खुजलीमैंन एंड पार्टी













दिल्ली के चुनावों में, लो नौटंकी सजाए
खुजली मैंन मौकापरस्त, रायता फलाए

मफलर, टोपी, चश्मा ये, धारण कर आए
गाल बजा बजाकर, नित नए गान सुनाए

मानहानि जोड़ कर, ग्यारह केस बनाए
करोड़ो की पूँजी में, इत्तू सा लौस दिखाए

लोकसभा के लालची, लार सदा टपकाए
बिन सबूत दूजे पर, इलज़ाम ख़ूब लगाए

भ्रष्टाचार का बाजा, हरदम ख़ूब बजाए
भ्रष्टाचारी आप ही, धुल में लठ हिलाए

स्वराज-लोकपाल की, धज्जियाँ उडाए
पागल थी जनता जो, घर यूँ ही लुटवाए

चंदापार्टी ख़ूब है, झट सेक्युलर बन जाए
दुबई जा शेखों से, माया झोली में पाए

इरादा क्या खूब है, लोमड़ माइंड फरमाए
भोली जनता को, बीस हज़ारी डिनर कराए

पांच सौ में सेल्फी, साथ जो चाहे खिंचवाए
आम आदमी बन, गोरख धंधा खूब चलाए

बेशर्मी के पेंच ये हरदम, ऊँचे खूब उड़ाए
26/11 के नाम पर चंदा, कैसे मांगे जाए

टिकट लेने जो गए, पहले जेब ढ़ीली कराए
मूर्ख बना ऐसों को, ऊँगली पर खूब नचाए

लंपट बाबा खुद को, बस कॉमन मैंन बताए
बिज़नेस क्लास में कैसे, फिर ये मौज उड़ाए

बाबा ड्रामेबाज़ है, नित नए खेल रचाए
माया पाने के लिए, भिखमंगा बन जाए

चुनाव निकट देख कर, युक्ति नई लगाए
मुंह मुखौटा लाद ये, हाथ जोड़ दिखलाए

झाड़ू टोपी धार कर, गली गली चिल्लाए
मैं युगपुरुष महान हूँ, वोट मुझे ही आए

बुलेट हाथ थमाए के, कार्यकर्ता बनाए
एवज़ में नेता जी, प्रचार अपना करवाए

प्रचार के नाम पर, ये भूखे पेट घुमाए
गिलास भर पानी को, बंदा तरसा जाए

नीतियाँ खोटी इनकी, इनको ही सुहाए
विरोध होता देख कर, भृकुटी तन जाए

बेवक़ूफ़ है वो जो, साथ इनका निभाए
लात ये धरे हैं, जो मतलब निकल जाए

खुदगर्जों की जमात है, चूना खूब लगाए
दिल्लीवासी को 'निर्जन', प्रभु जी ही बचाए

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Tat Tvam Asi Review

To start with I must enunciate what a book “Tat Tvam Asi” which explains a lot of concepts in itself. A small Sanskrit word that can be delineated into variegated meanings of life. It’s a combination of three words “Tat” meaning “That”, “Tavm” meaning “You” and “Asi” meaning “Are” that binds as a sentence “That You Are”. According to what I have understood here “That” refers to “God” which exists in each one of us, saying “You are God”. Actually, however, we are not really God but we have a bit of God inside our hearts that makes us do right things at right times and take correct decisions in life. Same conceptual real life stories are being shared here in this title and the stories narrated by the author are just awe-inspiring.

Firstly I will thank the publisher for publishing such nice title and mailing me a copy for review. The cover page is really riveting and intriguing with notional design with the title printed over it, followed by the author’s name in hindi style font. As a debutant writer, Pinky Achary’s writing style is heartfully salubrious, acceptable and pleasantly attractive. The stories are corraled down in a very earnestly and wholeheartedly fashion. It took me decent time to finish this book because after reading the first chapter I did not want to peruse the entire book in rush. The memoirs and experiences of the author have struck a cord with me as a reader. Only a woman with high self esteem and pure thoughts can bind such feelings in words and present it as a book, which is indeed a gift for the society.

There are approximately 24 chapters in the book and each one holds a different flavour from life. The language is easy going and no fancy or unnecessary philosophical vocabulary is used in the content. Flavoured with lots of different spices from real life incidents the book relates to the common person. My personal favourites are ‘Change the World Within’, ‘Seva’, ‘Random Acts of Kindness’, ’The Paatiwalas’, ‘The Prodigal Son’, ‘Mind over Matter’, ‘Life is What You Make It’ and ‘National Pride’. All these have been penned with tremendously thought provoking educational content.

Book runs 116 pages long. Each story spreads in an average of 2-3 pages. Editing is tersely done. Quality of print and paper is good. Couple of chapters are there that need rework but I won’t talk about them here because the book is full of positivity, moral values and truly humanitarian vibes. I loved the writing and totally enjoyed the book.

I will give 4.5/5 to this book. Kudos to the writer, publisher and will recommend this book to every person.

--- Tushar Raj Rastogi ---

शुक्रवार, जनवरी 02, 2015

यार खरा है















बीत गया है गुज़रा साल
नए साल में शुरू धमाल
दिन पहला ही रहा कमाल
साथ तुम्हारा है बेमिसाल

दिल अपना है रखा संभाल
दीवाने का पूछो ना हाल
तुम से जीवन हुआ निहाल
तुझ बिन जीना लगे मुहाल

लम्बा है यह जीवन काल
मेल मिलाए ताल से ताल
कर ज़िन्दगी में मुझे बहाल
यारी अपनी बने मिसाल

उठे नहीं अब कोई सवाल
मन में ना रहे कोई मलाल
ख़ुशी बरसाएगा ये साल
मस्तानी है अपनी चाल

'निर्जन' तू दे दर्द निकाल
प्यार से हो गया मालामाल
अब यार खरा है तेरे नाल
मौज मना लगा सुर ताल

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, दिसंबर 31, 2014

हे वृक्ष - २












जबकि हर व्यक्ति
अपनी पकड़
अपने अहं
अपनी विलासता, को
मज़बूती से
पकड़े रहना चाहता है
वो चाहता है
उसके सम्बन्धी
उससे सम्बंधित
हर व्यक्ति
उसकी दासता माने
क्यों, क्या उससे
अलग किसी के शरीर में
मन, आत्मा या चेतना नहीं
हे वृक्ष
तुम मानव से
कहीं अधिक श्रेष्ठ हो
तुम सिर्फ अपनी
जड़ के स्वामी हो
अपनी ताक़त से
जड़ों की रक्षा करते हो, ताकि
वृक्ष का विस्तार
दूर दूर तक फैलता रहे
और मैं तुम्हे एक बार और
महानता की उपाधि देता हूँ
तुम अपने पत्ते,
अपने फल, अपने फूल को
जब तक ही पकड़े
रहना चाहते हो
जब तक वो अपने
अस्तित्व में पूर्ण नहीं होते
उसके बाद
तुम उनकी
चिंता छोड़ नए पत्ते
नए फल, नए फूल की
रचना में लग जाते हो
'निर्जन तुम्हे परमात्मा का
दूसरा स्वरुप मानता है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, दिसंबर 28, 2014

लगे हैं



















इस साल के दिन जाने लगे हैं
नए साल के दिन आने लगे हैं

नए दिन देखो क्या आने लगे हैं
बीते दिन सब भूल जाने लगे हैं

बिछड़े बच्चे गुम जाने लगे हैं
अपनों के ग़म सताने लगे हैं

बाढ़ और प्रलय तड़पाने लगे हैं
पीड़ितों को बाबू जताने लगे हैं

सीमा पर आहुति चढ़ाने लगे हैं
उजड़ी मांगों को तरसाने लगे हैं

चुनावी दिवस अब आने लगे हैं
नेता भी अपनी खुजाने लगे हैं

चील गिद्ध बन मंडराने लगे हैं
ज़ख्मों को नोच खाने लगे हैं

गले सब के फड़फड़ाने लगे हैं
मौकापरस्त मेंढक टर्राने लगे हैं 

सबको ग़लत गिनवाने लगे हैं
करनी अपनी छिपाने लगे हैं

दूसरों में दोष दिखाने लगे हैं
सब दूध से अब नहाने लगे हैं

भाषण से जनता बहलाने लगे हैं
टोपी सभी को पहनाने लगे हैं

दर्द और टीस के आने लगे हैं
'निर्जन' दाम पकड़ने लगे हैं

आदमखोर कितने सयाने लगे हैं
इंसा के दुःख को भुनाने लगे हैं

ज़ख्म पुराने यूँ भर जाने लगे हैं
ज़ख्म नए आवाज़ लगाने लगे हैं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

देखा है














दौर-ए-वक़्त आया वो ज़िन्दगी में एक बार
उफनते समंदर से ख़ुदको लड़ते देखा है

वो जो आज हँसते हैं मुझ पर, कल रोयेंगे
आग में तपकर ही कुंदन बनते देखा है

सुपुर्द-ए-गर्क होंगे तमाशबीन एक दिन 
खुद मुंह अपना उन्हें सियाह करते देखा है

कर बुलंद हौंसला नभ बुलाता है 'निर्जन'
क्या सूरज को किसी से उलझते देखा है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Dekha Hai
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Daur-e-waqt aaya wo zindagi mein ek baar
Ufante samandar se khudko ladte dekha hai 

Wo jo aaj hanste hain mujh par, kal royenge
Aag mein tapkar hee kundan bante dekha hai 

Supurd-e-gark honge tamashbeen ek din 
Khud munh apna unhe siyah karte dekha hai 

Kar buland haunsla nabh bulata hai 'nirjan'
Kya sooraj ko kisi se ulajhte dekha hai 

--- Tushar Raj Rastogi ---

शायरी

इश्क़ परखने का हुनर, हम बख़ूबी जानते हैं
कौन है आशिक़-ए-बुताँ, हम बख़ूबी जानते हैं
आशिक़-ए-बे-दिल के, बैत-ए-आशिक़ाना में
कौन है फ़र्द-ए-बशर, हम बख़ूबी जानते हैं

*आशिक़-ए-बुताँ - beauty lover
*आशिक़-ए-बे-दिल - heartless lover
*बैत-ए-आशिक़ाना - temple of love
*फ़र्द-ए-बशर - unique human being

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, दिसंबर 20, 2014

ये रात फ़िर अधूरी है















सितारे भी अधूरे हैं
चंदा भी अधूरा है
मचलते जज़्बात अधूरे हैं
मदहोश शामें अधूरी हैं
तड़पती तन्हाई अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

तरसते ख़्वाब अधूरे हैं
बुदबुदाते अल्फ़ाज़ अधूरे हैं
चादर की सिलवटें अधूरी हैं
अरमानो की टीस अधूरी है
नाचती उमंगें अधूरी हैं
ये रात फ़िर अधूरी है

तेरा साथ भी अधूरा है
पैग़ाम-ए-दिल भी अधूरा है
'निर्जन' आरज़ू अधूरी है
ये जुस्तजू भी अधूरी है
हर उम्मीद अब अधूरी है
ये रात फ़िर अधूरी है

दिल की बात अधूरी है
ये मुलाक़ात अधूरी है
ख़ुदाया कैसी मजबूरी है
नज़दीकि लगती दूरी है
दिल में दस्तक ज़रूरी है
बिन तेरे ज़िन्दगी अधूरी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Ye Raat Phir Adhoori Hai
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Sitare bhi adhoore hain
Chanda bhi adhoora hai
Machalte jazbaat adhoore hain
Madhosh shaamein adhoori hain
Tadapti tanhaai adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Taraste khwaab adhoore hain
Budbudate alfaaz adhoore hain
Chaadar ki silvatein adhoori hain
Armano ki tees adhoori hai
Naachti umangein adhoori hain
Ye raat phir adhoori hai

Tera sath bhi adhoori hai
Paigaam-e-dil bhi adhoora hai
'Nirjan' aarzoo adhoori hai
Ye justju bhi adhoori hai
Har umeed ab adhoori hai
Ye raat phir adhoori hai

Dil ki baat adhoori hai
Ye mulaqaat adhoori hai
Khudaya kaisi majboori hai
Nazdeki lagti doori hai
Dil mein dastak zaroori hai
Bin tere zindagi adhoori hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2014

हे वृक्ष



















हे वृक्ष! तेरे पत्ते
हर शिशर के बाद
क्यों नए आते हैं
क्यों तू पुरानो का
नवीनीकरण करता
तुझे भी
बदली ऋतू में
नए ढ़ंग का
जीवन चाहियें
क्यों पुराने पत्तों को
पूरी तरह गिरा देता है
एक पत्ता भी क्यों नहीं रखता
स्मृति मात्र के लिए
एक अरसा तेरे साथ
रहने पर भी तू
उससे मोह नहीं करता
तेरे लिए एक वर्ष
एक युग के समान है
तभी सभी एक साथ
बदल देता है

हे वृक्ष! तेरे पक्षी
तुझे कभी नहीं छोड़ते
जो तेरी हरियाली में
तेरे साथ रहते हैं
वो तेरे ठूंठ पर भी
बैठे तेरी ख़ुशहाली की
शायद कामना
करते रहते होंगे
क्यों नहीं छोड़ते
वो तुझे पतझड़ में
तू, तेरे पत्ते, तेरे पक्षी
सब मानव सृष्टि और
परमात्मा का स्वरुप हैं
या सिर्फ़
सांसारिक चक्र का
मुझे बता आज
क्या है ये राज़
क्या इसमें भी कोई
मर्म छिपा है, या इसकी भी
कोई दर्द भरी कहानी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

Hey Vraksh
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Hey vraksh! tere patte
Har shishr ke baad
Kyon naye aate hain
Kyon tu purano ka
Naveenikaran karta
Tujhe bhi
Badli ritu mein
Naye dhang ka
Jeevan chahiyen
Kyon purane patton ko
Poori tarah gira deta hai
Ek patta bhi kyon nahi rakhta
Smriti maatr ke liye
Ek arsa tere sath
Rehne par bhi tu
Usse moh nahi karta
Tere liye ek varsh
Ek yug ke smaan hai
Tabhi sabhi ek sath
Badal deta hai

Hey vraksh! tere pakshi
Tujhe kabhi nahi chhodte
Jo teri hariyali mein
tere sath rehte hain
Wo tere thoonth par bhi
Baithe teri khushhaali ki
Shayad kaamna
Karte rehte honge
Kyon nahi chhodte
Wo tujhe patjhad mein
Tu, tere patte, tere pakshi
Sab manav srishti aur
Paramatama ka swaroop hain
Ya sirf
Sansarik chakr ka
Mujhe bata aaj
Kya hai ye raaz
Kya ismein bhi koi
Marm chhipa hai, ya iski bhi
Koi dard bhari kahani hai

--- Tushar Raj Rastogi ---

रविवार, दिसंबर 14, 2014

साईं संध्या या राजनैतिक अखाड़ा

 ॐ साईं नाथ - ॐ साईं राम

इतनी ख़ुशी मिली है ये दिल आबाद हो गया
साईं की महफ़िल में 'निर्जन' शादाब हो गया

आज शाम अचानक से प्रभु का बुलावा आ गया | अरे यारों! वो वाला बुलावा नहीं जो आप सोचने लग गए हो बल्कि सुअवसर था साईं बाबा के दर्शन करने का, उनके सामने नतमस्तक हो अपने जीवन के लिए सुन्दर कामनाएं करने का और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का | सोचा नहीं था कि खड़े खड़े यकायक यूँही कदम उनसे मिलने की ओर बढ़ते चले जायेंगे | मैं तो रोज़ शाम की तरह कुछ एक यारों की महफ़िल में उनके चुटकुलों और चुटकियों का लुत्फ़ उठा रहा था और सरसब्ज हो रहा था | मालूम हुआ के आज तो हमारे क्षेत्र की धरातल पर 'साईं संध्या' का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है | पहले तो सोचा के टाल कर जाता हूँ परन्तु मेरे अभिन्न मित्र और बड़े भाई के कहने पर रुक गया और उनके साथ चलने को मन ही मन राज़ी हो गया | भैया की अचार की दुकान पर चुनावी सरगर्मियों पर आचार विचार और चर्चाओं के प्रहार के बीच हम सभी दोस्त लोग एक दुसरे की खिंचाई कर आनंद उठा रहे थे | हमारे नवविवाहित वकील साब की शामों और रातों का मुक़द्दमा आजकल हम यारों की अदालत में ज़रा ज्यादा ही जोर शोर से उठाया जाता है | बेचारे वकील साहब शादी कर के अच्छे फेर में फँस गए हैं और आजकल उनकी बोलती भी बंद ही रहती है | मित्र-मण्डली के मज़ाक़ और टांग-खिंचाई के सामने बस वो कुछ ऐसे बेबस मुस्कुराते हुए अपने दर्द को छिपाते नज़र आते हैं जैसे ओसामा ओबामा की क़ैद में फंस गया हो | इसके साथ ही हमारे साथ दुकान पर एक राजनैतिक पार्टी के भावी प्रत्याशी भी चर्चा में शिरकत कर रहे थे | वो कुछ देर पहले ही अपने दल के एक चमचे के साथ दुकान पर पधारे थे | चमचा कहूँ या चुनावी मेंढक जो बुलेट मोटरसाइकिल पर सवार होकर आया था और उसका हैल्मेट ऐसा लग रहा था मानो द्वितीय विश्व युद्ध के किसी रंगरूट का लोहे का शिरस्त्राण हो अर्थात टोपा हो | उसकी इस वेशभूषा को देखते ही सबकी हंसी निकल गई | कुछ देर उसके साथ दिल्लगी की गई और उसके बाद सभी लोग बातचीत में मशगूल हो गए | सभी रात के ९ बजने के इंतजार में थे | सब ने साईं संध्या में जाने का मन बनाया था | मेरे से भी पुछा गया था परन्तु उस समय तक मैंने अपनी अंतर्मुखी दुविधा के चलते रज़ामंदी अभी तक अपने दिल में ही छिपा रखी थी | आखिरकार ९ बजे और सबने निकलने का विचार किया | बस कुछ ना कहते और सोचते हुए मैं भी सबके साथ चल पड़ा |

सहसा ही बहुत से उन्सुल्झे द्वन्द, सवालात और अनुत्तरित जवाबों को दिल में लिए मेरे कदम मित्रों और भावी नेताजी के साथ हंसी-ठठ्ठा करते संध्या स्थल की तरफ़ बढ़ते चले गए | पंडाल के पास पहुँच कर जब नज़र उठाकर देखा तो नज़ारा जितना मनमोहक था उतना ही आनंदमय वातावरण भी था | हर तरफ चमचमाती हेलोजन और बल्बों की रौशनी, लाल-पीले-हरे-सफ़ेद-गुलाबी रंग के कपड़ों से लगाया हुआ पंडाल | पंडाल के बीचोबीच साईं विराजमान थे | साईं का तेज और उनका प्रभामण्डल देखने योग्य था | उनके ठीक सामने रंगमंच सजा था | रंगमंच पर कलाकार रंग बिरंगी पोशाक में सजे-धजे अपनी कला का प्रदर्शन करने में मगन थे | बेहद श्रद्धा से परिपूर्ण कलाकार भगवान् श्री कृष्ण की झांकी और भजन प्रस्तुत कर रहे थे | सैंकड़ों की संख्या में जनता उपस्थित हो उस मनोहारी परिवेश में भाव विभोर होने से अपने आप को नहीं रोक पा रही थी | कोई खड़ा-खड़ा नाच रहा था तो कोई हवा में हाथ हिला हिला कर हिलोरे ले रहा था | बच्चे खेल कूद में लगे थे | सभी मन्त्रमुग्ध हो साईं की भक्ति में लीन दिखाई दे रहे थे | पंडाल के एक तरफ जूताघर का स्टाल लगाया गया था |  जूता घर के पास ही आने वाले श्रद्धालुओं के लिए साईं का तिथिपत्र भेंट स्वरुप देने का इंतज़ाम किया गया था | उसके आगे हाथ धोने के लिए पानी का स्टाल था | ठीक उसके सामने दूसरी तरफ खाने का इंतज़ाम था जहाँ साईं का प्रसाद ग्रहण किया जा सकता था | साईं के प्रसाद में कढ़ी-चावल और हलवा बनाया गया था | पंडाल में प्रोजेक्टर स्क्रीन का भी इंतज़ाम किया गया था जिससे जनता को कार्यक्रम का आनंद लेने से वंचित ना रहना पड़े |

हम सभी मित्रों ने नेताजी के साथ जैसे ही पंडाल में कदम बढ़ाये हमारे एक और मित्र जो की साईं संध्या के आयोजकों में से एक थे दौड़ कर हमारा स्वागत करने पधार गए | थोड़ी देर के वार्तालाप के बाद हमें वहां के प्रमुख आयोजक से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ | उन महानुभाव को जब ज्ञात हुआ की हमारे साथ अमुक राजनैतिक दल के भावी प्रत्याशी भी पधारे हैं तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | दौड़ दौड़ कर अपने परिचितों और स्वयं सेवी संस्था के लोगों से उनका परिचय आरम्भ कर दिया | यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक एक दूसरी अमुक पार्टी के पुराने बड़े नेताजी जिन्हें आधिकारिक न्योता संस्था ने पहले ही भेजा हुआ था और जिनका इंतज़ार बड़ी ही बेताबी और बेसब्री से हो रहा था, का आगमन नहीं हुआ | उनके चरणकमल द्वारा जैसे ही पंडाल दुलराया गया वैसे ही सभी लोग जो अब तक हमारे इर्द-गिर्द घूम नेताजी से फ़ौरी गठ-जोड़ बैठा रहे थे, उन्हें गले लगा रहे थे, अपने मोबाइल नंबर का आदान प्रदान कर रहे थे, गले मिल रहे थे या ऐसे मिल रहे थे मानो बरसों के बाद कोई बिछड़ा आज अकस्मात् ही सामने आ गया हो वो तुरंत ही छु-मंतर होते नज़र आए | माना की बड़के भैयाजी पिछले चुनाव में हारे हुए दल से चित हुए उम्मीदवार थे परन्तु वो कहते हैं ना पुराने चावल का स्वाद तो सबसे अलग ही होता है | बस फिर क्या था सभी का रुझान उनकी तरफ़ ही रहा और हम ये तमाशा देख मुस्कुराते रहे |

साईं दर्शन के लिए हमने अपने जूते-चप्पल जूताघर में उतारे, हाथ धोये और साईं दर्शन के लिए कतार में लग गए | हमारे परिचित मित्र पहले से ही साईं मंच के पास पंडित जी को बताने में लगे हुए थे कि नेताजी का आगमन होने वाला है | एक दफ़ा तो उन्होंने हमें सीधे कतार तोड़ कर भी आने का निमंत्रण दे डाला परन्तु हम आम जनता के साथ और उन्ही की तरह दर्शन करने के अभीलाषी थे अतः हम चुपचाप एक पंक्ति बनाकर चलते रहे | नेताजी को सामने देख आनन्-फ़ानन में पंडितजी ने उन्हें माल्यार्पण किया साथ ही दो अमरुद हाथ में थमा दिए और नेताजी हाथ जोड़ आगे बढ़ गए | नेताजी के पीछे हमारे वकील दोस्त भी थे जो प्रसाद के लिए मचले जा रहे थे | उन्होंने भी देखा-देखी प्रभु को शीश नवाया और हाथ बढ़ा दिया | पंडित ने उनकी शक्ल देखी और मुंह फेर लिया मानो कोई भिखारी देख लिया हो | प्रसाद देना तो दूर की बात पलट कर जायज़ा लेने को भी राज़ी नहीं थे | पर हमारे वकील साब तो वकील साब है और उस पर बड़ी बात यह है कि वो भी पंडित प्रजाति के अंश हैं बस फिर क्या था डटे रहे जब तक उनके हाथों में प्रसाद नहीं आ गया | खाद्य सामग्री प्राप्त होते ही वकील साब समपूर्ण स्फूर्ति के साथ नेताजी के पास हो लिए | हम तो ठहरे भाई आम आदमी यानी कॉमन मैन और हम लाइन में थे किसके पीछे, वकील साब के, लिहाज़ा जब वकील साब को पंडितजी ने कुछ नहीं समझा तो हम किस खेत की मूली थे | हमें भी पंडित जी ने नज़रन्दाज़ कर दिया और हम भी हाथ जोड़ कर आगे बढ़ गए |

अब आया खाने का नंबर | देखा तो ये लम्बी क्यू लगी थी खाने के स्टाल पर | पर अपना तो जुगाड़ फिट था | सभी बैठ गए कुर्सियां पकड़ कर और स्टेज पर हो रहे रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेने में मस्त हो गए | एक मित्र ने फ़ोन कर हमारे सूत्र को समझाया के भाई जल्दी आओ और स्टाफ चला कर खाने का इंतज़ाम करो | वो भी दौड़ कर तुरंत आए और सबके लिए फटाफट कढ़ी-चावल की प्लेटों का इंतज़ाम कर दिया | सभी दोस्तों ने तब तक नेताजी के साथ सेल्फी वाला कार्यक्रम निपटा लिया था | बस फिर क्या था सभी टूट पड़े | दे-दबा-दब पत्ते पर पत्ते उड़ा रहे थे कढ़ी-चावल के और प्रसाद का आनंद प्राप्त कर रहे थे | भोज के बाद मीठे की दरकार हुई और हलवा खाने की तलब लग गई | सब ने एक एक दोना हलवा उड़ाया और अपने अपने पिछवाड़े से हाथ पोंछ चप्पल जूते उठाने चल दिए | अपने चप्पल-जूते पहन कर और प्रभु को नमन कर हम सभी अपने अपने घर की ओर कूच कर गए |

कुल मिला कर कहूँ तो साईं-संध्या में आयोजक स्तर पर साफ़ तौर पर आस्था का स्तर कुछ कम ही नज़र आया | प्रभु के नाम पर एक ऐसा राजनैतिक अखाड़ा देखा जहाँ अपनी साख़ बनाने के लिए जद्दोजहद चल रही थी | आयोजकों द्वारा अलग अलग दल के नेताओं को बुलावा भेजा गया था | आने वाले चुनावों में अपनी स्तिथि मज़बूत करने के लिए और अपने अनकहे वर्चस्व के बखान और विधानसभा में अपनी उपस्थिथि दर्ज करवाने के लिए यह संध्या बहुत ही लाभदायक और बेहतरीन ज़रिया सिद्ध हो रही थी | जहाँ पंडित भी नोटों को और शक्लों को देखकर प्रसाद देता हो वहां और क्या अपेक्षा की जा सकती है | लोगों में उत्सुकता तो थी परन्तु कार्यक्रम के लिए कुछ ख़ास नहीं | ज्यादातर का ध्यान या तो खाने के ऊपर दिख रहा था या फिर सामान्य मौज मस्ती में लगे थे या किसी आपसी जोड़-तोड़ में तल्लीन थे परन्तु इसके विपरीत कुछ चेहरे ऐसे भी पढ़ने को मिले जो सच में साईं से रूबरू हो अपनी व्यथा बयां करने के इरादे से आए थे | जिनकी आँखों में एक आस थी और होठों पर साईं दर्शन के अमृत की प्यास थी | उनकी मुस्कराहट बयां कर रही थी, साईं संध्या में आने से ज़िन्दगी सफल हो गई | उनकी मुश्किलों का हल मिल गया है और वो बहुत संतुष्ट हो गए | हम भी यारों उन्ही में से एक थे | शायद आने वाले साल में हमारी दुआ भी क़ुबूल हो जाए और साईं के आशीर्वाद से हमारे काम भी बन जाएँ | उम्मीद तो यही है | देखते हैं और नए साल का इंतज़ार करते हैं ....... :)|

ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम.... ॐ साईं राम....

बुधवार, दिसंबर 10, 2014

कलयुग घोर कलयुग















आज का युग बहुत ही बेढंगा युग है
कलयुग है गुरु जी घोर कलयुग है

बताओ तो -

आज प्यार भी एक मलिन व्यापार बनता जा रहा है
आज इसमें लड़की क्या लड़का भी मात खा रहा है

८० की उम्र में ३० की कली से निकाह पढ़वा रहा है
कब्र में लटक रहे हैं पाँव जान मर्दानगी दिखा रहा है

मर्यादा को त्याग हर कोई मद में धंसता जा रहा है
पाखंड दिखा निन्न्यांवे के फेर में फंसता जा रहा है

चार दिवारी छोड़ सड़क पर कामुकता दिखा रहा है
इंसानियत को हैवानियत का जामा ये पहना रहा है

अश्लीलता का नंगा नाच चैनलों पर होता जा रहा है
ओछेपन की चसक में मनुष्य ज्ञान खोता जा रहा है

अपना, अपनों को यहाँ बेख़ौफ़ धोखा दिए जा रहा है
जोंक बनकर अपनों के प्यार का खून पिए जा रहा है

धन के लोभ में इंसानियत छोड़ मन मारे जा रहा है
तन के मोह में गरिमाओं की अस्मत हारे जा रहा है 

मतिमंद है वो जो रोज़ इनको समझाता जा रहा है
जन्तु भी मानस की हरकत से घबराता जा रहा है

'निर्जन' सोचे देश में ये क्या अनर्थ होता जा रहा है
अश्व को नसीब ना घास गधा ज़ाफ़रान उड़ा रहा है

--- तुषार राज रस्तोगी ----

मंगलवार, दिसंबर 02, 2014

क़िस्मत




















मैं तो हर शब् से एक
रिश्ता बनाता गया था यूँ ही
जहाँ से भी गुज़रा यादों का
दरिया बहाता गया यूँ ही
पर मेरी क़िस्मत का
लिखा भी अजीब था 'निर्जन'
गुनेहगार कोई और था, और
सज़ा मैं पाता गया यूँ ही
हाँ, आज मैं ये तस्लीम करता हूँ
कि मुझे मोहब्बत नहीं मिलती
मगर, ओ मेरी सोच के मेहवार
कभी यह भी ज़रा सोचो कि
जो तुम को याद करता हूँ
तो खुद को भूल जाता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, नवंबर 29, 2014

इंतज़ार













उसके इंतज़ार में दिल मेरा बेज़ार हो गया
इतना तड़पा के हर ख्व़ाब तार तार हो गया

आँख नम थी पर होटों पर हंसी थी 'निर्जन'
आवाज़ सुन उसकी दिल बेक़रार हो गया

लगता था आवाज़ में चाशनी घुली थी उसकी
अलफ़ाज़ सुनते ही गुलिस्तान गुलज़ार हो गया

वो साँसों की तपिश, जिस्म की महक उसकी
वो अदावत, वो अदाएं, वो मासूमियत उसकी

सोचते सोचते दिल बहका सा जाता है मेरा
अब तो बस ये कहने को जी चाहता है मेरा

खुश रहे वो सदा हंसती रहे गुनगुनाती रहे
अपनी आँखों से यूँ ही चांदनी छलकाती रहे

उसके साथ बस यूँ ही जी लूँगा ज़िन्दगी अपनी
खुश जो रहे वो तो समझो ज़िन्दगी आबाद अपनी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

तरुण का बैंड बजा



















तरुण का बाजा बज गया
याड़ी अपना सज गया
ना ना करते धंस गया
शादी के फेर में फंस गया

दोस्त अपना है वकील
कहते जिसे अड़ंगा कील
घोड़ी कल चढ़ गया यार
घर ले आया अपना प्यार

महफ़िल भी जमी थी ख़ूब
नाच नाच डीजे पर कूद
हाथ पैर सब खूब चलाये
हम स्वराजी शादी में छाए

मनोज भाई हाईलाइट थे
अनशेवड डिलाइट थे
नाच नाच हुडदंग मचाये
मना करत वोडका चढ़ाये

यार अपने मनमौजी हैं
स्वराजी सब फ़ौजी हैं
सजे धजे दूल्हा बन आए
जलवे सबने खूब दिखाए

दिल से दुआ करते हैं यार
हर दिन तेरा हो त्यौहार
मिले ताउम्र सभी का प्यार 
'निर्जन' कहता जी खुल के यार

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, नवंबर 26, 2014

हम भी बदल गए
















इन मुश्किलों की राह में, हम बढ़ते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

आवारगी की मय से, हम जाम भरते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

फुर्कते-ग़म के चराग, हम भी बुझाते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

इश्क़ में बदनाम, हम सरनाम होते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

अंजाम से बेपरवाह, हम अब चलते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

दर्द की दास्ताँ को, हम यूँ बयां करते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

यूँ ज़िन्दगी को 'निर्जन', हम भी जीते चले गए
सब कुछ बदल गया है, तो हम भी बदल गए

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, नवंबर 25, 2014

मुझको



















ज़ख्म जलते हैं अज़ीयत नहीं होती मुझको
अब तेरी याद से वहशत नहीं होती मुझको

कोई आए कोई जाए दर्द नहीं होता मुझको
शरीक़े-ग़म की भी आदत नहीं होती मुझको

कुछ ऐसा बदला है फ़ुर्कत-ए-ग़म ने मुझको
अब झूठ बोलूं तो नदामत नहीं होती मुझको

मरकर भी कोई अब मार नहीं सकता मुझको
अब कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझको

इतनी जुनूं-ए-हवस जीने की हो गई है मुझको
अब सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती मुझको

वो कहती थी पा नहीं सकता 'निर्जन' मुझको
अब छू लेती है तो नफ़रत नहीं होती मुझको

अज़ीयत - कष्ट / torture;
वहशत - जंगलीपन / savagery;
शरीक़े-ग़म - दर्द का साथी / friend in pain;
फ़ुर्कत-ए-ग़म - जुदाई का दर्द / pain of seperation;
नदामत - झिझक / attrition;

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

आज का इंसान



















बाहर से आलोकनाथ है अन्दर शक्ति कपूर
आज का इंसान कितना कमीनेपन से भरपूर

सबक सैंकड़ों सीख कर भी आदत से मजबूर
लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, ग़द्दारी, चालाकी से भरपूर

पीढियां बीत गईं इसकी पर तहज़ीब है काफ़ूर
कुत्ते की दुम सी फ़ितरत है टेढ़ेपन से भरपूर

चलती फिरती नौटंकी है ये दुनिया में मशहूर
दिखावे खूब दबा कर करता ये झूठ से भरपूर

"निर्जन" कहता ऐसों से बेटा बनो नहीं तुम सूर
घड़ा पाप का जब भर जाए तब दंड मिले भरपूर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, नवंबर 03, 2014

मेरी ज़िन्दगी













तुमने रात भर तन्हाई में सरगोशियाँ की थीं
तेरी नर्म-गुफ्तारी ने रूह को खुशियाँ दी थीं

बातों ने संगीतमय संसार बक्शा था रातों को
यादों ने नया उनवान दिया था मेरे ख्वाबों को

तुमने 'निर्जन' इस दिल का सारा दर्द बांटा था
तेरी रूमानियत ने रात को फिर चाँद थामा था

मेरे आशारों में इश्क़ इल्हाम की सूरत रहता है
मानी बनके तू लफ़्ज़ों को मेरे एहसास देता है

तेरे होने से ज़िन्दगी हर लम्हा गुल्ज़ार रहती है 
तेरी पायल की आहट कानो में संगीत कहती है

गुफ्तारी : वाक्पटुता, वाग्मिता, वाक्य शक्ति, बोलने की शक्ति
कर्ब : दुःख, दर्द, बेचैनी, रंज, ग़म
उन्वान : शीर्षक, टाइटल
इल्हाम : प्रेरणा
मानी : ताक़तवर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, नवंबर 02, 2014

अब भी



















मचली हुई हैं गुज़री रात की सरगोशियाँ अब भी
तेरे इश्क़ की ख़ुशबू साँसे महका रही हैं अब भी

तड़पता दिल बड़ी शिद्दत से बहक रहा है अब भी
तेरी बातों की चसक चराग़ जला रही हैं अब भी

ख्वाहिश चाँद छूने की पूरी नहीं हुई है अब भी
तेरी अब्र-ए-नज़र दिल में झाँक रही हैं अब भी

बयां करना नामुमकिन ये बेख़ुदी है अभी भी
तेरे जिस्म की कसमसाहटें सता रही हैं अब भी

ये जज़्बात बहते आबशार की मानिंद हैं अब भी
ख़ुशनुमा मौसम देख होठ मुस्कुरा रहे हैं अब भी

अब्र : बादल
आबशार : झरना

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, अक्टूबर 28, 2014

तेरा इश्क़ ही बस साथ है













बीती रात मेरी बाहों में वो चाँद थक कर जो सो गया
रातभर चाँद देखता रहा शाख़-ए-गुल सा खिला हुआ

कई मील सपनो को पार कर वो रात तपिश जगा गई
मैं अब भी प्यार को तरस रहा तेरे पहलु में पड़ा हुआ

मुझे इश्क़ ने तेरे सजा कर बेहतर इंसान बना दिया
मेरा दिल भी अब गुलशन का एक फूल है खिला हुआ

वो यादें जिन से हमेशा से ये चेहरा मुस्काया करता है
किसी दरख़त पे बन फूल वो तह-ए-गुल होगा सजा हुआ

नयी सुबह है नयी रौनकें नयी तू भी और नया मैं भी हूँ
रात के लम्हों से पूछना उस जुनूं-ए-इश्क़ का क्या हुआ

जिसे लाई है सुबह अभी वो वरक़ है दिल के सुकूं का
ज़रा खुशबू में भीगा हुआ ज़रा इश्क़ से सजा हुआ

साथ तू है मेरी हमसफ़र तो मुझ शरर की बिसात क्या
तेरा इश्क़ ही बस एक साथ है जो ना हुआ तो क्या हुआ

शरर -  चिनगारी, स्पार्क

--- तुषार राज रस्तोगी ---