खुशियों के चार पल, मैं सदा ढूँढता रहा
क्या ढूँढना था मुझको, मैं क्या ढूँढता रहा
बेईमानों के शहर में, मैं अदना सा शख्स़
लेने को सांस थोड़ी, बस हवा ढूँढता रहा
मालूम था के उसकी, नहीं है कोई रज़ा
फिर भी मैं वहां, उसकी रज़ा ढूँढता रहा
मालूम था कि मुझे, नहीं मिल सकेगा वो
फिर भी मैं उसका, पता सदा पूछता रहा
फिर यूँ हुआ के उस से, मुलाक़ात हो गई
अब ताउम्र 'निर्जन', अपना पता पूछता रहा
--- तुषार राज रस्तोगी ---
सुन्दर रचना हेतु बधाई तुषार भाई
जवाब देंहटाएंनिर्जन का मन निर्जन लग रहा
जवाब देंहटाएंइच्छायें निर्जन ना रहे ....
आमीन .....
बहुत खूब तुषारजी
जवाब देंहटाएंसोच को शब्द देने में आप बहुत सक्षम हैं, आपकी उपरोक रचना बहुत ही आला दर्जे की है, आपको बधाई है तुषार भाई।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
बहुत ही सुंदर रचना, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम
बहुत ही उम्दा रचना तुषारजी!
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत खूबसूरत
जवाब देंहटाएंखूबसूरत.
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