बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग २

लालाजी भी आदत से बाज़ आने वालों में से नहीं थे | उन्होंने भी सुधांशु के गाल पर तमाचा रसीद करने में ज़रा भी वक़्त जाया नहीं किया | उसके कोमल मन पर बारम्बार ऐसे आघात उसके स्वाभाव को और ज्यादा विद्रोही बनाते जा रहे थे | उसको एहसास होने लगा था के उसके साथ गलत हो रहा है पर बताता कैसे और किसको | न कभी उसकी किसी ने सुनी, पढाई में अव्वल आने पर न कभी शाबाशी मिली न कोई इनाम, न कभी खुद ही घुमने गए न उसे घुमाने ले गए, कूप मंडूप से हर समय घर में पड़े रहो और बैठे रहो | वो आसमान का पंछी बनना चाहता था और यहाँ सब उसके पर कतरने में लगे थे | उसकी परवाज़ को पंख देने की जगह उसे पिंजड़े में क़ैद कर रहे थे | बस यही पीड़ा और कसक उसके जीवन में हमेशा हर पर चलती रहती थी | बड़े बुज़ुर्ग बिना बोले ही अपने खून की भाषा समझ लेते हैं | उसने किताबों और ज़िन्दगी में, फिल्मों में यही देखा था | पर यहाँ तो निज़ाम ही उल्टा था | इतने सब के बाद भी मन से वो आज भी बहुत कोमल और सोम्य था | उसके मन में कोई पाप कोई बैर भाव नहीं था | अगर कुछ था तो वो थे उसके सवाल और उसका दर्द जिन्हें समझने और बांटने वाला कोई नहीं था | अकेले में वो बहुत रोता, इन सभी बातों पर बहुत विचार करता, अपने आप से सवाल पूछता और खुद ही जवाब ढूँढने की कोशिश करता | पर एक कृष्ण विवर के सिवा उसके हाथ कुछ न लगता | सैकड़ों ख़यालों और सवालों से वो अकेला ही लड़ता रहता और जब थक जाता तो हताश होकर बैठ जाता | वो सिर्फ एक अकेला तनहा प्राणी था जो ये सब बचपन से बर्दाश्त किये जा रहा था | परन्तु किसी के सामने अपने दर्द को ज़ाहिर नहीं होने देता था | एक कठोर बाहरी अनावरण बनाता जा रहा था अपने चारों ओर सबको दिखने के लिए | वो कहते हैं न के यदि इंसान स्वाभाव से कोमल ह्रदय हो तो वो अपने को ऊपर से कठोर दिखाना शुरू कर देता है | बात बात पर झुंझला जाना, तुनक कर जवाब देना, अनाप शनाप जवाबदेही करना, हर समय चिडचिड़ाहट से भरा रहना, छोटी छोटी बातों पर गुस्से से आग बबूला हो जाना, खाने पर गुस्सा निकलना, कमरे में बंद रहना  और अपनी कमजोरियों को सवालों और बहानो में छिपाना उसकी सामान्य ज़िन्दगी में शामिल हो चुका था | मैं बहुत बुरा हूँ और सब मुझसे दूर रहो | मेरे पास आए तो मैं और बुरा बन कर दिखा दूंगा | उसे लगने लगा था के उसके नर्म स्वाभाव और विनर्म वाणी को सुनकर सब उसे दब्बू समझेंगे | उसका नाजायज़ फायदा उठाएंगे | क्योंकि आजकल का ज़माना ऐसा ही है | यदि आप चुप चाप सब कुछ सहते रहते हैं तो लोग आपको कमज़ोर समझने लगते हैं | और कहीं स्वभाववश आपने अपनी गलती मान ली या अपनी कमजोरी को दिखा दिया तो सभी आपके ऊपर राशन पानी लेकर चढ़ जाते हैं | एक गुस्सैल और कठोर वाणी वाले इन्सान से सभी डरते हैं और उसके समक्ष चूं भी नहीं करते या अपना रास्ता बदलकर कन्नी काट लेते हैं | उसने भी वही रास्ता अख्तियार किया | अपनी माँ से विरासत में मिले निर्मल और कोमल दिल को उसने कठोर और सक्थ कवच से ढांक दिया |

इसी कारणवश उसका कोई दोस्त भी न था | जो रवैया और बोलचाल उसकी घर में थी बहार भी वो वही दिखने लग गया था | उसे डर था के कहीं बहार भी उसके साथ वैसा ही बर्ताव न हो जैसा घर में होता था | जो थोड़े बहुत यार दोस्त बने भी थे उनको कभी लालाजी ने घर आने नहीं दिया तो धीरे धीरे उनका साथ भी छूट गया | दूसरा कारण यह भी था के वो स्वाभाव से मक्कार, चंट चालाक नहीं था और न ही ये सब बातें उसे पसंद आती | पर आजकल की दुनिया में यदि जीना है तो इन गुणों से आपको लैस होना स्वाभिक है क्योंकि किसी भी गंभीर, भावुक, जज्बाती, दयामय, कोमल ह्रदय और भावप्रधान जीवन जीने वाले प्राणी को आजकल इमोशनल फूल की उपाधि से तुरंत सम्मानित कर दिया जाता है | और लोग उनका फायदा अपने मतलब के लिए उठाते हैं | 

जैसे तैसे कर करा के सुधांशु ने स्कूल की पढाई तो पूरी कर ली परन्तु कॉलेज में जाने के स्थान पर उसने एक प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला ले लिया | वह जल्दी से जल्दी कोर्स कर के खुद कमाना चाहता था | अब तक उसके और लालाजी के बीच काफी फासलें आ चुके थे | वो ज़्यादातर अपने में खुश रहता बनिस्बत इसके के वो घर पर किसी से भी खुल कर बात करे | उसकी दुनिया अब उसके कमरे तक सिमट कर रह गई थी | पढने का शौक उसे बचपन से था, तो जो कुछ हाथ आता वो पढ़ डालता | उसकी छोटी सी दुनिया उसके सपनो के पास ज्यादा और अपनों के पास कम घूमती थी | उसके पास अपना एक छोटा सा निजी पुस्तकालय बन चुका था जिसमें नोवेल्स, साहित्य, कहानियां, कॉमिक्स, सामान्य ज्ञान और बहुत सी किताबों का कलेक्शन था | किताबों के साथ उसकी दोस्ती सबसे पहले उसकी माँ ने करवाई थी और तभी से वो उसकी सबसे करीब साथी थी | इस दौरान चंद दुसरे मित्रों से भी उसकी दोस्ती हो गई थी | वो उसके प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट की छात्र और छात्रा थे | उसके ग्रुप में एक लड़की थी जो उसे बेहद पसंद थी | उसने लालाजी से अपनी शादी की बात करने का फैसला किया परन्तु लालाजी के सामने आते उसकी बोलती बंद हो जाया करती थी | अपनी माँ से अपने हाल-ए-दिल को बयां तो कर लेता था पर अब उसे भी पता था के माँ उसकी किसी प्रकार की मदद नहीं कर सकती हैं सिर्फ इश्वर से प्रार्थना और सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दे सकती हैं | पर फिर भी माँ से बात कर के उसे बेहद सुकून मिलता था |

कोर्स ख़तम होते होते उसकी नौकरी लग चुकी थी | अपने खानदान में वो पहला लड़का था जो इतनी कम उम्र में नौकरी में गया था | उसके साथ के बाकि सारे बच्चे मौज मस्ती में लगे हुए थे या अपने बुजुर्गों के साथ उनका व्यवसाय सँभाल रहे थे | लालाजी ने कभी भी इस बारे में सोचा नहीं था | उन्हें बस परवाह थी तो अपनी और अपनी झूठी शान और आडम्बर की | अन्दर भले ही वो कितना भी चाहते हों परन्तु जब दिखने का वक़्त आता तो वो हमेशा फेल हो जाते | अपने पोते को कितना चाहते हैं कभी नहीं बता पाए और सब कुछ सही होते होते गलत हो जाया करता था | बात बनते बनते इतनी बिगड़ जाती की पूरे घर में तनाव हो जाता | इसमें काफी बड़ा हाथ उसकी दादी उर उनकी बेटियों का भी था | हर समय लालाजी को भड़काना और चुगली करके कान भरना यही उनका काम था |

नौकरी लगते ही सुधांशु ने अपने आपको उसमें झोंक दिया | मशीन की भाँती वो दिन में १८-२० घंटे काम में लगा रहता | कई कई दिन तो ऐसे होते के वो ऑफिस से घर ही न आता | जो थोडा बहुत समय वो घर पर बिताता था अब वो भी खत्म होता जा रहा था | खासकर लालाजी के साथ उसकी बातचीत पूर्णतः समाप्त ही हो गई थी | महीनो बीत जाया करते एक दुसरे की शक्ल देखे हुए | लगाव तो था परन्तु वो रोष और गुस्सा भी था जो इतने सालों से दिल में भरता जा रहा था | एक ही खून होने की सबसे बड़ी विडंबना यही थी के “मैं” दोनों में एक समान था | दोनों में से कोई भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहता था | लालाजी सोचते के सुधांशु आकर उसने पहले बात करेगा और सुधांशु भी जवान खून था और उसपर लालाजी का पोता | उसने भी सोच रखा था के जब तक लालाजी उससे सीने से लगा कर प्यार से बात नहीं करते और उसका हाल चाल नहीं पता करते तब तक वो भी बात नहीं करेगा | हर दफा मैं ही क्यों झुकूं | मेरी गलती क्या है | बस इसी अना के चलते जो छोटी सी डोर बची थी वो भी टूट गई | क्रमशः

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मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग १

दास्ताँ हमेशा दिल और प्यार से बनती है दिमाग से नहीं | जहाँ रिश्ते दिमाग से बुने जाते हैं वहां कभी कोई भी दास्ताँ पनप ही नहीं सकती | जहाँ दिल है वहां प्यार है और जहाँ प्यार है वहां कोई न कोई दास्ताँ ज़रूर होती है | प्यार को किसी भी पैमाने पर तौला नहीं जा सकता न की उसे साबित किया जा सकता है | प्यार है तो उसका दिखावा कभी नहीं हो सकता । प्यार तो एक एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और उस के चलते हर एक दास्ताँ को जन्म दिया जा सकता है | दिल के भीतर जितनी गहराई में प्यार होगा उतना ही मज़बूत रिश्ता भी होगा | ये कहानी भी कुछ ऐसे ही रिश्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिसमें प्यार की गहराई है, विद्रोह का दर्द है, सहन करने की पीड़ा है, अलगाव की वेदना है, मैं की भावना है, तकरार है, खून की खून के साथ बगावत है, अकेलेपन की व्यथा है, ख़ामोशी की कसक है, दिल की दुखन है और भी ऐसी बहुत सी भावनाएं हैं जिन्हें लेकर ये कहानी बुनी गई है | पर सबसे ऊपर है प्यार, विश्वास और एहतराम का जज़्बा जो इस कहानी का मूल स्तंभ है | जिसके चलते ये दास्ताँ लिखी गई है | उम्मीद करता हूँ आपको मेरी कोशिश अवश्य पसंद आएगी ।

पात्र:
लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल – दादा
सुधांशु अग्रवाल – पोता

 लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल नामचीन व्यापारी थे | थोक के बाज़ार में उनका बड़ा रुतबा था | चावल की आढ़त का बहुत अच्छा कारोबार था उनका | एक छोटा सा परिवार था जिसमें उनकी धर्मपत्नी, दो बेटियां, बेटा, बहु और पोता पोती थे | आज की कहानी में दो मुख्य किरदार शिरकत करने वाले हैं और वो है लालाजी खुद और उनका पोता सुधांशु | कहानी यहीं से आरम्भ होती है जिस दिन सुधांशु का जन्म हुआ था | बड़ी की मन्नतों, पूजा पाठ, हवन, तंत्र मंत्र और मुरादों के बाद लालाजी के दिल की हसरत पूरी हुई थी | बेटे की शादी के दस साल बाद उन्हें पोते का मुंह देखना नसीब हुआ था | जन्म के साथ ही उसका लालन पालन राजकुमारों के जैसे शुरू हो गया |

लालाजी की जान बस्ती थी उसमें | अगर पोता धीरे से छींक भी दे तो डाक्टरों की कतार लगा देते थे | काम पर निकलने से पहले पोते का मुंह देखते और शाम को लौटकर सबसे पहले उसको गोद में लेकर खिलाते | रात को सुलाते भी अपने पास थे | इतना लगाव था पोते के साथ के उसके बिना जीना असंभव था | रिश्ते नातेदार अक्सर लालाजी का मजाक बनाया करते और कहते, “लालाजी पोता है पोता, तोता नहीं जो पिंजरे में बंद कर के साथ ले चलोगे |” लालाजी भी ऐसी बातों को हंसी में उड़ा दिया करते और कहते, “जब तुम्हारे होंगे तब पूछुंगा |” बस लगता है तभी से लोगों की नज़र लगनी शुरू हो गई इस रिश्ते को |

समय गुज़रा सुधांशु बड़ा हुआ | लालाजी ने अपने रसूक के चलते बेहतरीन और एक बहुत ही उच्च कोटि के माने हुए स्कूल में पोते का दाखिला कराया | सुधांशु भी होशियार था | अव्वल नम्बर लाता और घर में सब को खुश कर देता | इस सब से लालाजी फूले न समाते परन्तु लालाजी की धर्मपत्नी का मिजाज़ कुछ अजीब था | एकलौता पोता होते हुए भी उनका झुकाव अपने नाती-नातिन की ओर ज्यादा था | धनि परिवार से होने की वजह से उनमें ज़बरदस्त मैं और गुरूर था | इसके चलते वो अपने समक्ष किसी को कुछ नहीं समझती थी | हालातों एवं स्तिथि परिस्थिति को अपने इरादों के अनुरूप कैसे कुशलता पूर्वक प्रयोग करना चाहियें और चालाकी से काम निकलना उन्हें भली भांति ज्ञात था | इसीलिए उन्हें सुधांशु से कुछ खास लगाव नहीं था | और वो उसे अपनाती भी तो कैसे क्योंकि वो उसकी माँ को ही दिल से नहीं लगा पाई थी | इस बात में लालाजी की बेटियां भी अपनी मांजी पर ही गईं थी | परन्तु लालाजी इस सब से दूर अपने उत्तराधिकारी के साथ मस्त थे |

सुधांशु के पिता अलग व्यवसाय में थे | मसरूफ़ियत के चलते वो घर परिवार को ज्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे | हालाँकि संतान वो उन्ही की थी पर उन्हें अभी तक अपनी इस ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं था | जिस तरह के गैर जिम्मेदाराना परवरिश वाले माहौल में वो बड़े हुए थे उनका रवैया भी ज़िन्दगी के प्रति वैसा ही था | बालक होने के पश्चात भी उनमें रत्ती भर बदलाव नहीं आया था |

सुधांशु की माताजी एक बहुत ही सभ्य परिवार से थी | उनके पिता भी बहुत रासुक वाले और नामचीन व्यापारियों में से थे | खानदानी लोग थे | थोक मंडी में उनका बहुत साख़ थी | लालाजी ने ये रिश्ता मुंह से मांग कर लिया था | परन्तु घर के माहौल और लोगों के रवैये की वजह से वो कुछ खास खुश नहीं रहती थी | अब उनका सारा जीवन अपने सुपुत्र सुधांशु और उसकी छोटी बेटी के इर्द गिर्द ही घूमता रहता था | वो उन दोनों के लिए ही जीती थी | चुप रहती और सब कुछ सहती । उफ़ तक न करतीं थी ।

सुधांशु के जीवन का हर फैसला लालाजी लिया करते थे | क्या खाना है, क्या पीना है, कहाँ जाना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है, क्या पहनना है, स्कूल का होमवर्क, पिकनिक पर जाना, किसको मित्र बनाना है किसको नहीं इत्यादि सब लालाजी देखा करते थे | उसे भी अपने दादा से बेहद लगाव था | लालाजी कड़क मिजाज़ तो थे पर प्यार भी करते थे | यदा कदा सुधांशु की धुलाई भी कर दिया करते थे | उसे मर मर कर मोती के जैसे लिखना उन्होंने ही सिखाया था । वरना आज उसकी लिखाई भी कीड़े मकोडो जैसी होती । अक्षरों को मोती सा टांकना उनके डंडे की ही दें था । लालाजी में प्यार तो बहुत था पर उससे जताने का तरीका सही नहीं था | बात बात पर कठोर हो जाना और कड़ा व्यव्हार करना धीरे धीरे उनकी आदत में शुमार होता जा रहा था | दूसरा गाली गलोंच से बोलचाल करना उनकी सबसे बड़ी कमी थी ।

ज्यों ज्यों सुधांशु बड़ा हो रहा था वैसे वैसे कठोरता का मापदंड बढ़ता जा रहा था | अब लालाजी का व्यव्हार बात बात पर कड़ा हो जाया करता था | छोटी से छोटी गलती पर भी सज़ा मिलना लाज़मी होता था | गाली गुप्तारी तो आम बात थी और सजी भी कैसी जिसे देख कर दिल दहल जाये | कई दफा तो सुधांशु को सारा सारा दिन मुर्गा बनाये रखते थे | न खाना न पानी वो बेचारा भी जैसे तैसे इस पीड़ा को बर्दाश्त करने लग गया था | अब उसके दिल में दादा के प्रति डर की भावना भी उत्पन्न होने लग गई थी | इतना होने के बावजूद प्यार अभी भी बरक़रार था | खेल कूद में भी लालाजी पीछे न थे | वो सुधांशु के साथ हर खेल खेला करते खासकर कैरम और शतरंज उनके प्रिये थे | कभी कभार वो ताश, लूडो या सांप सीढ़ी भी खेल लिया करते थे । पर उन दोनों का सबसे प्रिय खेल रमी होता था जिसे वो दोनों छुट्टियों में रात को घंटो खेल करते थे ।

सुधांशु अब छठी कक्षा में आ गया था | वो चीज़ों को और बर्ताव को समझने लगा था | लाला जी का बात बात पर टोकना, गाली देना और दंड देना उसे अखरने लगा था | लालाजी ने कभी भी प्यार से बैठकर उससे दो बातें नहीं की थी । परन्तु विद्रोह के बारे में सोचना उसके बस में नहीं था | लालाजी की सोच का आलम ये होता जा रहा था के वो कभी भी सुधांशु को अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करने देते थे | हर एक चीज़ उससे इतने विस्तार से बतलाते जिसे सुनते सुनते वो भी उकता जाता | बात बात पर उसे टोकना और अपनी सोच उस पर थोपने लगे थे । मन हे मन अब वो लालाजी से दूर जाने के बहाने सोचता रहता | इस् सब के चलते तीन वर्ष और बीत गए |

सुधांशु अब पंद्रह वर्ष का हो गया था | इस उम्र में बच्चों का खास ख्याल रखने की ज़रुरत होती है और उनके साथ एक दोस्ताना व्यव्हार करना लाज़मी हो जाता है | वे अपने जीवन में बदलाव की देहलीज़ पर कदम रख रहे होते हैं | बचपने से जवानी की तरफ उनका अब पहला कदम होता है | लालाजी और घर के बाकी लोग कभी भी इस बात को समझ नहीं पाए थे | सिर्फ सुधांशु की माँ इस बात को समझ रही थी पर घर में उनकी भी एक न चलती थी | बचपन की मार, अपमान, गालियाँ  और डांट डपट सह सह कर वो अपने अन्दर एक ज्वालामुखी पाले जा रहा था | पिटाई और मार के डर के साथ उसके मन में रोष भी जन्म ले चुका था । जितने जिद्दी और हठी लालाजी थे । उतना ही अड़ियल वो भी था । उसपर इतनी ज़िल्लत बर्दाश्त कर कर के वो ढीठ बनता जा रहा था । आखिर खून तो उन्ही का था । वो लालाजी से पीछे कैसे रहने वाला था । वो अपने बल पर अपनी सोच से खुद कुछ करना चाहता था । पर बात बात पर पाबन्दी, घर से बहार न निकलने देना और भेद भाव वाले व्यव्हार से वो पूर्णतः पक चुका था और एक दिन जिसका डर था वही हुआ | सुधांशु ने लालाजी को उल्टा जवाब पकड़ा दिया | क्रमशः

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

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वर्षा

बांधे हाथ, खड़ा 'निर्जन' मैं
मांगू सब की खैर
भीग चुका, वर्षा से तन मन
बह गया सारा बैर

कोई छतरी, रोक सके न
पीड़ा तनहा दिल की
भीगा दी जिसने आत्मा मेरी
चुभन है जीवन भर की

तेज़ तूफानी हवाएं मेरे
दिल को भेदती जातीं
मौन खड़ी उम्मीदें मेरी
फ़कत देखती जातीं

गिरता है वर्षा का पानी
बन खारा आँखों से
दुविधा सारी दूर हो गई
आने वाली राहों से

खोले बाहें बुला रहा है
नया सवेरा मुझको
कहता है मुझसे ये हर पल
आगे बढ़ना है तुझको

निकल अँधेरे भूत से तू अब
भुला दे पिछली बातें
घुट घुट कर काटीं हैं तूने
न जाने कितनी रातें

बांधे हाथ, खड़ा 'निर्जन' मैं
मांगू सब की खैर
भीग चुका, वर्षा से तन मन
बह गया सारा बैर

सोमवार, फ़रवरी 04, 2013

नीति - अंतिम भाग

"प्रताप!!!" क्षुब्ध खड़ी नीति के अधरों से नाम निकल गया |

प्रताप भी उसको ऐसे सामने देखकर दंग रह गया |

तभी पीछे कैश काउंटर से आवाज़ आई, "मैडम पैसे"

"हाँ, अभी देती हूँ", कहते हुए उसने प्रताप की तरफ देखा | प्रताप ने तुरंत पांच रूपये पकड़ा दिए | अपने सामान के साथ उसने नीति का सामन भी उठा लिया और बहार आ गया |

नीति भी उसके पीछे पीछे सर झुकाए चली आई | बहार आकर प्रताप ने पुछा, "कॉफ़ी?"

उसने चुप चाप सर हिला कर रजामंदी दे दी और बाईक पर बैठ गई | प्रताप हाईवे के उसी ढ़ाबे पर पहुँच गया जहाँ कभी वो दोनों साथ बैठ कर घंटो गुज़ारा करते थे और चाय नाश्ता किया करते थे |

ढ़ाबे पर पहुँचते ही प्रताप ने आवाज़ लगाई, "प्राजी, दो चा स्पेशल होर मट्ठी ओह वि स्पेशल, वेखो आज कौन आया है"

ढ़ाबे का मालिक दोनों से भली भांति परिचित था | सालों का रिश्ता जो था चाय, मट्ठी और ढ़ाबे का |

"खुशामदीद, जी आया नु, आओ जी आओ | बैठो | अज चाँद किथों निकल आया बादशाहों ? वड्डे अरसे बाद | साड्डी याद किथों लाब्बाई ? होर दस्सो की हाल चाल ? सब तों चंगा ? ओये अज तो मैडम जी वि आए हैं | धन भाग हमारे जो तुस्सी पधारे |"

"चंगा प्राजी, अज वादिय सी चा पिलवा दो" प्रताप ने कहा

"बैठो जी बैठो | हुने आर्डर भिजवाता हूँ | ओये छोटू, टेबल पर कपडा मार, भैया दा आर्डर ले कर आ, छेती, स्पेशल चा मलाई मार के, गरम मट्ठी साथ में |"

इस सब के बीच नीति चुप चाप खड़ी पुराने दिनों में खो गई थी | प्रताप ने कहा, "बैठो" | नीति नज़रें झुका के बैठ गई |

प्रताप इस नीति को देख कर हैरान था | कोयल सी चहकने वाली, आज इतनी खामोश कैसे है | उसने हिम्मत कर के पुछा, "और कैसी हो ? यहाँ  कैसे ? हाउस में सब कैसे है ?"

यूँ तो नीति के पास कहने को बहुत कुछ था | पर आज जुबां लफ़्ज़ों का साथ नहीं दे पा रही थी | वो खामोश रही | मौन आज वो सब कुछ कह रहा था जो उसने कभी शब्दों में भी बयां न किया होगा | प्रताप समझ गया था कुछ दिक्कत है | मामला बहत गंभीर है |

ये सब चल ही रहा था के लड़का चाय और मट्ठी ले आया | प्रताप बोला, "अबे यार प्लेट नहीं लाया, जा दो प्लेट भी ले कर आ फटाफट |"

लड़का प्लेट रख कर चला गया | प्रताप ने गिलास से चाय प्लेट में कर दी और नीति के आगे खिसका दी | "

"शुरू करें ?"

नीति के आँखों से सैलाब उमड़ पड़ा | वो धीरे से रुंधे गले से बोली, "तुम्हे आज तक याद है ?"

प्रताप बीच में बात काटते हुए बोला, "प्लेट में चाय सुड़कने का मज़ा ही कुछ और है, क्यों ठीक कहा न ?"

नीति की नम आँखों से बहते आंसु की बूँद को छूती उसके होटों की मुस्कराहट और गालों की लाली ने स्वयं जवाब दे दिया था |

नीति थोड़ा रिलैक्स हुई और प्रताप को आपनी कहानी सुनानी आरम्भ की | उसके हर्फ़-ब-हर्फ़ प्रताप के दिल में नश्तर जैसे चुभ रहे थे और उसकी लाचारगी को भेद रहे थे | वो अपने को अन्दर ही अन्दर कोस रहा था | अगर उस समय वो पीछे नहीं हटा होता तो आज नीति की ये हालत न होती | अचानक नीति बोलते बोलते रुक गई | उसने पुछा, "क्या हुआ ?" प्रताप बोला, "कुछ नहीं | अब आगे क्या सोचा है ?"

नीति ने कहा, "कुछ नहीं, अगले बुधवार तलाक की आखरी तारीख है | उसके बाद सब कुछ खत्म | बेटी का दाखिला नए स्कूल में करवा दिया है | बस फिर मैं और बेटी ज़िन्दगी को फिर से जीना सीखेंगे | अच्छा सुनो, समय बहुत हो गया है | मेरी बेटी स्कूल से आती होगी | वापस चलें |"

प्रताप ने सर हिला दिया और दोनों निकल पड़े | प्रताप ने नीति को गली के बहार ही छोड़ दिया और निकल गया | रस्ते भर वो अब नीति के बारे में ही सोच रहा था और समय को धिक्कार रहा था | कोई इंसान समय के हाथों इनता मजबूर कैसे हो सकता है | एक वक़्त वो था जब वो मजबूर था आज नीति को भी समय ने उसी स्तिथि में ला पटका है | सारा समय वो बस यही सोचता रहा के कैसे वो नीति के जीवन में खुशियाँ वापस ला सकता है |

उधर नीति की भी यही हालत थी | वो सोच रही थी के उसे अपनी बातें प्रताप से नहीं बतानी चाहियें थी | उसका भी परिवार होगा | ऐसा न हो के मेरे कारण उसके जीवन में कोई तूफान खड़ा हो जाये | कितनी बेवक़ूफ़ हूँ मैं | जल्दी बाज़ी में वो प्रताप का नंबर लेना ही भूल गई थी | और उसके बारे में पूछना भी |

समय कैसे गुज़र गया पता भी न चला | तलक का दिन भी आ गया | नीति को सुबह ही कोर्ट के लिए निकलना था | वो घर से निकली और गली के बहार ऑटो ढूँढ रही थी के उसकी नज़र सड़क के कोने में खड़े प्रताप पर पड़ी | वो दंग रह गई के प्रताप वहां क्या कर रहा है ? प्रताप के पास पहुंची और कहा, "तुम?"

प्रताप बोला, "तुमने बताया था न के आज फाइनल हियरिंग है, तो मैं..." अभी वो बात खत्म भी न कर पाया था के नीति बोल पड़ी, "अभी नहीं, देरी हो रही है, बाद में बात करुँगी",  प्रताप की शर्ट की जेब से पेन निकल कर उसके हाथ पर अपना नंबर लिख दिया और ऑटो मैं बैठ कर चली गई |

तलक हुए अब एक महीना बीत गया था | नीति इस झटके से उबरने की कोशिश में उलझी पड़ी थी | न खाने का होश था न पीने का | बस बेटी और वो, दोनों एक दुसरे का सहारा थे | बाकि रिश्ते नातेदार भी थे पर वो भी कब तक साथ देते | सब अपने परिवार में मस्त थे | माता पिता के न होने पर अकेली लड़की का साथ कौन देता है | इस समाज में अकेली लड़की होना बहुत बड़ी सज़ा है | हर इंसान उसे कमज़ोर समझ कर उस पर हाथ रखने और उसके घर में घुसने की कोशिश करता है | उनकी निगाहों से साफ़ दिखाई देता के उनकी मंशा क्या है | ऐसे में नीति को अकेले इस सब का सामना करना सही में चुनौती भरा काम था वो भी एक चौदह बरस की बेटी के साथ |

अचानक एक दिन उसके मोबाइल की घंटी बजी | उसने फ़ोन उठाया और बोली, "हेल्लो कौन ?"

सामने से आवाज़ आई, "प्रताप, मिलना है अभी बोलो कहाँ और कब मैं लेने आ जाऊंगा | बहुत ज़रूरी है |"

जगह फाइनल हो गई और प्रताप उसे लेने आया और फिर दोनों इस्कोन मंदिर चले गए |  मंदिर में कदम रखते ही प्रताप ने नीति का हाथ पकड़ा और अन्दर ले गया | दर्शन किये, परिक्रमा लगाई और बहार आकर चबूतरे पर बैठ गए | इससे पहले नीति कुछ कह पाती प्रताप ने कह दिया, "मुझसे शादी करोगी ?"

नीति ने कहा,"मेरी बेटी है | वो मेरे से भी बुरे दौर से गुज़र रही है | चुपचाप रहती है | पढाई में भी पिछड़ रही है | गुमसुम रहती है | बहुत सहमी रहती है | खुलकर बात नहीं करती | कभी हंसती नहीं | किसी के साथ खेलती नहीं | घुलती मिलती नहीं | उससे पूछे बिना नहीं कह सकती कुछ भी | ये फैसला मेरी बेटी ही लेगी अगर लेना होगा तो | तुम्हे अपनाना शायद उसके लिए मुश्किल होगा | मुझे वक़्त चाहियें |"

प्रताप ने कहा, "बेटी से मिलना है | आज ही | मुझपर भरोसा है तो चलो अभी |"

नीति बिना कुछ बोले प्रताप को सुहानी से मिलाने ले गई | प्रताप का व्यक्तिव सही में आकर्षक था | उसकी सकारात्मक सोच और प्रभावी शख़्सियत सभी को उसका दीवाना बना देती थी | ये बात नीति को भली भांति ज्ञात थी | उस दिन उसने कई घंटे नीति और सुहानी के साथ बात करते बिताये |

रात को सुहानी ने कहा, "मम्मा, अंकल बहुत अच्छे हैं | आई लाइक हिम अ लौट | वो फिर कब आयेंगे ?" नीति हैरान थी जो लड़की आसानी से किसी से बात तक नहीं करती थी वो प्रताप को इतना पसंद कैसे करने लग गई | पर वो खुश थी क्योंकि वो भी यही चाहती थी |

फिर क्या था मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया | प्रताप ने उन्हें दुःख के दिनों से बहार आने में बहुत मदद की | अब तो सुहानी भी उससे बहुत प्यार करने लगी थी | उसकी हर बात मानती और जो भी वो समझाता उससे ध्यान से समझती और फॉलो करती | वो भी एक पिता की तरह उसका ख्याल रखता था | ऐसे करते कब साल गुज़र गया पता भी न चला | ज़िन्दगी की धुरी अब पटरी पर आने लगी थी |

एक दिन नीति ने दीपक को फ़ोन करके प्रताप के बारे में बताया | दीपक ने सुना तो बहुत खुश हुआ | वो भी दिल ही दिल में यही चाहता था के नीति अपनी ज़िन्दगी को दूसरा मौका दे और अगर इस पारी में प्रताप उसके साथ है तो सब ठीक ही होगा | वो भी इस फैसले में नीति के साथ था |

सुहानी का जन्म दिवस आया | प्रताप एक सुन्दर सा केक बनवा कर उसके लिए लाया और बहुत से खिलौने भी | शाम को सब साथ थे | नीति ने केक काटने से पहले सुहानी से पुछा के उसे अंकल का गिफ्ट और केक पसंद आया ? उसने जवाब में कहा, "हाँ पसंद आया पर उसे कुछ और भी चाहियें |"

प्रताप ने पुछा, "बोलो डिअर, क्या चाहियें ? तुम्हारे लिए सब कुछ हाज़िर है, बस आवाज़ करो"

सुहानी बोली, "आप सोच लो, जो बोलूंगी मिलेगा न, पक्का ?"

"हाँ मेरे चाँद बोलो तो" प्रताप ने उसे गले से लगा कर कहा

सुहानी ने धीरे से उसके कान में कहा, "क्या आप मेरे पापा बनेंगे?" ये बात सुनकर तो प्रताप की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | उसकी आँखें छलक गई | उसने सुहानी को कस कर अपनी बाहों में भर लिया और कहा, "ज़रूर बेटा, आप कहते हो तो ज़रूर पर मम्मी से तो पूछ लो | क्या वो रेडी हैं ?"

नीति चुप चाप खड़ी देख रही थे के इन दोनों के बीच आखिर क्या खिचड़ी पक रही है के तभी सुहानी ने पुछा, "मम्मी, अगर अंकल मेरे पापा बन जाएँ तो आपको कोई प्रॉब्लम तो नहीं है?" नीति के पास कोई जवाब न था वो सुहानी के सवाल पर बुत बनी खड़ी थी और प्रताप को देख रही थी | प्रताप चुप चाप खड़ा मुस्करा रहा था | नीति समझ नहीं पा रही थी आखिर ऐसा हुआ कैसे | क्या जादू चलाया | आज उसे कन्फर्म हो गया था के प्यार और सहजता में जो आकर्षण है वो जीवन में और किसी चीज़ में नहीं है | एक दिन प्रताप के प्यार ने उसे बदल के रख दिया था और आज उसकी बेटी को भी |

सुहानी बार बार पूछ रही थी और आख़िरकार नीति ने हामी में सर हिला दिया |  उसे अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य तोहफा मिल गया था और सुहानी को भी | वो बहुत खुश थी | प्रताप और नीति भी उसकी ख़ुशी से बहुत खुश थे |

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रविवार, फ़रवरी 03, 2013

प्यार की खातिर

रात बिस्तर पर लेट तो गया पर नींद कहाँ ओझल हो चुकि थी मालूम ही नहीं था | आँखों ही आँखों में रात बीते जा रही थी | करवटें बदल बदल कर चादर पर सिलवटें पड़े जा रही थीं । हजारों ख़यालों से लबरेज़ यह दिमाग दिल की दस्तक को बार बार दरकिनार किये जा रहा था के चल उठ जा और लिख डाल एक और कहानी | लिखे बिना तू सोने नहीं वाला | पर हिम्मत थी के जवाब दिए जा रही थी | दिमाग में जो १००० वाट के करंट की तेज़ी से नए नए किरदार घंटी बजाये जा रहे थे उनसे कब तक बचता | आख़िरकार दिल की जीत हुई | कुछ २ या २.३० का वक्फा रहा होगा | चीते की फुर्ती से उठा और लैपटॉप ऑन कर बैठ गया | नोटपैड खोला और लग गया ख़यालात को शब्दों में उतारने |

पात्र:
शरद - नायक
सारिका - नायिका

कुछ आकर्षक बात तो होती ही है उन बेपरवाह प्यार करने वाले लोगों में, असाधारण युगल जोड़ों में, अति काल्पनिक व्यक्तियों में और करिश्माई शख़्सियत वाले किरदारों में जिसके चलते वो अपनी अंदरूनी ताक़त और शक्ति के बल पर अपनी स्नेहपूर्ण सोच और अपने विचारों का जादू चला देते हैं | अपनी अदाओं, बातों और भाव भंगिमाओं से किसी भी चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं | अपनी सशक्त वाक् शक्ति के चलते सामने वाले में आत्मविश्वास और उम्मीद की किरण का संचार कर देते हैं | कुछ लोग सच में ऐसे ही होते हैं | वो अचानक से आपकी ज़िन्दगी में कदम रखते हैं और अपना सब कुछ आपको समर्पित कर आपके हो जाते हैं |  ऐसे लोगों के साथ जीवन भी जीवंत हो उठता है |

ऐसे लोग जीवन में एक ख़ास मुक़ाम रखते हैं, अच्छे लगते हैं, प्यारे लगते हैं और उन पर सब कुछ न्योछावर करने को हम सदैव तत्पर रहते हैं | आजकल की दुनिया में जहाँ स्वयं में डूबे प्राणी, वो दुनिया जहाँ देने की बनिस्बत लेने की मंशा रखने वाले लोग बसते हैं | उस संसार में हमें यदि ऐसे चाहने वाले दिलदारों से वास्ता पड़ जाये तो तुरंत ही उन्हें खुद से बाँध लें, बाहों में जकड़ लें, कसकर लिपट जाएँ, आग़ोश में समां जाएँ और ज़िन्दगी भर उनका साथ निभाएं |

आख़िरकार सारिका के जीवन में भी कोई ऐसा चाहने वाला, कोई ख़ास, उसके चेहरे पर ख़ुशी की लहर लाने वाला, उसके जीवन को सौभाग्य एवं आनंद से सराबोर करने वाला, उसके उन ख़ास पलों में जीवन के मज़े को कई गुना बढ़ने वाला उसके दिल पर दस्तक दे चुका था | शरद नाम था उसका | नाम की तरह उसका मिजाज़ भी एक दम माकूल था | हमेशा हँसता और मुस्कराता रहता और इश्क़ के मामले में अव्वल नंबर था | अब सारिका का सारा जीवन शरद और उसके प्यार के नाम लिखा जा चुका था | सारिका के दिल की हर धड़कन हर सांस सिर्फ उसके प्यार के लिए ही थी |

जाड़े जा रहे थे | गर्मियों का आगमन होने को था | दिन के सूरज से काफी तेज़ी छलक रही थी | वाष्पयुक्त फूटपाथ के फर्श पर हलचल करते और हड़बड़ी मचाते खुशनुमा लोगों की भीड़, सैलानीयों की भरमार और मसरूफ़ समुद्र-तट | यही नज़ारा था गोवा की उस शाम का | सारिका की पसंदीदा जगह | अपने प्यार के साथ वो भी इन पलों के आनंद में भाव विभोर हुए जा रही थी | उसके मुताबिक इस जगह से सुन्दर और कोई भी जगह पूरे संसार में नहीं थी | यहाँ का आकर्षण ही कुछ ऐसा है के जो एक बार आया वो यहीं का हो कर रह गया | इस सबके बीच सबसे सुन्दर बात ये थी के उसके साथ दुनिया का सबसे खूबसूरत, कामाकर्षक, जवां और रोबीला मर्द था | जो उस पर जान छिड़कता था | वो भी उसपर ऐसे ही मरती थी ।

हालाँकि ये ट्रिप किसी प्लान के तहत नहीं बना था | बस बैठे बैठे अचानक से ही शरद के दिमाग में कीड़ा उठा और साथ में समय व्यतीत करने का दिल हुआ और ऑनलाइन टिकटें बुक करवा दीं | सारिका के लिए ये बहुत पड़ा सरप्राईज़ था | दोनों को साथ समय गुज़ारे एक अरसा बीत चुका था | और वो दोनों साथ में कुछ रूमानी पल गुज़ारना चाहते थे | तो गोवा से अच्छी जगह और क्या होती | सारिका की ख़ुशी का ठिकाना न था |

वहां के जादुई समुंद्री तट, गीली रेत में रातों को साथ लेटना, खुली आँखों से हाथ में हाथ लिए सपने देखना, पानी के बहती लहरों से तलवों का भीगना, ठन्डे भीगे तलवों को एक दुसरे के पैर पर लगाना, भीगे जिस्म से निकलती गर्मी का एहसास महसूस करना, रात के चाँद की परछाई का समुन्द्र की लहरों में खो जाना, धीमी धीमी पुरवाई का चलना, हलकी मध्यम ठण्ड से रोंगटे खड़े हो जाना, एक दुसरे की बाहों में सिमट जाना, बाजारों का शोर, नए नए चेहरों का दीदार, जल क्रीड़ा का आनंद, मोटरसाइकिल पर चिपक कर बैठना, गलियों और बाजारों में एवई चक्कर लगाना, समुन्द्र में नावों और जहाजों का आना जाना देखना, नारियल पानी पीना, अच्छा खाना खाना, विंडो शौपिंग करना और भी ऐसे अनेकों उल जुलूल काम करने का आनंद साथ में एक्सपीरियंस करना  | ऐसा सुन्दर, प्यार करने का, एक दुसरे को करीब से जान पाने का समय, माहौल तथा मौका इससे बेहतर कहाँ मिलेगा |

दिनभर तट पर गर्म हवाएं चलती रहीं | सूरज भी नाक चिढ़ता हुआ अपनी चिलचिलाती गर्मी बिखेरता रहा | सारिका और शरद दोनों ही बीच क्लोथिंग में घूमते रहे | गर्मी कुछ ज्यादा ही थी | पसीने से दोनों लथ पथ हो रहे थे | फिर भी अटखेलियों से बाज़ नहीं आ रहे थे | एक दुसरे को बाहों में भरे, चूमते और मस्ती करते घूम रहे थे | फिर थक कर निढ़ाल होकर वही लेट गए और सन टैनिंग के मज़े लेने लगे | शरद भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आता था, कहता,

"डार्लिंग, इतना सन टैनिंग करोगी तो काली हो जाओगी"

सारिका भी चिढ़ कर जवाब पकड़ा देती के, "काली हो भी गई तो क्या हुआ, दिलवाली तो ऐसी ही रहूंगी | तुम्हे काली होने से परहेज़ है क्या ? काली से प्यार में कमी आ जाएगी क्या?"

शरद जोर के हंसा और बोला, "कल्लो के साथ तो और मज़ा आएगा | नज़र भी नहीं लगेगी किसी की | और काली बॉडी का तो अपना ही चार्म है ;)" वो नटखट अंदाज़ में उसकी कमर पर हाथ फेरता हुआ बोला"

"शट अप ! माइंड यौर हैंड्स मिस्टर" कहती हुई सारिका ने कामोत्तेजक मुस्कराहट के साथ शरद की बात की पुष्टि कर दी और थोडा और पास आकर लेट गई |

सूरज शिथिल पड़ रहा था और धीमे धीमे सागर की लहरों के बीच समा रहा था | समस्त सागर गुलाबी हो गया था और दूर बहती लहरें सितारों की भाँती चमकीली नज़र पड़ रहीं थी | चिड़ियाँ चेह्चाहती आसमान में उडती अपने घोंसलों को वापस लौट रही थीं | कुछ लोग सागर के किनारे पर जॉगिंग करने में लगे हुए थे | कुछ फिरंगी हाथों में हाथ डाले घूम रहे थे | कहीं कोई खोमचों पर खाने उड़ा रहे थे | तो कहीं मालिश वाले तेल लेकर घंटी बजाते आवाज़ दे रहे थे | कहीं बच्चे खेल रहे थे और कहीं अल्हड जवानियाँ अपने यौवन के शिखर पर मदहोश मदमस्त हो झूम रही थीं | सागर में उमड़ती लहरों की फुहारें दोनों के तन को भिगो रही थी | दोपहर से दोनों साथ में लेटे गर्मी, बातों, आसपास के लोगों और नज़रों का आनंद उठा रहे थे | ढलती शाम के साथ रूमानियत भी चरम पर आने लगी थी |

दोनों ने एक दुसरे की ओर देखा और नज़रों में बातचीत आरम्भ कर दी | शब्दों से ज्यादा निगाहों की भाषा समझा रहे थे दोनों एक दुसरे को |

शरद ने धीरे से पलकें बंद की और खोलीं, जानब पूछ रहे थे, होटल रूम वापस चलें क्या ?

सारिका ने नज़रें इधर उधर घुमा कर और धीरे से आँखें मूँद कर जवाब दिया, "नहीं अभी नहीं " |

फिर एक टकटकी बंधकर, शरद की आँखों में आँखें डालकर देखती रही, जैसे पूछ रही हो, "आज रातभर यहीं ऐसे ही लेटे रहते हैं, प्लीज़" |

शरद, मुस्करा दिया, आँखे मूंदी और भवें ऊपर करके हामी भर दी |

बदले में जवाब मुस्कान के साथ मिला और साथ में एक फ्लाइंग किस भी |

रात भर दोनों बीच पर ऐसे ही लेटे लेटे बातें करते रहे | कभी शब्दों में, कभी आँखों में और कभी इशारों में | दोनों बस यही सोच रहे थे के वो दोनों साथ हैं तो प्यार है , और प्यार है तभी वो दोनों आज साथ हैं | कुछ भी कहने के लिए इस पल से सुन्दर समय कोई दूसरा नहीं हो सकता था | शरद को गुमान था के उसकी लेडी लव,  लेडी लक, उसकी जान और सारिका की मासूम मुस्कान उसके साथ थी | टू पीस में लेटी वो कहर बरपा रही थी | छिटकती चांदनी रात में उसकी त्वचा कोमल, मदमस्त, और चमकदार लग रही थी | जैसे किसी जाम में शम्पैन उंडेल दी गई हो और उसके सितारे टिमटिम करते उकसा रहे हों के आओ और हमें अपने गले से नीचे उतार लो | सारी रात वो दोनों एक दुसरे की आँखों से मदिरापान करते रहे और गर्म साँसों के मदिरालय में मदहोश होते रहे | एक दुसरे से ख़ामोशी में उन्होंने वो सब कह दिया जो शायद वो कभी शब्दों में भी नहीं कह पाते | दोनों एक दुसरे की बातों में इतने डूब गए के सुबह कब हो गई पता ही न चला |

शाम की फ्लाइट से दोनों वापस घर आ गए और फिर वही भागदौड़ वाले जीवन का हिस्सा बन गए | पर वो तीन दिन जो दोनों ने एक दुसरे के साथ बिताये थे वो ज़िन्दगी के सबसे यादगार और आरामदेह पलों में से थे | उन छुट्टियों के बाद वो बेहद करीब और करीब आ गए थे | उनका रिश्ता और पक्का हो गया था | दोनों को एक दुसरे पर खुद से ज्यादा विश्वास कायम हो गया था | ये पल उन्हें हमेशा याद रहेंगे और इन छुट्टियों का एहसास उम्रभर साथ रहेगा | मौके ज़िन्दगी और भी बहुत से देगी पर जो रिश्ता इन छुट्टियों बना था वो ज्यों का त्यों रहेगा | आखिर ये जो भी किया था सिर्फ "प्यार की खातिर" ही तो किया था |

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शनिवार, फ़रवरी 02, 2013

नीति - भाग ३

देहलीज़ के उस पर एक दूसरी दुनिया थी | अनजान लोगों की भीड़ से भरी एक ऐसी दुनिया जिसकी परिकल्पना नीति ने कभी नहीं की थी | हर एक इंसान जो उस चौखट के पार खड़ा था एक नए रिश्ते का बोझ उस पर लादने तो तयार था | जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर नीति ने ग्रहप्रवेश कर तो लिया लेकिन उन नए चेहरों की भीड़ में वो अभी भी उसी एक चेहरे को तलाश रही थी जिसकी ख्वाइश उसने हमेशा से की थी | सभी रीती रिवाज़ों और रस्मों को पूरा करते काफी रात हो गई थी | थकान के मारे चूर हो चुकी नीति अपने कमरे में पहुँचते ही बिस्तर पर निढ़ाल हो गिर पड़ी और कब आँख लग गई पता ही न चला |

एक नई सुबह के साथ ब्याहता जीवन का प्रथम दिवस आरम्भ हुआ | रंजीत ने उठते ही चाय की फरमाइश कर दी | नई नवेली दुल्हन की तरह वो चुपचाप उठी और जल्दी से रसोई घर में जा पहुंची | ललिता देवी उसकी सास ने टेडी निगाहों से उसकी ओर देखा और तुनक कर बोली,

"नीति, नहाये बिना हमारे यहाँ रसोई घर में कोई कदम नहीं रखता | तुमने रसोई को अपवित्र कर दिया | बेटा अब बहार जाओ और महाराज से बोल दो क्या चाहियें |"

"महाराज, सुनते हो महाराज, गंगाजल छिड़क कर रसोई को पवित्र कर दो और नीति को जो चाहियें दे दो |"

नीति "जी मम्मी, आगे से ख्याल रखूंगी | मुझे मालूम नहीं था |" कहते हुए रसोई से बहार जाकर खड़ी हो गई |

महाराज ने चाय उसके हाथों में थमा दी और वो अपने कमरे में चली गई | उसे इस बात का अंदेशा भी न था के जो उसने अभी अभी देखा था वो सिर्फ ट्रेलर था पूरी पिक्चर तो अभी बाकी थी | धीरे धीरे उस पर किन मुसीबतों का पहाड़ टूटने वाला है इससे वो पूरी तरह से अनजान थी | वो बेचारी तो प्रताप की यादों को भुलाकर रंजीत की दुनिया बसाने की कोशिश में ही उलझ कर रह गई थी | समय गुज़रा और ज़िन्दगी रोजमर्राह के कामों के साथ शुरू होने और खत्म होने लग गई | सुसराल के पचास काम और सुसरालईयों की फरमाईशों के चलते अब उसे अपने लिए वक़्त निकलना मुश्किल होने लगा था | सुबह से शाम और शाम से रात कब हो जाती पता भी नहीं पड़ता था | सभी के मूड को ठीक करने और सभी को खुश करने की कोशिश में वो गधे की तरह दिन रात काम में लगी रहती | पर फिर भी कोई उससे सीधे मुंह बात तक न करता था |

नीति के ससुर चमन लाल बहुत ऊँचे रसूक वाले व्यक्ति थे | पर वो दो मुहें सांप थे | समाज में दिखाने का चेहरा अलग था और घर पर कुछ और ही कलाकारी होती थी  | ललिता देवी घर में कम और घर से बहार ज्यादा समय व्यतीत किया करती थी | उसे अपनी सोशल लाईफ से ही फुर्सत नहीं मिलती थी | नन्द इतनी नकचढ़ी के जिसका कुछ ठीक नहीं था | नंदोई भी अव्वल नंबर का छिछोरा था |

कुछ समय पश्चात नीति ने एक प्यारी और फूल सी बेटी को जन्म दिया | अभी वो पत्नी के रिश्ते के बोझ से उबर भी नहीं पाई थी के माँ के रिश्ते का भार भी उसके नाज़ुक कन्धों पर आ गया | बेटी का जन्म उसके लिए के नए तूफ़ान को साथ ले आया | बेटी के जन्म से वो बहुत खुश थी | एक नया खिलौना उसके जीवन में आ गया था | पर सुसराल वालों के भवें तन चुकी थीं | उस दिन के बाद फिर ज़ुल्मों को सहने और झेलने का एक नया दौर आरम्भ हुआ |

दिन रात सास - ससुर के ताने | नन्द की नक्शेबाज़ी झेल झेल कर उसे डिप्रेशन रहने लग गया | नंदोई की अश्लील फब्तियों और घिनौनी नज़रों से वो मानसिक तौर पर घ्रणित महसूस करने लग गई थी | रंजीत तक उसके साथ ठीक व्यव्हार नहीं करता था | कभी इस चीज़ के लिए तो कभी उस चीज़ के लिए उसे प्रताड़ना झेलनी पड़ती | बुरी बुरी गालियों का, तानो का और भेद भाव का सामना करना पड़ता | कभी शादी में लाये सामान को लेकर कभी शादी के खान पान को लेकर कुछ न कुछ उसे सुनने को मिलता ही रहता था | कितनी ही दफा उससे इन डायरेक्टली पैसों की मांग की गई | कई बार तो रंजीत ने उसपर हाथ तक छोड़ दिया | पर वो घर की इज्ज़त और बेटी के प्यार के कारण सब बर्दाश्त करती रहती | सब कुछ चुप चाप सहती रही |

इस सब के चलते उसे अगर कुछ सुकून के पल मिलते थे तो वो उसकी बेटी के साथ होते | सुहानी नाम रखा था उसका | और सच में वो बहुत ही सुहावनी थी | मनमोहक थी | गोरी चिट्टी पटाखा से नयन नक्श | उसके साथ समय सागर की लहरों की तरह कैसे बह जाता मालूम ही नहीं पड़ता था | उसको नहलाना, तयार करना, खाना खिलाना, दूध पिलाना, उसके साथ खेलना मस्ती करना, इस सब में वो अपने सारे दुःख दर्द भुला देती थी |

यदा कदा नीति को दीपक की याद भी आ जाया करती थी | हालाँकि वो उससे नाराज़ थी क्योंकि वो नीति की शादी में शामिल नहीं था पर प्यार आज भी बरक़रार था | प्यार का रिश्ता सब गिले शिकवों से बड़ा होता है | अपने दिल का हाल वो और किसी से बाँट भी नहीं सकती थी | जो बात वो दीपक को बतला सकती थी शायद माता पिता से भी न कर पाती | अपना हल-दिल और किसी से इतना खुल कर नहीं कह सकती थी |

दीपक को शुरुवात से ही नीति के इस फैसले पर ऐतराज़ था | वो ज़रा भी खुश नहीं था | उसने नीति को समझाया भी था पर विपरीत हालातों के चलते वही हुआ जो नियति को मंज़ूर था |  उसे न तो रंजीत ही पसंद था न उसका परिवार | यही कारण था के शादी के इतने सालों के बाद भी जो रिश्ता एक जीजा साले के बीच होना चाहियें था वो कभी बन ही नहीं पाया था | दीपक जब भी रंजीत से मिलता उससे एक खलनायक वाली फीलिंग आती और वो किसी तरह बहाना बना कर वहां से निकल जाया करता था | रंजीत की भी दीपक के सामने हवा संट होती थी क्योंकि उसकी शेखी बघारने की आदत दीपक के सामने कभी नहीं चलती थी | दीपक के जवाब सुनकर अक्सर सबके सामने उसकी झंड हो जाया करती थी | इसलिए वो भी दीपक के सामने संभल कर बात किया करता था |

समय पंख लगाये कैसे बीत जाता है पता ही नहीं पड़ता | ऐसे ही घुट घुट मरते जीते १४ साल गुज़र गए | बेटी बड़ी हो रही थी और सभी हालात समझने लगी थी | अब वो भी माँ के साथ देना चाहती थी | अपनी दादी, दादा और पिता की नाइंसाफी को देख कर वो भी सहमी रहती थी | पर उसके बस में भी कुछ न था | आखिर वो एक छोटी बच्ची ही तो थी |

एक दिन अन्याय की सभी सीमायें लाँघ दी गईं | सुसराल वालों ने किसी छोटी सी बात पर नीति को कमरे में बंद कर के मर पिटाई की | उसके कपड़े तलक फाड़ दिए | बेटी के सामने गला दबाने की प्रयास किया | वो तो नीति की ही हिम्मत थी के जो जैसे तैसे अपने और अपनी बेटी को बचाकर वहां से निकल भागी | उसने तुरंत दीपक को फ़ोन किया और आपबीती बयां की | दीपक ने पुलिस में शिकायत करने को कहा | पर वो डरी हुई थी | उसके साथ उसकी बेटी थी | ऐसे में दीपक ने उसका पूरा साथ दिया और उसे घर वापस ले आया |

नीति लौटकर अपने पिता के घर वापस तो आ गई | पर मायके में रहना आसान नहीं था | हज़ार लोग लाखों सवाल | पिताजी और माताजी की तबियत भी बिगड़ रही थी | अभी कुछ अरसा ही हुआ था उसे वहां रहते | अपने साथ हुए हादसे से वो उबर भी न पाई थी के एक और वज्रपात से वो चकना चूर हो गई | उसके माता पिता के अकस्मात् निधन ने उससे पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया | और कहते हैं न के भेड़िये हमेशा मौके की ताक में रहते हैं तो यहाँ भी ऐसा ही हुआ | उसके सुसराल वालों ने ऐसे समय पर उसके ज़ख्मों पर नमक और लाल मिर्ची रगड़ दी | उसके ऊपर तलक का केस कर दिया |

नीति का धैर्य भी अब जवाब देने लग गया था | उसे रातों को नींद नहीं आती थी | वो धीरे धीरे डिप्रेशन का शिकार होने लगी थी | हल पल चिड़िया के जैसे चहकने वाली लड़की अब बिस्तर से भी नहीं उठती थी | अँधेरे कमरे में अकेले बैठी रोती रहती | उसकी आँखें सूज कर लाल हो गई थी और उनके नीचे काले धब्बे उबरने लग गए थे | अब वो भी किस्मत से हार मान लेने को तयार थी  | पर भगवान् में उसकी आस्था ने उसे कभी ऐसा करने नहीं दिया | दीपक भी हमेशा उसके होसले को बढ़ावा देता रहता था | ऐसे समय में उसके पास सिर्फ यही कुछ सहारे थे | एक अपनी बेटी का प्यार, भगवन में उसकी अटूट भक्ति और दीपक का साथ उस पर भरोसा |

लेकिन साहब वो कहते हैं न भगवान् के घर देर है अंधेर नहीं | इन सब हालातों के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी | वो इतवार का दिन था | बेटी के साथ वो रिलायंस फ्रेश में साग सुब्ज़ी लेने गई थी | भीड़ काफी थी | उसने देखा के आलू के भाव बहुत कम हो गए हैं | तो सबसे पहले वही लेने आगे बढ़ गई | भीड़ में से उसने के व्यक्ति के कंधे पर थपथपाया और कहा,

"एक्स-क्यूज़ मी प्लीज़, क्या आप थोडा साइड देंगे ? मुझे भी आलू लेने हैं | वह धीरे से साइड हो गया और नीति ने सुब्ज़ी ली और काउंटर पर जाकर पेमेंट के लिए खड़ी हो गई | पेमेंट करते वक़्त काउंटर पर उससे पांच रूपये खुले मांगे | उसने पर्स देखा तो छुट्टे पैसे नहीं थे | उसने आस पास देखा शायद किसी के पास चेंज हो | अचानक उसे वही इंसान नज़र आया जिससे उसने पहले रिक्वेस्ट की थी | उसकी कमर नीति की तरफ थी | एक बार फिर होसला जुटा कर वो आगे बढ़ी और उसकी पीठ पर धीरे से हाथ लगाया और कहा,

" एक्स-क्यूज़ मी, सॉरी फॉर ट्रबल | कैन यू प्लीज़ हेल्प मी ? डू यू हैव चेंज फॉर टेन रुपीज़ ?"

वो व्यक्ति धीरे से मुड़ा | उसका मुस्कराता हुआ चेहरा अब नीति की ओर देख रहा था | नीति ने जैसे ही नज़र उठाकर उसकी तरफ देखा तो सन्न रह गई | वो प्रताप था | क्रमशः

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गुरुवार, जनवरी 31, 2013

स्त्री तेरी यही कहानी

बचपन में पढ़ा
मैथली शरण गुप्त को
स्त्री है तेरी यही कहानी
आँचल में है दूध
आँखों में है पानी
वो पानी नहीं
आंसू हैं
वो आंसू
जो सागर से
गहरे हैं
आंसू की धार
एक बहते दरिया से
तेज़ है
शायद बरसाती नदी
के समान जो
अपने में सब कुछ समेटे
बहती चली जाती है
अनिश्चित दिशा की ओर
आँचल जिसमें स्वयं
राम कृष्ण भी पले हैं
ऐसे महा पुरुष
जिस आँचल में
समाये थे
वो भी महा पुरुष
स्त्री का
संरक्षण करने में
असमर्थ रहे
मैथली शरण गुप्त की  ये
बातें पुरषों को याद रहती हैं
वो कभी तुलसी का उदाहरण
कभी मैथली शरण का दे
स्वयं को सिद्ध परुष
बताना चाहते हैं या
अपनी ही जननी को
दीन हीन मानते हैं
ऐसा है पूर्ण पुरुष का
अस्तित्व...

नीति - भाग २

रस्ते भर दीपक नीति की टांग खींचता रहा | और नीति उसे लातें, घूंसे और गलियां देती रही | और वो हँसता रहा | गज़ब की अंडरस्टैंडिंग थी दोनों में और गज़ब का प्रेम भी | आज तो सगे रिश्तों में भी ऐसी भावना और प्यार देखने को नसीब न हो | प्रताप, दीपक को  बेहद पसंद आया था | वो भी यही चाहता था के नीति को ऐसा ही जीवन साथी मिले | घर वापस पहुंचकर दीपक ने पुछा,

"आगे क्या इरादा है ? सीरियस है या टाइम पास कर रही है?"

नीति सोच में पड़ गई | उसने दीपक से ऐसे संजीदा सवाल की उम्मीद नहीं की थी | उसने खुद भी अभी तक इसके बारे में नहीं सोचा था | दीपक उसके चेहरे के आवभाव से समझ गया था के ये खुद भी अभी तक कन्फ्यूज्ड है | नहीं जानती आगे क्या करना है | उसने सिर्फ इतना ही कहा के, "अब सीरियस हो जा, मजाक का समय गया |" और इतना कह कर वो चला गया |

नीति सारी रात इस बारे में सोचती रही | पर घरवालों को बताने की उसमें ज़रा भी हिम्मत न थी | समाज से पहले उसे घर वालों से डर था | दूसरी बिरादरी का लड़का | पापा तो बिलकुल नहीं मानने वाले | उसे भली भांति ज्ञात था के पापा हार्ट पेशेंट हैं | अगर ये बात सुनकर कुछ उंच नीच हो गई तो मैं सारी ज़िन्दगी अपने आप को माफ़ नहीं कर पाएगी | इसी जद्दोजहद में पता नहीं कब सुबह हो गई पता ही न चला |

अब दिन रात उसे यही फ़िक्र लगी रहती के वो क्या करे | प्रताप से भी मिलती तो थी, दिल तो उसके पास रहता पर दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा रहता | एक दिन हिम्मत कर के उसने प्रताप से पूछ ही लिया |

"प्रताप, हम शादी कब करेंगे ?"

प्रताप भी उसके इस सवाल से हैरान रह गया | उसने इस सवाल की उम्मीद इतनी जल्दी नहीं की थी | वो ख़ामोश रहा और कुछ नहीं बोला | दोनों की ख़ामोशी बहुत कुछ कह रही थी पर दोनों मजबूर भी थे, के क्या जवाब दें एक दुसरे को |

दिन बीतते गए  | नीति का कॉलेज भी खत्म होने को था | फाइनल इम्तिहान चल रहे थे और ज़िन्दगी की परीक्षा के लिए भी वो तयार हो रही थी | कॉलेज का आखरी दिन था | वो और प्रताप लंच टाइम पर मिले | करने को बहुत सी बातें थी पर कुछ ऐसा था भी नहीं जिस पर बात करें  | काफी देर तक दोनों खामोश बैठे एक दुसरे का चेहरा तांकते रहे |

यकायक नीति बोली, "मैं चलूँ" |

प्रताप ने चुप्पी तोड़ी और कहा, "मेरे हालत ऐसे नहीं है के अभी शादी के बारे में सोच सकूँ | पिताजी भी बचपन में ही छोड़ कर चले गए थे | अभी तो बहुत कुछ करना है | घर की जिम्मेदारियां भी पूरी करनी हैं | भाई बहनों का भी सोचना है | अभी अपने बारे में नहीं सोच सकता |"

प्रताप की ये बात तीर के जैसे नीति के दिल को अन्दर तक भेद गई | नीति की आँखों में आंसू थम नहीं पाए | फिर भी कोशिश करते हुए रुंधे गले से बोली,

"आई कैन अंडरस्टैंड, चलती हूँ |"

बस वही थी उसकी प्रताप से आखरी मुलाक़ात | कुछ समय बाद नीति के परिवार वालों ने एक लड़का देखकर उसका रिश्ता पक्का कर दिया | लड़का छोटे शहर का था पर पढ़ा लिखा था | नीति के पिता और लड़के के पिता दोस्त थे | नीति को उन्होंने मुंह से माँगा था | लड़के का नाम था रंजीत | नीति ने भी दिल पक्का कर लिया था और शादी के लिए राज़ी हो गई थी |

कुछ दिवस उपरान्त एक अच्छा दिन देख कर दोनों की सगाई कर दी गई | उस दिन आखरी बार प्रताप का फ़ोन नीति के पास आया था |

उसने फ़ोन पर सिर्फ एक ही सवाल किया था, "आर यू एन्ग्गेजड?"

नीति रिसीवर पकडे खामोश खड़ी रही और उसकी ख़ामोशी ने हर सवाल के जवाब दे दिए |

दिवस बीते और नीति की शादी का दिन आ गया | ख़ुशी  से ज्यादा उसके दिल में दर्द था | हालाँकि वो रंजीत से काफी बार मिल चुकी थी | दोनों साथ घूमने फिरने भी जा चुके थे | किन्तु वो दिल का रिश्ता अभी भी नहीं जोड़ पाई थी | इस कमबख्त़ दिल का क्या करती जो हर समय बस प्रताप के बारे में ही सोचता रहता था | इस एक रात के बाद उसकी ज़िन्दगी पूरी तरह से बदलने वाली थी | वो प्रताप से बहुत दूर जाने वाली थी | क्या उसने शादी के लिए हाँ करके सही किया था ? आगे क्या होगा ? क्या वो प्रताप को भुला पायेगी ? क्या प्रताप उसे भुला पायेगा ? शादी के बाद वो रंजीत के साथ खुश रहेगी? क्या रणजीत एक अच्छा पति साबित होगा? क्या रंजीत को प्रताप के बारे में बताना ठीक होगा? क्या वो इस बात को स्वीकार कर पायेगा?  इन्ही सब सवाल जवाब और ज़िन्दगी की उलझनों के बीच उसने रंजीत के साथ सात फेरे तो पूरे कर लिए और सो कॉल्ड शादी भी हो गई |

बिदाई हो गई | गाडी सुसराल पहुँच गई | सुसराल के दरवाज़े पर देहलीज़ पार करने को खड़ी वो अभी भी इन्ही सब सवालों से झूझ रही थी | क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental.

बुधवार, जनवरी 30, 2013

Thought

"Who you are today is not who you will be tomorrow, to understand this fact takes a very long time and a greater understanding of life."

Deep as the sea

Deep as the sea, deeper than the abyss, further than the ocean. Limits are limitless. Abound I find shore. To close to reach land. Land is distant, distant as the stars in the night filled with crowded spectra or a culmination of stars. Profound as my inner emotion that claims no restrain except when beleagured by humans that claim no identity nor will to live. I derail into a smudgery of unexpressed notion that coexists amongst people I love. Why must I express, this to live and survive. Never did a man look back at his sorrows or unrestrained passion to love, live and learn until one set out to decompass his side. Further than his side he survives to crawl on ocean, land and prevail amongs his no believers and people who choose not to love him nor care. He is strong, he is deep, his side no one knows, as to know this would be to be stronger than will, stronger than man, stronger than who we are.

To know you know me is not enough. For I am deep, deeper than you once thought i was. You express no emotions, I express no regret. Together we comfort each other. I only know joy when I server you or make you happy. When I feel your inner passion you make me a part of you that does not go unnoticed. Life is like a puzzle sometimes we embelish on absolute nonsense until we realize time has taken us by surprise. Yet time has no beginning nor end it is a block of space that we claim and accept as per your pretty woman, I often think about you not knowing how profound you really are. I bask in your lips and succumb to you arms and there I find a peaceful ground owes me to be a person. Allows me to be a part of something bigger.

मंगलवार, जनवरी 29, 2013

मुखौटा

मेरी तरफ़ा देख ज़रा
चेहरे पर एक मुखौटा है
मुखौटे का विश्वास न कर
मेरी बात को सुन ले ज़रा
मुझसे कोई सवाल न कर
मेरे झूठ का तू ऐतबार तो कर
जो लिखा है मैंने बस वही तू पढ़
मुझसे तू कोई सवाल न कर
बस शब्दों का ऐतबार तो कर

वो एक नज़र मेरे चेहरे पर
तूने जब जब भी है डाली
क्या पता कभी चलने दी तुझको 
दशा मेरे मन और जीवन की
जितनी हलचल, उतनी पीड़ा
दिल बिलकुल है खाली
सोच के तुझको भी दुःख होगा
हालत अपनी छुपा डाली
मौन सदा रहकर मैं बस
यही सोचता हर पल
शायद अब तो झाँकेगी तू
मेरे दिल के तल तक

मुझे अकेला छोड़ राह तूने भी बदली
जो था मेरा सच वो
तू कभी न समझी पगली
खुश रहे सदा तू
चहके, महेके, सूरज सी चमकाए
कोई अड़चन, कोई पीड़ा
अब निकट तेरे न आए

काश! किसी दिन वक़्त निकले
और मिले तू मुझसे
फिर कानो में धीरे से
ये पूछे तू मुझसे
काहे पहने हो मुखौटा ?
का चाहते जीवन से ?
तब आँखों को मूँद के अपनी
दिल को मैं खोलूँगा
बतलाऊंगा दर्द तुझे मैं
शब्दों में बोलूँगा

हाँ, माना के बहुत दुखद है
मुखौटे संग रहना
पर एही एक कला है बिटिया
जो के सिखलाती है
जियो सदा जीवन को हंस के
दुखी कभी न रहना
पड़े चाहे विपरीत परिस्थिति
में भी मर मर जीना

याद तेरी दिलाते हैं

गीली घास पर चलना
नंगे पावों फिरना
घंटो बातें करना
हर एक बात पे लड़ना 
याद तेरी दिलाते हैं

पराठों पर मक्खन डलना  
आइसक्रीम का मिलना
गर्म चाय की प्याली से
पपड़ाए होठों का जलना
याद तेरी दिलाते हैं

किताबों की मचानें
कुछ भूले बिसरे से गाने
नए नए स्वादिष्ट खाने
बाक़ी सब कुछ बेमाने
याद तेरी दिलाते हैं

जीवन से तमगे पाना
चेहरे का खिलखिलाना
बालक का मुस्कराना
अपनों से दर्द छिपाना 
याद तेरी दिलाते हैं

हाथों में थामे हाथ
अमर बेला का वो साथ
निर्भर एक दूजे पर हम 
आँखों से बहते ग़म
याद तेरी दिलाते हैं

शाम का मध्यम सूरज 
अर्श पर छनती चांदनी
गमलों में नन्ही कोपलें 
सन्नाटे की रागनी
याद तेरी दिलाते हैं

हुज़ूमि दुनिया की भीड़
सियाह रात सी तस्वीर
जुगनू से टिम टिम तारे
चमकते नैन कजरारे
याद तेरी दिलाते हैं

शमां की महक
झींगुरों की चहक
इश्क़िया दहक 
ख़ुदाया रहक
याद तेरी दिलाते हैं

भूरिया सर्द पत्तियाँ
कुरकुरी हवा की मस्तियाँ
इस कविता की पंक्तियाँ
शाम-ए-जीवन की झलकियाँ
याद तेरी दिलाते हैं
याद तेरी दिलाते हैं

भक्ति

भक्ति
जबकि स्वयं
स्त्री स्वरुप है
फिर भी
भक्ति को
क्यों तलाश है
किसी बुत की
जो की
स्वयं में
एक अथाह सागर है
फिर क्या
उसे प्यास है
किसकी
चिरकाल में
अनंत समय तक
क्यों
कोई नहीं जानता

सोमवार, जनवरी 28, 2013

ज़िन्दगी - अंतिम भाग

उस दिन सारी रात आँखों आँखों में ही कट गई | बारिश थम चुकी थी | तूफ़ान आके गुज़र चुका था और नुक्सान भी काफी कर गया था | राम सारी रात वहीँ ठण्ड में बैठा रहा और सोचता रहा के ज़िन्दगी ऐसा मज़ाक उसका साथ ही क्यों कर रही है | हर दफ़ा मैं ही क्यों ? मेरी गलती क्या थी ? और ऐसे कई सवालों के जवाब ढूँढ़ते ढूँढ़ते न जाने कब आँखों आँखों में रात कट गई |

अचानक से सन्नाटा टूटा और एक प्यारी से आवाज़ सुनकर वो चौंक गया | सारा उसकी छोटी बेटी उसके सामने खड़ी थी | उसे देखकर वो मुस्कराया और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और कहा, "गुड मोर्निंग माई एंजेल, यू वोक उप अर्ली टुडे | क्या हुआ ?"

सारा बोली, ? "पापा स्कूल का टाइम हो गया, जल्दी कहाँ ? जल्दी चलो न वरना लेट हो जायेंगे |"

राम ने तुरंत घडी देखी और ५ मिनट में तयार होकर आ गया | गाडी निकली और सारा को स्कूल छोड़ने चल दिया | रास्ते में सारा ने पुछा,
"पापा, मम्मी कहाँ है ? सोम्य और मम्मी कब वापस आयेंगे ? | आपको मालूम है सोम्य के साथ खेलने में मुझे बहुत अच्छा लगता है | वो मुझे थोडा डांटती तो है और झगड़ा भी करती है पर वो मेरी सबसे अच्छी फ्रेंड भी है | मैं उससे बहुत प्यार भी करती हूँ और वो मेरे से |"

राम के पास उसके मासूम सवालों और बातों का कोई जवाब न था | वो अपने आंसूओं को छुपाये चुप चाप हलकी सी मुस्कान चेहरे पर लिए उसकी ओर देखता और धीरे से सर हिला देता | स्कूल आ गया था | राम ने सारा के माथे पर चूमा और उसे बाय किया और वहां से निकल पड़ा |

अपने घर जाने की बजाये वो सीधा सारिका और सोम्य से मिलने उसके घर पहुँच गया | घंटी बजाई | सारिका के पिताजी ने दरवाज़ा खोला | उनके आव भाव कुछ तुनके हुए थे | वो अन्दर दाखिल हुआ तो पाया सामने सोम्या सोफे पर बैठी है | उसे देखते ही सोम्या मुस्करा दी और पापा पापा कहती उसकी गोद में आ बैठी | अभी २ मिनट भी नहीं गुज़रे थे के सारिका आई और उसे गोद से उठा कर अन्दर ले गई | राम चुप चाप बैठा रहा | उसके कलेजे पर सांप लोट रहे थे | बेटी के होते हुए भी वो उससे मिल नहीं पा रहा था | कुछ नहीं बोला | चुपचाप बैठा रहा और तमाशा देखता रहा | सारिका के पिताजी उसके पास आकर बैठे और कुछ बोलने की चेष्टा करने ही वाले थे , के राम उठ खड़ा हुआ, उसने भरी हुई आँखों से उनकी ओर देखा और प्रणाम कर के वहां से चल दिया | उस समय उसकी बोली से ज्यादा उसकी आँखें बहुत कुछ कह चुकी थी जिसे समझना अब सारिका के पिताजी को था |

राम ऐसा ही था | अपने दिल की बात किसी से ठीक से कभी कह ही नहीं पाता था | ज़्यादातर वो खामोश ही रहता था | रास्ते भर वो गाडी में ख़ामोशी से जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुनता रहा | घर आया और फिर से जाके अपने कमरे में चुप चाप बैठ गया | सिगरेट जलाई और इंतज़ार करने लगा के शायद सारिका का फ़ोन आ जाये | सोम्या की दूर होने की वजह से वो और ज्यादा टूट गया था | सोम्या की उन मासूम आँखों को वो भुला नहीं पा रहा था | पापा पापा की आवाज़ अभी भी उसके कानो में गूँज रही थी |  बार बार सोचता के कॉल करके अपने दिल की बात कह दूं पर मोबाइल के बटन पर ही उँगलियाँ रुक जातीं | अब उसे सिर्फ उस सर्वशक्ति में ही विश्वास था | हर समय दिल ही दिल में उनसे प्रार्थना करता रहता के उसके ऊपर आए बुरे वक़्त को बर्दाश्त करने की शक्ति उसे अदा फरमाएं और उसके होंसलें पस्त न होने पायें | ऐसे समय में वो अपना संयम कायम रख पाए |

दोपहर हो गई थी | सारा स्कूल से आ गई थी | आते ही उसने फिर से पुछा पापा, "सोम्या नहीं आई ? मैं उससे नाराज़ हो गई | उसने मेरे से बात भी नहीं की कल से | कब आएगी वो?" ऐसे ही वो पूरे दिन अपने आप से बातें करती रहती और राम ख़ामोशी से बैठा चुप चाप हताशा के साथ अपने साथ होती इस नाइंसाफी को देखता और सहता रहता | उसके भरोसे का खून हुआ था | किसी पर इतना विश्वास करने की सज़ा वो आज भुगत रहा था | पर क्यों ये जवाब उससे आज तक नहीं पता था |

ऐसे ही काफी दिन बीत गए | कोई बातचीत नहीं हुई | वो इंतज़ार में था के शायद फ़ोन आएगा पर कोई खबर नहीं आई | अब उसकी बेचैनी बढ़ने लगी थी | हालाँकि सारा उसके पास थी पर सोम्या की कमी उसे हर पर कमज़ोर करती रहती थी | हर एक पल भगवान् से उसके लिए प्रार्थना करता रहता | वो जहाँ भी रहे ठीक रहे | सुखी रहे स्वस्थ रहे | और सबसे ऊपर खुश रहे |

ऐसे ही अरसा बीत गया | न उधर से कुछ बात हुई और न इधर से | आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई थी पर बुझाने वाला कोई नहीं था | जो भी मिलता उसे भड़काने वाला ही मिलता | बात बिगड़ने वाले हज़ार थे और बात बनाने वाला एक भी न था | फिर इसी बीच एक दिन राम का जन्मदिन आया | वो भूल चुका था के आज उसका जन्मदिन है | ज़िन्दगी के इन उतार चढ़ावों के बीच उसे अपने लिए सोचने का वक़्त ही कहाँ मिला | हालात के थपेड़ों ने उससे ज़िन्दगी जीने की कला बहुत दूर कर दी थी | हर पल उसे एक ही इंतज़ार रहता था और वो अन्दर ही अन्दर घुट रहा था | न किसी से कुछ बात न किसी से कुछ गिला शिकवा करता था | बस अपने आप से और हालातों से झूझने में लगा रहता था | इसके चलते उसके काम और सेहत का भी काफी नुक्सान होने लगा था | पर वो इरादों का मज़बूत इंसान था | उसने कभी भी अपना धर्य नहीं छोड़ा | एक फाइटर था वो | बस जैसे तैसे अपने को संभाल रखा था उसने | जन्मदिन वाले दिन भी वो चुप चाप सुबह से ही बिना बताये कहीं चला गया | सारा और घर के बाकी सभी लोग हैरान थे के सुबह सुबह राम कहाँ चला गया | उसका मोबाइल भी स्विच ऑफ था | सबको फ़िक्र हो रही थी के क्या हुआ ? ऐसे क्यों और कहाँ चला गया ?

शाम तक राम की कोई खबर नहीं थी | पर फिर भी घर के सभी लोगों ने मिलकर उसका जन्मदिन मानाने की तयारी कर ली थी | अब बस उसके लौटने का इंतज़ार था | रात हो गई ९ बज गए | राम का कुछ अतापता नहीं था | सब का दम सूखा जा रहा था | तभी बहार गाडी की आवाज़ आई | सब सतर्क हो गए और घर की सभी लाईटें बंद कर दी गईं | दरवाज़े की घंटी बजी | राम घर वापस आ गया था | बार बार घंटी बजने पर भी किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला | फिर उसका ध्यान बत्तियों पर गया | घर में घुप्प अँधेरा था | ये सब देखकर हैरान हो गया और अपनी चाबी से दरवाज़ा खोलकर अन्दर दाखिल हुआ | उसका दिल ज़ोरों के धड़क रहा था | बार बार यही सोच रहा था के लाईटें बंद क्यों है ? सब लोग कहाँ गए ? क्या हो गया ?

जैसे ही राम ने हॉल में कदम रखा तुरंत ही सारा कमरा जगमगा उठा | हर तरह रंग बिरंगी रौशनी, साज सजावट, गुब्बारे, झालर लगे हुए थे और बीच में टेबल पर केक सज़ा रखा था | सब लोग "हैप्पी बर्थडे टू यू, हैप्पी बर्थडे टू यू" गा रहे थे | पर उसकी आँखें वीरान थीं | जिसके मुहं से वो ये सुनना चाहता था वो कहीं नहीं थे | वो मूक खड़ा ये तमाशा देख रहा था | अपने को सँभालते हुए फिर उसके चेहरे पर एक मंद से मुस्कान झलकी |

"थैंक यू , थैंक यू प्लीज  एंड वेलकम तो माई होम" वो सभी से बोला

सारा उसके पास आई और उसका हाथ पकड़ कर उसे केक तक ले गई | और उसके हाथ में चाकू थमा दिया और बोली,

"पापा, जल्दी से केक काटो न बड़ी जोर के भूख लगी है फिर पिज़्ज़ा और छोले भठूरे भी तो खाने हैं "

उसकी इस मासूमियत को देख कर सब हंस पड़े | राम भी जोर से हंस दिया | बोला, "ओके, मेरी माँ अभी काटते हैं चलो |"

केक काटने खड़ा ही हुआ था के पीछे से किसी ने दोनों हथेलियों से उसकी आँखें ढँक ली | वो चुप चाप खड़ा रहा, तभी एक आवाज़ आई,

"पापा, हैप्पी बर्थडे टू यू " ये आवाज़, ये आवाज़ तो सोम्या की थी |

उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, तुरंत उसने अपनी आँखों से हाथ हटाये और मुड़ कर देखा तो सामने सारिका खड़ी थी और साथ में सोम्या भी | इससे पहले के वो अपने मुहं से कुछ कह पता सारिका की हथेली ने उसका मुहं बंद कर दिया और बस आँखों में देखती रही | जो भी गिले शिकवे दूर करने थे वो आँखों ही आँखों में दूर हो गए | सारिका राम से गले लग गई और चारों तरफ तालियों की गडगडाहट गूँज उठी | राम ने अपनी दोनों बेटियों को गोदी में उठा लिया और प्यार से चूमता रहा |

ये उसके जन्मदिन का सबसे बड़ा उपहार था | बस फिर क्या था केक भी कटा और सब ने खूब धूम मचाई | खाना पीना, हंसी मजाक, गाना बजाना सब जम कर हुआ | रात कैसे बीत गई पता ही नहीं चला | दिल ही दिल में राम भगवान् को बहुत बहुत धन्यवाद् दे रहा था और उनका आभार व्यक्त कर रहा था | उसके जीवन की माला को बिखरने से बचने वाले वही थे |

और उसके बाद आज तक उसके जीवन में ऐसी काली रात और ऐसे सियाह दिन फिर कभी नहीं आए | सभी उलझाने बिना कुछ बोले और कहे ही निपट गईं | न उसने सारिका से कोई सवाल किया और न कोई जवाब माँगा | सारिका भी हंसी ख़ुशी ख़ुद-ब-ख़ुद घर चली आई | उससे भी अपनी भूल का एहसास हो चुका था | और वैसे भी अगर सुबह का भूला शाम को वापस आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते |

आज राम का परिवार एक हँसता खेलता, गाता गुनगुनाता परिवार है | एंड दे लिव्ड हैप्पिली एवर आफ्टर |

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आशा है कहानी आपको पसंद आई होगी | मेरी दिल से तमन्ना, उम्मीद और प्रार्थना है ऊपर वाले से जैसे राम की ज़िन्दगी में खुशियों के पल लौट आए वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों के जीवन की उलझाने और समस्याएं बिना कुछ बोले ही सुलझ जाएँ | कभी भी प्यार करने वालो को आपस में सवाल जवाब करने की नौबत न आए | क्योंकि मेरा ऐसा मानना है के प्यार की ज़बान नहीं होती | प्यार सिर्फ और सिर्फ एक एहसास है | जो बातें एक बंद ज़बान और भरी हुई आँखें कह सकती हैं वो जीवन में कोई भी शब्द बयां नहीं कर सकते | खुश रहिये | प्यार करते रहिये |
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रविवार, जनवरी 27, 2013

नीति - भाग १

पात्र :
प्रताप : नायक / नायिका का प्रेमी  
नीति   : नायिका
दीपक : नायिका का भाई
सुहानी: नायिका की बेटी
रंजीत: नायिका का पति
ललिता देवी: नायिका की सास
चमनलाल: नायिका के ससुर

नीति जैसा सुन्दर नाम वैसा ही सुन्दर चरित्र | मिडिल क्लास में जन्मी, एक शिष्ट परिवार में पली, २० साल की, बड़े शहर की एक छोटी सी लड़की | पिताजी का अच्छा खासा कारोबार था | माताजी छोटे शहर से अवश्य थी पर बहुत ही शालीन, ममतामयी और समझदार थी | उसकी ४ और बड़ी बहने थी और वो उनमें सबसे छोटी थी | नीति सभी की लाडली थी | औसत कद काठी, सांवला रंग और बुलंद हौसलों वाली जीवंत तितली | शांत इतनी के यदि सड़क चलते कोई कुछ कह दे या नज़र उठा कर देख भी ले तो बस समझो के उसकी शामत आई | फिर तो जो चीज़ हाथ में आ जाती उसी से उस मनचले का स्वागत सत्कार हो जाता | कभी कभार एक आदा थप्पड़ या घूँसा भी रसीद कर दिया जाता था | एक दम संस्कारी और पूरी तरह से भारतीय परिधान प्रेमी लड़की | जब भी घर से निकलती तो बस एक अदद कमीज़ या टी-शर्ट और जींस, पैरों में हवाई चप्पल नहीं तो कानपुरी | साज श्रृंगार ऐसा के सामने वाला देख ले तो बस मन्त्र मुग्ध हो जाये | न लिपस्टिक, न नेलपॉलिश, न चूड़ी, न झुमका, न नथनी बस एक घडी जो कलाई पर बंधी होती थी जैसे समय देखना कोई मजबूरी हो | अगर समय नहीं होता संसार में तो शायद वो घडी भी कभी दिखाई नहीं देती और वो समय पर भी एहसान करने से बच जाती | उसके हेयर स्टाइल का तो कहना ही क्या था | किसी भी अच्छे खासे लड़के को काम्प्लेक्स आ जाये उसके बाल देख कर | कुछ ऐसी ही थी नीति एक दम बिंदास, आजाद ख्याल, बेबाक और स्पष्ट विचारों वाली | रोज़ सुबह साइकिल पर सवार होकर अपने कॉलेज पहुँच जाया करती और मस्ती किया करती थी | टिपिकल लड़कियों वाले कोई भी गुण और शौक़ उसे दूर दूर तक छु कर भी नहीं निकले थे | वो अबला नहीं निरी बला थी जो एक बार पीछे पड़ जाये तो छटी का दूध, नानी, दादी, परदादी इत्यादि सभी को साथ याद दिला दे | ज़रुरत पड़ने पर मदद करने में सबसे आगे | दूसरों के हक के लिए लड़ने मरने में सबसे तेज़ | एक शब्द में अगर उसके बारे में कहूँ तो वो एक दम "झल्ली" हुआ करती थी | टिक्की, चाट पकोड़ी, गोल गप्पे, आइस क्रीम, चूरन और तरह तरह की सुपारी खाना उसके शौक़ हुआ करते थे | चूरन खरीदने के लिए तो वो कहीं भी जा सकती थी बस कोई नई वैरायटी का चूरन बता दे कोई | बस एक बात जो उससे हमेशा खाए जाती थी के "हाय! मैं कहीं मोटी तो नहीं होती जा रही हूँ ?" | इसकी बैचैनी और चिंता उसे जब भी रहती थी और आज भी बरक़रार है | उसकी सबसे बढ़िया बात जो उसे सबसे अलग करती थी वो ये के समय कैसा भी हो वो हँसना कभी नहीं छोडती थी | वो मुस्कान उसके चेहरे पर हमेशा बनी रहती थी जो उसकी शक्सीयत को सबसे जुदा करती थी |

उन्ही दिनों एक पार्टी में एक दिन अचानक नीति की मुलाक़ात प्रताप से हुई | नीति की सहेली के भाई का दोस्त था प्रताप | एक कॉमन फ्रंड के ज़रिये दोनों की जान पहचान हुई थी | पहले पहल तो दोनों में इतनी तकरार होती थी के पूछो मत | अगर कभी दोनों किसी पार्टी या गेट टूगेदर में मिल भी जाते तो आसमान सर पर उठा लिया करते थे | दोनों कभी भी एक दुसरे की बात से सहमत नहीं होते थे और बहस करते रहते थे | यही बहस करते करते दोनों को धीरे धीरे एक दुसरे की आदत पड़नी शुरू हो गई | उन दोनों को एक दुसरे की कंपनी पसंद आती तो थी पर कहीं न कहीं कुछ कमी थी | नीति की मनभावन अदाओं, उसके पहनावे, उसके अंदाज़, उसकी बातें, उसका अपनी बात को प्रूव करने के लिए किसी भी हद्द तक बहस करना, और हमेशा खुश रहना इन्ही सब बातों की वजह से शायद ही कोई ऐसा लड़का होता जो प्रभावित न होता और उस पर क्यों न मर मिट जाता | वही हाल प्रताप का था | मन ही मन वो उससे चाहने तो लगा था पर जिस प्रेमिका की छवि उसने अपने मन मंदिर में बसा रखी थी नीति उससे कोसों दूर थी | वो नीति को उस परिवेश में अपने सामने खड़ा देखना चाहता था | पर उसने ठान ली थी के वो नीति को बदल कर रहेगा और फिर ही उसके सामने इज़हार-ए-मोहब्बत करेगा |

धीरे धीरे मेल जोल बढ़ने लगा | प्रताप की कंपनी का असर नीति पर भी दिखाई देने लगा | उसकी बातों के आकर्षण से वो बहुत ही प्रभावित हुई | धीरे धीरे उनकी दोस्ती गहरी होती चली गई |  अकेली मुलाक़तों का सिलसिला शुरू हुआ | एक साधारण दोस्ती से बढ़ते बढ़ते कब वो एक दुसरे को पसंद करने लग गए पता नहीं चला | और एक दिन प्रताप ने उसके सामने इज़हार-ए-इश्क कर दिया | मन ही मन वो भी तयार थी | उसने झट से हाँ कर दी | प्रताप के प्यार में उसने अपने नारी स्वरुप को पहचाना शुरू किया | प्रताप के कहने पर उसने अपने को धीरे धीरे बदलना शुरू कर दिया | बाल बढ़ाये, सूट पहनना शुरू किया | बोली में शालीनता और सौम्यता लाइ | कान भी छिदवा लिए | चूड़ियाँ पहनने लग गई और तो और शर्मना भी आ गया | तो साब अब हमारी नीति टॉमबॉय से एक सुन्दर भारतीय नारी और प्रेमिका में तब्दील हो चुकी थी |

नीति का एक भाई था दीपक | हालाँकि सगा नहीं था पर था सगे से भी ज्यादा | दोनों में उम्र का फासला भी ज्यादा नहीं था | यही कोई ४-५ साल का अंतर होगा दोनों में | पर दोनो के बीच ट्यूनिंग कमाल की थी | निति की ज़िन्दगी के हर फैसले में उसका साथ देना और हर मुश्किल मोड़ पर उसके साथ डट कर खड़े रहना उसका जन्म सिद्ध अधिकार था | एक गज़ब की अनकही और अनसुनी बौन्डिंग थी दोनों में | वहीँ नीति भी उसको छोटा समझ कर कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही प्यार जाता देती थी | बात बात पर झापड़ रसीद कर देना, सर का तबला बजा देना या फुटबॉल समझ कर लात जमा देना तो मामूली बात हुआ करती थी | दीपक ने भी कभी इसका बुरा नहीं मन क्योंकि वो नीति को दिल से प्यार करता था और बहुत इज्ज़त देता था | आपस में अगर बात करते तो पूरी शिष्टता से गाली गलोच करते, समस्त दुनिया की माँ-बहन, बाप-बेटी एक करना उनकी बातचीत में आम बात थी | दोनों एक दुसरे से महीनो नहीं मिलते थे न ही कोई बात चीत होती थी | पर जब भी मिलते थे तो ऐसी गज़ब की गर्मजोशी होती जिसका कोई ठीक नहीं | घंटो कैसे गुज़र जाता करते कुछ पता न चलता | घर वाले चीखाम चिल्ली करते रहते आओ खाना खा लो, नाश्ता कर लो पर अपनी बातों में उन्हें कुछ सुने न देता |  अपनी इसी छोटी सी और प्यारी सी दुनिया में दोनों बहुत खुश थे | और एक दुसरे से बेहद जुड़े हुए थे |

दीपक नीति की एक एक हरकत से वाकिफ था | वो उसकी एक एक हरकत को नोट कर रहा था | नीति में इतना बदवाल उससे हज़म नहीं हो रहा था | नीति का एकदम से ऐसे बदलना उसके लिए भी अचरज की बात थी | वो भी सोच रहा था के ये कुछ तो छुपा रही है मेरे से | पर नीति भी छुपी रुस्तम थी | अभी तक उसने प्रताप के बारे में उसको कुछ भी नहीं बताया था | भनक भी नहीं लगने दी थी उसने किसी को इसके बारे में | उसने नीति से पुछा भी अचानक इतना बदलाव कैसे, तो जवाब में वो हंस कर टाल देती या कहती,

"अपुन तो बिंदास है, कुछ भी करूँ मेरी मर्ज़ी | मैं अपनी मर्ज़ी की मालकिन हूँ  यार | क्यों ये लुक अच्छा नहीं लग रहा क्या ? यार उस लुक से बोर हो गई थी तो सोचा थोडा चेंज कर के देख लूं | शायद घर वाले खुश हो जाएँ और मेरे पीछे पड़ना छोड़ दें |"

दीपक भी समझदार था | उसकी बातों को सुनकर चुप रहता और मुस्कुराता रहता  | उससे पता था के कुछ न कुछ खिचड़ी तो पका रही है ये और वक़्त आने पर ही परोसेगी | या फिर उसे ही ऊँगली टेडी करनी पड़ेगी बात पता करने के लिए | वो रग रग से वाकिफ था नीति की | उसे अच्छे से मालूम था के नीति से कोई बात निकलवाना बड़ी टेडी खीर है | जैसा वो खुद था वैसी ही उसकी बहन भी थी | दोनों के दोनों महा कुत्ती चीज़ | बस यही सोचकर वो शांत रहा और समय का इंतज़ार करता रहा |

 एक दिन अचानक इधर उधर की बातों बातों में उसने नीति से पूछ ही लिया,

"कमीनी अब तो बता दे कौन है वो इतने दिन हो गए तुझे ड्रामा करते |"

नीति चौंक कर बोली "क्या भाई कोई नहीं है, तू भी सनक गया है क्या? आइन्वाई मेरे पीछे पड़े जा रहा है"

पर दीपक को पता था के अब इसके पिटारे का ढक्कन खुलने का टाइम आ गया है | उसने फिर से कहा,

"चल चल जल्दी बता, इतने महीनो से तेरी नौटंकी देख रहा हूँ | चल क्या रहा है ? मिलवा तो सही |"

अब नीति के पेट में कहाँ पचने वाली थी बात सो उसने सब कुछ उगल डाला जैसे कोई गर्मी में ठन्डे ठन्डे शरबत की बोतल को हलक में उतार डालता है वैसे ही उसने सब कुछ दीपक के सामने उंडेल दिया | दीपक भी दंग रह गया सुनकर | उससे भरोसा नहीं हो रहा था के किसी के लिए नीति ने अपने आप को इतना बदल डाला | वो नीति से बोला के,

"जिस बन्दे ने तेरे जैसी कमीनी को बदल दिया वो कितना बड़ा कमीना होगा | बता जल्दी कब मिलवा रही है जीजा से |"

और बस फिर ऐसे ही नीति की टांग खिचाई चलती रही सारा समय | दीपक दिल से खुश था नीति के लिए | नीति को पता था के दुनिया में सबसे ज्यादा ख़ुशी दीपक को ही हुई होगी और फिर पलक झपकते ही उसने प्रताप से मिलवाने की ख्वाइश ज़ाहिर कर दी | दीपक तो इसी मौके के लिए तयार बैठा था | उसने तुरंत हाँ कर दी |
अगले दिन नीति दीपक को प्रताप से मिलवाने ले गई | प्रताप को देखकर दीपक कुछ देर उससे ऐसे ही देखता रहा | पर्सनालिटी दमदार थी | लम्बा, चौड़ा, हट्टा कट्टा नौजवान | गोरा रंग | मैग्गी जैसे लच्छेदार बाल | दीपक को उससे मिलकर बहुत अच्छा लगा | प्रताप ने आगे बढ़कर दीपक से हाथ मिलाया और बोला,

"और दीपक, कैसे हो ? आओ यार बैठो | और सब ठीक | हाउस में सब बढ़िया चल रहा है ?

दीपक भी कम नहीं था | उसने भी हाथ पकडे पकडे जवाब जड़ दिया दीपक के सवाल पर,

"अरे जीजा ! सब बढ़िया | हाउस में सब आपका ही इंतज़ार कर रहे हैं | कहों तो ले चलूँ | काफी लोग हैं लाइन में जो मिलने की बाट जोह रहे हैं | और सबसे उतावले तो ससुरजी और सासुमां है | बोलो ले चलूँ ?"

इतना सुनते ही प्रताप की और नीति की हंसी छुट गई | नीति बोली, "सुधर जा, वरना पिटेगा" | दीपक मज़े ले रहा था और हँसे जा रहा था और बेचारी नीति किलस रही थी और तुनककर बोली,

"कुत्ते चुप हो जा ! तुझे बताकर बहुत गलत किया | अब तू मेरी टांग खीचता रहेगा | चुप हो जा वरना तेरे मुहं पर जड़ दूंगी अभी | सब अक्ल ठिकाने आ जाएगी तेरी | "

दीपक और प्रताप दोनों इस मोमेंट को एन्जॉय करने में लगे हुए थे और हंस हंस कर नीति की हालत का मज़ा ले रहे थे | फिर सारा माहौल तीनो के ठहाको से गूँज गया | दीपक ने प्रताप को और प्रताप ने दीपक को कुछ गिफ्ट्स दिए और कुछ देर और मजाकबाज़ी और टांग खिचाई के दौर चलते रहे और फिर इस सब इसके के बाद वो बाय-शाये कर के उसके घर से रवाना हो गए | क्रमश:

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रिश्ते

आज एक बंधू से कुछ बात चीत हो रही थी | मेरे बहुत ही अभिन्न मित्रों में से एक हैं वो | मित्र क्या भाई के समान ही हैं | उनकी बातों के बाद जो कुछ भी एहसास मेरे दिल में उमड़े और जो जीवन के निष्कर्ष सामने आए वो मैंने यहाँ आप सबके सम्मुख शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर दिया  | बहुत ही सुलझी सोच रखने वाले मेरे मित्र को मैं इस कविता के मध्यम से धन्यवाद करना चाहूँगा के ऐसे वक़्त में उन्होंने मेरा साथ दिया, मेरी पीड़ा को समझा, मेरा मार्गदर्शन किया और मुझे सँभलने में मदद की  | बहुत बहुत शुक्रिया दोस्त |

जीवन एक जंजाल है भैया
मानवता बेहाल है भैया
रिश्तों की छोड़ों तुम बातें
इनका पैसों में तोल है भैया
इनका कोई मोल नहीं है
इनका तो राहू काल है भैया
नया ज़माना आया है भैया
प्रायोरिटी संग लाया है भैया
रिश्तों को अगर निभाना है भैया
तो प्रायोरिटी वाईस चलाना है भैया
किसका कितना करना है भैया
किसका कितना भरना है भैया
ये प्रीडीसाएडिड गोल है भैया
स्वार्थ का बोल बाला है भैया
शादी के रश्ते को इसमें
सबसे ऊपर डाला है भैया
छोटी छोटी सी बातों पर
बस मोल भाव होता है भैया
मतलब का बस राज है भैया
देता कौन किसी का साथ है भैया
जोर से तुम जो बोलोगे भैया
दिमाग की दही कर लोगे भैया
बच्चे को जो धमकाओगे भैया
बदले में बगलें झांकवाओगे भैया
गर बीवी के बाप का नाम लिया
तो महाभारत छिड़वाओगे भैया
सास ससुर ने कुछ बोल दिया तो
फौरेन घर छोड़ दिया रे भैया
जेठ जेठानी जो कुछ बोलें तो
टाँगे उनकी क्यों तोडें न भैया
बीवी का भाई वाह जी वाह भैया
मियां की बहना न जी न भैया
अगर गौर से देखो तो भैया
बस एक ही दिल में प्यार है भैया
हाँ सारा संसार है भैया
जो बिन मांगे देता है सब सुख
वो 'माँ' का रिश्ता है भैया
देता जीवन भर दुलार है भैया
बिन मांगे बिन पूछे करता
जीवन भर तुमसे प्यार है भैया
जीवन भर तुमसे प्यार है भैया

शनिवार, जनवरी 26, 2013

ज़िन्दगी - भाग १

पात्र :
राम - मुख्य पात्र
सारिका  - पत्नी
सोम्या - बड़ी बेटी
सारा - छोटी बेटी

रात बहुत ही तेज़ तूफ़ान आया था | ओले भी गिरे थे | पर उसे नहीं मालूम था के रात का तेज़ अंधड़ उसके जीवन में भी एक नया बवंडर लेकर आने वाला है | एक ऐसा भावनाहीन चक्रवात जो उसके सभी एहसासों और जज्बातों  को उड़ा ले जायेगा |

उसके लिए तो वो दिन भी सर्दियों की एक मस्ताना सुबह जैसा था  | बारिश अब भी ज़ोरों के बरस रही थी मानो इंद्र देवता कुछ ज्यादा ही प्रसन्न हों | लगता था रात से इन्द्रजी भी बियर का सेवन कर रहे हैं | बिजली ऐसे चमक रही थी जैसे आज मौसम भी रौद्र रूप में तांडव करने के मूड में हो | ज़िन्दगी की वो हसीन सुबह अपने परिवार के साथ, रोजमर्राह की भागम भाग, नहाना धोना, बच्चों का शोर, स्कूल जाने की तयारी, नाश्ता, टिफ़िन, और वही घरेलु कामकाज के बीच उसके दिमाग में क्या चल रहा था किसी को इस बात की भनक भी नहीं थी | सुबह हँसते खेलते बच्चे स्कूल जाने को तयार थे | नाश्ते में चाय और पकोड़े बने थे | सब ने साथ मिलकर आलू, गोभी और प्याज़ के पकोड़े खाए और फिर वो बच्चों को स्कूल छोड़ने निकल गई |

राम रात से अपनी स्टडी में ही बैठा था और काम निपटा रहा था | नाश्ते के बाद भी वो स्टडी में जाकर बैठ गया था और थक कर सुबह वहीँ पर सो गया था | नींद में उसका चेहरा ऐसा लगता था मानो जैसे चाँद सोया हो | एक दम शांत और कोमल | ऐसा उसकी छोटी बेटी 'सारा' कहती है | बड़ी बेटी 'सोम्या' और छोटी बेटी दोनों से उसे बेहद प्यार है | एक आँखों का तारा है तो दूसरी ज़िन्दगी का चकोर  | उसका समस्त जीवन उन दोनों के इर्दगिर्द ही घूमता रहता है | उन दोनों के सिवा उसकी छोटी सी दुनिया में और कोई नहीं है | ऐसा नहीं के और लोग नहीं हैं परिवार में पर उन दोनों के सामने उसे कुछ और दिखाई ही नहीं देता है | उनके लिए वो कुछ भी कर गुजरने को तयार रहता है | अचानक से उसकी आँख खुलती है और पसीनो में तरबतर उठ कर बैठ जाता है | उससे समझ नहीं आता के एक दम से ये शोर कैसा ? फिर सोचा शायद कोई बुरा सपना देखा होगा | बैठा बैठा सोच ही रहा है, के अभी तो सोया ही था फिर इतनी जल्दी आँख कैसे खुल गई ? घडी देखी तो दोपहर के पूरे साढ़े बारह बजे थे  | अचानक से बड़ी बिटिया भागी हुई आई |

"आ गया बेटा स्कूल से"

"हाँ पापा , कहते कहते बिटिया गोद में आकर बैठ गईं"

"स्कूल में क्या किया आज सारा दिन सोम्या बेटा?", राम ने बड़े प्यार से सवाल किया

"कुछ नहीं, आज तो खेलते रहे और शैतानी करते रहे", उसने आँखे चमका कर और इतरा कर जवाब दिया

"पापा, इस सन्डे को पिज़्ज़ा बनाओगे न ?" बिटिया ने बड़े प्यार से पुछा

"हाँ बेटा, ज़रूर पर पहले",

इतना कहते के साथ राम ने अपना गाल आगे बढ़ा दिया | बेटी ने धीरे से दोनों गालों पर चूमा और फिर सीने से लग कर बैठ गई | बस वही एक लम्हा होता था जहाँ राम की सारी थकान मिट जाती, नींद गायब हो जाती, ज़िन्दगी और जीवन का वक़्त थम जाया करता था | एक नई ऊर्जा का तेज उसके शरीर में दौड़ जाता था | बेटी को सीने से लगाकर जो आनंद की अनुभूति होती थी उसे बयां करना उसके बस में न था  | पिता होने का एहसास दिल में उमड़ जाता था और रगों में खून का दौरान एक दम शांत हो जाता था | वो ऊर्जा से हर्शोल्लासित और सजीव हो उठता था |  ऐसा लगता मानो के ये लम्हा यहीं थम जाये और बेटी ऐसे ही हमेशा दिल के करीब रहे |

अचानक राम की बीवी आई और सोम्य को गोदी में उठा कर ले गई | राम अपने लैपटॉप पर मेल चेक करने में लग गया | कुछ देर बाद अचानक से कुछ ऐसा हुआ के दिल में आग जल उठी | कुछ एक घंटों के बाद उसने देखा के घर के और लोग जोर जोर से उससे बुला रहे हैं | वो उठा और जाकर पुछा के क्या हुआ ? पता चला बड़ी बिटिया और उसकी जीवन संगनी कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं | तीन घंटे से ऊपर हो गए कुछ पता नहीं कहाँ गए |  तुरंत मोबाइल पर संपर्क साधने की कोशिश की | परन्तु मोबाइल तो बंद बता रहा था | दिल में हज़ार सवालों के साथ सैकड़ों आशंकाएं उठने लग गईं | क्या हुआ ? कहाँ हैं ? फ़ोन बंद क्यों है ? बहुत कोशिश की परन्तु कुछ पता नहीं चला | शाम को राम के मोबाइल की घंटी बज उठी | परेशान बैठा राम दौड़कर भागा और फ़ोन उठा कर बोला,

"हेल्लो ! कौन"

दूसरी तरफ़ा से आवाज़ आई

"मैं बोल रही हूँ ", आवाज़ राम की पत्नी सारिका की थी

"सारिका तुम और सोम्या कहाँ हो ?", राम ने गुस्से, डर और असमंजस के भावों के साथ सवाल किया

"मैं आ गई ", सारिका ने बतलाया

"आ गई मतलब ?", राम ने हैरानी से पुछा

"मैं सोम्या को लेकर अपने पापा के आ गई", दूसरी तरफ से जवाब आया

"लेकिन अचानक कैसे ? एकदम बिना बताये और वापस कब आना है ? सब ठीक तो है वहां ?", राम ने उत्सुकता से पुछा

"अब कभी नहीं आना, मैं घर छोड़ कर आ गई " बीवी ने तुरंत जवाब दिया और फ़ोन पटक दिया

राम के पैरों तले ज़मीन खिसक गई | वो बुत बना खड़ा रह गया | चेहरा सफ़ेद पड़ गया | उसे यकीन नहीं हुआ | ऐसे हालातों का सामना उसने पहले कभी नहीं किया था | वो किंकर्तव्यविमूढ़ बावला सा  खड़ा दीवार ताक़ रहा था | लाल नम आँखों में आंसू के साथ आक्रोश और गुब्बार था | उसने कई बार फ़ोन लगाने की फिर से कोशिश की पर फोन स्विचऑफ बता रहा था |

सारा तभी भागी भागी आई और बोली,

"पापा, मेरी भी बात कराओ न | मम्मी का फोन था ? सोम्या कहाँ है ?

उसे और मुझे तो आज गुडिया की शादी रचानी है | वो मेरी गुडिया का दुपट्टा लेने गई है क्या ?

और भी न जाने कितने ही सवाल वो पूछे चली जा रही थी जिनका जवाब राम के पास नहीं था | जैसे तैसे सारा को समझा बुझा कर और खाना खिला कर सुलाया और फिर कमरे में जाकर देखता क्या है के अलमारियां खाली पड़ी हैं | और भी काफी सामान नहीं है | बेटी की अलमारी खाली पड़ी है | उसके खिलौने, किताबें और कपडे गायब हैं | अचानक से 'सोम्या' के छोटे छोटे जूतों पर नज़र गई तो दिल भर आया | ये मंज़र देखकर अगर कुछ था तो नम आँखे, सीने में दर्द, खालीपन और मायूसी थी | राम सन्न खड़ा सोच रहा था ये अचानक कैसा वज्रपात हुआ उसकी हंसती खेलती दुनिया पर | अभी सुबह तक तो सब कुछ ठीक था | हंसी ख़ुशी ज़िन्दगी चल रही थी | इन्ही सभी कठिन परिस्थितियों से बोझिल मन से बालकोनी में जाकर खड़ा हो गया |

एक सिगरेट सुलगाई और बैठ गया | बारिश अब भी गरज गरज के बरस रही थी | बिजली की चमक ऐसे लगती थी मानो भगवन भी आज उसे चिढाने के मूड में है और उसके इन हालातों की तस्वीर उतार रहा हो | ऐसा लग रहा था जैसे राम की आँखों के आंसू आज आसमान बहा रहा है |  राम ने सर ऊपर किया और आकाश की ओर देखकर सोचने लग गया के ये सब उसके साथ ही क्यों और कैसे हो गया | एक दम से यह पहाड़ कैसे टूट पड़ा | अचानक से घर छोड़ कर चले जाना और फ़ोन भी बंद कर देना | माजरा समझ में नहीं आ रहा था | ज़िन्दगी की हालत ऐसी हो गई थी जैसे किसी गाडी पर १२० किलोमीटर की स्पीड से चलते हुए अचानक ब्रेक लगने के बाद जो नुकसान होता है उसी स्तिथि में राम था | एकदम से ऐसे पत्थर दिल कैसे हो सकती है वो | इतने सालों की शादी, प्यार, मन सम्मान, भरोसे का ये सिला दिया उसने | घर में अक्सर ऐसी छोटी मोटी कहा सुनी तो होती रहती है | इसका मतलब ऐसा करना तो नहीं | वो ऐसे कैसे धोखा दे सकती है ? वो इतना सारा सामान लेकर गई कैसे ? क्या ये सब वो काफी समय से सोच समझ कर प्लान कर रही थी ? क्या वो अब कभी वापस नहीं आएगी ? बेटी कैसी होगी ? बेटी से क्या कहा होगा ? बेटी को मेरी याद आएगी तो कैसे मनाएगी ? बेटी रात को सो भी पायेगी मेरे बिना ? काश! ये सब एक मजाक से ज्यादा कुछ न हो | दिल्लगी कर रही है वो मुझसे |

इसी सब सोच के बीच पिछले कुछ सालों की विडियो रील उसके दिमाग में शुरू हो चुकी थी जिसका नज़ारा वो अपनी आँखों के सामने देख रहा था | वो साथ बिताये लम्हे, हंसी ख़ुशी के पल, बेटियों का जन्म और उनके जन्म दिन, हँसना, रूठना, झगड़ना, मानना सभी का बाईस्कोप उसके सामने चला जा रहा था | और ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत सवालों से जूझता हुआ वो सिगरेट पर सिगरेट सुलगाये जा रहा था और अपने दिल, वक़्त और ज़िन्दगी को जलाये जा रहा था |  क्रमश:

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Thought

" Life will knock you down every moment, But its upto you if you want to stand up again like a winner. Or you just want to stay down there defeated."

शुक्रवार, जनवरी 25, 2013

मैं

मैं
क्या है ?
क्या कोई जानता है ?
मैं बकरी भी करती है
वो क्या है
ये भी कोई पूर्ण रूप से
नहीं जानता
न तो, वो
गाय की तुलना में
आती है
न ही आती भैंस में
फिर क्या श्रेष्ठता है ?
जो स्वयं
मैं, मैं करती है
क्यों करती है
एक स्त्री भी
अहं में
कहती है
क्या है
उससे जानने के लिए
अपने आप में
खो जाता हूँ
एक पत्नी
एक माँ
एक बहु
एक स्त्री
सिर्फ सेवा करना
सभी की
निस्वार्थ सेवा
मैं और मेरे में
सभी तो अपने है
फिर हर स्त्री
को रिश्तों से बांध कर
क्यों लक्ष्मण रेखा में
छोड़ दिया जाता है
एक माला की तरह
क्या वो, मानव सेवा
सिर्फ मानव सेवा में
समर्पित नहीं
हो सकती
जहाँ बकरी का स्वर भी
उसका दर्द भी
लुप्त हो जायेगा
कसाई से उसे भी
उसे भी तो
मुक्ति मिलेगी ।

गुरुवार, जनवरी 24, 2013

Thought

"STRENGTH does not come from WINNING, YOUR STRUGGLES develop your STRENGTHS when you go through hardships and decide not to surrender, that is STRENGTH"