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मंगलवार, अप्रैल 12, 2011

ज़ख़्म

कहते हैं 
समय हर ज़ख़्म 
को भर 
देता है 
पर, क्या ?
समय 
उस ज़ख़्म के 
निशानात को 
मिटा भी देता है ?
ऐसा 'निर्जन'
नहीं सुना है 
समय
तू अगर 
ज़ख़्म भरता है 
तो उस पर
एक एहसान 
और कर 
उसके निशानात 
को भी 
मिटा दे 
तब सब कहेंगे 
समय बलवान 
ही नहीं 
ग़मसार भी है .....

एक हकीकत अधूरा सपना

मैं
आया
एक अपरिचित
से मिलने
अपरिचित, अपरिचित
नहीं था
वो था मेरा
जन्म भर का
सपना - सपना
जब सपना
सच
हुआ था
उससे
मिलकर तब
एक अपरिचित
सपने ने
हकीकत में
मिलने से
इनकार
किया था
क्यों ?
क्या वो
अपने को
कभी खोना
नहीं
चाहता था ?
या
फिर वो
अपने,
अतीत में
लौटने को
तयार
नहीं था ?
ऐसी
पूर्णिमा, जिसको
खोया
उसने, अपने
सुख को
और अब
अमावस्या
वो दिवाली
उसे
मिलने आई
ऐसे मिली, वो
प्रथम
परिचय,  में
उस
चिर परिचित
अपने से
अपने से
अपने
'निर्जन' से ....