सोमवार, अगस्त 29, 2011

मेरा घर

शाहजहानाबाद के दिल में बसा
सुकून-ओ-अमन-चैन से परे 
शोरगुल के दरमियाँ
एक दिलकश इलाके में
एक उजडती बेनूर पुरानी हवेली
दीवारों पर बारिश के बनाये नक़्शे 
इधर उधर पान की पीकों की सजावट
और मेरे माज़ी की यादें इधर उधर
काई बनकर हरी हो रही हैं रोज़
एक जानी पहचानी सी ख़ामोशी
वो अंधेरों में भी गुज़रते सायों का एहसास
गमलों के पौधों के पत्तों के बीच
चहल कदमी करते चूहे
जगह जगह फर्श पर जंगली कबूतरों की बीट की सजावट
इन सबके बीच 
छोटा सा टुकड़ा आसमान का
और उस आसमान में
पिघलते काजल सी सियाह रात का कोना पकडे 
बादलों के बीच से गुज़रता चाँद
पहले भी ऐसे ही आता था मेरे घर
बारिश के बाद की मंद गर्मी में
छज्जे पर खड़े 
मैं 
यूँ ही ख्वाब बुना करता था
दीवारों से लिपटे पीपल के
दरीचों के साए में
तुम्हे भी याद किया करता था
सर्दियों की सीप सी सर्द रातों में
नर्म दूब के बिछोने पर
अक्सर मेरा जिस्म तपा करता था
तेरे जाने से भी कुछ नहीं बदला था
तेरे आने से भी कुछ नहीं बदला है
आज फिर रात भी वही है
और चाँद भी वही आया है
और आज भी वही तपिश 
सीने में जल रही है
मैं वीरान घर के बरामदे में
खामोश खड़ा
महसूस करता हूँ
वोह तेरे आगोश की तपिश
सहर होने तक
और बस यूँ ही
बन जाते हैं यह आसमानी सितारे 
सियाह रात की कालिख में जड़े सितारे
लफ्ज़ बन उठते हैं अपने आप
लिख जाते हैं हर रात एक कविता
मेरे दिल का हाल 
यही है मेरे दिल की दास्तान 
यही है मेरे दिल की दास्तान

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