बुधवार, जून 17, 2015

वो झाँसी की रानी थी



















बनारस में वो थी जन्मी, मनु सबकी दुलारी थी
मोरपंत, मां भागीरथी की, एकमात्र दुलारी थी

पिता छांव में बड़ी हुई, मां क्या है ना जानी थी
वीरांगना बन जाने की, बचपन से ही ठानी थी

हर कौशल में दक्ष रही, बहन नाना को प्यारी थी
राजा संग लगन हुआ, पर हाय भाग्य की मारी थी

सब गंवाकर भी अपना, हिम्मत ना उसने हारी थी
ज्वाला ह्रदय में रखकर, जिगर में भरी चिंगारी थी

सिंहनाद गर्जन कर वो, जब रणभूमि में हुंकारी थी
देह लौह जैसी थी उनकी, कर तलवार कटारी थी

छक्के दुश्मन के छूटे, बन चंडी जब ललकारी थी
शहादत दे अमर हुई वो, जां देश के लिए वारी थी

व्यक्तित्व अनूठा उनका, मन मोम की क्यारी थी
वीर सुपुत्री भारत माँ की, वो लक्ष्मीबाई न्यारी थी  

बुंदेले हरबोलों से सबने, उनकी सुनी कहानी थी
क्या खूब लड़ी थी मर्दानी, वो झाँसी की रानी थी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, जून 12, 2015

अपना कहते मुझे हजारों में















जो वफ़ा होती खून के रिश्तों में बाक़ी
तो जज़्बात क्यों बिकते बाज़ारों में

जो हर कोई देता साथ ज़मानें में अपना
तो तनहा चांद ना होता सितारों में

जो हर गुल की ख़ुशबू लुभाती दिल को
तो गुलाब ख़ास ना होता बहारों में

जो मिले मौक़ा तुरंत नज़र बदलते हैं 
तो बात है ख़ास खुदगर्ज़ यारों में

बख़ुदा 'निर्जन' भी ख़ुशक़िस्मत होता
जो वो अपना कहते मुझे हजारों में

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, जून 06, 2015

दे देते














दिया पानी क्या आँखों का रवानी खून की देते
दिलाती याद उम्र भर निशानी दो जून की देते

जो देनी थी तो होठों की मुस्कराहट ही दे देते
कलाम-ए-पाक रच इश्क़ का तुम साथ दे देते

कोई यादों की नज़्म लिख ज़ुल्फ़ में टांक ही देते
बीते लम्हों की काट कर एक आदा फांक ही देते

छिपाकर दिल में जो संजोये वो एहसास दे देते
तनहा रातों की बेचैनी से भरे वो जज़्बात दे देते

देना ही था कुछ 'निर्जन' जिगर की आग दे देते
दम तोड़ती मोहब्बत का दीवान-ए-ख़ास दे देते

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, जून 01, 2015

हुस्न-ए-मुजस्सम









हुस्न-ए-मुजस्सम बेमिसाल है, तेरी नज़र
ये दरिया-चेहरा बा-कमाल है, तेरी नज़र

ये ज़ुल्फ़ें लब-ओ-रुख़्सार है, तेरी नज़र
बेनियाज़-ए-नाज़ वफ़ादार है, तेरी नज़र

पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है, तेरी नज़र
ख़ुदाया इज़हार-ए-अदावत है, तेरी नज़र

ला-फ़ानी पाकीज़ा अफ़कार है, तेरी नज़र
बा-अदब बेताब-ओ-बेक़रार है, तेरी नज़र

सवाल-ए-विसाल से इनकार है, तेरी नज़र
उल्फ़त-ए-देरीना से इक़रार है, तेरी नज़र

सरापा-ए-मोहब्बत ज़माल है, तेरी नज़र
ज़माना जो देगा वो मिसाल है, तेरी नज़र 

हुस्न-ए-मुजस्सम - Beauty incarnate
दरिया-चेहरा - River face
बा-कमाल - With perfection
लब-ओ-रुख़्सार - lips and cheeks
बेनियाज़-ए-नाज़ - ignorant of pampering
वफ़ादार - faithful, loyal, sincere
पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त - Form of beauty and delicacy, Subtlety
ख़ुदाया - O God
इज़हार-ए-अदावत - Expression of Enmity
ला-फ़ानी - Immortal
पाकीज़ा - Neat, Clean, Pure, Chaste
अफ़कार - Thought
बा-अदब - Respectful, Polite
बेताब-ओ-बेक़रार - Impatient and Restless
सवाल-ए-विसाल - Request for Union
सर-ए-उल्फ़त - Madness for Love
उल्फ़त-ए-देरीना - Love of a long time
सरापा - Delicate figure of a woman


--- तुषार राज रस्तोगी ---



शनिवार, मई 30, 2015

सोशल मीडिया वाले आशिक़







विंडो-ए-चैट में, आया नया बनफूल है,
हाय दिल मचल गया, तो मेरा क्या कुसूर है...

या फिर

मैं तेरा आशिक़ हूँ, तुझसे इश्क़ करना चाहता हूँ,
फेसबुक पर आकर मैं, डूब मरना चाहता हूँ...

या फिर

हम तो चोंचबाज़ हैं, सदियों पुराने,
हाय तू ना जाने, हाय तू ना माने,
हम तो चले आए हैं, तुझको बहकाने,
हाय तू ना जाने, हाय तू ना माने..

या फिर

दिल तो दिल है,
दिल को काबू,
क्या कीजे,
आ गया है,
तुम्ही पर बाबू,
क्या कीजे...

तो मेरे - जॉन जानी जनार्दन दोस्तों यही तो कहानी है आज के युग के ठसबुद्धि, मंदबुद्धि, स्वछंद विचारधारा वाले कुबुद्धिजीवी मनचलों के दिलों की भी।

"अरे...! हमार दिल है तुमसे क्या, तुम पर भी मचल सकता है और देखो तुम्हे भी रेस्पौंड तो करना ही होगा फिर तुम चाहे कोई भी हो, कहीं से भी हो, किसी की भी हो, कोई वांदा नहीं, बस नारी हो ना, यही बहुत है अपने लिए। मैं ना नहीं सुनूंगा - कहे देता हूँ। शीशे में तो तुम्हे मैं उतार ही लूँगा कैसे भी कर के, क्योंकि इतना रसूक और हुनर तो बना ही लिया है यहाँ आकर।"

जी हाँ मेहरबां, बिलकुल यही सोच तैयार हो रही है आजकल के उन नामर्द और दब्बू  सो कॉल्ड सेलेब्रिटी आशिक़ों के बीच जो महिलाओं को सिर्फ भोग की वस्तु मात्र समझते हैं और उनका शोषण करने का कोई भी मौका मिलने पर चूकना नहीं चाहते। फिर चाहे ज़रिया कोई भी क्यों ना हों इन्हें सब मंज़ूर है। शर्म, लाज, हया किस चिड़िया का नाम है? ये इन्होंने कभी ना तो सुना ही है ना इसके बारे में जानते हैं। इनको चौबीसों घंटे सिर्फ एक ही हुड़क लगी रहती है "टूट पड़ो" कैसे भी, कहीं भी - बस मिल जाए कोई। हवस की तलब ऐसे जानवरों के ह्रदय में बड़े गहरे में कुलबुलाती है। देह पाने और भोग करने की कसक इनकी सोचने की शक्ति को कसती जाती है । इन जैसों को बड़ी स्वाभाविक और कुदरती चाहत लगती है यह। कई तरह के विरोधाभासी अभावों के गलियारों में ही इनका दिल किलसता, बिलखता, चहल कदमी करता टहलता रहता है, और भूख का कीड़ा कहीं न कहीं हमेशा दिल-दिमाग में रेंगता ही रहता है। इनकी ख़ुमारी का मकोड़ा इनकी बेमतलब हसरतों की खुजली को इतना खरोंचता है कि उसके निशान गाहे-बगाहे इनकी शक्सियत में उभर ही आते हैं। ऐसे लोगों का समूचा तंत्र-प्रणाली सदा बिगड़ा और हिला ही रहता है। इनकी मानसिकता इनके जीवन पर हावी रहती है और हमेशा इनकी जीवन शैली को काम-भोग की इच्छा से प्रभावित करती रहती है। यह एक तरह के मानसिक रोगी होते हैं क्योंकि इनका मन, अस्तित्त्व, चरित्र, चित्त, बुद्धि, अहंकार, अन्नमय कोष, प्राणमय कोष और सोच कुछ भी इनके वश में नहीं होता। सब कुछ इनके हाथ से निकला हुआ होता है। इनके कामुक स्वभाव के भयंकर मनोविकार के ज़लज़ले में इनके विक्षिप्त व्यक्तित्व की चूलें हिल चुकी होती है। यह एकतरफ़ा आग में जलने वाले होते हैं। ऐसे प्लेटोनिक प्रेमी बड़े ही घातक साबित हो सकते हैं। कोई स्त्री यदि इनसे हंसकर बात कर ले तो इनकी इन्द्रियां तुरंत जागृत हो जाती हैं और यह अपने ही बनाए और बुने सपनो के तरंग-भाव के आवेग और आवेश में उड़ने लग जाते हैं। अपनी ही दलदली सोच में गोते लगाकर इनका पाव-डेढ़ पाव खून भी बढ़ जाता है। इनका एकतरफ़ा सो कॉल्ड रोमांस इनकी नज़र में परवान चढ़ने लग जाता है और यह अपने को उम्दा क्वालिटी का आशिक़ प्रोजेक्ट करने के लिए किसी के भी साथ बातचीत में अचानक से वेटिंग फॉर इट, आई वांट टू किस यू, आई लव यू, किस मी, वांट इट, गोइंग फॉर इट, ईटिंग, ईटन, नाऊ इन्सरटिंग, नाउ एजेक्टिंग और भी बहुत सी बेकार वाली अनाप-शनाप बकर-बकर करने लग पड़ते हैं जिससे इनकी दिमाग़ी कामोत्तेजकता शांत होने का एहसास देती है। आचरण के अनुसार कहें तो ऐसे लोगों के मन को अश्लीलता ने ऐसे कब्ज़ा लिया होता है कि शिलाजीत पे शिलाजीत, वयाग्रा पे वयाग्रा सटके जा रहे होते हैं और फिर भी इनके अन्दर अकाल बना रहता है, सूखी रेत से भरे रेगिस्तान में टहलते घूमते फिरते रहते हैं फिर भी - काम नहीं बनता। अजी हुज़ूर समझ जाइए संस्कृत वाला 'काम' - हिंदी वाला नहीं।...  ;)

मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे लोग भीतर से खोखले और शोर करने वाले ढपोलशंख भर होते है। ये सारा जीवन एक मुखौटा पहन कर जीते हैं और ये सारा झमेला, झंझट, अच्छाई का नाटक, नौटंकी बस बिस्तर तक पहुंचने की ही कवायद है। कोई यदि इनसे बात करता है या दोस्त बनता है तो वो अपने मन को और खुद को ही बेवकूफ बनाता रहता है इनके जैसों की दोस्ती के नाम पर। वो समझ नहीं पाता कि यह पाखंड की गहरी साज़िश है, एक मासूम इंसान को बहकाने के लिए और उसकी मासूमियत से खिलवाड़ करने के लिए। मैं यह कहता हूँ कि यदि अंत में यही सब करने की मंशा होती है तो फिर इतना ड्रामा क्यों करते हैं बड़े मियां - जिगरा है तो खुल्लमखुल्ला अभिव्यक्ति कीजिये - इश्क़-रोमांस, अच्छाई-भलाई की बीमारी को एक साइड कीजिये और हिम्मत हौंसले के साथ अपने विचार सबके सामने रखिये। बिलकुल प्यार और दोस्ती की वही ख़ूबसूरत सी बीमारी जो अक्सर पागलपंती में तब्दील हो जाया करती है और जिसकी धज्जियाँ ऐसे लोग अपनी अहमकाना हरकतों उड़ाते हैं, जिन्हें ना तो इश्क़ का मतलब मालूम होता है ना दोस्ती का। असल ज़िन्दगी में तो फिर बड़े ही सड़ियल और अनरोमांटिक नेचर वाले होते होंगे ये - तो काहे बेकार में इतनी शेरो-शायरी करते हैं, कविताबाज़ी करते हैं, दिल जलाते हैं, किताबें छपवाते हैं, गाल बजाते हैं - साला पहले पता हो एंड रिजल्ट ऐसा निकलता है असल में तो इन जैसों को सीधा शुरू से 'बीड़ी जलाइले जिगर से गधे, जिगर मां बड़ी आग है ' और 'कभी कैच किया रे कभी छोड़ दिया रे' सुनकर जुतिया जाए और सर गंजा कर दिया जाए मार-मार कर।

इनके पास माया है, मोहिनी भी और ज़माने के सामने निजी जीवन में ये उनके नटखट हीरो बनकर रहते हैं पर वहीँ इनके भीतर तड़पता रहता है एक बड़ा सा अजगर जो किसी की भी सुन्दर-औसत तस्वीर, गोरी-काली-भूरी चमड़ी, मनमोहक आवाज़, खिलखिलाती हंसी, नव यौवन, मध्य आयु, अधेड़ उम्र की औरत फिर चाहे वो अकेली हो, किसी की बहन, बीवी, बेटी, माँ, भाभी आदि कुछ भी हो को अपने झांसे में लेने की फ़िराक में रहता है, निगलने की मंशा के साथ अपने मद की प्यास में लिप्त, चिपचिपी लार बार-बार, लगातार हर जगह टपकाता रेंगता फिरता है। उसकी निगाहें अपने शिकार को हर पर तलाशती रहती हैं और इसी ताक़ में रहती हैं कब, कैसे, किस तरह उसे अपने चंगुल में जकड़ कर दबोच सके। समाज के बीच वो एक प्रतिष्ठित पुतला बनकर निवास करता है, परन्तु अकेले में वो एक आदमखोर होता है जो सिर्फ औरतों को अपना शिकार बनाता है। आजकल की सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी ने ऐसे आदमज़ात भेड़ियों का काम और भी आसां बना दिया है, फिर चाहे लिंक्डइन, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि कोई भी माध्यम हो महिलाएं बदतमीज़ी, शाब्दिक शोषण, बदसुलूकी, फितरेबाज़ी और भी ना जाने कौन कौन से तरीकों की परेशानी से अछूती नहीं रही हैं। हर पल दस में से नौ गिद्ध उन्हें दबोचने के लिए जाल बिछाए बैठे रहते है। दोस्ती करने के नाम पर अश्लीलता, फूहड़ता, निजी ज़िन्दगी में तांक-झाँक, शारीरिक लिप्सा, मानसिक शोषण और ऐसे ही कितने तरीको से उनकी आत्मा को आहत किया जाता है। कुछ तो यह सब ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लेती हैं और कुछ विद्रोह कर ऐसे समाज के सम्माननीय लफंडरों का पर्दाफ़ाश करती नज़र आती हैं। मुझे गर्व होता है उन वीरांगनाओं पर जो ऐसी घटनाओं के पश्चात अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं और ऐसे सामाजिक कीड़ों को उनके अंजाम तक पहुंचाती हैं।

यह एक बेहद गंभीर और चिंता का विषय है और मेरा ऐसा मानना है कि इसके लिए हम सबको मिलकर आवाज़ उठानी चाहियें और आगे ऐसी घटनाएँ कम से कम देखने-सुनने में आयें उसके लिए कुछ कड़े कदम उठाने चाहियें। जो लोग महिलाओं के साथ ऐसा अभद्र दुर्व्यवहार करते हैं उनका सोशल मीडिया से तो बहिष्कार करना ही चाहिए, उनका मुंह काला कर खच्चर पर सवारी करा कर, जूतों का हार पहना कर, काँटों से ताजपोशी कर सारे नगर में भी घुमाना चाहियें और ख़ास तौर पर उनके अपने परिवारजन के सामने उनका असली चेहरा लाकर उन्हें सरेआम नंगा करना चाहियें जिनकी आँखों में धुल झोंक कर वो आज तक ऐसे काम करते आए हैं। अभी कुछ समय पहले मैंने ऐसे ही पहलु पर चिंता व्यक्त करते हुए एक कविता का सृजन किया था वो आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ मेरे इस लेख और कविता से कुछ प्रतिशत महिलाओं में तो जाग्रति का संचार होगा और वो अपने साथ होने वाली ना-इंसाफी और ऐसा ओछा व्यवहार करने वाले के खिलाफ मोर्चा खोलती नज़र आएँगी।

कविता पढ़ने के लिये कृपया इस लिंक पर क्लिक करें :

http://tamasha-e-zindagi.blogspot.in/2015/04/blog-post_13.html

सोमवार, मई 25, 2015

सज़ा



















आज अपने दिल को सज़ा दी मैंने
पुरानी हर याद-बात भुला दी मैंने

बातें जिनपर वो खिलखिलाती थी
ज़हन से अल्फ़ाज़ मिटा दिए मैंने

बीता हर पल दफ़न कर दिया मैंने
गुलदस्ता यादों का जला दिया मैंने

दिल ये फिर खाख से आबाद हुआ
आतिश-ए-दिल को जला दिया मैंने

यादों की मज़ार पर फिर आई थी वो
मुंह फेर अजनबी उसे बना दिया मैंने

रिश्ता कोई नहीं दरमियां बाक़ी 'निर्जन'
एक नया रिश्ता ख़ुशी से बना लिया मैंने

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मई 09, 2015

उस रोज़












मुस्कुराते गुलाबों की महक वैसी ना होगी
तेरी शोख हंसी की खनक वैसी ना होगी

तितलियों जैसी शोख़ी तेरी वैसी ना होगी
ख्व़ाब लिए नैनों की चमक वैसी ना होगी

तेरी मीठी बोली की चहक वैसी ना होगी
अल्हड़ जवानी की छनक वैसी ना होगी

उस रोज़ तू होगी मगर ऐसी तो ना होगी

चांदी जैसे बालों से सर तेरा सजा होगा
दमकते चेहरे पर सिलवट का समां होगा

करारी इस बोली से गला तेरा रुंधा होगा
सूरज सी निगाहों पर चश्मे भी जमा होगा

तेज़ क़दमों में तेरे सुस्ती का आलम होगा
थक कर चूर पसीने में भीगा दामन होगा

उस रोज़ तू होगी मगर शायद ऐसी होगी

मगर उन सिलवटों में नूर तेरा यही होगा
ढ़लती आँखों में भी जवां इश्क यही होगा

सुस्त कदम सही मुझ तक ही आना होगा
गला रुंधा सही मुझे से ही बतियाना होगा

दिल से देखा सपना मेरा तब भी पूरा होगा
सांझ ढले मेरे हाथों में बस हाथ तेरा होगा

उस रोज़ भी तू ही होगी साथ तेरा मेरा होगा
तेरा और मेरा यह अब जन्मो का नाता होगा

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, अप्रैल 25, 2015

"हम" - एक सूर्योदय

इस तेज़ी से विकसित होती संभ्रांत और शिष्टाचारी नस्ल में बहुत से ऐसे शब्द हैं जिन्हें रोज़मर्रा की बोलचाल वाली ज़िन्दगी में यदा-कदा ही तवज्जो मिलती होगी। ऐसे असंख्य वचनों की श्रृंखला में कुछ ऐसे भी होते हैं जो दिल को छू जाते हैं और अपने वशीभूत कर मोहित कर लेते हैं। प्राय: उन्हें हम बातों में एक आदत के रूप में प्रयोग तो करते हैं परन्तु उनके कारण जीवन में उत्पन्न होने वाली सृजनात्मक शक्ति और उर्जा को कभी पहचान नहीं पाते। मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे शब्दों के महत्त्व को उजागर करना बेहद ज़रूरी है, उनमें से दो शब्द 'मैं' और 'तुम' हैं - जब ये दो एक साथ मिलते हैं तब एक एतिहासिक, ओजस्वी, विकासशील और अपनत्व से लबरेज़ शब्द की रचना होती है जिसे कहा जाता है - 'हम'...

"हम" वैसे हौले से बुदबुदाये 'अगर' से ज्यादा कुछ नहीं है। या फिर काले घने अंधकार में बने धुंए के छल्ले की तरह है। यह पानी के होंठ पर उफ़नते साबुन के बुलबुले की भाँती है
यह तार्रुफ़ के नक़ाब के ज़रिए से स्पर्श और अनुभव करती चमकदार चमचमाती आँखें और लजाती उँगलियाँ है। "हम" पास-पास पर अलग-अलग, मगर फिर भी एक साथ, कंधे से कन्धा मिलाकर दौड़ती अलैदा क़िताबों का, गलियारा है, जो कभी एक दुसरे को पुकारते नहीं हैं परन्तु फिर भी एक दूजे की गूँज की अनुगूंज के कंपन में अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं। "हम" वो अजनबी है, जो अनजान होकर भी किसी के लिए अपरिचित नहीं है। एक परतदार कागज़ के टुकड़े पर अस्पष्ट लिखे वादे की तरह जिसे रात के अंधरे में दरवाज़े की दरार के बीचो-बीच धीरे से खिसका कर दुबका दिया गया है।

हमारे दरमियां आनंददायक चमकदार इन्द्रधनुषी संभावनाओं का सजीला संसार पनप रहा है, हमारी सजग आँखें स्पष्ट रूप से एक दुसरे के इर्द-गिर्द नृत्य का आनंद प्राप्त कर रही हैं। हमें एक ऐसे कमरे में धकेल दिया गया है जहाँ सूरज की किरणों की धुल छन-छन कर चहक रही है, होठ हथेलियों का रूप बना दुआ कर रहे हैं, उँगलियाँ सियाह काले गहरे तेल के छल्लों में फँसी हैं और धुंधले पड़ते गड्ढेदार गालों को तलाश रही हैं। शब्दों और शब्दांश के घुमावदार चक्रव्यू से भविष्य उधड़ रहा है, क्षणभर में सब कुछ बिख़र जाता है और हम सोचते हैं, हमें सब ज्ञात है कि हमारी ज़िन्दगी कहाँ, कब और कैसे आगे जाएगी।

हमारा पूरा वजूद एक परछाई के आगे छलांग लगाने की कोशिश में लगा है वो भी एक ऐसी शक्ति के साथ जो हर उस चीज़ को रौंदकर आगे बढ़ जाएगी जिसे कभी हमने सच समझा होगा। हमें अभी भी हमारे पैर नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों एक साथ उन्हें तलाश करने में जुटे हैं, लड़खड़ाते लुढ़कते कमज़ोर घुटनों और छिलते-छिपटे-चिरते टखनों के साथ ठोकरें खाते हुए, हँसते हुए उन्हें एक साथ खोज रहे हैं क्योंकि इसमें ना तो कुछ नया है और ना ही कुछ पुराना। हम तो बस अपने मिज़ाज, मनोभाव, धड़कन, नब्ज और नाड़ी के स्पंदन को दर्ज कर रहे हैं और उन्हें पूरी रात नाचने के लिए पुनरावृत्ति पर रख रहे हैं।

और अचानक, समस्त संसार में सबसे ख़ूबसूरत लफ्ज़ है 'यदि'... यकायक, सबसे आकर्षक, उत्कृष्ट, दिव्य, रमणीय शायद समूचे विश्वलोक में "हम" है।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

माई बैटर हाफ़ - वो कहाँ है ?

उसके हाथ अब पहले जैसे दोषरहित नहीं रहे। उसके नाख़ूनों की शेप भी पहले जैसी नहीं रही और उनकी चमक भी फीकी पड़ गई है। वो घिस चुके हैं, ऊपर से थोड़े झुर्रीदार, बेहद थके-थके और पुराने से लगने लगे हैं। उसके नाख़ून एक दम सही तरह से कटे हुए हैं, पर उन पर अब कोई पॉलिश या नख प्रसाधन वो पहले जैसा आकर्षण और लावण्य नहीं ला पाते हैं।

उसकी ज़ुल्फ़ें अब नागिन सी लहराती लम्बी नहीं रहीं, ना ही लटें अब घनी घुमावदार पूरी तरह से गोल छल्ले बनाती दिखाई पड़ती हैं। अब तो ज़्यादातर बड़ी ही बेरहमी और लापरवाही के साथ क्लचर से बंधी नज़र आती हैं।

आज उसके होठों पर सारा दिन नम करने वाली चमकीली ग्लॉस की परत दिखाई देती है बनिज्बत उस मलाईदार लिपस्टिक की ख़ुशबू के जो सूरज की गर्मी में पके फल जैसी महक बिखेरती थी।

उसकी वो लोचदार वक्राकार सुन्दरता आज लुभाने के लिए नहीं परन्तु अब उसके शरीर के अनुपात के अनुसार बढ़कर सुख और हिफ़ाज़त देने के लिए ढल गई है।

पर उसकी नज़रों में आज भी वही चमक, चिंगारी, जोश, जीवंतता, हाज़िरजवाबी और शोभा कूट-कूट कर भरी हुई है और वो पहले से भी ज्यादा सजीव, स्पष्ट, उत्साहपूर्ण, तीक्ष्ण, दिलचस्प, रंगीन और रोचक हो गईं हैं। उसकी हंसी का संगीत चांदी की घंटी की खनखनाहट की तरह पूरे घर में भर जाता है, और फिर गुंजन कर बजता हुआ खिड़कीयों और दरवाज़ों से बहार निकल जाता है और सूरज की धुप बन घर में वापस आ जाता है।

हाँ! शायद यह वो लड़की नहीं है जिसे बरसों पहले घर ब्याह कर लाया था...पर यह वो स्त्री है जो हमेशा हर मुश्किल में साथ रही, भीषण तूफ़ान और तपती गर्मी भी उसके इरादों को डिगा नहीं पाए। जो हर परिस्थिति में हाथ थामे डटी रही जैसे असली हंसी तब्दील हो जाती है दाँतों के डाक्टर के चक्कर काटने में। जैसे खेल-कूद वाला जूता जॉगिंग वाले जूतों में बदल जाता हैं और फिर पैदल चलते समय पहनने वाले में...कुछ ही वर्षों में जैसे साइज़ मीडियम से बदलकर लार्ज और फिर एक्स्ट्रा लार्ज हो जाया करता है और बालों को संवारने वाली जैल, सफ़ेद होते बालों को छिपाने के लिए बालों वाले रंग में तब्दील हो जाती है।

यही है वो जो अनगिनत खूबसूरत जंगों और संजीदा वाद-विवादों के साथ, रूठने से ज्यादा मनाने के साथ, सिनेमाघर से ज्यादा बाज़ार के चक्कर लगाने के साथ, खाना पकाने की विधि पर ज्यादा ध्यान ना देकर अपने सहजज्ञान और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार लाजवाब खाना बनाने की कला में निपुण होने के साथ, गुस्से से कहीं ज्यादा हंसी मज़ाक के साथ, अड़ियलपन से ज्यादा समझदारी के साथ, मक्कारों से बचकर सूझ-बूझ के साथ, अपने अपनों को दूसरों की नज़र से बचाने के साथ, ख़ुद से पहले परिवार को खिलाने के साथ, लड़की से औरत बनी है।

यह वही महिला है जिसकी झुर्रियां, मुरझाई त्वचा, लापरवाह बाल, अस्त-व्यस्त वेशभूषा, पसीने में लथ-पथ पल्लू, बिखरती-संभालती साड़ी, ज़िन्दगी में भागम-भाग और कभी-कभी साफ़ कटे नाखून कहते हैं - "मैंने इस चार दीवारी को मकां से घर बनाया है और अपने अस्तित्व के बाहर एक जीवन अपनाया है।" - वही है साया, साथी, शरीक़-ए-हयात, हमदम, ज़िन्दगी, बंदगी, चैन-ओ-सुकूं-औ-क़रार, जीवन का प्यार, रिश्ते का सार...गुड, बेटर, बेस्ट हाफ...

माई बैटर हाफ...ढूंढता हूँ...वो कौन है और कहाँ है ?...कहीं तो होगी...शायद मिल जाए...!

--- तुषार रस्तोगी ---

मंगलवार, अप्रैल 14, 2015

शादी का चस्का



















शादी के पंडाल में, दी हमने एंट्री मार
देखा अपना यार तो, बैठा है पैर पसार
बैठा है पैर पसार, दुल्हन से नैन लड़ाए
साली देख क़रीब में, मंद मंद मुस्काए

गुम हो गई मुस्कान, ज्यूं साडू जी आए
बोले जीजा राम राम, कहाँ नज़र लगाए
कहाँ नज़र लगाए, सासू जी को बतलाऊं
फेरे पड़ने से पहले, नए रंग दिखलाऊं 

यार का उड़ गया रंग, मैंने ताड़के देखा
बन गए महाबली, पार कर लक्ष्मण रेखा
पार कर लक्ष्मण रेखा, पहुंचे यार के पास
मैं अब तेरे साथ हूँ, मत हो यार उदास

पाकर हमें समीप, हिम्मत दुल्हे ने जुटाई
फिर से नज़र उठा, साली की ओर लगाई
साली की ओर लगाई, साडू से बोला दूल्हा
बीवी संग साली आएगी, स्कीम मैं नहीं भूला

साडू से आँख मिलाई, कहा बुलाओ सासु
अभी हो जाए फैंसला, हम में कौन है धांसू
हममें कौन है धांसू, आस्तीन अपनी चढ़ाओ
सासुजी ही क्या, सभी घरवालों को ले आओ

देख साडू की रोती सूरत, ख़ूब हंसी उड़ाई
दुल्हन बैठी पास में, मन ही मन मुस्कुराई
मन ही मन मुस्कुराई, मान पति पर करती
जैसे को तैसा मिला, शान अब मेरी बढ़ती

मिला गामा पहलवान, जीजाजी खिसियाए
बात बदल बारातियों से, झेंप कर फ़रमाए
झेंप कर फ़रमाए, आइये जयमाला कर लें
सभी अपने हाथों को, इन फूलों से भर लें

पूर्ण हुई जय माला, दी सबने खूब बधाई
रिश्तेदारों ने फिर, खाने पर दौड़ लगाई
खाने पर दौड़ लगाई, हाय ये मारा-मारी
भोजन के सामने, भूल गए हर रिश्तेदारी

निपटा कर भोजन, सबने फिर दौड़ लगाई
फेरों की तैयारी में, भागी साली औ भौजाई
भागी साली औ भौजाई, दूल्हा-दुल्हन लाओ
खेलेंगे दूसरी पारी, टी ट्वेंटी का मैच बनाओ

प्रथम चरण में दूल्हा, द्वितीय में दुल्हन आगे
बेचारा ऐसे ही, उम्र भर बीवी के पीछे भागे
उम्र भर बीवी के पीछे भागे, ये नाच नचाए
हर बात पर देखो, ये नखरे वखरे दिखलाए

चूहे बिल्ली सा खेल, असल अब होगा चालू
कभी बनेगा ये शेर, कभी बन जायेगा कालू
कभी बन जायेगा कालू , इसकी शामत आई
जीवन के इस शो में, सदा रहेगी आगे भौजाई

हुआ शुरू शो असली, टॉम एंड जेरी का देखो
रंग-बिरंगा देख तमाशा, प्यार के सिक्के फेंको
प्यार के सिक्के फेंको, चस्का ऐसा 'निर्जन' यार
जो पाले वो तड़ीपार और जो ना पाले वो बेकार

--- तुषार रस्तोगी ---

सोमवार, अप्रैल 13, 2015

फेसबुकिया आशिक़

कल एक फेसबुक मित्र के साथ एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण मेरा दिल यह रचना लिखने के लिए विवश हो उठा। मैं पहले तो कुछ संजीदा और उपदेशात्मक बनाकर कहने की सोच रहा था क्योंकि मुद्दा बड़ा ही गंभीर था और नारी के मान-मर्यादा से भी जुड़ा था। परन्तु फिर मैंने इस बात को बड़े ही सहज रूप से प्रस्तुत करने का विचार बनाया क्योंकि जैसे मेरे ज़्यादातर मित्र मेरी आदत से वाकिफ़ हैं मुझे बातों को पेचीदा बनाकर पेश करने में ज़रा भी मज़ा नहीं आता और ना ही बड़े-बड़े जटिल अल्फाज़ों और लफ़्ज़ों को पढ़ने का कोई शौक़ रहा है और ना ही दूसरों को पढ़ाने में कोई लुत्फ़ आता है तो सोचा इस बार भी अगर जूता मारना ही है तो क्यों ना हास्य की चाशनी में लपेटकर, हंसी की तश्तरी में सजाकर परोसा जाए। तो हाज़िर है जनाब-ए-आली आप सबके सामने एक आचार संबंधी, विचारशील मुद्दे पर, लिखी मेरी अपरिहासी और विचारवान रचना। आशा है मेरी कोशिश कुछ तो रंग लाएगी। एक नवचेतना का आगाज़ कर कुछ ख़ास खारिश-खुजली वाले वर्ग के लोगों में आत्मज्ञान का एक नया सूर्योदय कर पायेगी। शायद इसे पढ़कर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो जाए, उनकी आत्मा चित्कार कर उन्हें धिक्कारे और वो सही राह पर आ जाएँ। ऐसी उम्मीद के साथ प्रस्तुत है :














देखो मित्रों, बला सरनाम
फेसबुक है, जिसका नाम
कायरों को, मिला वरदान
आते हैं सब वो, सीना तान

अकाउंट बना, मारें वो एंट्री
प्रोफाइल ऑफ़, हाई जेन्ट्री
छोड़-छाड़ के, अपना काम
चिपके हैं सब, सुबहों-शाम

देखी लड़की, दिल लो थाम
रिक्वेस्ट भेजो, करो सलाम
आशिक़ी का, नया आयाम
भेजो मेसेज, हो गया काम

छुरी बगल में, मुंह में राम
शोशेबाज़ी है, इनका काम
ओछापन कर, हैं बदनाम
आवारा छिछोरे, घसीटाराम

बनते हैं, दर्द-ए-दिल का बाम
पढ़ते हैं झूठा, इश्क़ कलाम 
इनबॉक्स में, करते हैं मैसेज
मंशा रख, क्लियर हो पैसेज

रेस्पोंस में जब, खाते ये जूती
नर्वसनेस में, बज जाती तूती
देख बिदकते, अपना अंजाम
पीठ दिखा, भग जाते ये आम

पोक की कोक, है इनको भाती
इनकी दुनिया से, भिन्न प्रजाति
बेहया बेशर्म, ये लिप्सा के मारे
सूतो इन्हें, दिखाओ दिन में तारे

'निर्जन' सुनो, हर ख़ास-ओ-आम
आरती उतार, दो नेग सरेआम
ब्लाक करो, औ बेलन लो हाथ
करो धुनाई, दो इनको सौगात

लातों के भूत, बातों से ना माने
तार दो बक्खर, लगो लतियाने
उधेड़ने पर ही, शायद ये माने
मजनू के भाई, लैला के दीवाने

--- तुषार रस्तोगी ---

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

सपने में मिलते हैं

वो एक सपना जो हमेशा से मेरी ज़िन्दगी के गुलदान को महकते गुलाबों से भर जाता है,"तुम मेरी बाहों में मेरे सिरहाने बगल में मेरे साथ लिपट कर साथ लेटी हो। मैं अपने गालों पर तुम्हारी साँसों की हरारत को महसूस कर सकता हूँ, तुम्हारी अनोखी, अद्भुत, मदमस्त कर देने वाली सुगंध मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करती है और मैं उम्र भर उस महक के साथ जी सकता हूँ। वो ख़ुशबू मुझे बारिश के बाद वाले बसंत की याद दिलाती है।

परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।

फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।

अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन  पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।

कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।

तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...

--- तुषार रस्तोगी ---