सोमवार, अप्रैल 13, 2015

फेसबुकिया आशिक़

कल एक फेसबुक मित्र के साथ एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण मेरा दिल यह रचना लिखने के लिए विवश हो उठा। मैं पहले तो कुछ संजीदा और उपदेशात्मक बनाकर कहने की सोच रहा था क्योंकि मुद्दा बड़ा ही गंभीर था और नारी के मान-मर्यादा से भी जुड़ा था। परन्तु फिर मैंने इस बात को बड़े ही सहज रूप से प्रस्तुत करने का विचार बनाया क्योंकि जैसे मेरे ज़्यादातर मित्र मेरी आदत से वाकिफ़ हैं मुझे बातों को पेचीदा बनाकर पेश करने में ज़रा भी मज़ा नहीं आता और ना ही बड़े-बड़े जटिल अल्फाज़ों और लफ़्ज़ों को पढ़ने का कोई शौक़ रहा है और ना ही दूसरों को पढ़ाने में कोई लुत्फ़ आता है तो सोचा इस बार भी अगर जूता मारना ही है तो क्यों ना हास्य की चाशनी में लपेटकर, हंसी की तश्तरी में सजाकर परोसा जाए। तो हाज़िर है जनाब-ए-आली आप सबके सामने एक आचार संबंधी, विचारशील मुद्दे पर, लिखी मेरी अपरिहासी और विचारवान रचना। आशा है मेरी कोशिश कुछ तो रंग लाएगी। एक नवचेतना का आगाज़ कर कुछ ख़ास खारिश-खुजली वाले वर्ग के लोगों में आत्मज्ञान का एक नया सूर्योदय कर पायेगी। शायद इसे पढ़कर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो जाए, उनकी आत्मा चित्कार कर उन्हें धिक्कारे और वो सही राह पर आ जाएँ। ऐसी उम्मीद के साथ प्रस्तुत है :














देखो मित्रों, बला सरनाम
फेसबुक है, जिसका नाम
कायरों को, मिला वरदान
आते हैं सब वो, सीना तान

अकाउंट बना, मारें वो एंट्री
प्रोफाइल ऑफ़, हाई जेन्ट्री
छोड़-छाड़ के, अपना काम
चिपके हैं सब, सुबहों-शाम

देखी लड़की, दिल लो थाम
रिक्वेस्ट भेजो, करो सलाम
आशिक़ी का, नया आयाम
भेजो मेसेज, हो गया काम

छुरी बगल में, मुंह में राम
शोशेबाज़ी है, इनका काम
ओछापन कर, हैं बदनाम
आवारा छिछोरे, घसीटाराम

बनते हैं, दर्द-ए-दिल का बाम
पढ़ते हैं झूठा, इश्क़ कलाम 
इनबॉक्स में, करते हैं मैसेज
मंशा रख, क्लियर हो पैसेज

रेस्पोंस में जब, खाते ये जूती
नर्वसनेस में, बज जाती तूती
देख बिदकते, अपना अंजाम
पीठ दिखा, भग जाते ये आम

पोक की कोक, है इनको भाती
इनकी दुनिया से, भिन्न प्रजाति
बेहया बेशर्म, ये लिप्सा के मारे
सूतो इन्हें, दिखाओ दिन में तारे

'निर्जन' सुनो, हर ख़ास-ओ-आम
आरती उतार, दो नेग सरेआम
ब्लाक करो, औ बेलन लो हाथ
करो धुनाई, दो इनको सौगात

लातों के भूत, बातों से ना माने
तार दो बक्खर, लगो लतियाने
उधेड़ने पर ही, शायद ये माने
मजनू के भाई, लैला के दीवाने

--- तुषार रस्तोगी ---

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

सपने में मिलते हैं

वो एक सपना जो हमेशा से मेरी ज़िन्दगी के गुलदान को महकते गुलाबों से भर जाता है,"तुम मेरी बाहों में मेरे सिरहाने बगल में मेरे साथ लिपट कर साथ लेटी हो। मैं अपने गालों पर तुम्हारी साँसों की हरारत को महसूस कर सकता हूँ, तुम्हारी अनोखी, अद्भुत, मदमस्त कर देने वाली सुगंध मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करती है और मैं उम्र भर उस महक के साथ जी सकता हूँ। वो ख़ुशबू मुझे बारिश के बाद वाले बसंत की याद दिलाती है।

परन्तु तुम्हारी उस गर्मी से अच्छा और गंध से कई गुना बेहतर और असरदार है, मेरी ख़ुशियों के ख़ज़ाने में होने वाला वो इज़ाफ़ा, जो तुम्हारे मेरे पास होने से, मेरे जीवन में आने से, तुम्हे गले लगाने से होता है। तुम और सिर्फ़ तुम्हारे अन्दर वो क़ाबलियत, वो क्षमता है जो मेरी निर्जनता के पीछे पड़ कर उसे दूर भागने में सक्षम है। यह एहसास अपने आप में कितना मनोरम था, पर ये भावना जो अगले ही पल ओझल हो जाती है और मुझे वास्तविकता में तुम्हारे काल्पनिक होने का बोध कराती है। तुम सिर्फ मेरी कल्पना की उपज मात्र हो। मेरे निकट सिर्फ मेरे ख़ुद के होने का एक ठंडा विचार है और केवल मेरी अपनी ही गंध मुझे घेरे हुए है।

फिर भी, यह सच्चाई मालूम होने के बावजूद, मैं अपने आप को सपने देखने से रोक नहीं पाता। मैं नहीं जानता, ना बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कैसी हो, कहाँ हो, पर तुम्हारा वजूद क़ायम है - बेशक़ है - मेरे सपनो में ही सही। शायद तुम सच में हो, शायद ना भी हो, पर कभी-कभी मैं ऐसे व्यक्त करता हूँ जैसे मेरा अपरिचित, अनदेखा, अंजना प्रेमी सच में मेरे साथ है। मुझे अपने आप को यह जताने और समझाने में बहुत संतोष प्राप्त होता है की तुम और मैं एक दुसरे के लिए ही बने हैं, और हम दोनों आपस में साथ-साथ पिछले कई जन्मों से बंधे हैं। हमारा इश्क़ सदियों पुराना है और इसलिए हम अपने सपनो के माध्यम से एक दुसरे की तारों को जोड़े रखते हैं। जिस समय हम सपनो में होते हैं, हमारे मस्तिष्क उन्मुक्त विचरण करने लगते हैं, सभी बाधाओं, सीमाओं और प्रतिबंधों को तोड़ हम एक दुसरे को ढूंढ ही लेते हैं।

अब इसे अत्यंत दुःख की या शायद दुर्भाग्य की बात मानूंगा की हम अब तक जुदा हैं या फिर यूँ कहूँगा कि हमारा बंधन इतना मज़बूत और सुन्दर रहा है कि, वो अनजान ताक़तें जो हमारे प्रेम से ईर्ष्या करती हैं और हमें मिलने से रोकना चाहती हैं वो हमें साथ नहीं होने दे रही हैं परन्तु मैं पूर्ण विश्वश्त हूँ क्योंकि हमारा प्यार सदैव दृढ़ और सुरक्षित रहा है और रहेगा। मैं तुम्हारा उसी तरह इंतज़ार करूँगा जिस तरह तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो। यह अकेलापन अत्यंत कष्टदायक है, जो रहने के लिहाज़ से इस संसार को और ज्यादा भावना रहित स्थान बना देता है। हालांकि मुझे भली भांति मालूम है अंत में सब सही होना है और फिलहाल जो यह स्तिथि बन रही है उस अंत के सामने कुछ भी नहीं है। बस एक तुमसे मिलने की उम्मीद ही मेरी आशा की किरण को रौशन किए रखती है और मुझे आगे बढ़ते रहने की ताक़त से नवाज़ती है और हिम्मत अता फ़रमाती है। यह हमारा रात्रिकालीन  पूर्वनिश्चित मिलन स्थल है जिसका मैं बेसब्री से हर रोज़ भोर से इंतज़ार करता हूँ। सुबह सूरज की किरण के साथ जागना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है क्योंकि वो सवेरा मुझे तुमसे और स्वप्नलोक में बसाए हमारे संसार दोनों से अलग कर देता है।

कभी-कभी जब मैं भाग्यशाली होता हूँ तब, मैं जागती दुनिया में भी तुम्हे और तुम्हारी उपस्थिति और समीपता को महसूस करता हूँ । जब मैं अकेला, अधम, तनहा होता हूँ और यदा-कदा रोता हूँ, उस क्षण मुझे आभास होता है कि तुमने अपनी बाहों में मुझे समाहित कर रखा है और तुम मेरे पास, मेरे साथ, मेरे क़रीब बहुत करीब मुझे अपने आग़ोश में भरकर बैठी हो। मैं तुम्हे अपने कानो में फुसफुसाते सुनता हूँ जब तुम मुझसे कहती हो कि, "तुम मुझसे प्यार करती हो" और मुझे आगे बढ़ने, हार ना मानने के लिए, निरंतर आगे बढ़ते रहने और प्रयास्रित रहने के लिए प्रेरित करती हो और समझाती हो कि अभी जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। जिस समय मैं टुकड़ों में टूट कर चूर-चूर होकर बिख़र रहा था, तिल-तिल कर रोज़ बेमौत मर रहा था उस समय तुम ही थीं जो मेरे छिन्न-भिन्न होते वजूद को फिर से एकरूप बनाने के लिए टहोका करती थीं और मेरा हाथ थामे मेरे साथ खड़ी थीं। तुम्हारी यह जागृत मौज़ूदगी और सान्निध्य मुझे कभी भी पर्याप्त मालूम नहीं पड़े, हमेशा कम ही लगे, मेरे सपनो की तरह नहीं जहाँ तुम्हारा और मेरा साथ बेहद लम्बे समय के लिए रहता है।

तो आज रात, मैं एक नया सपना देखूंगा, चलो फिर सपने में मिलते हैं...

--- तुषार रस्तोगी ---

गुरुवार, अप्रैल 09, 2015

डे-ड्रीम

यह दास्तां हाई स्कूल से शुरू हुई थी। राज और आराधना दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे। राज चोरी-चोरी उसे देखा करता और मन ही मन उससे प्यार करता था। वो उसे अपनी प्रेमिका के रूप में देखता और हमेशा साथ रहने के सपने संजोता रहता। अफ़सोस की बात यह थी कि आराधना अपने में ही मग्न रहती और कभी भी उसकी तरफ ध्यान नहीं देती पर राज हमेशा से ही उसकी ख़ूबसूरती और अदाओं का क़ायल हुआ करता था। बेशक़ वो शब्दों के साथ कुछ ख़ास अच्छा नहीं था पर उसके लिए उसकी परवाह कभी कम नहीं थी। कई दफ़ा वो अपने आपसे सवाल करता, "मेरा प्यार उसके लिए कितना गहरा है?", पर जवाब में राज कुछ ना कह पता क्योंकि अपने शर्मीलेपन के कारण वो खुद को भी जवाब देने में सक्षम नहीं था। वो ज्यादा से ज्यादा समय उसके पास बिताना चाहता था पर उसकी किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। अपनी कुछ निजी परेशानियों के कारण और पारिवारिक दवाब के चलते उसे स्कूल और शहर दोनों छोड़ना पड़ा और उसकी तमन्ना उसके दिल के कोने में कहीं दब कर रह गई।

इधर वो अपनी किस्मत से जूझ रहा था और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में उलझा पड़ा था के अचानक ही बरसों बाद एक दिन समय ने क्या ख़ूब करवट ली और नियति ने आराधना को एक बार फिर उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया। वो आज भी उसके प्यार से अनजान थी और सिर्फ एक दोस्त की तरह उससे मिलती और बात करती थी। इतने सालों के बाद भी वो बिलकुल नहीं बदली थी और सबसे अच्छी बात ये हुई थी कि वो भी एक साथी की तलाश में थी। दोनों की मुलाक़ाते बढ़ती चली गईं और ना जाने कब दोनों की दोस्ती इश्क़ के रास्ते की तरफ निकल गई।

उस शाम वो स्थिर था और धीमे से थरथराती अपनी हथेली पर उसके सर को संभाले अपनी उँगलियों को सरसराते हुए उसके उलझे बालों में फ़िरा रहा था। अभी उसके होंठ पहली बार आराधना के लबों को हल्का सा स्पर्श करने के प्रयोग में आगे बढ़ ही रहे थे कि राज अपनी इस हिमाक़त के प्रति उसकी प्रतिक्रिया भांप गया और उसका दिल सीने में ज़ोरों के धड़कने लगा।

आराधना के होंठ भी स्वतः ही खुल गए, सांस लेने के लिए अलग हो गए और लालिमा से उसका चेहरा चमक उठा। पहली बार की तुलना में इस बार बेहद स्थिरता से अपने अधरों को उसके लबों पर रखने से पहले राज आश्चर्य से लबरेज़ उसकी आँखों में झलकते जवाब को ढूंढता है। अपने धूप के चश्मे के पीछे से वो बड़े आराम से उन फड़फड़ाती आंखो को बंद होने से पहले पूरी तरह खुले हुए देख रहा था। उनके शरीर इतने क़रीब थे कि जब आराधना ने पलट कर उसको चूमा तो उसकी नसों के स्पंदन को वो अन्दर तक महसूस कर सकता था।

उसने भी मंद से दबाव के साथ अपने होठों को उसके होठों पर रख दिया, बस, इससे ज्यादा उसे क्या चाहियें था कि आराधना ने उसे पलट कर चूम लिया। उसने ना ही उसे रोका और ना ही अपने से जुदा किया, तो इसका मतलब कहीं यह तो नहीं कि वो भी इस रिश्ते के लिए संजीदा है ?, शायद ? इस सोच के साथ राज का दिल जम गया। तो क्या होगा अगर वो वास्तव में उसको पसंद नहीं करती हो तो ?

यह ख़याल आते ही उसने अपनी आँखें भींच ली और अपनी खौलती नसों को शांत करने का प्रयास करने लगा। उसने उसे अपनी बाहों में मज़बूती से जकड़ लिया और अपने सर को उसके और करीब ले गया जिससे वो स्वाभाविक तौर पर अपनों होठों को उसके होठों की बनावट के अनुसार ढाल सके। उसका शरीर भट्टी में आग की तरह धधक रहा था। वो भी धीरे-धीरे उसकी कमीज़ को अपनी मुट्ठी से पकड़कर उसको अपनी ओर खींच रही थी।

उसने अनिच्छापूर्वक अपने आपको पीछे खींचा और उसके लहलहाते बालों में अपने चेहरे को छिपा उसके काँधे पर सर रखकर उसके गले लग गया। दोनों की सांसें अब भी तेज़ थी। उसने अपनी पकड़ ढ़ीली कर दी और उसकी कमर में हाथ डालकर उसको अपने सीने से लगा लिया। उसकी आँखें बंद थीं और वो अपने धैर्य को बनाने की कोशिश कर रहा था। जितनी बार भी वो यह कोशिश करता, अपने आत्मसंयम को पाने के करीब पहुँचता उतनी ही बार उसे यह एहसास होता कि आराधना उसके पास है। वो सब कुछ भुला कर अपनी आँखें खोलता है और अपने चेहरे को झुकाकर उसकी आँखों में अपने अक्स को ढूँढने की कोशिश करने लगता है।

उसका चेहरा शर्म की लाली से पहले से भी ज्यादा खिला हुआ था और वो ये देख सकता था कैसे वो इसे छिपाने की कोशिश में अपने आप से संघर्ष कर रही है। कुलबुलाहट में उसकी आँखें ठहर नहीं रहीं थीं कभी वो राज के सीने पर थम जातीं और कभी उसके चेहरे पर और उसकी उँगलियों ने मज़बूती से उसकी कमीज़ को जकड़ रखा था। अपने को पीछे करने के लिए राज को जोर लगाना पड़ा और इसके चक्कर में आराधना के होठ एक बार फिर उसकी ठोड़ी से छूते हुए निकल गए।

"रा...रा... राज, क... क्या तुम मुझे प्यार करते हो ?"

राज इस सवाल पर सोचता रहा फिर कुछ देर बाद बोला, -

"तुम आज भी उतनी ही नादान हो जितनी स्कूल में हुआ करतीं थीं। कभी अपने आस पास की दुनिया से बहार निकली हो ? अगर मैं तुमसे कला के बारे में सवाल करूँगा तो या तो तुम मुझे उस पर एक बड़ा सा लेक्चर दे दोगी या फिर वही कुछ पुरानी घिसी-पिटी किताबों के हवाले से किसी महान इंसान की कोई करामात के बारे में मुझे बताना शुरू कर दोगी। लेकिन तुम ये नहीं बता पाओगी के एक कलाकार की कलाकृति में जो रंग भरे होते हैं, उसमें जो भावनाएं रची होती हैं, उसमें जो जीवंत कर देने वाली सोच समाहित होती हैं उनकी वो भीनी सी ख़ुशबू कैसी होती है? तुम ना तो कभी ऐसी सोच के करीब गई हो ना ही अकेले सामने खड़े होकर कभी ऐसी कला को तुमने निहारा है। देखा है कभी ऐसा कुछ तुमने या विचार किया है ऐसी किसी चीज़ पर ?

मर्दों के बारे में तुम्हारा क्या नज़रिया है ? अगर उनके बारे में तुमसे कुछ पूछने की हिमाक़त करूँगा तो तुम मेरे सामने उनकी कमियों की एक लम्बी सी लिस्ट गिना दोगी। कुछ के साथ तुम्हारा वास्ता भी पड़ा होगा और कुछ तुम्हे नापसंद भी होंगे। तुम्हारी मर्दों के लिए इस चिढ़ की वजह मैं नहीं पूछुंगा। पर तुम्हे उस एहसास का कोई अंदाज़ा नहीं है जो एक सच्चे प्यार करने वाले इंसान के साथ सुबह उठने पर होता है। जब सुबह जागने के पहले लम्हे के साथ, आप उसके चेहरे पर, उन आँखों में, अपने लिए वो इज्ज़त, मान, प्यार, परवाह और हिफ़ाज़त भरा भाव देखती हो। तब जो महसूस होता है वो ऐसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।

तुम बोलती बहुत हो, बहादुर भी लगती हो। पर जब सही में बोलना होता है तब बोल नहीं पाती हो। अब अगर जीवन की जंग के बारे में पूछुंगा तो तुम फिर इतिहास से किसी ना किसी आलिफ़-क़ालिफ़ का कुछ भी उठा कर बखान करने लग पड़ोगी। लेकिन ज़िन्दगी में तुमने कोई जंग खुद लड़ी नहीं है। तुमने दम तोड़ते अपने किसी प्यारे को सीने से नहीं लगाया है। तुमने बेबस होकर, ख़ामोशी से उसे अपने से दूर होते नहीं देखा है। तुमने उसकी उखड़ती साँसों को नहीं सुना है। तुमने बचपन के साथ को हाथ से रेत की तरह ऐसे फ़िसलते महसूस नहीं किया है।

प्यार के बारे में अगर कुछ भी पूछुंगा तो किसी बड़े कलमकार की कविता या लेखनी का उदाहरण दे दोगी। क्या तुम किसी ऐसे इंसान से नहीं मिली हो जिसमें तुम अपना अक्स देख सको ? जिसे देख कर लगे कि ईश्वर ने सिर्फ़ तुम्हारे लिए इस राजकुमार को भेजा है। जो तुम्हे इस चिडचिडी, गुस्सैल, लाचारी और बेचारगी वाली सोच से निजात दिलाये। जिससे तुम अपने दिल की बात बेहिचक खुल कर कह सको। जिसके साथ तुम्हे कभी न्याय, परख और फ़ैसले का डर ना हो। जो मुस्कुराते हुए तुम्हारी हर बात को सुने और तुम्हे जज भी ना करे। उस फ़रिश्ते का तुम्हारी ज़िन्दगी में होना महसूस नहीं कर पाई हो अभी तक तुम।

जिसे तुम चाहती हो, प्यार करती हो उसका साथ दो। हर घड़ी हर पल उसके साथ रहो। ख़ुशी में भी और ग़म में भी। तुम नहीं जान पाओगी मुश्किल वक़्त में महीनो बैठे-बैठे सोना क्या होता है ? क्योंकि मुसीबत के समय किसी पर कोई भी नियम लागू नहीं किये जा सकते। किसी को खोने का कोई एहसास नहीं है तुम्हे। क्योंकि वो तभी होता है जब तुम किसी को अपने से ज्यादा प्यार करते हो। मैं नहीं जानता तुमने कभी किसी को इस तरह, इस क़दर प्यार किया है या नहीं । तुम्हे देखता हूँ तो तुम एक इंटेलीजेंट और कॉंफिडेंट वूमैन नज़र नहीं आती हो। तुम्हारे चेहरे में घमंड, सोच में अदावत और आँखों में डर नज़र आता है। पर तुम एक अच्छी लड़की हो इसमें कोई दोराय नहीं है। पता नहीं कोई तुम्हारी गहराई को समझ पाया है या नहीं पर लगता है तुम मेरे बारे में सब जान गई हो क्योंकि तुमने मुझसे सिर्फ़ दो-चार दफ़ा बात और मुलाक़ात क्या कर ली है। इतना सब होने और कहने के बाद भी तुम सोचती हो जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। इस सबके बाद भी तुम मुझसे ये सवाल कर रही हो, 'क्या मैं तुमसे प्यार करता हूँ?', कमाल करती हो आराधना तुम भी। क्या ये पूछने की ज़रूरत है अभी भी?"

धुप के चश्मे के पीछे छिपी उसकी आँखें छलक गईं और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उसका दिल फट पड़ेगा। फिर अपने आपको संभालते हुए वो मुस्कुराया, उसके चेहरे की तरफ देखा, अपनी आवाज़ को रुन्धने से बचाने के लिए लम्बी गहरी सांस ली, अपने गॉगल्स उतारे, उसकी आँखों में झाँका, एक कदम पीछे हटकर उसके सर को थोड़ा सा झुकाया और अपने चेहरे की तरफ देखने को कहा। वो तो अपने दिल की ये बात कब से कहने के लिए बेताब था।

"हाँ! मैं राज, तुमसे बेहद प्यार करता हूँ, बेशुमार प्यार करता हूँ।", इतना कहकर उसने एक बार फिर निष्कपटता से अपनी आँखें मूँद लीं, आगे बढ़ा, मुस्कुराया और उसके होठों को चूम लिया।

उसके होंठ अब हवा में थे। जिस चेहरे को उसने अपने हाथों में थामा हुआ था वो ग़ायब हो चुका था। उसे एक ज़बरदस्त झटका लगा और चुटकी बजाते ही सदमे से उसकी आँखें खुल गईं। जिस दृश्य के बारे में वो अब तक सोच रहा था वो बदल चुका था। उसकी जगह रेस्तरां ने ले ली थी। हर तरफ शोर था, लोगों की हंसी थी और उनकी तेज़ बातें करने की आवाज़ें आ रहीं थी। राज भी एक टेबल पर आराधना और दोस्तों के सामने बैठा था। बैरा उसके सामने खड़ा था और आर्डर लेने के लिए सर सर कहकर पुकार रहा था।

ओह! ये सिर्फ एक दिवा-स्वप्न था। वो ख़याली पुलाव पका रहा था। उसने कभी भी उसे नहीं चूमा था और ना ही कभी आराधना ने उससे ऐसा कोई सवाल किया था। शायद वो बैठे-बैठे जागते हुए सो गया था। अब अपनी शांति और मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए उसे अपना सब कुछ दांव पर लगा नज़र आ रहा था।

अभी वो अपनी मुट्ठी भींचे बैठा ये सब सोच ही रहा था कि तभी एक हाथ उसके कंधे पर दस्तक देता है। वो मुड़कर देखता है और अपनी लाल आँखों को उसकी नज़रों से जुड़ा पाता है। इससे पहले कि वो कुछ बोल पाता, नार्मल हो पाता, वो उसकी तरफ झुकती है और धीरे से पूछती है, "तुम ठीक हो राज? तुम इस प्लेट को पिछले बीस मिनट से घूर रहे हो? क्या तुम्हे किसी मदद की ज़रुरत है?"

वो एक दम बेख़बर भुलक्कड़ की तरह हताश नज़रों से उसकी तरफ देखता है और अपने चेहरे को जितना भावहीन हो सके रखने की कोशिश करता है और कहता है, "कुछ नहीं, ये सब शुरू शुरू के शौक़ होते हैं, बाद में सबको आदत पड़ जाती है।" वो उसकी बात का मतलब समझ नहीं पाती है और सवाल भरी नज़रों से उसकी तरफ देखती रहती है। वो बड़ी रुखाई अपने सर को हिलाता है और उसके हाथ को अपने कंधे से हटा देता है और एक बार फिर अपनी प्लेट की तरफ ग़ौर से देखने लगता है।

--- तुषार रस्तोगी ---

मंगलवार, अप्रैल 07, 2015

मी टू - एडिक्टेड टू यू एंड योर लव

ये मुझे क्या हो गया? तुमने देखा मुझे? तुम्हारी तरह मुझे भी इस इश्क़ की लत लग गई है और मैं इस प्यार का आदि हो गया हूँ। "येस! मी टू एडिक्टेड टू यू एंड योर लव", मुझे अपने इस प्यार में पड़ने से प्यार हो गया है। लो आज तुम्हारे सामने इसका इक़रार भी हो गया है। जो बात कल तक तुम्हारी जुबां पर थी आज मैं भी उस बात को कुबूल करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ । तुम जब उस तरह से नज़रे उठाकर मुझे देखती हो बस वही सम्मोहित करने और प्यार में बांधे रखने के लिए काफ़ी होता है। हमारे परवान चढ़ते, परवाज़ बुलंद करते, पंख पसारते, स्वछंद हवा से बहते, घने हरे पेड़ों से झूमते लहलहाते, परिंदों से चहचहाते, बचपन से खिलखिलाते, तारों से झिलमिलाते, फूलों से महकते, बादलों से बरसते, मिटटी से ठंडे, घास से कोमल, झरने से निर्मल, नदी से तेज़, पहाड़ से अडिग, चांदनी से चमकते, सूरज से दमकते, इश्क़ की वो पहली मुलाक़ात की यादें दोनों को ताउम्र साथ रखने के लिए काफ़ी हैं। अपनी बड़ी-बड़ी हिरनी सी आँखों से जब तुम मुझे निहारती हो, तब मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। गहरी, शांत, रहस्मय, नशीली निगाहों के पैमानों में डूब जाता हूँ और जिस पल अदा से तुम अपनी मोहब्बत का इज़हार करते हुए, "आई लव यू", कहती हो उसी पल मेरी सारी तकलीफ़, दुःख, उदासी, अवसाद, पीड़ा उड़न छू हो जाती। तुम्हारा इतना कहना, "मेरी जान एक टाइट झप्पी तुम्हे" मेरे सारे ग़म काफ़ूर कर देता है। तुम मेरी सोच का नूर हो, मेरा फ़ितूर हो, तुम्हारा साथ होने पर ज़िन्दगी जीने के मायने कुछ और ही हो जाते हैं। ज़िन्दगी जीने में लुत्फ़ आने लगता है और चेहरे पर एक ख़ुशी का माहौल बना रहता है। आख़िरकार तुमने मुझे भी इस नशे का आदि बना दिया ना - "यू हैव मेड मी आ लव एडिक्ट लाइक यू" - :)

जब तुम बेहद नज़ाकत, हिफ़ाज़त और चाहत के साथ मेरी बाहों में चली आती हो, मेरे दिल को कितना क़रार आता है। अपने आगोश में तुम्हारा कांपता जिस्म और करुणामय मन दोनों को पिघलते देखता हूँ और उस के साथ  तुम्हारा मुझसे ये इक़रार करना, "तुम्हारी बाहों में समाकर ऐसा क्यों होता कि वो इंतज़ार के लाम्हातों में बहते आंसू थम जाया करते हैं। इसका क्या राज़ है? बोलो ना। जिस तरह तुम हलके से, कोमलता के साथ मुझे चूमते हो, मैं सोच में पड़ जाती हूँ, काश! मैंने तुम्हे पहले ही ढूंढ लिया होता। तुम्हारे मज़बूत, चौड़े और अटूट सीने से लगकर ऐसा एहसास होता है कि क्यों ना समय अभी, यहीं, इसी वक़्त, हमेशा के लिए थम जाए और मैं तुम्हारे आलिंगन में सदा के लिए ऐसे ही समा जाऊं। मुझे तुम्हारा साथ होना बहुत सुकूं देता है। जिस तरह से तुम्हारा ऊपर वाला होंठ हरकत करता है ना, वो जब तुम मेरे चेहरे को देखकर अपनी मुस्कान रोकने की कोशिश करते हो, मुझे बेक़ाबू कर देता है, मुस्कुराने और सोचने पर मजबूर कर देता है, और मेरा दिल गाने लगता है। तुम्हारी संजीदा, महासागर जैसी अनंत भूरी आँखें जिनसे तुम हमेशा एकटक नज़र लगाये मेरे अन्दर मेरी आत्मा तक झांकते हो वो तुम्हारी शख़्सियत का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा है, जो मैंने ख़ोज निकाला है। जिस तरह से तुम मेरा नाम लेकर पुकारते हो, और मुझे प्यार भरे उन ख़ास नामो से बुलाते हो, मैं जानती हूँ और समझती भी हूँ कि तुम भी हमारे प्रेम की गहनता को उतना ही महसूस करते हो जितना मैं करती हूँ। जिस तरह से तुम किसी भी बजते हुए गाने के साथ अपनी भारी आवाज़ में उस गाने को गाने की नाकाम कोशिश करते हो, वो भी मुझे हंसने और तुम्हारे साथ गाने को उत्साहित करती है, जबकि मुझे पता होता है की तुम सुर से और सुर तुम से कितने दूर हैं। तुम मेरे चेहरे पर आई मुस्कराहट का कारण हो, तुम मेरी हंसी हो, मेरा गीत हो, संगीत हो, सोच हो, साज़ हो, आवाज़ हो, तुम ही हाँ सिर्फ़ तुम और तुम और तुम ही मेरा प्यार हो, सब कुछ हो। तुम्हारा इश्क़ मेरी दवा है, दुआ है, हाँ है, ना है, ज़िन्दगी है, बंदगी है, जुनून है, सुकून है, खून की रवानी है, मासूम सी कहानी है, धडकनों की हरक़त है, आरज़ू की बरक़त है, ख़ुदा की नेमत है, अफसानों की ताबीर है, कायनात की जागीर है, दिल में मचलता अरमान है, ख़्वाबों का फ़रमान है, रंगों की रंगीनी है, लज्ज़तों का स्वाद है, एहसासों की मिठास है, जीने की राह है, उमंगो की चाह है, साज़ों की आवाज़ है, उतरता-चढ़ता मिजाज़ है और इससे ज्यादा क्या कहूँ कि तुम्हारा और केवल तुम्हारा जुनूं-ए-इश्क़ मेरे हर लम्हे का आगाज़ है। तुम हो तो मैं हूँ, मैं हूँ तो तुम हो। मेरे और तुम्हारे होने से ही हम हैं। मुझे तुम्हारी आशिक़ी की बहुत बुरी आदत लग गई है।  सुनो ना, सुन रहे हो तुम, 'आई एम् एडिक्टेड टू यू एंड योर लव'"... और बस ये ही तो है अपनी "छोटी सी लव स्टोरी"...

--- तुषार रस्तोगी ---

मंगलवार, मार्च 31, 2015

मेरी पहली प्रकाशित रचना - :)

आज अनुराग त्रिवेदी 'एहसास' भाई का मेसेज मिला कि अपनी मेल चेक करो | कारण मालूम नहीं था पर जब मेल चेक की गई तब ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा | उनके अथक प्रयास के कारण होली के अवसर पर लिखी मेरी रचना को मध्यप्रदेश से छपने वाली मासिक पत्रिका में प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त हुआ | मैं दिल से आदर सहित उनका धन्यवाद करता हूँ और आशा करता हूँ वो इसी तरह से अपना आशीर्वाद और साथ सदा बनाए रखेंगे | एक बार फिर बहुत बहुत आभार और साधुवाद भाई |

फीलिंग सुपरररर.... :)


















http://tamasha-e-zindagi.blogspot.in/2015/02/blog-post_22.html

शनिवार, मार्च 28, 2015

ये कहानी है













बारिश आग सी लग रही है क्या रवानी है
अनगिनत खुशियों से लिखी ये कहानी है

इस दिल में आज भी सुलगता है इश्क़ तेरा
हर एक सुकूं आरज़ू की वजह ये कहानी है

दिल दहकता है बारिश की हर बूँद के साथ
मेर परवान चढ़ते इश्क़ की भी ये कहानी है

तसल्ली होती है तेरे ख़याल से रूह को मेरी 
उफ़नती साँसों की रवानी की ये कहानी है

काश कोई पूछे उस दिल से जुड़ने की वजह
इश्क़ में फिसलते मेरे वजूद की ये कहानी है

माँगा है उसने मुझसे इस बेचैनी की सुराग़
इस राज़ को राज़ ना रखने की ये कहानी है

इन लबों पर सजी हैं दुआएं उसके ही लिए
हर पनपती ख्वाहिश की अब ये कहानी है

दो हाथ जब भी उठते हैं अब दुआ के लिए
'निर्जन' मैंने से माँगा है तुझे ये कहानी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, मार्च 27, 2015

मैं हमेशा साथ रहूंगी

वो मेरे करीब सट कर बैठी, मुस्कुरा रही थी। मैं उसकी दहकती गर्म साँसों के उतार चढ़ाव के साथ उनकी आवाज़ भी महसूस कर सकता था।

मैं उसकी गहरी भूरी आँखों में उबलती चमक देख रहा था और उस दीवार की उस महीन दरार से छनती रौशनी की किरण में सोने की तरह जगमगाती उसकी ज़ुल्फों की घुमावदार लटों को धीरे-धीरे झूमता देख निहार रहा था।

"तुमने कुछ सुना क्या?" उसने फुसफुसाते हुए पुछा, मैं उसकी आवाज़ में छिपे भावों को पढ़ रहा था क्योंकि वो बहुत असहज, उत्तेजित और उत्साहित सुनाई पड़ रही थी।

"मैंने सुना? नहीं तो, क्या? कुछ भी तो नहीं है। क्या - कुछ ख़ास है क्या?" शायद मैं ग़लत था।

"उफ़ ओ! चुप करो।" वो खीज कर बोली, "क्या तुम्हे ये सरसराहट सुनाई नहीं दे रही? ध्यान से सुनो।" उसने ज़ोर देते हुए कहा

मैंने ये सोचकर हांमी में सर हिलाया कि वो मेरे इशारे को समझ जाएगी। "इस अँधेरे और सन्नाटे में सरसराहट की आवाज़, अजीब लगती है क्या तुम्हे? मुझे लगता है शायद चूहा है?" उसने पलट कर मुझे इशारा करके टोहका और शांत रहने के लिए कहा।

"मुझे लगता है...." कहते कहते वो रुक गई और सोचने लगी, फिर बोली, "सच कहूँ, मुझे लगता है वो भूत हैं।"

हम कमरे में मेज़ के नीचे, दोहर से ढके, मुंह सिये दुबके हुए हैं। मतलब ये, हम भूतों को नज़र नहीं आ रहे हैं। "ये छिपने के लिए एक दम सही जगह है", उसने धीमे से कहा। क्योंकि जब तक हम उन्हें नहीं देख सकते हैं, वो भी हमें नहीं देख पाएंगे। यह एकदम लॉजिकल बात है।

मैंने हंसी दबाते हुए, विश्वास के साथ, हिम्मत कर पूछने की हिमाक़त की और कहा: "व्हाट - भूत? आर यू सीरियस?" और उसने अपने होठों पर ऊँगली रख मुझे ख़ामोश रहने को कहा।

"शशश! यू डॉग - चुप रहो, बी-कुआईट", वो सांप की तरह फुफकारती हुई बोली, "वरना उन्हें मालूम हो जायेगा हम कहाँ हैं।" बिलकुल, "सॉरी हाँ" और हम दोनों खामोश हो गए।

मैं सोच रहा था और कितनी देर मुझे यहाँ ऐसे ही दुबक कर रहना पड़ेगा पर जब तक ऐसे में वो मेरे साथ थी तब तक सब अच्छा लग रहा था। अभी सोचालय में ही था कि वो धीरे से सरक कर मेरे क़रीब आ गई और पूछने लगी, "तुम्हे क्या लगता है, क्या वो सभी सच में बुरे होते हैं?"

मैं हिचकिचाते हुए बोला, "शायद नहीं, मुझे दरअसल ऐसा नहीं लगता।"

फिर हम दोनों के बीच कुछ देर चुप्पी छा गई पर उसका चेहरा देख कर लगता था वो कुछ पूछना चाह रही है - "क्या है - पूछो, बोल भी अब, ऐसा मुंह मत बनाओ, कहो?"

"ईशशश...तुम्हे पता है...अगर सच में वो, जैसा तुम कह रहे हो, सच में अच्छे वाले हुए, तो क्या में एक रख सकती हूँ अपने पास?"

"चुपकर - जंगली बिल्ली" मैंने ईरीटेट होते हुए जवाब दिया, "क्या अटपटा सवाल है! ओ अच्छा...हाँ बेशक़ हो सकता है - क्यों नहीं - एक क्यों दो, तीन, चार जितनी मर्ज़ी हो उतने रख ले।" इतना कहकर मैं चुप हो गया।

"वैसे नाम क्या देगी उसको अगर कोई अच्छा वाला रखने को मिल गया तो?"

मुझे तुरंत बिना देरी तपाक से जवाब मिला: "शोना!"

"शोना? - हम्म"

एक बार फिर उसके और मेरे बीच ख़ामोशी पसर गई।

"तो फिर, क्या तुम देखना नहीं चाहोगी?", मैंने पुछा

"क्या देखना नहीं चाहूंगी?, बोल?"

"अरे! बाहर जाओ, देखो तो सही, टेक-अ-लुक, देखो कोई अच्छा वाला है भी या नहीं। शायद कोई प्यारा वाला मिल जाए। यहाँ बैठे बैठे थोड़ी ना मिलने वाला है कोई।"

"जी नहीं! कोई ज़रूरत नहीं है। मैं क्यों देखूं।" बिना कुछ सोचे समझे वो ज़ोर के चिल्लाई और पीली पड़ गई। उसकी आवाज़ में डर और घबड़ाहट साफ़ झलक रहे थे।

"ओह हो - पर क्यों नहीं? - देखो तो, बिना देखे मालूम कैसे चलेगा।", मैंने चुटकी लेते हुए पुछा

"अच्छा मैं क्यों - अगर वो बुरे वाला हुआ तो...? मैं इतनी बेवकूफ़ थोड़ी हूँ।" पागल ही थी मैं, जो ये सवाल किया

अब हम एक दुसरे के पास लेटे हुए थे; वो हौले से सिमट कर मेरी बाहों में आ गई। में उसके दिल की सुरीली धड़कनो की तान को बख़ूबी सुन सकता था और उसको सुरक्षित महसूस कराने के लिए कुछ भी कर सकता था। हमारे बीच एक दफ़ा फिर ख़ामोशी का आलम था, अगर कुछ सुनाई देतीं थी तो वो सिर्फ धीमी-धीमी माध्यम आवाज़ में सरसराहटें और ख़ामोशी।

"क्यों वो मुझे पकड़ कर अपने साथ ले जायेगा? - मुझे किडनैप तो नहीं कर लेगा ना?"

दोबारा फिर मैंने अपनी हंसी रोकते हुए मज़ाहिया लहज़े में जवाब दिया, "मुझे तो लगा था 'तुम' एक को पकड़ कर अपने साथ ले जाने वाली हो? - क्या हुआ?"

उसने घूर कर टेड़ी कनखियों से गोली चलाती दुनाली की तरह मेरी ओर देखा, "कभी कभी किसी को कोई बात बिलकुल समझ नहीं आती है, सही कह रही हूँ ना मैं - बोलो - जल्दी जवाब दो?"

"औबवियसली, मैं बुरे वाले भूत की बात कर रही थी।"

"आह...अच्छा, खैर - ठीक है, मुझे नहीं लगता वो तुम्हे अपने साथ ले जायेगा।"

"ओके..." कहकर वो थोडा शांत हो गई फिर, "क्यों नहीं?"

मैंने बड़े प्यार और दुलार से उसके सुनहरे दमकते मखमली बालों में उँगलियाँ फेरते, उसकी नाक को चुटकी से पकड़ हिलाते हुए फ़रमाया, "वो इसलिए, क्योकि मैं तुम पर नज़र रख रहा हूँ। मेरे होते वो तेरे पास आने की हिमाक़त कभी नहीं कर सकेगा, डोंट वरी।"

वो फिर चुप रही, असहज हुई, हिचकिचाई, और, "वो इसलिए क्योंकि तुम मेरे दोस्त हो?"

मैंने सर हिलाकर मंज़ूरी में 'हाँ' का इशारा किया, "सही है, क्योंकि मैं तेरा दोस्त हूँ।"

दीवार की दरार से आते ओज से उसका मुस्कान भरा मासूम सा चेहरा लाल हो रहा था और मैं अपनी आँखों से टकटकी बांधे एक टक उसे प्यार से निहार रहा था। फिर वो एकदम से संजीदा हो बोल पड़ी, "अगर ऐसी बात है तो - इस मामले में तो मैं भी तेरी दोस्त हूँ - यू डॉग, यू आर माय बेस्ट फ्रेंड, टू।"

मैंने अपने होठों पर मुस्कान ले उसकी पेशानी को चूमा, "हाँ हाँ! मेरी जंगली बिल्ली, मुझे दिल से ख़ुशी है की तू यहाँ मेरे साथ है - वरना पता नहीं मेरा क्या होने वाला था।"

वो भी मुस्काई और झप्पी देकर मेरे गले से लिपट गई। मैं दिल ही दिल में सोच रहा था, "काश! ये लम्हा हमेशा के लिए यहीं ठहर जाता तो कितना अच्छा होता।"

कुछ पल बाद वो फिर से बेचैन होते हुए बोली: "पर भूत..."

"हाँ?" मैंने हैरानी से देखा

"मुझे कैसे मालूम होगा कि अच्छा वाला भूत मेरा पीछा करते घर तक तो नहीं आ जायेगा? मेरा मतलब है वो तो दिखाई नहीं देता है ना !"

मैंने फिर मुस्कान के साथ सर हिलाया, "मेरा अंदाज़ा है कि जब तक तुम उसे देख नहीं लेती हो तब तक तुम्हे यकीन नहीं होगा।"

"क्या मैं उसे कभी देख पाऊँगी?"

"क्या पता, मुझे नहीं मालूम। अगर वो तुम्हे पसंद करता होगा तो, शायद? क्या मालूम तुम्हे वो सपने में मिलने आ जाए, क्योंकि शायद वो आज रात तुम्हारा ख़याल रखने वाला है? मुझे यकीं है, पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ की वो भी बेहद शर्मीला है, तुम्हे मालूम है? फ़िलहाल तो तुम मुझे ही देख लो मुझसे बड़ा भूत आज यहाँ कोई नहीं है - सच्ची।

"लगता तो कुछ ऐसा ही है - तेरा लॉजिक भी ठीक सा ही लग है।"

अचानक, फिर से  झनझनाहट, सरसराहट की आवाज़ें तेज़ होने लगती हैं - एक चूहा बड़ी ही तेज़ी से भागता हुआ मेज़ की तरफ़ लपकता है।

वो डर के मारे, घृणापूर्वक बचते हुए, ठिनठिना कर पीछे हटती है।

"अरे! क्या हुआ, स्वीटू?" मैंने पीछे जगह देखकर खिसकते हुए पुछा और कमर के बल आरामतलब होकर लेट गया। उसने मेरे सीने पर अपना सर रख लिया।

"तुम्हे उनसे डर नहीं लगता?" - मैं समझ रहा था वो चूहों की बात कर रही है, भूतों की नहीं।

मैं जवाब देने से पहले, मन ही मन खुश हो रहा था और अपना समय ले रहा था। "हाँ - शायद ज़रा सा, मुझे ऐसा लगता तो है। मैं मानता हूँ।" मेरा प्रसन्नता वो समझ नहीं पाई, मैं खुश हूँ; मुझे ज्ञात है वो सोचती होगी शायद मैं उसका मज़ाक़ बना रहा हूँ।

"तुझे डरने की क्या ज़रूरत है - यारा।" वो बोली

मैंने उत्सुकता पूर्वक अपना सर उठाकर उसकी तरफ देखा और इंतज़ार करने लगा कब वो अपनी कही बात का मतलब समझाएगी।

"ओहो - ऐसे क्या देख रहे हो जनाब, मैं तेरी दोस्त हूँ, याद है ना? तुझे बिलकुल भी डरने की ज़रूरत नहीं है।" वो कहती रही और मैं सुनता रहा।

मैंने मुस्कान के साथ आँखों में उम्मीद की लहर लिए पूछा, "और भला वो क्यों?"

वो उस पल ख़ामोश रही, हमारे चारों तरफ सब कुछ ठहर गया था। वो लम्हा, वो पल बीत नहीं रहा था। वो आँखें झुकाए जवाब सोच रही थी तभी अचानक धीमे से आँखें उठा, मुझसे नज़रें मिला, मेरे हाथों को अपने हाथों में थाम, मेरी रूह में झांकती हुई बोली, "क्योंकि मैं तेरे साथ हूँ और हमेशा रहूंगी - कमीने - यू डॉग।"

और फिर जिस तरह हम दोनों झप्पी देकर अपने में खो गए वैसे ही वो शाम भी हम दोनों के साथ हमारे हंसी-ठहाको में डूबती चली गई।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, मार्च 26, 2015

एक सवाल ?


















सांस लेना
प्रार्थना करना
बोलना
खाना
पीना
उठना
बैठना
हँसना
रोना
नाचना
गाना
पढ़ना
लिखना
लड़ना
बहस करना
खेलना
काम करना
कलाकारी
रंग भरना
प्यार करना
शोक करना
चोट लगना
खून बहना

जीना
मरना

यह समस्त प्राणीयों में
स्वाभाविक है

'निर्जन' प्रश्न सभी से यही कि
जाति,
रंग,
ऊँच,
नीच,
कामुकता,
धर्म,
लिंग,
के आधार पर
हम आपस में
एक दुसरे को
इतना अलग कैसे करते है ?

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, मार्च 25, 2015

जीवन क्या है ?









जीवन, प्रभु की लिखी सुन्दर कविता है
जीवन, ख़ुद के लिए स्वयं लिखी गीता है

जीवन, गर्मी की रात में आती कपकपी है
जीवन, मुश्किलातों में मिलती थपथपी है

जीवन, कानों के बीच का अंतरिक्ष है
जीवन, गालों के बीच खिलता वृक्ष है

जीवन, गीत है जिसे हर कोई सुनता है
जीवन, सपना है जो हर कोई बुनता है

जीवन, मधुर यादों का बहता झरना है
जीवन, प्यारी बातों को जेब में भरना है

जीवन, अपनों से जी भर कर लड़ना है
जीवन, सही के लिए ग़लत से भिड़ना है

जीवन, झूठमूठ का रूठना - मानना है
जीवन, ज़्यादा सा खोना ज़रा सा पाना है

जीवन, स्थान है जिसे सिर्फ आप जानते हैं
जीवन, ज्ञान है जिसे सिर्फ आप मानते हैं

जीवन, बर्फ़ के बीच से उगती कुशा है
जीवन, बहकते पल में मिलती दिशा है

जीवन, प्रियेसी के हाथों का छूना है
जीवन, पान पर लगा कत्था चूना है

जीवन, रेत में पिघलता एक महल है
जीवन, इंसानी क़िताब की रहल है

जीवन, गले में अटकी एक मीठी हंसी है
जीवन, जान में लिपटी बड़ी लम्बी फंसी है

जीवन, दमदार हौंसलों से दौड़ती रवानी है
जीवन, मासूम बच्चों से बढ़ती कहानी है

जीवन, कभी ख़ामोश ना रहने वाली ख़ुशी है
जीवन, 'निर्जन' युद्ध है जहाँ योद्धा ही सुखी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, मार्च 23, 2015

शहादत दिवस

आज शहादत दिवस है | आज के दिन देश के नौजवान, वीर सपूतों को साज़िश कर समय से पहले उन्हें फांसी ही नहीं दी गई थी बल्कि उनकी वीरगति प्राप्त देह का भी अपमान किया गया था | मै आज अमर जवान शहीद-ए-आजाम, गौरव-ए-हिन्द भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को 

मैं थूकता हूँ ऐसी घटिया, मौकापरस्त, सांप्रदायिक, हरामखोर, नाकारा, नमकहराम, देशद्रोही, आतंकी और ज़न्खी सरकार पर जो आज तक अपने वतन के शहीदों को शहीद का दर्जा नहीं दे पायी | जो उनकी शहादत के नाम पर दिखावे के घड़ियाली आंसू तो बहाती है पर किसी तरह की ज़िम्मेदारी नहीं लेती ना उनके हक़ में कोई फैंसला देती है | इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या होगी जिन वीरों ने अपने खून से देश को सींचा और आज़ाद करवाया उनका आज नामोनिशां तक मौजूद नहीं है | किसी भी सरकारी महकमे या दूसरी सरकारी जगहों पर उनकी एक तस्वीर तक नहीं है | लानत है ऐसी सरकार पर जो भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को आतंकवादी बताती है और उनकी आन को और नेताजी जैसे वीर योद्धाओं की शान को नज़रन्दाज़ करने पर आमादा है | यह सरकार भी अंग्रेजी सरकार से कुछ कम नहीं है जो अपने मतलब के चलते इन वीरों की शक्शियत को दबाने पर तुली है और इनसे जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक करने से डरती है | अगर देश के युवाओं और बाक़ी समस्त देशवासिओं का खून अभी पानी नहीं हुआ है और उनकी आँख में थोड़ी भी लाज और शर्म बाक़ी है तो ऐसी सरकारों का बहिष्कार करें और हमारे अपने अमर जवान शहीदों को उनका हक़ दिलवाने के लिए आगे आयें | मैं आज इस मंच से समस्त देशवासियों से अपील करता हूँ और देश के वीरों का आवाहन करता हूँ कि वो आगे आयें और इस ज़िम्मेदारी को समझें और उचित कदम उठायें | यह एक अहम्, भावनात्मक, गंभीर, ज़रूरी और संवेदनशील मुद्दा है इस पर सभी लोग गौर करें और अपना निर्णय इस मंच के माध्यम से सबके सामने लेकर आयें | ऐसी बहरी सरकारें यूँ ही नहीं जागती है इन्हें जगाने के लिए धमाका करना ज़रूरी हो गया है | जब तक इनके कानो में किसी धमाके की आवाज़ नहीं गूंजेगी तब तक इनके मुर्दा ज़मीर नहीं जागेंगे | तो आओ आज अहद करें कि या तो अपने प्यारे वीरों को उनका सही मुक़ाम दिला कर रहेंगे या फिर ऐसी दो कौड़ी की सरकार को नेस्त-ओ-नाबूत कर देंगे | यलगार हो - यूँ ही शब्दों की क्रान्ति से खोखले सरकारी तंत पर वार हो | सैनिकों आगे बढ़ो और अपने कर्त्तव्य का पालन करो | मुझे आप सही के जवाब का इंतज़ार रहेगा....जय भारत माँ - जय भारत - हर हर महादेव - जय हो - मंगलमय हो...

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, मार्च 22, 2015

मैं यहाँ नहीं हूँ


















 
मैं हूँ नारी
मैं हूँ प्रताड़ित

मैं हूँ मरती
मैं हूँ छिद्ती
मैं हूँ दबती
मैं हूँ जलती

मैं हूँ उबरती

मैं हूँ क्षत-विक्षत
मैं हूँ हत-आहत
मैं हूँ विकृत
मैं हूँ लटकती

मैं हूँ बलि

मैं हूँ पीड़ित
मैं हूँ भूतनी
मैं हूँ पिशाचनी
मैं हूँ डंकिनी

मैं हूँ फ़रिश्ता

मैं हूँ आहत
मैं हूँ दाग़ी
मैं हूँ व्यथित
मैं हूँ मुक्ति

मैं हूँ पवित्र

मैं हूँ मौन
मैं हूँ अंधी
मैं हूँ अँधेरा
मैं हूँ खंडित

मैं हूँ दृष्टि

मैं हूँ निर्योग्य
मैं हूँ असत्य
मैं हूँ अशिष्ट
मैं हूँ बधिर

मैं हूँ सत्य

मैं हूँ भक्षक
मैं हूँ लिप्सा*
मैं हूँ तृष्णा*
मैं हूँ ईर्ष्या

मैं हूँ तृप्ति

मैं हूँ कोप
मैं हूँ सुस्ती
मैं हूँ व्यर्थ
मैं हूँ बंजर

मैं हूँ प्रतिष्ठा

मैं हूँ निर्बल
मैं हूँ दुर्बल
मैं हूँ निष्प्राण
मैं हूँ उद्दंड

मैं हूँ प्रबल

मैं हूँ दोषी
मैं हूँ अप्रत्यक्ष*
मैं हूँ अक्षुत*
मैं हूँ विस्मृत

मैं हूँ प्रमुख

मैं हूँ नगण्य*
मैं हूँ कलह
मैं हूँ अदृश्य
मैं हूँ आदी*

मैं हूँ अनादी*

मैं हूँ अपराधी
मैं हूँ प्रतिवादी

वो हैं नियम
वो हैं अनुशासन
वो हैं समाज
वो हैं व्यवस्था
वो हैं अजगर

वो हैं शासक
वो हैं पंचायत
वो हैं साक्ष्य
वो हैं दर्शक
वो हैं निर्णायक

मैं हूँ आशा
मैं हूँ किरण
मैं हूँ जन्मना*
मैं हूँ शांति
मैं हूँ सानंदा*

'निर्जन'
मैं यहाँ नहीं हूँ...

लिप्सा - lust
तृष्णा - fantasy
अप्रत्यक्ष - unseen
अक्षुत - unheard
नगण्य - unimportant
आदी - used
अनादी - unending
जन्मना - germinate
सानंदा - pleasure, goddess lakshmi

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, मार्च 20, 2015

इज़हार-ए-मोहब्बत

उन दोनों का मिलना समझो एक संयोग मात्र ही था।

फुटपाथ पर पैदल चलते हुए अचानक ही उसकी सैंडल की एड़ी के दरार में फंसने से उसका पैर मुड़ गया। अपने आपको सँभालने के चक्कर में उसके हाथ से किताबें फिसलकर बड़े ही लयबद्ध तरीके से ज़मीन पर जा गिरीं। हालाँकि ये पढ़ना और सुनना बड़ा घिसा-पिटा और फ़िल्मी सा प्रतीत होता है पर वो बिलकुल ऐसा ही सोचता था कि ज़िन्दगी में किसी से मिलने का ये सबसे उत्तम तरीक़ा है।

उसकी ज़िन्दगी ऐसे रोज़मर्रा के प्रसंगों से भरी पड़ी थी जिन्हें, वो या तो जीवन भर याद रख सकती थी या फिर भूल सकती थी, पर फिर भी उसने इस एक घटना के बारे में थोड़ा बहुत सोचने की ज़हमत उठा ही ली।
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सच पूछो तो उसने, उसके बारे में ज़रा-ज़रा सोचना शुरू कर दिया था। वो स्वभाव से बहुत ही उदार और सभ्य पुरुष मालूम देता था पर उसके साथ पहली मुलाक़ात, उफ़-तौबा! सरासर उबाऊ थी पर ये बात भी अलग थी कि, अब उस उबाऊपन में उसे विशेष रूचि होने लगी थी, उसे, उसी बोरियत में अपनी ज़िन्दगी के नए मायने मिलने लगे थे और इसलिए वो दोनों एक दफ़ा फिर से मिले और फिर मुलाकातों का सिलसिला लगातार पायदान चढ़ता चला गया।
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उसे कभी भी इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं था, वो कितना वक़्त उसके साथ गुज़ारती है जब तक उसने उस रात बिना किसी बात फ़ोन मिलाया और कुछ नहीं बोली, सिर्फ उसकी आवाज़ सुनने के लिए। अपने अन्दर के खौफ़ के कारण, वो ख़ुद, इस असलियत को स्वीकार करने से इनकार करती रही, जिसे पूरे दिल से वो मानना तो चाहती थी और जब उसने पहली ही घंटी पर फ़ोन उठाया तब उसने बिना सोचे समझे, "माफ़ कीजिये, गलती से आपका नंबर मिल गया" कहकर झट से फ़ोन काट दिया।

बाद में, उसे एहसास हुआ कि शायद वो जानता था ये उसका ही फ़ोन था, क्योंकि अगली मुलाक़ात के वक़्त वो चुपचाप उसे निहार रहा था और मिलते वक़्त उसके होठों पर एक ख़ास तरह की मुस्कान सजी हुई थी जिसे उसने बड़ी ही मशक्कत, जद्दोजहद और मुश्किलात के बाद नज़र अंदाज़ किया था।
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उसे पहेलियाँ सुलझाना बेहद पसंद था। बचपन में उसकी माँ उसे जासूसी उपन्यास पढ़कर सुनाया करती थीं हालाँकि उसे हमेशा इस बात का शक बना रहता था कि उन्होंने शब्दों में हेर फेर कर कहानी के कुछ भाग को इधर-उधर कर बताया है जिससे कहानी के रहस्य उसे समझ आ सकें। यहाँ तक कि उन्होंने उसके जन्मदिन पर उपहार में क्रिकेट बैट देने की जगह एक जासूसी विडियो गेम भेंट में दिया था।

उसे सहसा ही, साफ़ अंदाज़ा हो गया था कि वो उसके साथ इतना सारा वक़्त बिताना क्यों पसंद करती है।
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वो उसके साथ पुस्तकालय जाया करता, रास्ते भर उसका सामन उठाकर चलता और उसके साथ बातों में खोया रहता। एक बार जब वो दोनों साथ लाइब्रेरी में थे तब उसका सामना, उसके असल जज़्बातों के साथ हुआ। किताबों के साथ उसका रिश्ता और लगाव ऐसा था जैसे शायद कभी किसी और के साथ नहीं था। उसके दिल के तहख़ाने तक जाने का ज़रिया किताबें ही लगती थीं। वो नई-पुरानी किताबों को उठाकर, उनके कवर को अपनी कोमल उँगलियों से एक समान स्पर्श करती, उन्हें छूकर उसकी आँखें आनंद से चमक उठतीं और उसके चेहरे पर उफनती लहरें उसकी उँगलियों के नीचे बहते अनगिनत शब्दों के महासागर में उठते ज्वार-भाटे को बयां कर रही थीं।

"ये कमाल हैं," उसने एक बार उससे कहा था। "देखो ना, आप एक ही समय में शब्दों से स्वेच्छापूर्वक सब कुछ कह सकते हो, पर ठीक उसी समय में दूसरी ओर इनके साथ सीमा का बंधन भी रहता है। 'प्यार' शब्द लिखने से हर कोई उस प्रेम के एहसास को महसूस तो नहीं कर सकता ना!"

"ये तो पढ़ने वाले पर निर्भर करता है" उसने किसी बड़े दार्शनिक की तरह जवाब दिया और जैसे-जैसे वो किताब के पन्नो के बीच उँगलियाँ घुमा रही थी, वो लगातार उसके चेहरे पर उमड़ते अनगिनत भावों को पढ़ता जा रहा था और खुश होता रहा।

वो मन ही मन सोचता, "काश! जिस तरह वो उन किताबों को देखती है कभी उसे भी ऐसे ही देखे और उसके साथ सब कुछ भूल कर बातें करे।" अब इसमें कोई रहस्य नहीं रह गया था, वो बिना किसी अस्पष्टता के उसका साथ चाहता था। उसके साथ खुलकर हँसना चाहता था, उसको बाहों में भरना चाहता था, उसके आगोश में खो जाना चाहता था, देर तक उसको चूमना चाहता था, घंटो उसके साथ समय बिताना चाहता था। वो जानता था की सिर्फ किताबघर ही एक ऐसी जगह है जहाँ उसके चेहरे पर ऐसे कोमल, शांतिपूर्ण और स्थिर भाव देखने को मिलते हैं।

उसके साथ रहते हुए, उसे एहसास हुआ कि किताबों, कागज़ और स्याही के सिवा वो किसी पर भी भरोसा करने में असमर्थ है। उसने बड़ी सहजता के साथ उसे समझाया कि लोगों पर भरोसा किस तरह किया जा सकता है, हर इंसान सिर्फ खून और मांस का पुतला नहीं होता है, उनमें से शायद कोई ऐसा भी हो जो उसके ह्रदय को पढ़ सके, विचारों को समझ सके, भावनाओं को पूर्ण कर सके और जिसका साथ सदा स्वच्छंद, आनंदप्रद और सुखद एहसास दे। उसे इस बात का बहुत आश्चर्य था की आख़िर ऐसे कितने लोगों ने उसका ऐतबार तोड़ा होगा जिसकी वजह से उसे, उसपर ज़रा सा यक़ीन जमाने में इतना समय लगा रहा है।
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"मैंने कल रात तुम्हारे बारे में सपना देखा," वो उसे बताती है। वो मुस्कान के साथ ख़ुशी का इज़हार करता है और व्यक्तिगत रूप से इसे एक सफलता मानता है, एक ऐसी क़ामयाबी जिसके बारे में वह अभी भी अनिश्चित था।

"क्या वो एक अच्छा सपना था ?" उसने छेड़ने के अंदाज़ में पूछा, और उसकी बांह पर अपनी उँगलियाँ फेरने लगा, सिर्फ उसे शांत करने और उसे अपने खुद के बुने प्रतिबंधित चक्र से बहार निकलने के लिए। वो भी कुछ नहीं बोली सिर्फ हलके-हलके मुस्काती रही।

उस समय, उसका मुस्कुराना, उसे एक अच्छा संकेत प्रतीत हुआ परन्तु बाद में उसे एहसास हुआ कि वो जब बहुत उदास होती है सिर्फ तभी मुस्कुराती है।
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वो उसके कमरे में प्रवेश करता है और देखता है वो एक कुर्सी पर डरी, सहमी और सिकुड़ कर बैठी है और उसकी गोद में क़िताब है। वैसे इस दृश्य में कुछ भी असामान्य नहीं था; इस मुद्रा में उसे पहले भी अक्सर बैठे देखा था, यही एक कारण था कि ना चाहते हुए भी वो, उससे नाराज़ हो जाया करता। अब ये राज़ और भी गहराता जा रहा था, वो जानने को आतुर था आख़िर इस तरह से बैठे रहने के पीछे क्या कारण था?

"उफ़ ख़ुदाया! आख़िर तुम इतनी अड़ियल और ज़िद्दी क्यों हो? हमेशा किस दुनिया में खोयी रहती हो जबकि ज़िन्दगी के पास कितना कुछ है तुम्हे देने के लिए, बोलो?," वो अकस्मात् ही उसकी तरफ बढ़ा और मंद स्वर में पूछने लगा। उसकी तरफ गर्दन उठा कर देखते हुए मुस्काई और इस गहन सोच में खो गई कि, "इस पल ,ये मेरे कितने पास खड़ा है।"

"ये मुझे ख़ुशी देता है," बड़े ही अड़ियल मिजाज़ से, उसने आँखे चुराते हुए, उसे बताया। "मैं तुम्हारे बताए ख़ुशी पाने की तरीक़े क्यों अपनाऊं, जब मुझे उनमें ज़रा भी सहजता महसूस नहीं होती है, बताओ?"

"मैं समझ सकता हूँ।" उसने बड़ी शालीनता से, उसके कान के पास जाकर फुसफुसाते हुए जवाब दिया; अब वो उसके इतना करीब था की पास रखी किताब के पन्नो को पढ़ने में सक्षम था। "पर तुम ख़ुशी पाने के लिए तो नहीं पढ़ रही हो। तुम पढ़ रही हो - दुनिया को चुप कराने के लिए। और...तुम ख़ुश भी तो नहीं दिखाई दे रही हो।"

वो कुछ नहीं बोली, बस कस कर मुट्ठी भींच अपनी गोद में किताब को इतनी जोर से जकड़ा के उसकी उँगलियों के पोर सफ़ेद पड़ गए।
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कभी कभी वो सोचती कि किताबों में इतनी लापरवाही के साथ बयां किये गए ख़ूबसूरत इश्क़ के बारे में पढ़-पढ़ कर कहीं वो असल ज़िन्दगी में प्यार करना भूल तो नहीं गई।

उसे ताज्जुब था कि क्या जिन लोगों को उसने आज तक अपनी ज़िन्दगी से बहार किया था दरअसल उन्होंने कुछ ग़लत किया भी था, या फिर ऐसा तो नहीं था की वो कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही उम्मीद कर रही थी?

पर अंत में, हमेशा की तरह, वो इन सभी ख्यालों को अपने दिमाग से बाहर निकालकर फ़ेंक देती है।
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अब वो उसे समझना शुरू करता है, पर इससे ज़्यादा ज़रूरी बात है उसकी ख़ामियों को जानना, पर वो उसे अकेला छोड़ दे, बस इससे ज्यादा वो कुछ नहीं  चाहती थी। वो अपने दुःख, अपनी अप्रसन्नता, अपनी खीज, अपने क्रोध, अपनी हताशा को बर्दाश्त में असमर्थ थी और यही कारण था जो वो इस सब से छुटकारा पाने के लिए, अपने आपको सब से बचाने के लिए, उन लम्हों में जिन्हें वो संभाल नहीं सकती थी अपने आप को किताब के पन्नो में क़ैद कर लिया करती थी।

अब तक, वो उसे पूरी तरह से समझ चुका था और एक अच्छा दोस्त और हितकर व्यक्ति के नाते वो उसकी हर प्रकार से मदद करना चाहता था।

पर वो यह भी नहीं चाहता था कि वो उससे नफ़रत करने लगे।
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कभी कभी उसे उन परीलोक वाली प्रेम कथाओं से घृणा होने लगती जो उसे, उस महत्वपूर्ण इंसान के लिए तरसने और तड़पने को मजबूर करतीं, वो नायाब हीरा जिसको ढूँढना उसके लिए ना के बराबर था।
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एक पूरा साल, ३६५ दिनों का समय निकल गया, उसको सिर्फ इतनी सी बात समझने के लिए कि वो, ये नहीं चाहती, के वो उसे कभी भी उसका साथ छोड़ कर जाए।

अपनी ज़िन्दगी में, उम्र के लम्बे गुज़रे समय में, पहली बार उसने किताब को बंद कर नीचे रखा और अपने फ़ोन को हाथ में उठाया था।
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वो बचपन में भी अपनी माँ के जासूसी कहानियां ख़त्म करने से पहले ही उनका अंत ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर बता दिया करता था। वो आश्चर्यजनक रूप से अपने इस कार्य में बहुत निपुण था, और समय के साथ उसके इस कौशल की क्षमता एक विशेष योग्यता के रूप में परिवर्तित हो गई थी। वैसे भी, ख़ास तौर पर, उसे प्रेम उपन्यास पढ़ना नापसंद था और वो इन्हें असल ज़िन्दगी के सामने बड़ा ही तुच्छ और अपमानजनक समझता था।

"किसी भी प्यार के अफ़साने को खत्म करने के सिर्फ ये दो ही तरीक़े हो सकते हैं।" वो कहता, "या तो बे-तहाशा सच्चा प्यार या बे-दर्द भयानक दुखद त्रासदी"

हालाँकि उसे बिलकुल भी मालूम नहीं था कि क्या वो इस बात में यकीन रखती है कि प्रेम इतना सरल है, पर उसने स्वीकारा कि जब वो अपना दृष्टिकोण इतने दावे के साथ बतलाता है, उसे ये सब सुनना बहुत भाता है और वो उसकी बातों से इनकार नहीं कर पाती है।
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हालाँकि, उसको मालूम नहीं था, वो दोनों आपस में एक दुसरे के साथ कहाँ तक समन्जस्य बिठा पायेंगे।

और यदि वह जोर से चिल्लाकर अपनी प्रेम कहानी के अंत को बता सकता, उस सूरत में उसे मालूम था उसे क्या चुनाव करना है। उसे मालूम था इस रिश्ते से उन दोनों के लिए उसकी क्या अपेक्षाएं हैं, वो इस बंधन से क्या चाहता है, पर आज एक समय के लिए जीवन में पहली बार, वो स्वयं परिणाम को लेकर अस्पष्ट और अनिश्चित था।

फिर एक दिन अकस्मात् ही उसने पूरे ज़ोर से चिल्लाते हुए वो तीन चमत्कारी शब्द उसेके सामने कह दिए क्योंकि उनको ना बोल पाने की टीस और अफ़सोस को लेकर वो अपना सारा जीवन नहीं गंवाना चाहता था।

"आई लव यू - मैं तुमसे प्यार करता हूँ - बहुत प्यार करता हूँ..."

जब वो यह इज़हार-ए-मोहब्बत कर रहा था तब उसकी इंतज़ार भरी सूनी आँखें नम थीं।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, मार्च 18, 2015

ये

















ये पकड़ता है इंसान
ये पालता है आत्मा
ये लांघता है सीमा
ये सताता है कर्म

बर्फ़ सा ठंडा, अग्नि सा गर्म, श्याम-श्वेत एहसास,
अनोखा, अनदेखा, आज़ाद, अनियंत्रित

ये बहाता है आग
ये जनता है आकांक्षा
ये पालता है मरुस्थल
ये थामता है तूफां

घने सपनो के कोहरे में, चित्कार कर पुकारता
हर पल भेदता ह्रदय, फिर तोड़ता अपार

ये कुचलता है अविश्वास
ये निचोड़ता है बंधन
ये चौंकाता है जीवन
ये बांधता है आस

चीनी सा मीठा, नीम सा कड़वा
मिर्ची सा तीखा, नींबू सा खट्टा

ये रति देवी सा ललचाता है
ये वशीभूत कर तड़पाता है
ये बातों से बहलाता है
ये शिकार बना फंसाता है

नसों में रेंगता, ह्रदय में घूमता
स्वेच्छा को दबाता, भावों को सताता

ये गलाता है अहं
ये दफनाता है गुमान
ये चुभाता है चिंता
ये गिराता है झूठ

काम देव के धनुष-बाण सा
किसी भी पल चल जाता है

ये आत्मा गिरफ़्त में लेता है
ये काल से जीवन खींचता है
ये मध्यरात्री में सिसकता है
ये सूर्योदय में कूंजन करता है
ये महासागर शांत करता है
ये सुस्थिर लहर लाता है

गोधूलि बेला के आगमन पर
ख़ुशियाँ घर में भर लाता अपार

ये जमाता है विश्वास
ये रिझाता है एहसास
ये ढांकता है उम्मीद
ये छिपाता है जज़्बात

सौभाग्य नयन भिगाता, आंसू-मुस्कान के साथ
नित नव गीत सुनाता भूल पुरानी बात

ये पीछा करता है
ये ढूँढ ही लाता है
ये भीतर समाता है
ये गुदगुदाता है
ये ख़ुद से, 'निर्जन'
ख़ुद को मिलवाता है

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, मार्च 16, 2015

मांगता हूँ














हर सुबह
सोकर उठता हूँ मैं
करवट लेकर
तुम्हारा मुस्काता
चेहरा देखता हूँ

हर समय 
लब चूमता हूँ मैं
आँखें बंद कर 
तुम्हे अपने पास
बाहों में ढूँढता हूँ

हर पल
याद करता हूँ मैं
इस इश्क़ को
कितने जतन से
संजोये रखता हूँ

हर लम्हा
महसूस करता हूँ मैं
तुम्हारी आँखें को
भीतर गहराई तक
इरादे जानता हूँ

हर जन्म
चाहता हूँ मैं
सिमटी रहो तुम
बाहों में 'निर्जन'
रब से मांगता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, मार्च 15, 2015

प्यार का अस्तित्व

"सुनो ! ये तुम अपनी कॉपी पर क्या लिख रही हो ?"

"कुछ भी तो नहीं "

"चलो भी यार! तुम्हारा हमेशा कुछ नहीं होता है। अरे! बता भी दो अब।" इतना कहते के साथ ही उसने, झट से अचानक ही उसके हाथ से कॉपी झपट ली। अभी वो शुरू के कुछ ही शब्दों को पढ़ पाई थी कि उसने तुरंत ही, उसके हाथ से कॉपी वापस छीन ली।

"प्यार का वजूद नहीं है ?" उसने बड़ी व्याकुलता से उससे सवाल किया

"ओह हो! कुछ नहीं है, सब ठीक है।"

"नहीं...कुछ तो है। तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो...बताओ ना क्या नहीं बताना चाहते हो मुझे ?"

"मैंने कहा ना...कुछ नहीं है।" उसने गुस्से से रोष भरी आवाज़ में दनदनाते हुए जवाब दिया।  उसके क्रोध को देख कर वो दंग रह गई और डर के मारे सहम कर चुप हो गई।

कुछ पल मौन के बाद, आख़िरकार उसने जवाब दिया।

"मुझे माफ़ कर दो, प्लीज़...मुझे ऐसे, इतनी बुरी तरह से पेश नहीं आना चाहियें था। ऐसे आपा खोकर गुस्से से रियेक्ट नहीं करना चाहियें था। आई ऍम सॉरी।“

"ठीक है।  कोई बात नहीं। इसमें तुम्हारी गलती नहीं है।"

"दरअसल...बात ऐसी है कि, मैं नहीं चाहता के लोग इस बारे में जानें कि मैं कुछ चीज़ों और बातों के बारे में कैसा महसूस करता हूँ।"

"तुम मुझसे बात कर सकते हो। मुझसे हाल-ए-दिल बयां कर सकते हो। तुम्हे मालूम है, मैं भरोसे के क़ाबिल हूँ। प्लीज़ बताओ मुझे। मैं तुम्हारी मदद करना चाहती हूँ। तुम्हारी कड़वाहट को दूर करना चाहती हूँ।  तुम कैसे कह सकते हो कि प्रेम का कोई वजूद नहीं होता ? तुम्हारी माँ - उनके बारे में क्या ? एक माँ तो हमेशा अपनी औलाद को दिल से चाहती है। फिर ऐसा क्या है जो तुम बताना नहीं चाहते ? बोलो ना - प्लीज।"

"मेरी माँ ने मुझे और मेरे पिता को तब छोड़ दिया था जब मैं सिर्फ पांच बरस का था वो भी किसी दुसरे आदमी के लिए।" उसका जवाब एकदम रूखा और ठंडा था।

"आह! मुझे माफ़ कर दो। मेरा दिल दुखाने का इरादा नहीं था और ना ही तुम्हारे ज़ख्मों को कुरेदने की मंशा से मैंने ऐसा कहा था। मुझे...मुझे इसके बारे में कुछ नहीं मालूम था। बस तुम्हारी फ़िक्र रहती है इसलिए पर तुम्हारे पिता...वो तो तुम्हे बहुत चाहते हैं ना ? सही कह रही हूँ ना ?"

"माँ के जाने के बाद से सब बदल गया। पिताजी भी पहले जैसे नहीं रहे। वो भी बदल गए। मुझसे कभी बात नहीं करते। सच कहूँ तो मैं उनको माँ की याद दिलाने वाला सिर्फ़ एक अनचाहा ज़रिया हूँ। अगर कभी भूले से वो मुझसे बात करते भी हैं तो वो मेरी गलतियाँ निकालने के लिए, मारने पीटने के लिए या फिर गलियां देने के लिए, इसलिए मैं ज़्यादातर अपने दादा-दादी के साथ रहता हूँ।

"तो तुम्हारे दादा-दादी तो तुम्हारी देखभाल करते होंगे ? तुमसे प्यार करते होंगे ?"

"नहीं ऐसा नहीं है! मेरी दादी की तबियत बहुत ख़राब रहती है, मेरे दादा का सारा वक़्त उनके सिरहाने बैठे रहने में बीत जाता है। वो लोग अपनी परेशानियों में इतने व्यस्त रहते हैं कि मेरे बारे में किसी को ख़याल तक नहीं रहता।"

"अच्छा तभी...इसलिए तुम प्यार में यकीन नहीं करते ? किसी पर भरोसा नहीं करते ? क्यों ?"

"हाँ"

"देखो मेरी एक सुनो, तुम्हारे पिताजी तुम्हारी माँ से बेहद मोहब्बत करते थे इसलिए वो कभी पहले जैसे नहीं हो सके और अपने साथ अपनी परिस्थितियों को भी संभाल नहीं पाए। इसका सिर्फ एक ही कारण है कि वो तुम्हारी माँ से बेतहाशा प्रेम करते हैं और तुम्हारे दादा इतने बरसों के बाद भी तुम्हारी दादी को पूरे दिल से चाहते हैं। तुम देख ही नहीं पा रहे हो, अगर ध्यान से देखोगे तो तुम्हे नज़र आएगा कि तुम्हारे आसपास कितना प्यार है। हाँ! अपनी आँखें खोलो और देखो प्यार का अस्तित्व है, और क्या तुम्हे पता है ? कोई है जो तुमसे भी दीवानों की तरह, पागलों की तरह इश्क़ करता है। कम से कम उसको एक मौका देकर तो देखो जिससे वो तुम्हे दिखा सके, जता सके, बता सके कि असली सच्चा प्यार कैसा होता है। तुम कोशिश तो कर ही सकते हो, नहीं ?"

"उसे मालूम था वो किसके बारे में बात कर रही थी। "तो क्या वो सच में मुझसे इतना प्यार करती है ?" वो अपने आप से ये सवाल करता रहा और बैठा उसके चेहरे को ताकता रहा।

"हाँ - यही तो है वो - बिलकुल यही है"

"आज, अभी, इसी वक़्त, खुल कर बता दे उसको - तू भी उसे उतना ही चाहता है। तू भी तो दीवाना है उसके लिए। तू भी तो हर पल उसी के सपने बुनता है।" यही सोचते हुए वो जीवन में पहली बार वास्तव में मुस्कुराता रहा।

दुनिया में हर व्यक्ति के लिए प्यार मौजूद है। एक तरह से नहीं तो दूसरी तरह से, ऐसे नहीं तो वैसे ये हर किसी को मिल ही जाता है। उम्मीद का दामन कभी भी छोड़ना नहीं चाहियें। ज़िन्दगी और प्यार दोनों से कभी हार नहीं माननी चाहियें। यदि आपको ऐसा एहसास होता है कि आपसे कोई प्यार नहीं करता, आपको कोई नहीं चाहता, तो बस इतना याद रखना कि भगवान् आपको चाहता है आपसे बेंतेहा प्यार करता है और जिसे वो चाहता है उसे सारी दुनिया चाहती है, प्यार करती है। किसी ना किसी दिन, कहीं ना कहीं, कभी ना कभी वो नीली छतरी वाला आपकी मुलाक़ात आपके प्यार से करवा ही देगा। प्यार का अस्तित्व हमेशा से था, है और रहेगा और प्यार हर किसी को मिलता है बस ज़रा सा भरोसा और विश्वास बनाए रखने की ज़रुरत होती है।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 14, 2015

इश्क़ तो इश्क़ है


"सुनो, क्या तुम ठीक हो ?" बड़े ही सशक्त, मासूम और मीठे शब्दों में उसने पुछा।

"नहीं, बिलकुल भी ठीक नहीं हूँ" उसने करुणा भरे गले से रोते हुए कहा और उसके गर्म आंसुओं से उसके बर्फ से ठंडे और सूने गाल जल रहे थे।

"अच्छा" तुरंत त्योरी चढ़ा धर्य साधने से पहले वो बोला, "तो आओ, मैं तुम्हे थाम लेता हूँ।"

"लेकिन, नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकते" उसकी आवाज़ तीख़ी हो सकती थी पर उसने आंसुओं से रुंधे हुए स्वर में धीरे से जवाब दिया।

"क्यों, क्यों नहीं ? तुम हमेशा ऐसा क्यों करती हो ?"

"क्योंकि - क्योंकि वो सब यही कहते हैं, तुम नहीं कर सकते - कभी नहीं कर सकते !"

"अच्छा, तो हम कब से उनकी सुनने लगे हैं ? ज़रा बताओगी ?" उसने हलके से गहराई लिए लहज़े से पुछा। इस सवाल के पीछे गहरा मतलब छिपा था ।

"मैं तुम्हे चाहती हूँ... बहुत प्यार करती हूँ..."

"पगली, मुझे मालूम है, तुम मुझे बहुत प्यार करती हो," और उसने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भर लिया और सीने से लगा लिया।

"फिर आग़ोश में दोनों एक दुसरे को चूमते रहे। दोनों आंसुओं का मीठा और खारा स्वाद अपने होठों पर चखते रहे। दुनिया क्या सोचती है और क्या कहती है इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पड़ता है क्या ?

आख़िर इश्क़ तो इश्क़ है इसे इश्क़ ही रहने दो।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, मार्च 12, 2015

सुनो ना

सुनो ना, कुछ लम्हों के लिए ही सही, सुनो तो सही

अब एकाग्रचित्त होकर लम्बी सांस लो, "हाँ - लो तो सही, अगर सांस नहीं भी लेना चाह रही हो तब भी - लो ना - प्लीज़"। अपने कानो में गूंजती हुई अपने दिल की लरज़ती धड़कनो को ज़रा सुनो तो सही और अपनी नसों में मेरे इश्क़ के जुनूनी लावा को समुंदरी लहरों सा बहता हुआ महसूस करो तो सही। इस कायनात में पसरी ख़ामोशी के स्पर्श को अपनी कोमल देह को छूते हुए अनुभव करो तो सही।

अब ज़रा अपनी आँखें बंद करो और ह्रदय के अंतर तक फैली उस कालिमा का विश्लेषण तो करो। जब तलक तुम्हे अपने मन के श्याम छिद्र में कोई थामने लायक नज़र ना आए तब तक सिर्फ़ उस कालिख़ के आभास का रसपान करो। तब तक इंतज़ार करो जब तक तुम्हारी साँसे इस खेल में तुम्हारे हारने का इशारा नहीं करतीं और फिर धीरे से अपनी आँखों को खोलो,

अरे! और सुनो तो:

देखो, ये तुम हो...

अद्भुत, अनोखी, आश्चर्यजनक, प्रशंसनीय, चमत्कारिक। तुम्हारा होना मुझे सर्दी की उस लोरी की याद दिलाता है, जिस सिर्फ मेरे लिए बड़े ही रहस्मयता के साथ गाया गया था जिससे उसका आनंद कोई और ना उठा सके। पर शायद, ये शर्म की बात है क्योंकि तुम क़ुदरत के सबसे हसीन गीतों में से एक जो हो।

तुम प्रेम की आतिशबाज़ी की वो चमक हो जिससे मेरे जीवन का व्योम प्रकाशमय हो उठा है परन्तु इस अग्निक्रीड़ा के विपरीत तुम सदा मेरी दुनिया को देदीप्यमान, प्रकाशित, प्रज्वलित और उत्साहित करती रहना।

या फिर तुम जैसी हो, जो भी हो वैसी ही रहना, मेरे लिए इतना ही पर्याप्त से अधिक है।

मुझे इतना तो ज्ञात है कि इस संसार में जादू होता है क्योंकि तुम मेरे सामने हो। मनोहर, दिलकश, तिलिस्मी, आकर्षण, रूपवान, मायावी इंद्रजाल जिसने मुझे अपने वशीभूत कर लिया है।

मैं तुम्हे एक ऐसा इन्द्रधनुष उपहार स्वरुप देना चाहता हूं जो इस जीवन की हर मुश्किलातों को मिटा दे। मैं तुम्हे वो दर्पण भेंट करना चाहता हूँ जो तुम्हे दिखाए और जताए कि तुम कितनी निराली और अनोखी हो।

मैं इन महासागरों को सुखा देना चाहता हूँ, यदि यह तुम्हारे डर को मिटा सकता है, मैं उम्मीद, भरोसा, विश्वास, अरमान, आशा, आश्वसन का एक पुलिंदा बनाकर और धरती, अभ्र, पेड़ों, हवाओं, नदी, नालों, झरनों, पर मुस्कुराते चहरों का रंग लेप कर तुम्हे नज़राना स्वरुप पेश-ए-ख़िदमत करना चाहता हूँ यदि ये सब तुम्हारे मासूम से मुलायम गालों पर मुस्कान की चमचमाती लकीर बनाने में कामयाब हो सकें तो। मैं तुम्हारे पास निशा ज्योति की शक्ति भेजना चाहता हूँ जो सभी  कुस्वप्नों, विरूप प्राणीयों, दुःस्वप्नों और भयावह अनुभवों का आजीवन संहार कर सकें। मैं तुम्हारे साथ, तुम्हारा हाथ थाम कर स्वछन्द उन्मुक्त परिमण्डल में उड़ान भरना चाहता हूँ यदि ऐसा करने से तुम्हारा अकेलापन दूर हो सके तो और इस द्रुतगति के अंत में तुम और मैं ज़मीन पर लेट कर, नीलाभ को तांकते सिर्फ मन्नत मांगने के लिए तमन्ना करते, सिर्फ उम्मीद के लिए उम्मीद करते, और इस सब के अंत में, मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लिए शांति, आनंद, आराम, तृप्ति, संतुष्टि, ऋणमुक्ति हो तुम्हारे साथ संतोष की नींद सो सकूँ।

कभी-कभी, मैं अपने आप में एक ख़ाली मकां जैसा महसूस करता हूँ जो सांसारिक और भौतिकवादी झूठ का लबादा ओढ़े खड़ा है और असत्य के पीछे छिपा है जिसे देखने की गरज़ किसी को नहीं है, ना कोई इसके बारे में सोचता है और ना ही कोई पसंद करता है। इस घर की अस्तित्त्व रुपी खिड़कियाँ और दरवाज़े, दुनिया को दूर रखने के लिए हमेशा बंद ही रहती हैं,

लेकिन सुनो:

इस मकां को घर बनाने की सिर्फ जो एक चाबी मेरे पास है,

मैं पूरे दिल से, हक़ से, प्यार से, इत्मीनान से, भरोसे से, बेख़ौफ़ - वो "तुम्हे" ही देना चाहता हूँ।

और सुनो ध्यान दो:

"मुझे तुम पर खुद से ज़्यादा ऐतबार है, भरोसा है, यक़ीन खुद से ज़्यादा इतना है कि बिना कोई भी सवाल किये और आँखें मूँद कर तुम जहां कहोगी मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।"

बस और कुछ बचा नहीं है कहने को मेरी ज़िन्दगी में जो कुछ भी है वो यहीं इन्ही चंद लफ़्ज़ों में समेट कर तुम तक पहुंचा दिया है।

अच्छा हाँ सुनो तो:

मैं ये इकरार करता हूं और इज़हार करता हूं कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, बेहद, बहुत, हद से ज्यादा प्यार करता हूँ।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, मार्च 08, 2015

स्त्री













स्त्री होना, एक सहज सा
अनुभव है
क्यों, क्या
क्या वो सब है
कुछ नहीं
नारी के रूप को
सुन, गुन
मैं संतुष्ट नहीं था
बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका
इनका स्वरुप भी
कितना विस्तृत
हो सकता, जितना
ब्रह्मांड, का होता है
जब जाना, नारी 
उस वट वृक्ष
को जन्म देती है
जिसकी पूजा
संसार करता है
जिसकी जड़
इतनी विशाल होती है
कि जब थका मुसाफ़िर
उसके तले
विश्राम करता है
तब कुछ क्षण बाद ही
वो पाता है
शांति का प्रसाद
सुखांत, देता हुआ
उसकी शाखा को पाता है
हँसते हुए, उसके पत्तों को
प्रणय स्वरुप, उसकी जड़ों को

पृथ्वी ( स्त्री ) तू धन्य है
प्रत्येक पीड़ा को हरने वाले
वृक्ष की जननी
तू धन्य ही धन्य है
क्योंकि ये शक्ति आकाश ( पुरुष )
पर भी नहीं है
निर्मल, कोमल, अप्रतिबंधित प्रेम
एक अनोखी शक्ति है
जो एक निर्जीव प्राणी में
जीवन की चेतना का
संचार करती है
एक अनोखी दृष्टि का
जिसमें  ईश्वर
स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है |

उसका ( वात्सल्य, श्रृंगार, मित्रता, काम, वफ़ा, प्रीती )
ईश्वरीय दर्शन
'निर्जन' अब हर घड़ी हर पल चाहूँगा
जिससे कभी मैं अपने आप को
नहीं भूल पाऊंगा
क्योंकि मैं भी
स्नेह से बंधा, प्रेम को समेटे
सुख की नींद सोना चाहता हूँ

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मार्च 07, 2015

होली हो ली













होली
रंग बिरंगी
हो ली
मन मस्तिष्क को
रंगती हुई, आई
जीवन की होली
एक दिन हुई
होली में जीवन
एक दिन मिला
खुश हो गए
माता-पिता
बंधू बांधव
पर आज पुराने
जीवन की होली
फिर से खेली
नए बंधू के साथ
मौज मस्ती
की छीटें
सिन्धु से, ये
तकदीर का
तमाशा है 'निर्जन'
एक नट की तरह

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, फ़रवरी 27, 2015

कलि
















सूर्य की पहली रूपहली किरण
जब इस धरातल पर पड़ी
दमक उठा पर्वतों पर उसका सोना
झरनों नदियों में चमकी चांदी की लड़ी
उसके हँसते ही अंकुर भी लहलहा उठे
कलियों की आँखों में आया पानी
कहता है चमन 'निर्जन'
ऐ मुझे रौशन करने वाले ख़ुदा
अब कोई माली ही मुझे मिटाएगा
हर फूल को चमन से जुदा कराएगा
यूं तो आसमां भी तेरी मुट्ठी में है
चांद तारे भी तेरी जागीर हैं
ऐ मेरे! परवर-दिगार-ए-आलम
क्या ?
एक फूल की इतनी ही उम्र लिखी है
खिलता है ज्यों ही घड़ी भर को वो
उजड़ने की उसकी वो आख़िरी घड़ी है
कोई वहशी किस पल आएगा
ये सोच
आज कलि बेहोश पड़ी है

--- तुषार राज रस्तोगी ---