मेरी एक फेसबुक मित्र ने यह व्यंग चित्र साँझा करते हुए इसका विरोध
किया था और उनकी बात का समर्थन करते हुए मैं भी माता रानी का आहवान जोर से
नहीं प्रेम और श्रद्धा के साथ करता हूँ। इसी के साथ राजू राजेश शुक्ल के
बनाये इस व्यंग्य चित्र पर अपनी पुरज़ोर आपत्ति दर्ज करवाता हूँ और विरोध
करता हूँ। मेरी बात शायद बहुत से लोगों को बुरी लग जाए, हो सकता है कई
लोगों की जल जाए और वो राकेट बन जाएँ तथा कुछ लोग तो इस लेख के लिए मुझे
धिक्कारने भी लग जायेंगे। शायद भाग्वाकरणी, धर्मांध और कट्टरवादी जैसी
उपाधियों से सम्मानित भी करने लग जायेंगे। विपरीत राजनैतिक सोच वाले शायद
यहाँ भी मोदी साहब को इस से जोड़ कर टीका टिपण्णी करने से बाज़ नहीं आयेंगे
या अंधभक्त या कुछ और कहने लग जायेंगे तो कोई अचरज ना होग। आपने कबीरदास जी
का ये दोहा तो पढ़ा-सुना ही होगा -
कंकर पत्थर जोड़ कर, मस्जिद लई बनाये
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय
तो बांग देने की ये प्रथा यहाँ से शुरू हुई और देखा-देखि हिन्दूओं ने भी
मंदिरों में, पंडालों में, धर्म स्थलों में, गली मोहल्लों में
ध्वनिविस्तारक यंत्रों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। हालाँकि इनके प्रयोग
पर कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी जब तक इनकी कर्णफोडू आवाज़ से आम जनता को किसी
तरह का कोई नुक्सान नहीं था परन्तु समय के साथ गली मोहल्लों के आवारा,
निकम्मों और नाकारा मुर्गों ने इन आयोजनों को अपनी बेहूदगी की बांग और टांग
दोनों देना शुरू कर डाला। हर एक त्यौहार होली, दिवाली, गणपति पूजन,
नवरात्रे आदि जैसे श्रद्धा के मौकों पर अपनी बेहयाई का नंगा नाच शुरू कर
दिया। तेज़ आवाज़ में डीजे बजने लगे, लाउडस्पीकर चलने लगे, छिछोरे गानों की
तर्ज़ पर भजन-गीत-संगीत बजने लगे और मदिरापान कर लफ़नडर नाचने लगे। यहाँ तक
की कुछ तो अपनी ख़ुद की फटी आवाज़ में माइक पर चिल्ला-चिल्ला कर जनता का खून
पीने लगे। तो भाई मैं तो इतना ही कहना चाहूँगा के खरबूज़े को देखकर ही
खरबूज़ा रंग बदलता है पर यदि किसी सड़े हुए खरबूज़े को देखकर रंग बदलोगे तो
तुम भी सड़ोगे ही मेह्कोगे नहीं। सनातन धर्म में हाथ जोड़ श्रद्धा और शांति
के साथ प्रार्थना करना सिखाया गया है चिल्ला चिल्ला कर आसमान सर पर उठाना
नहीं।
परन्तु एक बात तो सर्वव्याप्त और सर्वविदित है इंसान भले ही
इस कुकृत्य से विचलित हो जाये, आग बबूला हो जाएं, आपा खो दें परन्तु यह सब
आँखों के सामने होता देखते हुए भी प्रभु की स्थापित प्रतिमा के चेहरे पर
नितांत प्रसन्नता के भाव ही होते हैं। उनके होठों पर सदैव मुस्कान ही छलकती
रहती है और इतना सहकर भी उनके आशीर्वाद का हाथ सभी प्रकार के
झंडूपंचारिष्टों पर समान बना रहता है। फिर क्यों इनके जैसे कलाकार
अभिव्यक्ति की छूट की आड़ में ऐसे वाहियात व्यंग चित्र बनाकर ख़ुद अपने ही
धर्म का अपमान करने में लगे रहते हैं। एक तरफ़ तो घटिया मानसिकता वाले
सेक्युलर वादी/वामपंथी/दो कौड़ी के मानवाधिकारवादी/ छद्म दिखावेबाज़ देश और
धर्म दोनों की हर तरफ़ से ख़ूब बजाने पर तुले हुए हैं और उसपर छौंक लगाने का
काम ऐसे कलाकार करते हैं। धिक्कार है ऐसी मानसिकता पर जो मातारानी को इतना
असहाय दर्शाती है। मातारानी शक्ति की प्रतीक हैं। ऐसी छोटी-मोटी बातों से
यदि वो विचलित होने लग गईं तो उन्हें माँ दुर्गा कौन कहेगा। वो जगत जननी
हैं इससे ज्यादा पीड़ा और दर्द का एहसास तो माताएं प्रसव के समय बर्दाश्त
करती हैं। यहाँ कलाकार ने माता के साथ नारी का भी मखौल बना कर रख दिया है।
यदि उन्होंने ज़रा सी फूँक भी मार दी तो समझो विश्व में प्रलय आ जाएगी। लगता
है ये महाशय चण्डिका और माँ काली को भूले बैठे हैं।
मेरे अनुसार
यहाँ देवी माँ के स्थान पर कोई प्रताड़ित साधारण मनुष्य होना चाहियें था और
देवी माँ उस पर अपना आशीर्वाद बनाते हुए मुस्कुरा रही हैं ऐसा होना चाहियें
था। मैं तो राजू से कहूँगा कि वो अपनी इस त्रुटी को सही करें और इस व्यंग
चित्र को इन्टरनेट और सभी जगहों से हटा लें। आप ख़ुद ही अपने आराध्य का ऐसे
अपमान क्यों कर रहे हैं? सवाल बस यही है - मातारानी ऐसी सोच वालों को
सद्बुद्धि प्रदान करें, ऐसी मेरी मनोकामना है, बाकी तो सब मोह-माया
है...ख़ुद की अक्ल लगाओ और ख़ुद ही जवाब पाओ। यदि आप समझदार हैं, तो समझे तो
ठीक समझे। नहीं समझे तो समय आने पर समझ जाओगे, और यदि समझने की गुंजाइश शेष
बची ही नही हो तो ज़ोर से बोलो जय माता दी - वो सबका भला करती हैं तुम्हारा
भी करेंगी।
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