रविवार, जून 28, 2015

किसकी सदा है













किसकी सदा है, ये किसकी सदा
गूंजती है मन में, ये झूमती है तन में
भेदती है आत्मा, तोड़ती है चेतना
धुआं धुआं कर, ह्रदय ये तप उठा
मीठा सा सन्नाटा, हर तरफ फूटता
तन-मन दोनों में, संतुलन है टूटता
अंतर्मन सब, खोने-पाने को मचल रहा
वादियों की कोख़ से, प्रेम रस बरस रहा
उजाला ये कब हुआ, मैं झरनों से पूछता
उत्तर पाते-पाते, ये ह्रदय रहेगा भीगता
रात के उजाले में, चाँद गीत सुना रहा
आसमां के तारों को, धरा पर घुमा रहा
अलसाई कलियों की, थाप सुनाई दे रही
मचलती उमीदें, जाग 'निर्जन' कह रहीं
दिशाएं भी चहक उठीं, आनंद नया पाया
आत्मा और पर्वतों का, दिल भी भर आया
दिन रात तपाया तन-मन को, इश्क़ से तब
बन कंचन प्रेम चमका जीवन के नभ पर
मेरे सूरज ओ मेरे सूरज, अब तू ही बता
ये किसकी सदा है, ये किसकी सदा

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, जून 24, 2015

ये ज़रूरी तो नहीं














ज़िन्दगी रो रो के बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं
आह का दिल पे असर हो ये ज़रूरी तो नहीं

नींद बेपरवाह हो काँटों पर भी आ सकती है
मख़मली आग़ोश हो हासिल ये ज़रूरी तो नहीं

ज़िन्दगी को खेल से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं
हर ग़म को मरहम मिल जाए ये ज़रूरी तो नहीं

मैं दुआओं में रब से क्यों मांगू उसको हर रोज़
वो मेरी थी, है औ सदा रहेगी ये ज़रूरी तो नहीं

मेरी दुनिया में बस उसकी ही कमी है 'निर्जन'
परवाह उसको भी मेरी हो ये ज़रूरी तो नहीं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

रविवार, जून 21, 2015

रहती है














लोग मिलते ही हैं औ महफ़िल भी जवां रहती है
वो साथ ना हो तो हुस्न-ए-शय में कमी रहती है

ग़रचे ये नहीं है ख़ुशी मनाने का मौसम तो फिर
जो ख़ुशी मनाऊं भी तो पलकों में नमी रहती है

हर किसी दिल में उफ़नता नहीं सर-ए-उल्फ़त
कुछ दिलों पर सदा गर्द-ए-मायूसी जमी रहती है

इश्क़ मसाफ़त-ए-हस्ती है ज़माने को क्या मालूम
कब तलक किसकी हमसफ़री हमक़दमी रहती है

तू भी उस हूरान-ए-ख़ुल्द पर फ़नाह है 'निर्जन'
जिसके लिए खुदा की धड़कन भी थमी रहती है

सर-ए-उल्फ़त - Madness for Love
गर्द-ए-मायूसी - Trifle of Sorrows
मसाफ़त-ए-हस्ती - Journey of Life
हूरान-ए-ख़ुल्द - Houris of Paradise


--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, जून 17, 2015

वो झाँसी की रानी थी



















बनारस में वो थी जन्मी, मनु सबकी दुलारी थी
मोरपंत, मां भागीरथी की, एकमात्र दुलारी थी

पिता छांव में बड़ी हुई, मां क्या है ना जानी थी
वीरांगना बन जाने की, बचपन से ही ठानी थी

हर कौशल में दक्ष रही, बहन नाना को प्यारी थी
राजा संग लगन हुआ, पर हाय भाग्य की मारी थी

सब गंवाकर भी अपना, हिम्मत ना उसने हारी थी
ज्वाला ह्रदय में रखकर, जिगर में भरी चिंगारी थी

सिंहनाद गर्जन कर वो, जब रणभूमि में हुंकारी थी
देह लौह जैसी थी उनकी, कर तलवार कटारी थी

छक्के दुश्मन के छूटे, बन चंडी जब ललकारी थी
शहादत दे अमर हुई वो, जां देश के लिए वारी थी

व्यक्तित्व अनूठा उनका, मन मोम की क्यारी थी
वीर सुपुत्री भारत माँ की, वो लक्ष्मीबाई न्यारी थी  

बुंदेले हरबोलों से सबने, उनकी सुनी कहानी थी
क्या खूब लड़ी थी मर्दानी, वो झाँसी की रानी थी

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, जून 12, 2015

अपना कहते मुझे हजारों में















जो वफ़ा होती खून के रिश्तों में बाक़ी
तो जज़्बात क्यों बिकते बाज़ारों में

जो हर कोई देता साथ ज़मानें में अपना
तो तनहा चांद ना होता सितारों में

जो हर गुल की ख़ुशबू लुभाती दिल को
तो गुलाब ख़ास ना होता बहारों में

जो मिले मौक़ा तुरंत नज़र बदलते हैं 
तो बात है ख़ास खुदगर्ज़ यारों में

बख़ुदा 'निर्जन' भी ख़ुशक़िस्मत होता
जो वो अपना कहते मुझे हजारों में

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, जून 06, 2015

दे देते














दिया पानी क्या आँखों का रवानी खून की देते
दिलाती याद उम्र भर निशानी दो जून की देते

जो देनी थी तो होठों की मुस्कराहट ही दे देते
कलाम-ए-पाक रच इश्क़ का तुम साथ दे देते

कोई यादों की नज़्म लिख ज़ुल्फ़ में टांक ही देते
बीते लम्हों की काट कर एक आदा फांक ही देते

छिपाकर दिल में जो संजोये वो एहसास दे देते
तनहा रातों की बेचैनी से भरे वो जज़्बात दे देते

देना ही था कुछ 'निर्जन' जिगर की आग दे देते
दम तोड़ती मोहब्बत का दीवान-ए-ख़ास दे देते

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, जून 01, 2015

हुस्न-ए-मुजस्सम









हुस्न-ए-मुजस्सम बेमिसाल है, तेरी नज़र
ये दरिया-चेहरा बा-कमाल है, तेरी नज़र

ये ज़ुल्फ़ें लब-ओ-रुख़्सार है, तेरी नज़र
बेनियाज़-ए-नाज़ वफ़ादार है, तेरी नज़र

पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है, तेरी नज़र
ख़ुदाया इज़हार-ए-अदावत है, तेरी नज़र

ला-फ़ानी पाकीज़ा अफ़कार है, तेरी नज़र
बा-अदब बेताब-ओ-बेक़रार है, तेरी नज़र

सवाल-ए-विसाल से इनकार है, तेरी नज़र
उल्फ़त-ए-देरीना से इक़रार है, तेरी नज़र

सरापा-ए-मोहब्बत ज़माल है, तेरी नज़र
ज़माना जो देगा वो मिसाल है, तेरी नज़र 

हुस्न-ए-मुजस्सम - Beauty incarnate
दरिया-चेहरा - River face
बा-कमाल - With perfection
लब-ओ-रुख़्सार - lips and cheeks
बेनियाज़-ए-नाज़ - ignorant of pampering
वफ़ादार - faithful, loyal, sincere
पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त - Form of beauty and delicacy, Subtlety
ख़ुदाया - O God
इज़हार-ए-अदावत - Expression of Enmity
ला-फ़ानी - Immortal
पाकीज़ा - Neat, Clean, Pure, Chaste
अफ़कार - Thought
बा-अदब - Respectful, Polite
बेताब-ओ-बेक़रार - Impatient and Restless
सवाल-ए-विसाल - Request for Union
सर-ए-उल्फ़त - Madness for Love
उल्फ़त-ए-देरीना - Love of a long time
सरापा - Delicate figure of a woman


--- तुषार राज रस्तोगी ---



शनिवार, मई 30, 2015

सोशल मीडिया वाले आशिक़







विंडो-ए-चैट में, आया नया बनफूल है,
हाय दिल मचल गया, तो मेरा क्या कुसूर है...

या फिर

मैं तेरा आशिक़ हूँ, तुझसे इश्क़ करना चाहता हूँ,
फेसबुक पर आकर मैं, डूब मरना चाहता हूँ...

या फिर

हम तो चोंचबाज़ हैं, सदियों पुराने,
हाय तू ना जाने, हाय तू ना माने,
हम तो चले आए हैं, तुझको बहकाने,
हाय तू ना जाने, हाय तू ना माने..

या फिर

दिल तो दिल है,
दिल को काबू,
क्या कीजे,
आ गया है,
तुम्ही पर बाबू,
क्या कीजे...

तो मेरे - जॉन जानी जनार्दन दोस्तों यही तो कहानी है आज के युग के ठसबुद्धि, मंदबुद्धि, स्वछंद विचारधारा वाले कुबुद्धिजीवी मनचलों के दिलों की भी।

"अरे...! हमार दिल है तुमसे क्या, तुम पर भी मचल सकता है और देखो तुम्हे भी रेस्पौंड तो करना ही होगा फिर तुम चाहे कोई भी हो, कहीं से भी हो, किसी की भी हो, कोई वांदा नहीं, बस नारी हो ना, यही बहुत है अपने लिए। मैं ना नहीं सुनूंगा - कहे देता हूँ। शीशे में तो तुम्हे मैं उतार ही लूँगा कैसे भी कर के, क्योंकि इतना रसूक और हुनर तो बना ही लिया है यहाँ आकर।"

जी हाँ मेहरबां, बिलकुल यही सोच तैयार हो रही है आजकल के उन नामर्द और दब्बू  सो कॉल्ड सेलेब्रिटी आशिक़ों के बीच जो महिलाओं को सिर्फ भोग की वस्तु मात्र समझते हैं और उनका शोषण करने का कोई भी मौका मिलने पर चूकना नहीं चाहते। फिर चाहे ज़रिया कोई भी क्यों ना हों इन्हें सब मंज़ूर है। शर्म, लाज, हया किस चिड़िया का नाम है? ये इन्होंने कभी ना तो सुना ही है ना इसके बारे में जानते हैं। इनको चौबीसों घंटे सिर्फ एक ही हुड़क लगी रहती है "टूट पड़ो" कैसे भी, कहीं भी - बस मिल जाए कोई। हवस की तलब ऐसे जानवरों के ह्रदय में बड़े गहरे में कुलबुलाती है। देह पाने और भोग करने की कसक इनकी सोचने की शक्ति को कसती जाती है । इन जैसों को बड़ी स्वाभाविक और कुदरती चाहत लगती है यह। कई तरह के विरोधाभासी अभावों के गलियारों में ही इनका दिल किलसता, बिलखता, चहल कदमी करता टहलता रहता है, और भूख का कीड़ा कहीं न कहीं हमेशा दिल-दिमाग में रेंगता ही रहता है। इनकी ख़ुमारी का मकोड़ा इनकी बेमतलब हसरतों की खुजली को इतना खरोंचता है कि उसके निशान गाहे-बगाहे इनकी शक्सियत में उभर ही आते हैं। ऐसे लोगों का समूचा तंत्र-प्रणाली सदा बिगड़ा और हिला ही रहता है। इनकी मानसिकता इनके जीवन पर हावी रहती है और हमेशा इनकी जीवन शैली को काम-भोग की इच्छा से प्रभावित करती रहती है। यह एक तरह के मानसिक रोगी होते हैं क्योंकि इनका मन, अस्तित्त्व, चरित्र, चित्त, बुद्धि, अहंकार, अन्नमय कोष, प्राणमय कोष और सोच कुछ भी इनके वश में नहीं होता। सब कुछ इनके हाथ से निकला हुआ होता है। इनके कामुक स्वभाव के भयंकर मनोविकार के ज़लज़ले में इनके विक्षिप्त व्यक्तित्व की चूलें हिल चुकी होती है। यह एकतरफ़ा आग में जलने वाले होते हैं। ऐसे प्लेटोनिक प्रेमी बड़े ही घातक साबित हो सकते हैं। कोई स्त्री यदि इनसे हंसकर बात कर ले तो इनकी इन्द्रियां तुरंत जागृत हो जाती हैं और यह अपने ही बनाए और बुने सपनो के तरंग-भाव के आवेग और आवेश में उड़ने लग जाते हैं। अपनी ही दलदली सोच में गोते लगाकर इनका पाव-डेढ़ पाव खून भी बढ़ जाता है। इनका एकतरफ़ा सो कॉल्ड रोमांस इनकी नज़र में परवान चढ़ने लग जाता है और यह अपने को उम्दा क्वालिटी का आशिक़ प्रोजेक्ट करने के लिए किसी के भी साथ बातचीत में अचानक से वेटिंग फॉर इट, आई वांट टू किस यू, आई लव यू, किस मी, वांट इट, गोइंग फॉर इट, ईटिंग, ईटन, नाऊ इन्सरटिंग, नाउ एजेक्टिंग और भी बहुत सी बेकार वाली अनाप-शनाप बकर-बकर करने लग पड़ते हैं जिससे इनकी दिमाग़ी कामोत्तेजकता शांत होने का एहसास देती है। आचरण के अनुसार कहें तो ऐसे लोगों के मन को अश्लीलता ने ऐसे कब्ज़ा लिया होता है कि शिलाजीत पे शिलाजीत, वयाग्रा पे वयाग्रा सटके जा रहे होते हैं और फिर भी इनके अन्दर अकाल बना रहता है, सूखी रेत से भरे रेगिस्तान में टहलते घूमते फिरते रहते हैं फिर भी - काम नहीं बनता। अजी हुज़ूर समझ जाइए संस्कृत वाला 'काम' - हिंदी वाला नहीं।...  ;)

मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे लोग भीतर से खोखले और शोर करने वाले ढपोलशंख भर होते है। ये सारा जीवन एक मुखौटा पहन कर जीते हैं और ये सारा झमेला, झंझट, अच्छाई का नाटक, नौटंकी बस बिस्तर तक पहुंचने की ही कवायद है। कोई यदि इनसे बात करता है या दोस्त बनता है तो वो अपने मन को और खुद को ही बेवकूफ बनाता रहता है इनके जैसों की दोस्ती के नाम पर। वो समझ नहीं पाता कि यह पाखंड की गहरी साज़िश है, एक मासूम इंसान को बहकाने के लिए और उसकी मासूमियत से खिलवाड़ करने के लिए। मैं यह कहता हूँ कि यदि अंत में यही सब करने की मंशा होती है तो फिर इतना ड्रामा क्यों करते हैं बड़े मियां - जिगरा है तो खुल्लमखुल्ला अभिव्यक्ति कीजिये - इश्क़-रोमांस, अच्छाई-भलाई की बीमारी को एक साइड कीजिये और हिम्मत हौंसले के साथ अपने विचार सबके सामने रखिये। बिलकुल प्यार और दोस्ती की वही ख़ूबसूरत सी बीमारी जो अक्सर पागलपंती में तब्दील हो जाया करती है और जिसकी धज्जियाँ ऐसे लोग अपनी अहमकाना हरकतों उड़ाते हैं, जिन्हें ना तो इश्क़ का मतलब मालूम होता है ना दोस्ती का। असल ज़िन्दगी में तो फिर बड़े ही सड़ियल और अनरोमांटिक नेचर वाले होते होंगे ये - तो काहे बेकार में इतनी शेरो-शायरी करते हैं, कविताबाज़ी करते हैं, दिल जलाते हैं, किताबें छपवाते हैं, गाल बजाते हैं - साला पहले पता हो एंड रिजल्ट ऐसा निकलता है असल में तो इन जैसों को सीधा शुरू से 'बीड़ी जलाइले जिगर से गधे, जिगर मां बड़ी आग है ' और 'कभी कैच किया रे कभी छोड़ दिया रे' सुनकर जुतिया जाए और सर गंजा कर दिया जाए मार-मार कर।

इनके पास माया है, मोहिनी भी और ज़माने के सामने निजी जीवन में ये उनके नटखट हीरो बनकर रहते हैं पर वहीँ इनके भीतर तड़पता रहता है एक बड़ा सा अजगर जो किसी की भी सुन्दर-औसत तस्वीर, गोरी-काली-भूरी चमड़ी, मनमोहक आवाज़, खिलखिलाती हंसी, नव यौवन, मध्य आयु, अधेड़ उम्र की औरत फिर चाहे वो अकेली हो, किसी की बहन, बीवी, बेटी, माँ, भाभी आदि कुछ भी हो को अपने झांसे में लेने की फ़िराक में रहता है, निगलने की मंशा के साथ अपने मद की प्यास में लिप्त, चिपचिपी लार बार-बार, लगातार हर जगह टपकाता रेंगता फिरता है। उसकी निगाहें अपने शिकार को हर पर तलाशती रहती हैं और इसी ताक़ में रहती हैं कब, कैसे, किस तरह उसे अपने चंगुल में जकड़ कर दबोच सके। समाज के बीच वो एक प्रतिष्ठित पुतला बनकर निवास करता है, परन्तु अकेले में वो एक आदमखोर होता है जो सिर्फ औरतों को अपना शिकार बनाता है। आजकल की सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी ने ऐसे आदमज़ात भेड़ियों का काम और भी आसां बना दिया है, फिर चाहे लिंक्डइन, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि कोई भी माध्यम हो महिलाएं बदतमीज़ी, शाब्दिक शोषण, बदसुलूकी, फितरेबाज़ी और भी ना जाने कौन कौन से तरीकों की परेशानी से अछूती नहीं रही हैं। हर पल दस में से नौ गिद्ध उन्हें दबोचने के लिए जाल बिछाए बैठे रहते है। दोस्ती करने के नाम पर अश्लीलता, फूहड़ता, निजी ज़िन्दगी में तांक-झाँक, शारीरिक लिप्सा, मानसिक शोषण और ऐसे ही कितने तरीको से उनकी आत्मा को आहत किया जाता है। कुछ तो यह सब ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लेती हैं और कुछ विद्रोह कर ऐसे समाज के सम्माननीय लफंडरों का पर्दाफ़ाश करती नज़र आती हैं। मुझे गर्व होता है उन वीरांगनाओं पर जो ऐसी घटनाओं के पश्चात अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं और ऐसे सामाजिक कीड़ों को उनके अंजाम तक पहुंचाती हैं।

यह एक बेहद गंभीर और चिंता का विषय है और मेरा ऐसा मानना है कि इसके लिए हम सबको मिलकर आवाज़ उठानी चाहियें और आगे ऐसी घटनाएँ कम से कम देखने-सुनने में आयें उसके लिए कुछ कड़े कदम उठाने चाहियें। जो लोग महिलाओं के साथ ऐसा अभद्र दुर्व्यवहार करते हैं उनका सोशल मीडिया से तो बहिष्कार करना ही चाहिए, उनका मुंह काला कर खच्चर पर सवारी करा कर, जूतों का हार पहना कर, काँटों से ताजपोशी कर सारे नगर में भी घुमाना चाहियें और ख़ास तौर पर उनके अपने परिवारजन के सामने उनका असली चेहरा लाकर उन्हें सरेआम नंगा करना चाहियें जिनकी आँखों में धुल झोंक कर वो आज तक ऐसे काम करते आए हैं। अभी कुछ समय पहले मैंने ऐसे ही पहलु पर चिंता व्यक्त करते हुए एक कविता का सृजन किया था वो आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ मेरे इस लेख और कविता से कुछ प्रतिशत महिलाओं में तो जाग्रति का संचार होगा और वो अपने साथ होने वाली ना-इंसाफी और ऐसा ओछा व्यवहार करने वाले के खिलाफ मोर्चा खोलती नज़र आएँगी।

कविता पढ़ने के लिये कृपया इस लिंक पर क्लिक करें :

http://tamasha-e-zindagi.blogspot.in/2015/04/blog-post_13.html

सोमवार, मई 25, 2015

सज़ा



















आज अपने दिल को सज़ा दी मैंने
पुरानी हर याद-बात भुला दी मैंने

बातें जिनपर वो खिलखिलाती थी
ज़हन से अल्फ़ाज़ मिटा दिए मैंने

बीता हर पल दफ़न कर दिया मैंने
गुलदस्ता यादों का जला दिया मैंने

दिल ये फिर खाख से आबाद हुआ
आतिश-ए-दिल को जला दिया मैंने

यादों की मज़ार पर फिर आई थी वो
मुंह फेर अजनबी उसे बना दिया मैंने

रिश्ता कोई नहीं दरमियां बाक़ी 'निर्जन'
एक नया रिश्ता ख़ुशी से बना लिया मैंने

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, मई 09, 2015

उस रोज़












मुस्कुराते गुलाबों की महक वैसी ना होगी
तेरी शोख हंसी की खनक वैसी ना होगी

तितलियों जैसी शोख़ी तेरी वैसी ना होगी
ख्व़ाब लिए नैनों की चमक वैसी ना होगी

तेरी मीठी बोली की चहक वैसी ना होगी
अल्हड़ जवानी की छनक वैसी ना होगी

उस रोज़ तू होगी मगर ऐसी तो ना होगी

चांदी जैसे बालों से सर तेरा सजा होगा
दमकते चेहरे पर सिलवट का समां होगा

करारी इस बोली से गला तेरा रुंधा होगा
सूरज सी निगाहों पर चश्मे भी जमा होगा

तेज़ क़दमों में तेरे सुस्ती का आलम होगा
थक कर चूर पसीने में भीगा दामन होगा

उस रोज़ तू होगी मगर शायद ऐसी होगी

मगर उन सिलवटों में नूर तेरा यही होगा
ढ़लती आँखों में भी जवां इश्क यही होगा

सुस्त कदम सही मुझ तक ही आना होगा
गला रुंधा सही मुझे से ही बतियाना होगा

दिल से देखा सपना मेरा तब भी पूरा होगा
सांझ ढले मेरे हाथों में बस हाथ तेरा होगा

उस रोज़ भी तू ही होगी साथ तेरा मेरा होगा
तेरा और मेरा यह अब जन्मो का नाता होगा

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शनिवार, अप्रैल 25, 2015

"हम" - एक सूर्योदय

इस तेज़ी से विकसित होती संभ्रांत और शिष्टाचारी नस्ल में बहुत से ऐसे शब्द हैं जिन्हें रोज़मर्रा की बोलचाल वाली ज़िन्दगी में यदा-कदा ही तवज्जो मिलती होगी। ऐसे असंख्य वचनों की श्रृंखला में कुछ ऐसे भी होते हैं जो दिल को छू जाते हैं और अपने वशीभूत कर मोहित कर लेते हैं। प्राय: उन्हें हम बातों में एक आदत के रूप में प्रयोग तो करते हैं परन्तु उनके कारण जीवन में उत्पन्न होने वाली सृजनात्मक शक्ति और उर्जा को कभी पहचान नहीं पाते। मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे शब्दों के महत्त्व को उजागर करना बेहद ज़रूरी है, उनमें से दो शब्द 'मैं' और 'तुम' हैं - जब ये दो एक साथ मिलते हैं तब एक एतिहासिक, ओजस्वी, विकासशील और अपनत्व से लबरेज़ शब्द की रचना होती है जिसे कहा जाता है - 'हम'...

"हम" वैसे हौले से बुदबुदाये 'अगर' से ज्यादा कुछ नहीं है। या फिर काले घने अंधकार में बने धुंए के छल्ले की तरह है। यह पानी के होंठ पर उफ़नते साबुन के बुलबुले की भाँती है
यह तार्रुफ़ के नक़ाब के ज़रिए से स्पर्श और अनुभव करती चमकदार चमचमाती आँखें और लजाती उँगलियाँ है। "हम" पास-पास पर अलग-अलग, मगर फिर भी एक साथ, कंधे से कन्धा मिलाकर दौड़ती अलैदा क़िताबों का, गलियारा है, जो कभी एक दुसरे को पुकारते नहीं हैं परन्तु फिर भी एक दूजे की गूँज की अनुगूंज के कंपन में अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं। "हम" वो अजनबी है, जो अनजान होकर भी किसी के लिए अपरिचित नहीं है। एक परतदार कागज़ के टुकड़े पर अस्पष्ट लिखे वादे की तरह जिसे रात के अंधरे में दरवाज़े की दरार के बीचो-बीच धीरे से खिसका कर दुबका दिया गया है।

हमारे दरमियां आनंददायक चमकदार इन्द्रधनुषी संभावनाओं का सजीला संसार पनप रहा है, हमारी सजग आँखें स्पष्ट रूप से एक दुसरे के इर्द-गिर्द नृत्य का आनंद प्राप्त कर रही हैं। हमें एक ऐसे कमरे में धकेल दिया गया है जहाँ सूरज की किरणों की धुल छन-छन कर चहक रही है, होठ हथेलियों का रूप बना दुआ कर रहे हैं, उँगलियाँ सियाह काले गहरे तेल के छल्लों में फँसी हैं और धुंधले पड़ते गड्ढेदार गालों को तलाश रही हैं। शब्दों और शब्दांश के घुमावदार चक्रव्यू से भविष्य उधड़ रहा है, क्षणभर में सब कुछ बिख़र जाता है और हम सोचते हैं, हमें सब ज्ञात है कि हमारी ज़िन्दगी कहाँ, कब और कैसे आगे जाएगी।

हमारा पूरा वजूद एक परछाई के आगे छलांग लगाने की कोशिश में लगा है वो भी एक ऐसी शक्ति के साथ जो हर उस चीज़ को रौंदकर आगे बढ़ जाएगी जिसे कभी हमने सच समझा होगा। हमें अभी भी हमारे पैर नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों एक साथ उन्हें तलाश करने में जुटे हैं, लड़खड़ाते लुढ़कते कमज़ोर घुटनों और छिलते-छिपटे-चिरते टखनों के साथ ठोकरें खाते हुए, हँसते हुए उन्हें एक साथ खोज रहे हैं क्योंकि इसमें ना तो कुछ नया है और ना ही कुछ पुराना। हम तो बस अपने मिज़ाज, मनोभाव, धड़कन, नब्ज और नाड़ी के स्पंदन को दर्ज कर रहे हैं और उन्हें पूरी रात नाचने के लिए पुनरावृत्ति पर रख रहे हैं।

और अचानक, समस्त संसार में सबसे ख़ूबसूरत लफ्ज़ है 'यदि'... यकायक, सबसे आकर्षक, उत्कृष्ट, दिव्य, रमणीय शायद समूचे विश्वलोक में "हम" है।

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

माई बैटर हाफ़ - वो कहाँ है ?

उसके हाथ अब पहले जैसे दोषरहित नहीं रहे। उसके नाख़ूनों की शेप भी पहले जैसी नहीं रही और उनकी चमक भी फीकी पड़ गई है। वो घिस चुके हैं, ऊपर से थोड़े झुर्रीदार, बेहद थके-थके और पुराने से लगने लगे हैं। उसके नाख़ून एक दम सही तरह से कटे हुए हैं, पर उन पर अब कोई पॉलिश या नख प्रसाधन वो पहले जैसा आकर्षण और लावण्य नहीं ला पाते हैं।

उसकी ज़ुल्फ़ें अब नागिन सी लहराती लम्बी नहीं रहीं, ना ही लटें अब घनी घुमावदार पूरी तरह से गोल छल्ले बनाती दिखाई पड़ती हैं। अब तो ज़्यादातर बड़ी ही बेरहमी और लापरवाही के साथ क्लचर से बंधी नज़र आती हैं।

आज उसके होठों पर सारा दिन नम करने वाली चमकीली ग्लॉस की परत दिखाई देती है बनिज्बत उस मलाईदार लिपस्टिक की ख़ुशबू के जो सूरज की गर्मी में पके फल जैसी महक बिखेरती थी।

उसकी वो लोचदार वक्राकार सुन्दरता आज लुभाने के लिए नहीं परन्तु अब उसके शरीर के अनुपात के अनुसार बढ़कर सुख और हिफ़ाज़त देने के लिए ढल गई है।

पर उसकी नज़रों में आज भी वही चमक, चिंगारी, जोश, जीवंतता, हाज़िरजवाबी और शोभा कूट-कूट कर भरी हुई है और वो पहले से भी ज्यादा सजीव, स्पष्ट, उत्साहपूर्ण, तीक्ष्ण, दिलचस्प, रंगीन और रोचक हो गईं हैं। उसकी हंसी का संगीत चांदी की घंटी की खनखनाहट की तरह पूरे घर में भर जाता है, और फिर गुंजन कर बजता हुआ खिड़कीयों और दरवाज़ों से बहार निकल जाता है और सूरज की धुप बन घर में वापस आ जाता है।

हाँ! शायद यह वो लड़की नहीं है जिसे बरसों पहले घर ब्याह कर लाया था...पर यह वो स्त्री है जो हमेशा हर मुश्किल में साथ रही, भीषण तूफ़ान और तपती गर्मी भी उसके इरादों को डिगा नहीं पाए। जो हर परिस्थिति में हाथ थामे डटी रही जैसे असली हंसी तब्दील हो जाती है दाँतों के डाक्टर के चक्कर काटने में। जैसे खेल-कूद वाला जूता जॉगिंग वाले जूतों में बदल जाता हैं और फिर पैदल चलते समय पहनने वाले में...कुछ ही वर्षों में जैसे साइज़ मीडियम से बदलकर लार्ज और फिर एक्स्ट्रा लार्ज हो जाया करता है और बालों को संवारने वाली जैल, सफ़ेद होते बालों को छिपाने के लिए बालों वाले रंग में तब्दील हो जाती है।

यही है वो जो अनगिनत खूबसूरत जंगों और संजीदा वाद-विवादों के साथ, रूठने से ज्यादा मनाने के साथ, सिनेमाघर से ज्यादा बाज़ार के चक्कर लगाने के साथ, खाना पकाने की विधि पर ज्यादा ध्यान ना देकर अपने सहजज्ञान और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार लाजवाब खाना बनाने की कला में निपुण होने के साथ, गुस्से से कहीं ज्यादा हंसी मज़ाक के साथ, अड़ियलपन से ज्यादा समझदारी के साथ, मक्कारों से बचकर सूझ-बूझ के साथ, अपने अपनों को दूसरों की नज़र से बचाने के साथ, ख़ुद से पहले परिवार को खिलाने के साथ, लड़की से औरत बनी है।

यह वही महिला है जिसकी झुर्रियां, मुरझाई त्वचा, लापरवाह बाल, अस्त-व्यस्त वेशभूषा, पसीने में लथ-पथ पल्लू, बिखरती-संभालती साड़ी, ज़िन्दगी में भागम-भाग और कभी-कभी साफ़ कटे नाखून कहते हैं - "मैंने इस चार दीवारी को मकां से घर बनाया है और अपने अस्तित्व के बाहर एक जीवन अपनाया है।" - वही है साया, साथी, शरीक़-ए-हयात, हमदम, ज़िन्दगी, बंदगी, चैन-ओ-सुकूं-औ-क़रार, जीवन का प्यार, रिश्ते का सार...गुड, बेटर, बेस्ट हाफ...

माई बैटर हाफ...ढूंढता हूँ...वो कौन है और कहाँ है ?...कहीं तो होगी...शायद मिल जाए...!

--- तुषार रस्तोगी ---