गुरुवार, सितंबर 18, 2014

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी

आहिस्ता गुज़र ए ज़िन्दगी,
कुछ यादें पुरानी बाक़ी हैं
कुछ ख़ुशी लुटानी बाक़ी हैं,
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाक़ी हैं,
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी हैं,
कुछ ग़म छिपाने बाक़ी हैं,
कुछ ज़ख्म मिटने बाक़ी हैं,
कुछ नगमे सुनाने बाक़ी हैं,
कुछ किस्से बताने बाक़ी हैं,
कुछ मुझमें थोडा बाक़ी है,
कुछ उनमें थोडा बाक़ी है,
ज़िन्दगी की दौड़ में 'निर्जन'
सच कितनी आपा-धापी है
आहिस्ता गुज़र.....

--- तुषार राज रस्तोगी ---

मंगलवार, सितंबर 16, 2014

मानव - मानवता



















बढ़ा हाथों को अपने झुका दो आसमां धरती पर
चीर सीना पाषाण का नदियाँ बहा दो पृथ्वी पर
थरथरा दो सब दिशाएं तुम्हारी एक हुंकार पर 
प्राणों की आहुति सजा दो माटी की पुकार पर

प्रतिरोध कोई आड़े ना आए राह में बढ़ने पर
पाठ मुश्किलों को पढ़ा दो ठोकरों की मार पर
सफलता कभी मिलती नहीं है यारों मांगने पर
जीत को महबूबा बना लो खेल अपने मान पर

कोई हँसे ना अमन और शांति की बातों पर
दुश्मनों को ये बता दो एक ही ललकार पर
डरना फितरत में नहीं है शांति के नाम पर
डर को आईना दिखा दो क्रान्ति के दाम पर

फूल बंजर में खिला दो पृथ्वी के हर कोने पर
मेहनत कर सोना उगा दो खेतों की छाती पर
अब तो ज़रा मरहम लगा दो देश के ज़ख्मो पर
अब तो भरोसा जगा दो इंसानों का इंसानों पर

भेद-भाव को त्याग भाईचारे को अपनाने पर
जनता के ह्रदय में प्यार का भाव जगाने पर
जाति,ऊँच,नीच,भाषा,धर्म की बेडी तोड़ने पर
'निर्जन' देता ज़ोर मानव को मानवता से जोड़ने पर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, सितंबर 12, 2014

मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे


तुम बन गई हो स्वभाव मेरा
तुम से जीवन है ख़ास मेरा
तुम अब रोजमर्रा की आदत हो
तुम ख़ुदा के मानिंद इबादत हो
तुम बेस्वाद ज़िन्दगी में स्वाद हो
तुम विनोदी घटनाओं में ख़ास हो
तुम मज़ेदार कहानी सा किस्सा हो
तुम ज़ोरदार लतीफ़े का हिस्सा हो 
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

कितनी ही बातें की हैं मैंने तुमसे
कितने जज़्बे, इरादे कहे हैं तुमसे
कितने दर्द सहे हैं रहकर दूर तुमसे
कितनी ही बातें अनकही हैं तुमसे
कितने अरमां बाक़ी है कहने तुमसे
कितनी अधूरी है जुदा ज़िन्दगी तुमसे
कितनी उन्सियत है दिल को तुमसे
कितना भी कहूँ हमेशा कम है तुमसे
तुम ही कहो ना परमप्रिय
मुझे इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

साथ हमने जीवन का रंग देखा है
साथ तुम्हारे हर मौसम चहका है
साथ तुम्हारा महकती कस्तूरी है
साथ नहीं जो ये ज़िन्दगी अधूरी है
साथ चलते शाम-ए-हयात आएगी
साथ मोहब्बत का पैग़ाम लाएगी
साथ का तेरे यकीन है हमदम
साथ हर पल है तेरे प्यार का बंधन
तुम ही कहो ना परमप्रिय
'निर्जन' इश्क़ क्यों न हो जाए तुमसे

--- तुषार राज रस्तोगी ---

सोमवार, सितंबर 08, 2014

कल्पना तू ही
















तुझसे हैं सुबहें मेरी
तुझेसे ही शामें मेरी
तुझसे रातें दहकती मेरी
तुझसे हैं बातें मेरी
जिस्म में दिल की जगह
अब तू ही तू धड़कती है
आईना देखूं जो मैं
मेरे अक्स में तू झलकती है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं
जो तू है तो सब कुछ यहीं
तेरा हूँ मैं और तू मेरी
‘निर्जन’ की है कल्पना तू ही
तुझसे हैं...


--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, अगस्त 29, 2014

मेरा अंदाज़ नहीं














मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं 
मालूम है, दूर तक कोई आवाज़ नहीं
मालूम है, अनजाने ये हालात नहीं
ये तो वक़्त ने ऐसी हालत कर दी है
नहीं तो ऐसे जीना मेरा अंदाज़ नहीं

सवेरा कब हो चला कुछ मालूम नहीं
शाम कब ढल गई कुछ मालूम नहीं
गुज़ारा कैसे हुआ कुछ मालूम नहीं
ये तो सोना जागना ऐसे हो गया है
नहीं तो ऐसे घुलना मेरा अंदाज़ नहीं

मालूम है, दूर तक आज रौशनी नहीं
मालूम है , रहता बहुत कुछ याद नहीं
मालूम है, मैं हूँ आज भी गलत नहीं
ये तो ज़माना है जो बातें बनाता रहता है 
नहीं तो ऐसी बर्बादी मेरा अंदाज़ नहीं

ये वक़्त भी निकल जायेगा 'निर्जन'
क्योंकि घने अँधेरे के बाद सुबह नहीं
ईश्वर ने बनाई ऐसी कोई रात नहीं
मालूम है, आज कोई मेरे साथ नहीं 
नाराज़गी अपनों से मेरा अंदाज़ नहीं

--- तुषार राज रस्तोगी ---

गुरुवार, अगस्त 28, 2014

जानबूझकर















सिलसिला-ए-गुफ़्तगू चलता रहा तुमसे
इत्तफ़ाक नहीं करता था मैं जानबूझकर

साथ चलते यूँ ही छू जाता है हाथ तुमसे 
या तुम छू लेती हो मेरा हाथ जानबूझकर

जानता हूँ सड़क पर चलना आता है तुमसे 
थामता हूँ हाथ तुम्हारा मैं भी जानबूझकर

बस गुज़र रहा था, मिलने चला आया तुमसे
मुलाकातें चाहता हूँ मैं मुसल्सल जानबूझकर

'निर्जन' हाल-ए-दिल मेरा छिपा नहीं है तुमसे
ना जाने क्यों करता हूँ इनकार मैं जानबूझकर

--- तुषार राज रस्तोगी ---

बुधवार, अगस्त 27, 2014

सच्ची सकारात्मक सोच

सोच बदलेगी, किस्मत बदल जाएगी
नज़र बदलेगी, नेमत बदल जाएगी
आसमां पाना हो, तो परवाज़ मत बदलना
परवाज़ बदलोगे, तो हवाएं बदल जाएँगी

हमारी प्रजाति मनुष्य की है। यह सोच का कीटाणु केवल हम मनुष्यों में विद्यमान है। यह कीटाणु कभी सकारात्मक होता है कभी बहुत ही विध्वंसक होता है। इस पर किसी का ज़ोर नहीं होता, परन्तु इसके आधार पर यह सीखा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सोच को यदि बुद्धिमानी से नियंत्रित करे तो वह एक सफल जीवन यापन कर सकता है और जीवन में सफलताओं और असफलताओं से ऊपर उठ सकता है। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति के जीवन में सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह शक्ति इसे जानवरों से मुख़्तलिफ़ करती है। सोच का मनुष्य के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। यही कारण है कि इंसान के विचारों को कैसा होना चाहिए, उसे कैसे व्यवस्थित करना चाहिए और उसके मन पर विशेष विचार का प्रभाव कैसे पड़ता है? यह मनुष्य स्वयं ही निर्धारित करे तो बेहतर है नहीं तो उसमें और कुत्ते की पूँछ में क्या फ़र्क रह जायेगा।

मैंने सुना था "ज़िन्दगी में हम जो भी कार्य करते हैं या जैसा भी बनते हैं उसके पीछे हमारा स्वाभाव, हमारे संस्कार तथा हमारी संगत आर्थात हमारे यार-दोस्त या रिश्ते-नातेदार जिनकी सोहबत में हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिताते हैं, का गहरा प्रभाव होता है" लेकिन जिस दिन आप अपनी सोच से अपने जीवन के फैसले खुद लेने लग जाते हैं उस क्षण के पश्चात् से यह प्रभाव, यह स्वाभाव, यह संस्कार और उस सांगत का कोई भी असर आपके ऊपर नहीं रहता। आपकी सोच अपने में इतनी सशक्त हो जाती है जो ना आपको बहकने देती है, ना बदलने, और ना अपने लक्ष्य से डिगने देती है।

इंसान जैसी सोच रखता है वैसा ही बन जाता है । सोच वही होती है जैसा हमारा मस्तिष्क आचरण करता है, जैसा हम करना चाहते हैं और उसे पूर्ण करने हेतु जो रास्ता हम अख्त्यार करते हैं । सच कहूँ तो वही हमारा वास्तविक स्वाभाव होता है और अंत में हम अपनी सोच के अनुरूप ढल जाते हैं । अगर पंक्तियों के माध्यम से अपने इस भाव को व्यक्त करना चाहूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि :

जैसा सोचोगे, वैसा बोलोगे
जैसा बोलोगे, वैसे करोगे
जैसा करोगे, वैसी आदत बनेगी
जैसी आदत होगी, वैसा चरित्र बनेगा
जैसा चरित्र बनेगा, वैसा जीवन आधार बनेगा
जैसा जीवन आधार बनेगा, वैसी ख्याति होगी
जैसी ख्याति होगी, वैसा वर्तमान होगा
जैसा वर्तमान होगा, वैसा भविष्य होगा

सोच यूँ तो बहुरूपी है परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यह दो ही रूपों में समाहित है - सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच

यदा-कदा हम आपस में तर्क-वितर्क करने बैठ जाया करते हैं परन्तु अंत में वह बहस तर्क-कुतर्क में बदल जाती है और आपसी मतभेद और झगड़े-फ़साद की जड बन जाती है। उस समय इंसान और कुत्ता-बिल्ली में कोई फ़र्क नहीं रहता। अब तो तर्क-वितर्क सिर्फ नाम के रह गए हैं असल में तो तर्क-कुतर्क ही सोच के नए रूप हो गए हैं। कुतार्किक सोच, सोच का एक आधुनिक रूप है, और मैं ऐसा मानता हूँ कि यह एक (अस्वाभाविक) तरीका है। यहाँ सोच और संगत कर रही बातों के बीच के संबंध को हम सांसारिक रूप के अनुसार सोच कर पारंपरिक तरीके का नाटक करने के लिए औपचारिक तर्क के नियमों को दर्शाते हैं। ज्ञान भले ही अधूरा हो, हो न हो पर आडम्बर, ज़िद और बहस पूरा होता है। आजकल इस मॉडर्न सोच का बहुत प्रचलन देखने को मिलता है। जिसे देखो अपनी बात का ढ़ोल बजकर या सोच की पुष्टि हेतु तर्क देता नज़र आता है फिर वो तर्क भले ही ग़लत क्यों न हो, ऐसे में व्यक्ति को लगने लगता है वह ही आइन्स्टाइन का पड़पोता है या न्यूटन का तोता है। अक्सर बैठकों, गोष्ठी, सभाओं और सम्मेलनों इत्यादि में डंडीमार सोच या भांजिमार सोच वाले सूरमाओं को देखा गया है यह वो कौम होती है जो कभी भी सकारात्मक सोच से इत्तेफ़ाक नहीं करती हमेशा उसकी काट में लगी रहती है। इनके कारण कई बार कुछ समय के लिए अच्छी सोच वाले लोग भी बहक जाया करते और बनते काम बिगड़ जाया करते हैं। खुदा लानत भेजे ऐसे चिल्गोज़ों पर जो न खुद की सोच रखते हैं न किसी और की ज़हीन सोच का एहतराम करते हैं।

इसी तरह सोच के कई अन्य रूप भी सामने आये हैं जैसे - सोशल मीडिया सोच, टीवी सीरियल सोच, बड्बोली सोच, कामचोर की सोच, गधे की सोच, नेता की सोच, चाटुकार की सोच, बच्चे की सोच, बूढ़े की सोच, आशिक़ की सोच, माशूक की सोच, बीवी की सोच, पति की सोच, सास-बहु की सोच, पति-ससुर की सोच, जोरू के गुलाम की सोच, आवाम की सोच, बद की सोच, बदनाम की सोच, छिछोरे की सोच, बेटे की सोच, बेटी की सोच, अनाड़ी की सोच, खिलाड़ी की सोच, अफ़सर की सोच, नौकर की सोच, सफल की सोच, असफल की सोच, भिखारी की सोच, पूंजीवादी की सोच, विभीषण की सोच, सिपाही की सोच, दार्शनिक सोच, काल्पनिक सोच, विरोधाभासी सोच, सुसंगत सोच, कुसंगत सोच, संरचित सोच, सबूत के आधार पर सोच, अवधारणा आधारित सोच, न्यायपूर्ण सोच, तुलनात्मक सोच, स्पष्ट सोच, अस्पष्ट सोच, विश्लेषण सोच, संश्लेषण सोच, आलोचनात्मक सोच, सामान्यीकरण सोच, अमूर्त सोच (सार सोच) और अन्य कई प्रकार की सोच जिनकी क्षमता मनुष्य के मस्तिष्क में है क्योंकि सोच की हद तक कोई नहीं जा सकता और किसकी सोच किस हद तक जा सकती है यह कोई नहीं बता सकता। कहने को इनके रूप अनेक हैं परन्तु इनकी मुख्य श्रेणी यही दो हैं। सोच के इन विभिन्न रूपों के गुण-अवगुण जानकर उपयोग करने के पीछे ज़िम्मेदार केवल मनुष्य और उसका मस्तिष्क ही होता है। मुझे ऐसा लगता है सोच हमेशा सम होनी चाहियें। सभी पक्षों, परिस्थितियों, प्रभावों, परिणामो और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को बनाना चाहियें। सोच का दायरा सीमित नहीं असीमित होना चाहियें लेकिन सही दिशा में और सकारात्मक विचारधारा के साथ।

सकारात्मक सोच हमको ऊर्जा प्रदान करती है और हमारी गुप्त क्षमताओं को उजागर करती हैं। यह विचारधारा अवसरों के संबंध में चेतना में वृद्धि करती है। अच्छी सोच हमारे जीवन के अंधकारमय आयामों को प्रकाशमय करती है और हमारे अस्तित्व में गुप्त आयामों को स्पष्ट करती हैं। अच्छी सोच रखने वाला व्यक्ति घटनाओं की आशाजनक व्याख्या करता है और उसकी अच्छाइयों का पता लगाता है और रचनात्मक समाधान के मार्ग को पा लेता है जिसे ग़लत सोच रखने वाला समझ भी नहीं पाता। सकारात्मक सोच जीवन में आशा और उत्साह में वृद्धि का कारण बनती है, ऐसी आशा जिसके बिना जीवन लगभग असंभव हो जाता है।

एक अच्छी जिन्दगी के लिए एक अच्छी सोच का होने बेहद जरूरी है और आपकी प्रबल सोच हकीकत बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेती है। “सपने देखने का अधिकार भी उन्ही को है जो उसे पूरा करने का साहस भी रखते है” । किसी ने सच्च कहा है कि "हम अपनी सोच के आधार पर जो चाहे वो बन सकते है"। कहते है कि "अगर दिल से चाहो तो भगवान् को भी पाया जा सकता है"। इसी तरह से "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है", यहाँ भी भाव उसी सोच और उसे क्रियान्वित करने का है। आप जितना बड़ा सोचते हो उसे हकीकत में बदलने के लिए आपको बलिदान् भी उतना ही बड़ा देना पड़ता है। आदमी वह नहीं है जो चेहरे से दिखता है, आदमी वह है जो उसकी सोच से दिखता है।

अपनी इस सोच को मैं कुछ इस तरह विराम देना चाहता हूँ कि "हम खुद अपने भाग्य के रचयता है" जैसी होगी अपनी सोच और जिस ओर पग बढ़ाएंगे वैसा ही परिणाम हम पाएंगे और वैसे ही बनजायेंगे। मुझे लगता है "यदि हम सदा आलस्य, अशांति, असफलता, शत्रुता, कटुता, हार, चिंता, दुःख, द्वेष, लालच, जलन, भूख, गरीबी, बीमारी, लड़ाई, झगड़ा इत्यादि के बारे में सोचेंगे तो हमारे सामने हमेशा यही आता रहेगा किन्तु यदि हम हमेशा जीत, ख़ुशी, सामंजस्य, जाग्रति, शांति, अमीरी, सफलता, मित्रता, शीतलता, विश्वास, प्रेम, सद्भाव, दया आदि के बारे में सोचेंगे तो हमको ज़िन्दगी में यही सब प्राप्त होगा" इसलिए जहाँ तक हो सके बड़ी सोच रखें, सकारात्मक और सुलझी हुई सोच रखें, दूसरों से जल्दी, अच्छा और कलात्मक सोचें और निर्णय लेने की क्षमता रखें, सोच के पंखों को खुले आसमान की परवाज़ दें, व्यवहार कुशल सोच रखें, माफ़ी देने की सोच रखें, आशावादी सोच रखें जो आपस में क्रियान्वित हो सके। यदि आप ऐसी सोच के मालिक होंगे तो आपका जीवन निश्चित रूप से सफल होगा और आप आकाश की ऊँचाइयों पर विचरण करने में सफल होंगे एवं जीवन में गौरवान्ति महसूस करेंगे । सकारात्मक सोच पर भरोसा करते हुए दिनचर्या के कामों को सरलता से निपटाया जा सकता है और नया व स्पष्ट जीवन आपकी प्रतीक्षा में होगा और आपके सामने ख़ुशियों का ठाठे मारता समुद्र होगा। आपकी सच्ची सकारात्मक सोच ही आपके जीवन की सफलता और असफलता का पर्याय है | ज़रा सोचें !!!

"अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे, जिसकी जैसी सोच थी उसने उतना ही पहचाना मुझे"

--- तुषार राज रस्तोगी ---

शुक्रवार, मई 09, 2014

I shall Not Hear the Nightingale

After a very long time i have read such fine novelty by Late. Mr. Khushwant Singh. One of the finest stories i have read so far told with such ease and simplicity. What a writer, what command over the language, bluntness, openness, situations, characters, narration and spellbinding story telling. 

The novel was all set to convey the story of a family where each family member have got their own independent thinking and ways of living yet they are bonded together with love, affection, respect, dedication, loyalty, tears, gratitude, attitude, and faith in Almighty. 

The loyalty of a magistrate towards the British Raj with the heart of a father for a son at home, the belief and affection of a mother and a wife, the generative, passionate, blooming hale of a young wife, the sincerety of a son and a husband, whimsical and flirtatious youth, the rake lover, opportunistic Infidelity, honesty of maid and servant, patriotism in human genes, obedience and truthfulness of a tamed dog and sympathies of an english man towards an indian family. Full on drama, suspense, action, thrill, sex, murder, plotting, crime, jail, politics, manliness, womanhood all this and lot more....excellently composed and swarmed in the form of a book. 

The character of Sarbhai is really very humble and devoted. Marvellous job done with her characterization. Complete portrait of Indian mother. I had tears in my eyes while reading about her demise in the chapter. Such a dignified and true portrait of Indian woman. 

Well...! Its the first novel that i have read by him and i can proudly say that i have an urge to read more by him. I am totally in love with his writing. The novel indeed is really very engaging. I completed it in 3 days. The more i read the more i crave to know more. Its been really an awesome experience. 

Will recommend it to everyone who like to read and also to those who don't like to read because after reading this they will start liking to read books.

शनिवार, मई 03, 2014

My Review for the book - Potluck

Potluck - Just finished reading this book. 

A bouquet of thoughts framed into stories featuring amazing collection of soulful exaggerations, sensible, intriguing, engaging, full swing drama, emotions, love, pain, relationships, memoirs, peace, devotion, adoration and so much more...that seems just plain truth inspite of being imagination. A book full of variety from all aspects of life which makes it a good read with a enjoyable but kindda serious starting... of course the book is DAMN GOOD !!!... Finally everything starts to interwine as you start reading the book and you just go mesmerised until you finish the book.. you won't be able to keep the book down once you start it and thats a guarantee!! 

I have just finished reading this book. Nicely woven basket of short stories. Seems totally realistic. Featurelessly narrated. Apposite characters. Enjoyable wordings. Congruous vocabulary.  After reading the stories i am having a feel that this book may have a potential to create buzz among the masses as the stories are close to reality and rings a ting in readers mind by reminding of similar incedents that may have happened with him in past. I wanted to give a detailed storywise review but due to scarcity of time avoiding it. So i will be giving complete analysis of the book in one go. 

The stories are really good. But just have one question in mind - why to start a book with an incident that ends up with such sad ending of blood and death ? Something jovial, happening, interesting, comical, and sparky must have been used to generate a fire in the minds of the reader and to develop excitement and interest in this book. Otherwise all other stories are quite decently told. Overall reading this book is a satisfying experience.

Some of my personal favourite stories that i enjoyed reading and liked most are : 

1. Pink - My Favourite Colour by Bhavini Merchant Dayal
2. The Peas, the Peck and the Pickles by Bhavini Merchant Dayal
3. A Weekend at Aspect Hall by Janki Thackersey
4. Ma's Waiting by Renu Balakrishnan
5. The Lady on the Plane by Richa S. Chatterjee
6. The Reunion by Richa S. Chatterjee

I will rate this book 3.5/5 stars. Also, will recommend this book to everyone those who really enjoy reading astute fiction and non fiction about life and relations.

गुरुवार, अप्रैल 24, 2014

रे मुसाफ़िर














रे मुसाफ़िर चलता ही जा -

नहीं तो राहों से चूक जायेगा
पहुंचेगा कहाँ, वहाँ जहाँ तू
अपने आप को भूल जाएगा
तू तनहा राह में रह जायेगा

जीवन है काँटों की झाड़ी
उलझ अटक रह जायेगा
आधी को संजोने खातिर
तू पूरा जीवन गंवाएगा

छूट जायेगा अपने से तू
भूल जायेगा जीवन को तू
रे मुसाफ़िर मंज़िल को भी
तू, फिर छोड़ कर जायेगा

इस दुनिया से तू बेगाना सा
तेरे ख्वाबों के रंग उड़ जायेंगे
सब राहे होंगी अनजानी तब
सबसे छूटेगा अपने से टूटेगा

मंजिल कभी खत्म ना हो तेरी
मंजिल से कभी तू भटके ना
यही प्रार्थना करता हूँ मैं
लिए हाथों में यह दीपशिखा

राह में जब अंधियारा छाएगा
निर्भय होकर तू चलता चल
यह दीपशिखा तुझको पल पल
तेरा मार्ग दिखलाएगी

रे मुसाफ़िर तू चलता चल
नहीं तो राह में रह जायेगा
पीछे मुड़कर ना देख ज़रा
वरना जीवन में पछतायेगा

रे मुसाफ़िर चलता ही जा....

मंगलवार, अप्रैल 08, 2014

आराधना - अंडे और दुविधा

“सुनो ना – कुछ तो बोलो ! आज तुम बात शुरू करो ना मैं ज्वाइन करती हूँ फिर | तुम कोई टॉपिक तो सेलेक्ट करो ना, प्लीज...” एक अबोध बालिका की तरह उसने राज से धीमे से फ़ोन पर यह कहा और बड़ी ही सरलता से उसके कानों तक अपनी मीठी आवाज़ में यह बात उस तक पहुंचा दी | 
“क्या यार ! रोज़ रोज़ यही होता है, मैं ही क्यों तुम क्यों नहीं ? तुम इतना जो पढ़ती हो उसका कुछ तो फायदा मिले | कभी कोई बात खुद भी शुरू किया करो ना | कोई टॉपिक खुद भी चुना करो कभी तुम | हमेशा ऐसे ही ख़ामोश बैठ जाया करती हो | मैं कोई स्कूल का हेडमास्टर या कोई रेडियो थोड़े ही हूँ जो बोलता रहूँ या बजता रहूँ सुबह शाम |” इतना सुनकर कुछ पल के लिए दोनों के बीच एक ख़ामोशी छा गई फिर थोड़ी देर के बाद राज को ही बोलना पड़ा – “ओह हो ! तुम्हारे नखरे – ज़रा कुछ कह दो, तुरंत साइलेंट मोड ऑन कर के बैठ जाती हो | ठीक है बात मान लेता हूँ, मैं ही शुरू करता हूँ | आज खाने पर बात करें क्या ? ईटिंग हैबिट्स - पर आज तक नहीं की है बात, बोलो तो - क्या कहती हो ?”

“अरे वाह ! एक दम नया टॉपिक है - बोलो कैसे शुरू करना है |” आराधना नए वार्तालाप के लिए बेहद उत्सुक हो रही थी | उसे इंतज़ार था राज द्वारा पूछे जाने वाले सवालों का और मन ही मन हर्षित हो रही थी | 

“तुम्हे क्या पसंद है वैसे ? सबसे अच्छा क्या लगता है ? बताओ सबसे अच्छी डिश कौनसी लगती है ? किस तरह का कुज़ीन तुम्हे आकर्षित करता है ? कौन से भोजन को देखकर तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है बताओ ?”

“अरे – हेल्लो – रुको भी | एक बार में एक सवाल करो यार | तुमने तो सवालों की ऐ.के – ४७ चला दी | अच्छा एक एक करने जवाब देती हूँ | ठीक है न – ह्म्म्म | वैसे तो मैं सब कुछ पसंद करती हूँ पर मुझे नॉन-वैज बहुत पसंद है | मैं ज़्यादातर यही खाती हूँ | अंडे, मछली, चिकन, मीट बहुत अच्छा लगता है | आई लव एग्स एंड चिकन | ओम्लेट्स, बॉयल्ड, फ्राइड, हाफ-फ्राइड मेरे फेवरेट हैं | मैं हर तरह का खाना खा लेती हूँ कोई परहेज़ नहीं रहा किसी चीज़ से कभी | कबाब, मटन-बिरियानी, चिल्ली-चिकन और भी हैं जिन्हें सोचकर ही मुंह में पानी आ जाता है | सर्दियों में तो मैं ज़्यादातर नॉन-वैज ही खाती हूँ | वैज भी पसंद आता है पर इतना नहीं बट आई एन्जॉय एवरीथिंग | अब आगे मेरा सुशी खाने का दिल है – एक बार तो ज़रूर ट्राय करना है लाइफ में | सुना है बहुत टेस्टी होता है |”

“ईशशशश – बस कर यार | इतना क्या खुश हो रही है यह सब अनाप शनाप खा कर | बेचारे मासूम जानवरों को मारकर उनके शवों को अपने शरीर के कब्रिस्तान में दफ़न कर रही है और इतना खिलखिला और चहक रही है | तेरा पेट नहीं है श्मशान घाट है जहाँ मासूमों की अंत्येष्टि होती है उदर की गर्मी में जलकर | मांसाहार खाने में कैसा मज़ा जिसका अपना कोई स्वाद ही नहीं | सारा स्वाद तो मसलों का है | अगर खाना है तो कच्चा खा कर बता | फिर बात करना | बात करती है - आई एन्जॉय नॉन वैज आ लॉट वाली | एर्र्र्रर्र्र्रर्र्र..... – आज से तुम्हे कब्रिस्तान ही बुलाऊंगा – सच्ची” - इतना कहकर राज चुप हो गया | 

“ओह हो – अपनी अपनी पसंद है – तुम वेजीटेरियन हो तो मैं क्या करूँ | सबका अपना अपना टेस्ट है यार | इसमें भड़कने वाली कौन सी बात है | ठीक है तुम्हे बुरा लगता है तो तुम्हारे सामने ऐसे खाने की बात नहीं किया करेंगे | ठीक है ना ? बोलो ?”

“अरे यार – फिर आगे कैसे होगा कुछ सोचा है ?” – राज ने संजीदा होकर सवाल किया 

“आगे – क्या आगे ? मतलब” – आराधना ने मज़ाहिया अंदाज़ में चुटकी लेते हुए पुछा 

“मेरे यहाँ ये सब नहीं चलता है | मुझे तो बदबू तक बर्दाश्त नहीं इन सब चीज़ों की | यक – एर्र्र्रर – ईश्श्श – ना बिलकुल भी नहीं, कभी भी नहीं | मैं तो शुद्ध वैष्णव हूँ |”

“मैं तो बिलकुल भी नहीं रह सकती इन सबके बिना | ठीक है मैं खुद बना लुंगी किसी को बनाने को नहीं बोलूंगी |” 

“बनाने को मतलब – अरे क्या बात कर रही हो | बवाल हो जायेगा | ये सब नहीं चलेगा मेरे साथ में | बहार खा लो ठीक है उसमें मुझे कोई परहेज़ नहीं पर घर में तो नहीं – ना बिलकुल भी नहीं | जब बदबू ही बर्दाश्त नहीं तब बनाना तो बहुत दूर की बात है हुज़ूर |” 

“मतलब मुझे अब अपना खान पान भी बदलना होगा क्या ? ना ऐसा तो कभी नहीं होगा | किसी के लिए मैं अपने आपको, अपनी आदतों को, अपनी इंडिपेंडेंट लाइफ स्टाइल और चोइसस को थोड़ी बदल सकती हूँ | नहीं बिलकुल भी नहीं | फिर तो तुम कहोगे की फ्रिज में भी नहीं रख सकती में अन्डो को | हैं न ? क्यों ? ठीक कहा ना मैंने ? फिर तो कुछ नहीं हो पायेगा कोई सोल्युशन नहीं इसका | एक आइडिया है – ऐसा करना – जब मैं अंडा बनाऊं तुम घर से बहार चले जाना – हा हा हा – और जब बन जाये तब वापस आ जाना – अन्डो की सुगंध भी नहीं सूंघने को मिलेगी और बहार ताज़ी हवा का आनंद भी मिल जायेगा लगे हाथों | क्यों जी, क्या कहते हो ? वैसे सच में यार क्या अब हमारे रिलेशन इन अन्डो का मोहताज हो गया है ? डू वे बोथ हैव तो डिपेंड ऑन दीज़ एग्स - सीरियसली - गिव मी आ ब्रेक यार | इतनी छोटी सी बात है देखा जायेगा टेंशन क्यों लेनी अभी से | ” इतना कहकर वो जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी | 

“आई ऍम सीरियस यार – तुझे मज़ाक सूझ रही है | कुछ तरीका तो सोचना पड़ेगा | अच्छा सुनो – अगर दो फ्रिज और दो रसोई बना लें तो कैसा रहेगा ?”

“अच्छा ! हाय ! सच्ची ! मेरे लिए ऐसा करोगे तुम ? सोच लो ?”

“नहीं यार – बात तो वहीं की वहीं रही – यह तरीका भी काम नहीं करेगा | घर में नहीं बन सकता – फॉर श्युर | बहार खाने वाली बात सही है पर घर में तो नहीं – ना सॉरी यार | तू सोच ना कुछ तरीका यार | कुछ तो होगा तेरे दिमाग में |” इतना कहकर राज ख़ामोश हो गया | 

“यार अंडे भी नहीं बना सकती क्या ? नॉनवैज बाहर से कभी ले आया करुँगी | पर अंडे तो बना ही सकती हूँ | किसी और को बनाने को थोड़ी बोलूंगी | आई रेस्पेक्ट योर फीलिंग्स एंड योर पॉइंट ऑफ़ व्यू दैट यू डॉन’ट लाइक इट – पर, मेरी बात भी तो समझो | ऐसा थोड़े ही होता है अब खाना थोड़ी छोड़ दूंगी और क्या यह बहुत बड़ी बात है जो इतना सीरियस डिस्कशन हो रहा है ? वी विल वर्क आउट ऑन दिस सम वे ऑर दी अदर | फिलहाल एन्जॉय लाइफ माय फ्रेंड |” 

“तेरे लिए नहीं यार मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | आज तक मेरे घर में ऐसा नहीं हुआ है | फिर अब कैसे | नहीं – मुझे तो ठीक नहीं लगता | तू ही कुछ सोच ना यार, बता सोच कर, कोई तरीका निकाल |” 

“फिर तो कुछ तरीका नहीं है जी, कुछ नहीं हो सकता | मैं तो किसी के लिए अपने आपको बदलने वाली नहीं हूँ चाहे कुछ भी हो जाये | जिसे जो सोचना है सोचे | यू डीसाईड योरसेल्फ़ | व्हाट डू यू वांट ?” इतना कह कर आराधना भी चुप हो गई | 

अब दोनों तरफ सन्नाटा था | ख़ामोशी के बीच दोनों की गर्म सांसें तेज़ी इस चुप्पी को भेद रही थीं और माहौल गरमा रहा था | दोनों सोच में पड़े हुए थे | राज सोच रहा था अगर अब ऐसे अंडे और मांसाहार शुरू हुआ तो आगे क्या होगा ? घर में यह सब होगा तो वो एडजस्ट कैसे करेगा ? क्या आगे की आने वाली पीढ़ी भी मांसाहारी बनेगी ? उफ़ नहीं – बड़ी दुविधा का समय है यह तो अब क्या उपाय है इसका, क्या रास्ता निकालूं ? काफी सोचने के बाद उसने फैंसला ले लिया – 

“ठीक है तुम नहीं बदल सकती हो तो दूसरा भी नहीं बदल सकता | जिस चीज़ की दुर्गन्ध तक बर्दाश्त नहीं उसका मेरी रसोई में बनना भी संभव नहीं फिर आगे चाहे कुछ भी हो देखा जायेगा | जिस बात के लिए आत्मा गवाही नहीं देती उसे तो मैं कभी भी नहीं करता और फिर यह तो एक तरह से जीव हत्या जैसा पाप है | एक तरह से मैं भी इसमें भागीदार हो जाऊंगा | ना कभी नहीं | अगर आगे कुछ लिखा होगा किस्मत में तो हो जायेगा नहीं होगा तो ना सही पर अपने संस्कारों से कभी भी समझौता नहीं | चाहे कुछ भी परिणाम हो फिर | जिसे सोचना हो वो सोच ले अब इस बारे में मैंने तो सोच लिया और निश्चित भी कर लिया | अब कोई संशय नहीं मेरे मन में इस बात को लेकर |” – इतना कहकर राज ने फ़ोन रख दिया | 

इन दोनों की कहानी में यह एक नया पेचीदा मोड़ आया है | क्या सच में यह एक बहुत बड़ी उलझन है ? क्या इस बात को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो जायेंगे ? क्या इस छोटी सी बात के लिए दोनों के बड़े से अहम् और हठ धर्मी आपस में टकरा जायेंगे ? क्या एक मांसाहारी और एक शाकाहारी साथ में रह पाएंगे ? क्या अलग अलग खान पान होने के कारण दोनों की दोस्ती और सम्बन्ध पर कोई फ़र्क पड़ेगा ? क्या राज और आराधना अपनी इस उलझन को सुलझा पाएंगे ? क्या इन दोनों की कहानी का नतीजा अंडो और ऑमलेट इन्ही के बीच झूलता रह जाएगी ? क्या कोई लाल पीली चटनी खाने से दोनों की रुकी हुई कृपा आगे बढ़ेगी ? क्या इन्हें इस समस्या का कोई समाधान मिल पायेगा ? मुख़्तलिफ़ खान पान होने के बाद भी क्या ये दोनों अपनी मंज़िल पा सकेंगे ? आगे क्या होगा फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता और ना ही किसी को पता है भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है | आगे क्या होगा इसका फैसला मैंने अपने पाठकों पर छोड़ा है | यदि आपको लगता है आपके पास इस बात का कोई अच्छा समाधान है तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मुझे बताएं | 

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

आराधना - माँ का ऑपरेशन

"ओ हो माँ ! रुको तो सही, मैं आ रही हूँ ना | ऐसी भी क्या जल्दी है ?"

"बेटी जल्दी नहीं है तेरे पापा के खाने का समय हो रहा है इसलिए खाना तैयार करना है | रात को उनकी दवा का समय हो जायेगा | अच्छा बता तू क्या खाएगी ?"

"नहीं माँ, आज से आप नहीं मैं खाना बनाउंगी आप आराम करो | वरना उस दिन की तरह फिर से हाथ ना जल जाये |"

"नहीं नहीं ! तू क्यों रसोई को देखती है तू अपनी पढ़ाई में दिल लगा | ये सब काम तेरे करने के नहीं हैं |"

आराधना जल्दी से रसोई में आई और माँ का हाथ पकड़ कर उनके कमरे में ले गई |

"अब बैठो यहाँ पर आराम से और कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है मेरे होते | जब तक तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन नहीं करवा देती घर के काम से तुम्हारी छुट्टी | मैं सब अकेले ही देख लुंगी | पापा को क्या पसंद है मुझे पता है | मैं सब संभाल लूंगी | चलो जल्दी से लेट जाओ और मैं आँखों में दवाई डाल देती हूँ | फिर आँखें बंद कर के आराम कर लेना कुछ देर | कल ऑपरेशन है इसलिए आज कोई भी टेंशन नहीं लेना वरना फिर से बी. पी. बढ़ जायेगा | "

आराधना एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता पिता की एकलौती संतान थी | संस्कारों से परिपूर्ण और मृदुभाषी | पिछले कुछ समय से उनका जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते बीत रहा था | पहले पिताजी की बीमारी और अब माँ की आँखों में काला मोतिया बिन्द | बहुत समय से तबियत ठीक ना होने के कारण उनके इलाज में देरी हो रही थी | जिसके चलते माँ को रोज़मर्रा के काम काज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था |

पर साहस की धनी आराधना भी इन मुश्किलों से डरकर पीछे हटने वालों में से नहीं थी | उसने भी फैसला कर लिया था के इस बरस माँ का इलाज करवा कर ही दम लेगी | रुपया रुपया कर के पैसे जोड़ रही थी | डॉक्टरों और नर्सिंग होम के चक्कर काट रही थी | पिता और माता के सिवा उसकी दुनिया में और कोई नहीं था | उसका तो छोटा सा संसार बस उन दोनों में ही था |

आराधना जल्दी से रसोई में गई और उसने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी | जल्दी जल्दी आटा गूंथ कर रोटियां बनायीं और बिजली की तेज़ी से खाना तयार कर दिया | रात को भोजन के उपरान्त उसने जल्दी जल्दी सब काम निपटाया और बिस्तर पर लेट गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी | सोचते सोचते ना जाने कब उसकी आँख लग गई |

पौ फटने पर जब अलार्म की आवाज़ सुनी तो हडबडा कर उठी और सुबह के काम निपटने लगी | आज माँ को लेकर जाना था | आज उनकी आँखों का ऑपरेशन होना था | बारह बजे का समय मुक़र्रर हुआ था | सुबह से ही माँ को समझाने में लगी थी |

"माँ आज सब कुछ ठीक से हो जायेगा | चिंता की कोई बात नहीं है | डॉक्टर बहुत अच्छे हैं | डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं |" उसके पिता भी उसका साथ दे रहे थे | अपनी बीमारी के बाद भी उनके जोश में कोई कमी नहीं थी | बोले, "आज तो मैं भी साथ चलूँगा |"

समय पर घर से सब साथ में निकले और नर्सिंग होम पहुँच गए | वहां पहले से ही बुकिंग हो रखी थी | पहुँचते ही उसके पापा डॉक्टर के कमरे में गए और उनसे अपने लिए एक बिस्तर का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की | बीमार होने के बाद भी उनकी हिम्मत की दाद देनी तो बनती थी | अपने दर्द को भुलाकर मुश्किल के समय में अपनी जीवन संगनी के साथ खड़े रहने का जो जज्बा उनके दिल में था उससे उनका प्यार की इन्तेहां का पता चलता था | डॉक्टर ने भी उनकी उम्र और तबियत को देखते हुए तुरंत एक बेड का इंतज़ाम करवा दिया जिससे वो आराम कर सकें |

सभी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद माँ के साथ उनके ऑपरेशन के इंतज़ार में बैठ गए | दिल में तरह तरह के सवाल उठ रहे थे | आराधना ने अपना मोबाइल फ़ोन निकला और इन्टरनेट चालू किया और अपने एक मित्र को सब कुछ बताया | मित्र ने भी उसका साथ देते हुए उसे शांत रहने को कहा और सब कुछ ठीक होने का आश्वासन दिया |

समय बीतता गया और दोनों के बीच बातें चलती रहीं | पल पल जो भी हो रहा था वो अपने मित्र को बताती जा रही थी | अपने दिल में उठते डर और धबराहट को बांटती जा रही थी | इस सबके बीच माँ ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर में चली गईं | आराधना और उसके पापा दोनों भगवान् से बस यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब कुछ सुचारू रूप से हो जाये | उधर आराधना का दोस्त भी उसे तसल्ली दे रहा था |

अंततः खबर आई कि ऑपरेशन सही तरह से हो गया है | इतना सुनते ही सबकी जान में जान आई और आराधना की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये | जिस काम के पूरा होने में दो वर्ष का समय लग गया था आज वो पूरा हो ही गया | उसने अपने दोस्त को फ़ोन पर बताया कि सब कुछ कुशल मंगल है | ऑपरेशन ठीक हो गया है | अपने दोस्त को ऐसे वक़्त में साथ रहने के लिए और उसकी हिम्मत बाँधने के लिए धन्यवाद् देकर उसने बताया अब वो माँ-पापा को लेकर घर जा रही है और फिर बाद में बात करेगी |