मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मूड बदल जायेगा

गुमां करते हैं कुछ लोग अपनी
अहमकाना हरकतों का
दम भरते हैं अपने झूठे
अहंकार के ऊँचे पर्वतों का
गुरूर करते हैं वो आज
चाँद कागज़ के पर्चों का
जहाँ आज वो खड़े हैं
वहां वक़्त मुझको भी
एक दिन ले जायेगा
जब किस्मत बदलेगी मेरी
वक़्त उनको बतलायेगा
हैं वो भी फ़कत इंसान ही
कोई ख़ुदा तो नहीं
दुआ करता है 'निर्जन'
हर क्षण
जल्द ही गॉड का भी
मूड बदल जायेगा

रविवार, फ़रवरी 10, 2013

दिल का विसर्जन हो गया

कुछ संजोये लम्हात मेरे
कुछ धुंधली सी तेरी यादें
कुछ पल साथ गुज़ारे जो
कुछ भूली बिसरी सी रातें
कुछ मीठी मीठी थीं बातें
कुछ गीत साथ में थे गाते
कुछ शिकवे थे हमने बाटें 
कुछ खटपट थीं तेरी मेरी
कुछ नाज़ुक थे अपने वादे
कुछ आँखों में गुज़रीं रातें 
कुछ नयनो की खुमारी वो
कुछ अदाएं मोहक प्यारी वो
कुछ सीने से गिरता आँचल
कुछ मदहोशी बिखरी हर पल
इन सबको साथ समेट के मैं
लहरों में स्वाह  कर आया हूँ
इस मौनी मावश को "निर्जन"
दिल का विसर्जन कर आया हूँ

वीणा

हे ईश्वर
तुम्हारी
स्नेह भरी
वीणा को
सुनकर
प्यासा मन
तृप्त हो जाता है
तृप्त हो जाती है
प्यास
जो एक
मरुस्थल पर
शीतल झरने
की तरह
बहते हैं
मेरे जीवन में
मेरी हर श्वाश में

ऐसों से साड्डी बग़ावत है

फिल्में बनाई ऐसी है क्यों
फाड़ देवांगे पोस्टर नू
बोल लिखे गाने के जो
भ्रष्ट करें दिमागां को
बंद करो कुड़ियों का बैंड
तां पावेंगे दिल दा चैन  
जो खोला तुमने है मुहं
तोड़ देवांगे दान्तं नू
लिखी किताब काहे को यूँ
जला देयांगे जद छपेगा तू
वैलेंटाइन मनायेगा क्यों
जंगलियों दे जूते खायेगा तू 
वो डायरेक्टर भद्दा है
साड्डी संस्कृति नाल धब्बा है
उसकी कलाकृति नंगी है
ओ सोच नाल फिरंगी है
कपडे वैसे पहने क्यों
हिंदी नारी अबला है तू
जात को तू तो मुल्ला है
भग पाकी रस्ता खुल्ला है
महाकुंभ में नहायेगा
राजनीति दिखलायेगा
पुतले रोज़ जलाएंगे
नौटंकी मचाएंगे
जूतों के हार चढ़ाएंगे
फूहड़ नज़रिया बतलायेंगे
घरों में घुसना जायज़ है
जद ब्रेकिंग न्यूज़ कवायत है
जड़ खरीद ग़ुलाम हैं ये
जीवन दा एही मुक़ाम है ये  
वेल्ले कितने लोग हैं वो 
जेड़े झक झक बक बक करदे यो 
फ़िजूल भौंकना आदत है
ऐसों से साड्डी बग़ावत है

शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग ३

आखिरकार  दिन, महीने और फिर साल गुज़रे और निज़ाम ऐसे ही चलता रहा | पंद्रह साल से ज्यादा बीत गए थे | सुधांशु २८ साल का हो गया था | आपसी मन मुटाव के चलते रिश्तों के बीच के एहसास भी सूली चढ़ चुके थे | लालाजी और समस्त परिवार एक तरफ और सुधांशु दूसरी तरफ | प्यार तो दिलों में बहुत था पर वक़्त ने उस प्यार को एक दुसरे तक कभी पहुँचने नहीं दिया | दुसरे शब्दों में कहूँ तो वक़्त ही 'मैं' बन गया था | और उस 'मैं' के रहते सब कुछ खत्म होता गया |

कहते हैं इंसान अच्छा या बुरा नहीं होता | जो होता है वक़्त होता है | सच कहूँ तो मुझे आज भी इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं है | इंसान तो इंसान है और उसका स्वाभाव उसके वश में है इसमें वक़्त का अच्छा और बुरा होने से क्या लेना देना | व्यव्हार इंसान के काबू में होना चाहियें चाहे फिर वक़्त कैसा भी हो | जिस व्यक्ति को अपने व्यव्हार और वाक्शक्ति पर नियंत्रण नहीं वो इन्सान कमज़ोर होता है | ऐसा मैं मानता हूँ ज़रूरी नहीं के हर कोई ऐसा ही सोचता हो |

सुधांशु की भी यही सोच था | उसका स्वभाव उसके वश में था और उसकी सभी इन्द्रियां भी | इसके चलते उसने एक चुप्पी साध ली थी | न वो बुरा कहना चाहता था न सुनना | न कोई शिकवा न किसी से कोई शिकायत | बस एक मौन था और दिल में दर्द का उमड़ता तूफ़ान जो उसे अन्दर ही अन्दर बहाए ले जा रहा था हर एक परिस्थिति और अपनों से दूर | करना बहुत कुछ चाहता था सबके लिए पर कद्र किसको है यह सोचता था | कर्मठता परिपूर्ण थी उसमें | हर एक कार्य में दक्ष था | अपने मतलब का हर काम करना वो भली भांति जानता था | आखिरकार लाला जी का खून था | चारों चूल चौकस और चौकन्ना | दिमाग तो उसका फेर्रारी से भी तेज़ दौड़ता था | अपने काम से और अपनी मेहनत से आज वो नौकरी में भी शिखर पर पहुँच चुका था | उसने बहुत ही कम उम्र में बहुत कुछ हासिल कर लिया था परन्तु दिल और हाथ एकदम ख़ाली थे | पैसा तो कमाया पर उसका मोह कभी नहीं किया | सारी कमाई दूसरों पर खर्च कर देता | एक पैसा न जोड़ता | घर में सभी के लिए कुछ न कुछ लेकर आता सिर्फ लालाजी और उनकी धर्म पत्नी के लिए नहीं | दिल तो बहुत करता पर कुछ ऐसा था जो उसे रोक देता | लालाजी ने भी तो आजतक ऐसा ही किया था | दिल तो उनका भी बहुत था करने को पर किया आज तक कुछ नहीं | दिलाया कुछ नहीं | 

इसी के चलते सुधांशु का रिश्ता पक्का हो गया | लड़की उसने स्वयं पसंद की थी | उसने लव मैरिज करने का फैसला किया था | परिवार भी जैसे तैसे मान गया था | परन्तु लालाजी सहमत न थे | फिर भी अनमने बुझे दिल से वो शादी में शामिल हुए | शादी हुई और सुधांशु के जीवन का एक नया दौर आरम्भ हुआ | शुरुवाती दिनों में सब कुछ अच्छा लग रहा था | परन्तु जीवन के कुछ और इम्तिहानो से और बेहद बुरे दौर से गुज़ारना अभी बाकि था | शादी के कुछ समय बाद ही खटपट शुरू हो गई | न विचार मिलते थे दोनों के न ही व्यव्हार और सोच | उसको धर्मपत्नी से और बीवी को उससे शिकायतें रहने लगी | झगडा बढ़ते बढ़ते परिवारों के बीच पहुँच गया | दिलों में खटास और मन मुटाव के चलते कलह और आरोप प्रत्यारोप अपने चरम सीमा पार कर गए | बुजुर्गों का अपमान और उपेक्षा उसके लिए आम बात थी । न आदर न सम्मान । रिश्ते उसके लिए सिर्फ उपयोग की वस्तु रह गए थे । वो नाम के लिए पुत्र-वधु तो बनी थी पर कुल-वधु कभी नहीं बन पाई । अपने जीवन में उसे किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं था । बड़ों से लिहाज़ और छोटों से तहज़ीब और अदब से किस तरह पेश आना चाहियें था ये उसकी परवरिश में शुमार नहीं था । अपनी बात किसी से न कहने की कवायत के चलते फासला बढ़ता जा रहा था | न बोले तुम न मैंने कुछ कहा ने एक दीवार खड़ी कर दी रिश्तों में | वो हर बात पीता और अन्दर ही अन्दर घुट घुट कर जीता रहता | काम पर जाता तो वहां से वापस आने का दिल न करता | घर में कलेश का माहौल रहने लगा था | उसका दम घुटने लगा था | रोज़ रोज़ वही चिक चिक | वही महाभारत रोज़ रोज़ आखिर कौन कब तक बर्दाश्त करेगा | इस सब के चलते उसके एक संतान ने जन्म लिया | संतान के आने से जीवन में फूलों की बरसात हो गई हो | मेघा की झड़ी लग गई | खुशिओं की बरखा बरस गई | जितना लगाव और मोह उसे अपनी संतान से था उतना किसी से भी नहीं था | अपनी माँ के बाद अगर वो किसी को सच में चाहता था और जान देता था वो उसकी संतान ही थी | बीवी के और उसके बीच के रिश्ते परस्पर बिगड़ रहे थे | किसी तरह वो अपनी शादी को बचने का प्रयास करता रहा | कभी प्यार की खातिर कभी बेटी की खातिर |

परन्तु कहते हैं न औरत चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे या फिर नरक | ये सब उसके हाथ में होता है | एक गलत इंसान और एक बिना सोचे लिए गया फैसला आपकी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए तबाह कर सकता है | सुधांशु के साथ भी यही हुआ | एक दिन उसके सारे भ्रम टूट गए | उसके भरोसे का खून हो गया | जिस रिश्ते को उसने प्यार का रिश्ता समझा था उस रिश्ते में दरअसल प्यार तो कभी था ही नहीं | जिसे वो जीवन संगिनी समझे बैठा था वो तो किसी और की ही थी | अपने जीवन के इस अध्याय के सच सामने पाकर वो बिखर गया | अन्दर से पूर्णतः टूट गया | पर कहता किस से सुनता कौन उसकी | कहना और शिकायत करना तो उसने सीखा ही नहीं था | इसलिए खामोश रहा | सहता रहा | ज़िन्दगी सबसे बड़ा आघात उसे तब लगा जिस दिन उसे मालूम हुआ के किसी और के लिए उसकी बीवी ने उसे छोड़ दिया और उसकी संतान को भी लेकर घर से चली गई | इसी कशमकश और उलझनों के चलते उनका अलगाव होने की नौबत आ गई | भरसक प्रयास किया रिश्ते को बचने का परन्तु नतीजा कुछ न निकला | बड़े बूढों का साया सर पर रहते हुए भी ऐसे दिन देखने को नसीब होंगे उसने कभी सोचा न था | आख़िरकार उसका घरोंदा टूट गया | संतान से भी विच्छेद हो गया | अब वो एक दम अकेला था | इसका सबसे ज्यादा दुःख लालाजी को ही था | उनके रहते उनके खून की ऐसी हालत वो बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे | पर अपने दिल की बात कहना कहाँ आता था उन्हें | अब सुधांशु एक दम खामोश हो चुका था | खून के आंसू पी पी कर उसके दिल के ज़ख्म भी सूख चुके थे | पर वो बहुत ही हौसलें वाला इंसान था | जीवन का ये वार भी सह गया | प्रभु की एक और लीला समझ कर उसने उनका धन्यवाद् दिया और कहा के शायद इसमें भी कोई अच्छाई ही होगी जो आपने मेरे साथ ऐसा किया | जीवन के तमाशे के किरदार तो आपने लिख कर भेजे हैं मैं उन्हें बदलने वाला कौन हूँ | भगवान् पर उसका भरोसा अटल था  | ऐसे झटकों से अक्सर लोग तबाह हो बिखर जाया करते हैं | पर वो संभल गया | अच्छे बुरे और अपने पराये की पहचान उसे भली भांति हो गई थी | पुराने लोग कह गए हैं के दर्द जब दिल के पार हो जाये और हद से गुज़र जाये तो होटों पर मुस्कान बन कर छलकता है | वही उसके साथ हुआ | अपने भीतर के दर्द से बचपन से लड़ते लड़ते वो इतना मज़बूत हो गया था के आज उसके सामने जो परिस्थिति थी वो उसके लिए कहीं न कहीं तयार था | दिल से कहूँ तो उसने अपने आपको इतनी बेहतरीन तरह से संभाला के आज उसके समस्त परिवार को भी उस पर नाज़ था |

उसके स्वाभाव में अचानक एक भव्य परिवर्तन हुआ | जो इंसान “एंग्री यंग मैन” के ख़िताब की पराकाष्ठा को भी पार कर चुका था, ख़ामोशी, अना, जिद, चिडचिड़ाहट, जवाबदेहि, मुन्ह्ज़ोरी, कडवाहट, बदजुबानी,  जिसके पर्यायवाची हुआ करते थे | जो प्राणी या तो बोलता ही नही था या बोलता था तो काटने को दौड़ता था आज वो एक दम शांत था | उसके स्वभाव में एक ठहराव था | अपने प्यार को दर्शाने का ये तरीका उसने कब और कैसे छोड़ दिया इससे सब अनजान थे | आज एक पूर्णतः बदला हुआ सुधांशु सबके समक्ष था | अब उसका व्यव्हार और आचरण एक दम उसके स्वाभाव के विपरीत था | शायद एक गलत फैसले और गलत रिश्ते के तजुर्बे ने उसे ये भी सिखा दिया था के अपने अपने ही होते हैं और पराये कभी अपने नहीं होते | किसी पर भरोसा बहुत सोच समझ कर करना चाहियें |

वो इतवार का दिन था | इन्ही सभी ख़यालों में डूबा सुधांशु चुप चाप अपने कमरे में बैठा था | अचानक किसी ने अपना हाथ उसके काँधे पर रखा और पुछा,

"बेटा, किस सोच में बैठा है ? सब ठीक है न | रात सोया नहीं क्या ? कुछ तकलीफ तो नहीं है ? मैं तेरे साथ हूँ और तेरे पास भी | डरता और घबराता क्यों है | चल उठ खड़ा हो | मेरे गले तो लग जा ज़रा | अरसा हो गया तुझे सीने से लगाये | दिल तरस गया तेरे दिल की धड़कन को महसूस करने के लिए | तेरे मन की आवाज़ सुनने के लिए कान तरस गए | ऐसी भी कैसी नाराजगी? चल आ आज बहार चलते हैं | साथ में घूमेंगे और छोले कुलचे खायेंगे | थोड़ी हवाखोरी भी हो जाएगी | क्या कहता है ? चलें ? तयार है न मेरे शेर ? बता |"  क्रमशः

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गुरुवार, फ़रवरी 07, 2013

टूटा फूटा जीवन है

टूटा फूटा जीवन है
बोझिल है तन मेरा
जीवन एक अँधेरा है
कब पाऊंगा सवेरा
दशा बुरी है शवासन की
प्रभु ध्यान करो कुछ मेरा
दशा सुधारो इस दीनन की
कल्याण करो तुम मेरा
ध्यायुं रोज़ मनाऊं तुमको
सुनो अर्ज़ इस मन की
अब तो करो कृपा परमेश्वर
डगर सुझाओ जीवन की
टूटा फूटा जीवन है...

बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग २

लालाजी भी आदत से बाज़ आने वालों में से नहीं थे | उन्होंने भी सुधांशु के गाल पर तमाचा रसीद करने में ज़रा भी वक़्त जाया नहीं किया | उसके कोमल मन पर बारम्बार ऐसे आघात उसके स्वाभाव को और ज्यादा विद्रोही बनाते जा रहे थे | उसको एहसास होने लगा था के उसके साथ गलत हो रहा है पर बताता कैसे और किसको | न कभी उसकी किसी ने सुनी, पढाई में अव्वल आने पर न कभी शाबाशी मिली न कोई इनाम, न कभी खुद ही घुमने गए न उसे घुमाने ले गए, कूप मंडूप से हर समय घर में पड़े रहो और बैठे रहो | वो आसमान का पंछी बनना चाहता था और यहाँ सब उसके पर कतरने में लगे थे | उसकी परवाज़ को पंख देने की जगह उसे पिंजड़े में क़ैद कर रहे थे | बस यही पीड़ा और कसक उसके जीवन में हमेशा हर पर चलती रहती थी | बड़े बुज़ुर्ग बिना बोले ही अपने खून की भाषा समझ लेते हैं | उसने किताबों और ज़िन्दगी में, फिल्मों में यही देखा था | पर यहाँ तो निज़ाम ही उल्टा था | इतने सब के बाद भी मन से वो आज भी बहुत कोमल और सोम्य था | उसके मन में कोई पाप कोई बैर भाव नहीं था | अगर कुछ था तो वो थे उसके सवाल और उसका दर्द जिन्हें समझने और बांटने वाला कोई नहीं था | अकेले में वो बहुत रोता, इन सभी बातों पर बहुत विचार करता, अपने आप से सवाल पूछता और खुद ही जवाब ढूँढने की कोशिश करता | पर एक कृष्ण विवर के सिवा उसके हाथ कुछ न लगता | सैकड़ों ख़यालों और सवालों से वो अकेला ही लड़ता रहता और जब थक जाता तो हताश होकर बैठ जाता | वो सिर्फ एक अकेला तनहा प्राणी था जो ये सब बचपन से बर्दाश्त किये जा रहा था | परन्तु किसी के सामने अपने दर्द को ज़ाहिर नहीं होने देता था | एक कठोर बाहरी अनावरण बनाता जा रहा था अपने चारों ओर सबको दिखने के लिए | वो कहते हैं न के यदि इंसान स्वाभाव से कोमल ह्रदय हो तो वो अपने को ऊपर से कठोर दिखाना शुरू कर देता है | बात बात पर झुंझला जाना, तुनक कर जवाब देना, अनाप शनाप जवाबदेही करना, हर समय चिडचिड़ाहट से भरा रहना, छोटी छोटी बातों पर गुस्से से आग बबूला हो जाना, खाने पर गुस्सा निकलना, कमरे में बंद रहना  और अपनी कमजोरियों को सवालों और बहानो में छिपाना उसकी सामान्य ज़िन्दगी में शामिल हो चुका था | मैं बहुत बुरा हूँ और सब मुझसे दूर रहो | मेरे पास आए तो मैं और बुरा बन कर दिखा दूंगा | उसे लगने लगा था के उसके नर्म स्वाभाव और विनर्म वाणी को सुनकर सब उसे दब्बू समझेंगे | उसका नाजायज़ फायदा उठाएंगे | क्योंकि आजकल का ज़माना ऐसा ही है | यदि आप चुप चाप सब कुछ सहते रहते हैं तो लोग आपको कमज़ोर समझने लगते हैं | और कहीं स्वभाववश आपने अपनी गलती मान ली या अपनी कमजोरी को दिखा दिया तो सभी आपके ऊपर राशन पानी लेकर चढ़ जाते हैं | एक गुस्सैल और कठोर वाणी वाले इन्सान से सभी डरते हैं और उसके समक्ष चूं भी नहीं करते या अपना रास्ता बदलकर कन्नी काट लेते हैं | उसने भी वही रास्ता अख्तियार किया | अपनी माँ से विरासत में मिले निर्मल और कोमल दिल को उसने कठोर और सक्थ कवच से ढांक दिया |

इसी कारणवश उसका कोई दोस्त भी न था | जो रवैया और बोलचाल उसकी घर में थी बहार भी वो वही दिखने लग गया था | उसे डर था के कहीं बहार भी उसके साथ वैसा ही बर्ताव न हो जैसा घर में होता था | जो थोड़े बहुत यार दोस्त बने भी थे उनको कभी लालाजी ने घर आने नहीं दिया तो धीरे धीरे उनका साथ भी छूट गया | दूसरा कारण यह भी था के वो स्वाभाव से मक्कार, चंट चालाक नहीं था और न ही ये सब बातें उसे पसंद आती | पर आजकल की दुनिया में यदि जीना है तो इन गुणों से आपको लैस होना स्वाभिक है क्योंकि किसी भी गंभीर, भावुक, जज्बाती, दयामय, कोमल ह्रदय और भावप्रधान जीवन जीने वाले प्राणी को आजकल इमोशनल फूल की उपाधि से तुरंत सम्मानित कर दिया जाता है | और लोग उनका फायदा अपने मतलब के लिए उठाते हैं | 

जैसे तैसे कर करा के सुधांशु ने स्कूल की पढाई तो पूरी कर ली परन्तु कॉलेज में जाने के स्थान पर उसने एक प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला ले लिया | वह जल्दी से जल्दी कोर्स कर के खुद कमाना चाहता था | अब तक उसके और लालाजी के बीच काफी फासलें आ चुके थे | वो ज़्यादातर अपने में खुश रहता बनिस्बत इसके के वो घर पर किसी से भी खुल कर बात करे | उसकी दुनिया अब उसके कमरे तक सिमट कर रह गई थी | पढने का शौक उसे बचपन से था, तो जो कुछ हाथ आता वो पढ़ डालता | उसकी छोटी सी दुनिया उसके सपनो के पास ज्यादा और अपनों के पास कम घूमती थी | उसके पास अपना एक छोटा सा निजी पुस्तकालय बन चुका था जिसमें नोवेल्स, साहित्य, कहानियां, कॉमिक्स, सामान्य ज्ञान और बहुत सी किताबों का कलेक्शन था | किताबों के साथ उसकी दोस्ती सबसे पहले उसकी माँ ने करवाई थी और तभी से वो उसकी सबसे करीब साथी थी | इस दौरान चंद दुसरे मित्रों से भी उसकी दोस्ती हो गई थी | वो उसके प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट की छात्र और छात्रा थे | उसके ग्रुप में एक लड़की थी जो उसे बेहद पसंद थी | उसने लालाजी से अपनी शादी की बात करने का फैसला किया परन्तु लालाजी के सामने आते उसकी बोलती बंद हो जाया करती थी | अपनी माँ से अपने हाल-ए-दिल को बयां तो कर लेता था पर अब उसे भी पता था के माँ उसकी किसी प्रकार की मदद नहीं कर सकती हैं सिर्फ इश्वर से प्रार्थना और सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दे सकती हैं | पर फिर भी माँ से बात कर के उसे बेहद सुकून मिलता था |

कोर्स ख़तम होते होते उसकी नौकरी लग चुकी थी | अपने खानदान में वो पहला लड़का था जो इतनी कम उम्र में नौकरी में गया था | उसके साथ के बाकि सारे बच्चे मौज मस्ती में लगे हुए थे या अपने बुजुर्गों के साथ उनका व्यवसाय सँभाल रहे थे | लालाजी ने कभी भी इस बारे में सोचा नहीं था | उन्हें बस परवाह थी तो अपनी और अपनी झूठी शान और आडम्बर की | अन्दर भले ही वो कितना भी चाहते हों परन्तु जब दिखने का वक़्त आता तो वो हमेशा फेल हो जाते | अपने पोते को कितना चाहते हैं कभी नहीं बता पाए और सब कुछ सही होते होते गलत हो जाया करता था | बात बनते बनते इतनी बिगड़ जाती की पूरे घर में तनाव हो जाता | इसमें काफी बड़ा हाथ उसकी दादी उर उनकी बेटियों का भी था | हर समय लालाजी को भड़काना और चुगली करके कान भरना यही उनका काम था |

नौकरी लगते ही सुधांशु ने अपने आपको उसमें झोंक दिया | मशीन की भाँती वो दिन में १८-२० घंटे काम में लगा रहता | कई कई दिन तो ऐसे होते के वो ऑफिस से घर ही न आता | जो थोडा बहुत समय वो घर पर बिताता था अब वो भी खत्म होता जा रहा था | खासकर लालाजी के साथ उसकी बातचीत पूर्णतः समाप्त ही हो गई थी | महीनो बीत जाया करते एक दुसरे की शक्ल देखे हुए | लगाव तो था परन्तु वो रोष और गुस्सा भी था जो इतने सालों से दिल में भरता जा रहा था | एक ही खून होने की सबसे बड़ी विडंबना यही थी के “मैं” दोनों में एक समान था | दोनों में से कोई भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहता था | लालाजी सोचते के सुधांशु आकर उसने पहले बात करेगा और सुधांशु भी जवान खून था और उसपर लालाजी का पोता | उसने भी सोच रखा था के जब तक लालाजी उससे सीने से लगा कर प्यार से बात नहीं करते और उसका हाल चाल नहीं पता करते तब तक वो भी बात नहीं करेगा | हर दफा मैं ही क्यों झुकूं | मेरी गलती क्या है | बस इसी अना के चलते जो छोटी सी डोर बची थी वो भी टूट गई | क्रमशः

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मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग १

दास्ताँ हमेशा दिल और प्यार से बनती है दिमाग से नहीं | जहाँ रिश्ते दिमाग से बुने जाते हैं वहां कभी कोई भी दास्ताँ पनप ही नहीं सकती | जहाँ दिल है वहां प्यार है और जहाँ प्यार है वहां कोई न कोई दास्ताँ ज़रूर होती है | प्यार को किसी भी पैमाने पर तौला नहीं जा सकता न की उसे साबित किया जा सकता है | प्यार है तो उसका दिखावा कभी नहीं हो सकता । प्यार तो एक एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और उस के चलते हर एक दास्ताँ को जन्म दिया जा सकता है | दिल के भीतर जितनी गहराई में प्यार होगा उतना ही मज़बूत रिश्ता भी होगा | ये कहानी भी कुछ ऐसे ही रिश्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिसमें प्यार की गहराई है, विद्रोह का दर्द है, सहन करने की पीड़ा है, अलगाव की वेदना है, मैं की भावना है, तकरार है, खून की खून के साथ बगावत है, अकेलेपन की व्यथा है, ख़ामोशी की कसक है, दिल की दुखन है और भी ऐसी बहुत सी भावनाएं हैं जिन्हें लेकर ये कहानी बुनी गई है | पर सबसे ऊपर है प्यार, विश्वास और एहतराम का जज़्बा जो इस कहानी का मूल स्तंभ है | जिसके चलते ये दास्ताँ लिखी गई है | उम्मीद करता हूँ आपको मेरी कोशिश अवश्य पसंद आएगी ।

पात्र:
लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल – दादा
सुधांशु अग्रवाल – पोता

 लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल नामचीन व्यापारी थे | थोक के बाज़ार में उनका बड़ा रुतबा था | चावल की आढ़त का बहुत अच्छा कारोबार था उनका | एक छोटा सा परिवार था जिसमें उनकी धर्मपत्नी, दो बेटियां, बेटा, बहु और पोता पोती थे | आज की कहानी में दो मुख्य किरदार शिरकत करने वाले हैं और वो है लालाजी खुद और उनका पोता सुधांशु | कहानी यहीं से आरम्भ होती है जिस दिन सुधांशु का जन्म हुआ था | बड़ी की मन्नतों, पूजा पाठ, हवन, तंत्र मंत्र और मुरादों के बाद लालाजी के दिल की हसरत पूरी हुई थी | बेटे की शादी के दस साल बाद उन्हें पोते का मुंह देखना नसीब हुआ था | जन्म के साथ ही उसका लालन पालन राजकुमारों के जैसे शुरू हो गया |

लालाजी की जान बस्ती थी उसमें | अगर पोता धीरे से छींक भी दे तो डाक्टरों की कतार लगा देते थे | काम पर निकलने से पहले पोते का मुंह देखते और शाम को लौटकर सबसे पहले उसको गोद में लेकर खिलाते | रात को सुलाते भी अपने पास थे | इतना लगाव था पोते के साथ के उसके बिना जीना असंभव था | रिश्ते नातेदार अक्सर लालाजी का मजाक बनाया करते और कहते, “लालाजी पोता है पोता, तोता नहीं जो पिंजरे में बंद कर के साथ ले चलोगे |” लालाजी भी ऐसी बातों को हंसी में उड़ा दिया करते और कहते, “जब तुम्हारे होंगे तब पूछुंगा |” बस लगता है तभी से लोगों की नज़र लगनी शुरू हो गई इस रिश्ते को |

समय गुज़रा सुधांशु बड़ा हुआ | लालाजी ने अपने रसूक के चलते बेहतरीन और एक बहुत ही उच्च कोटि के माने हुए स्कूल में पोते का दाखिला कराया | सुधांशु भी होशियार था | अव्वल नम्बर लाता और घर में सब को खुश कर देता | इस सब से लालाजी फूले न समाते परन्तु लालाजी की धर्मपत्नी का मिजाज़ कुछ अजीब था | एकलौता पोता होते हुए भी उनका झुकाव अपने नाती-नातिन की ओर ज्यादा था | धनि परिवार से होने की वजह से उनमें ज़बरदस्त मैं और गुरूर था | इसके चलते वो अपने समक्ष किसी को कुछ नहीं समझती थी | हालातों एवं स्तिथि परिस्थिति को अपने इरादों के अनुरूप कैसे कुशलता पूर्वक प्रयोग करना चाहियें और चालाकी से काम निकलना उन्हें भली भांति ज्ञात था | इसीलिए उन्हें सुधांशु से कुछ खास लगाव नहीं था | और वो उसे अपनाती भी तो कैसे क्योंकि वो उसकी माँ को ही दिल से नहीं लगा पाई थी | इस बात में लालाजी की बेटियां भी अपनी मांजी पर ही गईं थी | परन्तु लालाजी इस सब से दूर अपने उत्तराधिकारी के साथ मस्त थे |

सुधांशु के पिता अलग व्यवसाय में थे | मसरूफ़ियत के चलते वो घर परिवार को ज्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे | हालाँकि संतान वो उन्ही की थी पर उन्हें अभी तक अपनी इस ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं था | जिस तरह के गैर जिम्मेदाराना परवरिश वाले माहौल में वो बड़े हुए थे उनका रवैया भी ज़िन्दगी के प्रति वैसा ही था | बालक होने के पश्चात भी उनमें रत्ती भर बदलाव नहीं आया था |

सुधांशु की माताजी एक बहुत ही सभ्य परिवार से थी | उनके पिता भी बहुत रासुक वाले और नामचीन व्यापारियों में से थे | खानदानी लोग थे | थोक मंडी में उनका बहुत साख़ थी | लालाजी ने ये रिश्ता मुंह से मांग कर लिया था | परन्तु घर के माहौल और लोगों के रवैये की वजह से वो कुछ खास खुश नहीं रहती थी | अब उनका सारा जीवन अपने सुपुत्र सुधांशु और उसकी छोटी बेटी के इर्द गिर्द ही घूमता रहता था | वो उन दोनों के लिए ही जीती थी | चुप रहती और सब कुछ सहती । उफ़ तक न करतीं थी ।

सुधांशु के जीवन का हर फैसला लालाजी लिया करते थे | क्या खाना है, क्या पीना है, कहाँ जाना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है, क्या पहनना है, स्कूल का होमवर्क, पिकनिक पर जाना, किसको मित्र बनाना है किसको नहीं इत्यादि सब लालाजी देखा करते थे | उसे भी अपने दादा से बेहद लगाव था | लालाजी कड़क मिजाज़ तो थे पर प्यार भी करते थे | यदा कदा सुधांशु की धुलाई भी कर दिया करते थे | उसे मर मर कर मोती के जैसे लिखना उन्होंने ही सिखाया था । वरना आज उसकी लिखाई भी कीड़े मकोडो जैसी होती । अक्षरों को मोती सा टांकना उनके डंडे की ही दें था । लालाजी में प्यार तो बहुत था पर उससे जताने का तरीका सही नहीं था | बात बात पर कठोर हो जाना और कड़ा व्यव्हार करना धीरे धीरे उनकी आदत में शुमार होता जा रहा था | दूसरा गाली गलोंच से बोलचाल करना उनकी सबसे बड़ी कमी थी ।

ज्यों ज्यों सुधांशु बड़ा हो रहा था वैसे वैसे कठोरता का मापदंड बढ़ता जा रहा था | अब लालाजी का व्यव्हार बात बात पर कड़ा हो जाया करता था | छोटी से छोटी गलती पर भी सज़ा मिलना लाज़मी होता था | गाली गुप्तारी तो आम बात थी और सजी भी कैसी जिसे देख कर दिल दहल जाये | कई दफा तो सुधांशु को सारा सारा दिन मुर्गा बनाये रखते थे | न खाना न पानी वो बेचारा भी जैसे तैसे इस पीड़ा को बर्दाश्त करने लग गया था | अब उसके दिल में दादा के प्रति डर की भावना भी उत्पन्न होने लग गई थी | इतना होने के बावजूद प्यार अभी भी बरक़रार था | खेल कूद में भी लालाजी पीछे न थे | वो सुधांशु के साथ हर खेल खेला करते खासकर कैरम और शतरंज उनके प्रिये थे | कभी कभार वो ताश, लूडो या सांप सीढ़ी भी खेल लिया करते थे । पर उन दोनों का सबसे प्रिय खेल रमी होता था जिसे वो दोनों छुट्टियों में रात को घंटो खेल करते थे ।

सुधांशु अब छठी कक्षा में आ गया था | वो चीज़ों को और बर्ताव को समझने लगा था | लाला जी का बात बात पर टोकना, गाली देना और दंड देना उसे अखरने लगा था | लालाजी ने कभी भी प्यार से बैठकर उससे दो बातें नहीं की थी । परन्तु विद्रोह के बारे में सोचना उसके बस में नहीं था | लालाजी की सोच का आलम ये होता जा रहा था के वो कभी भी सुधांशु को अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करने देते थे | हर एक चीज़ उससे इतने विस्तार से बतलाते जिसे सुनते सुनते वो भी उकता जाता | बात बात पर उसे टोकना और अपनी सोच उस पर थोपने लगे थे । मन हे मन अब वो लालाजी से दूर जाने के बहाने सोचता रहता | इस् सब के चलते तीन वर्ष और बीत गए |

सुधांशु अब पंद्रह वर्ष का हो गया था | इस उम्र में बच्चों का खास ख्याल रखने की ज़रुरत होती है और उनके साथ एक दोस्ताना व्यव्हार करना लाज़मी हो जाता है | वे अपने जीवन में बदलाव की देहलीज़ पर कदम रख रहे होते हैं | बचपने से जवानी की तरफ उनका अब पहला कदम होता है | लालाजी और घर के बाकी लोग कभी भी इस बात को समझ नहीं पाए थे | सिर्फ सुधांशु की माँ इस बात को समझ रही थी पर घर में उनकी भी एक न चलती थी | बचपन की मार, अपमान, गालियाँ  और डांट डपट सह सह कर वो अपने अन्दर एक ज्वालामुखी पाले जा रहा था | पिटाई और मार के डर के साथ उसके मन में रोष भी जन्म ले चुका था । जितने जिद्दी और हठी लालाजी थे । उतना ही अड़ियल वो भी था । उसपर इतनी ज़िल्लत बर्दाश्त कर कर के वो ढीठ बनता जा रहा था । आखिर खून तो उन्ही का था । वो लालाजी से पीछे कैसे रहने वाला था । वो अपने बल पर अपनी सोच से खुद कुछ करना चाहता था । पर बात बात पर पाबन्दी, घर से बहार न निकलने देना और भेद भाव वाले व्यव्हार से वो पूर्णतः पक चुका था और एक दिन जिसका डर था वही हुआ | सुधांशु ने लालाजी को उल्टा जवाब पकड़ा दिया | क्रमशः

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All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental.

वर्षा

बांधे हाथ, खड़ा 'निर्जन' मैं
मांगू सब की खैर
भीग चुका, वर्षा से तन मन
बह गया सारा बैर

कोई छतरी, रोक सके न
पीड़ा तनहा दिल की
भीगा दी जिसने आत्मा मेरी
चुभन है जीवन भर की

तेज़ तूफानी हवाएं मेरे
दिल को भेदती जातीं
मौन खड़ी उम्मीदें मेरी
फ़कत देखती जातीं

गिरता है वर्षा का पानी
बन खारा आँखों से
दुविधा सारी दूर हो गई
आने वाली राहों से

खोले बाहें बुला रहा है
नया सवेरा मुझको
कहता है मुझसे ये हर पल
आगे बढ़ना है तुझको

निकल अँधेरे भूत से तू अब
भुला दे पिछली बातें
घुट घुट कर काटीं हैं तूने
न जाने कितनी रातें

बांधे हाथ, खड़ा 'निर्जन' मैं
मांगू सब की खैर
भीग चुका, वर्षा से तन मन
बह गया सारा बैर

सोमवार, फ़रवरी 04, 2013

नीति - अंतिम भाग

"प्रताप!!!" क्षुब्ध खड़ी नीति के अधरों से नाम निकल गया |

प्रताप भी उसको ऐसे सामने देखकर दंग रह गया |

तभी पीछे कैश काउंटर से आवाज़ आई, "मैडम पैसे"

"हाँ, अभी देती हूँ", कहते हुए उसने प्रताप की तरफ देखा | प्रताप ने तुरंत पांच रूपये पकड़ा दिए | अपने सामान के साथ उसने नीति का सामन भी उठा लिया और बहार आ गया |

नीति भी उसके पीछे पीछे सर झुकाए चली आई | बहार आकर प्रताप ने पुछा, "कॉफ़ी?"

उसने चुप चाप सर हिला कर रजामंदी दे दी और बाईक पर बैठ गई | प्रताप हाईवे के उसी ढ़ाबे पर पहुँच गया जहाँ कभी वो दोनों साथ बैठ कर घंटो गुज़ारा करते थे और चाय नाश्ता किया करते थे |

ढ़ाबे पर पहुँचते ही प्रताप ने आवाज़ लगाई, "प्राजी, दो चा स्पेशल होर मट्ठी ओह वि स्पेशल, वेखो आज कौन आया है"

ढ़ाबे का मालिक दोनों से भली भांति परिचित था | सालों का रिश्ता जो था चाय, मट्ठी और ढ़ाबे का |

"खुशामदीद, जी आया नु, आओ जी आओ | बैठो | अज चाँद किथों निकल आया बादशाहों ? वड्डे अरसे बाद | साड्डी याद किथों लाब्बाई ? होर दस्सो की हाल चाल ? सब तों चंगा ? ओये अज तो मैडम जी वि आए हैं | धन भाग हमारे जो तुस्सी पधारे |"

"चंगा प्राजी, अज वादिय सी चा पिलवा दो" प्रताप ने कहा

"बैठो जी बैठो | हुने आर्डर भिजवाता हूँ | ओये छोटू, टेबल पर कपडा मार, भैया दा आर्डर ले कर आ, छेती, स्पेशल चा मलाई मार के, गरम मट्ठी साथ में |"

इस सब के बीच नीति चुप चाप खड़ी पुराने दिनों में खो गई थी | प्रताप ने कहा, "बैठो" | नीति नज़रें झुका के बैठ गई |

प्रताप इस नीति को देख कर हैरान था | कोयल सी चहकने वाली, आज इतनी खामोश कैसे है | उसने हिम्मत कर के पुछा, "और कैसी हो ? यहाँ  कैसे ? हाउस में सब कैसे है ?"

यूँ तो नीति के पास कहने को बहुत कुछ था | पर आज जुबां लफ़्ज़ों का साथ नहीं दे पा रही थी | वो खामोश रही | मौन आज वो सब कुछ कह रहा था जो उसने कभी शब्दों में भी बयां न किया होगा | प्रताप समझ गया था कुछ दिक्कत है | मामला बहत गंभीर है |

ये सब चल ही रहा था के लड़का चाय और मट्ठी ले आया | प्रताप बोला, "अबे यार प्लेट नहीं लाया, जा दो प्लेट भी ले कर आ फटाफट |"

लड़का प्लेट रख कर चला गया | प्रताप ने गिलास से चाय प्लेट में कर दी और नीति के आगे खिसका दी | "

"शुरू करें ?"

नीति के आँखों से सैलाब उमड़ पड़ा | वो धीरे से रुंधे गले से बोली, "तुम्हे आज तक याद है ?"

प्रताप बीच में बात काटते हुए बोला, "प्लेट में चाय सुड़कने का मज़ा ही कुछ और है, क्यों ठीक कहा न ?"

नीति की नम आँखों से बहते आंसु की बूँद को छूती उसके होटों की मुस्कराहट और गालों की लाली ने स्वयं जवाब दे दिया था |

नीति थोड़ा रिलैक्स हुई और प्रताप को आपनी कहानी सुनानी आरम्भ की | उसके हर्फ़-ब-हर्फ़ प्रताप के दिल में नश्तर जैसे चुभ रहे थे और उसकी लाचारगी को भेद रहे थे | वो अपने को अन्दर ही अन्दर कोस रहा था | अगर उस समय वो पीछे नहीं हटा होता तो आज नीति की ये हालत न होती | अचानक नीति बोलते बोलते रुक गई | उसने पुछा, "क्या हुआ ?" प्रताप बोला, "कुछ नहीं | अब आगे क्या सोचा है ?"

नीति ने कहा, "कुछ नहीं, अगले बुधवार तलाक की आखरी तारीख है | उसके बाद सब कुछ खत्म | बेटी का दाखिला नए स्कूल में करवा दिया है | बस फिर मैं और बेटी ज़िन्दगी को फिर से जीना सीखेंगे | अच्छा सुनो, समय बहुत हो गया है | मेरी बेटी स्कूल से आती होगी | वापस चलें |"

प्रताप ने सर हिला दिया और दोनों निकल पड़े | प्रताप ने नीति को गली के बहार ही छोड़ दिया और निकल गया | रस्ते भर वो अब नीति के बारे में ही सोच रहा था और समय को धिक्कार रहा था | कोई इंसान समय के हाथों इनता मजबूर कैसे हो सकता है | एक वक़्त वो था जब वो मजबूर था आज नीति को भी समय ने उसी स्तिथि में ला पटका है | सारा समय वो बस यही सोचता रहा के कैसे वो नीति के जीवन में खुशियाँ वापस ला सकता है |

उधर नीति की भी यही हालत थी | वो सोच रही थी के उसे अपनी बातें प्रताप से नहीं बतानी चाहियें थी | उसका भी परिवार होगा | ऐसा न हो के मेरे कारण उसके जीवन में कोई तूफान खड़ा हो जाये | कितनी बेवक़ूफ़ हूँ मैं | जल्दी बाज़ी में वो प्रताप का नंबर लेना ही भूल गई थी | और उसके बारे में पूछना भी |

समय कैसे गुज़र गया पता भी न चला | तलक का दिन भी आ गया | नीति को सुबह ही कोर्ट के लिए निकलना था | वो घर से निकली और गली के बहार ऑटो ढूँढ रही थी के उसकी नज़र सड़क के कोने में खड़े प्रताप पर पड़ी | वो दंग रह गई के प्रताप वहां क्या कर रहा है ? प्रताप के पास पहुंची और कहा, "तुम?"

प्रताप बोला, "तुमने बताया था न के आज फाइनल हियरिंग है, तो मैं..." अभी वो बात खत्म भी न कर पाया था के नीति बोल पड़ी, "अभी नहीं, देरी हो रही है, बाद में बात करुँगी",  प्रताप की शर्ट की जेब से पेन निकल कर उसके हाथ पर अपना नंबर लिख दिया और ऑटो मैं बैठ कर चली गई |

तलक हुए अब एक महीना बीत गया था | नीति इस झटके से उबरने की कोशिश में उलझी पड़ी थी | न खाने का होश था न पीने का | बस बेटी और वो, दोनों एक दुसरे का सहारा थे | बाकि रिश्ते नातेदार भी थे पर वो भी कब तक साथ देते | सब अपने परिवार में मस्त थे | माता पिता के न होने पर अकेली लड़की का साथ कौन देता है | इस समाज में अकेली लड़की होना बहुत बड़ी सज़ा है | हर इंसान उसे कमज़ोर समझ कर उस पर हाथ रखने और उसके घर में घुसने की कोशिश करता है | उनकी निगाहों से साफ़ दिखाई देता के उनकी मंशा क्या है | ऐसे में नीति को अकेले इस सब का सामना करना सही में चुनौती भरा काम था वो भी एक चौदह बरस की बेटी के साथ |

अचानक एक दिन उसके मोबाइल की घंटी बजी | उसने फ़ोन उठाया और बोली, "हेल्लो कौन ?"

सामने से आवाज़ आई, "प्रताप, मिलना है अभी बोलो कहाँ और कब मैं लेने आ जाऊंगा | बहुत ज़रूरी है |"

जगह फाइनल हो गई और प्रताप उसे लेने आया और फिर दोनों इस्कोन मंदिर चले गए |  मंदिर में कदम रखते ही प्रताप ने नीति का हाथ पकड़ा और अन्दर ले गया | दर्शन किये, परिक्रमा लगाई और बहार आकर चबूतरे पर बैठ गए | इससे पहले नीति कुछ कह पाती प्रताप ने कह दिया, "मुझसे शादी करोगी ?"

नीति ने कहा,"मेरी बेटी है | वो मेरे से भी बुरे दौर से गुज़र रही है | चुपचाप रहती है | पढाई में भी पिछड़ रही है | गुमसुम रहती है | बहुत सहमी रहती है | खुलकर बात नहीं करती | कभी हंसती नहीं | किसी के साथ खेलती नहीं | घुलती मिलती नहीं | उससे पूछे बिना नहीं कह सकती कुछ भी | ये फैसला मेरी बेटी ही लेगी अगर लेना होगा तो | तुम्हे अपनाना शायद उसके लिए मुश्किल होगा | मुझे वक़्त चाहियें |"

प्रताप ने कहा, "बेटी से मिलना है | आज ही | मुझपर भरोसा है तो चलो अभी |"

नीति बिना कुछ बोले प्रताप को सुहानी से मिलाने ले गई | प्रताप का व्यक्तिव सही में आकर्षक था | उसकी सकारात्मक सोच और प्रभावी शख़्सियत सभी को उसका दीवाना बना देती थी | ये बात नीति को भली भांति ज्ञात थी | उस दिन उसने कई घंटे नीति और सुहानी के साथ बात करते बिताये |

रात को सुहानी ने कहा, "मम्मा, अंकल बहुत अच्छे हैं | आई लाइक हिम अ लौट | वो फिर कब आयेंगे ?" नीति हैरान थी जो लड़की आसानी से किसी से बात तक नहीं करती थी वो प्रताप को इतना पसंद कैसे करने लग गई | पर वो खुश थी क्योंकि वो भी यही चाहती थी |

फिर क्या था मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया | प्रताप ने उन्हें दुःख के दिनों से बहार आने में बहुत मदद की | अब तो सुहानी भी उससे बहुत प्यार करने लगी थी | उसकी हर बात मानती और जो भी वो समझाता उससे ध्यान से समझती और फॉलो करती | वो भी एक पिता की तरह उसका ख्याल रखता था | ऐसे करते कब साल गुज़र गया पता भी न चला | ज़िन्दगी की धुरी अब पटरी पर आने लगी थी |

एक दिन नीति ने दीपक को फ़ोन करके प्रताप के बारे में बताया | दीपक ने सुना तो बहुत खुश हुआ | वो भी दिल ही दिल में यही चाहता था के नीति अपनी ज़िन्दगी को दूसरा मौका दे और अगर इस पारी में प्रताप उसके साथ है तो सब ठीक ही होगा | वो भी इस फैसले में नीति के साथ था |

सुहानी का जन्म दिवस आया | प्रताप एक सुन्दर सा केक बनवा कर उसके लिए लाया और बहुत से खिलौने भी | शाम को सब साथ थे | नीति ने केक काटने से पहले सुहानी से पुछा के उसे अंकल का गिफ्ट और केक पसंद आया ? उसने जवाब में कहा, "हाँ पसंद आया पर उसे कुछ और भी चाहियें |"

प्रताप ने पुछा, "बोलो डिअर, क्या चाहियें ? तुम्हारे लिए सब कुछ हाज़िर है, बस आवाज़ करो"

सुहानी बोली, "आप सोच लो, जो बोलूंगी मिलेगा न, पक्का ?"

"हाँ मेरे चाँद बोलो तो" प्रताप ने उसे गले से लगा कर कहा

सुहानी ने धीरे से उसके कान में कहा, "क्या आप मेरे पापा बनेंगे?" ये बात सुनकर तो प्रताप की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | उसकी आँखें छलक गई | उसने सुहानी को कस कर अपनी बाहों में भर लिया और कहा, "ज़रूर बेटा, आप कहते हो तो ज़रूर पर मम्मी से तो पूछ लो | क्या वो रेडी हैं ?"

नीति चुप चाप खड़ी देख रही थे के इन दोनों के बीच आखिर क्या खिचड़ी पक रही है के तभी सुहानी ने पुछा, "मम्मी, अगर अंकल मेरे पापा बन जाएँ तो आपको कोई प्रॉब्लम तो नहीं है?" नीति के पास कोई जवाब न था वो सुहानी के सवाल पर बुत बनी खड़ी थी और प्रताप को देख रही थी | प्रताप चुप चाप खड़ा मुस्करा रहा था | नीति समझ नहीं पा रही थी आखिर ऐसा हुआ कैसे | क्या जादू चलाया | आज उसे कन्फर्म हो गया था के प्यार और सहजता में जो आकर्षण है वो जीवन में और किसी चीज़ में नहीं है | एक दिन प्रताप के प्यार ने उसे बदल के रख दिया था और आज उसकी बेटी को भी |

सुहानी बार बार पूछ रही थी और आख़िरकार नीति ने हामी में सर हिला दिया |  उसे अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य तोहफा मिल गया था और सुहानी को भी | वो बहुत खुश थी | प्रताप और नीति भी उसकी ख़ुशी से बहुत खुश थे |

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रविवार, फ़रवरी 03, 2013

प्यार की खातिर

रात बिस्तर पर लेट तो गया पर नींद कहाँ ओझल हो चुकि थी मालूम ही नहीं था | आँखों ही आँखों में रात बीते जा रही थी | करवटें बदल बदल कर चादर पर सिलवटें पड़े जा रही थीं । हजारों ख़यालों से लबरेज़ यह दिमाग दिल की दस्तक को बार बार दरकिनार किये जा रहा था के चल उठ जा और लिख डाल एक और कहानी | लिखे बिना तू सोने नहीं वाला | पर हिम्मत थी के जवाब दिए जा रही थी | दिमाग में जो १००० वाट के करंट की तेज़ी से नए नए किरदार घंटी बजाये जा रहे थे उनसे कब तक बचता | आख़िरकार दिल की जीत हुई | कुछ २ या २.३० का वक्फा रहा होगा | चीते की फुर्ती से उठा और लैपटॉप ऑन कर बैठ गया | नोटपैड खोला और लग गया ख़यालात को शब्दों में उतारने |

पात्र:
शरद - नायक
सारिका - नायिका

कुछ आकर्षक बात तो होती ही है उन बेपरवाह प्यार करने वाले लोगों में, असाधारण युगल जोड़ों में, अति काल्पनिक व्यक्तियों में और करिश्माई शख़्सियत वाले किरदारों में जिसके चलते वो अपनी अंदरूनी ताक़त और शक्ति के बल पर अपनी स्नेहपूर्ण सोच और अपने विचारों का जादू चला देते हैं | अपनी अदाओं, बातों और भाव भंगिमाओं से किसी भी चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं | अपनी सशक्त वाक् शक्ति के चलते सामने वाले में आत्मविश्वास और उम्मीद की किरण का संचार कर देते हैं | कुछ लोग सच में ऐसे ही होते हैं | वो अचानक से आपकी ज़िन्दगी में कदम रखते हैं और अपना सब कुछ आपको समर्पित कर आपके हो जाते हैं |  ऐसे लोगों के साथ जीवन भी जीवंत हो उठता है |

ऐसे लोग जीवन में एक ख़ास मुक़ाम रखते हैं, अच्छे लगते हैं, प्यारे लगते हैं और उन पर सब कुछ न्योछावर करने को हम सदैव तत्पर रहते हैं | आजकल की दुनिया में जहाँ स्वयं में डूबे प्राणी, वो दुनिया जहाँ देने की बनिस्बत लेने की मंशा रखने वाले लोग बसते हैं | उस संसार में हमें यदि ऐसे चाहने वाले दिलदारों से वास्ता पड़ जाये तो तुरंत ही उन्हें खुद से बाँध लें, बाहों में जकड़ लें, कसकर लिपट जाएँ, आग़ोश में समां जाएँ और ज़िन्दगी भर उनका साथ निभाएं |

आख़िरकार सारिका के जीवन में भी कोई ऐसा चाहने वाला, कोई ख़ास, उसके चेहरे पर ख़ुशी की लहर लाने वाला, उसके जीवन को सौभाग्य एवं आनंद से सराबोर करने वाला, उसके उन ख़ास पलों में जीवन के मज़े को कई गुना बढ़ने वाला उसके दिल पर दस्तक दे चुका था | शरद नाम था उसका | नाम की तरह उसका मिजाज़ भी एक दम माकूल था | हमेशा हँसता और मुस्कराता रहता और इश्क़ के मामले में अव्वल नंबर था | अब सारिका का सारा जीवन शरद और उसके प्यार के नाम लिखा जा चुका था | सारिका के दिल की हर धड़कन हर सांस सिर्फ उसके प्यार के लिए ही थी |

जाड़े जा रहे थे | गर्मियों का आगमन होने को था | दिन के सूरज से काफी तेज़ी छलक रही थी | वाष्पयुक्त फूटपाथ के फर्श पर हलचल करते और हड़बड़ी मचाते खुशनुमा लोगों की भीड़, सैलानीयों की भरमार और मसरूफ़ समुद्र-तट | यही नज़ारा था गोवा की उस शाम का | सारिका की पसंदीदा जगह | अपने प्यार के साथ वो भी इन पलों के आनंद में भाव विभोर हुए जा रही थी | उसके मुताबिक इस जगह से सुन्दर और कोई भी जगह पूरे संसार में नहीं थी | यहाँ का आकर्षण ही कुछ ऐसा है के जो एक बार आया वो यहीं का हो कर रह गया | इस सबके बीच सबसे सुन्दर बात ये थी के उसके साथ दुनिया का सबसे खूबसूरत, कामाकर्षक, जवां और रोबीला मर्द था | जो उस पर जान छिड़कता था | वो भी उसपर ऐसे ही मरती थी ।

हालाँकि ये ट्रिप किसी प्लान के तहत नहीं बना था | बस बैठे बैठे अचानक से ही शरद के दिमाग में कीड़ा उठा और साथ में समय व्यतीत करने का दिल हुआ और ऑनलाइन टिकटें बुक करवा दीं | सारिका के लिए ये बहुत पड़ा सरप्राईज़ था | दोनों को साथ समय गुज़ारे एक अरसा बीत चुका था | और वो दोनों साथ में कुछ रूमानी पल गुज़ारना चाहते थे | तो गोवा से अच्छी जगह और क्या होती | सारिका की ख़ुशी का ठिकाना न था |

वहां के जादुई समुंद्री तट, गीली रेत में रातों को साथ लेटना, खुली आँखों से हाथ में हाथ लिए सपने देखना, पानी के बहती लहरों से तलवों का भीगना, ठन्डे भीगे तलवों को एक दुसरे के पैर पर लगाना, भीगे जिस्म से निकलती गर्मी का एहसास महसूस करना, रात के चाँद की परछाई का समुन्द्र की लहरों में खो जाना, धीमी धीमी पुरवाई का चलना, हलकी मध्यम ठण्ड से रोंगटे खड़े हो जाना, एक दुसरे की बाहों में सिमट जाना, बाजारों का शोर, नए नए चेहरों का दीदार, जल क्रीड़ा का आनंद, मोटरसाइकिल पर चिपक कर बैठना, गलियों और बाजारों में एवई चक्कर लगाना, समुन्द्र में नावों और जहाजों का आना जाना देखना, नारियल पानी पीना, अच्छा खाना खाना, विंडो शौपिंग करना और भी ऐसे अनेकों उल जुलूल काम करने का आनंद साथ में एक्सपीरियंस करना  | ऐसा सुन्दर, प्यार करने का, एक दुसरे को करीब से जान पाने का समय, माहौल तथा मौका इससे बेहतर कहाँ मिलेगा |

दिनभर तट पर गर्म हवाएं चलती रहीं | सूरज भी नाक चिढ़ता हुआ अपनी चिलचिलाती गर्मी बिखेरता रहा | सारिका और शरद दोनों ही बीच क्लोथिंग में घूमते रहे | गर्मी कुछ ज्यादा ही थी | पसीने से दोनों लथ पथ हो रहे थे | फिर भी अटखेलियों से बाज़ नहीं आ रहे थे | एक दुसरे को बाहों में भरे, चूमते और मस्ती करते घूम रहे थे | फिर थक कर निढ़ाल होकर वही लेट गए और सन टैनिंग के मज़े लेने लगे | शरद भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आता था, कहता,

"डार्लिंग, इतना सन टैनिंग करोगी तो काली हो जाओगी"

सारिका भी चिढ़ कर जवाब पकड़ा देती के, "काली हो भी गई तो क्या हुआ, दिलवाली तो ऐसी ही रहूंगी | तुम्हे काली होने से परहेज़ है क्या ? काली से प्यार में कमी आ जाएगी क्या?"

शरद जोर के हंसा और बोला, "कल्लो के साथ तो और मज़ा आएगा | नज़र भी नहीं लगेगी किसी की | और काली बॉडी का तो अपना ही चार्म है ;)" वो नटखट अंदाज़ में उसकी कमर पर हाथ फेरता हुआ बोला"

"शट अप ! माइंड यौर हैंड्स मिस्टर" कहती हुई सारिका ने कामोत्तेजक मुस्कराहट के साथ शरद की बात की पुष्टि कर दी और थोडा और पास आकर लेट गई |

सूरज शिथिल पड़ रहा था और धीमे धीमे सागर की लहरों के बीच समा रहा था | समस्त सागर गुलाबी हो गया था और दूर बहती लहरें सितारों की भाँती चमकीली नज़र पड़ रहीं थी | चिड़ियाँ चेह्चाहती आसमान में उडती अपने घोंसलों को वापस लौट रही थीं | कुछ लोग सागर के किनारे पर जॉगिंग करने में लगे हुए थे | कुछ फिरंगी हाथों में हाथ डाले घूम रहे थे | कहीं कोई खोमचों पर खाने उड़ा रहे थे | तो कहीं मालिश वाले तेल लेकर घंटी बजाते आवाज़ दे रहे थे | कहीं बच्चे खेल रहे थे और कहीं अल्हड जवानियाँ अपने यौवन के शिखर पर मदहोश मदमस्त हो झूम रही थीं | सागर में उमड़ती लहरों की फुहारें दोनों के तन को भिगो रही थी | दोपहर से दोनों साथ में लेटे गर्मी, बातों, आसपास के लोगों और नज़रों का आनंद उठा रहे थे | ढलती शाम के साथ रूमानियत भी चरम पर आने लगी थी |

दोनों ने एक दुसरे की ओर देखा और नज़रों में बातचीत आरम्भ कर दी | शब्दों से ज्यादा निगाहों की भाषा समझा रहे थे दोनों एक दुसरे को |

शरद ने धीरे से पलकें बंद की और खोलीं, जानब पूछ रहे थे, होटल रूम वापस चलें क्या ?

सारिका ने नज़रें इधर उधर घुमा कर और धीरे से आँखें मूँद कर जवाब दिया, "नहीं अभी नहीं " |

फिर एक टकटकी बंधकर, शरद की आँखों में आँखें डालकर देखती रही, जैसे पूछ रही हो, "आज रातभर यहीं ऐसे ही लेटे रहते हैं, प्लीज़" |

शरद, मुस्करा दिया, आँखे मूंदी और भवें ऊपर करके हामी भर दी |

बदले में जवाब मुस्कान के साथ मिला और साथ में एक फ्लाइंग किस भी |

रात भर दोनों बीच पर ऐसे ही लेटे लेटे बातें करते रहे | कभी शब्दों में, कभी आँखों में और कभी इशारों में | दोनों बस यही सोच रहे थे के वो दोनों साथ हैं तो प्यार है , और प्यार है तभी वो दोनों आज साथ हैं | कुछ भी कहने के लिए इस पल से सुन्दर समय कोई दूसरा नहीं हो सकता था | शरद को गुमान था के उसकी लेडी लव,  लेडी लक, उसकी जान और सारिका की मासूम मुस्कान उसके साथ थी | टू पीस में लेटी वो कहर बरपा रही थी | छिटकती चांदनी रात में उसकी त्वचा कोमल, मदमस्त, और चमकदार लग रही थी | जैसे किसी जाम में शम्पैन उंडेल दी गई हो और उसके सितारे टिमटिम करते उकसा रहे हों के आओ और हमें अपने गले से नीचे उतार लो | सारी रात वो दोनों एक दुसरे की आँखों से मदिरापान करते रहे और गर्म साँसों के मदिरालय में मदहोश होते रहे | एक दुसरे से ख़ामोशी में उन्होंने वो सब कह दिया जो शायद वो कभी शब्दों में भी नहीं कह पाते | दोनों एक दुसरे की बातों में इतने डूब गए के सुबह कब हो गई पता ही न चला |

शाम की फ्लाइट से दोनों वापस घर आ गए और फिर वही भागदौड़ वाले जीवन का हिस्सा बन गए | पर वो तीन दिन जो दोनों ने एक दुसरे के साथ बिताये थे वो ज़िन्दगी के सबसे यादगार और आरामदेह पलों में से थे | उन छुट्टियों के बाद वो बेहद करीब और करीब आ गए थे | उनका रिश्ता और पक्का हो गया था | दोनों को एक दुसरे पर खुद से ज्यादा विश्वास कायम हो गया था | ये पल उन्हें हमेशा याद रहेंगे और इन छुट्टियों का एहसास उम्रभर साथ रहेगा | मौके ज़िन्दगी और भी बहुत से देगी पर जो रिश्ता इन छुट्टियों बना था वो ज्यों का त्यों रहेगा | आखिर ये जो भी किया था सिर्फ "प्यार की खातिर" ही तो किया था |

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शनिवार, फ़रवरी 02, 2013

नीति - भाग ३

देहलीज़ के उस पर एक दूसरी दुनिया थी | अनजान लोगों की भीड़ से भरी एक ऐसी दुनिया जिसकी परिकल्पना नीति ने कभी नहीं की थी | हर एक इंसान जो उस चौखट के पार खड़ा था एक नए रिश्ते का बोझ उस पर लादने तो तयार था | जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर नीति ने ग्रहप्रवेश कर तो लिया लेकिन उन नए चेहरों की भीड़ में वो अभी भी उसी एक चेहरे को तलाश रही थी जिसकी ख्वाइश उसने हमेशा से की थी | सभी रीती रिवाज़ों और रस्मों को पूरा करते काफी रात हो गई थी | थकान के मारे चूर हो चुकी नीति अपने कमरे में पहुँचते ही बिस्तर पर निढ़ाल हो गिर पड़ी और कब आँख लग गई पता ही न चला |

एक नई सुबह के साथ ब्याहता जीवन का प्रथम दिवस आरम्भ हुआ | रंजीत ने उठते ही चाय की फरमाइश कर दी | नई नवेली दुल्हन की तरह वो चुपचाप उठी और जल्दी से रसोई घर में जा पहुंची | ललिता देवी उसकी सास ने टेडी निगाहों से उसकी ओर देखा और तुनक कर बोली,

"नीति, नहाये बिना हमारे यहाँ रसोई घर में कोई कदम नहीं रखता | तुमने रसोई को अपवित्र कर दिया | बेटा अब बहार जाओ और महाराज से बोल दो क्या चाहियें |"

"महाराज, सुनते हो महाराज, गंगाजल छिड़क कर रसोई को पवित्र कर दो और नीति को जो चाहियें दे दो |"

नीति "जी मम्मी, आगे से ख्याल रखूंगी | मुझे मालूम नहीं था |" कहते हुए रसोई से बहार जाकर खड़ी हो गई |

महाराज ने चाय उसके हाथों में थमा दी और वो अपने कमरे में चली गई | उसे इस बात का अंदेशा भी न था के जो उसने अभी अभी देखा था वो सिर्फ ट्रेलर था पूरी पिक्चर तो अभी बाकी थी | धीरे धीरे उस पर किन मुसीबतों का पहाड़ टूटने वाला है इससे वो पूरी तरह से अनजान थी | वो बेचारी तो प्रताप की यादों को भुलाकर रंजीत की दुनिया बसाने की कोशिश में ही उलझ कर रह गई थी | समय गुज़रा और ज़िन्दगी रोजमर्राह के कामों के साथ शुरू होने और खत्म होने लग गई | सुसराल के पचास काम और सुसरालईयों की फरमाईशों के चलते अब उसे अपने लिए वक़्त निकलना मुश्किल होने लगा था | सुबह से शाम और शाम से रात कब हो जाती पता भी नहीं पड़ता था | सभी के मूड को ठीक करने और सभी को खुश करने की कोशिश में वो गधे की तरह दिन रात काम में लगी रहती | पर फिर भी कोई उससे सीधे मुंह बात तक न करता था |

नीति के ससुर चमन लाल बहुत ऊँचे रसूक वाले व्यक्ति थे | पर वो दो मुहें सांप थे | समाज में दिखाने का चेहरा अलग था और घर पर कुछ और ही कलाकारी होती थी  | ललिता देवी घर में कम और घर से बहार ज्यादा समय व्यतीत किया करती थी | उसे अपनी सोशल लाईफ से ही फुर्सत नहीं मिलती थी | नन्द इतनी नकचढ़ी के जिसका कुछ ठीक नहीं था | नंदोई भी अव्वल नंबर का छिछोरा था |

कुछ समय पश्चात नीति ने एक प्यारी और फूल सी बेटी को जन्म दिया | अभी वो पत्नी के रिश्ते के बोझ से उबर भी नहीं पाई थी के माँ के रिश्ते का भार भी उसके नाज़ुक कन्धों पर आ गया | बेटी का जन्म उसके लिए के नए तूफ़ान को साथ ले आया | बेटी के जन्म से वो बहुत खुश थी | एक नया खिलौना उसके जीवन में आ गया था | पर सुसराल वालों के भवें तन चुकी थीं | उस दिन के बाद फिर ज़ुल्मों को सहने और झेलने का एक नया दौर आरम्भ हुआ |

दिन रात सास - ससुर के ताने | नन्द की नक्शेबाज़ी झेल झेल कर उसे डिप्रेशन रहने लग गया | नंदोई की अश्लील फब्तियों और घिनौनी नज़रों से वो मानसिक तौर पर घ्रणित महसूस करने लग गई थी | रंजीत तक उसके साथ ठीक व्यव्हार नहीं करता था | कभी इस चीज़ के लिए तो कभी उस चीज़ के लिए उसे प्रताड़ना झेलनी पड़ती | बुरी बुरी गालियों का, तानो का और भेद भाव का सामना करना पड़ता | कभी शादी में लाये सामान को लेकर कभी शादी के खान पान को लेकर कुछ न कुछ उसे सुनने को मिलता ही रहता था | कितनी ही दफा उससे इन डायरेक्टली पैसों की मांग की गई | कई बार तो रंजीत ने उसपर हाथ तक छोड़ दिया | पर वो घर की इज्ज़त और बेटी के प्यार के कारण सब बर्दाश्त करती रहती | सब कुछ चुप चाप सहती रही |

इस सब के चलते उसे अगर कुछ सुकून के पल मिलते थे तो वो उसकी बेटी के साथ होते | सुहानी नाम रखा था उसका | और सच में वो बहुत ही सुहावनी थी | मनमोहक थी | गोरी चिट्टी पटाखा से नयन नक्श | उसके साथ समय सागर की लहरों की तरह कैसे बह जाता मालूम ही नहीं पड़ता था | उसको नहलाना, तयार करना, खाना खिलाना, दूध पिलाना, उसके साथ खेलना मस्ती करना, इस सब में वो अपने सारे दुःख दर्द भुला देती थी |

यदा कदा नीति को दीपक की याद भी आ जाया करती थी | हालाँकि वो उससे नाराज़ थी क्योंकि वो नीति की शादी में शामिल नहीं था पर प्यार आज भी बरक़रार था | प्यार का रिश्ता सब गिले शिकवों से बड़ा होता है | अपने दिल का हाल वो और किसी से बाँट भी नहीं सकती थी | जो बात वो दीपक को बतला सकती थी शायद माता पिता से भी न कर पाती | अपना हल-दिल और किसी से इतना खुल कर नहीं कह सकती थी |

दीपक को शुरुवात से ही नीति के इस फैसले पर ऐतराज़ था | वो ज़रा भी खुश नहीं था | उसने नीति को समझाया भी था पर विपरीत हालातों के चलते वही हुआ जो नियति को मंज़ूर था |  उसे न तो रंजीत ही पसंद था न उसका परिवार | यही कारण था के शादी के इतने सालों के बाद भी जो रिश्ता एक जीजा साले के बीच होना चाहियें था वो कभी बन ही नहीं पाया था | दीपक जब भी रंजीत से मिलता उससे एक खलनायक वाली फीलिंग आती और वो किसी तरह बहाना बना कर वहां से निकल जाया करता था | रंजीत की भी दीपक के सामने हवा संट होती थी क्योंकि उसकी शेखी बघारने की आदत दीपक के सामने कभी नहीं चलती थी | दीपक के जवाब सुनकर अक्सर सबके सामने उसकी झंड हो जाया करती थी | इसलिए वो भी दीपक के सामने संभल कर बात किया करता था |

समय पंख लगाये कैसे बीत जाता है पता ही नहीं पड़ता | ऐसे ही घुट घुट मरते जीते १४ साल गुज़र गए | बेटी बड़ी हो रही थी और सभी हालात समझने लगी थी | अब वो भी माँ के साथ देना चाहती थी | अपनी दादी, दादा और पिता की नाइंसाफी को देख कर वो भी सहमी रहती थी | पर उसके बस में भी कुछ न था | आखिर वो एक छोटी बच्ची ही तो थी |

एक दिन अन्याय की सभी सीमायें लाँघ दी गईं | सुसराल वालों ने किसी छोटी सी बात पर नीति को कमरे में बंद कर के मर पिटाई की | उसके कपड़े तलक फाड़ दिए | बेटी के सामने गला दबाने की प्रयास किया | वो तो नीति की ही हिम्मत थी के जो जैसे तैसे अपने और अपनी बेटी को बचाकर वहां से निकल भागी | उसने तुरंत दीपक को फ़ोन किया और आपबीती बयां की | दीपक ने पुलिस में शिकायत करने को कहा | पर वो डरी हुई थी | उसके साथ उसकी बेटी थी | ऐसे में दीपक ने उसका पूरा साथ दिया और उसे घर वापस ले आया |

नीति लौटकर अपने पिता के घर वापस तो आ गई | पर मायके में रहना आसान नहीं था | हज़ार लोग लाखों सवाल | पिताजी और माताजी की तबियत भी बिगड़ रही थी | अभी कुछ अरसा ही हुआ था उसे वहां रहते | अपने साथ हुए हादसे से वो उबर भी न पाई थी के एक और वज्रपात से वो चकना चूर हो गई | उसके माता पिता के अकस्मात् निधन ने उससे पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया | और कहते हैं न के भेड़िये हमेशा मौके की ताक में रहते हैं तो यहाँ भी ऐसा ही हुआ | उसके सुसराल वालों ने ऐसे समय पर उसके ज़ख्मों पर नमक और लाल मिर्ची रगड़ दी | उसके ऊपर तलक का केस कर दिया |

नीति का धैर्य भी अब जवाब देने लग गया था | उसे रातों को नींद नहीं आती थी | वो धीरे धीरे डिप्रेशन का शिकार होने लगी थी | हल पल चिड़िया के जैसे चहकने वाली लड़की अब बिस्तर से भी नहीं उठती थी | अँधेरे कमरे में अकेले बैठी रोती रहती | उसकी आँखें सूज कर लाल हो गई थी और उनके नीचे काले धब्बे उबरने लग गए थे | अब वो भी किस्मत से हार मान लेने को तयार थी  | पर भगवान् में उसकी आस्था ने उसे कभी ऐसा करने नहीं दिया | दीपक भी हमेशा उसके होसले को बढ़ावा देता रहता था | ऐसे समय में उसके पास सिर्फ यही कुछ सहारे थे | एक अपनी बेटी का प्यार, भगवन में उसकी अटूट भक्ति और दीपक का साथ उस पर भरोसा |

लेकिन साहब वो कहते हैं न भगवान् के घर देर है अंधेर नहीं | इन सब हालातों के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी | वो इतवार का दिन था | बेटी के साथ वो रिलायंस फ्रेश में साग सुब्ज़ी लेने गई थी | भीड़ काफी थी | उसने देखा के आलू के भाव बहुत कम हो गए हैं | तो सबसे पहले वही लेने आगे बढ़ गई | भीड़ में से उसने के व्यक्ति के कंधे पर थपथपाया और कहा,

"एक्स-क्यूज़ मी प्लीज़, क्या आप थोडा साइड देंगे ? मुझे भी आलू लेने हैं | वह धीरे से साइड हो गया और नीति ने सुब्ज़ी ली और काउंटर पर जाकर पेमेंट के लिए खड़ी हो गई | पेमेंट करते वक़्त काउंटर पर उससे पांच रूपये खुले मांगे | उसने पर्स देखा तो छुट्टे पैसे नहीं थे | उसने आस पास देखा शायद किसी के पास चेंज हो | अचानक उसे वही इंसान नज़र आया जिससे उसने पहले रिक्वेस्ट की थी | उसकी कमर नीति की तरफ थी | एक बार फिर होसला जुटा कर वो आगे बढ़ी और उसकी पीठ पर धीरे से हाथ लगाया और कहा,

" एक्स-क्यूज़ मी, सॉरी फॉर ट्रबल | कैन यू प्लीज़ हेल्प मी ? डू यू हैव चेंज फॉर टेन रुपीज़ ?"

वो व्यक्ति धीरे से मुड़ा | उसका मुस्कराता हुआ चेहरा अब नीति की ओर देख रहा था | नीति ने जैसे ही नज़र उठाकर उसकी तरफ देखा तो सन्न रह गई | वो प्रताप था | क्रमशः

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